रघुवंश/५—अज का जन्म और इन्दुमती के स्वयंवर मे जाना

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पाँचवाँ सर्ग।
अज का जन्म और इन्दुमती के स्वयंवर मे जाना।

राजा रघु के राज्य में वरतन्तु नाम के एक ऋषि थे। वे बड़े विद्वान्,बड़े महात्मा और बड़े तपस्वी थे । उनका आश्रम एक वन में था। सैकड़ों ब्रह्मचारियों का वे पालन-पोषण भी करते थे और उन्हें पढ़ाते भी थे। उनमें कौत्स नाम का एक ब्रह्मचारी था। उसका विद्याध्ययन जब समाप्त हो गया तब महात्मा वरतन्तु ने उसे घर जाने की आज्ञा दी। उस समय कौत्स ने आचार्य वरतन्तु को गुरु-दक्षिणा देनी चाही । अतएव, दक्षिण के लिए धन माँगने की इच्छा से,वह राजा रघु के पास आया । परन्तु,उस समय,राजा रघु महानिधन हो रहा था,क्योंकि विश्वजित् नामक यज्ञ में उसने अपनी सारी सम्पत्ति खर्च कर डाली थी। अतएव,उसके खजाने में एक फूटी कौड़ी भी न थी । सोने और चाँदी के पात्रों की तो बात ही नहीं,पीतल के भी पात्र उसके पास न थे । पानी पीने और भोज्यपदार्थ रखने के लिए उसके पास मिट्टी ही के दो चार पात्र थे । वे पात्र यद्यपि चमकदार न थे,तथापि रघु का शरीर उसके अत्यन्त उज्ज्वल यश से खूब चमक रहा था। शीलनिधान भी वह एक ही था। अतिथियों का विशेष करके विद्वान्अ तिथियों का सत्कार करना वह अपना परम कर्तव्य समझता था। इस कारण जब उसने उस वेद-शास्त्र सम्पन्न कौत्स के आने की ख़बर

सुनी तब उन्हीं मिट्टी के पात्रों में अर्घ्य और पूजा की सामग्री लेकर वह उठ खड़ा हुआ। उठाही नहीं, वह उठ कर कुछ दूर तक गया भी, और उस तपोधनी अतिथि को अपने साथ लिवा लाया । यद्यपि रघु उस समय सुवर्ण-सम्पत्ति से धनवान् न था, तथापि मानरूपी धन को भी जो लोग धन समझते हैं उनमें वह सबसे बढ़ चढ़ कर था। महा-मानधनी होने पर भी रघु ने उस तपोधनी ब्राह्मण की विधिपूर्वक पूजा की । विद्या और तप [ ११७ ]
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के धन को उसने और सब धनों से बढ़ कर समझा। चक्रवर्ती राजा होने पर भी रघु का अभ्यागत के आदरातिथ्य की क्रिया अच्छी तरह मालूम थी । अपने इस क्रिया-ज्ञान का यथेष्ट उपयोग करके रघु ने कौत्स को प्रसन्न किया । जब वह स्वस्थ होकर आसन पर बैठ गया तब रघु ने हाथ जोड़ कर,बहुत ही नम्रता-पूर्वक, उससे कुशल-समाचार पूछना आरम्भ किया। वह बोला:-

"हे कुशाग्रबुद्धे ! कहिए, आप के गुरुवर तो अच्छे हैं ? मैं उन्हें सर्वदर्शी महात्मा समझता हूँ। जिन ऋषियों ने वेद-मन्त्रों की रचना की है उनमें उनका आसन सब से ऊँचा है। मन्त्र-कर्ताओं में वे सबसे श्रेष्ठ हैं । जिस तरह सूर्य से प्रकाश प्राप्त होने पर, यह सारा जगत्, प्रातःकाल, सोते से जग उठता है, ठीक उसी तरह, आप अपने पूजनीय गुरु से समस्त ज्ञान-राशि प्राप्त करके और अपने अज्ञानजन्य अन्धकार को दूर करके जाग से उठे हैं। एक तो आपकी बुद्धि स्वभाव ही से कुश की नोक के समान तीव्र; फिर महर्षि वरतन्तु से अशेष ज्ञान की प्राप्ति । क्या कहना है !

"हाँ, महाराज, यह तो कहिए-आपके विद्यागुरु वरतन्तुजी की तपस्या का क्या हाल है ? उनके तपश्चर्य के बाधक कोई विन्न ता उपस्थित नहीं; विघ्रों के कारण तपश्चर्या को कुछ हानि तो नहीं पहुँचती। महर्षि बड़ा ही घोर तप कर रहे हैं । उनका तप एक प्रकार का नहीं,तीन प्रकार का है। कृच्छ चान्द्रायणादि व्रतों से शरीर के द्वारा,तथा वेद-पाठ और गायत्री आदि मन्त्रों के जप से वाणी और मन के द्वारा, वे अपनी तपश्चर्या की निरन्तर वृद्धि किया करते हैं । उनका यह कायिक, वाचिक और मानसिक तप सुरेन्द्र के धैर्य को भी चञ्चल कर रहा है। वह डर रहा है कि कहीं ये मेरा आसन न छीन लें। इसीसे महर्षि के तपश्चरण-सम्बन्ध में मुझे बड़ी फ़िक्र रहती है। मैं नहीं चाहता कि उसमें किसी तरह का विघ्न पड़े;क्योंकि मैं ऐसे महात्माओं को अपने राज्य का भूषण समझता हूँ।

"आपके आश्रम के पेड़-पौधे तो हरे भरे हैं ? सूखे तो नहीं ? आँधी और तूफ़ान आदि से उन्हें हानि तो नहीं पहुँची ? आश्रम के इन पेड़ों से बहुत आराम मिलता है । आश्रमवासी तो इनकी छाया से आराम पाते ही हैं,अपनी शीतल छाया से ये पथिकों के श्रम का भी परिहार करते हैं। [ ११८ ]
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इनके इसी गुण पर लुब्ध होकर महर्षि ने इन्हें बच्चे की तरह पाला है । थाले बना कर उन्होंने इनको,समय समय पर,सींचा है,तृण की टट्टियाँ लगा कर जाड़े से इनकी रक्षा की है, और काँटों से घेर कर इन्हें पशुओं से खा लिये जाने से बचाया है।

