रघुवंश/६—इन्दुमती का स्वयंवर
स्वयंवर की रङ्गभूमि में जाकर अज ने देखा कि सजे हुए मञ्चों पर रक्खे हुए सिंहासनों के ऊपर सैकड़ों राजा बैठे हुए हैं। उनके वेश बड़े ही मनोहर हैं । वे इस सज-धज से वहाँ बैठे हुए हैं कि विमानों पर बैठ कर आकाश में विहार करने वाले देवताओं की भी वेश भूषा और हास-विलास को वे मात कर रहे हैं । रति की प्रार्थना पर प्रसन्न होकर शङ्कर ने जिस मन्मथ को उसका पहले का शरीर फिर भी देने की कृपा की,साक्षात् उसी के समान सुन्दर अजकुमार को देखते ही,वहाँ जितने राजा उपस्थित थे वे सभी निराशा के समुद्र में एक दम डूब गये। उन्होंने मन ही मन कहा :--"अब इन्दुमती के मिलने की कोई आशा नहीं । इस अलौ- किक रूपवान् युवक को छोड़ कर वह हमें क्यों पसन्द करने लगी!"
रङ्गभूमि में अज के पहुंचने पर,राजा भोज ने उसके लिए निर्दिष्ट किया गया मञ्च उसे दिखला दिया और कहा कि आप इसी पर जाकर बैठे। यह सुन कर अजकुमार सजी हुई सीढ़ियों पर पैर रखता हुआ उस मञ्च पर इस तरह चढ़ गया जिस तरह कि टूटी हुई शिलाओं पर पैर रखता हुआ सिंह का बच्चा पर्वत के ऊँचे शिखर पर चढ़ जाता है। मञ्च पर रत्नखचित सिंहासन रक्खा था । उस पर बड़े मोल के,और कई रङ्गों से रजित, कालीन बिछे थे । जिस समय अज उस सिंहासन पर जा बैठा उस समय उसकी शोभा मोर पर सवार होने वाले स्वामिकार्तिक की शोभा से भी अधिक हो गई-उस समय उसने अपने सौन्दर्यातिशय से कार्तिकेय की कान्ति को भी तुच्छ कर दिया।
बिजली एकही होती है । परन्तु जिस समय उसकी धारा अनेक मेघों की पंक्तियों में विभक्त होकर एक ही साथ चमक उठती है उस समय का दृश्य बड़ा ही अद्भुत होता है। उस समय उसकी प्रभा इतनी बढ़ जाती है कि दर्शकों की आँखों को वह अत्यन्त ही असह्य हो जाती है। यही हाल,उस समय,स्वयंवर में एकत्र हुए राजाओं की शोभा का भी था। राज-लक्ष्मी यद्यपि अनेक नहीं, एक ही थी; तथापि उन सैकड़ों राजाओं की पंक्तियों में विभक्त होकर,एक ही साथ,जो उसके अनेक दृश्य दिखाई दिये उन्होंने उसकी प्रभा को बेतरह बढ़ा दिया । शरीर पर धारण किये गये रत्नों और वस्त्रालङ्कारों की जगमगाहट से दर्शकों की आँखों के सामने चकाचौंध लग गई। उनके नेत्र चौंधिया गये । राजाओं पर नज़र ठहरना मुश्किल हो गया। तथापि,अज की सी तेजस्विता किसी में न पाई गई । बड़े ही सुन्दर वस्त्राभरण धारण करके, बहुमूल्य सिंहासनों पर बैठे हुए उन सारे राजाओं के बीच,अपने सर्वाधिक सौन्दर्य और तेज के कारण,रघुनन्दन अज--कल्पवृक्षों के बीच पारिजात की तरह-सुशोभित हुआ । अतएव,फूलों से लदे हुए सारे वृक्षों को छोड़ कर भौंरे जिस तरह महा सुगन्धित मद चूते हुए जङ्गली हाथी पर दौड़ जाते हैं उसी तरह सारे राजाओं को छोड़ कर पुरवासियों के नेत्र-समूह भी अजकुमार पर दौड़ गये । सब लोग उसे ही एकटक देखने लगे।
इतने में राजाओं की वंशावली जानने वाले वन्दीजन,स्वयंवर में आये हुए सूर्य तथा चन्द्रवंशी राजाओं की स्तुति करने लगे। रङ्ग-भूमि को सुवासित करने के लिए जलाये गये कृष्णागुरु चन्दन की धूप का धुवाँ,राजाओं की उड़ती हुई पताकाओं के भी ऊपर, फैला हुआ सब कहीं दिखाई देने लगा। मङ्गल-सूचक तुरही और शङ्ख आदि बाजों की गम्भीर ध्वनि दूर दूर तक दिशाओं को व्याप्त करने लगी;और,उसे मेघगर्जना समझ कर,नगर के आस पास उद्यानों में रहने वाले मोर आनन्द से उन्मत्त होकर नाचने लगे । यह सब हो ही रहा था कि अपने मन के अनुकूल पति प्राप्त करने की इच्छा रखने वाली राजकन्या इन्दुमती,विवाहोचित वस्त्र
धारण किये हुए,सुन्दर पालकी पर सवार,और कितनी ही परिचारिकाओं को साथ लिये हुए,आती दिखाई दी। मण्डप के भीतर,दोनों तरफ़ बने हुए मञ्चों के बीच, चौड़े राज मार्ग में, उसकी पालकी रख दी गई। आहा ! इस कन्यारत्न के अलौकिक रूप का क्या कहना! उसका अनुपम सौन्दर्य ब्रह्मा की कारीगरी का सर्वोत्तम नमूना था । रङ्ग-भूमि में पहुँचते ही वह दर्शकों की हज़ारों आँखों का निशाना हो गई। सब की दृष्टि सहसा उसी की ओर खिंच गई। और,स्वयंवर में आये हुए राजा लोगों का तो कुछ हाल ही न पूछिए । उन्होंने तो अपने मन, प्राण और अन्तःकरण सभी उस पर न्यौछावर कर दिये । उनकी अन्तरात्मा, आँखों की राह से इन्दुमती पर जा पहुँची। शरीर मात्र उनका सिंहासन पर रह गया । वे लोग काठ की तरह निश्चल-भाव से अपने आसनों पर बैठे हुए उसे देखने लगे। कुछ देर बाद, जब उनका चित्त ठिकाने हुआ तब,उन्होंने अनुराग-सूचक इशारों के द्वारा इन्दुमती का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहा। उन्होंने मन में कहाः-लाओ,तब तक,अपने मन का अभिलाष प्रकट करने के लिए,शृङ्गारिक चेष्टाओं से ही दूती का काम लें। यदि हम लोग कमल के फूल,हाथ की उँगलियाँ और गले में पड़ी हुई मुक्ता-माला आदि को,पेड़ों के कोमल पल्लवों की तरह, हिला डुला कर इन्दुमती को यह सूचित करें कि हम लोग तुझे पाने की हृदय से इच्छा रखते हैं तो बहुत अच्छा हो। प्रीति-सम्पादन करने के लिए इससे बढ़ कर और कोई बात ही नहीं । इस निश्चय को उन्होंने शीघ्र ही कार्य में परिणत करके दिखाना आरम्भ कर दिया।
