रघुवंश/भूमिका/कालिदास के ग्रन्थ

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कालिदास के ग्रन्थ।

रघुवंश, कुमारसम्भव और मेघदूत, ये तीन काव्य और शकुन्तला, विक्रमोर्वशीय और गालविकाग्निमित्र, ये तीन नाटक कालिदास के प्रधान ग्रन्थ हैं। इनके सिवा ऋतुसंहार, शृङ्गारतिलक, श्यामलादण्डक आदि और भी कई छोटी छोटी पुस्तकें उनके नाम से प्रसिद्ध हैं।

कुमारसम्भव।

कुमारसम्भव में शिव-पार्वती के विवाह की कथा है। श्रीयुत बाबू अरविन्द घोष की राय है कि कवि ने उसमें पुरुष और प्रकृति के संयोग का चित्र दिखाया है। इसी संयोग से इस संसार की सृष्टि हुई है। इस काव्य में कवि ने यह भी स्पष्टतापूर्वक दिखाया है कि जीवात्मा किस तरह ईश्वर की खोज करता है और कैसे उसे प्राप्त करता है। इस तरह कवि ने धर्म-सम्बन्धी दो बड़े भारी आध्यात्मिक और दार्शनिक तत्वों को [ ३८ ]
स्त्री-पुरुष के चरित्र के व्याज से प्रकट कर दिखाया है। सांसारिक विषयों के वर्णन का यह बहुत ही अच्छा ढंग है।

मेघदूत।

मेघदूत में कालिदास ने आदर्श प्रेम का चित्र खींचा है। उसको सविशेष हृदयहारी और यथार्थता-व्यञ्जक बनाने के लिए यक्ष को नायक कल्पना करके कालिदास ने अपने कवित्व-कौशल की पराकाष्ठा करदी है। निःस्वार्थ और निर्व्याज प्रेम का जैसा चित्र मेघदूत में देखने को मिलता है वैसा और किसी काव्य में नहीं। मेघदूत के यक्ष का प्रेम निर्दोष है। और, ऐसे प्रेम से क्या नहीं हो सकता ? प्रेम से जीवन पवित्र हो सकता है। प्रेम से जीवन को अलौकिक सौन्दर्य प्राप्त हो सकता है। प्रेम से जीवन सार्थक हो सकता है। मनुष्य-प्रेम से ईश्वर सम्बन्धी प्रेम की भी उत्पत्ति हो सकती है। अतएव कालिदास का मेघदूत शृङ्गार और करुण-रस से परिप्लुत है तो क्या हुआ, वह उच्च-प्रेम का सजीव उदाहरण है।

विक्रमोर्वशीय और मालविकाग्निमित्र।

विक्रमोर्वशीय में राजा पुरूरवा और उर्वशी की और मालविकाग्नि- मित्र में राजा अग्निमित्र और मालविका की कथा है। अभिनय की दृष्टि से और कविता की भी दृष्टि से ये दोनों ही नाटक अच्छे हैं। पर इनमें समाज के हित की कोई बात नहीं। केवल प्रणय और प्रणयोन्माद-वर्णन का ही इनमें प्राबल्य है। कालिदास ने शायद जान बूझ कर इनमें आदर्श चरित्रों का चित्रण नहीं किया। उन्होंने शायद समाज की तात्कालिक अवस्था का चित्र खींचने के लिए ही इन नाटकों की रचना की है। अतएव समाज की जैसी दशा थी वैसा चित्र उन्हों ने खींच दिया और दिखा दिया कि उस समय के प्रणय का यह हाल था।

अभिज्ञान-शाकुन्तल।

कालिदास का यह नाटक उनके पूर्वोक्त दोनों नाटकों से अच्छा है। ऐसा अच्छा नाटक शायद ही और किसी भाषा में हो। कलकत्ते के संस्कृत कालेज के अध्यापक श्रीयुत राजेन्द्रनाथ-देव शर्मा विद्याभूषण ने इस नाटक के विषय में जो सम्मति दी है उसका सारांश सुन लीजिए:-

