रसज्ञ-रञ्जन/९-नल का दुस्तर दूत कार्य

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९—नल का दुस्तर दूत कार्य

प्राचीन समय में भारत का अधिकतर अंश जिसे आजकल कमायूँ कहते हैं निषद देश के नाम से प्रसिद्ध था। अलका उसकी राजधानी थी। उसमें वीरसेन का पुत्र नल नामक एक महाप्रतापी राजा राज्य करता था।

नल, एक दिन, मृगया के लिए राजधानी से बाहर निकला। आखेट करते-करते वह अकेला दूर तक अरण्य में निकल गया। वहाँ उसने एक बड़ा मनोहर जलाशय देखा। उसके तट पर एक अलौकिक रंग रूपधारी हंस, थक जाने के कारण, आँखे बन्द किए; बैठा आराम कर रहा था। नल की दृष्टि उस पर पड़ी। चुपचाप, दबे पैरों, जाकर राजा ने उसे पकड़ लिया। हंस का विचरण-स्वातन्त्र्य जाता रहा। पराधीनता के दुख और अपनी स्त्री तथा माता के वियोग-जन्य ताप की चिन्ता से वह व्याकुल हो उठा। उसने बहुत विलाप किया। मुक्ति दान देने के लिये राजा से उसने प्रार्थना भी की और एक तुच्छ पक्षी पर अनु[ ९३ ]'चित बल प्रयोग करने के लिए उसकी भर्त्सना भी की। राजा को दया आई। उसने उस हंस को छोड़ दिया।

हंस इस पर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा-मैं एक अंसाधारण पक्षी हूँ। आपने मुझे छोड़ दिया, इसका मैं प्रत्युप-कार करना चाहता हूँ। आप अभी तक अविवाहित हैं अतएव' आप ही के सदृश अलौकिक रूप-लावण्यवती सुन्दरी दमयन्ती को आप पर अनुरक्त कराने की मैं चेष्टा करूँगा। आपका कल्याण हो। मैं चला। अपने उद्योग की सफलता का संवाद सुनाने के लिए शीघ्र ही मै लौट कर आपके दर्शन करूँगा।

नल से विदा होकर हंस ने विदर्भ देश-आधुनिक बरार-की राह ली । वहाँ के राजा भीम की कन्या दमयन्ती उस समय त्रिभुवन मे एक ही सुन्दरी थी। उसकी रूपराशि का वर्णन करके,हंस ने नल को दमयन्ती पर अनुरक्त किया था। अब उसे दमयन्ती को नल पर अनुरक्त करना था। आकाश मार्ग से हंस शीघ्र ही विदर्भ देश की राजधानी कुण्डिनपुर पहुँचा। दमयन्ती उस समय अपने क्रीड़ा-स्थान मे सखियों के साथ खेल रही थी। हंस मनुष्य की बोली बोलना जानता था। एकान्त मे नल के सौन्दर्य, वल-वैभव और पराक्रम आदि का वर्णन दमयन्ती को सुना कर हंस ने उसे नल के प्रेम-पाश में फॉस लिया। यही नहीं, उसने दमयन्ती से यह वचन तक ले लिया कि मर चाहे जाऊँ पर नल को छोड़ कर और किसी से विवाह न करूँगी।

यह सुख-समाचार नल को सुना कर हंस अपने आवास को चला गया। इधर नल की चिन्तना ने दमयन्ती को अतिशय सन्तप्त कर दिया। एक दिन विरह-व्यथा से अत्यन्त व्यथित होकर वह मूर्छित हो गई! पिता भीम उसके पास दौड़े आये। कन्या की दशा देख कर उसके सन्तात का कारण वे ताड़ [ ९४ ]गये। उन्होंने शीघ्र ही उसका विवाह कर डालना चाहा। स्वयंवर की तिथि निश्चित हुई।

