रसज्ञ-रञ्जन/टिप्पणियाँ

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टिप्पणियाँ

पृष्ठ १०—समीक्षा = अच्छे प्रकार से आलोचना (सम+ईशा)। पराकाष्ठा = अन्तिम सीमा। काव्यकक्षा = काव्य कोटि। वृत्त = छंद।

पृष्ठ ११—गले में डाली … है = कमर के आभूषण को गले में पहिनने वाले की जिस प्रकार मूर्खता प्रकट होती है, उसी प्रकार छंद रूपी हार के अनुचित प्रयोग से कवि की।

पृष्ठ १३—अपरिमेय = जिसकी नाप न की जा सके।

पृष्ठ १४—दोषोद‍्भावनाएं = बुराइयों की कल्पना। आकलन = विचार, पाठ।

पृष्ठ १५—रसायन = भिन्न-भिन्न वातुओं को फूँक कर बनाई हुई मूल्यवान और औषधि विशेष। अक्षर-मैत्री = परस्पर मेल खाने वाले अक्षरों को विचार।

पृष्ठ १६—सार्वदेशिक = सारे देश से सम्बन्ध रखने वाला।

पृष्ठ १७—अर्थ सौरस्य = अर्थ की मधुरता एवं रस-पूर्णता। तादात्म्य = तन्मय हो जाना, तल्लीनता। आल्हादकारक = प्रसन्नता देने वाला। व्यञ्जक = सूचक।

पृष्ठ १८—तन्वी . है = सुकुमार तथा दुर्बल होते हुए विरहव्यथा को सहन करना विशेषता का सूचक है।

पृष्ठ १९—व्यापार = कार्य। शब्द शास्त्र . भी = व्याकरण से शुद्ध होते हुए भी। अभिषेक = जिस प्रकार बिना तिलकोत्सव के कोई भी राजा नहीं कहला सकता उसी प्रकार बिना रस के कोई काव्य काव्याधिराज नहीं बन सकता। काव्याधिराज = काव्यों का राजा अर्थात् श्रेष्ठ काव्य। परकीया = पति के अतिरिक्त अन्य पुरुष से प्रेम करने वाली नायिका। स्वकीया . बुझाना = विवाहित तथा पति में अनुरक्ता [ १२२ ]नायिका के 'आगत्पतिका' 'प्रवत्स्यत्पतिका' आदि भेद करना। हाव = मनोविकारों के सूचक कटाक्ष आदि।

पृष्ठ २०—हेला भाव = अभिलाषा, कटाक्ष आदि का अत्यन्त स्पष्टरूप।

पृष्ठ २१—अवहेलना = उपेक्षा, तिरस्कार।

पृष्ठ २२—सुवर्ण = सुवर्ण, शब्द।

पृष्ठ २३—धर्मसंस्थापनार्थाय = धर्म को स्थिर बनाने के लिए (गीता में कृष्णजी ने यह कहा है कि मैं धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेता हूँ। वहीं का यह पद है)।

पृष्ठ २६—संक्रान्ति = एक स्थान से दूसरे पर जाना। परोक्ष रूप से = उपदेश खुला होने से काव्य का सौन्दर्य नष्ट हो जाता है।

पृष्ठ २८—सापेक्ष = (यहाँ आवश्यक)। कविताकुबेर = (व्यंग्योक्ति) कुबेर देवताओं का कोषाध्यक्ष है। अत: वह सबसे अधिक धनी माना जाता है, कविता कुबेर से भाव (व्यंग्य से) तुक्कड़ कवि से है।

पृष्ठ २९—हस्तामलकबत = हथेली पर स्थित आमले के समान अर्थात् प्रत्यक्ष एवं पूर्ण रूप से ज्ञात। कुट्टिनी = व्यभिचारिणी स्त्री।

