रंगभूमि/८
[८]
सोफ़िया को इन्दु के साथ रहने चार महीने गुजर गये। अपने घर और घरवालो? की याद आते ही उसके हृदय में एक ज्वाला-सी प्रज्वलित हो जाती थी। प्रभु सेवक नित्यप्रति उससे एक बार मिलने आता; पर कभी उससे घर का कुशल-समाचार न पूछती। वह कभी हवा खाने भी न जाती कि कहीं मामा से साक्षात् न हो जाय। यद्यपि इन्दु ने उसकी परिस्थिति को सबसे गुप्त रखा था; पर अनुमान से सभी प्राणी उसकी यथार्थ दशा से परिचित हो गये थे। इसलिए प्रत्येक प्राणी को यह ख्याल रहता था कि कोई ऐसी बात न होने पावे, जो उसे अप्रिय प्रतीत हो! इन्दु को तो उससे इतना प्रेम हो गया था कि अधिकतर उसी के पास बैठी रहती। उसकी संगति में इंदु को भी धर्म और दर्शन के ग्रंथों से रुचि होने लगी।
घर टपकता हो, तो उसकी मरम्मत की जाती है; गिर जाय, तो उसे छोड़ दिया जाता है। सोफी को जब ज्ञात हुआ कि इन लोगों को मेरी सब बाते मालूम हो गई, तो उसने परदा रखने की चेष्टा करनी छोड़ दी; धर्म-ग्रन्थों के अध्ययन में डूब गई। पुरानी कुदूरते दिल से मिटने लगीं। माता के कठोर वाक्य-बाणों का घाव भरने लगा। वह संकीर्णता, जो व्यक्तिगत भावों और चिन्ताओं को अनुचित महत्त्व दे देती है, इस सेवा और सद्व्यवहार के क्षेत्र में आकर तुच्छ जान पड़ने लगी। मन ने कहा, यह मामा का दोष नहीं, उनकी धार्मिक अनुदारता का दोष है; उनका विचार-क्षेत्र परिमित हैं, उनमें विचार-स्वातन्त्र्य का सम्मान करने की क्षमता ही नहीं, मैं व्यर्थ उनसे रुष्ट हो रही हूँ। यही एक काँटा था, जो उसके अन्तस्तल में सदैव खटकता रहता था। जब वह निकल गया, तो चित्त शांत हो गया। उसका जीवन धर्म-ग्रन्थों के अवलोकन और धर्म-सिद्धान्तों के मनन तथा चिन्तन में व्यतीत होने लगा। अनुराग अन्तर्वेदना की सबसे उत्तम औषधि है।
किन्तु इस मनन और अवलोकन से उसका चित्त शांत होता हो, यह बात न थी। नाना प्रकार की शंकाएँ नित्य उपस्थित होती रहती थीं-जीवन का उद्देश्य क्या है? प्रत्येक धर्म में इसके विविध उत्तर मिलते थे; पर एक भी ऐसा नहीं मिला, जो मन में बैठ जाय। ये विभूतियाँ क्या हैं, क्या केवल भक्तों की कपोल-कल्पनाएँ हैं? सबसे जटिल समस्या यह थी कि उपासना का उद्देश्य क्या है? ईश्वर क्यों मनुष्यों से अपनी उपासना करने का अनुरोध करता है, इससे उसका क्या अभिप्राय है? क्या वह अपनी ही सृष्टि से अपनी स्तुति सुनकर प्रसन्न होता है? वह इन प्रश्नों की मीमांसा में इतनी तल्लीन रहती कि कई-कई दिन कमरे के बाहर न निकलती, खाने-पीने की सुधि न रहती, यहाँ तक कि कभी-कभी इन्दु का आना उसे बुरा मालूम होता।
एक दिन प्रातःकाल वह कोई धर्म-ग्रंथ पढ़ रही थी कि इन्दु आकर बैठ गई। उसका
मुख उदास था। सोफिया उसकी ओर आकृष्ट न हुई, पूर्ववत् छुस्तक देखने में मग्न रही। इंदु बोली—“सोफी, अब यहाँ दो-चार दिन की और मेहमान हूँ, मुझे मूल तो न जाओगी?"