स्वयंवर मे शरीक होने के लिए देश-देश के नरेश चले। नल ने भी अलका से कुण्डिनपुर के लिए प्रस्थान किया। उधर नाम से स्वयंवर का समाचार ओर भैमी का सौन्दर्य-वर्णन सुन कर उसे पाने की इच्छा से, इन्द्र ने भी देवलोक से प्रस्थान किया। उसके पीछे यम, वरुण और अग्नि भी चले। मार्ग में उन चारों की भेट नल से हुई। नल की भुवनातिव्यापिनी सुन्दरता देख कर उन देवताओ के होश उड़ गये। उन्होने इस बात को निश्चित समझा कि नल के होते दमयन्ती कदापि उनके कण्ठ में वरमाला न पहनायेगी। अतएव, कपट कौशल की ठहरी। नल की दान-शूरता आदि की प्रशंसा करके इन्द्र महाराज नल के याचक बने। आपने नल से याचना की कि तुम हमारे दूत बन कर दमयन्ती के पास जाओ और हमारी तरफ से ऐसी वकालत करो, जिसमे वह हमी चारों में से किसी एक को अपना पति बनाये।

इस प्रार्थना पर नल को महा दुःख हुआ। उसे क्रोध भी हो आया। उसने इन्द्रादि के इस कार्य की बड़ी निन्दा की। अपना सच्चा हाल भी उसने कह सुनाया। संकल्प द्वारा मुझे ही दमयन्ती अपना पति बना चुकी है यह भी नल ने साफ-साफ कह दिया। भीम-भूपाल के अन्तपुर मे दूत बन कर जाने की असम्भवता का भी नल ने उल्लेख किया। पर इन्द्र ने एक न मानी। उस समय उसे उचित-अनुचित का कुछ भी ध्यान न रहा। फिर उसने नल की चाटुकारिता आरम्भ की। आजिज आकर नल ने इन्द्रादि देवताओं का दूत वनकर दमयन्ती के पास जाना स्वीकार कर लिया। इन्द्र ने नल को एक ऐसी विद्या सिखला दी जिसके प्रभाव से, इच्छा करने पर, वह और लोगो की दृष्टि से अदृश्य [ ९५ ]हो सके पर वह सवको देखता रहे। नल इस तरह, इधर दूत बनकर कुण्डिनपुर पहुँचा। उधर पूर्वोक्त चारो दिक्पालों ने पृथक्- पृथक् अपनी दूर्तियाँ भी दमयन्ती के पास, उसे अपनी ओर अनुरक्त करने के लिए भेजीं। इतने छल-कपट और प्रयत्न को काफी न समझ कर उन्होने दमयन्ती के पिता को बहुत कुछघूस भी दी। सबने अद्भ त-अद्ध त उपायन राजा भीम को भेजे।

नल ने अपना रथ, अपने अनुचर और अपना असबाव आदि कुण्डिनपुर के बाहर ही छोड़ा। दिकपालों की स्वार्थपरता और निलेज्जता को धिक्कारते हुए उसने नगर में प्रवेश किया। जी कड़ा करके वह राज-प्रसाद के पास पहुँचा। धीरे-धीरे वह उसके भीतर घुसा। इन्द्रदत्त तिरस्कारिणी विद्या के प्रभाव से उसे किसी ने न देखा। घूमते-घामते वह दमयन्ती के महलो मे दाखिल हुओ। कहीं किसी कामिनी के शरीर का स्पर्श होने से वह झिझक उठा। कही किसी का कोई अनावृत्त अङ्ग देख कर उसने ऑस्ने मूंद लो। किसी को अपने स्थिति-स्थान की ओर मुख किये देख वह डर उठा कि कहीं मैं देख तो नहीं लिया गया। इस प्रकार अन्तःपुर की सैर करते हुए वह दमयन्ती के सम्मुख उपस्थित हुआ। उसके रूप-माधुर्य की शोभा देखते वह देर तक वहाँ खड़ा रहा, उसने सबको देखा; उसे कोई न देख सका। तदनन्तर, समय अनुकूल देख, अङ्गीकृत दूतत्व निर्वाह के इरादे से, वह प्रकट हो गया। इसके बाद वहाँ जो कुछ हुआ उसके वर्णन में श्री हर्ष ने, अपने नैषध-चरित में अपूर्व कवित्व-कौशल दिखाया है। उसी का भावार्थ, संक्षेप में, आगे दिया जाता है।