"मुनिजन बड़े ही दयालु होते हैं। आपके आश्रम की हरिणियाँ जब बच्चे देती हैं तब ऋषि लोग उनके बच्चों की बेहद सेवा-शुश्रूषा करते हैं। आश्रम के पास पास सब कहीं जङ्गल है । उसमें साँप और बिच्छू आदि विषैले जन्तु भरे हुए हैं। उनसे बच्चों को कष्ट न पहुँचे,इस कारण ऋषि प्रायः उन्हें अपनी गोद से नहीं उतारते । उत्पन्न होने के बाद, दस-बारह दिन तक, वे उन्हें रात भर अपने उत्सङ्ग ही पर रखते हैं। अतएव उनके नाभि-नाल ऋषियों के शरीर ही पर गिर जाते हैं। परन्तु इससे वे ज़रा भी अप्रसन्न नहीं होते। जब ये बच्चे बढ़ कर कुछ बड़े होते हैं तब यज्ञ आदि बहुत ही आवश्यक क्रियाओं के निमित्त लाये गये कुशों को भी वे खाने लगते हैं। परन्तु,उन पर ऋषियों का अत्यन्त स्नेह होने के कारण, वे उन्हें ऐसा करने से भी नहीं रोकते । उनके धार्मिक कार्यों में चाहे भले ही विन्न आ जाय, पर मृगों के छौनों की इच्छा का वे विधात नहीं करना चाहते । आप की यह स्नेह-संवर्धित हरिण- सन्तति तो मजे में है ? उसे कोई कष्ट तो नहीं ?

"आपके तीर्थ-जलों का क्या हाल है ? उनमें कोई खराबी तो नहीं ? वे सूख तो नहीं गये ? पशु उन्हें गॅदला तो नहीं करते ? इन तीर्थ-जलों को इन तालाबों और बावलियों को-मैं आपके बड़े काम की चीज़ समझता हूँ। यही जल नित्य आपके स्नानादि के काम आते हैं । अग्निष्वात्तादि पितरों का तर्पण भी आप इन्हीं से करते हैं। इन्हीं के किनारे,रेत पर,आप अपने खेतों की उपज का षष्ठांश भी,राजा के लिए,रख छोड़ते हैं।

"बलि-वैश्वदेव के समय यदि कोई अतिथि आ जाय तो उसे विमुख जाने देना मना है। अतएव जिस जङ्गलीतृण-धान्य (साँवा, कोदो आदि) से आप अपने शरीर की भी रक्षा करते हैं और अतिथियों की क्षुधा भी शान्त करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं उसे,भूल से छूट आये हुए,गाँव और नगर के पशु खा तो नहीं जाते ? [ ११९ ]
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"सब विद्याओं में निष्णात करके आप के गुरु ने आप को गृहस्था -श्रम सुख भोगने के लिए क्या प्रसन्नता-पूर्वक आज्ञा दे दी है ? ब्रह्मचर्य,वानप्रस्थ और संन्यास-इन तीनों आश्रमों पर उपकार करने का सामर्थ्य एक मात्र गृहस्थाश्रम ही में है। आपकी उम्र अब उसमें प्रवेश करने के सर्वथा योग्य है । आप मेरे परम पूज्य हैं । इस कारण सिर्फ आपके आगमन से ही मुझे आनन्द की विशेष प्राप्ति नहीं हो सकती । यदि आप दया करके मुझ से कुछ सेवा भी लें तो अवश्य मुझे बहुत कुछ आनन्द और सन्तोष हो सकता है । अतएव, आप मेरे लिए कोई काम बतावें-कुछ तो आज्ञा करें ? हाँ, भला यह तो कहिए कि आप ने जो मुझ पर यह कृपा की है वह आपने अपने ही मन से की है या अपने गुरु की आज्ञा से । वन से इतनी दूर मेरे पास आने का कारण क्या ?"

राजा रघु के मिट्टी के पात्र देख कर कौत्स,बिना कहे ही,अच्छी तरह समझ गया था कि यह अपना सर्वस्व दे चुका है। अब इसके पास कौड़ी नहीं । अतएव,यद्यपि राजा ने उसका बहुत ही आदर-सत्कार किया और बड़ी ही उदारता से वह उससे पेश आया, तथापि कौत्स को विश्वास हो गया कि इससे मेरी इच्छा पूर्ण होने की बहुतही कम आशा है। मन ही मन इस प्रकार विचार करके, उसने रघु के प्रश्नों का,नीचे लिखे अनुसार,उत्तर देना आरम्भ किया:-

"राजन् ! हमारे आश्रम में सब प्रकार कुशल है। किसी तरह की

कोई विघ्न-बाधा नहीं। आपके राजा होते,भला,हम लोगों को कभी स्वप्न में भी कष्ट हो सकता है। बीच आकाश में सूर्य के रहते,मजाल है जो रात का अन्धकार अपना मुँह दिखाने का हौसला करे । लोगों की दृष्टि का प्रतिबन्ध करने के लिए उसे कदापि साहस नहीं हो सकता । हे महाभाग! पूजनीय पुरुषों का भक्ति-भाव-पूर्वक आदरातिथ्य करना तो आपके कुल की रीति ही है। आपने तो अपनी उस कुल-रीति से भी बढ़ कर मेरा सत्कार किया। पूजनीयों की पूजा करने में आप तो अपने पूर्वजों से भी आगे बढ़े हुए हैं। मैं आप से कुछ याचना करने के लिए आया था, परन्तु याचना का समय नहीं रहा । मैं बहुत देरी से आया । इसी से मुझे दुःख हो रहा है। अपनी सारी सम्पत्ति का दान सत्पात्रों को करके आप, [ १२० ]
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इस समय,खाली हाथ हो रहे हैं। कुछ भी धन-सम्पत्ति आपके पास नहीं। एक मात्र आपका शरीर हो अब अवशिष्ट है। अरण्य-निवासी मुनियों के द्वारा बालें तोड़ ली जाने पर साँवाँ, कोदों आदि तृण धान्यों के पौधे जिस तरह धान्य-विहीन होकर खड़े रह जाते हैं, उसी तरह आप भी, इस समय, सम्पत्ति-हीन होकर शरीर धारण कर रहे हैं। विश्वजित यज्ञ करके और उसमें अपना सारा धन खर्च करके आपने, पृथ्वी-मण्डल के चक्रवर्ती राजा होने पर भी, अपने को निर्धन बना डाला है। आपकी यह निर्ध- नता बुरी नहीं। उसने तो आपकी कीर्ति को और भी अधिक उज्ज्वल कर दिया है- उससे तो आपकी शोभा और भी अधिक बढ़ गई है। देवता लोग चन्द्रमा का अमृत जैसे जैसे पीते जाते हैं वैसे ही वैसे उसकी कलाओं का क्षय होता जाता है;और,सम्पूर्ण क्षय हो चुकने पर, फिर, क्रम क्रम से, उन कलाओं की वृद्धि होती है । परन्तु उस वृद्धि की अपेक्षा चन्द्रमा का वह क्षय ही अधिक लुभावना मालूम होता है । आपका साम्पत्तिक क्षय भी उसी तरह आपकी शोभा का बढ़ाने वाला है, घटाने वाला नहीं । हे राजा! गुरु-दक्षिणा तो मुझे कहीं से लानी ही होगी; और, आप से तो उसके मिलने की आशा नहीं । अतएव अब मैं और कहीं से उसे प्राप्त करने की चेष्टा करूँगा। आपको इस सम्बन्ध में मैं सताना नहीं चाहता। सारे संसार को जल-वृष्टि से सुखी करके शरत्काल को प्राप्त होने वाले निर्जल मेघों को, पतङ्ग-योनि में उत्पन्न हुए चातक तक, अपनी याचनाओं से, तङ्ग नहीं करते । फिर मैं तो मनुष्य हूँ और गुरु की कृपा से चार अक्षर भी मैंने पढ़े हैं । भगवान् आपका भला करे, मैं अब आप से विदा होता हूँ।"