पृष्ठ ३०—दिव्य = देवी। पोरुषेय—मनुष्य सम्बन्धी। क्रिया मातृ का मंत्र = सरस्वती देवी को प्रसन्न करने वाला मंत्र। क्टच्छसाध्य = कठिनाई से ठीक होने वाला।

पृष्ठ ३१—अभिनन्दन = प्रशंसा। उग्र-सन्धि = बहस, खंडन मंडन आदि।

पृष्ठ ३२—प्राप्तकवित्वशक्ति = जिसे कविता करने की शक्ति प्राप्त हो गई हो।

पृष्ठ ३३—याश्चा = कुछ माँगने की प्रार्थना।

पृष्ठ ३५—महायात्रा = मृत्यु। पंचक = धनिष्ठा आदि पाँच नक्षत्र जिनमें कोई नया काम करना वर्जित है।

पृष्ठ ३७—कण्ठाभरण = क्षेमेन्द्रकृत 'कविकंठाभरण' नामक पुस्तक; गले का आभूषण। [ १२३ ]

पृष्ठ ३९—दीवान = गजलों का संग्रह। इस्तेदाद = योग्यता

पृष्ठ ४३—अभावोक्तियाँ = असम्भव तथा बेसिर पैर की बातें।

पृष्ठ ४६—अपरिहार्य = आवश्यक। काफिया = अन्त्यानुप्रास, तुक। वजन = छन्द की गति।

पृष्ठ ४९—आलंकारिक = अलंकार शास्त्र के ज्ञाता।

पृष्ठ ५०—व्युत्पत्ति = शास्त्रीय योग्यता। मुशाहिदा = प्रत्यक्ष देखना।

पृष्ठ ५१—उपोद्घात = भूमिका

पृष्ठ ५३—ध्वनि = व्यंग्यार्थ।

पृष्ठ ५४—एक मात्र … है—जिन कवियों में केवल शब्दाडम्बर का ही गुण है।

पृष्ठ ५६—अनुधावन = अनुकरण।

पृष्ठ ५८—अन्त करण की वृत्तियाँ = हृदय के भाव। शब्दात्मक मनोभाव = शब्दों में प्रकट हृदय के भाव।

पृष्ठ ५९—समञ्जस = समझदार।

पृष्ठ ६०—तरणि = सूर्य। ताते = गरम। साथरी = बिछोवन। तुराई = तोशक। राखि अवध … प्रान—यदि आप मुझे अवधि तक (१४ वर्ष) अयोध्या को छोड जायँगे तो मेरी मृत्यु ही समझिये। पाठान्त—राखिए अवध जो अवधि लगि रहते जानिये प्रान' = यदि आप मेरे प्राणों को अवधि तक रह सकने योग्य समझते हों तो मुझे यहाँ छोड़ जाइए। सम महि = इकसार जगह। पलोटिहि = दबावेंगी। तुमहिं उचित … भोगू—(काकूक्ति) अर्थात् आपके लिए तप करना और मेरे लिए ऐश्वर्य भोगना कहाँ तक उचित है।

पृष्ठ ६२—उद्दीप्त = तीव्र। उपरति = वैराग्य, संसार से विरक्ति।

पृष्ठ ६३—पर्यवसान = अन्त (लक्ष्य)। उसका अच्छी … चाहिए = तात्पर्य यह है कि तर्क को छोड़ने में ही कविता का स्वाद मिलता है।

पृष्ठ ६४—रसाल = सरस तथा मधुर। सत्कृत्य … करना— [ १२४ ]अच्छे कामों में समय का उपयोग करना यह स्वाभाविक … है = आनन्द तथा उपयोग के लिए कविता करना मनुष्य का स्वभाव है।

पृष्ठ ६५—राजाश्रय = राजाओं का सहारा। अज्ञात यौवना = वह नायिका जिसको अपने युवतीपन का ज्ञान नहीं। विंट = धूर्त वेश्या-प्रेमी। घेटक = दूत एवं सेवक।