पाठको को स्मरण रखना चाहिए कि नल और दमयन्ती दोनों, पहिले ही से, एक दूसरे पर अनुरक्त थे। तिस पर भी नल ने याचक इन्द्र की याञ्चा को विफल कर देना अपने वश के विरुद्ध समझा। अतएव उसने दूत बनना स्वीकार कर लिया। [ ९६ ]नल के चरित्रदाय, साहस और स्वार्थत्याग का यह अद्भुत उदाहरण है। अब, इस समय यह दोनो प्रेमी एक दूसरे के सामने हैं। नल से तो कोई बात छिपी नही, पर दमयन्ती को इसका अत्यल्प भी ज्ञान नही कि यह कौन है। इससे इस घटना की महत्ताब_त बढ़ गई है-इसमें एक अनिर्वचनीय रस उत्पन्न हो गया है अस्तु।

नल के अकस्मात् प्रकट होने पर दमयन्ती और उसकी सहेलियो ने उसे इस अनिमेष-भाव से देखा मानो वे उसे दृष्टि-द्वारा पी जाना चाहती हैं। नल को इस तरह कुछ देर तक देख चुकने पर, किसी-किसी कामिनी ने लाज से सिर. नीचा कर लिया, किसी-किसी ने उसके रूप-लावण्य के समुद्र मे गोता लगाया। और, किसी-किसी ने उसे प्रत्यक्ष मन्मथ समझ कर विस्मय की पराकाष्ठा के पार प्रयाण किया।

किसी को यह बात पूछने का साहस न हुआ कि आप कौन है और कहाँ से आये हैं। नल के अपूर्व रूप और आक-स्मिक प्रादुर्भाव ने उन्हे अप्रतिभ कर दिया। उनसे उस समय केवल यही बन पड़ा कि, अभ्युत्थान की वाञ्छा से, अपने-अपने आसनो से वे उठ खड़ी हुई। नल के संदर्शन से दमयन्ती को वैसा ही परमानन्द प्राप्त हुआ जैसा कि वर्पा-काल आने पर पर्वत से निकली हुई नदी को मेघो के धारासार से प्राप्त होता है।