इतना कह कर महर्षि वरतन्तु का शिष्य कौत्स खड़ा हो गया और वहाँ से जाने लगा। यह देख, राजा रघु ने उसे रोक कर ज़रा देर ठहरने की प्रार्थना की। वह बोला:--

"हे पण्डितवर ! आप यह तो बता दीजिए कि गुरु-दक्षिणा में कौनसी चीज़ आप अपने गुरु को देना चाहते हैं और कितनी देना चाहते हैं ।"

यह सुन कर,इतने बड़े विश्वजित् नामक यज्ञ को यथाविधि करने पर भी जिसे गर्व छू तक नहीं गया,और,जिसने ब्राह्मण आदि चारों वर्षों तथा ब्रह्मचर्य आदि चारों आश्रमों की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया है उस [ १२१ ]
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राजा रघु से,उस चतुर ब्रह्मचारी ने अपना गुरु-दक्षिणा-सम्बन्धी प्रयोजन, इस प्रकार, साफ़ साफ़ शब्दों में, कहना प्रारम्भ किया। उसने कहा:-

"जब मेरा विद्याध्ययन हो चुका-जो कुछ मुझे पढ़ना था सब मैं पढ़ चुका-तब मैंने आचार्य वरतन्तु से प्रार्थना की कि आप कृपा करके गुरु-दक्षिणा के रूप में मेरी कुछ सेवा स्वीकार करें। परन्तु महर्षि के आश्रम में रह कर मैंने बड़े ही भक्ति-भाव से उसकी सेवा की थी। इससे वे मुझ पर पहले ही से बहुत प्रसन्न थे । अतएव,बिदा होते समय,मेरी प्रार्थना के उत्तर में उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि तेरी अकृत्रिम भक्ति ही से मैं सन्तुष्ट हूँ; मुझे गुरु-दक्षिणा न चाहिए । परन्तु मैंने हठ की । गुरु-दक्षिणा स्वीकार करने के लिए मेरे बार बार प्रार्थना करने पर प्राचार्य को क्रोध हो आया। इस कारण, मेरी दरिद्रता का कुछ भी विचार न करके, उन्होंने यह आज्ञा दी कि मैंने जो तुझे चौदह विद्यायें सिखाई हैं उनमें से एक एक विद्या के बदले एक एक करोड़ रुपया ला दे । यही चौदह करोड़ रुपया माँगने के लिए मैं आप के पास आया था। परन्तु, मेरा सत्कार करने के समय आपने मिट्टी के जिन पात्रों का उपयोग किया उन्हें देख कर ही मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि इस समय आप के पास प्रभुता का सूचक "प्रभु" शब्द मात्र शेष रह गया है। सम्पत्ति के नाम से और कुछ भी आप के पास नहीं। फिर,महर्षि वरतन्तु से प्राप्त की गई चौदह विद्याओं का बदला भी मुझे थोड़ा नहीं देना ! अतएव इतनी बड़ी रकम आप से माँगने के लिए मेरा मन गवाही नहीं देता। मैं, इस विषय में, आपसे आग्रह नहीं करना चाहता ‌।"

जिसके शरीर की कान्ति चन्द्रमा की कान्ति के समान आनन्ददायक थी, जिसकी इन्द्रियों का व्यापार पापाचरण से पराङ मुख था,जिसने कभी कोई पापकर्म नहीं किया था--ऐसे सार्वभौम राजा रघु ने, वेदार्थ जानने वाले विद्वानों में श्रेष्ठ, कौत्स, ऋषि की पूर्वोक्त विज्ञप्ति सुन कर, यह उत्तर दिया:--

"आपका कहना ठीक है; परन्तु मैं आपको विफल-मनोरथ होकर लौट नहीं जाने दे सकता । कोई सुनेगा तो क्या कहेगा ! सारे शास्त्रों का जानने वाला कौत्स ऋषि, अपने गुरु को दक्षिणा देने के लिए, याचक [ १२२ ]
बन कर आया; परन्तु रघु उसका मनोरथ सिद्ध न कर सका। इससे लाचार होकर उसे अन्य दाता के पास जाना पड़ा। इस तरह के लोकापवाद से मैं बहुत डरता हूँ। मैं, अपने ऊपर, ऐसे अपवाद के लगाये जाने का मौका नहीं देना चाहता। इस कारण, आप मेरी पवित्र और सुन्दर अग्निहोत्र-शाला में --जहाँ आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिण, ये तीनों अग्नि निवास करते हैं- दो तीन दिन, मूत्ति मान चौथे अग्नि की तरह, ठहरने की कृपा करें। मान्यवर, तब तक मैं आपका मनोरथ सिद्ध करने के लिए, यथाशक्ति, उपाय करना चाहता हूँ।"

यह सुन कर वह ब्राह्मण श्रेष्ठ बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा:- "बहुत अच्छा। महाराज, आप सत्यप्रतिज्ञ हैं। आपकी आज्ञा मुझे सर्वथा मान्य है।" यह कह कर वह ऋषि राजा रघु की यज्ञ-शाला में जा ठहरा।