सोफी ने बिना सिर उठाये हो कहा—"हाँ।”
इंदु—"तुम्हारा मन तो अपनी किताबों में बहल जायगा, मेरी याद भी न आयेगी पर मुझसे तुम्हारे बिना एक दिन न रहा जायगा।"
सोफी ने किताब की तरफ देखते हुए कहा—"हाँ।"
इंदु—"फिर न जाने कब भेंट हो। सारे दिन अकेले पड़े-पड़े विभूरा करूंगी।"
सोफी ने किताब का पन्ना उलटकर कहा—"हाँ।”
इंदु से सोफिया की निष्ठुरता अब न सहो गई। किसी और समय वह रुष्ट होकर चली जाती, अथवा उसे स्वाध्या में मग्न देखकर कमरे में पाँव ही न रखती; किन्तु इस समय उसका कोमल हृदय वियोग-व्यथा से भरा हुआ था, उसमें मान का स्थान नहीं था। रोकर बोली-“बहन, ईश्वर के लिए जरा पुस्तक बंद कर दो; चली जाऊँगी, तो फिर खूब पढ़ना। वहाँ से तुम्हे छेड़ने न आऊँगी।"
सोफी ने इंदु की ओर देखा, मानों समाधि टूटी! उसकी आँखों में आँसू थे, मुख उतरा हुआ, सिर के बाल बिखरे हुए। बोली-"अरे! इंदु, बात क्या है? रोती क्यों हो?"
इंदु-"तुम अपनी किताब देखो, तुम्हें किसी के रोने-धोने की क्या परवा है।
ईश्वर ने न जाने क्यों मुझे तुझसा हृदय नहीं दिया।"
सोफिया-“बहन, क्षमा करना, मैं एक बड़ी उलझन में पड़ी हुई थी। अभी तक वह गुत्थी नहीं सुलझी। मैं मूर्ति पूजा को सर्वथा मिथ्या समझती थी। मेरा विचार था "कि ऋषियों ने केवल मुखों की आध्यात्मिक शांति के लिए यह व्यवस्था कर दी है। लेकिन इस ग्रन्थ में मूर्ति-पूजा का समर्थन ऐसी विद्वत्ता-पूर्ण युक्तियों से किया गया है कि आज से मैं सूर्ति-पूजा की कायल हो गई। लेखक ने इसे वैज्ञानिक सिद्धांतों से सिद्ध किया है। यहाँ तक कि मूर्तियों का आकार-प्रकार भी वैज्ञानिक नियमों ही के आधार पर अवलंबित बतलाया है।"
इंदु-"मेरे लिए बुलाबा आ गया। तीसरे दिन चली जाऊँगी।"
सोफिया-"यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई, फिर मैं यहाँ कैसे रहूँगी?"
इस वाक्य में सहानुभुति नहीं, केवल स्वहित था। किंतु इंदु ने इसका आशय यह समझा कि सोफी को मेरा वियोग असह्य होगा। बोली-"तुम्हारा जी तो किताबों में बहल जायगा। हाँ, मैं तुम्हारी याद में तड़पा करूँगी। सच कहती हूँ, तुम्हारी सूरत एक क्षण के लिए भी चित्त से न उतरेगी, यह मोहिनी मूर्ति आँखों के सामने फिरा करेगी। बहन, अगर तुम्हें बुरा न लगे, तो एक याचना करूँ। क्या यह संभव नहीं हो सकता कि तुम भी कुछ दिन मेरे साथ रहो? तुम्हारे सत्संग से मेरा जीवन सार्थक हो जायगा। मैं इसके लिए तुम्हारी सदैव अनुगृहीत रहूँगी।" सोफिया-"तुम्हारे प्रेम के बंधन में बंधी हुई हूँ, जहाँ चाहो, ले चलो। चाहूँ तो जाऊँगी, न चाहूँ तो भी जाऊँगी। मगर यह तो बताओ, तुमने राजा साहब से भी पूछ लिया है?"