पृष्ठ ६६—नवोढ़ा = नव विवाहिता नायिका। पुरुषायित सम्बन्ध = पुरुष रूप होकर रति करना (विपरीत रति)। भेदभक्ति = नायिका भेद वर्णन करने की रुचि।

पृष्ठ ६७—खण्डिता = वह नायिका जिसका पति अन्य स्त्री के पास रह कर लौटे। सुरतान्त = रति के उपरान्त। ज्ञात यौवना = वह नायिका जिसे अपने युवती होने का ज्ञान हो गया हो। विपरीत रति = स्त्री का पुरुषवत् रति क्रीड़ा में प्रवृत्त होना। उद‍्वेगजनक = ग्लानि उत्पन्न करने वाला। प्राचुर्य = अधिकता। अवलम्बन = मूल आधार।

पृष्ठ ६८—सामान्या नायिका = गणिका।

पृष्ठ ६९—चकार निकाला = कुछ भी विरोध न किया, चूँ भी न की। कूजित के मिष = मीठे वचनों के बहाने से।

पृष्ठ ७०—वासकसज्जा = वस्त्रादि से विभूषित होकर पति की प्रतीक्षा करने वाली नायिका। बिप्रलब्धा = संकेत करके भी प्रिय जिसके पास न आवे। कलहान्तरिता = पति से लड़कर पछताने वाली नायिका। दक्षिण = वह नायक जो सब की संतुष्ट रखता हुआ एक साथ कई स्त्रियों से प्रेम करता है। अनुकूल = एक ही नायिका में अनुरक्त नायक। धृष्ट = वह नायक जो झिड़कियाँ खाकर भी लज्जित नहीं होता। शठ = वह नायक जो दिखावटी प्रेम से स्त्रियों को धोखा देता है। आह्वान = पुकारना। नववयस्क मुग्धमति युवाजन = नवयुवक जो स्वभाव से ही सांसारिकज्ञान से अनभिज्ञ होते है। चेष्टा वैलक्षण्य = हाव-भावों के भेद और उनकी विशेषता।

पृष्ठ ७१—सम्मोहन शर = मोहित करने के लिए प्रयुक्त बाण। अलक्षित [ १२५ ]वाणी = जिसके कहने वाला दिखाई नहीं देता। आकर्णकृष्ट = कानों तक खींचा हुआ।

पृष्ठ ७३—आविर्भाव = उत्पत्ति। भावनाएँ = कल्पनाएँ।

पृष्ठ ७४—किन्नरी = एक देवयोनि विशेष की स्त्री। अनन्य साधारण—अनुपम।

पृष्ठ ७५—स्तम्भित = आश्चर्यचकित। कामेश्वर शास्त्री = कामदेव। अथवा काम शास्त्र में प्रवीण कल्पित शास्त्री का नाम।

पृष्ठ ७६—तिलोत्तमा, सुलोचना आदि अप्सरायें हैं। विभ्रम = विलास; हाव-भाव । निष्प्रभ = शोभाहीन। प्राङ्गण = आँगन। क्रीड़ाहंस = मन बहलाव के लिए पाला हुआ हंस।

पृष्ठ ७७—लवलीलता = नेवाड़ी। हरिणशायक = हिरन का छोटा बच्चा। अतर्कित………पिथराई = वह पीलापन जिसके लिये कोई कारण नहीं प्रतीत होता।

पृष्ट ७८—चित्र-फलक = तस्वीर खींचने का पट या तख्ता। त्रिलोकी-तिलक = तीनों लोकों में श्रेष्ठ। उशीर = खस। पर ऐसा……हैं = परन्तु मुँह नीचा करने से हृदयस्थित आभूषणों में चन्द्रमा की परछाहीं दीख पड़ती है। कङ्कणों के……सकेंगी = हाथ के आभूषण गिर तों दमयन्ती की क्षीणता के कारण रहे हैं, परन्तु कवि की उत्पेक्षा है कि मानों दमयन्ती को अपना भार सहने योग्य न समझ कर स्वयं ही चले जारहे हैं।