इधर राजा रघु ने सोचा कि पृथ्वी-मण्डल में जितना द्रव्य था वह तो मैं, दिग्विजय के समय, प्रायः सभी ले चुका। थोड़ा बहुत जो रह गया है उसे भी ले लेना उचित नहीं। अतएव, कौत्स के निमित्त द्रव्य प्राप्त करने के लिए कुवेर पर चढ़ाई करनी चाहिए। इस प्रकार मन में सङ्कल्प करके उसने धनाधिप से ही चौदह करोड़ रुपया वसूल करने का निश्चय किया। कुवेर तक पहुँचना और उसे युद्ध में परास्त करना रघु के लिए कोई बड़ी बात न थी। महामुनि वशिष्ठ ने पवित्र-मन्त्रोच्चारण-पूर्वक रधु पर जो जल छिड़का था, उसके प्रभाव से राजा रघु का सामर्थ्य बहुत ही बढ़ गया था। बड़े बड़े पर्वतों के शिखरों पर, दुस्तर महासागर के भीतर, यहाँ तक कि आकाश तक में भी-वायु से सहायता पाये हुए मेघ की गति के समान-उसके रथ की गति थी। कोई जगह ऐसी न थी जहाँ उसका रथ न जा सकता हो।

राजा रघु ने कुवेर को एक साधारण माण्डलिक राजा समझ कर, अपने पराक्रम से उसे परास्त करने का निश्चय किया। अतएव उस महा- शुर-वीर और गम्भीर राजा ने, सायङ्काल, अपने रथ को अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित किया; और, प्रातःकाल, उठ कर प्रस्थान करने के इरादे से रात को उसी के भीतर शयन भी किया। परन्तु प्रभात होते ही उसके कोशागार के सन्तरी दौड़े हुए उसके पास आये। उन्होंने आकर

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निवेदन किया कि महाराज, एक बड़े ही आश्चर्य की बात हुई है। आपके ख़जाने में रात को आकाश से सोने की बेहद वृष्टि हुई है। यह समाचार पा कर राजा समझ गया कि देदीप्यमान सुवर्ण-राशि की यह वृष्टि धनाधिप कुवेर ही की कृपा का फल है। उसी ने यह सोना आसमान से बरसाया है। अतएव, अब उस पर चढ़ाई करने की ज़रूरत नहीं। इन्द्र के वज्राघात से कट कर ज़मीन पर गिरे हुए सुमेरु-पर्वत के शिखर के समान, आकाश से गिरा हुआ, सुवर्ण का वह सारा का सारा ढेर, उसने कौत्स को दे डाला। अब तमाशा देखिए। कौत्स तो इधर यह कहने लगा कि जितना द्रव्य मुझे गुरु दक्षिणा में देना है उतना ही चाहिए, उससे अधिक मैं लूँगा ही नहीं। उधर राजा यह आग्रह करने लगा कि नहीं, आपको अधिक लेना ही पड़ेगा। जितना सोना मैं देता हूँ उतना सभी आपको लेना होगा। यह दशा देख कर अयोध्या-वासी जन दोनों को धन्य-धन्य कहने लगे। मतलब से अधिक द्रव्य न लेने की इच्छा प्रकट करने वाले कौत्स की जितनी प्रशंसा उन्होंने की, उतनी ही प्रशंसा उन्होंने माँगे हुए धन की अपेक्षा अधिक देने का आग्रह करने वाले रघु की भी की।

इसके अनन्तर राजा रघु ने उस सुवर्ण-राशि को, कौत्स के गुरु वरतन्तु के पास भेजने के लिए, सैकड़ों ऊँटों और खच्चरों पर लदवाया। फिर, कौत्स के बिदा होते समय, अपने शरीर के ऊपरी भाग को झुका कर और विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़ कर, वह उसके सामने खड़ा हुआ। उस समय राजा के अलौकिक औदार्य से अत्यन्त सन्तुष्ट हो कर कौत्स ने उसकी पीठ ठोंकी और इस प्रकार उससे कहा:-

"हे राजा! न्याय-पूर्वक सम्पदाओं का सम्पादन, वर्द्धन, पालन और फिर उनका सत्पात्रों को दान-यह चार प्रकार का राज-कर्तव्य है। इन चारों कर्तव्यों के पालन में सदा सर्वदा तत्पर रहने वाले राजा के सारे मनोरथ यदि पृथ्वी पूर्ण करे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। परन्तु, महाराज, आपकी महिमा इस से कहीं बढ़ कर है। वह अतयं है। उसे देख कर अवश्य ही आश्चर्य होता है। क्योंकि, आपने पृथ्वी ही को नहीं, आसमान को भी दुह कर अपना मनोरथ सफल कर लिया। अब मैं आपको क्या आशीर्वाद दूँ ? कोई चीज़ ऐसी नहीं जो आपको प्राप्त न [ १२४ ]
हो। आपकी जितनी इच्छायें थीं सब परिपूर्ण हो चुकी हैं। उन्हीं में से फिर किसी इच्छा को परिपूर्ण करने के लिए आशीर्वाद देना पुनरुक्ति मात्र होगी। ऐसे चर्वित चर्वण से क्या लाभ ? इस कारण, मेरा यह आशीर्वाद है कि जिस तरह आपके पिता दिलीप ने आपके सहश प्रशंसनीय पुत्र पाया, उसी तरह, आप भी, अपने सारे गुणों से सम्पन्न, अपने ही सहश एक पुत्र-रत्न पावें!"

राजा को यह आशीर्वाद देकर कौत्स ऋषि अपने गुरु वरतन्तु के आश्रम को लौट गया। उधर गुरु को दक्षिणा देकर उसके ऋण से उसने उद्धार पाया, इधर उसका आशीर्वाद भी शीघ्रही फलीभूत हुआ। जिस तरह प्राणिमात्र को सूर्य से प्रकाश की प्राप्ति होती है उसी तरह कौत्स के आशीर्वाद से राजा रघु को पुत्र की प्राप्ति हुई। अभिजित् नाम के मुहूर्त में उसकी रानी ने स्वामिकार्तिक के समान पराक्रमी पुत्र उत्पन्न किया। यह मुहूर्त ब्राह्ममुहूर्त कहलाता है, क्योंकि इसके देवता ब्रह्मा हैं। इसी से रघु ने अपने पुत्र का नाम भी तदनुरूप ही रखना चाहा। ब्रह्मा का एक नाम 'अज' भी है। रघु को यही नाम सब से अधिक प्रसन्द आया। इस कारण उसने पुत्र का भी यही नाम रक्खा। जिस तरह किसी दीपक से जलाया गया दूसरा दीपक ठीक पहले के सदृश होता है, उसी तरह वह बालक भी अपने पिता रघु के ही संदृश हुआ। क्या रूप में, क्या तेज में, क्या बल में, क्या वीर्य में, क्या स्वाभाविक उदारता और उन्नति में सभी बातों में वह अपने पिता के तुल्य हुआ; भिन्नता उसमें ज़रा भी न हुई।

