रंगभूमि/५

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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चतारी के राजा महेन्द्र कुमारसिंह यौवनावस्था ही में अपनी कार्य-दक्षता और वंश-प्रतिष्ठा के कारण म्यूनिसिपैलिटी के प्रधान निर्वाचित हो गये थे। विचारशीलता उनके चरित्र का दिव्य गुण थी। रईसों की विलास-लोलुपता और सम्मान-प्रेम का उनके स्वभाव में लेश भी न था। बहुत ही सादे वस्त्र पहनते, ठाट-बाट से घृणा थी, और व्यसन तो उन्हें छू तक न गया था। घुड़दौड़, सिनेमा, थिएटर, राग-रङ्ग, सैर और शिकार, शतरंज या ताशबाज़ी से उन्हें कोई प्रयोजन न था। हाँ, अगर कुछ प्रेम था, तो उद्यान-सेवा से। वह नित्य घंटे-दो घंटे अपनी वाटिका में काम किया करते थे। बस, शेष समय नगर के निरीक्षण और नगर-संस्था के संचालन में व्यतीत करते थे। राज्याधिकारियों से वह बिला जरूरत बहुत कम मिलते थे। उनके प्रधानत्व में शहर के केवल उन्हीं भागों को सबसे अधिक महत्त्व न दिया जाता था, जहाँ हाकिमों के बँगले थे; नगर की अँधेरी गलियों और दुर्गन्धमय परनालों की सफाई सुविस्तृत सड़कों और सुरम्य विनोद-स्थानों की सफाई से कम आवश्यक न समझी जाती थी। इसी कारण हुक्काम उनसे खिंचे रहते थे, उन्हें दंभी और अभिमानी समझते थे। किंतु नगर के छोटे-से-छोटे मनुष्य को भी उनसे अभिमान या अविनय की शिकायत न थी। हर समय हरएक प्राणी से प्रसन्न-मुख मिलते थे। नियमों का उल्लंघन करने के लिए उन्हें जनता पर जुर्माना करने या अभियोग चलाने की बहुत कम जरूरत पड़ती थी। उनका प्रभाव और सद्भाव कठोर नीति को दबाये रखता था। वह अत्यंत मितभापो थे। वृद्धावस्था में मौन विचार-प्रौढ़ता का द्योतक होता है, और युवावस्था में विचार-दारिद्रय का; लेकिन राजा साहब का वाक-संयम इस धारणा को असत्य सिद्ध करता था। उनके मुँह से जो बात निकलती थी, विवेक और विचार से परिष्कृत होती थी। एक ऐश्वर्यशाली तालुकदार होने पर भी उनकी प्रवृत्ति साम्य-बाद की ओर थी। संभव है, यह उनके राजनीतिक सिद्धान्तों का फल हो; क्योंकि उनकी शिक्षा, उनका प्रभुत्व, उनकी परिस्थिति, उनका स्वार्थ, सब इस प्रवृत्ति के प्रतिकूल था; पर संयम और अभ्यास ने अब इसे उनके विचार-क्षेत्र से निकालकर उनके स्वभाव के अन्तर्गत कर दिया था। नगर के निर्वाचन क्षेत्रों के परिमार्जन में उन्होंने प्रमुख भाग लिया था; इसलिए शहर के अन्य रईस उनसे सावधान रहते थे। उनके विचार में राजा साहब का जनतावाद केवल उनकी अधिकार-रक्षा का साधन था। वह चिरकाल तक इस सम्मान्य पद का उपभोग करने के लिए यह आवरण धारण किये हुए थे। पत्रों में भी कभी-कभी इस पर टीकाएँ होती रहती थीं, किन्तु राजा साहब इनका प्रतिवाद करने में अपनी बुद्धि और समय का अपव्यय न करते थे। यशस्वी वनना उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था; पर वह खूब जानते थे कि इस महान् पद पर पहुँचने के लिए सेवा—और निःस्वार्थ सेवा—के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। [ ७४ ]
प्रातःकाल था। राजा साहब स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर नगर का निरीक्षण करने जा ही रहे थे कि इतने में मिस्टर जॉन सेवक का मुलाकाती कार्ड पहुँचा। जॉन सेवक का राज्याधिकारियों से ज्यादा मेल-जोल था, उनकी सिगरेट-कम्पनो के हिस्सेदार भी अधिकांश अधिकारी लोग थे। राजा साहब ने कम्पनी की नियमावली देखी थी; पर जान सेवक से उनकी कभी भेंट न हुई थी। दोनों को एक दूसरे पर वह अविश्वास था, जिसका आधार अफवाहों पर होता है। राजा साहब उन्हें खुशामदी और समय-सेवी समझते थे। जॉन सेवक को वह एक रहस्य प्रतीत होते थे। किन्तु राजा साहब कल इन्दु से मिलने गये थे। वहाँ सोफिया से उनकी भेंट हो गई थी। जॉन सेवक की कुछ चर्चा आ गई थी। उस समय से मि० सेवक के विषय में उनकी धारणा बहुत कुछ परिवर्तित हो गई थी। कार्ड पाते ही बाहर निकल आये, और जॉन सेवक से हाथ मिलाकर अपने दीवानखाने में ले गये। जॉन सेवक को वह किसी योगी की कुटी-सा मालूम हुआ, जहाँ अलंकार, सजावट का नाम भी न था। चंद कुर्सियों और एक मेज के सिवा वहाँ और कोई सामान न था। हाँ, कागजों और समाचार-पत्रों का एक ढेर मेज पर तितर- बितर पड़ा हुआ था।

