रंगभूमि/९

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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सोफिया इस समय उस अवस्था में थी, जब एक साधारण हँसी की बात, एक साधारण आँखों का इशारा, किसी का उसे देखकर मुस्किरा देना, किसी महरी का उसकी आज्ञा का पालन करने में एक क्षण विलंब करना, ऐसी हजारों बातें, जो नित्य घरों में होती रहती हैं, और जिनकी कोई परवा भी नहीं करता, उसका दिल दुखाने के लिए काफी हो सकती थीं। चोट खाये हुए अंग को मामूली-सी टेस भी असह्य हो जाती है। फिर इंदु का बिना उससे कुछ कहे-सुने चला जाना क्यों न दुःख-जनक होता। इंदु तो चली गई; पर वह बहुत देर तक अपने कमरे के द्वार पर मूर्ति की भाँति खड़ी सोचती रही-यह तिरस्कार क्यों? मैंने ऐसा कौन-सा अपराध किया है, जिसका मुझे यह दंड मिला है? अगर उसे यह मंजूर न था कि मुझे साथ ले जाती, तो साफ-साफ कह देने में क्या आपत्ति थी? मैंने उसके साथ चलने के लिए आग्रह तो किया न था! क्या मैं इतना नहीं जानती कि विपत्ति में कोई किसी का साथी नहीं होता? वह रानी है, उसकी इतनी ही कृपा क्या कम थी कि मेरे साथ हँस-बोल लिया करती थी। मैं उसकी सहेली बनने के योग्य कव थी; क्या मुझे इतनी समझ भी न थी। लेकिन इस तरह आँखें फेर लेना कौन-सी भलमंसी है! राजा साहब ने न माना होगा, यह केवल बहाना है। राजा साहब इतनी-सी बात को कभी अस्वीकार नहीं कर सकते। इंदु ने खुद ही कुछ सोचा होगा-वहाँ बड़े-बड़े आदमी मिलने आगे, उनसे इसका परिचय क्योंकर कराऊँगी। कदाचित् यह शंका हुई हो कि कहीं इसके सामने मेरा रंग फीका न पड़ जाय, बस, यही बात है, अगर मैं मूर्खा, रूपगुण-विहीना होती, तो वह मुझे जरूर साथ ले जाती; मेरी हीनता से उसका रंग और चमक उठता) मेरा दुर्भाग्य!

वह अभी द्वार पर खड़ी ही थी कि जाह्नवी बेटी को विदा करके लौटी, और सोफी के कमरे में आकर बोलीं-बेटी, मेरा अपराध क्षमा करो, मैंने ही तुम्हें रोक लिया। इंदु को बुरा लगा, पर करूँ क्या, वह तो गई ही, तुम भी चली जाती, तो मेरा दिन कैसे कटता? विनय भी राजपूताना जाने को तैयार बैठे हैं, मेरो तो मौत हो जाती। तुम्हारे रहने से मेरा दिल बहलता रहेगा। सच कहती हूँ बेटी, तुमने मुझ पर कोई मोहिनी-मंत्र फेंक दिया है।"

सोफिया-"आपकी शालीनता है, जो ऐसा कहती हैं। मुझे खेद यही है, इंदु ने जाते समय मुझसे हाथ भी न मिलाया।"

जाह्नवी-"केवल लजा-वश बेटी, केवल लजा-यश। मैं तुझसे सत्य कहती हूँ, ऐसी सरल बालिका संसार में न होगी। तुझे रोककर मैंने उस पर घोर अन्याय किया है। मेरी बच्ची का वहाँ जरा भी जी नहीं लगता; महीने भर रह जाती है, तो स्वास्थ्य
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बिगड़ जाता है। इतनी बड़ी रियारत है, महेंद्र सारा बोझा उसी के सिर डाल देते हैं। उन्हें तो म्युनिसिपैलिटी ही से फुरसत नहीं मिलती। बेचारी आय-व्यय का हिसाब लिखते-लिखते घबरा जाती है, उस पर एक-एक पैसे का हिसाब! महेंद्र को हिसाब रखने की धुन है। जरा-सा भी फर्क पड़ा, तो उसके सिर हो जाते हैं। इंदु को अधिकार है, जितना चाहे खर्च करे, पर हिसाब जरूर लिखे। राजा साहब किसी की रू-रियायत नहीं करते। कोई नौकर एक पैसा भी खा जाय, तो उसे निकाल देते हैं चाहे उसने उनकी सेवा में अपना जीवन बिता दिया हो। यहाँ मैं इंदु को कभी कड़ी निगाह से भी नहीं देखती, चाहे घो का घड़ा लुढ़का दे। वहाँ जरा जरा-सी बात पर राजा साहब की घुड़कियाँ सुननी पड़ती हैं। बच्ची से बात नहीं सही जाती। जवाब तो देती नहीं-और यही हिंदू स्त्री का धर्म है—पर रोने लगती है। वह दया की मूर्ति है। कोई उसका सर्वस्व खा जाय, लेकिन ज्यों ही उसके सामने आकर रोया, बस उसका दिल पिघला। सोफी, भगवान् ने मुझे दो बच्चे दिये, और दोनों ही को देखकर हृदय शीतल हो जाता है। इन्दु जितनी ही कोमल-प्रकृति और सरल-हृदया है, विनय उतना ही धर्मशील और साहसी है। बकना तो जानता ही नहीं। मालूम होता है, दूसरों की सेवा करने के लिए ही उसका जन्म हुआ है। घर में किसी टहलनी को भी कोई शिकायत हुई, और सब काम छोड़कर उसकी दवा-दारू करने लगा। एक बार मुझे ज्वर आने लगा था। इस लड़के ने तीन महीने तक द्वार का मुँह नहीं देखा। नित्य मेरे पास बैठा रहता, कभी पंखा झलता, कभी पाँव सहलाता, कभी रामायण और महाभारत पढ़कर सुनाता। कितना कहती, बेटा, जाओ घूमो-फिरो; आखिर ये लौडियाँ-वाँदियाँ किस दिन काम आयेंगी, डॉक्टर रोज आते ही हैं, तुम क्यों मेरे साथ सती होते हो; पर किसी तरह न जाता। अब कुछ दिनों से सेवा-समिति का आयोजन कर रहा है। कुँवर साहब को जो सेवा-समिति से इतना प्रेम है, वह विनय ही के सत्संग का फल है, नहीं तो आज के तीन साल पहले इनका-सा विलासी सारे नगर में न था। दिन में दो बार हजामत बनती थी। दरजनों धोबी और दरजो कपड़े धोने और सीने के लिए नौकर थे। पेरिस है एक कुशल धोबी कपड़े सँवारने के लिए आया था। कश्मीर और इटली के बाबरची खाना पकाते थे। तसवीरों का इतना व्यसन था कि कई बार अच्छे चित्र लेने के लिए इटली तक की यात्रा की। तुम उन दिनों मंसूरी रही होगी। सैर करने निकलते, तो सशस्त्र सबारों का एक दल साथ चलता। शिकार खेलने की लत थी, महानों शिकार खेलते रहते। कभी कश्मीर, कभी बीकानेर, कभी नैपाल, केवल शिकार खेलने जाते। विनय ने उनकी काया ही पलट दी। जन्म का विरागी है। पूर्व-जन्म में अवश्य कोई ऋपि रहा होगा।"