एक राजा के हाथ में कमल का नाल-सहित एक फूल था। क्रीडा के लिए योंही उसने उसे हाथ में रख छोड़ा था । नाल को दोनों हाथों से पकड़ कर वह उसे घुमाने-चक्कर देने लगा। ऐसा करने से फूल के पराग का भीतर ही भीतर एक गोल मण्डल बन गया और चञ्चल पंखुड़ियों की मार पड़ने से आस पास मण्डराने वाले,सुगन्ध के लोभी,भौरे दूर उड़ गये । यह तमाशा उसने इन्दुमती का मन अपने ऊपर अनुरक्त करने के लिए किया । परन्तु फल इसका उलटा हुआ । इन्दुमती ने उसके इस काम को एक प्रकार का कुलक्षण समझा । उसने सोचा:-जान पड़ता है,इसे व्यर्थ हाथ हिलाने की आदत सी है । अतएव, यह मेरा पति होने योग्य नहीं।
एक और राजा बहुत ही छैल छबीला बना हुआ बैठा था। उसके कन्धे पर पड़ा हुआ दुशाला अपनी जगह से जरा खिसक गया था। इस कारण उसका एक छोर,रत्न जड़े हुए उसके भुजबन्द से,बार बार उलझ जाता था। इन्दुमती पर अपना अनुराग प्रकट करने के लिए उसे यह अच्छा बहाना मिला। अतएव, पहले तो उसने उलझे हुए छोर को छुड़ाया; फिर,अपना मनोमोहक मुख ज़रा टेढ़ा करके, बड़े ही हाव-भाव के साथ,उसने दुशाले को अपने कन्धे पर अच्छी तरह सँभाल कर रक्खा । इस लीला से उसका चाहे जो अभिप्राय रहा हो; पर इन्दुमती ने इससे यह अर्थ निकाला कि इसके शरीर में कोई दोष जान पड़ता है। उसी को अपने दुशाले से छिपाने का यह यत्न कर रहा है।
एक राजा को कुछ और ही सूझी। उसने अपनी आँखें ज़रा टेढ़ी करके,कटाक्षपूर्ण दृष्टि से,नीचे की तरफ़ देखा । फिर,उसने अपने एक पैर की उँगलियाँ सिकोड़ लों। इससे उन उँगलियों के नखों की आभा तिरछी होकर सोने के पायदान पर पड़ने लगी। यह खेल करके वह उन्हीं उँगलियों से पायदान पर कुछ लिखने सा लगा--उनसे वह रेखायें सी खींचने लगा। इस तरह उसने शायद इन्दुमती को अपने पास आने का इशारा किया; परन्तु इन्दुमती को उसका यह काम अच्छा न लगा। बात यह है कि नखों से ज़मीन पर रेखायें खींचना शास्त्र में मना किया गया है। इससे इन्दुमती ने ऐसा निषिद्ध काम करने वाले राजा को त्याज्य समझा।
एक अन्य राजा ने अपने बायें हाथ की हथेली को आधे सिंहासन पर रख कर उस तरफ़ के कन्धे को ज़रा ऊँचा उठा दिया। उठा क्या दिया,इस तरह हाथ रखने से वह आप ही आप ऊँचा हो गया। साथ ही इसके उसके कण्ठ में पड़ा हुआ हार भी, हाथ और पेट के बीच से निकल कर, पीठ पर लटकता दिखाई देने लगा। अपने शरीर की स्थिति में इस तरह का परिवर्तन करके, अपनी बाँई ओर बैठे हुए अपने एक मित्र राजा से वह बातें करने लगा। इसका भी यह काम इन्दुमती को पसन्द न आया । उसने मन में कहा-इस समय इसे मेरे सम्मुख रहना चाहिए,न कि मुझसे मुँह फेर कर-पराङ मुख होकर-दूसरे से बाते करना । जब अभी इसका यह हाल है तब यदि मैं इसी को अपना पति बनाऊँ तो
न मालूम यह कैसा सुलूक मेरे साथ करे! एक और तरुण राजपुत्र की बात सुनिए । श्रृंगारप्रिय स्त्रियों के कान में खोंसने योग्य,और,कुछ कुछ पीलापन लिये हुए,केवड़े के फूल की एक पंखुड़ी उसके हाथ में थी। उसी को वह अपने नखों से नोचने लगा। इस बेचारे को खबर ही न थी कि उसका यह काम इन्दुमती को बुरा लगेगा। तिनके तोड़ते और नखों से पत्तों आदि पर लकीरें बनाते बैठना वेकारी का लक्षण है। शास्त्र में ऐसा करने की आज्ञा नहीं। इस बात को इन्दुमती जानती थी। इसी से यह राजा भी उसका अनुराग-भाजन न हो सका।
एक अन्य राजा को और कुछ न सूझा तो उसने खेलने के पाँसे निकाले । उन्हें उसने,कमल के समान लाल और ध्वजा की रेखाओं से चिह्नित,अपनी हथेली पर रक्खा। फिर अपनी हीरा-जड़ी अँगूठी की आभा से उन पाँसों की चमक को और भी अधिक बढ़ाता हुआ,हावभाव-पूर्वक,वह उन्हें उछालने लगा। यह देख कर इन्दुमती के हृदय में उसके जुवारी नहीं, तो खिलाड़ी, होने का निश्चय हो गया। अतएव इसे भी उसने अपने लिए अयोग्य समझा।
एक राजा का मुकुट,उसके सिर पर,जहाँ चाहिए था वहीं ठीक रक्खा हुआ था। परन्तु उसने यह सूचित सा करना चाहा कि वह अपनी जगह पर नहीं है; कुछ खिसक गया है । इसी बहाने वह अपना एक हाथ,जिसकी उँगलियों के बीच की खाली जगह रत्नों की किरणों से परिपूर्ण सी हो गई थी,बार बार अपने मुकुट पर फेरने लगा। इस व्यापार के द्वारा राजा ने तो शायद इन्दुमती से यह इशारा किया कि मैं तुझे मुकुट ही की तरह,अपने सिर पर, स्थान देने को तैयार हूँ। परन्तु इन्दुमती ने इसे भी व्यर्थ ही हाथ घुमाने फिराने वाला,अतएव कुलक्षणी,ठहराया ।
इसके अनन्तर स्वयंवर का मुख्य काम प्रारम्भ हुआ। सुनन्दा नाम की एक द्वारपालिका बुलाई गई। उपस्थित राजा लोगों की वंशावली इसे खूब याद थी । प्रत्येक राजा के पूर्व-पुरुषों तक का चरित यह अच्छी तरह जानती थी । बातूनी भी यह इतनी थी कि पुरुषों के कान काटती थी। उस समय मगध-देश का राजा सबसे अधिक प्रतिष्ठित समझा जाता था। इससे इन्दुमती को सुनन्दा पहले उसी के सामने ले गई । वहाँ उसने समयानुकूल वक्तृता आरम्भ की । कुमारी इन्दुमती से वह कहने लगीः-