हम किसी से मिलते ही अपनी सूक्ष्म बुद्धि से जान जाते हैं कि हमारे विषय में उसके क्या भाव हैं। मि० सेवक को एक क्षण तक मुँह खोलने का साहस न हुआ, कोई समयोचित भूमिका न सूझती थी। एक पृथ्वी से और दूसरा आकाश से इस अगम्य सागर को पार करने की सहायता माँग रहा था। राजा साहब को भूमिका तो सूझ गई थी-सोफी के देवोपम त्याग और सेवा की प्रशंसा से बढ़कर और कौन-सी भूमिका होती-किंतु कतिपय मनुष्यों को अपनी प्रशंसा सुनने से जितना संकोच होता है, उतना ही किसी दूसरे की प्रशंसा करने से होता है। जॉन सेवक में यह संकोच न था। वह निंदा और प्रशंसा, दोनों ही के करने में समान रूप से कुशल थे। बोले-"आपके दर्शनों की बहुत दिनों से इच्छा थी, लेकिन परिचय न होने के कारण न आ सकता था। और, साफ बात तो यह है कि (मुस्किराकर) आपके विषय में अधिकारियों के मुख से ऐसी-ऐसी बातें सुनता था, जो इस इच्छा को व्यक्त न होने देती थीं। लेकिन आपने निर्वाचन-क्षेत्रों को सुगम बनाने में जिस विशुद्ध देश-प्रेम का परिचय दिया है, उसने हाकिमों के मिथ्याक्षेपों की कलई खोल दी।"

अधिकारिवर्ग के मिथ्याक्षेपों की चर्चा करके जॉन सेवक ने अपने वाक्चातुर्य को सिद्ध कर दिया। राजा साहब की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए इससे सुलभ और कोई उपाय न था। राजा साहब को अधिकारियों से यही शिकायत थी, इसी के कारण उन्हें अपने कार्यों के संपादन में कठिनाई पड़ती थी, विलंब होता था, बाधाएँ उपस्थित होती थीं। बोले-"यह मेरा दुर्भाग्य है कि हुक्काम मुझ पर इतना अविश्वास करते हैं। मेरा अगर कोई अपराध है, तो इतना ही कि मैं जनता के लिए भी स्वास्थ्य और सुविधाओं को उतना ही आवश्यक समझता हूँ, जितना हुक्काम और रईसों के लिए।" [ ७५ ]मिस्टर सेवक-"महाशय, इन लोगों के दिमाग की कुछ न पूछिए। संसार इनके उपभोग के लिए है। और किसी को इसमें जीवित रहने का भी अधिकार नहीं है। जो माणी इनके द्वार पर अपना मस्तक न घिसे, वह अपवादी है, अशिष्ट है, राजद्रोही है; और जिस प्राणी में राष्ट्रीयता का लेश-मात्र भी आमास हो-विशेषतः वह, जो यहाँ कला-कोशल और व्यवसाय को पुनर्जीवित करना चाहता हो, दंडनीय है। राष्ट्र सेवा इनकी दृष्टि में सबसे अधम पाप है। आपने मेरे सिगरेट के कारखाने की नियमावली तो देखी होगी?”