अभिज्ञान-शाकुन्तल कालिदास की विश्वतोमुखी प्रतिभा, ब्रह्माण्डव्या [ ३९ ]
पिनी कल्पना और सर्वातिशायिनी रचना की सर्वोत्तम कसौटी है। विक्रमोर्वशीय और मालविकाग्निमित्र में कवि ने जिन दिव्य दृश्यों और दिव्य मूर्तियों का अङ्कण किया है वे सब तो शाकुन्तल में हैं ही; परन्तु उसमें ऐसी और भी अनेक मूर्तियाँ और अनेक चीजें हैं जिनका मनही मन केवल अनुभव किया जा सकता है, दूसरे को उनका अनुभव नहीं कराया जा सकता। वे केवल आत्मसंवेद्य हैं; भाषा की सहायता से वे दूसरे पर प्रकट नहीं की जा सकतीं। इसी से अभिज्ञान-शाकुन्तल कवि-सृष्टि का चरम उत्कर्ष है। सहृदय जनों ने यथार्थ ही कहा है--"कालिदासस्य सर्वस्वमभिज्ञान-शाकुन्तलम्।" अभिज्ञान-शाकुन्तल कालिदास का सर्वस्व है; उनकी अपार्थिव कल्पनारूपिणी उद्यान-वाटिका की अमृतमयी पारिजातलता है। धर्म और प्रेम, इन दोनों के सम्मेलन से जगत् में जिस मधुर आनन्द की उत्पत्ति होती है, अभिज्ञान-शाकुन्तल-रूपी स्वच्छ दर्पण में उसी का प्रतिबिम्ब देखने को मिलता है। शकुन्तला महाकवि की चरम सृष्टि है-वाणी के वर-पुत्र का अक्षय आलेख्य है!

बँगला के सर्वश्रेष्ठ कवि कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शकुन्तला-रहस्य नामक एक प्रबन्ध में अभिज्ञान-शाकुन्तल की प्रशंसा में जो कुछ लिखा है वह भी सुनने लायक है। अतएव उसके भी कुछ अंश का अनुवाद नीचे दिया जाता है:-

इस नाटक में दो संयोगात्मक घटनायें हैं। नाटक के आदि मैं दुष्यन्त और शकुन्तला, पारस्परिक सौन्दर्य से मोहित होकर, आपस में मिलते हैं। यह मिलाप विषय-वासना-जन्य है। यह इस नाटक की पहली संयोगात्मक घटना है। दूसरी घटना नाटक के अन्त में है। यह उस समय की है जब विषयवासना से रहित होकर सच्चे ईश्वरीय प्रेम की प्रेरणा से मरीचि के आश्रम में दुष्यन्त और शकुन्तला दोनों मिलते हैं। इस समूचे नाटक का उद्देश पहली संयोगात्मक घटना को दूसरी में परिणत कर देना है। अथवा यों कहिए कि प्रेम को सांसारिक सौन्दर्य के गढ़े से निकाल कर धार्मिक सौन्दर्य के अविनश्वर स्वर्ग में स्थापित करना ही कालिदास का मुख्य उद्देश है।

इस उद्देश की पूर्ति', अर्थात् पृथ्वी और स्वर्ग का संयोग, कालिदास [ ४० ]
ने बहुत ही अच्छी तरह से किया है । कालिदास की पृथ्वी ऐसी सुगमता से स्वर्ग में जा मिलती है कि पाठकों को दोनों की सीमा का मेल मालूम ही नहीं पड़ता। पहले अङ्क में कवि ने विषय-वासना-विवश शकुन्तला के अधःपतन को छिपाने की चेष्टा नहीं की। युवावस्था के कारण नई नई बाते जो होती हैं उन सबका कवि ने चित्र सा खींच दिया है। यह शकुन्तला के भोलेपन का प्रमाण है। दुष्यन्त को देखने से उसके हृदय में प्रेम-सम्बन्धी जो जो भाव आविर्भूत हुए उनसे सामना करने के लिए वह तैयार न थी। वह यह न जानती थी कि ऐसे अवसर पर अपने चित्त की वृत्तियों को मैं कैसे रोकूँ, और अपने हृद्रत भावों को मैं कैसे छिपाऊँ। वह प्रेम के प्रपञ्च से बिलकुल ही अपरिचित थी। ऐसे मौके के लिए जो शस्त्रास्त्र दरकार होते हैं वे उसके पास न थे। इससे उसने न तो अपने हृदय के भावों पर ही अविश्वास किया और न अपने प्रेमी दुष्यन्त के व्यवहार ही पर। जैसे उसके आश्रम की मृगियाँ भय से एकदम अपरिचित थीं वैसे ही वह आश्रमवासिनी कन्या भी इस तरह की आपत्तियों से बिलकुल अनजान थी।