पृष्ठ ७९—चन्दनचर्चित मणिमंडित = चन्दन तथा मणि आदि शीतल पदार्थों से युक्त। मरीची = किरण। उपचार = इलाज। मार्तण्ड = सूर्य। तब यदि……बात है = जब देवता तक तेरा ध्यान करते हैं तो फिर एक मनुष्य को, जिसको तू स्वयं चाहे, तुझे न प्राप्त होना आश्चर्य ही का विषय है। कालिदास ने भी ऐसा ही कहा है—

"कमला मिलै कि ना मिलै ताहि चहत जो कोई।
पै जाको कमला चहै सो दुर्लभ क्यों होई॥"

(शकुन्तला)

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पृष्ठ ८०—चन्द्रमौलि = शिवजी (चन्द्रमा जिनके मस्तक में है)। रागान्ध = प्रेम में अन्धा। गतागत = आना-जाना, घूमना। स्पर्द्धा = ईर्ष्या। विलासिनी = स्त्री। पाणिपीडन = विवाह। वैमानिक = विमान उठाने वाला। मधु = वसन्त। माधवी = बासन्ती नाम की लता।

पृष्ठ ८१ = कम्बुकण्ठ = शंख के समान सुडौल गरदन। हृदयवृत्ति = हृदय का भाव (यहा प्रेम)। मुक्तलता = हार। कंटकित = पुलकित। पंचशायक = कामदेव। उन्मज्जित = बाहर निकला, उठा। निर्व्याज = स्वार्थ और छल से रहित। चिन्तामणि = वह स्वर्गीय मणि जो विचारे हुए पदार्थ को दे देती है। सायन्तनी = संध्या के समय की।

पृष्ठ ८२—नीर-क्षीर-विवेक = दूध और पानी को अलग-अलग करने का ज्ञान

पृष्ठ ८३—प्रवाद = अफवाह। जागरूक = जगी हुई, तीव्र।

पृष्ठ ८७—बिस = कमलनाल। जलरूह = जल में उत्पन्न होने वाले कमलादि।

पृष्ठ ८९—उच्छृङ्खल = निरंकुश, मनमानी करने वाले। क्रौंच = हंस के समान एक पक्षी विशेष। मानिषाद = आदि मवि वाल्मीकि के मुख से करुणावश निकला हुआ सर्व प्रथम श्लोक जिसका भाव है कि हे निषाद (भील) कामोन्मत्त इस क्रौंच के जोड़े में से एक को तूने क्यों मारा, ऐसा करने से तेरी प्रतिष्ठा हमेशा को चली जायगी। सरस्वती = वाणी। विधुरा = दुखी, वियोगिनी। अल्पादल्पतरा समवेदना = थोड़ी-सी भी सहानुभूति

पृष्ठ ९०—गेय तथा आलेख्य = गाने और लिखे जाने योग्य। पक्षपात-कार्पण्य = सहानुभूति की कमी। श्रुतिसुखद = सुनने मे मधुर। शीतातप = ठण्ड और धूप। भवतु नाम = अस्तु जो कुछ हो। हा हत विधि … सि = हाय दुर्भागनी उर्म्मिला अत्यन्त दयालु वाल्मीकि ने भी तुझे भुला दिया। दुःखाश्रुमोचन = दुख से आसू बहाना। राजान्त पुर = रनिवास। नन्दन वन = इन्द्र का उद्यान, यहां हरे-भरे से तात्पर्य है।

पृष्ठ ९१—छिन्नमूल = जड़ से कटी हुई। बचने दरिद्रता = वर्णन करने योग्य शब्दों की कमी। दु:खोदधि = दुख का समुद्र। आत्मोत्सर्ग = [ १२७ ]त्याग। विवाहोत्तर = विवाह के बाद। नवोढत्व = नव विवाह। अन्तर्दर्शी = हृदय की बातों का ज्ञाता।

