रघुवंश/भूमिका/कालिदास का शास्त्र-ज्ञान
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कालिदास का शास्त्र-ज्ञान।
कालिदास के काव्य और नाटक इस बात का साक्ष्य दे रहे हैं कि
कालिदास केवल महाकवि ही न थे। कोई शास्त्र ऐसा न था जिसमें
उनकी गति न हो। वे असामान्य वैयाकरण थे। अलङ्कार-शास्त्र के वे
पारगामी थे। संस्कृत-भाषा पर उनकी निःसीम सत्ता थी। जो बात वे
कहना चाहते थे उसे कविता द्वारा व्यक्त करने के लिए सबसे अधिक
सुन्दर और भाव-व्यञ्जक शब्दों के समूह के समूह उनकी जिह्वा पर नृत्य सा करने लगते थे। कालिदास की कविता में शायद ही कुछ शब्द ऐसे होंगे जो असुन्दर और अनुपयोगी अथवा भावोद्बोधन में असमर्थ समझे
जा सकें। वेदान्त के वे ज्ञाता थे; आयुर्वेद के वे ज्ञाता थे; सांख्य, न्याय और योग के वे ज्ञाता थे; ज्योतिष के वे ज्ञाता थे; पदार्थ-विज्ञान के वे ज्ञाता [ ३४ ]
थे। लोकाचार, राजनीति, साधारण नीति आदि में भी उनकी असामान्य गति थी। प्रकृति-परिज्ञान के तो वे अद्भुत पण्डित थे। प्रकृति की सारी करामातें-उसके सारे कार्य-उनकी प्रतिभा के मुकुर में प्रतिबिम्बित होकर उन्हें इस तरह देख पड़ते थे जिस तरह कि हथेली पर रक्खा हुआ आमला देख पड़ता है। वे उन्हें हस्तामलक हो रहे थे। उनकी इस शास्त्रज्ञता के प्रमाण उनकी उक्तियों और उपमाओं में जगह जगह पर रत्नवत् चमक रहे हैं।
ग्रंथारम्भ में कही गई कालिदास की उक्तिओं से यद्यपि यह सूचित होता है कि वे शैव थे, किंवा शिवोपासना की और उनकी प्रवृत्ति अधिक थी, तथापि वे पूरे वेदान्ती थे। वेदान्त के तत्वों को वे अच्छी तरह जानते थे। ईश्वर और जीव, माया और ब्रह्म, आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध को वे वैसा ही मानते थे जैसा कि शङ्कराचार्य ने पीछे से माना है। ईश्वर की सर्व-व्यापकता भी उन्हें मान्य थी। अभिज्ञान-शाकुन्तल का पहला ही श्लोक-"या सृष्टिः स्रष्टुराद्या"-इस बात का साक्षी है। इसमें उन्होंने यह स्पष्टतापूर्वक स्वीकार किया है कि ईश्वर की सत्ता सर्वत्र विद्यमान है। परमात्मा की अनन्तता का प्रमाण रघुवंश के इस श्लोक में है:-
तां तामवस्थां प्रतिपद्यमानं स्थितं दश व्याप्य दिशो महिम्ना।
विष्णोरवास्यानवधारणीयमीक्तया रूपमियत्तया वा॥
पुनर्जन्म अथवा आत्मा की अविनश्वरता का प्रमाण रघुवंश के निम्नो- द्धृत पद्यार्ध में पाया जाता है:-
मरण प्रकृतिः शरीरिणां विकृतिर्जीवनमुच्यते बुधैः।
कालिदास की योग-शास्त्र-सम्बन्धिनी विज्ञता उनकी इस उक्ति से स्पष्ट है:-
तमसः परमापदव्यय पुरुष योगसमाधिना रघुः।
माया का आवरण हट जाने और सञ्चित कर्म क्षीणता को प्राप्त होने से आत्मा का योग परमात्मा से हो जाता है। यह वेदान्त-तत्त्व है। इसे कालिदास जानते थे, यह बात भी उनकी पूर्वोक्त उक्ति से सिद्ध है। वेदान्तियों का सिद्धांत है कि कम्मों या संस्कारों का बीज नष्ट नहीं होता।
कालिदास ने:[ ३५ ]कह कर इस सिद्धान्त को भी स्वीकार किया है। सांख्यशास्त्रसम्ब- न्धिनी उनकी अभिज्ञता के दर्शक एक श्लोक का अवतरण पृष्ठ १० में पहले ही दिया जा चुका है।
इस में तो कुछ भी सन्देह नहीं कि कालिदास ज्योतिष-शास्त्र के पण्डित थे । इस बात के कितने ही प्रमाण उनके ग्रन्थों में पाये जाते हैं। उज्जयिनी बहुत काल तक ज्योतिर्विद्या का केन्द्र थी। जिस समय इस शास्त्र की बड़ी ही ऊर्जितावस्था थी उसी समय, अथवा उसके कुछ काल आगे पीछे,कालिदास का प्रादुर्भाव हुआ। अतएव ज्योतिष से उनका परिचय होना बहुत ही स्वाभाविक थाः-