इंदु-"यह ऐसी कौन-सी बात है, जिसके लिए उनको अनुमति लेनी पड़े। मुझसे बराबर कहते रहते हैं कि तुम्हारे लिए एक लेडी की जरूरत है, अकेले तुम्हारा जी घबराता होगा। यह प्रस्ताव सुनकर फूले न समायेंगे।"
रानी जाह्नवी तो इंदु की विदाई की तैयारियां कर रही थी, ओर इंदु सोफिया के लिए लैस और कपड़े आदि ला-लाकर रखती थी। भाँति-भाँति के कपड़ों से कई संदूक भर दिये। वह उसे ऐसे ठाट से ले जाना चाहती थी कि घर को लौंडियाँ-वाँदियाँ उसका उचित आदर करें। प्रभु सेवक को सोफी का इंदु के साथ जाना अच्छा न लगता था। उसे अब भी आशा थी कि मामा का क्रोध शांत हो जायगा, और वह सोफी को गले लगायेंगी। सोफी के जाने से वैमनस्य का बढ़ जाना निश्चित था। उसने सोफ़ी को समझाया; किंतु वह इंदु का निमंत्रण अस्वीकार न करना चाहती थी। उसने प्रण कर लिया था कि अब घर न जाऊँगी।
तीसरे दिन राजा महेंद्रकुमार इंदु को बिदा कराने आये, तो इंदु ने और बातों के साथ सोफी को साथ ले चलने का जिक्र छेड़ दिया। बोली-“मेरा जी वहाँ अकेले घबराया करता है, मिस सोफिया के रहने से मेरा जी बहल जायगा।"
महेंद्र०-"क्या मिस सेवक अभी तक यहीं हैं?"
इंदु—“बात यह है कि उनके धार्मिक विचार स्वतंत्र हैं, और उनके घरवाले उनके विचारों की स्वतंत्रता सहन नहीं कर सकते। इसी कारण वह अपने घर नहीं जाना चाहतीं।”
महेंद्र०—"लेकिन यह तो सोचो, उनके मेरे घर में रहने से मेरी कितनी बदनामी होगी। मि० सेवक को यह बात बुरी लगेगी, और यह नितांत अनुचित है कि मैं उनकी लड़की को, उनकी मरजी के बगैर, अपने घर में रखूँ। सरासर बदनामी होगी।"
इंदु—"मुझे तो इसमें बदनामी की कोई बात नहीं नजर आती। क्या सहेली अपनी सहेली के यहाँ मेहमान नहीं होती? सोफी का स्वभाव भी तो ऐसा उच्छृखल नहीं है कि वह इधर-उधर घूमने लगेगी।"
महेंद्र०—"वह देवी सही; लेकिन ऐसे कितने ही कारण हैं कि मैं उनका तुम्हारे साथ जाना अनुचित समझता हूँ। तुममें यह बड़ा दोप है कि कोई काम करने से पहले उसके औचित्य का विचार नहीं करतीं। क्या तुम्हारे विचार में कुल-मर्यादा की अवहेलना करना कोई बुराई नहीं? उनके घरवाले यही तो चाहते हैं कि वह प्रकट रूप से अपने धर्म के नियमों का पालन करें। अगर वह इतना भी नहीं कर सकतीं, तो मैं यही कहूँगा कि उनका विचार-स्वातंत्र्य औचित्य की सीमा से बहुत आगे बढ़ गया है।"
इंदु—"किंतु मैं तो उनसे वादा कर चुकी हूँ। कई दिन से मैं इन्हीं तैयारियों में व्यस्त हूँ। यहाँ अम्माँ से आज्ञा ले चुकी हूँ। घर के सभी प्राणो, नौकर-चाकर जानते
हैं कि वह मेरे साथ जा रही हैं। ऐसी दशा में अगर मैं उन्हें न ले गई, तो लोग अपने मन में क्या कहेंगे? सोचिए, इसमें मेरी कितनी हेठी होगी। मैं किसी को मुँह दिखाने लायक न रहूँगी।"