पृष्ठ ९२—आराध्य युग्म = पूज्य दंपति, सीता एवं राम। नाना पुराण॰ = तुलसीदास जी ने लिखा है कि मैं अपनी कथा भिन्न-भिन्न स्थानों से लेरहा हूँ, पर ऊर्मिला के विषय में वे भी वाल्मीकिके समान ही मौन हैं।

पृष्ठ ९३—साकेत = अयोध्या। उर्मिला का......है = "उत्तर रामचरित" में जिस प्रकार लक्ष्मण ने उर्म्मिला का चित्र हाथ से ढक लिया उसी प्रकार उसका चरित्र कवियों ने ढक रक्खा अर्थात् उसका वर्णन नहीं किया।

पृष्ठ ९४—भर्त्सना = झिड़कना।

पृष्ठ ९५—आवास = निवास स्थान।

पृष्ठ ९६—भुवनातिव्यापिनी = चौदह भुवनों में श्रेष्ठ। चाटुकारिता = खुशामद।

पृष्ठ ९७—उपायन = भेंट। तिरस्कारिणी विद्या = अदृश्य होने की विद्या। अनावृत्त = खुले हुए। स्थिति स्थान = जिस सगह वह खड़ा था। चरित्रदार्ढ्य = चरित्र की दृढ़ता।

पृष्ठ ९८—अनिर्वचनीय = जिसका कथन न हो सके। मन्मथ = कामदेव। अप्रतिम = मुग्ध। अभ्युत्थान = आदर प्रदर्शित करने के लिये खड़ा होना। धारासार = जल वर्षण। कुण्ठितकण्ठ = अवाक्। प्रेमपूर्ण........चाहिए = यदि मधुपर्क न बन पड़े तो मीठे वचनों से ही स्वागत करना धर्म है। मधुपर्क = शीतल तथा सुगन्धित पदार्थों से बना हुआ एक प्रकार का शरबत।

पृष्ठ ९९—आनन्दाश्रु.........चाहिए = जल के अभाव में प्रसन्नता सूचक आँसुओं से हो अर्घ्य देना चाहिए अर्थात् हर्ष प्रकट करना चाहिए। आप उसे............करें = आसन पर विराजें। शिरीषकलिका = सिरस के फूल बहुत कोमल होते हैं। बसन्त बीत......डाली = आप किस देश को शोभाहीन कर के छोड़ आए है, अर्थात् आपका आगमन कहाँ से हुआ है। समुद्र के साथ ............है = चन्द्र सदृश आपको जन्म देकर आपका वंश भी समुद्र के समान ही धन्य है। (चन्द्रमा [ १२८ ]उत्पन्न है)। महासागर...........हूँ अर्थात् महल में प्रवेश होना कठिन है।

पृष्ठ १००—मूर्तिहीन = शिवजी द्वारा भस्म होने के बाद से काम शरीर रहित हो गया और तब ही से उसका नाम अनंग पड़ा। अश्विनीकुमार = सूर्य के दो पुत्र जो देवताओं के वैद्य हैं। अद्वितीय = अकेले। बन्धूक = बन्धूक (दुपहरिया) पुष्प के समान लाल श्रोष्ठ। दमयन्ती के..........गई = दमयन्ती के अरुण ओष्ठों से निकले हुए वाक्यों ने कामों में पवित्र होकर कामदेव के वाणों के समान हृदय पर प्रभाव डाला। गवन्तरवर्तिनी मज्जापर्यन्त = शरीर में अत्यन्त गहरे स्थान तक।