१७ "देख,यह मगध-देश का महा पराक्रमी परन्तप नामक राजा है। 'पर' शत्रु को कहते हैं । अपने शत्रुओं पर यह बेहद तपता है उन्हें बहुत अधिक सन्ताप पहुँचाता है-इसी कारण,इसका‘परन्तप' नाम सचमुच ही सार्थक है। शरण आये हुओं की रक्षा करना,यह अपना धर्म समझता है-शरणार्थियों को शरण देने में कभी आना- कानी नहीं करता। अपनी प्रजा को भी यह सदा सन्तुष्ट रखता है। इससे इसने संसार में बड़ा नाम पाया है। इसकी कीर्ति सर्वत्र फैली हुई है। यों तो इस जगत में सैकड़ों नहीं, हज़ारों राजा हैं, परन्तु यह पृथ्वी केवल इसी को यथार्थ राजा समझती है। 'राजन्वती' नाम इसे इसी राजा की बदौलत मिला है। रात को आकाश में,न मालूम कितने नक्षत्र,तारे और ग्रह उदित हुए देख पड़ते है; परन्तु उनके होते हुए भी जब तक चन्द्रमा का उदय नहीं होता तब तक कहीं चाँदनी नहीं दिखाई देती। एक मात्र चन्द्रमा ही की बदौलत रात को,'चाँदनी वाली' संज्ञा प्राप्त हुई है। भूमण्डल के अन्यान्य राजा नक्षत्रों, तारों और ग्रहों के सदृश भले ही इधर उधर चमकते रहें; पर उन सब में अकेला परन्तप ही चन्द्रमा की बराबरी कर सकता है । इस राजा को यज्ञानुष्ठान से बड़ा प्रेम है। एक न एक यज्ञ इसके यहाँ सदा हुआ ही करता है, और, इन यज्ञों में अपना भाग लेने के लिए यह इन्द्र को सदा बुलाया ही करता है। इस कारण बेचारी इन्द्राणी कोचिरकाल तक पति-वियोग की व्यथा सहन करनी पड़ती है। उसका मुँह पीला पड़ जाता है, बालों में मन्दार के फूलों का गूंथा जाना बन्द हो जाता है, और कंघी-चोटी न करने से उसकी रूखी अलकें पाण्डु-वर्ण कपोलों पर पड़ो लटका करती हैं। फिर भी इस राजा की यज्ञ-क्रिया बन्द नहीं होती;और, इन्द्राणी को वियोगिनी बना कर इन्द्र को इसके यज्ञों में जाना ही पड़ता है। यदि इस नृप-श्रेष्ठ के साथ विवाह करने की तेरी इच्छा हो तो उसे पूर्ण कर ले, और इसकी पुष्पपुर (पटना) नामक राजधानी में प्रवेश करते समय, इसके महलों की खिड़कियों मे बैठी हुई पुरवासिनी स्त्रियों के नेत्रों को,अपने दर्शनों से, आनन्दित कर।"
सुनन्दा के मुख से मगधेश्वर की ऐसी प्रशंसा सुन कर कृशाङ्गी इन्दुमती ने आँख उठा कर एक बार उसकी तरफ देखा तो ज़रूर, पर बोली कुछ भी नहीं। विना अधिक झुके ही उसने उसे एक सीधा सा प्रणाम किया। उस समय दूब लगी हुई उसकी महुए की माला कुछ एक तरफ को हट गई और वह उस राजा को छोड़ कर आगे बढ़ गई।
यह देख कर, पवन की प्रेरणा से ऊँची उठी हुई लहर जिस तरह मानससरोवर की हंसी को एक कमल के पास से हटा कर दूसरे कमल के पास ले जाती है, उसी तरह, सुवर्णदण्ड धारण करने वाली वह द्वारपालिका इन्दुमती को दूसरे राजा के पास ले गई। उसके सामने जाकर सुनन्दा फिर बोली :-
"यह अङ्ग देश का राजा है। इसे तू साधारण राजा मत समझ। इसके रूप-लावण्य आदि को देख कर अप्सराये तक इसे पाने की इच्छा करती हैं। इसके यहाँ पर्वताकार हाथियों की बड़ो अधिकता है। गजशास्त्र के प्राचार्य गौतम आदि विद्वान उन हाथियों को सिखाने के लिए इसके यहाँ नौकर हैं । यद्यपि यह भूलोक ही का राजा है,तथापि इसका ऐश्वर्य स्वर्ग लोक के स्वामी इन्द्र के ऐश्वर्य से कम नहीं। स्वर्ग का सुख इसे भूमि पर ही प्राप्त है। इसने अपने शत्रुओं का संहार करके उनकी स्त्रियों को बेहद रुलाया है। उनके वक्षःस्थलों पर बड़े बड़े मोतियों के समान आँसू इसने क्या गिराये, मानो पहले तो इसने उनके मुक्ता-हार छीन लिये, फिर उन्हें बिना डोरे के करके उन्हीं को वे लौटा से दिये। लक्ष्मी और सरस्वती में स्वभाव ही से मेल नहीं । वे दोनों कभी एक जगह एकत्र नहीं रहतीं। परन्तु अपना सारा विरोधभाव भूल कर, वे दोनों ही इसकी आश्रित हो गई हैं। अब मैं देखती हूँ कि शरीर-कान्ति में लक्ष्मी से और मधुर वाणी में सरस्वती से तू किसी तरह कम नहीं। इस कारण उन दोनों के साथ बैठने योग्य, संसार में, यदि कोई तीसरी स्त्री है तो तुही है। अतएव यदि तू इस राजा को पसन्द कर लेगी तो एक ही से गुणांवाली लक्ष्मी, सरस्वती और तू, तीनों की तीनों, एक ही जगह एकत्र हो जायेंगी।"
सुनन्दा की इस उक्ति को सुन कर इन्दुमती ने अङ्ग देश के उस नरेश से अपनी आँख फेर ली और सुनन्दा से कहा-"आगे चल ।" इससे यह न समझना चाहिए कि वह राजा इन्दुमती के योग्यही न था। और,न यही कहना चाहिए कि इन्दुमती में भले बुरे की परीक्षा का ज्ञान ही न था। बात यह है कि लोगों की रुचि एक सी नहीं होती। इन्दुमती की रुचि ही कुछ ऐसी थी कि उसे वह राजा पसन्द न आया । बस,और कोई कारण नहीं।
इसके अनन्तर द्वारपालिका सुनन्दा ने इन्दुमती को एक और राजा दिखाया। अत्यन्त पराक्रमी होने के कारण वह अपने शत्रुओं को दुःसह हो रहा था-उसका तेज उसके शत्रुओं को असह्य था । परन्तु इससे यह अर्थ न निकालना चाहिए कि उसमें कान्ति और सुन्दरता की कमी थी। नहीं,महाशूरवीर और तेजस्वी होने पर भी, उसका रूप-नवीन उदित हुए चन्द्रमा के समान-बहुतही मनोहर था। उसके पास खड़ो होकर इन्दुमती से द्वारपालिका कहने लगीः-