नन के प्रत्येक अङ्ग की सुन्दरता का मन ही मन अभिनन्दन करके दमयन्ती के हृदय मे जिन भावो का उदय हुआ उनका वर्णन करने में केवल महाकवि ही समर्थ हो सकते है। दमयन्तो ने देखा कि उसकी सारी -सहेलियाँ कुण्ठित-कण्ठ हो रही है। उनके मुख मण्डलो पर आतङ्क छाया हुआ है। अतएव वे दम- यन्ती की तरफ से उस आगन्तुक पुरुष से कुशल-प्रश्न करने मे असमर्थ हैं। लाचार, नव-मुखी दमयन्ती स्वयं ही नल से इस प्रकार गद्गद् भाव-पूर्ण वाणी बोली[ ९७ ]"आचार्यवेत्ता महात्माओं ने यह नियम कर दिया है कि अतिथि आने पर यदि और कुछ न बन पड़े तो प्रेम-पूर्ण अक्षरों की रस-धारा ही को मधुपर्क बनाना चाहिए। अभ्यागत की तृप्ति के लिए अपनी आत्मा को भी तृणवत् समझना चाहिए। और यदि, उस समय पाद्य और अंय के लिए, जल न मिल सके तो आनन्दाश्रुओं ही से उस विधि का सम्पादन करना चाहिए। आपका दर्शन होते ही मैं अपनी जो आसमें छोड़ कर खड़ी हो गई वह यथार्थ में आपके बैठने योग्य नही, तथापि मेरी प्रार्थना पर बहुंत नहीं तो क्षण ही मर के लिए, कृपा-पूर्वक, आप उसे अलंकृत करें। यदि अपिकी इच्छा और "कहीं जाने की हो तो भी, मेरे अनुरोध से, आप मेरी इस- विनती को मान लेने की उदारता दिखावे। आपके ये पद-द्वय शिरीषकलिकाओं की मृदुता का भी अभिमान चूर्ण करने वाले है। यह तो अाप बताइए कि आपका निर्दय हृदय कब तक इन्हे, इस तरह खड़े रख कर, क्लेशित करना चाहता है। वसन्त बीतजाने पर जोदशा उपवनों की होती है वही दशा आपने किस देश की कर डाली? आपके मुख से उच्चारण किए जाने के कारण कृतार्थ होने वाले आपके नाम के अक्षर सुनने के लिए मैं उत्सुक हो रही हूँ। अपने दर्शनों से सारे संसार को तृप्त करने वाले आप जैसे पियूषमुख (चंद्रमा) को उत्पन्न करके किस वंश ने समुद्र के साथ स्पर्द्धा करने का बीड़ा उठाया है? उस वंश का यह उद्योग सर्वर्था स्तुत्य और उचित है। इस दुष्प्रवेश्य अन्तःपुर में आपके प्रवेश को मैं महासागर को पार कर जाना समझती हूँ। मेरी समझ में नहीं आता। कि इतने बड़े साहस का कारण क्या है और इसका फल भी क्या हो सकता है? आपके इस 'सुरक्षित अन्तःपुर-प्रवेश को मैं अपने नेत्रों के कृतपुण्य का फल समझती हूँ। आपकी आकृति सर्वथा भुवन-मोहिनी है। द्वारपालों को अन्धा कर डालने की शक्ति भी आप में बड़ी ही अद्भुत है। आपकी शरीर-कान्ति भी [ ९८ ]महा अलौकिक है। इससे जान पड़ता है कि आप कोई :दिव्य पुरुष, अर्थात् देवता, हैं। मन्मथ आप नहीं हो सकते, क्योकि वह मूर्ति हीन है। अश्विनीकुमार भी आप नहीं हो सकते, क्योंकि वे कभी अद्वितीय नहीं देखे गए। यदि आप मनुष्य हैं तो यह पृथ्वी कृतार्थ है। यदि आप देवता है तो देवलोक की प्रशंसा नहीं हो सकती। यदि आपने अपने जन्म से नाग-वंश को अलंकृत किया है तो नीचे, अथात् पाताल मे, होने पर वह सब लोको के ऊपर समझा जाने योग्य है। इस भूमएल में किम मनुष्य ने इतना अधिक पुष्य सम्पादन किया है जिसे कृतकृत्य करने के उद्देश्य से श्राप अपने पैगे को चलने का कष्ट दे रहे हैं? इस प्रकार के न माजूम कितने सन्देह मरे चित्त में उत्पन्न हो रहे हैं। अतएव आप अधिक देर तक मुझे सन्देह-सागर मे न डुबोइये। बतला दीजिए कि किस धन्य के श्राप अतिथि हैं। आपके सुन्दर रूप का दर्शन करके मेरी रष्टि ने तो अपने जन्म का फल पा लिया। यदि आप अपने मुख से अब कुछ कहने की कृपा करे तो मेरे कानों को भी सुधासार के आस्वादन का आनन्द मिल जाय।”

अपनी प्रियतमा के मुख से इस तरह शहद के समान मीठी वाणी सुनने से नल का अजीव हाल हुआ। दमयन्ती के ओष्ठ- बन्धूकरूपी धन्वा से, वाणी के बहाने निकली हुई मन्मथ की पञ्चवाणी (आंच वाण ) कानों की राह से नल के हृदय के भीतर धंस गई। प्रिया दमयन्ती के मुख से ऐसे मधुर आ. ऐसे प्यारे वचन सुन कर नल, सुधा-समुद्र मे, शरीरान्तर्वर्तिनी मज्जा- पर्य त निमज्जित हो गया। स्तुति ऐसी चीज है जो शत्रु के भी मुंह से मीठी मालूम होती है। फिर प्राणोपम प्रिय के मुँह से उसके मिठास का कहना ही क्या है।

नल ने स्वयं दमयन्ती के आसन पर बैठना तो उचित न समझा। पर दमयन्ती की प्रार्थना पर उसकी सखी के आसन [ ९९ ]पर वह बैठ गया। इस समय नल हृदयगत धैर्य और मनोभाव में युद्ध ठन गया। जीत धैर्य्य ही की हुई। सनोभाव ने हार खाई। उसकी एक न चली। विकारो की उत्पादक प्रबल सामग्री के उपस्थित होने पर भी यदि महात्माओं का मन कलुषित हो जाय तो फिर वे महात्मा हो कैसे-