सोफी—"आपके दिल में सेवा और भक्ति के इतने ऊँचे भाव कैसे जाग्रत हुए? यहाँ तो प्रायः रानियाँ अपने भोग-विलास में ही मग्न रहती हैं।"

जाह्नवी—"बेटी, यह डॉक्टर गंगुली के सदुपदेश का फल है। जब इंदु दो साल
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की थी, तो मैं बीमार पड़ी। डॉक्टर गंगुली मेरी दवा करने के लिए आये। हृदय का रोग था, जी घबराया करता, मानों किसी ने उच्चाटन-मन्त्र मार दिया हो। डॉक्टर महोदय ने मुझे महाभारत पढ़कर सुनाना शुरू किया। उसमें मेरा ऐसा जी लगा कि कभी-कभी आधी रात तक बैठी पढ़ा करती। थक जाती तो डॉक्टर साहब से पढ़वाकर सुनती। फिर तो वीरता पूर्ण कथाओं के पढ़ने का मुझे ऐसा चस्का लगा कि राजपूतों की ऐसी कोई कथा नहीं, जो मैंने न पढ़ी हो। उसी समय से मेरे मन में जाति-प्रेम का भाव अंकुरित हुआ। एक नई अभिलाषा उत्पन्न हुई-मेरी कोख से भी कोई ऐसा पुत्र जन्म लेता, जो अभिमन्यु, दुर्गादास और प्रताप की भाँति जाति का मस्तक ऊँचा करता। मैंने व्रत किया कि पुत्र हुआ तो उसे देश और जाति के हित के लिए समर्पित कर दूँगी। मैं उन दिनों तपस्विनी की भाँति जमीन पर सोती, केवल एक बार रूखा भोजन करती, अपने बरतन तक अपने हाथ से धोती थी। एक वे देवियाँ थीं, जो जाति की मर्यादा रखने के लिए प्राण तक दे देती थीं; एक मैं अभागिनी हूँ कि लोक-परलोक की सब चिन्ताएँ छोड़कर केवल विषय-वासनाओं में लिप्त हूँ। मुझे जाति की। इस अधोगति को देखकर अपनी विलासिता पर लज्जा आती थी। ईश्वर ने मेरी सुन ली। तीसरे साल विनय का जन्म हुआ। मैंने बाल्यावस्था ही से उसे कठिनाइयों का अभ्यास कराना शुरू किया। न कभी गद्दों पर सुलाती, न कभी महरियों और दाइयों को गोद में जाने देती, न कभी मेवे खाने देती। दस वर्ष की अवस्था तक केवल धार्मिक कथाओं द्वारा उसकी शिक्षा हुई। इसके बाद मैंने उसे डॉक्टर गंगुली के साथ छोड़ दिया। मुझे उन्हीं पर पूरा विश्वास था; और मुझे इसका गर्व है कि विनय की शिक्षा-दीक्षा का का भार जिस पुरुप पर रखा, वह इसके सर्वथा योग्य था। विनय पृथ्वी के अधिकांश प्रांतों का पर्यटन कर चुका है। संस्कृत और भारतीय भापाओं के अतिरिक्त योरप की प्रधान भाषाओं का भी उसे अच्छा गान है। संगीत का उसे इतना अभ्यास है कि अच्छे-अच्छे कलावंत उसके सामने मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकते। नित्य कंबल विछाकर जमीन पर सोता है, और कंबल ही ओढ़ता है। पैदल चलने में कई बार इनाम पा चुका है। जल-पान के लिए मुट्ठी-भर चने, भोजन के लिए रोटी और साग, बस इसके सिवा संसार के और सभी भोज्य-पदार्थ उसके लिए वर्जित-से हैं। बेटी, मैं तुझसे कहाँ तक कहूँ, पूरा त्यागा है। उसके त्याग का सबसे उत्तम फल यह हुआ कि उसके पिता को भी त्यागा बनना पड़ा। जवान बेटे के सामने बूढ़ा बार के विलास का दास बना रह सकता! मैं समझता हूँ कि कि विपय-भोग से उनका मन तृप्त हो गया, और बहुत अच्छा हुआ। त्यागी पुत्र का भोगी पिता अत्यन्त हास्यास्पद दृश्य होता। वह मुक्त हृदय से विनय के सत्कायों में भाग लेते हैं और मैं कह सकतो हूँ कि उनके अनुराग के बगैर विनय को कभी इतनी सफलता न प्राप्त होती। समिति में इस समय एक सौ नवयुवक हैं, जिनमें कितने ही संपन्न घरानों के हैं। कुँवर साहब की इच्छा है कि समिति के सदस्यों की पूर्ण संख्या पाँच सौ तक बढ़ा दी जाय। डॉक्टर गंगुली इस वृद्धावस्था में भी अदम्य उत्साह से
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समिति का संचालन करते है। वही इसके अध्यक्ष हैं। जब व्यवस्थापक सभा के काम से अवकाश मिलता है, तो नित्य दो-ढाई घंटे युवकों को शरीर-विज्ञान संबंधी व्याख्यान देते हैं। पाठ्य-क्रम तीन वर्षों में समाप्त हो जाता है; तब सेवा-कार्य आरंभ होता है। अबकी बीस युवक उत्तीर्ण होंगे, और यह निश्चय किया गया है कि वे दो साल भारत का भ्रमण करें; पर शर्त यह है कि उनके साथ एक लुटिया, डोर, धोती और कंबल के सिवा और सफर का सामान न हो। यहाँ तक कि खर्च के लिए रुपये भी न रखे जायें। इससे कई लाभ होंगे-युवकों को कठिनाइयों का अभ्यास होगा, देश की यथार्थ दशा का ज्ञान होगा, दृष्टि-क्षेत्र विस्तीर्ण हो जायगा, और सबसे बड़ी बात यह कि चरित्र बलवान् होगा, धैर्य, साहस, उद्योग, संकल्य आदि गुणों की बृद्धि होगी। विनय इन लोगों के साथ जा रहा है, और मैं गर्व से फूली नहीं समाती कि मेरा पुत्र जाति-हित के लिए यह आयोजन कर रहा है; और तुमसे सच कहती हूँ, अगर कोई ऐसा अवसर आ पड़े कि जाति-रक्षा के लिए उसे प्राण भी देना पड़ा, तो मुझे जरा भी शोक न होगा। शोक तब होगा, जब मैं उसे ऐश्वर्य के सामने सिर झुकाते या कर्तव्य के क्षेत्र में पीछे हटते देखूँगी। ईश्वर न करे, मैं वह दिन देखने के लिए जीवित रहूँ। मैं नहीं कह सकती कि उस वक्त -मेरे चित्त का क्या दशा होगी। शायद मैं विनय के रक्त को प्यासी हो जाऊँ, शायद इन निर्बल हाथों में इतनी शक्ति आ जाय कि मैं उसका गला घोट दूँ।"