महेंद्र०-"बदनामी से बचने के लिए सब कुछ किया जा सकता है। तुम्हें मिस सेवक से कहते शर्म आती हो, तो मैं कह दूँ। वह इतनी नादान नहीं हैं कि इतनी मोटी-सी बात न समझें।"
इंदु-"मुझे उनके साथ रहते-रहते उनसे इतना प्रेम हो गया है कि उनसे एक दिन भी अलग रहना मेरे लिए असाध्य-सा जान पड़ता है। इसकी तो खैर परवा नहीं; जानती हूँ, कभी-न-कभी उनसे वियोग होगा ही; इस समय मुझे सबसे बड़ो चिन्ता अपनी बात खोने की है। लोग कहेंगे, बात कहकर पलट गई। सोकी ने पहले साफ इन्कार कर दिया था। मेरे बहुत कहने-सुनने पर राजी हुई थी। आप मेरी खातिर से अब की मेरी प्रार्थना स्वीकार कीजिए, फिर मैं आपसे पूछे बगैर कोई काम न करूँगी।”
महेंद्रकुमार किसी तरह राजी न हुए। इंदु रोई, अनुनय-विनय की, पैरों पड़ी, वे सभी मन्त्र फूंके, जो कभी निष्फल ही न होते; पर पति का पाषाण-हृदय न पसीजा; उन्हें अपना नाम संसार की सब वस्तुओं से प्रिय था।
जब महेंद्रकुमार बाहर चले गये, तो इंदु बहुत देर तक शोकावस्था में बैठी रही। बार-बार यही खयाल आता-सोफी अपने मन में क्या कहेगी। मैंने उससे कह रखा है कि मेरे स्वामो मेरी कोई बात नहीं टालते। अब वह समझेगी, वह इसकी बात भी नहीं पूछते। बात भी ऐसी ही है, इन्हें मेरी क्या परवा है। बातें ऐसी करेंगे, मानों इनसे उदार संसार में कोई प्राणी न होगा, पर वह सब कोरी बकवास है। इन्हें तो यही मंजूर है कि यह दिन-भर अकेली बैठी अपने नाम को रोया करे। दिल में जलते होंगे कि सोफी के साथ इसके दिन भी आराम से गुजरेंगे। मुझे कैदियों की भाँति रखना चाहते हैं। इन्हें जिद करना आता है, तो मैं क्या जिद नहीं कर सकती। मैं भी कहे देती हूँ, आप सोफी को न चलने देंगे, तो मैं भी न जाऊँगी। मेरा कर ही क्या सकते हैं, कुछ नहीं। दिल में डरते हैं कि सोफी के जाने से घर का खर्च बढ़ जायगा। स्वभाव के कृपण तो हैं ही। उस कृपणता को छिपाने के लिए बदनामी का बहाना निकाला है। दुखी आत्मा दूसरों की नेकनीयती पर सन्देह करने लगती है।
सन्ध्या-समय जब जाह्नवी सैर करने चलीं, तो इंदु ने उनसे यह समाचार कहा, और आग्रह किया कि तुम महेंद्र को समझाकर सोफी को ले चलने पर राजी कर दो। जाह्नवी ने कहा-“तुम्हीं क्यों नहीं मान जाती?"
इंदु—'अम्माँ, मैं सच्चे हृदय से कह रही हूँ, मैं जिद नहीं करती। अगर मैंने पहले ही सोफिया से न कह दिया होता, तो मुझे जरा भी दुःख न होता; पर सारी तैयारियाँ करके अब उसे न ले जाऊँ, तो वह अपने दिल में क्या कहेगी। मैं उसे मुँह नहीं दिखा सकती। यह इतनी छोटी-सी बात है कि अगर मेरा जरा भी खयाल होता,
तो वह इनकार न करते। ऐसी दशा में आप क्योंकर आशा कर सकतो हैं कि मैं उनकी प्रत्येक आज्ञा शिरोधार्य करूँ।”
जाह्नवी—"वह तुम्हारे स्वामी हैं, उनकी सभी बातें तुम्हें माननी पड़ेंगी।"
इंदु—"चाहे वह मेरी जरा-जरा-सा बातें भी न मानें?"