यथासमय अजकुमार ने विद्योपार्जन प्रारम्भ किया। कितने ही विद्वान् अध्यापक उसे पढ़ाने के लिए नियत किये गये। धीरे धीरे उसने उनसे सारी विद्यायें विधिपूर्वक पढ़ डाली।

तब तक वह तरुण भी हो गया। अतएव उसकी शरीर-कान्ति और भी बढ़ गई-उसका रूप-लावण्य पहले से भी अधिक हो गया। इस कारण राज्यलक्ष्मी उसे बहुत चाहने लगी। रघु को पाने के लिए वह मन

ही मन उत्कण्ठित हो उठी। परन्तु जिस तरह भले घर की उपवर कन्या, किसी योग्य वर को पसन्द कर लेने पर भी, उसके साथ विवाह करने के लिए, पिता की आज्ञा की प्रतीक्षा में रहती है, उसी तरह उत्तर-कोशल [ १२५ ]
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की राज्य-लक्ष्मी भी, अज के पास जाने के लिए, राजा रघु की आज्ञा की प्रतिक्षा करने लगी।

इतने में विदर्भ-देश के राजा भोज ने अपनी बहन इन्दुमती का स्वयंवर करना चाहा। अनेक राजाओं को उसने निमन्त्रण भेजा । अज के गुणों की उसने बड़ी प्रशंसा सुनी थी । इस कारण उसे स्वयंवर में बुलाने के लिए वह बहुत ही उत्सुक हुआ। इस डर से कि साधारण रीति पर निमन्त्रण भेजने से कहीं ऐसा न हो कि अज न आवे, उसने अपना एक विश्वासपात्र दूत राजा रघु के पास रवाना किया और अज-कुमार को बड़े ही आदर से स्वयंवर में बुलाया। दूत ने आकर राजा भोज का निमन्त्रण-पत्र रघु को दिया। उसे पढ़ कर रघु बहुत प्रसन्न हुआ। उसने मन में कहा -अज की उम्र अब विवाह-योग्य हो गई है ; सम्बन्धःभी बुरा नहीं । इससे इस निमन्त्रण को स्वीकारही कर लेना चाहिए। यह सोच कर उसने बहुत सी सेना के साथ अज को राजा भोज की समृद्धि-पूर्ण राजधानी को भेज दिया।

अजकुमार के प्रस्थान करने पर, मार्ग में, उसके आराम के लिए पहले ही से जगह जगह डेरे लगा दिये गये। उनमें सोने के लिए अच्छे अच्छे पलँग, पीने के लिए शीतल जल और खाने के लिए सुस्वादु पदार्थ भी रख दिये गये । अज से मिलने के लिए दूर दूर से आये हुए प्रजा-जनों की दी हुई भेटों से वे पट-मण्डप और भी जगमगा उठे। इससे वे शहरों के क्रीडा-स्थानों की तरह शोभा -सम्पन्न दिखाई देने लगे। उन्होंने विहार करने के लिए बनाये गये उद्यानों को भी मात कर दिया।

कई दिन बाद, चलते चलते, अजकुमार नर्मदा के निकट जा पहुंचा। वहाँ उसने देखा कि नदी के किनारे किनारे नक्तमाल नाम के सैकड़ों वृक्ष खड़े हुए हैं और जल-स्पर्श होने के कारण शीतल हुई वायु उन्हें धीरे धीरे हिला रही है। ऐसी आराम की जगह देख कर अज ने, धूलि लिपटी हुई ध्वजा वाली अपनी सेना को,वहीं, नर्मदा के तट पर, ठहर जाने की आज्ञा दी।

उस समय एक जङ्गली हाथी ने नर्मदा की धारा में गोता लगाया था। अज के सैनिकों ने उसे गोता लगाते न देखा था। परन्तु जिस जगह [ १२६ ]
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उसने गोता लगाया था उसी जगह, पानी के ऊपर, गज-मद के लोभी अनेक भौंरे उड़ रहे थे। इससे लोगों ने समझ लिया कि कोई न कोई वन-गज अवश्य ही इस जगह पानी के भीतर है। इतने में वह हाथी पानी के भीतर से निकल पड़ा। उस समय, मद के धुल जाने से, उसका स्वच्छ मस्तक बहुत ही सुहावना मालूम होने लगा। इस गज ने, नर्मदा में गोता मारने के पहले, अपने दोनों दाँतों से, नदी के तीरवर्ती ऋक्ष नामक पर्वत के तट तोड़ने का घंटों खेल किया था। अतएव, पर्वत की गेरू आदि धातुओं से उसके दाँत रङ्गीन हो गये थे। परन्तु, नर्मदा में नहाने के कारण, इस समय, उसके दाँतों पर लगी हुई वह धातु-रज बिलकुल ही धो गई थी। तथापि उसकी चित्र विचित्र नीली रेखायें अब तक दाँतों के ऊपर देख पड़ती थीं। यही नहीं, किन्तु, कोड़ा के समय, शिलाओं से टकराने के कारण, उसके दाँतों पर जो रगड़ लगी थी उससे दाँतों की धार कुछ मोटी पड़ गई थी-दाँतों का नुकीलापन जाता सा रहा था। इन्हीं चिह्नों से यह सूचित होता था कि इसने, कुछ समय पहले, पूर्वोक्त पर्वत की जड़ में ज़रूर दाँतों की टक्कर मारी होगी। यह हाथी जल के भीतर से ऊपर उठ कर अपनी सुंडों से बड़ी बड़ी लहरों को तोड़ने फोड़ने लगा। सूंड़ को कभी सिकोड़ कर और कभी दूर तक फैला कर उससे वह पानी को इस ज़ोर से जल्दी जल्दी मारने लगा कि आस पास का वह सारा प्रदेश उसके तुमुल नाद से व्याप्त होगया। इस प्रकार कुलाहल करता हुआ जिस समय वह तट की तरफ़ चला उस समय यह मालूम होने लगा जैसे वह अपने पैरों में पड़ी हुई जंजीर को तोड़ डालने की चेष्टा कर रहा हो । वह पर्वताकार हाथी, सिवार की ढेरी को अपनी छाती से खींचता हुआ, नदी से निकल कर तट की ओर बढ़ा, परन्तु उस की सूंड़ के आघातों से पीड़ित किया गया नदी का प्रवाह, उसके पहुंचने के पहले ही, तट तक पहुँच गया। बढ़ी हुई लहरों ने पहले तट पर टक्कर खाई। उनके पीछे कहीं उस हाथी के तट तक पहुँचने की नौबत