दमयन्ती ने नल से जो प्रश्न किए उनमें से एक को छोड़कर और सत्र प्रश्न नल हजम कर गये। आपले अरती कथा का आरम्म इस प्रकार किया-

मैं दिशाओं के अधिपतियों की समाने तुम्हारे ही पास अतिधि होकर धाया हूँ। साथ ही अपने प्रमुखों के सुन्दंश, बड़े आदर के साथ, अपने हृदय में प्राणों की तरह धारण करके लाया हूं। मेरा आतिथ्य-सत्कार हो चुका। वस अत्र और अधिक,परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं। बैठ क्यो नही जाती? आसन क्यो छोड़ दिया? दूत बन कर मैं जिस काम के लिये आया हूं उसे यदि तुम सफल कर दोगी तो मैं उसी को अपना बहुत बड़ा आतिथ्य समकूँगा। हे कल्याणि! चित्त तो तुम्हारा प्रसन्न है? शरीर तो सुखी है? विलम्ब करने का यह समय नहीं। इससे जो कुछ मैं निवेदन करने जाता हूं उसे कृपा करके सुनो। मेरा निवेदन यह है।

जब से तुम्हारी कुमारावस्था का प्रारम्भ हुआ तभी से तुम्हारे गुणों ने इन्द्र, वरुण, यम, कुवेर के हृदय पर अधिकार कर लिया है। तुम्हारे शैशव और यौवन की सन्धि से सम्बन्ध रखने वाली बातों का विचार करके इन शिकानों का चित्त प्रति-दिन अधिकाधिक खिन्न हो रहा है। दो राजों के राज्य मे जो दशा प्रजा की होती है वही दशा इस समय इन देवताओ की हो रही है। पञ्चशायकरूपी चोर ने इनके धैय्यरूपी सारे धन का अपहरण कर लिया है। [ १०० ]

मैं तुमसे इन्द्र का क्या हाल बयान करूँ सूर्य्य जिस समय पूर्व दिशा में उदित होता है उस समय उसका बिम्ब वैसा ही अरुण होता है जैसा कि चन्द्रमा का। तुम्हारे वियोग में महेन्द्र सूर्य्य को भी, सदृश्यता के कारण, चन्द्रमा समझ कर अत्यन्त क्रोध-पूर्ण दृष्टि से देखता है। किसका अपराध और किस पर क्रोध। परन्तु वह बेचारा करे क्या? वह इस समय बिल्कुल ही विवेकहीन हो रहा है। केवल तीन नेत्र धारी ने मनोज महोदय के साथ जो सुलूक किया था उसी को वह अब तक नहीं संभाल सका। मेरी समझ में नहीं आता कि यदि अब सहस्रनेत्रधारी उस पर रुष्ट हुआ तो उस बेचारे की क्या दशा होगी? मनसिज के तो शरीरकृत अपराधों से शचोपति सन्तप्त हो रहा है कोकिल का तो वचनकृत अपराध भी उसे सहन नहीं होता। इस डर से कि कहीं पिक का शब्द कान में न पड़ जाय वह अपने नन्दनवन में जाकर बैठने का साहस भी नहीं कर सकता। और कहाँ तक कहूं, शङ्कर के जटाजूट वाले बाल-चन्द्रमा को अपना अपकारकर्ता समझ कर उसने महादेव का पूजन तक करना छोड़ दिया है। तुम्हारे वियोग में उसके धैर्य्य का समूल उन्मूलनहो गया है। कल्पवृक्ष संसार के दारिद्र-हरण का सामर्थ्य रखते हैं । परन्तु इस समय वे स्वयं ही महादरिद्री हो रहे है। इन्द्र के शरीर का सन्ताप दूर करने के उनके पत्तों की शय्याये बना डाली गई हैं। अतएव वे सब बेफ्ते के दारिद्र-दीन खड़े हुए हैं। तुम शायद यह शङ्का करो कि क्या अमरपुर में कोई ऐसा पंडित नहीं जो अपने सदुपदेश से इन्द्र को धैर्य्य-प्रदान करे। शङ्का तुम्हारी निर्मूल नहीं। परन्तु उपदेश सुने कौन? रतिपति के धन्वा की अविरत टङ्कार ने इन्द्र को दोनो कानों से बहरा कर डाला है। अतएव महेन्द्र की मोह-निद्रा दूर करने वाले सुर-गुरु बृहस्पति की धैर्य्य-विधायक वाणी सर्वथा व्यर्थ हो रही है। [ १०१ ]अष्टमूर्ति शङ्कर का जो देदीप्यमान शरीर है और याचक जिसकी नित्य उपासना करते हैं उस अग्नि का भी बुरा हाल है। कुसुम-शायक ने उसे भी तुम्हारा दास बनने की आज्ञा दे दी है। दूसरों को जलाते समय अग्नि अब तक यह न जानता था कि उन्हें कितना ताप होता है—उन्हे कितनी जलन होती है। परन्तु तुम्हारी सहायता से अग्नि को जला कर इस समय अनङ्ग उसे यहाँ तक विनीत और विनम्र बना रहा है कि भविष्यत् में दूसरों को संताप देने का उसे कदापि साहस न होगा। क्योंकि, अब उसे जलने का दुःख अच्छी तरह ज्ञात हो गया है। शङ्कर के तीसरे नेत्र मे वास करने वाले पावक ने मनसिज को एक बार जला कर भस्म कर दिया था। इस बात को तुमने भी पुराणों में सुना होगा। सो वह पुराना बदला लेने के लिए इस समय मनोज ने तुम्हारे नेत्रो का सहारा लिया है। उन्ही के भीतर सुरक्षित बैठा हुआ वह अग्नि को जला रहा है। उसका यह कठोर कार्य बहुत दिन से जारी है। तथापि वह यही समझ रहा है कि अभी तक उस वैर-भाव का काफी बदला नहीं हुआ। तुम्हारे कारण कुसुमायुध के शरो से अग्नि यहाँ तक पीड़ित हो गया है कि अपने भक्तों के द्वारा चढ़ाये गए कुसुमों से भी डर कर वह कोसों दूर भागता है।

