रंगभूमि/६

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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धर्म-भीरुता में जहाँ अनेक गुण हैं, वहाँ एक अवगुण भी है; वह सरल होती है। पाखंडियों का दाँव उस पर सहज ही में चल जाता है। धर्मभीरु प्राणी तार्किक नहीं होता। उसकी विवेचना-शक्ति शिथिल हो जाती है। ताहिरअली ने जब से अपनी दोनों विमाताओं की बातें सुनी थीं, उनके हृदय में घोर अशांति हो रही थी। बार-बार खुदा से दुआ माँगते थे, नीति-ग्रंथों से अपनी शंका का समाधान करने की चेष्टा करते थे। दिन तो किसी तरह गुजरा, सन्ध्या होते ही वह मि० जान सेवक के पास पहुँचे, और बड़े विनीत शब्दों में बोले—'हुजूर की खिदमत में इस वक्त एक खास अर्ज करने के लिए. हाजिर हुआ हूँ। इर्शाद हो तो कहूँ।”

जॉन सेवक-"हाँ-हाँ, कहिए, कोई नई बात है क्या?"

ताहिर-"हुजूर उस अन्धे की जमीन लेने का खयाल छोड़ दें, तो बहुत ही मुनासिब हो। हजारों दिऋते हैं। अकेला सूरदास ही नहीं, सारा मुहल्ला लड़ने पर तुला हुआ है। खासकर नायकराम पण्डा बहुत बिगड़ा हुआ है। वह बड़ा खौफनाक आदमी है। जाने कितनी बार फौजदारियाँ कर चुका है। अगर ये सब दिक्कतें किसी तरह दूर भी हो जायँ, तो भी मैं आपमे यही अर्ज करूँगा कि इसके बजाय किसी दूसरी जमीन की फिक कीजिए।"

जॉन सेवक-'यह क्यों?”

ताहिर-“हुजूर, यह सब अजाब का काम है। सैकड़ों आदमियों का काम उस जमीन से निकलता है, सबकी गायें वहीं चरती हैं, बरातें ठहरती हैं, प्लेग के दिनों में लोग वहीं झोंपड़े डालते हैं। वह जमीन निकल गई, तो सारी आबादी को तकलीफ होगी, और लोग दिल में हमें सैकड़ों बददुआएँ देंगे। इसका अजाब जरूर पड़ेगा।”

जॉन सेवक-(हँसकर) "अजाब तो मेरी गरदन पर पड़ेगा न? मैं उसका बोझ उठा सकता हूँ।"

ताहिर-"हुजूर, मैं भी तो आप ही के दामन से लगा हुआ हूँ। मैं उस अजाब से कब बच सकता हूँ। बल्कि मुहल्लेवाले मुझी को बागी समझते हैं। हुजूर तो यहाँ तशरीफ रखते हैं, मैं तो आठों पहर उनकी आँखों के सामने रहूँगा, नित्य उनकी नजरों में खटकता रहूँगा, औरतें भी राह चलते दो गालियाँ सुना दिया करेंगी। बाल-बच्चों-वाला आदमी हूँ; खुदा जाने क्या पड़े, क्या न पड़े। आखिर शहर के करीब और जमीनें भी तो मिल सकती हैं।”

धर्म-भीरता जड़वादियों की दृष्टि में हास्यास्पद बन जाती है। विशेषतः एक जवान आदमी में तो यह अक्षम्य समझी जाती है। जॉन सेवक ने कृत्रिम क्रोध धारण करके
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कहा—"मेरे भी तो बाल-बच्चे हैं, जब मैं नहीं डरता, तो आप क्यों डरते हैं? क्या आप समझते हैं कि मुझे अपने बाल-बच्चे प्यारे नहीं, या मैं खुदा से नहीं डरता?"

ताहिर—"आप साहबे-एकबाल हैं, आपको अजाब का खौफ नहीं। एकबालवालों से अजाब भी काँपता है। खुदा का कहर गरीबों ही पर गिरता है।"

जॉन सेवक—"इस नये धर्म-सिद्धांत के जन्मदाता शायद आप ही होंगे; क्योंकि मैंने आज तक कभी नहीं सुना कि ऐश्वर्य से ईश्वरीय कोप भी डरता है। बल्कि हमारे धर्म-ग्रंथों में तो धनिकों के लिए स्वर्ग का द्वार ही बंद कर दिया गया है।"

ताहिर—“हुजूर, मुझे इस झगड़े से दूर रखें, तो अच्छा हो।”

जॉन सेवक—"आज आपको इस झगड़े से दूर रखूँ, कल आपको यह शंका हो कि पशु-हत्या से खुदा नाराज होता है, आप मुझे खालों की खरीद से दूर रखें, तो में आपको किन-किन बातों से दूर रखूँगा, और कहाँ-कहाँ ईश्वर के कोप से आपकी रक्षा करूँगा? इससे तो कहीं अच्छा यही है कि आपको अपने ही से दूर रखूँ। मेरे यहाँ रहकर आपको ईश्वरीय कोप का सामना करना पड़ेगा।"

मिसेज सेवक—"जब आपको ईश्वरीय कोप का इतना भय है, तो आपसे हमारे यहाँ काम नहीं हो सकता।"

ताहिर—"मुझे हुजूर की खिदमत से इनकार थोड़े ही है, मैं तो सिर्फ.........."