"राजकुमारी ! यह अवन्तिका का राजा है। देख तो इसकी भुजायें कितनी लम्बी हैं। इसकी छाती भी बहुत चौड़ी है। इसकी कमर गोल है,पर विशेष मोटी नहीं । इसके रूप का वर्णन मुझसे नहीं हो सकता। इसकी शरीर-शोभा का क्या कहना है ! यह,विश्वकर्मा के द्वारा सान पर चढ़ा कर बड़ी ही सावधानी से खरादे हुए सूर्य के समान, मालूम हो रहा है। जिस समय यह सर्वशक्तिमान राजा अपनी सेना लेकर युद्ध यात्रा के लिए निकलता है उस समय सब से आगे चलने वाले इसके घोड़ों की टोपों से उड़ी हुई धूल, बड़े बड़े सामन्त राजाओं के मुकुटों पर गिर कर,उनके रत्नों की प्रभा के अंकुरों का एक क्षण में नाश कर देती है । इसके सेना-समूह को देख कर ही इसके शत्रुओं के हृदय दहल उठते हैं और उनका सारा तेज क्षीण हो जाता है । उज्जैन में महाकाल नामक चन्द्रमौलि शङ्कर का जो मन्दिर है उसके पास ही यह रहता है। इस कारण कृष्ण-पक्ष में भी इसे-इसेही क्यों, इसकी रानियों तक को-शुक्ल-पक्ष का आनन्द आता है । शङ्कर के जटा-जूट में विराजमान चन्द्रमा के निकट ही रहने के कारण इसके महलों में रात को सदा ही चाँदनी बनी रहती है । सुन्दरी ! क्या यह युवा राजा तुझे पसन्द है ? यदि पसन्द हो तो सिप्रा नदी की तरङ्गों के स्पर्श से शीतल हुई वायु से कम्पायमान इसके फूल-बाग़ में तू आनन्द-पूर्वक विहार कर सकती है।"
चन्द्र-विकासिनी कुमुदनी जिस तरह सूर्य को नहीं चाहती--उसे प्रेमभरी दृष्टि से नहीं देखती-उसी तरह वह सुकुमारगात्री इन्दुमती भी उस,बन्धुरूपी कमलों को विकसित करने और शत्रुरूपी कीचड़ को सुखा डालने वाले,राजसूर्य को अपना प्रीतिपात्र न बना सकी । बना कैसे सकती ? सुकुमारता और उग्रता का साथ कहीं हो सकता है ?
जब इन्दुमती ने इस राजा को भी नापसन्द किया तब सुनन्दा उसे अपने साथ लेकर अनूप देश के राजा के पास गई। वहाँ पहुँच कर,जिसकी कान्ति कमल के भीतरी भाग की तरह गौर थी, जो सुन्दरता और विनय आदि सारे गुणों की खान थी, जिसके दाँत बहुत ही सुन्दर थे,और जो ब्रह्मा की रमणीय सृष्टि का सर्वोत्तम नमूना थी उस राज्यकन्या इन्दुमती से सुनन्दा ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया:-
"प्राचीन समय में कार्त-वीर्य नाम का एक ब्रह्मज्ञानी राजा हो चुका है। उसका दूसरा नाम सहस्रार्जुन था,क्योंकि युद्ध में उसके पराक्रम को देखकर यह मालूम होता था कि उसके दो नहीं,किन्तु हज़ार,भुजायें हैं। वह इतना प्रतापी था कि अठारहों द्वोपों में उसने यज्ञ-स्तम्भ गाड़ दिये थे। कोई द्वीप ऐसा न था जहाँ उसके किये हुए यज्ञों का चिह्न न हो। वह अपनी प्रजा का इतना अच्छी तरह रखन करता था कि 'राजा' की पदवी उस समय एक मात्र उसी को शोभा देती थी, दूसरों के लिए वह असाधारण हो रही थी। अपने प्रजा-जनों में से किसी के मन तक में अनुचित विचार उत्पन्न होते ही, वह, अपना धनुर्बाण लेकर, तत्काल ही उस मनुष्य के सामने जा पहुँचता था और उसके मानसिक कुविचार
का वहीं नाश कर देता था। दूसरे राजा केवल वाणी और शरीर से किये गये अपराधों का ही प्रतीकार करते और अपराधियों को दण्ड देते हैं; परन्तु राजा कार्तवीर्य, ब्रह्मज्ञानी होने के कारण, मन में उत्पन्न हुए अपराधों का भी निवारण करने में सिद्ध-हस्त था। इससे उसके राज्य में किसी के मन में भी किसी और को दुःख पहुँचाने का दुर्विचार न उत्पन्न होने पाता था। लङ्कश्वर बड़ा ही प्रतापी राजा था। इन्द्र तक को उससे हार माननी पड़ी थी। परन्तु उसी इन्द्र-विजयी रावण की बीस भुजाओं को, एक बार,कार्तवीर्य ने अपने धन्वा की डोरी से खूब कस कर बाँध दिया। इस कारण, क्रोध और सन्ताप से जलते और अपने दसों मुखों से उष्ण-श्वास छोड़ते हुए उस बेचारे को कार्तवीर्य के कैदखाने में महीनों पड़ा रहना पड़ा; और, जब तक वह कार्तवीर्य को प्रसन्न न कर सका तब तक उसका वहाँ से छुटकारा न हुआ। वेदों और शास्त्रों के पारङ्गत ‘पण्डितों की सेवा करने वाला प्रतीप नाम का यह राजा उसी कात वीर्य राजा के वंश में उत्पन्न हुआ है। लक्ष्मी पर यह दोष लगाया जाता है कि वह स्वभाव ही से चञ्चल है; कभी किसी के पास स्थिर होकर नहीं रहती। उसकी इस दुष्कीर्ति के धब्बे को इस राजा ने साफ़ धो डाला है। बात यह है कि लक्ष्मी अपने चञ्चल स्वभाव के कारण किसी को नहीं छोड़ती; किन्तु अपने आश्रय-दाता में दोष देख कर ही,विवश होकर, उसे छोड़ देती है। यह बात इस राजा के उदाहरण से निर्धान्त सिद्ध होती है। इसमें एक भी दोष नहीं। इसी से, जिस दिन से लक्ष्मी ने इसका आश्रय लिया है उस दिन से आज तक इसे छोड़ कर जाने का विचार तक कभी उसने नहीं किया । विश्व-विख्यात परशुराम के कुठार की तेज़ धार क्षत्रियों के लिए काल-रात्रि के समान थी। उसकी सहायता से उन्होंने एक नहीं, अनेक बार, क्षत्रियों का संहार कर डाला । परन्तु युद्ध में अग्नि की सहायता प्राप्त करके यह राजा परशुराम के परशु की उस तीक्ष्ण धार की भी कुछ परवा नहीं करता। उसे तो यह कमल के पत्ते के समान कोमल समझता है । अग्नि इसके वश में है। इसकी इच्छा होते ही वह इसके शत्रुओं को, युद्ध के मैदान में, जला कर खाक कर देता है। जिसे इस पर विश्वास न हो वह महाभारत खोल कर देख सकता है। फिर भला यह परशुराम के परशु को कमल के पत्ते के समान कोमल क्यां न समझे ? माहिष्मती नगरी इसकी राजधानी है । वहीं इसका किला है । वह माहिष्मती के नितम्ब के समान शोभा पाता है। जलों के प्रवाह से बहुत ही रमणीय मालूम होने वाली नर्मदा नदी उस किलेरूपी नितम्ब पर करधनी के समान जान पड़ती है। इसके महलों की खिड़कियों में बैठ कर यदि तू ऐसी मनोहारिणी नर्मदा का दृश्य देखना चाहे तो, खुशी से,इस लम्बी लम्बी भुजाओं वाले राजा के अङ्ग की शोभा बढ़ा सकती है--इसकी अर्धाङ्गिनी हो सकती है।"