सरोरुहो का सखा सूर्य जिससे पुत्रवान है और चन्दन के सुवास से सुगन्धित दक्षिण दिशा जिसको प्रियतमा है उस वैवस्वत यम ने भी तुम्हारे निमित्त कामाग्नि-कुण्ड में अपने धैर्य की आहुति दे डाली है। वह भी इस समय बड़ी ही विषमावस्था को प्राप्त है। शीतोपचार के लिए मलयाचल से लाये गये, कोमल पल्लव उसके शरीर-स्पर्श से यद्यपि बेतरह झुलस जाते हैं तथापि मलय इस आपत्तिकाल में भी अपने प्रभू यम की सेवा नहीं छोड़ता। कारण यह कि वह उसी दिशा का—उसी के राज्य [ १०२ ]का वासी है। अतएव यम के शरीर के साथ मलयाद्रि भी अपने नवल-पल्लव और चन्दनादि जलाने का सन्ताप सहन कर रहा है।

रहा वरुण, सो उसकी भी दशा अच्छी नहीं। महासागर युगायुग से बड़वाग्नि की ज्वाला सहन करता चला आ रहा है। वह उसे विशेष दाहक नहीं जान पड़ती। परन्तु अपने ही अधिपति वरुण का स्मराग्नि-सन्तप्त शरीर जल के भीतर धारण करने में वह इस समय असमर्थ हो रहा है।

ये चारो देवता तुम्हारे नगर के बाहर पास ही ठहरे हुए हैं। उन्हीं की आज्ञा से मैं तुम्हारी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। जो कुछ मैंने तुमसे निवेदन किया वह उन्हीं का संदेश है। अब कृपा करके बतलाओ कि उन्हे अपनी इच्छा पूर्ति के लिए कब तक ठहरना पड़ेगा। उनके जीवन संशयापन्न हैं। अतएव जहाँ तक हो सके तुम्हे शीघ्रता करनी चाहिए। तुम प्रतिदिन इन देवताओं की पूजा, कमल के फूलों से, करती हो। परन्तु इस तरह की पूजा ये नहीं चाहते। वह इनको प्रीतिकर नहीं। तुम्हें प्रसन्न करने के लिए ये तो स्वयं ही अपना मस्तक तुम्हारे सामने झुका रहे हैं। अतएव अपने चरण-कमलों में तुम इनकी पूजा करो; प्राकृतिक कमल फूलों से नहीं। अब क्या आज्ञा है?