जाह्नवी---"हाँ, उन्हें इसका अख्तियार है। मुझे लज्जा आती है कि मेरे उपदेशों का तुम्हारे ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। मैं तुम्हें पति-परायणा सती देखना चाहती हूँ, जिसे अपने पुरुप की आज्ञा या इच्छा के सामने अपने मानापमान का जरा भी विचार नहीं होता। अगर वह तुम्हें सिर के बल चलने को कहें, तो भी तुम्हारा धर्म है कि सिर के बल चलो। तुम इतने ही में घबरा गई?"
इंदु—'आप मुझसे वह करने को कहती हैं, जो मेरे लिए असंभव है।"
जाह्ववी—"चुप रहो, मैं तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें नहीं सुन सकती। मुझे भय हो रहा है कि कहीं सोफी के विचार-स्वातंत्र्य का जादू तुम्हारे ऊपर भी तो नहीं चल गया!”
इंदु ने इसका कुछ उत्तर न दिया। भय होता था कि मेरे मुँह से कोई ऐसा शब्द न निकल पड़े, जिससे अम्माँ के मन में यह संदेह और भी जम जाय, तो बेचारी सोफी का यहाँ रहना ही कठिन हो जाय। वह रास्ते-भर मौन धारण किये बैठी रही। जब गाड़ी फिर मकान पर पहुँची, और वह उतरकर अपने कमरे की ओर चली, तो जाह्नवी ने कहा—"बेटी, मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहती हूँ, महेंद्र से इस विषय में अब एक शब्द भी न कहना, नहीं तो मुझे बहुत दुःख होगा।"
इंदु ने माता को मर्माहत भाव से देखा, और अपने कमरे में चली गई। सौभाग्य से महेंद्रकुमार भोजन करके सीधे बाहर चले गये, नहीं तो इंदु के लिए अपने उद्गारों का रोकना अत्यन्त कठिन हो जाता। उनके मन में रह-रहकर इच्छा होती थी कि चल-कर सोफिया से क्षमा माँगूँ, साफ-साफ कह दूँ-बहन, मेरा कुछ बश नहीं है, मैं कहने को रानी हूँ, वास्तव में मुझे उतनी स्वाधीनता भी नहीं है, जितनी मेरे घर की महरियों को। लेकिन यह सोचकर रह जाती थी कि पति-निंदा मेरी धर्म-मयांदा के प्रतिकूल है। मैं सोफी की निगाहों में गिर जाऊँगी। वह समझेगा, इसमें जरा भी आत्माभिमान नहीं है।
नौ बजे विनयसिंह उससे मिलने आये। वह मानसिक अशांति की दशा में बैठी हुई अपने सन्दूकों में से सोफी के लिए खरीदे हुए कपड़े निकाल रही थी, और सोच रहा थी कि इन्हें उसके पास कैसे भेजूँ। खुद जाने का साहरू न होता था। विनयसिंह को देखकर बोली—"क्यों विनय, अगर तुम्हारी स्त्री अपनी किसो सहेली को कुछ दिनों के लिए अपने साथ रखना चाहे, तो तुम उसे मना कर दोगे, या खुश होगे?”