वर्षा-ऋतु में बादल चन्द्रमा को ढके रहते हैं। परन्तु शरत्काल आते ही वे तितर बितर हो जाते हैं; उनका आवरण दूर हो जाता है। इससे चन्द्रमा, आकाश में, अपनी सोलहों कलाओं से परिपूर्ण हुआ दिखाई देता है और सारे संसार की आनन्द-वृद्धि का कारण होता है। तथापि ऐसा भी सर्वकलासम्पन्न चन्द्रबिम्ब जिस तरह सूर्य-विकासिनी कमलिनी को पसन्द नहीं आता, उसी तरह, यह राजा,अत्यन्त रूपवान् और सारी कलाओं में पारङ्गत होने पर भी, इन्दुमती को पसन्द न आया।
तब वह द्वारपालिका शूरसेन (मथुरा-प्रान्त ) के राजा सुषेण के समीप इन्दुमती को ले गई । इस राजा का आचरण बहुत ही शुद्ध था। वह अपनी माता और अपने पिता, दोनों, के कुलों का दीपक था-उसके निष्कलङ्क व्यवहार के कारण दोनों कुल एक से उजियाले थे। उसकी कीर्ति इसी लोक में नहीं, किन्तु स्वर्ग और पाताल तक में गाई जाती थी। ऐसे अलौकिक राजा सुषेण की तरफ़ उँगली उठा कर इन्दुमती से सुनन्दा इस तरह कहने लगीः-
"यह राजा नीप नाम के वंश में उत्पन्न हुआ है। इसने न मालूम
आज तक कितने यज्ञ कर डाले हैं। विद्या, विनय, क्षमा, क्ररता आदि गुणों ने इसका आसरा पाकर अपना परस्पर का स्वाभाविक विरोध इस तरह छोड़ दिया है जिस तरह कि सह और हाथी, व्याघ्र और गाय आदि प्राणी, किसी सिद्ध पुरुष के शान्त और रमणीय आश्रम के पास आकर,अपना स्वाभाविक वैरभाव छोड़ देते हैं। चन्द्रमा की किरणों के समान आँखों को आनन्द देने वाली इसकी कीति तो इसके निज के महलों में चारों तरफ फैली हुई देख पड़ती है; और इसका असह्य तेज इसके शत्रुओं के नगरों के भीतर उन ऊँचे ऊँचे मकानों में, जिनकी छतों पर घास उग रही है,चमकता हुआ देख पड़ता है । आत्मीय जनों को तो इससे सर्वोत्तम सुख मिलता है,और,शत्रुओं को प्रचण्ड पीड़ा पहुँचती है । यह इसके पराक्रम ही का परिणाम है जो इसके शत्रुओं के नगर उजड़ गये हैं और उनके ऊँचे ऊँचे मकानों के आँगनों तथा अटारियों में घास खड़ो है। इसकी राजधानी यमुना के तट पर है। इससे इसकी रानियाँ बहुधा उसमें जल-विहार किया करती हैं। उस समय उनके शरीर पर लगा हुआ सफ़ेद चन्दन धुल कर यमुना-जल में मिल जाता है । तब एक विचित्र दृश्य देखने को मिलता है । गङ्गा और यमुना का सङ्गम प्रयाग में हुआ है और मथुरा से प्रयाग सैकड़ों कोस दूर है । परन्तु, उस समय, मथुरा की यमुना,प्रयाग की गङ्गा सी बन जाती है। गङ्गा का जो दृश्य प्रयाग में देख पड़ता है वही दृश्य इस राजा की रानियों के जल-विहार के प्रभाव से मथुरा में उपस्थित हो जाता है। गरुड़ से डरा हुआ कालियनाग,अपने बचने का और कोई उपाय न देख, इसकी राजधानी के पास ही,यमुना के भीतर,रहता है और यह उसकी रक्षा करता है। इसी कालिय ने इसे एक अनमोल मणि दी है। उसी देदीप्यमान मणि को यह, इस समय भी, अपने हृदय पर धारण किये हुए है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि उसे पहन कर यह कौस्तुभ-मणि धारण करने वाले विष्णु भगवान् को लज्जित सा कर रहा है। हे सुन्दरी! इस तरुण राजा को अपना पति बना कर, कुवेर के उद्यान के तुल्य इसके वृन्दावन-नामक उद्यान में,कोमल पत्तों की सेज पर फूल बिछा कर तू आनन्दपूर्वक अपने यौवन को सफल कर सकती है; और, जल के कणों से सींची हुई तथा शिलाजीत की सुगन्धि से सुगन्धित शिलाओं पर बैठ कर, वर्षा-ऋतु में, गोवर्धन-पर्वत के रमणीय गुहा-गृहों के भीतर मोरों का नाच चैन से देख सकती है।
सागर में जाकर मिलने वाली नदी, राह में किसी पर्वत के आ जाने पर,जिस तरह चक्कर काट कर उसके आगे निकल जाती है उसी तरह जलके भँवर के सदृश सुन्दर नाभिवाली इन्दुमती भी, उस राजा को छोड़ कर,आगे बढ़ गई । बात यह थी कि उसका पाना उस राजा के भाग्य ही में न था; वह तो और ही किसी की बधू होने वाली थी।
शूरसेन देश के राजा को छोड़ कर राज-कन्या, इन्दुमती, कलिङ्ग -देश के राजा, हेमाङ्गद, के पास पहुँची। यह राजा महापराक्रमी था। अपने शत्रुओं का सर्वनाश करने में इसने बड़ा नाम पाया था। एक भी इसका वैरी ऐसा न था जिसे इससे हार न माननी पड़ी हो । भुजबन्द से शोभित भुजा वाले इस राजा के सामने उपस्थित होकर सुनन्दा, पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान मुलवाली इन्दुमती से, कहने लगीः-
“यह राजा महेन्द्र-पर्वत के समान शक्ति रखता है । यह महेन्द्रा- चल
का भी मालिक है और महासागर का भी। ये दोनों ही इसी के राज्य की सीमा के भीतर हैं। युद्ध-यात्रा में इसके पर्वताकार मस्त हाथियों के समूह को देख कर यह मालूम होता है कि हाथियों के बहाने प्रत्यक्ष महेन्द्राचल ही, इसका सहायक बन कर, इसकी सेना के आगे आगे चल रहा है। कोई धनुर्धारी इसकी बराबरी नहीं कर सकता। धनुर्धारी योद्धाओं में इसी
का नम्बर सबसे ऊँचा है। इसने अपने धन्वा को खींच खींच कर इतने बाण छोड़े हैं कि उसकी डोरी की रगड़ से इसकी दोनों सुन्दर भुजाओं पर दो रेखायें बन गई हैं। अपने शत्रुओं की राजलक्ष्मी को इसने अपनी भुजाओं से बलपूर्वक पकड़ पकड़ अपने यहाँ कैद किया है। पकड़ी जाने पर, उस लक्ष्मी के कज्जलपूर्ण आँसू इसकी भुजाओं पर गिरे हैं। इससे जान पड़ता