नल के मुख से दिक्पालों का सन्देश सुनते समय दमयन्ती की भौंह टेढ़ी और आँखे लाल हो रही थीं। आँखे और भौहों के विकार-विभ्रम से वह यह सूचित कर रही थी कि देवताओं से सम्बन्ध रखने वाली अपनी अनिच्छा को साफ-साफ कह कर प्रकट करने के लिए मैं उत्सुक हो रही हूं। यहाँ पर पाठक यह कह सकते है कि नल के सन्देश-वाक्य यदि भैमी को इतने अप्रिय मालूम होते थे तो उसने नल को बीच ही में क्यों न रोक दिया? क्यों उसकी सारी बातें वह अन्त तक सुनती रही? [ १०३ ]इसका कारण यह न था कि दमयन्ती उस सन्देश को कोई गौरव की चीज समझती थी। नहीं, वह सन्देश उसकी दृष्टि में बिलकुल ही तुच्छ था। नल को जो उसने बीच ही में नहीं रोक दिया, इसका कारण यह था कि नल के सन्देश-कथन का ढंग बहुत ही अनोखा था। उसकी उक्तियाँ बड़ी ही मनोहारिणी थीं। उसकी वाणी बहुत ही रसवती थी। इसी से उक्ति-श्रवण के लोभ में पड़ कर, अन्त तक दमयन्ती उसकी बातें सुनती रही। सुना तो उसने सब, पर उसका कुछ भी असर उस पर न हुआ। नल के कथित सन्देश को बिलकुल ही अनसुना-सा करके उसने इस प्रकार कहना आरम्भ किया—

आप तो बड़े ही विचित्र जीव मालूम होते है। मैंने आपसे आपका नाम पूछा; आपका वंश पूछा; आपका स्थान पूछा। पर मेरे इन प्रश्नो का कुछ भी उत्तर न देकर, न मालूम, आपने क्या-क्या अनाप-शनाप कह डाला। मुझे अपने कई प्रश्नो का उत्तर आपसे पाना है। इस कारण, इस विषय में आप मेरे ऋणी हैं। क्या यह आपके लिए लज्जा की बात नहीं? अपना पहिला कर्ज न चुका कर, किस नैतिक नियम के अनुसार, आप मुझसे उत्तर के रूप में और कुछ चाहते हैं।

जिस तरह सरस्वती नदी की धारा कहीं दृश्य और कहीं अदृश्य है, ठीक उसी तरह का हाल आपकी मुखस्थ सरस्वती (वाणी) का भी है। आपकी बातों में स्पष्टता और अस्पष्टता दोनों का मिश्रण है। आपकी सुधा-सदृश बातें सुन कर मेरे श्रवण निःसन्देह कृतार्थ हो गये, तथापि आपका और आपके वंश का नाम सुनने के लिए वे अब तक उत्सुक हैं। उनकी यह उत्सुकता पूर्ववत् बनी हुई है। प्यासे की प्यास पानी ही से जा सकती है। घड़ों दूध अथवा सेरों शहद से नहीं। अतएव तब न सही अब, उनके इस औत्सुक्य को दूर करने की उदारता दिखाइए। [ १०४ ]