पृष्ठ १०१—कलुषित = मलीन।

पृष्ठ १०२—बिम्ब = घेरा, मंडल। केवल......होगी = जब शिवजी ही ने, जो केवल तीन नेत्रों वाले हैं, कामदेव की वह दुर्दशा कर, गरेसरहजार नेत्रों वाले इन्द्र के क्रुद्ध होने पर उसकी न जाने सासादोगो। सन कृत अपराध-बोलने से कष्ट देना (कोकिल की परियोजना नहीं होती)। दारिद्रदीन = पत्र रूपी धन के अभाव ज रतिपति..........ने = कामदेव के वेग के कारण। साल धैर्य वाचक = शान्ति देने वाली।

१०३—अष्टमूर्ति........हैं शंकर की अष्ट मूतियों में की एक है। अष्टमूर्तियाँ जल, अग्नि, सूर्य, चन्द, भाकश, पृथ्वी, वायु और व्रजमान। याजक= यज्ञ करने वाले। कुसुमायुध = कामदेव। सूर्य............है = सूर्य जिसका पिता है ऐसा यमराज दक्षिण।...... [ १२९ ]पृष्ठ १०५—पहिले अपना...कर = मेरा प्रश्न पहिला है और आप उसका उत्तर देने को बाध्य है, उस ऋण को मिना चुकाये अर्थात् मेरे प्रश्नो का उत्तर न देकर।

पृष्ठ १०६—प्रकृत विषय = उपस्थित प्रसंग। अवान्तर बातें = गौण बातें। विडम्बना = निरादर। निर्बन्ध = हठ।

पृष्ठ १०७—सुधांशु = चन्द्रमा। वाग्मिता = बोलने की शक्ति। प्रतारश विद्या = चलने का गुण। दिकपाल = दिशाओं के स्वामी।

पृष्ठ १०८—परिप्लुप्त = पूर्ण। कल्प = चार सौ युम। ऊर्ध्वमुख = अग्नि को मति ऊपर की ही ओर होती हैं; घमंडी। बारबार...है = बराबर 'नहीं' 'नहीं' करते रहना वाक्शक्ति का निरादर करना है।

पृष्ठ १०९—दिगीश्वर = दिशाओं के स्वामी, इन्द्रवरुणादिक। कुरङ्गकन्यां = हरिणी। मत्तगजराज है = हरिणी का मस्त हाथी पर अनुरक्त होना उपहासास्पद है। असंगत = अयोग्य। समस्त साक्षिणी = सब बातों को प्रत्यक्ष देखने वाली।

पृष्ठ ११०—सदाचार समुद्र के कर्णाधार = जिस प्रकार समुद्र पर माझी मार्ग दिखलाता है उसी प्रकार अच्छे आचार-विचार को मार्ग बतलाने वाले देवगण हैं। ईश्वर = सामर्थ्यवान्। राजमार्ग = मुख्य रास्ता।कर्दममय = कीचड़ से भरा हुआ। मैंने........सुनाइएगा = जो बातें मैने संक्षेप में कही हैं उनको विस्तारपूर्वक समझाइएगा।

पृष्ठ १११—निधि = लक्ष्मी। पराङ्गमुखी = विमुख । मर्त्यजन्म = मनुष्ययोनि जिनका स्वभाव ही मरना है। दुराग्रह = बुरी हठ। यः कश्चित् = कोई भी; साधारण।

पृष्ठ ११२—प्राणोत्क्रमण=मृत्यु। अन्तरिक्ष = आकाश। बहिर्गत = बाहर निकले हुए। परित्राण = रक्षा। वक्रोक्ति = कहा तो कुछ जाये पर सुनने वाली उसका दूसरा ही अर्थ निकाले। अपनी.........रही = अपने निषेध से तुम कहीं प्रकारान्तर से मेरी बात स्वीकार ही तो नहीं करती। विदग्ध = विद्वान्। चतुरा......आकर है = विदुषी स्त्रियों के मुख से व्यंग्य वचनों का निकलना स्वाभाविक ही है।