यह कहते कहते रानी के मुख पर एक विचित्र तेजस्विता की झलक दिखाई देने लगो, अश्रु-पूर्ण नेत्रों में आत्मगौरव की लालिमा प्रस्फुटित होने लगी। सोफिया आश्चर्य से रानी का मुँह ताकने लगी। इस कोमल काया में इतना अनुरक्त और परिष्कृत हृदय छिपा हुआ है, इसकी वह कल्पना भी न कर सकती थी।

एक क्षण में रानी ने फिर कहा—“बेटी, मैं आवेश मैं तुमसे अपने दिल की कितनी ही बातें कह गई; पर क्या करूँ, तुम्हारे मुख पर ऐसी मधुर सरलता है, जो मेरे मन को आकर्षित करती है। इतने दिनों में मैंने तुम्हें खूब पहचान लिया। तुम सोफी नहीं, स्त्री के रूप में विनय हो। कुँवर साहब तो तुम्हारे ऊपर मोहित हो गये हैं। घर में आते हैं, तो तुम्हारी चर्चा जरूर करते हैं। यदि धार्मिक बाधा न होतो, तो (मुस्किराकर) उन्होंने मिस्टर सेवक के पास विनय के विवाह का संदेशा कभी का भेज दिया होता।"

सोफी का चेहरा शर्म से लाल हो गया, लंबी-लंबी पलके नीचे को झुक गई, और अधरों पर एक अति सूक्ष्म, शांत, मृदुल मुसकान की छटा दिखाई दी। उसने दोनों हाथों से मुँह छिपा लिया, और बोली—“आप मुझे गालियाँ दे रही हैं, मैं भाग जाऊँगी।”

रानी—“अच्छा, शर्माओ मत। लो, यह चर्चा ही न करूँगी। मेरा तुमसे यही अनुरोध है कि अब तुम्हें यहाँ किसी वात का संकोच न करना चाहिए। इंदु तुम्हारी सहेली थी, तुम्हारे स्वभाव से परिचित थी, तुम्हारी आवश्यकताओं को समझती थी। मुझमें इतनी बुद्धि नहीं। तुम इस घर को अपना घर समझो, जिस चीज की जरूरत हो,
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निस्संकोच भाव से कह दो। अपनी इच्छा के अनुसार भोजन बनवा लो। जब सैर करने को जी चाहे, गाड़ी तैयार करा लो। किसी नौकर को कहीं भेजना चाहो, भेज दो; मुझसे कुछ पूछने की जरूरत नहीं। मुझमे कुछ कहना हो, तुरंत चली आओ; पहले से सूचना देने का काम नहीं! यह कमरा अगर पसंद न हो, ता मेरे बगलवाले कमरे में चलो, जिसमें इन्दु रहती थी। वहाँ जब मेरा जो चाहेगा, तुमसे बातें कर लिया करूँगी। जय अवकाश हो, मुझे इधर-उधर के समाचार सुना देना। बस, यह समझो कि तुम मेरी प्राइवेट सेक्रटरी हो।"

यह कहकर जाह्नवी चली गई। सोफो का हृदय हलका हो गया। उसे बड़ी चिंता हो रही थी कि इंदु के चले जाने पर यहाँ मैं कैसे रहूँगी, कौन मेरी बात पूछेगा, बिन-बुलाये मेहमान की भाँति पड़ी रहुँगी। यह चिंता शांत हो गई।

उस दिन से उसका और भी आदर-सत्कार होने लगा। लौडियाँ उसका मुँह जोहतो रहतीं, बार-बार आकर पूछ जाती-"मिस साहब, कोई काम तो नहीं है?” कोचवान दोनों जून पूछ जाता-"हुक्म हो, तो गाड़ी तैयार करूँ।” रानीजी भी दिन में एक बार जरूर आ बैठती। सोफो को अब मालूम हुआ कि उनका हृदय स्त्री-जाति के प्रति सदिच्छाओं से कितना परिपूर्ण था। उन्हें भारत की देवियों को ईंट और पत्थर के सामने सिर झुकाते देखकर हार्दिक वेदना होती थी। वह उनके जड़वाद को, उनके मिथ्यावाद को, उनके स्वार्थवाद को भारत की अधोगति का मुख्य कारण समझतो थीं। इन विषयों पर सोफी से घंटों बातें किया करतीं।

इस कृपा और स्नेह ने धोरे-धीरे सोफो के दिल से बिरानेमन के भावों को मिटाना शुरू किया। उसके आचार-विचार में परिवर्तन होने लगा। लौंडियों से कुछ कहते हुए अब झेंप न होतो, भवन के किसी भाग में जाते हुए अब संकोच न होता; किंतु चिंताएँ ज्यों ज्यों घटती थीं, विलास-प्रियता बढ़ती थी। उसके अवकाश की मात्रा में वृद्धि होने लगी। विनोद से रुचि होने लगी। कभी-कभी प्राचीन कवियों के चित्रों को देखती, कभी बाग की सैर करने चली जाती, कभी प्यानो पर जा बैठती; यहाँ तक कि कभी-कभी जाह्नवी के साथ शतरंज भी खेलने लगो। वस्त्राभूषण से अब वह उदासीनता न रहो। गाउन के बदले रेशमी साड़ियाँ पहनने लगी। रानीजी के आग्रह से कभी-कभी पान भी खा लेती। कंघी-चोटी से प्रेम हुआ। चिंता त्यागमूलक होती है। निश्चितता का आमोद-विनोद से मेल है।