महेंद्र०-"जी हाँ, देखी थी।"

जॉन सेवक-"नियमावली का निकलना कहिए कि एक सिरे से अधिकारिवर्ग की निगाहें मुझसे फिर गई। मैं उनका कृपा-भाजन था, कितने ही अधिकारियों से मेरी मैत्री थी। किन्तु उसी दिन से मैं उनकी बिरादरी से टाट-बाहर कर दिया गया, मेरा हुक्का-पानी बंद हो गया। उनकी देखा-देखी हिन्दुस्थानी हुकाम और रईसों ने भी आनाकानी शुरू की। अब मैं उन लोगों की दृष्टि में शैतान से भी ज्यादा भयंकर हूँ।"

इतनी लंबी भूमिका के बाद जॉन सेवक अपने मतलब पर आये। बहुत सकुचाते हुए अपना उद्देश्य प्रकट किया। राजा साहब मानव-चरित्र के ज्ञाता थे, बने हुए तिलक-धारियों को खूब पहचानते थे। उन्हें मुगालता देना आसान न था। किंतु समस्या ऐसी आ पड़ी थी कि उन्हें अपनो धर्म-रक्षा के हेतु अविचार की शरण लेनी पड़ी। किसी दूसरे अवसर पर वह इस प्रस्ताव की ओर आँख उठाकर भी न देखते। एक दीन-दुर्बल अंधे की भूमि को, जो उसके जीवन का एकमात्र आधार हो, उसके कब्जे से निकालकर एक व्यवसायी को दे देना उनके सिद्धांत के विरुद्ध था। पर आज पहली बार उन्हें अपने नियम को ताक पर रखना पड़ा। यह जानते हुए कि मिस सोफिया ने उनके एक निकटतम संबंधी की प्राण-रक्षा की है, यह जानते हुए कि जॉन सेवक के साथ सद्व्यवहार करना कुँवर भरतसिंह को एक भारी ऋण से मुक्त कर देगा, वह इस प्रस्ताव की अवहेलना न कर सकते थे। कृतज्ञता हमसे बह सब कुछ करा लेती है, जो नियम की दृष्टि में त्याज्य है। यह वह चक्की है, जो हमारे सिद्धांतों और नियमों को पीस डालती है। आदमी जितना ही निःस्पृह होता है, उपकार का बोझ उसे उतना ही असह्य होता है। राजा साहब ने इस मामले को जॉन सेवक के इच्छानुसार तय कर देने का वचन दिया, और मिस्टर सेवक अपनी सफलता पर फूले हुए घर आये।

स्त्री ने पूछा-"क्या तय कर आये?"

जॉन सेवक-"वही, जो तय करने गया था।"

स्त्री-"शुक्र है, मुझे आशा न थी।"

जॉन सेवक-"यह सब सोफी के एहसान की बरकत है। नहीं तो यह महाशय सीधे मुँह बात करनेवाले न थे। यह उसी के आत्मसमर्पण की शक्ति है, जिसने महेंद्र-कुमारसिंह-जैसे अभिमानी और बेमुरौबत आदमी को नीचा दिखा दिया। ऐसे तपाक से
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मिले, मानों में उनका पुराना दोस्त हूँ। यह असाध्य कार्य था, और इस सफलता के लिए मैं सोफी का आभारी हूँ।"

मिसेज सेवक-(क्रुद्ध होकर) "तो तुम जाकर उसे लिया लाओ, मैंने तो मना नहीं किया है। मुझे ऐसी बातें क्यों बार-बार सुनाते हो? मैं तो अगर प्यासों मरती भी रहूँगी, तो उससे पानी न माँगूँगी। मुझे लल्लो-चप्पो नहीं आती। जो मन में है, वहीं मुख में है। अगर वह खुदा से मुँह फेरकर अपनी टेक पर दृढ़ रह सकती है, तो मैं अपने ईमान पर दृढ़ रहते हुए क्यों उसकी खुशामद करूँ?"