प्रथम अङ्क में दुष्यन्त और शकुन्तला के बीच कामुक और कामिनी के नाते जो प्रीति हुई है उसकी असारता, और अन्तिम अङ्क में भरत के माता-पिता के रूप में जो प्रीति हुई है उसकी सारता कवि ने दिखाई है। पहला अङ्क चमक-दमक से भरा हुआ है। कहीं एक संन्यासी की कन्या खड़ी है। कहीं उसकी दो सखियाँ इधर उधर दौड़ रही हैं। कहीं वन की लतायें नवीन पल्लवों और कलियों से युक्त अपूर्व शोभा धारण कर रही हैं; कहीं वृक्ष की ओट से राजा इन सब दृश्यों को देख रहा है। परन्तु, अन्तिम अङ्क में, मरीचि के आश्रम का दृश्य कुछ और ही है। वहाँ पर शकुन्तला भरत की माता और धर्म की प्रत्यक्ष-मूर्ति की तरह निवास करती है। वहाँ कोई सखी-सहेली वृक्षसेचनादि नहीं करती और न कोई हरिण के छोटे छोटे बच्चों ही को खिलाती है। वहाँ केवल एक छोटा लड़का अपने भोले भाले अनोखे ढंग से आश्रम को सुशोभित कर रहा है। वह उस आश्रम के वृक्ष, लता, फल, फूल आदि सब के सौन्दर्य और माधुर्य को अपने में ही एकत्र सा कर लेता है। वहाँ की स्त्रियाँ [ ४१ ]
भी उसी चञ्चल बालक के लाड़-प्यार में लगी रहती हैं। जब शकुन्तला रङ्गशाला में आती है तब शुद्धहृदया, प्रायश्चित्तपरायणा, पीतवदना और मलिनवसना देख पड़ती है। बहुत दिनों के प्रायश्चित्त ने दुष्यन्त के पहले मिलाप के कलङ्क को एकदम धो डाला है। अब वह वात्सल्य -भाव से पूर्ण है। अब वह माता और गृहिणी में परिणत हो गई है। ऐसी दशा में कौन उसको अस्वीकार कर सकता था ?

शकुन्तला और कुमारसम्भव दोनो में कवि ने साफ़ साफ़ यह दिखा दिया है कि धर्मावलम्बी होने से सौन्दर्य चिरस्थायी होता है; संयमशील और हितवर्द्धक प्रेम ही सर्वश्रेष्ठ है; निग्रह न होने से वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। महाकवि कालिदास ने केवल विषय-विलास को ही प्रेम का उद्देश नहीं माना। उन्होंने साफ़ कह दिया है कि प्रेम का यथार्थ उद्दश परोपकार है। इस नाटक से यह शिक्षा मिलती है कि दाम्पत्य-प्रेम जब तक अपने ही में संकुचित रहता है। जब तक वह परोपकारी नहीं होता; जब तक समाज, पुत्र, कन्या आदि पर उसका असर नहीं पड़ता--तब तक उसे निष्फल और क्षणभङ गुर समझना चाहिए।

भारतवासियों के दो अनोखे सिद्धान्त हैं-एक हितकारी गृहस्थाश्रम का बन्धन, दूसरा आत्मा की स्वतन्त्रता। संसार की कई एक जातियों, धर्मों और देशों से भारतवर्ष का सम्बन्ध है। वह किसी को अलग नहीं कर सकता। परन्तु तपस्या के उच्च आसन पर वह अकेले ही शोभित है। कालिदास ने इन दोनों सिद्धान्तों का घनिष्ठ सम्बन्ध अच्छी तरह दिखाया है। उन्होंने मरीचि के आश्रम के छोटे छोटेलड़कों का सिंह के बच्चों के साथ खेलना लिखा है। संन्यास और गृहस्थाश्रम का मेल, कालिदास से अच्छा और शायद ही किसी ने दिखाया हो।

संन्यासियों की कुटी के आधार पर कालिदास ने गृहस्थ का घर बनाया है। उन्होंने दाम्पत्य-प्रेम को विषय के पक्ष में जाने से बचाया है और उसे संन्यासोचित ऊँचा आसन दिया है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध कठिन नियमों से जकड़ा हुआ है। कालिदास ने उस बन्धन के सम्बन्ध को सौन्दर्य के तत्व से भी सही सिद्ध किया है। कालिदास ने नम्रता, धर्म और माधुर्य्य मिले हुए सौंदर्य को ही पूज्य [ ४२ ]
माना है, केवल बाहरी सौन्दर्य को नहीं। कालिदास का सौन्दर्य घनिष्ठता में एकाङ्गी, किन्तु व्यापकता में सारे संसार को अपनी गोद में लिये हुए है। जैसे द्रुतप्रवाहा नदी समुद्र में मिल कर अखंड शान्ति लाम करती है, वैसे ही स्त्री-पुरुषों का प्रेम सौन्दर्य की गोद में पहुँच कर असीम शान्ति सुख पाता है। ऐसा निग्रह-युक्त प्रेम निग्रहहीन प्रेम से उत्तम ही नहीं होता, किन्तु आश्चर्यकारक भी होता है।