आई । पानी में बड़ी देर तक डूबे रहने के कारण उसकी दोनों कनपटियों से बहने वाला मद कुछ देर के लिए शान्त हो गया था। परन्तु, जल के बाहर निकलने पर, ज्योंही उसने रघु की सेना के हाथियों को [ १२७ ]
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देखा त्योंही, अकेला होने पर भी, उन उतने हाथियों से भिड़ने के लिए वह तैयार हो गया। उसके शरीर में वीरता का आवेश उत्पन्न होते ही उसके मस्तक से फिर मद की धारा बहने लगी। सप्त-पर्ण नामक वृक्ष के दूध के समान उग्र गन्ध वाला उसका मद रघु के हाथियों से सहा न गया। उसका सुवास मिलते ही वे सारे हाथी अधीर हो उठे। यद्यपि उनके महावतों ने उनको अपने वश में रखने का बहुत कुछ यत्न किया,तथापि उनकी सारी चेष्टाये व्यर्थ हो गई । सेना के समस्त हाथी अपनी अपनी दुमें दबा कर, और उस जङ्गली हाथी की तरफ़ पीठ करके, वहाँ से तत्काल भाग निकले।

राजा रघु के शिविर में उस जङ्गली हाथी का प्रवेश होते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया। जितने ऊँट, घोड़े और बैल थे, सब अपने अपने बन्धन तोड़ कर भागे । इस कारण, रथों के जुए टूट गये और वे इधर उधर अस्त व्यस्त हो उलटे पलटे जा गिरे। हाथी को आता देख बड़े बड़े योद्धाओं तक के होश उड़ गये; स्त्रियों की रक्षा करने के लिए वे इधर उधर दौड़-धूप करने लगे। सारांश यह कि उस हाथी ने उस उतनी बड़ी सेना को एक पल में बेतरह व्याकुल कर डाला।

शास्त्र की आज्ञा है कि राजा को जङ्गली हाथी न मारना चाहिए। इस बात को अजकुमार जानता था। अतएव, जब उसने देखा कि यह हाथी मुझ पर आघात तकरने के लिए दौड़ा चला ही आ रहा है तब उसने धीरे से धनुष को खींच कर सिर्फ उसके मस्तक पर इस इरादे से एक बाण मारा कि वह वहीं से लौट जाय, आगे न बढ़े। हाथी राजाओं के बड़े काम आते हैं । इसीसे युद्ध के सिवा और कहीं उन्हें मारना मना है। यहाँ युद्ध तो होता ही न था, इसी से अजकुमार ने उस पर ज़ोर से बाण नहीं मारा । केवल उसे वहाँ से भगा देना चाहा। अज का बाण लगते ही उस प्राणी ने हाथी का रूप छोड़ कर बड़ा ही रमणीय रूप धारण किया। उसे आकाश में निर्विघ्न विचरण करने योग्य शरीर मिल गया। उस समय उसके शरीर के चारों तरफ़ प्रकाशमान प्रभा-मण्डल उत्पन्न हो गया। उसके बीच में उस सुन्दर शरीर वाले व्योमचारी को खड़ा देख कर रघु की सेना आश्चर्य-सागर में डूब गई । इसके अनन्तर

उस गगनचर ने अपने सामर्थ्य से कल्पवृक्ष के फूल ला कर अज पर बर[ १२८ ]
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पाँचवाँ सर्ग।

साये । फिर,अपने दाँतों की चमक से अपने हृदय पर पड़े हुए सफेद मोनियों के हार की शोभा को बढ़ाते हुए उसने,नीचे लिखे अनुसार,वक्तृता प्रारम्भ की। वक्तृता इस लिए कि वह कोई ऐसा वैसा साधारण बोलने वाला न था,किन्तु बहुत बड़ा वक्ता था। वह बोला:-

"अजकुमार,मैं प्रियदर्शन नाम के गन्धर्व का पुत्र हूँ। मेरा नाम प्रियम्बद है। मेरे गर्व को देख कर एक बार मतङ्ग नामक ऋषि मुझ पर बहुत अप्रसन्न हुए। इससे उन्होंने शाप दिया कि जा, तू हाथी हो जा। तेरे सदृश घमण्डी को हाथी ही होना चाहिए । शाप दे चुकने पर मैंने मतङ्ग मुनि को नमस्कार किया, उनकी स्तुति भी की और शापमोचन के लिए उनसे नम्रतापूर्वक विनती भी की। इस पर मुनि का क्रोध शान्त हो गया। होना ही चाहिए था। अग्नि के संयोग से ही पानी को उष्णता प्राप्त होती है। यथार्थ में तो शीत- लत्व ही पानी का स्वाभाविक धर्म है। मुनियों का स्वभाव भी दयालु और शान्त होता है । क्रोध उन्हें कोई बहुत बड़ा कारण उपस्थित हुए बिना नहीं आता । मेरी प्रार्थना पर तपोनिधि मतङ्ग मुनि को दया आई और उन्होंने कहा:-'अच्छा, जा, इक्ष्वाकु के वंश में अज नामक एक राजकुमार होगा । वह जब तेरे मस्तक पर लोहे के मुँह वाला बाण मारेगा तब तेरा हाथी का शरीर छूट जायगा और तुझे फिर अपना स्वाभाविक गन्धर्वरूप मिल जायगा । जिस दिन से मतङ्ग ऋषि ने यह शाप दिया उस दिन से आज तक मैं महाबलवान् इक्ष्वाकुवंशी अज के दर्शनों की प्रतीक्षा में था । आज कहीं आपने मुझे शाप से छुड़ा कर मेरी मनोरथ-सिद्धि की । अतएव आपने मुझ पर जो उपकार किया है उसका यदि मैं कुछ भी बदला न दूं तो आपके प्रभाव से मुझे जो इस गन्धर्व-शरीर की किर प्राप्ति हुई है वह व्यर्थ हो जायगी । प्रत्यु- पकार करने में असमर्थ मनुष्यों के लिए जीने की अपेक्षा मर जाना ही अच्छा है। मित्र, मेरे पास सम्मोहन नाम का एक अस्त्र है। उसका देवता गन्धर्व है। उसी की कृपा से यह अस्त्र मिलता है। इसे शत्र पर चलाने और फिर अपने पास लौटा लेने के मन्त्र