है कि धनुष की डोरी की वे दो रेखायें नहीं, किन्तु शत्रु लक्ष्मी के काले काले अश्रु-जल से छिड़के हुए दो रास्ते हैं। इसका महल समुद्र के इतना निकट है कि खिड़कियों से ही उसके उत्ताल तरङ्ग दिखाई देते हैं। इसके यहाँ, पहर पहर पर, समय की सूचक तुरही नहीं बजती। यदि बजे भी तो सागर की मेघ-गम्भीर ध्वनि में ही वह डूब जाय; सुनाई ही न पड़े। इस कारण समुद्र की गुरुतर गर्जना से ही यह घड़ी-घंटे का काम लेता है। स्वयं समुद्र ही इसे सोते से जगाता भी है। वह इसके राज्य में रहता है न! इसीसे उसे भी इसकी सेवा करनी पड़ती है। इसके राज्य में समुद्र के किनारे किनारे ताड़ के पेड़ों की बड़ी अधिकता है। उनके वन के वन
दूर तक चले गये हैं। इन पेड़ों के पत्ते जिस समय हवा से हिलते हैं उस समय उनसे बड़ा ही मनोहर शब्द होता है। इस राजा के साथ, समुद्र तट पर, ताड़ के पेड़ों की कुजों में तुझे ज़रूर विहार करना चाहिए। यदि तू मेरी इस सलाह को मान लेगी तो द्वीपान्तरों में लगे हुए लौंग के सुगन्धित फूलों को छू कर आये हुए पवन के झकोरे तक तुझे प्रसन्न करने की चेष्टा करेंगे। पसीने की बूंदों को ज़रा भी वे तेरे शरीर पर न ठहरने देंगे--निकलने के साथ ही वे उन्हें सुखा देंगे।"
द्वारपालिका सुनन्दा ने, यद्यपि, इस तरह, उस लुभावने रूपवाली विदर्भ-नरेश की छोटी बहन को बहुत कुछ लोभ दिखाया, तथापि उसकी सलाह इन्दुमती को पसन्द न आई। अतएव उद्योगपूर्वक दूर से लाई हुई।
लक्ष्मी जिस तरह भाग्यहीन को छोड़ जाती है उसी तरह वह भी उस अभागी राजा को छोड़ कर आगे बढ़ गई।
तब इन्दुमती को द्वारपालिका सुनन्दा ने उरगपुर के देवतुल्य रूपवान् राजा के सामने खड़ा किया; और, उस चकोरनयनी से उस राजा की तरफ़ देखने के लिए प्रार्थना करके, वह उसका परिचय कराने लगी। वह बोली:-
"देख, यह पाण्ड्य नरेश है। इसके शरीर पर पीले पीले हरिचन्दन
का कैसा अच्छा खार लगा हुआ है और इसके कन्धों से बड़े बड़े मोतियों का हार भी कैसी सुघरता से लटक रहा है। जिसके शिखरों पर बाल सूर्य्य की पीली पीली, लालिमा लिये हुए, धूप फैल रही है और जिसके ऊपर से स्वच्छ जल के झरने झर रहे हैं-ऐसे पर्वतपति की छवि इसे देख कर याद आ जाती है। इस समय यह उसी के सदृश मालूम हो रहा है। राजकुमारी! तू अगस्त्यमुनि को जानती है? एक दफे विन्ध्याचल पर्वत, ऊँचा होकर, सूर्य और चन्द्रमा आदि की राह रोकने चला था। उसका निवारण अगस्त्य ही ने किया था। उन्हीं ने पहले तो समुद्र को पी लिया था; पर पीछे से उसे अपने पेट से बाहर निकाल दिया था। यही महामुनि अगस्त्य इस राजा के गुरु हैं। अश्वमेधयज्ञ समाप्त होने पर, अवभृथ नामक स्नान के उपरान्त, इस राजा का बदन सूखने भी नहीं पाता तभी, यही अगस्त्य बड़े प्रेम से इससे पूछते हैं-"यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो गया न?"
इसके महत्व और प्रभुत्व का अन्दाज़ा तू इस एक ही बात से अच्छी तरह
कर सकती है। ब्रह्मशिरा नामक अस्त्र प्राप्त करना बड़ा ही दुःसाध्य
काम है। परन्तु, इस राजा ने देवाधिदेव शङ्कर को प्रसन्न करके उसे भी प्राप्त कर लिया है। इससे, पूर्वकाल में, जिस समय महाभिमानी लंकेश्वर रावण, इन्द्र को जीतने के लिए, स्वर्ग पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगा, उस समय उसे यह डर हुआ कि ऐसा न हो जो मेरी गैरहाज़िरी में पाण्ड्यनरेश दण्डकारण्य का तहस नहस करके, वहाँ रहनेवाली मेरी राक्षसप्रजा का बिलकुल ही सर्वनाश कर डाले। अतएव पाण्ड्यनरेश से सन्धि करके-उसे अपना मित्र बना कर-तब रावण ने अमरावती पर चढ़ाई की। इसके पहले उसे अपनी राजधानी से हटने का साहस ही न
हुआ। यह राजा दक्षिण दिशा का स्वामी है; और, इस दिशा को रत्नों से परिपूर्ण समुद्र ने चारों तरफ से घेर रक्खा है। इससे वह दक्षिण दिशा की कमर में पड़े हुए कमरपट्टे के समान मालूम होता है। मेरी सम्मति है कि इस महाकुलीन राजा के साथ विधिपूर्वक विवाह करके, गरुई पृथ्वी की तरह, तू भी दक्षिण दिशा की सौत बनने का सौभाग्य प्राप्त कर। मलयाचल की सारी भूमि एक मात्र इसी राजा के अधिकार में है। यह भूमि इतनी रमणीय है कि मुझसे इसकी प्रशंसा नहीं हो सकती। वह देखने ही लायक है। सुपारी के पेड़ों पर पान की बेलें वहाँ इतनी घनी छाई हुई हैं कि उन्होंने पेड़ों को बिलकुल ही छिपा दिया है। चन्दन के पेड़ों से वहाँ इलायची की लतायें इस तरह लिपटी हुई हैं कि वे उनसे किसी तरह अलग ही नहीं की जा सकतीं। तमाल के पत्ते, सब कहीं, वहाँ इस तरह फैले हुए हैं जैसे किसी ने हरे हरे कालीन बिछा दिये हो। तू इस राजा के गले में जयमाल डाल कर, मलयाचल के ऐसे शोभामय और सुखदायक केलि-
कानन में, नित नया विहार किया कर। मेरी बात मान ले। अब देरी मत कर। प्रसन्नतापूर्वक इसे माला पहना दे। इस राजा के शरीर की कान्ति नीले कमल के समान साँवली है, और तेरे शरीर की कान्ति गोरोचना के समान गोरी। इस कारण, भगवान् करे, तुम दोनों का सम्बन्ध काले मेघ और चमकती हुई गोरी बिजली के समान एक दूसरे की शोभा को बढ़ावे!"