रवीन्द्र बाबू की सम्मति के इस अल्पांश से यह अच्छी तरह मालूम हो जायगा कि अभिज्ञान-शाकुन्तल कैसा नाटक है और उससे क्या शिक्षा मिलती है।

'कालिदास का रघुवंश।'

कालिदास के ग्रन्थों में रघुवंश सर्वश्रेष्ठ है। उसकी सर्वोत्तमता का कारण यह है कि उसमें महाकवि ने नैसर्गिक वर्णन का सबसे अच्छा चित्र उतारा है। और, सृष्टि चातुर्य का सूक्ष्म और सच्चा ज्ञान होना ही कवि का सब से बड़ा गुण है। इस गुण के सम्बन्ध में श्रीयुत राजेन्द्रनाथदेव शर्मा ने अपने 'कालिदास" नामक ग्रन्थ में बहुत कुछ लिखा है। उसका आशय नीचे दिया जाता है:-

कवि का प्रधान गुण सृष्टिनैपुण्य है। सुन्दर सुन्दर चरित्रों की सृष्टि और उस चरित्रावली का देश, काल और अवस्था के अनुसार काव्य में समावेश करना ही कवि का सर्वश्रेष्ठ कौशल है। यह कौशल जिसमें नहीं उसमें अन्य गुण चाहे जितने हों उसकी रचना उत्कृष्ट नहीं हो सकती। सृष्टिवर्णन स्वभावानुरूप होने से मनोरम होता है; स्वभाव-प्रतिकूल होने से विरक्तिजनक हो जाता है। इसी से आरव्योपन्यास की अधिकांश घटनायें सहृदय-सम्मत नहीं। स्वभाव के अनुसार जो व्यापार होते हैं, कवि की सष्टि में तदनुयायी व्यापारों ही का होना उचित है। यदि कवि अपने सृष्टि कौशल में सांसारिक व्यापार-समूह को स्वाभाविक व्यापार की अपेक्षा अधिकतर मनोहर और वैचित्र्य-विभूषित बना सके तो उसका काव्य और भी सुन्दर हो। मनुष्य के प्रधान गुणों में आत्म-त्याग भी एक गुण है। बह एक प्रकार की श्रेष्ठ सम्पत्ति है। संसार में इस आत्मत्याग के अनेक उदाहरण देखे जाते हैं। यदि कवि अपने काव्य में इस आत्म[ ४३ ]
त्याग की उत्तम मूर्ति बना सके तो उसका काव्य निःसन्देह बहुत ही हृदयहारी होगा। किन्तु आत्मत्याग के जैसे दृष्टान्त संसार में दृष्टिगोचर होते हैं उनकी अपेक्षा यदि कवि ऐसे दृष्टान्तों को अधिकतर मनोज्ञ बना सके तो उसकी सृष्टि स्वाभाविक सृष्टि की अपेक्षा समधिक चमत्कारिणी और आह्लाददायिनी होगी। इस चमत्कारिणी कवि-सृष्टि में यदि कुछ भी स्वभाव-विरुद्ध, अर्थात् अस्वाभाविक, न होगा तभी वह सृष्टि सवांश में निरवद्य होगी। स्वभाव में जो बात सोलह आने पाई जाती है उसे कवि अठारह आने कर सकता है। परन्तु स्वभाव में जिस वस्तु का अस्तित्व एक आना भी नहीं उसकी रचना करने से यही सूचित होगा कि कवि में नैपुण्य का सर्वथा अभाव है। स्वभावानुरूप चरित्र-सृष्टि करने से भी कवि की तादृश प्रशंसा नहीं। क्योंकि, ऐसी सृष्टि से कवि-सृष्टि का उत्कर्ष नहीं सूचित होता। उससे समाज का उपकार नहीं हो सकता। जो व्यवहार हम लोग प्रति दिन संसार में अपनी आँखों से देखते हैं उन्हीं का प्रतिबिम्ब यदि कवि-सृष्टि में देखने को मिला-उन्हीं का यदि पुनदर्शन प्राप्त हुआ तो उसमें विशेषता ही क्या हुई ? जिस काव्य से संसार का उपकार-साधन न हुआ वह काव्य उत्तम नहीं कहा जा सकता। समुद्र के किनारे