इत्यादि ऐसी कितनी ही उक्तियाँ कालिदास के ग्रन्थों में विद्यमान हैं जो उनकी ज्योतिष-शास्त्रज्ञता के कभी नष्ट न होनेवाले सर्टिफिकेट हैं।
ग्रहण के यथार्थ कारण को भी कालिदास अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने रघुवंश में लिखा है:-
छाया हि भूमेः शशिना मलत्वेनारोपिता शुद्धिमतः प्रजाभिः ।
कुमारसम्भव के:-
हरस्तु किं चित्प्रविलुप्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः ।
इस श्लोक से सूचित होता है कि समुद्र में ज्वार-भाटा आने का प्राकृतिक कारण भी उन्हें अच्छी तरह मालूम था।
ध्रुव-प्रदेश में दीर्घ-काल तक रहनेवाले उषःकाल का भी उन्हें ज्ञान
था । उन्होंने लिखा है:[ ३६ ]सूर्य की उष्णता से पानी भाफ बन कर उड़ जाता है । वही बरसता है। इस बात को भी वे जानते थे। कुमारसम्भव का चौथा सर्ग इसकी गवाही दे रहा है:-
रघुवंश के:-
इस पद्याद्ध से भी यही बात सिद्ध होती है।
"अयस्कान्तेन लोहवत्"-लिख कर उन्होंने यह सूचना दी है कि हम चुम्बक के गुणों से भी अनभिज्ञ नहीं ।
कालिदास चाहे अनुभवशील वैद्य न रहे हों; चाहे उन्होंने आयुर्वेद का विधिपूर्वक अभ्यास न किया हो; परन्तु इस शास्त्र से भी उनका थोड़ा बहुत परिचय अवश्य था। और, सभी सत्कवियों का परिचय प्रधान प्रधान शास्त्रों से अवश्यही होना चाहिए। बिना सर्वशास्त्रज्ञ हुए-बिना प्रधान प्रधान शास्त्रों का थोड़ा बहुत ज्ञान प्राप्त किये-कवियों की कविता सर्वमान्य नहीं हो सकती । महाकवियों के लिए तो इस तरह के ज्ञान की बड़ी ही आवश्यकता होती है। क्षेमेन्द्र ने इस विषय में जो कुछ कहा है बहुत ठीक कहा है। वैद्य-विद्या के तत्वों से कालिदास अनभिज्ञ न थे। कुमारसम्भव के दूसरे सर्ग में तारक के दौरात्म्य और पराक्रम आदि का वर्णन है। उस प्रसङ्ग में कालिदास ने लिखा है :-
मालविकाग्निमित्र में सर्पदंशचिकित्सा के विषय में कविकुलगुरु की उक्ति है:-
{{Rh||एतानि दृष्टमात्राणामायुष्याः प्रतिपत्तयः ॥
इन अवतरणों से यह सूचित होता है कि कालिदास की इस शास्त्र मेंभी बहुत नहीं तो थोड़ी गति अवश्य थी। [ ३७ ]इस विषय में तो कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं। रघुवंश में राजाओं ही का वर्णन है। उसमें ऐसी सैकड़ों उक्तियाँ हैं जो इस बात की घोषणा दे रही हैं कि कालिदास बहुत बड़े राजनीतिज्ञ थे। राजा किसे कहते हैं, उसका सबसे प्रधान धर्म या कर्तव्य क्या है, प्रजा के साथ उसे कैसा व्यवहार करना चाहिए- इन बातों को कालिदास जैसा समझते थे वैसा शायद आज कल के बड़े से भी बड़े राजे-महाराजे और राजनीतिनिपुण अधिकारी न समझते होंगे। कालिदास की-“स पिता पितरस्तासां केवल जन्महेतवः”-सिर्फ यह एक उक्ति इस कथन के समर्थन के लिए यथेष्ट है।
भूगोल-ज्ञान।
मेघदूत में कालिदास ने जो अनेक देशों, नगरों, पर्वतों और नदियों आदि का वर्णन किया है उससे जान पड़ता है कि उन्हें भारत का भौगो. लिक ज्ञान भी बहुत अच्छा था। चोल, केरल और पाण्ड्य देश का उन्होंने जैसा वर्णन किया है; विन्ध्यगिरि, हिमालय और काश्मीर के विषय में उन्होंने जो कुछ लिखा है; रघुवंश के तेरहवें सर्ग में भारतीय समुद्र के सम्बन्ध में जो उक्तियाँ उन्होंने कहीं हैं वे सब प्रायः ठीक हैं।