एक दिन, तीसरे पहर, वह अपने कमरे में बैठी हुई कुछ पढ़ रही थी। गरमी इतनी सख्त थी कि बिजली के पंखे और खस की टट्टियों के होते हुए भी शरीर से पसीना निकल रहा था। बाहर लू से देह झुलसी जाती थी। सहसा प्रभु सेवक आकर बोले—"सोफी, जरा चलकर एक झगड़े का निर्णय कर दो। मैंने एक कविता लिखी है, विनय सिंह को उसके विषय में कई शंकाए हैं। मैं कुछ कहता हूँ, वह कुछ कहते हैं; फैसला तुम्हारे ऊपर छोड़ा गया है। जरा चलो।" [ १०० ]सोफी-"मैं काव्य-संबंधी विवाद का क्या निर्णय करूँगी, पिंगल का अक्षर तक नहीं जानती, अलंकारों का लेश-मात्र भी ज्ञान नहीं। मुझे व्यर्थ ले जाते हो।”

प्रभु सेवक-"उस झगड़े का निर्णय करने के लिए पिंगल जानने की जरूरत नहीं। मेरे और उनके आदर्श में विरोध है। चलो तो।"

सोफ़ी आँगन में निकली, तो ज्वाला-सी देह में लगी। जल्दी-जल्दी पग उठाते हुए विनय के कमरे में आई, जो राजभवन के दूसरे भाग में था। आज तक वह यहाँ कभी न आई थी। कमरे में कोई सामान न था। केवल एक कंबल बिछा हुआ था, और जमीन ही पर दस-पाँच पुस्तकें रखी हुई थीं। न पंखा, न खस की टट्टी, न परदे, न तसवीरें। पछुआ सीधे कमरे में आती थी। कमरे की दीवारें जलते तवे की भाँति तप रही थीं। वहीं विनय कंबल पर सिर झुकाये बैठे हुए थे। सोफी को देखते ही वह उठ खड़े हुए, और उसके लिए कुर्सी लाने दौड़े।

सोफी-“कहाँ जा रहे हैं?”

प्रभु सेवक-(मुस्किराकर) "तुम्हारे लिए कुर्सी लाने।"

सोफी-"वह कुर्सी लायेंगे, और मैं बैठूँगी! कितनी भद्दी बात है।"

प्रभु सेवक-"मैं रोकता भी, तो वह न मानते।"

सोफ़ी-इस कमरे में इनसे कैसे रहा जाता है!"

प्रभु सेवक-"पूरे योगी हैं। मैं तो प्रेम-वश चला आता हूँ।"

इतने में विनय ने एक गद्देदार कुर्सी लाकर सोफी के लिए रख दी। सोफी संकोच और लज्जा से गड़ी जा रही थी। विनय की ऐसी दशा हो रही थी, मानों पानी में भीग रह हैं। सोफी मन में कहती थी-कैसा आदर्श जीवन है! विनय मन में कहते थे- कितना अनुपम सौंदर्य है! दोनों अपनी-अपनी जगह खड़े रहे। आखिर विनय को एक उक्ति सूझी। प्रभु सेवक की ओर देखकर बोले-"हम और तुम बादी हैं, खड़े रह मकते हैं, पर न्यायाधीश का ता उच्च स्थान पर बैठना ही उचित है।"

सोफी ने प्रभु सेवक की ओर ताकते हुए उत्तर दिया--"खेल में बालक अपने को भूल नहीं जाता।”

अंत में तीनों प्राणी कंबल पर बैठे। प्रभु सेवक ने अपनी कविता पढ़ सुनाई। कविता माधुर्य में डूबी हुई, उच्च और पवित्र भावों से परिपूर्ण थी। कवि ने प्रसाद गुण कूट-कूटकर भर दिया था। विपय था-"एक माता का अपनी पुत्री को आशीर्वाद।" पुत्री ससुराल जा रही है; माता उसे गले लगाकर आशीर्वाद देती है-“पुत्री, तू पति-परायणा हो, तेरी गोद फले, उसमें फूल के-से कोमल बच्चे खेलें, उनकी मधुर हास्य-ध्वनि से तेरा घर और आँगन गूँजे। तुझ पर लक्ष्मी की कृपा हो। तू पत्थर भी छुए, तो कंचन हो जाय। तेरा पति तुझ पर उसी माँति अपने प्रेम की छाया रखे, जैसे छप्पर दीवार को अपनी छाया में रखता है।”

कवि ने इन्हीं भावों के अंतर्गत दांपत्य जीवन का ऐसा सुललित चित्र खींचा था
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कि उसमें प्रकाश, पुष्प और प्रेम का आधिक्य था; कहीं वे अँधेरी घाँटियाँ न थीं, जिनमें हम गिर पड़ते हैं; कहीं वे काँटे न थे, जो हमारे पैरों में चुभते हैं; कहीं वह विकार न था, जो हमें मार्ग से विचलित कर देता है। कविता समाप्त करके प्रभु सेवक ने विनयसिंह से कहा-“अब आपको इसके विषय में जो कुछ कहना हो, कहिए।"

विनयसिंह ने सकुचाते हुए उत्तर दिया-"मुझे जो कुछ कहना था, कह चुका।"

प्रभु सेवक-"फिर से कहिए।"

विनयसिंह-"बार-बार वही बातें क्या कहूँ।"

प्रभु सेवक-"मैं आपके कथन का भावार्थ कर दूँ?”

विनयसिंह-"मेरे मन में एक बात आई, कह दी; आप व्यर्थ उसे इतना बढ़ा

प्रभु सेवक-"आखिर आप उन भावों को सोफी के सामने प्रकट करते क्यों शर्माते हैं?”

विनयसिंह-"शर्माता नहीं हूँ, लेकिन मेरा आपसे कोई विवाद नहीं है। आपकी मानव-जीवन का यह आदर्श सर्वोत्तम प्रतीत होता है, मुझे वह अपनी वर्तमान अवस्था के प्रतिकूल जान पड़ता है। इसमें झगड़े की कोई बात नहीं है।"

प्रभु सेवक-(हँसकर) “हाँ, यही तो मैं आपसे कहलाना चाहता हूँ कि आप उसे वर्तमान अवस्था के प्रतिकूल क्यों समझते हैं? क्या आपके विचार में दाम्पत्य जावन सर्वथा निंद्य है? और, क्या संसार के समस्त प्राणियों को संन्यास धारण कर लेना चाहिए?"