इस प्रकार सुनन्दा ने यद्यपि बहुत कुछ लोभ दिखाया और बहुत कुछ समझाया बुझाया, तथापि उसकी सीख को राजा भोज की बहन के हृदय के भीतर धंसने के लिए तिल भर भी जगह न मिली। उसका वहाँ प्रवेश ही न हो सका। इन्दुमती पर सुनन्दा की विकालत का कुछ भी असर न हुआ। सूर्यास्त होने पर, जिस समय कमल का फूल अपनी पंखुड़ियों को समेट कर बन्द हो जाता है उस समय, हज़ार प्रयत्न करने पर भी, क्या चन्द्रमा की किरण का भी प्रवेश उसके भीतर हो सकता है ?
इसी तरह और भी कितने ही राजाओं को उस राजकुमारी ने देखा
भाला; पर उनमें से एक भी उसे पसन्द न आया। एक एक को देखती
और निराशा के समुद्र में डुबोती हुई वह आगे बढ़ती ही गई। हाथ
मैं लालटेन लेकर जब कोई रात को किसी चौड़ी सड़क पर चलता है तब
जैसे जैसे वह आगे बढ़ता जाता है वैसे ही वैसे सड़क पर ऊँचे उठे हुए पुश्ते, जिन्हें वह छोड़ता जाता है, अँधेरे में छिपते चले जाते हैं। ठीक उसी तरह, जिस जिस राजा को छोड़ कर पतिंवरा इन्दुमती आगे बढ़ती गई उस उसका मुँह धुवा होता चला गया। उस उसके चेहरे पर अन्धकार के सदृश कालिमा छाती हुई चली गई।
जब वह अजकुमार के पास पहुंची तब यह सोच कर कि मुझसे यह विवाह करेगी या नहीं, उसका चित्त चिन्ता से प्राकुल हो उठा। इतने ही में उसकी दाहनी भुजा इस ज़ोर से फड़की कि उस पर बँधे हुए भुजबन्द का बन्धन ढोला पड़ गया। इस शकुन ने अज के सन्देह को दूर कर दिया। उसे विश्वास हो गया कि इन्दुमती अवश्य ही मेरे गले में वरणमाला पहनावेगी। अज बहुत ही रूपवान् राजकुमार था। उसका प्रत्येक अवयव सुन्दरता की खान था। उसके किसी अङ्ग में दोष का लवलेश भी न था। इस कारण, अज के सौन्दर्य पर इन्दुमती मोहित हो गई। अतएव, और किसी राजा के पास जाकर उसे देखने की इच्छा को उसने अपने हृदय से एक दम दूर कर दिया। ठीक ही है। फूले हुए आम के पेड़ पर पहुँच कर, भाँरों की भीड़ फिर और किसी पेड़ पर जाने की इच्छा नहीं करती।
बोलने में सुनन्दा बड़ी ही प्रवीण थी। चतुर भी वह एक ही थी। इससे वह झट ताड़ गई कि चन्द्रमा के समान कान्तिवाली चन्द्रवदनी इन्दुमती का चित्त अजकुमार के सौन्दर्य-सागर में मग्न हो गया है। अतएव वह अज का वर्णन, बड़े विस्तार के साथ, इन्दुमती को सुनाने लगी। वह बोली:-
"इक्ष्वाकु के कुल में ककुत्स्थ नाम का एक राजा हो गया है। वह
अपने समय के सारे राजाओं में श्रेष्ठ था। गुणवान् भी वह सब राजाओं
से अधिक था। तबसे, उसी के नामानुसार, उत्तर-कोशल के सभी उदाराशय राजा काकुत्स्थ कहलाते हैं। इस संज्ञा-इस पदवी-को बड़े मोल की चीज़ समझ कर वे इसे बराबर धारण करते चले आ रहे हैं। देवासुर संग्राम के समय एक दफ़े इन्द्र ने राजा ककुत्स्थ से सहायता माँगी।
ककुत्स्थ ने कहा-'तुम बैल बन कर अपनी पीठ पर मुझे सवार होने
दो तो मैं तुम्हारी सहायता करने को तैयार हूँ। मेरे लिए और कोई वाहन
सुभीते का नहीं। और से मेरा तेज सहन भी न होगा। इन्द्र ने इस बात को मान लिया। वह बैल बना और ककुत्स्थ उस पर सवार हुआ। उस समय वह साक्षात् वृषभवाहन शङ्कर के समान मालूम होने लगा। उसने, युद्ध में, अपने बाणों से अनन्त दैत्यों का नाश करके साथ ही उनकी स्त्रियों के कपोलों पर बने हुए केसर, कस्तूरी आदि के वेल-बूटों का भी नाश कर दिया। उन्हें विधवा करके उनके चेहरों को उसने शृङ्गार-रहित कर डाला। यह न समझ कि अपना मतलब निकालने ही के लिए बैल बन कर इन्द्र ने ककुत्स्थ को अपने ऊपर बिठाया था। नहीं, युद्ध समाप्त होने पर, जब इन्द्र ने अपनी स्वाभाविक मनोरमणीय मूत्ति धारण की तब भी उसने ककुत्स्थ का बेहद आदर किया। यहाँ तक कि उसे सुरेश ने अपने आधे सिंहासन पर बिठा लिया। उस समय ककुत्स्थ और इन्द्र एक ही सिंहासन पर इतने पास पास बैठे कि ऐरावत को बार बार थपकारने के कारण इन्द्र के ढीले पड़ गये भुजबन्द से राजा ककुत्स्थ का भुजबन्द रगड़ खाने लगा। इसी ककुत्स्थ के वंश में दिलीप नामक एक महा कीर्तिमान और कुलदीपक राजा हुआ। उसका इरादा पूरे सौ यज्ञ करने का था। परन्तु उसने सोचा कि ऐसा न हो जो इन्द्र यह समझे कि पूरे एक सौ यज्ञ करके यह मेरी बराबरी करना चाहता है। अतएव इन्द्र के व्यर्थ द्वेष से बचने और उसे सन्तुष्ट रखने ही के लिए वह केवल निन्नानवेही यज्ञ करके रह गया। राजा दिलीप के शासन-समय में चोरी का कहीं नाम तक न था। फूल-बागों में और बड़े बड़े उद्यानों में विहार करने के लिए गई हुई स्त्रियाँ, जहाँ चाहती थीं, आनन्द से सो जाया करती थीं। सोते समय उनके वस्त्रों को हटाने या उड़ाने का साहस वायु तक को तो होता न था। चोरी करने के लिए भला कौन हाथ उठा सकता था ? इस समय उसका पुत्र रघु पिता के सिंहासन पर बैठा हुआ प्रजा का पालन कर रहा है। वह विश्वजित् नामक बहुत बड़ा यज्ञ कर चुका है। चारों दिशाओं को जीत कर उसने जो अनन्त सम्पत्ति प्राप्त की थी उसे इस यज्ञ में खर्च कर के, आज कल, वह मिट्टी के ही पात्रों से अपना काम चला रहा है। अपना सर्वस्व दान कर देने से अब उसके पास सम्पत्ति के नाम से केवल मिट्टो के वर्तन ही रह गये हैं। इस राजा का यश पर्वतों के शिखरों के