मिसेज सेवक —"आपको हमारी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना पड़ेगा, चाहे उसले आपका खुदा खुश हो या नाखुश। हम अपने कामों में आपके खुदा को हस्तक्षेप न करने देंगे।"

ताहिरअली हताश हो गये। मन को समझाने लगे-ईश्वर दयालु है, क्या बढ्दे खता नहीं कि मैं कैसी होड़ियों में जकड़ा हुआ हूँ। मेरा इसमें क्या वश है। अगर स्वामी की आनाओं को न मानें, तो कुटुंब का पालन क्योंकर हो। बरसों मारे-मारे किरने के बाद तो यह ठिकाने की नौकरी हाथ आई है। इसे छोड़ दूँ, तो फिर उमी तरह ठोकरें खाली पड़ेंगी। अभी कुछ और नहीं है, तो रोटी-दाल का सहारा तो है। गृह-चिंता आत्मचिंतन की घातिका है।

ताहिरअली को निरुत्तर होना पड़ा। वेचारे अपनी स्त्री के सारे गहने बेचकर खा चुके थे। अब एक छल्ला भी न था। माहिरअली अँगरेजी पढ़ता था। उसके लिए अच्छे कपड़े बनवाने पड़ते, प्रतिमास फीस देनी पड़ती। जाविरअली और जाहिरअली उर्दू-मदरसे में पढ़ते थे; किंतु उनकी माता नित्य जान खाया करती थीं कि इन्हें भी अँगरेजी-मदरसे में दाखिल करा दो, उर्दू पढ़ाकर क्या चारासगरी करानी है? अँगरेजी थोड़ी भी आ जायगी, तो किसी-न-किसी दस्तर में घुम ही जायँगे। भाइयों के लालन- पालन पर उनकी आवश्यकताएँ ठोकर खाती रहती थीं। पाजामे में इतने पैबंद लग जाते कि कपड़े का यथार्थ रूप छिप जाता था। नये जूते तो शायद इन पाँच बरसों में उन्हें नसीब ही नहीं हुए। माहिरअली के पुराने जूतों पर संतोष करना पड़ता था। [ ८१ ]
सौभाग्य से माहिरअली के पैर बड़े थे। यथासाध्य वह भाइयों को कोई कष्ट न होने देते थे। लेकिन कभी हाथ तंग रहने के कारण उनके लिए नये कपड़े न बनवा सकते, या फीस देने में देर हो जाती, या नाश्ता न मिल सकता, या मदरसे में जलपान करने के लिए पैसे न मिलते, तो दोनों माताएँ व्यंग्यों और कटूक्तियों से उनका हृदय छेद डालती थीं। बेकारी के दिनों में वह बहुधा, अपना बोझ हलका करने के लिए, स्त्री और बच्चों को मैके पहुँचा दिया करते थे। उपहास से बचने के खयाल से एक-आव महीने के लिए बुला लेते, और फिर किसी-न-किनी बहाने से विदा कर देते। जब से मि० जॉन सेवक की शरण आये थे, एक प्रकार से उनके सुदिन आ गये थे; कल की चिंता सिर पर सवार न रहती थी। माहिरअली की उम्र पंद्रह से अधिक हो गई थी। अब सारी आशाएँ उसी पर अवलंबित थीं। सोचते, जब माहिर मैट्रिक पास हो जायगा, तो साहब से सिफारिश कराके पुलिस में भरती करा दूँगा। पचास रुपये से क्या कम वेतन मिलेगा। हम दोनों भाइयों की आय मिलकर ८०) हो जायगी। तब जीवन का कुछ आनंद मिलेगा। तब तक जाहिरअली भी हाथ-पैर सँभाल लेगा, फिर चैन-ही-चैन है। बस, तीन-चार साल की और तकलीफ है। स्त्री से बहुधा झगड़ा हो जाता। वह कहा करतो-"ये भाई-बंद एक भी काम न आयेंगे। ज्यों ही अवसर मिला, पर झाड़कर निकल जायँगे, तुम खड़े ताकते रह जाओगे।” ताहिरअली इन बातों पर स्त्री से रूठ जाते। उसे घर में आग लगानेवाली, विष की गाँठ कहकर रुलाते।

आशाओं और चिंताओं से इतना दबा हुआ व्यक्ति मिलेज सेवक के कटु वाक्यों का क्या उत्तर देता। स्वामी के कोप ने ईश्वर के कोप को परास्त कर दिया। व्यथित कंठ से बोले—"हुजूर का नमक खाता हूँ, आपकी मरजी मेरे लिए खुदा के हुक्म का दरजा रखती है। किताबों में आंका को खुश रखने का वही सवाब लिखा है, जो खुदा को खुश रखने का है। हुजूर की नमकहरामी करके खुदा को क्या मुँह दिखलाऊँगा!"

जॉन सेवक_"हाँ, अब आर आये सीधे रास्ते पर। जाइए, अपना काम कीजिए। धर्म और व्यापार को एक तराजू में तौलना मूर्खता है। धर्म धर्म है, व्यापार व्यापार; परस्पर कोई संबंध नहीं। संसार में जीवित रहने के लिए किसी व्यापार की जरूरत है, धर्म की नहीं। धर्म तो व्यापार का शृंगार है। वह धनाधीशों ही को शोभा देता है। खुदा आपको समाई दे, अवकाश मिले, घर में फालतू रुपये हों, तो नमाज पढ़िए, हज कीजिए, मसजिद बनवाइए, कुँए खुदवाइए। तब मजहब है, खाली पेट ख़ुदा का नाम लेना पाप है।"

ताहिरअली ने झुककर सलाम किया, और घर लौट आये।