जुदे जुदे हैं । वे सब मुझे सिद्ध हैं । यह अस्त्र मैं आपको देता हूँ। लीजिए। इसमें यह बड़ा भारी गुण है कि इसे चलाने से शत्र्यों की प्राण-हानि हुए बिना ही चलाने वाले की जीत होती है। इससे शत्रु मूर्छित हो जाते हैं; . [ १२९ ]
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रघुवंश।


उनमें युद्ध करने की शक्ति ही नहीं रह जाती। अतएव, इस शस्त्र का प्रयोगकर्ता अवश्य ही विजयी होता है। इस बात को आप अपने मन में हरगिज़ न आने दें कि आपने तो मुझ पर बाण मारा और मैं आपको उसके बदले यह अस्त्र देने जाता हूँ। इसमें लज्जा की कोई बात नहीं; क्योंकि मेरे मारने के लिए धनुष उठाने पर भी आपके मन में, क्षण भर के लिए, मुझ पर दया आ गई। इससे आपने मुझे मारा नहीं। मेरा मस्तक बाण से छेद कर ही मुझे आपने छोड़ दिया। इस कारण, इस अस्त्र को ले लेने के लिए मैं जो आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ, उसे आपको मान लेना चाहिए। अपने मन को कठोर करके उसका तिरस्कार करना आपको उचित नहीं।"

चन्द्रमा के समान समस्त संसार को आनंद देने वाले अजकुमार ने गन्धर्व की इस प्रार्थना को मान लिया। उसने कहा:-"बहुत अच्छा; आपकी आज्ञा मुझे मान्य है।" यह कह कर अज ने सोमसुता नर्म्मदा का पवित्र जल लेकर आचमन किया। फिर उसने उत्तर की ओर मुँह करके, शाप से छूटे हुए उस गन्धर्व से उस सम्मोहन-अस्त्र-सम्बन्धी मन्त्र ग्रहण कर लिये।

इस प्रकार, दैवयोग से, मार्ग में, जिस बात का कभी स्वप्न में भी ख़याल न था वह हो गई। अकस्मात् वे दोनों एक दूसरे के मित्र हो गये। इसके अनन्तर वह गन्धर्व तो कुवेर के उद्यान के पास वाले प्रदेश की तरफ़ चला गया, क्योंकि वह वहीं का रहने वाला था; और, अजकुमार ने उस विदर्भ देश की राह ली जिसका राजा अपनी प्रजा का यथा न्याय पालन करता था, और जहाँ की प्रजा ऐसे अच्छे राजा को पाकर, सब प्रकार सुखी थी।

यथासमय अज विदर्भ नगरी के पास पहुँच गया और नगर के बाहर अपनी सेना सहित उतर पड़ा। उसके आने का समाचार पाकर विदर्भ- नरेश को परमानन्द हुआ। चन्द्रोदय होने पर, जिस तरह समुद्र अपनी बड़ी बड़ी लहरें ऊँची उठा कर चन्द्रमा से मिलने के लिए तट की तरफ बढ़ता है, उसी तरह विदर्भाधिप भी अजकुमार को अपने यहाँ ले आने के लिए आगे बढ़ा और जहाँ वह ठहरा हुआ था वहाँ जाकर उससे भेंट की।

वहाँ से उसने अज को साथ लिया और सेवक के समान उसके आगे [ १३० ]
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पाँचवाँ सर्ग।

आगे चलने लगा। बड़ी ही नम्रता से वह अजकुमार को अपनी राजधानी में ले आया। वहाँ राजश्री के सूचक छत्र और चमर आदि सारे ऐश्वर्यों से उसने उसकी बड़ी ही सेवा-शुश्रूषा की। उस आदर-सत्कार को देख कर,स्वयंवर में आये हुए लोगों ने अज- कुमार को तो विदर्भदेश का राजा और विदर्भ-नरेश को एक साधा -रण अतिथि अनुमान किया-अर्थात् अज तो घर का स्वामी सा जान पड़ने लगा और राजा भोज पाहुना सा । सत्कार की हद हो गई।

नगर-प्रवेश होने पर,राजा भोज के कर्मचारियों ने महापराक्रमी राजा रघु के प्रतिनिधि अजकुमार से नम्रतापूर्वक यह निवेदन कियाः-"महाराज,जिसके द्वार पर बनी हुई वेदियों पर जल से भरे हुए मङ्गलसूचक कलश स्थापित हैं वह रमणीय और नई विश्राम- शाला आप ही के लिए है।" यह सुन कर अजकुमार ने--बाल्या- वस्था के आगे वाली,अर्थात् यौवनावस्था,में मन्मथ के समान--उस मनोहर डेरे में निवास किया।

सायङ्काल होने पर स्वयंवर-सम्बन्धी चिन्ता में अज का चित्त मग्न हो गया। जिसके स्वयंवर में शरीक होने के लिए दूर दूर से सैकड़ों नरेश आये हुए हैं वह महासुन्दरी कन्या मुझे प्राप्त हो सकेगी या नहीं ? यही विचार करते वह घंटों पलँग पर पड़ा रहा। उसे नींद ही न आई । बड़ी देर में,पति के आचरण से खिन्न हुई स्त्री के सदृश,निद्रा को अज की आँखों के सामने कहीं आने का साहस हुआ । नींद ने सोचा कि इस समय अज को इन्दुमती की विशेष चाह है, मेरी तो है ही नहीं। फिर मैं क्यों उसके पास जाने की जल्दी करूँ ?

प्रातःकाल होने पर,पलँग पर लेटे हुए अज की छबि बहुत ही दर्शनीय थी । उसके कानों के कुण्डल उसके पुष्ट कन्धों पर पड़े हुए थे । पलंग-पोश की रगड़ से उसके शरीर पर लगा हुआ केसर-कस्तूरी आदि का सुगन्धित उबटन कुछ कुछ छूट गया था। ऐसे रम्य रूप और विख्यात-बुद्धि वाले कुमार को अब तक सोता देख, उसी की उम्र के और बड़ो ही रसाल वाणी वाले सूत-पुत्रों ने, मधुर स्वर में, भैरवी गा गा कर, जगाना आरम्भ किया। वे बोले :-

"हे बुध-वर ! रात बीत गई। सूर्य निकलने चाहता है। शय्या [ १३१ ]
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रघुवंश।

छोड़िए । उठ बैठिए । ब्रह्मा ने इस संसार के भार के दो भाग कर दिये हैं। उनमें से एक भाग का भार तो आपका पिता,निद्रा छोड़ कर,बड़े ही निरालस भाव से,उठा रहा है। रहा दूसरा,सो उसे उठाना आपका काम है। अतएव,उठ कर उसे संभालिए। दो आदमियों का काम एक से नहीं हो सकता।