बैठ कर अस्तगमनोन्मुख सूर्य की शोभा देखना बहुत ही आनन्ददायक दृश्य है। पर्वत के शिखर से अधोगामिनी नदी या अधोदेश-वर्तिनी हरितवसना पृथ्वी का दर्शन सचमुच बड़ाही आह्लादकारक व्यापार है। अपनी प्रतिभा के बल पर कवि इन दोनों प्रकार के दृश्यों की तद्वत्मू र्तियाँ निर्मित कर सकता है। परन्तु उनके अवलोकन से क्षणस्थायी आनन्द के सिवा दर्शकों और पाठकों का और कोई हितसाधन नहीं हो सकता। उससे कोई शिक्षा नहीं मिल सकती। जिस सृष्टि से आमोद, प्रमोद के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं वह काव्य उत्कृष्ट नहीं। संसार में ऐसे संख्यातीत पदार्थ हैं जिनसे क्षण भर के लिए चित्त का विनोद हो सकता है-हृदय को आह्लाद प्राप्त हो सकता है। फिर काव्य की क्या आवश्यकता ? अतएव स्वीकार करना पड़ेगा कि पाठकों के आमोद-विधान के सिवा काव्य का और भी कुछ उद्देश है। परन्तु वह उद्देश काव्य-शरीर के अन्तर्गत इतना छिपा हुआ होता है कि पाठकों को [ ४४ ]
उसकी उपलब्धि सहसा नहीं होती। देवशक्ति जिस प्रकार अज्ञात-भाव-पूर्वक अपना काम करती है उसी तरह कवि का वह गूढ़ उद्देश भी पाठकों के हृदय पर असर करता है; पर उनको उसके अस्तित्व की कुछ भी ख़बर नहीं होती। इस प्रकार का गूढ उद्देश पाठकों के अन्तःकरण में चिर स्थायी संस्कार उत्पन्न किये बिना नहीं रहता। कवि का वह प्रच्छन्न उद्देश है--पाठकों के हृदय का उत्कर्ष-साधन और शुद्धि-विधान, तथा जगत् को शिक्षा प्रदान। कवि-जन पहले तो सौन्दर्य की पराकाष्ठा दिखलाते हैं। फिर, उसी प्रत्यक्ष-सौन्दर्य-सृष्टि के द्वारा परोक्षभाव से पाठकों के हृदय को भी सौन्दर्य पूर्ण कर देते हैं। सुन्दर फूल को देख कर नेत्रों को अवश्य तृप्ति होती है; पर यदि ऐसे फूल में सौरभ भी हो तो साथही मन भी तृप्त हो जाता है। नेत्रों की तृप्ति क्षणस्थायिनी होती है। परन्तु मन की तृप्ति चिरस्थायिनी। इसी से कवि-जन लोकशिक्षोपयोगी आदर्शों को सौन्दर्य्यरूपी हृदयरक्षक आवेष्टन से प्रावृत करके संसार में शिक्षा का प्रचार करते हैं। धीरता और सत्यप्रियता सर्वश्रेष्ठ गुण हैं। अतएव सबको धीर और सत्यप्रिय होना चाहिए। भीष्म और युधिष्ठिर की सृष्टि करके महाभारत में कवि ने बड़ी ही खूबी से इन गुणों की शिक्षा दी है। सैकड़ों वाग्मी हज़ारों वर्ष तक वक्तृता देकर भी जो काम इतनी अच्छी तरह नहीं कर सकते, जो काम राजशासन द्वारा भी सुन्दरतापूर्वक नहीं हो सकता, वही काम कवि अपने सृष्टि-कौशल द्वारा सहजही में कर सकता है। आत्म-त्याग अच्छी चीज़ है, स्वार्थपरता बुरी। इस तत्व को धर्मोपदेष्टा सौ वर्ष तक प्रयत्न करके शायद लोगों के हृदय पर उतनी सुन्दरता से खचित न कर सकेंगे जितनी सुन्दरता से कि कवि ने राम के द्वारा सीता का निर्वासन कराकर खचित किया है। इसी से यह कहना पड़ता है कि कवि संसार के सर्व-प्रधान शिक्षक और सर्व-प्रधान उपकारक हैं।