विनय—"मेरे सामने यह समस्या कभी आयेगी ही नहीं, इसलिए मैं इसकी कल्पना करके अपने मस्तिष्क को कष्ट नहीं देना चाहता।" इंदु—"यह समस्या तो पहले ही उपस्थित हो चुकी
विनय—"बहन, मुझे तुम्हारी बातों से डर लग रहा है।"
इंदु—"इसीलिए कि तुम अपने को धोखा दे रहे हो; लेकिन वास्तव में तुम उससे बहुत गहरे पानी में हो, जितना तुम समझते हो। क्या तुम समझते हो कि तुम्हारा कई-कई दिनों तक घर में न आना, नित्य सेवा समिति के कामों में व्यस्त रहना, मिस सोफिया की ओर आँख उठाकर न देखना, उसके साये से भागना, उस अंतईद्व को छिपा सकता है, जो तुम्हारे हृदय-तल में विकराल रूप से छिड़ा हुआ है? लेकिन याद रखना, इस द्वंद्व की एक झंकार भी न सुनाई दे, नहीं तो अनर्थ हो जायगा। सोफिया तुम्हार! इतना सम्मान करती है, जितना कोई सती अपने पुरुष का भी न करती होगी। वह तुम्हारी भक्ति करती है। तुम्हारे संयम, त्याग और सेवा ने उसे मोहित कर लिया है। लेकिन, अगर मुझे धोखा नहीं हुआ है, तो उसकी भक्ति में प्रणय का लेश भी नहीं है। यद्यपि तुम्हें सलाह देना व्यर्थ है, क्योंकि तुम इस मार्ग की कठिनाइयों को खूब जानते हो, तथापि मैं तुमसे यही अनुरोध करती हूँ कि तुम कुछ दिनों के लिए कहीं चले जाओ। तब तक कदाचित् सोफी भी अपने लिए कोई-न-कोई रास्ता ढूँढ़ निकालेगी। संभव है, इस समय सचेत हो जाने से दो जीवनों का सर्वनाश होने से बच जाय।"
विनय—"बहन, जब तुम सब कुछ जानती हो हो, तो तुमने क्या छिपाऊँ। अब मैं सचेत नहीं हो सकता। इन चार-पाँच महीनों में मैंने जो मानसिक ताप सहन किया है, उसे मेरा हृदय ही जानता है। मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है, मैं आँखें खोलकर गढ़े में गिर रहा हूँ, जान-बूझकर विष का प्याला पी रहा हूँ। कोई बाबा, कोई कठिनाई, कोई शंका अब मुझे सर्वनाश से नहीं बचा सकतो। हाँ, इसका मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि इस आग को एक चिनगारो या एक लपट भी साफो त न पहुँचेगी। मेरा सारा शरीर भस्म हो जाय, हड्डियाँ तक राख हो जायँ; पर सोफी को उस ज्वाला की झठक तक न दिखाई देगी। मैंने भी यही निश्चय किया है कि जितनी जल्दी हो सके, मैं यहाँ से चला जाऊँ-अपनी रक्षा के लिए नहीं, डीफो की रक्षा के लिए। आह! इससे तो यह कहीं अच्छा था कि सोफी ने मुझे उसी आग में जल जाने दिया होता; मेरा परदा ढका रह जाता। अगर अभ्माँ को यह बात मालूम हो गई, तो उनको क्या दशा होगी। इसको कलना ही से मेरे रोएं खड़े हो जाते हैं। बस, अब मेरे लिए मुँह में कालिख लगाकर कहीं डूब मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं है।"
यह कहकर विनयसिंह सहसा बाहर चले गये। इंदु'बैठो-बैठो' कहती रह गई। बढ़ इस समय आवेश में उससे बहुत ज्यादा कह गरे थे, जितना वह कहना चाहते थे। और देर तक बैठते, तो न जाने और क्या-क्या कह जाते। इंदु की दशा उस प्राणी की-सी थी, जिसके पैर बँधे हों, और सामने उसका घर जल रहा हो। वह देख रही थी, यह आग सारे घर को जला देगी; विनय के ऊँचे-ऊँचे मंसूबे, माता की बड़ी-बड़ी अभिला-बाएँ, पिता के बड़े-बड़े अनुष्ठान, सब विध्वंस हो जायेंगे। वह इन्हीं शोकमय विचारों में
पड़ी सारी रात करवटें बदलती रही। प्रातःकाल उठी, तो द्वार पर उसके लिए पालकी तैयार खड़ी थी। वह माता के गले से लिपटकर रोई, पिता के चरणों को आँसुओं से धोया, और घर से चली। रास्ते में सोफ़ी का कमरा पड़ता था। इंदु ने उस कमरे की ओर ताका भी नहीं। सोफी उठकर द्वार पर आई, और आँखों में आँसू भरे हुए उससे हाथ मिलाया। इंदु ने जल्दी से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़ गई।