ऊपर तक पहुँच गया है; समुद्रों को तैर कर उनके पार तक निकल गया
है; पाताल फोड़ कर नाग लोगों के नगरों तक फैल गया है; और, ऊपर,
आकाश में, स्वर्गलोक तक चला गया है। इसके त्रिकालव्यापी यश की
कोई सीमा ही नहीं। कोई जगह ऐसी नहीं जहाँ वह न पहुँचा हो। न
वह ताला ही जा सकता है और न मापा ही जा सकता है। यह अज-
कुमार उसी राजा रघु का पुत्र है। स्वर्ग के स्वामी इन्द्र से जैसे जयन्त की
उत्पत्ति हुई है वैसे ही रघु से इसकी उत्पत्ति हुई है। संसार के बहुत बड़े भार
को यह, अपने राज-कार्य-कुशल पिता के समान, उसी तरह अपने ऊपर
धारण कर रहा है जिस तरह नया निकाला हुआ बछड़ा, बड़े बैल के साथ
जोते जाने पर, गाड़ी के बोझ को उसी के सदृश धारण करता है। कुल में,
रूप-लावण्य में, नई उम्र में, और विनय आदि अन्य गुणों में भी यह सब तरह
तेरी बराबरी का है । अतएव तू इसी को अपना घर बना। इस अजरूपी
सोने का तेरे सदृश स्त्रीरूपी रत्न से यदि संयोग हो जाय तो क्या ही अच्छा
हो । मणि-काञ्चन का संयोग जैसे अभिनन्दनीय होता है वैसे ही तुम दोनों
का संयोग भी बहुत ही अभिनन्दनीय होगा।"
सुनन्दा का ऐसा मनोहारी भाषण सुन कर, राजकुमारी इन्दुमती ने अपने संकोच-भाव को कुछ कम करके, अजकुमार को प्रसन्नता-पूर्ण दृष्टि से अच्छी तरह देखा। देखा क्या मानो उसने दृष्टिरूपिणी वरमाला अर्पण कर के अज के साथ विवाह करना स्वीकार कर लिया। शालीनता और लज्जा के कारण यद्यपि, उस समय, वह मुँह से यह न कह सकी कि मैंने इसे अपनी प्रीति का पात्र बना लिया, तथापि उस कुटिल-केशी का अज़-सम्ब- न्धी प्रेम उसके शरीर को बेध कर, रोमाञ्च के बहाने, बाहर निकलही आया। वह किसी तरह न छिपा सकी। अज को देखते ही, प्रेमाधिक्य के कारण, उसके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये।
अपनी सखी इन्दुमती की यह दशा देख कर, हाथ में बेत धारण करने वाली सुनन्दा को दिल्लगी सूझी। वह कहने लगी-"प्रार्थे ! खड़ी क्या कर रही हो ? इसे छोड़ो। चलो और किसी राजा के पास चलें । यह सुन कर इन्दुमती ने रोषभरी तिरछी निगाह से सुनन्दा की तरफ़ देखा।
इसके अनन्तर मनोहर जंघाओं वाली इन्दुमती ने. हलदी, कुमकुम
आदि मङ्गल-सूचक वस्तुओं से रँगी हुई माला, सुनन्दा के दोनों हाथों से,
अज के कण्ठ में, आदरपूर्वक, यथा स्थान, पहनवा दी । उसने वह माला
क्या पहनाई, उसके बहाने मानो उसने अज को अपना मूर्तिमान् अनुराग
ही अर्पण कर दिया। फूलों की उस मङ्गलमयी माला को अपनी चौड़ी
छाती पर लटकती हुई देख, चतुर-चूडामणि अज ने कहा-'यह माला
नहीं, किन्तु विदर्भ-राज भोज की छोटी बहन इन्दुमती ने अपना बाहुरूपी
पाश ही मेरे कण्ठ के चारों तरफ डाला है। इन्दुमती के बाहु-स्पर्श से जो
सुख मुझे मिलता वही इस माला से मिल रहा है।'
अजकुमार के गले में इन्दुमती की पहनाई हुई वर-माला को देख कर, स्वयंवर में जितने पुरवासी उपस्थित थे उनके आनन्द का ठिकाना न रहा । अज और इन्दुमती में गुणों की समानता देख कर वे बहुत हो प्रसन्न हुए । अतएव एक-स्वर से वे सब बोल उठे:- "बादलों के घेरे से छूटे हुए चन्द्रमा से चाँदनी का संयोग हुआ है; अथवा अपने अनुरूप महासागर से भागीरथी गङ्गा जा मिली है। ये वाक्य औरों को तो बड़े ही मीठे मालूम हुए; परन्तु जो राजा इन्दुमती को पाने की इच्छा से स्वयंवर में आये थे उनके कानों में ये काँटे के समान चुभ गये । उस समय एक तरफ तो वर- पक्ष के लोग आनन्द से फूले न समाते थे; दूसरी तरफ आशा-भङ्ग होने के कारण राजा लोग उदास बैठे हुए थे। ऐसी दशा में स्वयंवर-मण्डप के भीतर बैठा हुआ राज-समुदाय प्रातःकालीन सरोवर की उपमा को पहुँच गया-वह सरोवर जिसमें सूर्य-विकासी कमल तो खिल रहे हैं और चन्द्र-विकासी कुमुद, बन्द हो जाने के कारण, मलिन हो रहे हैं।