काव्य का सृष्टि-सौन्दर्य किसी निर्दिष्ट विषय से ही सम्बन्ध नहीं रखता। केवल रूप, गुण या किसी अवस्था-विशेष के वर्णन में ही सौन्दर्य परि- स्फुट नहीं होता। देश, काल, पात्र, रूप, गुण, अवस्था, कार्य आदि की समष्टि के द्वारा यदि किसी सुन्दर वस्तु की सृष्टि की जाय तो उस सृष्ट [ ४५ ]
वस्तु के सौन्दर्य को ही यथार्थ सौन्दर्य कह सकते हैं। वही कवि-सृष्टि का परमोत्कर्ष है। अन्यथा, यदि और बातों की उपेक्षा करके नायिका के चिकुर-वर्णन से ही सर्ग का अधिकांश भर दिया जाय तो उसमें सौन्दर्य आ कैसे सकेगा ? उससे तो उल्टा विरक्ति उत्पन्न होगी।

सृष्टि-नैपुण्यही कवि का प्रथम और प्रधान गुण है। उस सृष्टि नैपुण्य के किसी अंश में त्रुटि आजाने से काव्य की जैसे अङ्गहानि होती है वैसे ही लोक-शिक्षारूपी जिस उच्च उद्देश-साधन के इरादे से कवि काव्यप्रणयन करता है उसकी सिद्धि में भी व्याघात आता है। जो कवि केवल दस पाँच श्लोकों की रचना करके किसी पदार्थ का केवल बाहरी सौन्दर्य दिखाता है उसका आसन अधिकांश निरापद रहता है। जो लोग बाहरी सौन्दर्य के बीच में वर्णनीय पदार्थ को स्थापित करके, इसी बाहरी सौन्दर्य के प्रकाश द्वारा उसे प्रकाशित करते हैं उनका काम भी उतना दुष्कर नहीं। किन्तु जो कवि बाहरी सौन्दर्य को दूर रख कर, वर्णीय वस्तु के केवल भीतरी भाग पर दृष्टि रखता है-वेशभूषा के विषय में उदासीन रह कर भूषित व्यक्ति के हृदय की ही तरफ़ दृष्टि-क्षेप करता है, अर्थात् जो एक सम्पूर्ण विराट मूति की सृष्टि करके तद्वारा समाज को शिक्षा देना चाहता है-उसका आसन बड़ा ही समस्या-पूर्ण समझा जाता है। उसे बात बात पर, पद पद पर, अक्षर अक्षर पर, समाज की अवस्था की भावना करनी पड़ती है-लोकहितैषणा से प्रणोदित होना पड़ता है। जो बात समाज के लिए अमङ्गलकर है, जिसकी आलोचना से समाज का प्रकृत हित-साधन नहीं होता, उसका वह परित्याग करता है। इसी से हमारे आर्य-साहित्य में लेडी मैकबेथ और ओथेलो का चित्र नहीं पाया जाता। जिस वस्तु का सर्वांश उत्तम है-जो सर्वथा सत् है-उसी की सृष्टि होनी चाहिए।

महाकवि कालिदास के श्रेष्ठ काव्य, अथवा संस्कृत भाषा के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य, रघुवंश के प्रत्येक अक्षर में यह सत्य विद्यमान है। लोक-शिक्षोपयोगी बातों से रघुवंश आद्यन्त परिपूर्ण है। देवता और ब्राह्मण में भक्ति, गुरु के वाक्य में अटल विश्वास, मातृरूपिणी पयखिनी धेनु की परिचर्या, भिक्षार्थी अतिथि की अभिलाषपूर्ति के लिए धराधीश राजा की व्याकुलता, [ ४६ ]
लोकरञ्जन और राजसिंहासन निष्कलङ्क रखने के लिए राजा के द्वारा अपनी प्राणोपमा पत्नी का निर्वासनरूपी अात्मत्याग आदि अनेक लोक- हितकर और समाजशिक्षोपयोगी विषयों से रघुवंश अलंकृत है।

श्रीयुत राजेन्द्रनाथजी की यह सम्मति बहुत ही ठीक है। रघुवंश सचमुच ही सर्वश्रेष्ठ काव्य है । इसी से संस्कृत के और सैकड़ों काव्यों के रहते उसका इतना आदर है और इसी से हमने उसका भावार्थ हिन्दी में लिखने की आवश्यकता समझी।