प्रभु सेवक नित्य एक बार सोफिया से मिलने जाया करता था। कुँवर साहब और विनय, दोनों ही की विनयशीलता और शालीनता ने उसे मंत्र-मुग्ध कर दिया था। कुँवर साहब गुणज्ञ थे। उन्होंने पहले ही दिन, एक ही निगाह में, ताड़ लिया कि यह साधारण बुद्धि का युवक नहीं है। उन पर शीघ्र ही प्रकट हो गया कि इसकी स्वाभाविक रूचि साहित्य और दर्शन की ओर है। वाणिज्य और व्यापार से इसे उतनी ही भक्ति है, जितनी विनय को जमींदारी से। इसलिए वह प्रभु सेवक से प्रायः साहित्य ओर काव्य आदि विषयों पर वार्तालाप किया करते थे। वह उसकी प्रवृत्तियों को राष्ट्रीयता के भावों से अलंकृत कर देना चाहते थे। प्रभु सेवक को भी ज्ञात हो गया कि यह महाशय काव्य-कला के मर्मज्ञ हैं। इनसे उसे वह स्नेह हो गया था, जो कवियों को रसिक जनों से हुआ करता है। उसने इन्हें अपनी कई काव्य-रचनाएँ सुनाई थीं, और इनको उदार अभ्यर्थ-नाओं से उस पर एक नशा-सा छाया रहता था। वह हर वक्त रचना-विचार में निमग्न रहता। वह शंका और नैराश्य, जो प्रायः नवीन साहित्य सेवियों को अपनी रचनाओं के प्रचार और सम्मान के विषय में हुआ करता है, कुँवर साहब के प्रोत्साहन के कारण विश्वास और उत्साह के रूप में परिवर्तित हो गया था। वहीं प्रभु सेवक, जो पहले हफ्तों कम न उठाता था, अब एक-एक दिन में कई कविताएँ रच डालता। उसके भावोद्गारों में सरिता के-मे प्रवाह और वाहुल्य का आविर्भाव हो गया था। इस समय वह बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। जॉन सेवक को आते देखकर वहाँ आया कि देखूँ , क्या खबर लाये हैं। जमीन के मिलने में जो कठिनाइयाँ उपस्थित हो गई थीं, उनगे उभे आगा हो गई थी कि कदाचित् कुछ दिनों तक इस बंधन में न फंसना पड़े। जन सेवक की सफलता ने बद आशा भंग कर दी। मन की इस दशा में माता के अंतिम शब्द उसे बहुत अप्रिय मालूम हुए। बोला-"मामा,अगर आपका विचार है कि सोफी वही निरा- दर और अपमान सह रही है, और उकताकर स्वयं चली आवेगी, तो आप बड़ी भूल कर रही हैं। सोफी अगर वहाँ बरसों रहे, तो भी वे लोग उसका गला न छोड़ेंगे। मैंने इतने उदार और शीलवान् प्राणी ही नहीं देखे। हाँ, सोफी का आत्माभिमान इसे स्वीकार न करेगा कि वह चिरकाल तक उनके आतिय ओर सज्जनता का उपभोग करे। इन दो सप्ताहों में वह जितनी क्षीण हो गई है, उतनी महीनों बीमार रहकर भी न हो सकती थी। उसे संसार के सब सुख प्राप्त है; किंतु जैसे कोई शीत-प्रधान देश का पौदा उण देश में
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आकर अनेकों यत्न करने पर भी दिन-दिन सूखता जाता है, वैसी ही दशा उसकी भी हो गई है। उसे रात-दिन यही चिंता व्याप्त रहती है कि कहाँ जाऊँ, क्या करूँ? अगर आपने जल्द उसे वहाँ से बुला न लिया, तो आपको पछताना पड़ेगा। वह आजकल बौद्ध और जैन-ग्रंथों को देखा करती है, और मुझे आश्चर्य न होगा, अगर वह हमसे सदा के लिए छूट जाय।"

जॉन सेवक-"तुम तो रोज वहाँ जाते हो, क्यों अपने साथ नहीं लाते?"

मिसेज सेवक-"मुझे इसकी चिंता नहीं है। प्रभु मसीह का द्रोही मेरे यहाँ आश्रय नहीं पा सकता।"

प्रभु सेवक-"गिरजे न जाना ही अगर प्रभु मसीह का द्रोही बनना है, तो लीजिए, आज से मैं भी गिरजे न जाऊँगा। निकाल दीजिए मुझे भी घर से।”

मिसेज सेवक-(रोकर) "तो यहाँ मेरा ही क्या रखा है। अगर मैं ही विष की गाँठ हूँ, तो मैं ही मुँह में कालिख लगाकर क्यों न निकल जाऊँ। तुम और सोफी आराम से रहो, मेरा भी खुदा मालिक है।'

जॉन सेवक-"प्रभु, तुम मेरे सामने अपनी माँ का निरादर नहीं कर सकते।"

प्रभु सेवक-"खुदा न करे, मैं अपनी मां का निरादर करूँ। लेकिन मैं दिखावे के धर्म के लिए अपनी आत्मा पर यह अत्याचार न होने दूँगा। आप लोगों की नाराजी के खौफ से अब तक मैंने इस विषय में कभी मुँह नहीं खोला। लेकिन जब देखता हूँ कि और किसी बात में तो धर्म की परवा नहीं की जाती, और सारा धर्मातुराग दिखावे के धर्म पर ही किया जा रहा है, तो मुझे संदेह होने लगता है कि इसका तात्पर्य कुछ और तो नहीं।"

जॉन सेवक-"तुमने किस बात में मुझे धर्म के विरुद्ध आचरण करते देखा?"