विनयसिंह-"यह मेरा आशय कदापि नहीं कि संसार से समस्त प्राणियों को संन्यास धारण कर लेना चाहिए; मेरा आशय केवल यह था कि दाम्पत्य जीवन स्वार्थपरता का पोषक है। इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं, और इस अधोगति की दशा में, जब कि स्वार्थ हमारी नसों में कूट-कूटकर भरा हुआ है, जब कि हम बिना स्वार्थ के कोई काम या कोई बात नहीं करते, यहाँ तक कि माता-पुत्र-सम्बन्ध में-गुरु शिष्य-समय में-पत्नी-पुरुष-सम्बन्ध में स्त्रार्थ का प्राधान्य हो गया है, किसी उच्च कोटि के कवि के लिए दाम्पत्य जीवन की सराहना करना-उसकी तारीफों के पुल बाँधना-शोभा नहीं देता। हम दाम्पत्य सुख के दास हो रहे हैं। हमने इसी को अपने जीवन का लक्ष्य समझ रखा है। इस समय हमें ऐसे व्रतधारियों को, त्यागियों की, परमार्थ-वियों की आवश्यकता है, जो जाति के उद्धार के लिए अपने प्राण तक दे दें। हमारे कविजनों को इन्हीं उच्च और पवित्र भावों को उत्तेजित करना चाहिए। हमारे देश में जन-संख्या जरूरत से ज्यादा हो गई है। हमारी जननी संतान-वृद्धि के भार को अब नहीं सँभाल सकती। विद्यालयों मे, सड़कों पर, गलियों में इतने बालक दिखाई देते हैं कि समझ में नहीं आता, ये क्या करेंगे। हमारे देश में इतनी उपज भी नहीं होती कि सबके लिए एक बार इच्छा-पूर्ण भोजन भी प्राप्त हो। भोजन का अभाव ही हमारे नैतिक

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और आर्थिक पतन का मुख्य कारण है। आपकी कविता सर्वथा असामयिक है। मेरे विचार में इससे समाज का उपकार नहीं हो सकता। इस समय हमारे कवियों का कर्तव्य है त्याग का महत्त्व दिखाना, ब्रह्मचर्य का अनुराग उत्पन्न करना, आत्मनिग्रह का उपदेश करना। दाम्पत्य तो दासत्व का मूल है। और यह समय उसके गुण-गान के लिए अनुकूल नहीं है।”

प्रभु सेवक—"आपको जो कुछ कहना था, कह चुके?”

विनयसिंह—"अभी बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर इस समय इतना ही काफी है।"

प्रभु सेवक—"मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि बलिदान और त्याग के आदर्श को मैं निन्दा नहीं करता। वह मनुष्य के लिए सबसे ऊँचा स्थान है; और वह धन्य है, जो उसे प्राप्त कर ले। किन्तु जिस प्रकार कुछ व्रतधारियों के निर्जल और निराहार रहने से अन्न और जल की उपयोगिता में बाधा नहीं पड़ती, उसी प्रकार दो-चार योगियों के त्याग से दाम्पत्य जीवन त्याज्य नहीं हो जाता। दाम्पत्य मनुष्य के सामाजिक जीवन का मूल है। उसका त्याग कर दीजिए, बस, हमारे सामाजिक संगनठ का शीराजा बिखर जायगा, और हमारी दशा पशुओं के समान हो जायगी। गार्हस्थ्य को ऋषियों ने सर्वोच्च धर्म कहा है; और अगर शांत हृदय से विचार कीजिए, तो विदित हो जायगा कि ऋषियों का यह कथन अत्युक्ति-मात्र नहीं है। दया, सहानुभूति, सहिष्णुता, उपकार; त्याग आदि देवोचित गुणों के विकास के जैसे सुयोग गार्हस्थ्य जीवन में प्राप्त होते हैं, और किसी अवस्था में नहीं मिल सकते। मुझे तो यहाँ तक कहने में संकोच नहीं है कि मनुष्य के लिए यही एक ऐसी व्यवस्था है, जो स्वाभाविक कही जा सकती है। जिन कृत्यों ने मानव जाति का मुख उज्ज्वल कर दिया है, उनका श्रेय योगियों को नहीं, दाम्पत्य-सुख-भोगियों को है। द्रिश्चन्द्र योगी नहीं थे, रामचन्द्र योगी नहीं थे, कृष्ण त्यागी नहीं थे, नेपोलियन त्यागी नहीं था, नेलसन योगी नहीं था। धर्म और विज्ञान के क्षेत्र में त्यागियों ने अवश्य कीर्ति-लाभ की है; लेकिन कर्म-क्षेत्र में यश का सेहरा भोगियों ही के सिर बँधा है। इतिहास में ऐसा एक भी प्रमाण नहीं मिलता कि किसी जाति का उद्धार त्यागियों द्वारा हुआ हो। आज भी हिन्दुस्थान में १० लाख से अधिक त्यागी बसते हैं; पर कौन कह सकता है कि उनसे समाज का कुछ उपकार हो रहा है। संभव है, अप्रत्यक्ष रूप से होता हो; पर प्रत्यक्ष रूप से नहीं होता। फिर यह आशा क्योंकर की जा सकती है कि दांम्पत्य जीवन की अवहेलना से जाति का विशेष उपकार होगा। हाँ, अगर अविचार को आप उपकार कहें, तो अवश्य उपकार होगा।"

यह कथन समाप्त करके प्रमु सेवक ने सोफिया से कहा—"तुमने दोनों वादियों के कथन सुन लिये, तुम इस समय न्याय के आसन पर हो, सत्यासत्य का निर्णय करो।"

सोफी—"इस निर्णय तो तुम आर ही कर सकते हो। तुम्हारी समझ में संगीत बहुत अच्छी चीज है।" [ १०३ ]प्रभु सेवक--"अवश्य।"

सोफी-"लेकिन, अगर किसी घर में आग सधी हुई हो, तो उसके निवासियों को गाते-बजाते देखकर तुम उन्हें क्या कहोगे?”

प्रभु सेवक-"मूर्ख कहूँगा, और क्या।"

सोफी-"क्यों, गाना तो कोई बुरी चीज नहीं?"

प्रभु सेवक-"तो यह साफ-साफ क्यों नहीं कहती कि तुमने इन्हें डिग्री दे दी। मैं पहले ही समझ रहा था कि तुम इन्हीं की तरफ झुकोगी।"

सोफी-"अगर यह भय था, तो तुमने सुझे निर्णायक क्यों बनाया था? तुम्हारी कविता उच्च कोटि की है। मैं इसे सर्वाङ्ग-सुन्दर कहने को तैयार हूँ। लेकिन तुम्हारा कर्तव्य है कि अपनी इस अलौकिक शक्ति को स्वदेश-बंधुओं के हित में लगाओ। अवनति की दशा में शृंगार और प्रेम का राग अलापने की जरूरत नहीं होती, इसे तुम भी स्वीकार करोगे। सामान्य कवियों के लिए कोई बंधन नहीं है-उन पर कोई उत्तर- दायित्व नहीं है। लेकिन तुम्हें ईश्वर ने जितनी ही महत्त्व पूर्ण शक्ति प्रदान को है, उतना ही उत्तरदायित्व भी तुम्हारे ऊपर ज्यादा है।"

जब सोफिया चली गई, तो विनय ने प्रभु सेवक से कहा- मैं इस निर्णय को पहले ही से जानता था। तुम लजित तो न हुए होगे?”