रघुवंश के नाम ही से यह सूचित होता है कि उसमें रघुवंशी राजाओं की कथा है । इस कथा को काव्य का रूप देने में महाकवि ने सब कहीं वाल्मीकि रामायण का अनुधावन नहीं किया। रघुवंश में कितने ही स्थल ऐसे हैं जहाँ की कथा वाल्मीकि रामायण से नहीं मेल खाती । यहाँ तक कि रामायण में दी हुई वंशावली से भी रघुवंश की राज-वंशावली नहीं मिलती । कुश के उत्तरवर्ती जिन बीस पच्चीस राजाओं का संक्षिप्त वर्णन रघुवंश में है उनका वृत्तान्त तो कालिदास को अवश्य ही और कहीं से मिला होगा। अध्यात्म-रामायण, अग्निपुराण, विष्णुपुराण और पद्मपुराण के पाताल-खण्ड, रामाश्वमेध आदि में भी रामचन्द्र और रघुवंशी राजाओं का वृत्तान्त है। विद्वानों की राय है कि ये पुराण कालिदास के समय में भी, किसी न किसी रूप में, अवश्य वर्तमान थे। अतएव, वाल्मीकि- रामायण के सिवा अन्यत्र से भी रघुवंश की कथा-सामग्री प्राप्त करने के लिए कालिदास को सुभीता अवश्य था।

रघुवंश में कालिदास ने जिन रघुवंशी राजाओं का चरित लिखा है उनके नाम ये हैं:-


१-दिलीप ८-निषध
२-रघु ९-नल
३-अज १०-नभ
४-दशरथ ११-पुण्डरीक
५-रामचन्द्र १२-क्षेमधन्वा
६-कुश १३-देवानीक


७-अतिथि १४-अहीनगु [ ४७ ]
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भूमिका।
१५-पारियात्र
२३-कौशल्य
 
१६-शिल
२४-ब्रमिष्ट
 
१७-उन्नाम
२५-पुत्र
 
१८-वज्रनाभ
२६-पुष्य
 
२७-ध्रुवसन्धि
 
२०-व्युषिताश्व
२८-सुदर्शन
 
२१ – विश्वसह
२९-अग्निवर्ण
 
२२-हिरण्यनाभ
 

इनमें से रघु और रामचन्द्र का चरित्र कवि ने बड़े विस्तार से लिखा है । रामचन्द्र के लिए तो कालिदास ने दसवें सं लेकर पंद्रहवें सर्ग तक,६.सर्ग,खर्च किये हैं। दिलीप,अज,दशरथ,कुश और अतिथि का चरित भी अच्छा लिखा है । परन्तु निषध से लेकर ध्रुवसन्धि तक का चरित,जो अठारहवें सर्ग में है,बहुत ही संक्षिप्त है। उसमें प्रत्येक के लिए एक ही दो पद्य हैं । चरित क्या है,राजाओं की नामावली मात्र है । जान पड़ता है, इन राजाओं के राजत्व-काल में अयोध्या की दशा अच्छी न थी और इन लोगों ने कोई महत्व के काम नहीं किये। इसी से इनके चरित की विशेष सामग्री कालिदास को उपलब्ध नहीं हुई । अठारहवें सर्ग के अन्त में बालक-नरेश सुदर्शन की वाल्यावस्था का वर्णन दस पाँच पद्यों में करके उन्नीसवें सर्ग में कालिदास ने अग्निवर्ण की कामुकता का वर्णन किया है और उस सर्ग की समाप्ति के साथही पुस्तक की भी समाप्ति कर दी है। जिस समय अग्निवर्ण राजयक्ष्मा रोग से मरा उस समय उसकी प्रधान रानी गर्भवती थी। अग्निवर्ण के मंत्रियों ने उसी को सिंहासन पर बिठा कर अयोध्या की अनाथ प्रजा को सनाथ किया । बस,यहीं तक का वृत्तान्त लिख कर कालिदास चुप हो गये हैं । न उन्होंने अगले राजाओं ही का कुछ हाल लिखा और न रघुवंश की समाप्ति के सम्बन्ध ही में कुछ कहा । इसका यथार्थ कारण अनुमान द्वारा जानना बहुत कठिन है। रघुवंश के हिन्दी-अनुवाद।

जहाँ तक हमें मालूम है,इस समय हिन्दी में रघुवंश के चार अनुवाद विद्यमान हैं। उनमें से दो पद्य में हैं,दो गद्य में । पहला पद्यबद्ध अनुवाद [ ४८ ]
लाला सीताराम, बी० ए०, का है, और दूसरा पण्डित सरयूप्रसाद मिश्र का। उनके विषय में यहाँ पर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वे पद्य में हैं और यहाँ केवल गद्य में किये गये अनुवादों की विशेषता का उल्लेख करने की आवश्यकता है।