प्रभु सेवक-"सैकड़ों ही बातें हैं, एक हो, तो कहूँ।”

जॉन सेवक-"नहीं, एक ही बतलाओ।"

प्रभु सेवक-"उस बेकस अंधे की जमीन पर कब्जा करने के लिए आप जिन साधनों का उपयोग कर रहे हैं, क्या वे धर्म-संगत हैं? धर्म का अंत वहीं हो गया, जब उसने कह दिया कि मैं अपनी जमीन किसी तरह न दूँगा। अब कानूनी विधानों से, कूटनीति से, धमकियों से अपना मतलब निकालना आपको धर्म-संगत मालूम होता हो; पर मुझे तो वह सर्वथा अधर्म और अन्याय ही प्रतीत होता है।"

जॉन सेवक-"तुम इस वक्त अपने होश में नहीं हो, मैं तुमसे वाद-विवाद नहीं करना चाहता। पहले जाकर शांत हो आओ, फिर मैं तुम्हें इसका उत्तर दूँगा।"

प्रभु सेवक क्रोध से भरा हुआ अपने कमरे में आया और सोचने लगा कि क्या करूँ। यहाँ तक उसका सत्याग्रह शब्दों ही तक सीमित था, अब उसके क्रियात्मक होने का अवसर आ गया; पर क्रियात्मक शक्ति का उसके चरित्र में एकमात्र अभाव था। इस उद्विग्न दशा में वह कभी एक कोट पहनता, कभी उसे उतारकर दूसरा पहनता, कभी कमरे
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के बाहर चला जाता, कभी अंदर आ जाता। सहसा जॉन सेवक आकर बैठ गये, और गंभीर भाव से बोले-“प्रभु, आज तुम्हारा आवेश देखकर मुझे जितना दुःख हुआ है, उससे कहीं अधिक चिंता हुई है। मुझे अब तक तुम्हारी व्यावहारिक बुद्धि पर विश्वास था; पर अब वह विश्वास उठ गया। मुझे निश्चय था कि तुम जीवन और धर्म के सम्बन्ध को भली भाँति समझते हो; पर अब ज्ञात हुआ कि सोफी और अपनी माता की भाँति तुम भी भ्रम में पड़े हुए हो। क्या तुम समझते हो कि मैं और मुझ-जैसे और हजारों आदमी, जो नित्य गिरजे जाते हैं, भजन गाते हैं, आँखें बन्द करके ईश-प्रार्थना करते हैं, धर्मानुराग में डूबे हुए हैं? कदापि नहीं। अगर अब तक तुम्ह नहीं मालूम है, तो अब मालूम हो जाना चाहिए कि धर्म केवल स्वार्थ-संगठन है। संभव है, तुम्हें ईसा पर विश्वास हो, शायद तुम उन्हें खुदा का बेटा, या कम-से-कम महात्मा समझते हो, पर मुझे तो यह भी विश्वास नहीं है। मेरे हृदय में उनके प्रति उतनी ही श्रद्धा है, जितनी किसी मामूली फकीर के प्रति। उसी प्रकार फकीर भी दान और क्षमा की महिमा गाता फिरता है, परलोक के सुखों का राग गाया करता है। वह भी उतना ही त्यागी, उतना ही दीन, उतना ही धर्मरत है। लेकिन इतना अविश्वास होने पर भी मैं रविवार को सौ काम छोड़कर गिरजे अवस्य जाता हूँ। न जाने से अपने समाज में अपमान होगा, उसका मेरे व्यवसाय पर बुरा असर पड़ेगा। फिर अपने ही घर में अशांति फैल जायगी। मैं केवल तुम्हारी माता की खातिर से अपने ऊपर यह अत्याचार करता हूँ, और तुमसे भी मेरा यही अनुरोध है कि व्यर्थ का दुराग्रह न करो। तुम्हारो माता क्रोध के योग्य नहीं, दया के योग्य हैं। बोलो, तुम्हें कुछ कहना है?"

प्रभु सेवक—"जी नहीं।"

जॉन सेवक—"अब तो फिर इतनी उच्छृंखलता न करोगे?"

प्रभु सेवक ने मुस्करा कर कहा—"जी नहीं।"