प्रभु सेवक-"उसने तुम्हारी मुरौक्त की है।"

'विनयसिंह- "भाई, तुम बड़े अन्यायी हो। इतने युक्ति-पूर्ण निर्णय पर भी उनके सिर इलजाम लगा ही दिया। मैं तो उनकी विचारशीलता का पहले ही से कायल था, आज से भक्त हो गया। इस निर्णय ने मेरे भाग्य का निर्णय कर दिया। प्रभू, मुझे स्वप्न में भी यह आशा न थी कि मैं इतनी आसानी से लालसा का दास हो जाऊँगा। मैं मार्ग से विचलित हो गया, मेरा संयम कपटी मित्र की भाँति परीक्षा के पहले ही अवसर पर मेरा साथ छोड़ गया। मैं भली भाँति जानता हूँ कि मैं आकाश के तारे तोड़ने जा रहा हूँ-वह फल खाने जा रहा हूँ, जो मेरे लिए वर्जित है। खूब जानता हूँ प्रभु, कि मैं अपने जीवन को नैराश्य की वेदी पर बलिदान कर रहा हूँ। अपनी पूज्य माता के हृदय पर कुठाराघात कर रहा हूँ, अपनी मर्यादा की नौका को कलंक के सागर में डुबा रहा हूँ, अपनी महत्वाकांक्षाओं को विसर्जित कर रहा हूँ; पर मेरा अंतःकरण इसके लिए मेरा तिरस्कार नहीं करता। सोफिया मेरी किसी तरह नहीं हो सकती पर मैं उसका हो गया, और आजीवन उसी का रहूँगा।"

प्रभु सेवक-“विनय, अगर सोफी को यह बात मालूम हो गई, तो वह यहाँ एक अण भी न रहेगी; कहीं वह आत्महत्या न कर ले। ईश्वर के लिए यह अनर्थं न करो।"

विनयसिंह-"नहीं प्रभु, मैं बहुत जल्द यहाँ से चला जाऊँगा, और फिर कभी न आऊँगा। मेरा हृदय जलकर भस्म हो जाय; पर सोफी को आँच भी न लगने पावेगी। में दूर देश में बैठा हुआ इस विद्या, विवेक और पवित्रता की देवी की उपासना किया
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करूँगा। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मेरे प्रेम मे वासना का लेश भी नहीं है। मेरे जीवन को सार्थक बनाने के लिए यह अनुराग ही काफी है। यह मत समझो कि मैं सेवा-धर्म का त्याग कर रहा हूँ। नहीं, ऐसा न होगा, मैं अब भी सेवा-मार्ग का अनुगामी रहूँगा; अंतर केवल इतना होगा कि निराकार की जगह साकार की, अदृश्य की जगह दृश्यमान की भक्ति करूँगा।”

सहसा जाह्नवी ने आकर कहा- विनय, जरा इन्दु के पास चले जाओ, कई दिन से उसका समाचार नहीं मिला। मुझे शंका हो रही है, कहीं बीमार तो नहीं हो गई। खत भेजने में इतना विलंब तो कभी न करतो थी!”

विनय तैयार हो गये। कुरता पहना, हाथ में सोटा लिया, और चल दिये। प्रभु सेवक सोफी के पास आकर बैठ गये, और सोचने लगे-विनयसिंह को बातें इसने कहूँ या न कहूँ। सोफो ने उन्हें चिंतित देखकर पूछा-"कुँवर साहब कुछ कहते थे?”

प्रभु सेवक--"उस विषय में तो कुछ नहीं कहते थे; पर तुम्हारे विषय में ऐसे भात्र प्रकट किये, जिनकी संभावना मेरी कल्पना में भी न आ सकती थी।"

सोफ़ी ने क्षण-भर जमीन की ओर ताकने के बाद कहा-"मैं समझती हूँ, पहले हो समझ जाना चाहिए था; पर मैं इससे चिंतेत नहीं हूँ। यह भावना मेरे हृदय में उसी दिन अंकुरित हुई, जब यहाँ आने के चौथे दिन बाद मैंने आँखें खोली, और उस अर्द्धचेतना की दशा में एक देव-मूर्ति को सामने खड़े अपनी ओर वात्सल्य-दृष्टि से देखते हुए पाया वह दृष्टि और वह मूर्ति आज तक मेरे हृदय पर अंकित है, और सदैव अंकित रहेगी।"

प्रभु सेवक-"सोफो, तुम्हें यह कहते हुए लजा नहीं आतो?"

सोफिया-"नहीं, लज्जा नहीं आती। लज्जा को बात ही नहीं है। वह मुझे अपने प्रेम के योग्य समझते हैं, यह मेरे लिए गौरव की बात है। ऐसे साधु-प्रकृति, ऐसे त्याग-मृति, ऐसे सदुत्साही पुरुष की प्रेम-पात्री बनने में कोई लज्जा नहीं। अगर प्रेम-प्रसाद पाकर किसी युवती को गर्व होना चाहिए, तो वह युक्ती मैं हूँ। यही वरदान था, जिसके लिए मैं इतने दिनों तक शांत भाव से धैर्य धारण किये हुए मन में तप कर रही थी। वह वरदान आज मुझे मिल गया है, तो यह मेरे लिए लजा की बात नहीं, आनन्द की बात है।"

प्रभु सेवक—"धर्म-विरोध के होते हुए भी?”

सोफिया—“यह विचार उन लोगों के लिए है, जिनके प्रेम बासनाओं से युक्त होते है। प्रेम ओर वासना में उतना ही अंतर है, जिनता कंचन और काँच में। प्रेम की सीमा भक्ति से मिलती है, और उनमें केवल मात्रा का भेद है। भक्ति में सम्मान का और प्रेम में सेवा-भाव का आधिक्य होता है। प्रेम के लिए धर्म की विभिन्नता कोई बंधन नहीं है। ऐसी बाधाएँ उस मनोभाव के लिए हैं, जिसका अंत विवाह है, उस प्रेम के लिए नहीं, जिसका अंत बलिदान है।”

प्रभु सेवक—"मैंने तुम्हें जता दिया, यहाँ से चलने के लिए तैयार रहो।"

सोफिया—“मगर घर पर किसी से इसकी चर्चा करने की जरूरत नहीं।" [ १०५ ]प्रभु सेवक- "इससे निश्चित रहो।"

सोफिया-"कुछ निश्चय हुआ, यहाँ से उनके जाने का कब इरादा है?"