रघुवंश का गद्यात्मक अनुवाद पहले पहल राजा लक्ष्मणसिंह ने किया। इस अनुवाद को उन्होंने-"विद्यार्थियों के उपकार के लिए हिन्दी बोली में किया।" इसमें उन्होंने संस्कृत के प्रत्येक पद का अर्थ चुने हुए शब्दों में ज्यों का त्यों हिन्दी में कर दिया है। न उन्होंने कोई पद अपनी सरफ़ से बढ़ाया और न कोई घटाया। उन्होंने अपने अनुवाद में मूल का यहाँ तक अनुगमन किया है कि संस्कृत के जिस पद में जो विभक्ति थी, उसके हिन्दी-अनुवाद में भी, यथासम्भव, वही विभक्ति रक्खी है। अर्थात् संस्कृत के मूल शब्दों को उन्होंने तद्वत् हिन्दी में रख दिया है। रघुवंश का पहला श्लोक है:-

वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।

इसका अनुवाद राजा साहब ने किया है:--

वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त (वागर्थप्रतिपत्तये) मैं वन्दना करता हूँ (वन्दे) वाणी और अर्थ की नाई (वागर्थाविव) मिले हुए (संपृक्तौ) जगत् के (जगतः) माता-पिता (पितरौ) शिव पार्वती को (पार्वतीपरमेश्वरौ)।

इससे पाठकों को मालूम हो जायगा कि राजा साहब ने जो यह अर्थ किया कि:-

"वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त मैं वन्दना करता हूँ वाणी और अर्थ की नाई मिले हुए जगत् के माता-पिता शिव पार्वती को।"

वह संस्कृत के प्रत्येक पद का शब्दार्थ हुआ और संस्कृत के जिस पद में जो विभक्ति थी वही हिन्दी में भी रही। इसी तरह राजा साहेब ने सारे रघुवंश का अनुवाद किया है। यह अनुवाद विद्यार्थियों के सचमुच ही बड़े काम का है और इसे प्रकाशित करके राजा साहब ने विद्यर्थियों का बड़ा उपकार किया। [ ४९ ]राजा साहब के अनुवाद के बाद, दूसरा गद्यात्मक अनुवाद पण्डित ज्वालाप्रसाद मिश्र का है। इस अनुवाद में अनुवादक महोदय ने ऊपर तो मूल श्लोक दिया है, उसके नीचे संस्कृत में अन्वय, उसके नीचे संस्कृत ही में वाच्यपरिवर्तन और उसके भी नीचे संस्कृत ही में श्लोक का भावार्थ। अन्त में आपने हिन्दी अनुवाद भी दिया है। पर यह हिन्दी अनुवाद राजा लक्ष्मणसिंहजी के अनुवाद के ही ढंग का है। ऊपर राजा साहब के किये हुए रघुवंश के पहले श्लोक का अनुवाद दिया जा चुका है। अब उसी का अनुवाद, मिश्र जी का किया हुआ, देखिए:-

"मैं वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त वाणी और अर्थ के समान मिले हुए जगत् के माता-पिता पार्वती शिव को प्रणाम करता हूँ।"

राजा साहब और मिश्रजी के अनुवाद में भेद इतना ही है कि मिश्रजी के अनुवाद में 'नाई की जगह 'समान' शब्द है और 'वन्दना' की जगह 'प्रणाम' है। इसके सिवा शब्दों का क्रम भी कुछ बदला हुआ है। अतएव उनकी भाषा राजा साहब की भाषा से कुछ अच्छी होगई है। बस, और कोई भेद नहीं। मिश्रजी ने भी अन्वय के अनुसार ही अनुवाद किया है। और, आपका भी अनुवाद "भाषा के ज्ञाता तथा परीक्षा देनेवाले विद्यार्थियों के निमित्त है। विद्यार्थियों के सुभीते के लिए आपने पहले सात सों के आवश्यक पदों की व्याकरण-प्रक्रिया भी लिख दी है।

अच्छा, तो जो लोग न तो विद्यार्थी ही हैं और न भाषा के ज्ञाता ही हैं (ज्ञाता का अर्थ हम यहाँ पर धात्वर्थ से अधिक व्यापक लेते हैं) उनके लिए फिर भी एक अनुवाद की आवश्यकता शेष रहती है-ऐसे अनुवाद की जिसे थोड़ी हिन्दी जाननेवाले लोग भी आसानी से पढ़ कर कालिदास का आशय समझ जाय। इसी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए यह अनुवाद प्रकाशित किया जाता है।