"आप पर लक्ष्मी अत्यन्त अनुरक्त है। वह आपको एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ना चाहती । तिस पर भी निद्रा के वशीभूत होकर आपने उसका स्वीकार न किया। इस कारण, वियोग-व्यथा ने उसे बहुत ही खिन्न कर दिया। आपको निद्रा की गोद में देख, खण्डिता स्त्री की तरह,वह बेतरह घबरा उठी। रात बिताना उसके लिए दुःसह हो गया। इस दशा को प्राप्त होने पर, वह अपने वियोग-दुःख को कम करने का उपाय ढूँढ़ने लगी। उसने देखा कि चन्द्रमा में आपके मुख की थोड़ी बहुत समता पाई जाती है। इससे चलो, उसी को देख देख, किसी तरह जी बहलावे और रात काट दें। परन्तु, वह चन्द्रमा भी, इस समय, पश्चिम दिशा की तरफ़ जा रहा है और आपके मुख का सादृश्य अब उससे अदृश्य हो रहा है। अतएव, निद्रा छोड़ कर अब आप इस अनन्यशरण लक्ष्मी को अवश्य ही अवलम्ब दीजिए । चन्द्रास्त हो जाने पर इसे बिलकुल ही निराश्रित न कर डालिए। उठिए,उठिए।

बाल-सूर्य की किरणों का स्पर्श होते ही,अभी ज़रा ही देर में, सूर्यविकासी कमल खिल उठेंगे । आप भी अब अपने सुन्दर नेत्र खोल दीजिए। फिर,देखिए कि चञ्चल और काली काली कोमल पुतली वाले आपके नेत्र और भीतर भरे हुए चञ्चल भौरों वाले कमल किस तरह एक दूसरे की बराबरी करते हैं। यदि दोनों एक ही साथ अच्छी तरह खिल उठे तो यह देखने को मिल जाय कि आपके नेत्रों और कमलों में परस्पर कितना सादृश्य है। कुमार,इस प्रातःकालीन पवन को तो देखिए । यह बड़ा ही ईर्ष्यालु है। आपके मुख के सुगन्धिपूर्ण स्वाभाविक श्वासोच्छास की बराबरी करने के लिए यह बड़ी बड़ी चेष्टायें कर रहा है। दूसरों के गुण उधार लेकर यह उसके सदृश सुगन्धित होना चाहता है । जान पड़ता है,इसी से यह वृत्तों की डालियों से शिथिल हुए फूलों को बार बार गिराता और सूर्य की [ १३२ ]
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पाँचवाँ सर्ग।

किरणों से विकसित हुए कमलों को बार बार जा जा कर छूता है । वृक्षों के लाल लाल कोमल पत्तों पर पड़े हुए,अनमोल हार के गोल गोल मोतियों के समान स्वच्छ, ओस के कणों का दृश्य भी तो देखिए। आपके अरुणिमामय अधरों पर स्थान पाने और आपके दाँतों की शुभ्रकान्ति से मिलाप होने से और भी अधिक सुन्दरता को पानेवाली, आपकी लीला-मधुर मन्द मुसकान की तरह, ओस के ये चूद, इस समय, बहुत ही शोभायमान हो रहे हैं।

"तेजोनिधि भगवान सूर्यनारायण का अभी तक उदय भी नहीं हुआ कि इतने ही में अरुणोदय ने शीघ्रही सारे अन्धकार का नाश कर ड ला । वीरवर अज,आप ही कहिए,युद्ध में जब आप आगे बढ़ते हैं तब क्या कभी आपके पिता को भी शत्रु-नाश करने का परिश्रम उठाना पड़ता है ? कदापि नहीं। योग्य पुरुष को काम सौंप देने पर स्वामी के लिए स्वयं कुछ भी करना बाक़ी नहीं रह जाता।

"सारी रात,कभी इस करवट कभी उस करवट सोकर,देखिए, आपके हाथी भी अब जाग पड़े हैं और 'खनखन' बजती हुई जजीरों को खींच रहे हैं । बालसूर्य की धूप पड़ने से इनके दाँत, इस समय, ऐसे मालूम हो रहे हैं जैसे कि ये हाथी किसी पहाड़ के गेरू-भरे हुए तटों को अभी अपने दाँतों से तोड़े चले आ रहे हों। इनके दाँतों पर पड़ी हुई धूप गेरूही की तरह चमक रही है । हाथियों ही की नहीं, आपके घोड़ों की भी नींद खुल गई है । हे कमल-लोचन ! देखिए, बड़े बड़े तम्बुओं के भीतर बँधे हुए आपके ये ईरानी घोड़े, आगे पड़े हुए सेंधा नमक के टुकड़े चाट चाट कर, अपने मुंह की उष्ण भाफ से उन्हें मैला कर रहे हैं। उपहार में आये हुए फूलों के जो हार आप कण्ठ में धारण किये हुए हैं उनके फूल भी इस समय बेहद कुम्हला गये हैं। पहले वे खूब घने थे, पर अब कुम्हला जाने के कारण,दूर दूर हो गये हैं। आपके शय्यागार के ये दीपक भी, किरण-मण्डल के न रहने से, निस्तेज हो रहे हैं। आपके इस मधुरभाषी. तोते को भी सोते से उठे बड़ी देर हुई । देखिए,आपको जगाने के लिए हम लोग जो स्तुतिपाठ कर रहे हैं उसी की नकल पीजड़े में बैठा हुआ, वह कर रहा है।"

बन्दीजनों के बालकों के ऐसे मनोहर वचन सुन कर अजकुमार की [ १३३ ]
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रघुवंश।

नींद खुल गई और उसने इस तरह पलँग को तत्काल ही छोड़ दिया जिस तरह कि उन्मत्त राजहंसों के मधुर शब्द सुन कर जागा हुआ सुप्रतीक नामक सुरगज गङ्गा के रेतीले तट को छोड़ देता है।

पलँग से उठ कर उस ललित-लोचन अजकुमार ने,शास्त्र की रीति से,सन्ध्यावन्दन आदि सारे प्रातःकालीन कृत्य किये । तदनन्तर उसके निपुण नौकरों ने उसका,उस अवसर के योग्य,शृङ्गार किया-उसे अच्छे अच्छे कपड़े और गहने पहनाये। इस प्रकार खूब सज कर,उसने,स्वयंवर में आये हुए राजाओं की सभा में जाकर बैठने के लिए,अपने डेरे से प्रस्थान किया।