प्रभु सेवक-"तैयारियाँ हो रही हैं। रानी जी को यह बात मालूम हुई, तो विनय के लिए कुशल नहीं। मुझे आश्चर्य न होगा, अगर मामा से इसकी शिकायत करें।"

सोफिया ने गर्व से सिर उठाकर कहा-"प्रभु, कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो? प्रेम अभय का मंत्र है। प्रेम का उपासक संसार की समस्त चिंताओं और बाधाओं से मुक्त हो जाता है।"

प्रभु सेवक चले गये, तो सोफिया ने किताब बंद कर दी, और बाग में आकर हो घास पर लेट गई। उसे आज लहराते हुए फूलों में, मंद-मंद चलनेवाली वायु में, वृक्षों पर चहकनेवाली चिड़ियों के कलरव में, आकाश पर छाई लालिमा में एक विचित्र शोभा, एक अकथनीय सुषमा, एक अलौकिक छटा का अनुभव हो रहा था। वह प्रेम-रत्न पा गई थी।

उस दिन के बाद एक सप्ताह हो गया, विनयसिंह ने राजपूताने को प्रस्थान न किया। वह किसी-न-किसो हीले से दिन टालने जाते थे। कोई तैयारी न करनी थी, फिर भी तैयारियां पूरी न होती थीं। अब विनय और सोफिया, दोनों ही को विदित होने लगा कि प्रेम को, जब वह स्त्री और पुरुष में हो, वासना से निर्लिप्त रखना उतना आसान नहीं, जितना उन्होंने समझा था। सोपी एक किताब बगल में दबाकर प्रातःकाल बाग में जा बैठती। शाम को भी कहीं और सैर करने न जाकर वहीं आ जाती। विनय भी उससे कुछ दूर पर लिखते-पढ़ते, कुत्ते से खेलने या किसी मित्र से बातें करते अवश्य दिखाई देते। दोनों एक दूसरे की ओर दबी आखों से देख लेते थे; पर संकोच वश कोई बातचीत करने में अग्रसर न होता था। दोनों ही लजाशील थे; पर दोनों इस मौन-भाषा का आशय समझते थे। पहले इस सपा का ज्ञान न था। दोनों के मन मे एक ही उत्कंठा, एक हो विकलता, एक ही तड़ा, एक ही ज्वाला थी। मौन-भाषा से उन्हें तस्कीन न होती; पर किसी को वार्तालार करने का साहस न होता। दोनों अपने-अपने मन में प्रेम-वार्ता की नई-नई उक्तियाँ सोचकर आते, और यहाँ आकर भूल जाते। दोनों ही व्रतधारी, दोनों ही आदर्शवादी थे; किंतु एक का धर्म-ग्रंथों की ओर ताकने को जी न चाहता था, दूसरा समिति को अपने निर्धारित विषय पर व्याख्यान देने का अवसर भी न पाता था। दोनों ही के लिए प्रेम-रत्न प्रेम-मद सिद्ध हो रहा था।

एक दिन, रात को, भोजन करने के बाद, सोफिया रानी जाह्नवी के पास बैठी हुई कोई समाचार-पत्र पढ़कर सुना रही थी कि विनयसिंह आकर बैठ गये। सोफी की विचित्र दशा हो गई, पढ़ते-पढ़ते भूल जाती कि कहाँ तक पढ़ चुकी हूँ, और पढ़ी हुई पंक्तियों को फिर पढ़ने लगती, वह भी अटक-अटककर, शब्दों पर आँखें न जमतीं। वह भूल जाना चाहती थी कि कमरे में रानी के अतिरिक्त कोई और बैठा हुआ है, पर बिना विनय की ओर देखे ही उसे दिव्य ज्ञान सा हो जाता था कि अब वह मेरी ओर
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ताक रहे हैं, और तत्क्षण उसका मन अस्थिर हो जाता। जाह्नवी ने कई बार टोका- सोती तो नहीं हो, क्या बात है, रुक क्यों जाती हो, आज तुझे क्या हो गया है बेटी? सहसा उनकी दृष्टि विनयसिंह की और फिरी-उसी समय, जब वह प्रेमातुर नेत्रों से उसकी ओर ताक रहे थे। जाह्नवी का विकसित, शांत मुख-मंडल, तमतमा उठा मानों बाग में आग लग गई। अग्निमय नेत्रों से विनय की ओर देखकर बोलीं-"तुम कब जा रहे हो?"

विनयसिंह-बहुत जल्द।

जाह्नवी-"मैं बहुत जल्द का आशय यह समझती हूँ कि तुम कल प्रातःकाल है प्रस्थान करोगे।"

विनयसिंह-"अभी साथ जानेवाले कई सेवक बाहर गये हुए है।"

जाह्नवी-"कोई चिंता नहीं के पीछे चले जायेंगे, तुम्हें कल प्रस्थान करना होगा।"

विनयसिंह-"जैसी आज्ञा।”

जाह्नवी-"अभी जाकर सब आदमियों को सूचना दे दो। मैं चाहती हूँ कि तुम स्टेशन पर सूर्य के दर्शन करो।"

विनय-"इंदु से मिलने जाना है।"

जाह्नवी-“कोई जरूरत नहीं। मिलने-भेंटने की प्रथा स्त्रियों के लिए है, पुरुषों के लिए नहीं, जाओ।”

विनय को फिर कुछ कहने की हिम्मत न हुई, आहिस्ते से उठे, और चले गये।

सोफी ने साहस करके कहा-"आजकल तो राजपूताने में आग बरसती होगी!"

जाह्नवी ने निश्चयात्मक भाव से कहा-"कर्तव्य कभी आग और पानी की परवा नहीं करता। जाओ, तुम भी सो रहो, सवेरे उठना है।"

सोफी सारी रात बैठी रही। विनय से एक बार मिलने के लिए उसका हृदय तड़फड़ा रहा था-आह! वह कल चले जायँगे, और मैं उनसे बिदा भी न हो सकूँगी। वह बार-बार खिड़की से झाँकती कि कहीं विनय की आहट मिल जाय। छत पर चढ़कर देखा; अन्धकार छाया हुआ था, तारागण उसकी आतुरता पर हँस रहे थे। उसके जी में कई बार प्रबल आवेग हुआ कि छत पर से नीचे बाग में कूद पड़, उनके कम जाऊँ, और कहूँ-मैं तुम्हारी हूँ। आह! अगर संप्रदाय ने हमारे और उनके बीच में बाधा न खड़ी कर दी होती, तो वह इतने चिन्तित क्यों होता, मुझको इतना संकोच क्यों होता, रानी मेरी अवहेलना क्यों करतीं? अगर मैं राजपूतनी होती, ती रानी सहर्ष मुझे स्वीकार करतीं, पर मैं ईसा की अनुचरी होने के कारण त्याज्य हूँ। ईसा और कृष्ण में कितनी समानता है; पर उनके अनुचरों में कितनी विभिन्नता! कैसा अनर्थ है! कौन कह सकता है कि सांप्रदायिक भेदों ने हमारी आत्माओं पर कितना अत्याचार किया है।

ज्यों-ज्यों रात बीतती थी, सोफी का दिल नैराश्य से बैठा जाता था--हाय, मैं यों ही बैठी रहूँगी, और सर्वरा हो जायगा, विनय चले जायेंगे। कोई ऐसा भी तो नहीं,
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जिसके हाथों एक पत्र लिलकर भेज दूँ। मेरे ही कारण तो उन्हें यह दंड मिल रहा है। माता का हृदय भी निर्दय होता है। मैं समझी थी, मैं ही अभागिनी हूँ; पर अब मालूम हुआ, ऐमी माताएँ और भी हैं!

तब वह छत पर से उतरी, और अपने कमरे में जाकर लेट रही। नैराश्य ने निद्रा की शरण ली; पर चिन्ता की निद्रा क्षुधावस्था का विनोद है... शान्ति-विहीन और नीरस। जरा ही देर सोई थी कि चौंककर उठ बैठी। सूर्य का प्रकाश कमरे में फैल गया था, और विनयसिंह अपने बीसौं साथियों के साथ स्टेशन जाने के लिए तैयार खड़े थे बाग में हजारों आदमियों की भीड़ लगी हुई थी।

वह तुरन्त बाग में आ पहुँची, और भीड़ को हटाती हुई यात्रियों के सम्मुख आकर खड़ी हो गई। राष्ट्रीय गान हो रहा था, यात्री नंगे सिर, नंगे पैर, एक-एक कुरता पहने, हाथ में लकड़ी लिये, गरदनों में एक-एक थैली लटकाये चलने को तैयार थे। सब-के-सब प्रसन्न-वदन, उल्लास से भरे हुए, जातीयता के गर्व से उन्मत्त थे, जिनको देखकर दर्शकों के मन गौरवान्वित हो रहे थे। एक क्षण में रानी जाह्नवी आई; और यात्रियों के मस्तक पर केशर के तिलक लगाये। तब कुँवर भरतसिंह ने आकर उनके गलों में हार पहनाये। इसके बाद डॉक्टर गंगुली ने चुने हुए शब्दों में उन्हें उपदेश दिया। उपदेश सुनकर यात्री लोग प्रस्थित हुए। जयजयकार की ध्वनि सहस्र-सहस्र कण्ठों से निकलकर वायुमंडल को प्रतिध्वनित करने लगी? स्त्रियों और पुरुषों का एक समूह उनके पीछे-पीछे चला। सोफिया चित्रवत् खड़ी यह दृश्य देख रही थी। उसके हृदय में बार-बार उत्कंठा होती थी, मैं भी इन्हीं यात्रियों के साथ चली जाऊँ, और अपने दुःखित बन्धुओं की सेवा करूँ। उसकी आँखें विनयसिंह की ओर लगी हुई थीं। एकाएक विनयसिंह की आँखें उसकी ओर फिरी; उनमें कितना नैराश्य था, कितनी मर्मवेदना, कितनी विवशता, कितनी विनय! वह सब यात्रियों के पीछे चल रहे थे, बहुत धीरे-धीरे, मानों पैरों में बेड़ी पड़ी हो। सोफिया उपचेतना की अवस्था में यात्रियों के पीछे-पीछे चली, और उसी दशा में सड़क पर आ पहुँची; फिर चौराहा मिला, इसके बाद किसी राजा का विशाल भवन मिला; पर अभी तक सोफी को खबर न हुई कि मैं इनके साथ चली आ रही हूँ। उसे इस समय विनयसिंह के सिवा और कोई नजर ही न आता था। कोई प्रबल आकर्षण उसे खींचे लिये जाता था। यहाँ तक कि वह स्टेशन के समार के चौराहे पर पहुँच गई। अचानक उसके कानों में प्रभु सेवक की आवाज आई, जा बड़े वेग से फिटन दौड़ाये चले आते थे।

प्रभु सेवक ने पूछा—"सोफी, तुम कहाँ जा रही हो? जूते तक नहीं, केवल स्लीपर पहने हो!"

सोफिया पर घड़ों पानी पड़ गया-आह! मैं इस वेश में कहाँ चली आई! मुझे सुधि ही न रही। लजाती हुई बोली-"कहीं तो नहीं?”

प्रभु सेवक—"क्या इन लोगों के साथ स्टेशन तक जाओगी? आओ, गाड़ी पर
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बैठ जाओ। मैं भी वहीं चलता हूँ। मुझे तो अभी-अभी मालूम हुआ कि ये लोग जा रहें हैं, जल्दी से गाड़ी तैयार करके आ पहुँचा, नहीं तो मुलाकात भी न होती।"

सोफी—"मैं इतनी दूर निकल आई, और जरा भी खयाल न आया कि कहाँ जा रही हूँ।"

प्रभु सेवक— "आकर बैठ न जाओ। इतनी दूर आई हो, तो स्टेशन तक और चली चलो।"

सोफी—"मैं स्टेशन न जाऊँगी। यहीं से लौट जाऊँगी।”

प्रभु सेवक—"मैं स्टेशन से लौटता हुआ आऊँगा। आज तुम्हें मेरे साथ घर चलना होगा।"

सोफी— मैं वहाँ न जाऊँगी।"

प्रभु सेवक—"बड़े पापा बहुत नाराज होंगे। आज उन्होंने तुम्हें बहुत आग्रद कर के बुलाया है।"

सोफी—"जब तक मामा मुझे खुद आकर न ले जायँगी, उस घर में कदम न रखूँगी।"

यह कहकर सोफी लौट पड़ी, और प्रभु सेवक स्टेशन की तरफ चल दिये। स्टेशन पर पहुँचकर विनय ने चारों तरफ आँखें फाड़-फाड़कर देखा, सोफी न थी।

प्रभु सेवक ने उनके कान में कहा-“धर्मशाले तक यों ही रात के कपड़े पहने चली आई थी, वहाँ से लौट गई। जाकर खत जरूर लिखिएगा, वरना बह राजपूताने जा पहुँचेगी।"

विनय ने गद्गद कंठ से कहा-"केवल देह लेकर जा रहा हूँ, हृदय वहीं छोटे जाता हूँ।"