नल ने कहा—मैंने जो तुम्हारे उन दोनों प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया वह इसलिए कि मैंने वैसा करना व्यर्थ समझा। उससे लाभ की कुछ भी सम्भावना नहीं। अच्छा वक्ता वही है जो मतलब की बात भी कह दे और अपने कथन को व्यर्थ बढ़ावे भी नहीं। मेरा नाम क्या है और मेरा जन्म किस वंश मे हुआ है—ये ऐसी बाते हैं जिनका सम्बन्ध प्रकृत विषय से कुछ भी नहीं। हम दोनों इस समय एक दूसरे के सामने हैं। अतएव, जिस काम के लिए मैं तुम्हारे पास आया हूँ उसका सम्पादन, बिना मेरा नाम-धाम बतलाये भी, अच्छी तरह हो सकता है। इस विषय की बात-चीत में, पारस्परिक सम्बोधन के लिए, केवल 'मैं' और 'तुम' यही दो सर्वनाम काफी हैं। अच्छा, कल्पना करो कि मेरा जन्म किसी बुरे वंश में हुआ है। इस दशा में उसका नामोल्लेख किस तरह उचित माना जा सकेगा? और, यदि मेरा वंश उज्ज्वल है, तो भी उसका नाम लेना मुझे उचित नहीं। क्योंकि ऐसे वंश में जन्म पाकर भी मेरा यहाँ दूत बन कर आना अपने वंश की बहुत बड़ी विडम्बना है। इसी से इन बातों के विषय में उदासीनता दिखा कर मैंने देवताओं का सन्देश तुम से कह सुनाया। तुम्हें भी यही उचित है कि अवान्तर बातों पर व्यर्थ विवाद न करके मेरे द्वारा लाये गये सन्देश ही का उत्तर देने के लिए तुम अपनी वाणी को प्रवृत्त करो। अच्छा, जाने दो। यदि तुम्हे इतना निर्बन्ध है तो दो शब्द कह कर मैं तुम्हारी इच्छा को पूर्ण ही क्यों न कर दूं। लो सुन लो, मैं चन्द्रवंशी हूँ। अब तो तुम्हारा आग्रह सफल हो गया? नाम मैं अपना अपने ही मुंह से नहीं बतला सकता। भले आदमी अपना नाम अपने ही मुंह से नहीं लेते। क्या तुम नहीं जानती कि महात्माओं ने नियम ही ऐसा कर दिया है? लोक-निन्दा के डर से मैं इस नियम का उल्लंघन करने का साहस नहीं कर सकता। [ १०५ ]

इस पर दमयन्ती ने कहा—यह सुन कर मुझे बड़ी खुशी हुई कि आप सुधांशुवंश के आभरण हैं। तथापि आपकी कुछ विशेष बातों के सम्बन्ध मे मेरा संशय अभी तक दूर नहीं हुआ। किसी-किसी विषय में तो आपने बड़ी बेढब वाग्मिता दिखाई और किसी-किसी में बिलकुल ही मौनभाव धारण कर लिया। आपकी यह नीति मेरी समझ में नहीं आई। जो कुछ मेरी समझ में अब तक आया है वह यह है कि आप वञ्चना करने में बड़े चतुर हैं। प्रतारणा-विद्या आपकी खूब बढ़ी हुई है। अच्छी बात है। यदि आप अपना नाम बतला कर मेरे कानों को पीयूष-रस का पान न करावेंगे तो मैं भी आपके कथित-सन्देश का उत्तर न दूँगी। परपुरुष के साथ बातें करने का अधिकार कुल-कामिनियों को कहाँ? यह भी तो महात्माओं ही का बनाया हुआ नियम है। आप इसे जानते हैं या नहीं?

नल ने अपनी प्रियतमा दमयन्ती के इस उत्तर का हृदय से अभिनन्दन किया। मन ही मन उसने दमयन्ती के भाषण-चातुर्य्य की प्रशंसा की। दमयन्ती की कोटि-कल्पना सुन कर वह निरुत्तर हो गया। उसने मुस्कराकर सिर्फ यह कहा कि शहद को भी मात करने वाले, ऐसे मीठे, वचनों का प्रयोग तुम्हें, सचमुच ही, पर-पुरुष के विषय में करना उचित नहीं। पर दमयन्ती के लिए वह पर-पुरुष थोड़े ही था।

इसके अनन्तर नल ने बहुत गिड़गिड़ा कर इस तरह भाषण आरम्भ किया—

हाय! तुम मेरे इस इतने बड़े श्रम को विफल किये देती हो। चारों में से किसी एक दिक‍्पाल को अपनी कृपा का पात्र नहीं बनातीं। अमृत-तुल्य रस के स्नान से पवित्र हुई अपनी ऐसी मधुरिमा-मय वाणी से तुम्हें देवताओं ही की उपासना करनी [ १०६ ]चाहिए। ऐसी रसवती वाणी से परिप्लुत उत्तर यदि तुम देवताओ के सन्देश का देतीं, तो मेरे मुंह से सुनाया जाने पर, वह देवताओं के सारे सन्ताप को एक क्षण में दूर कर देता। तुम्हारे उत्तर की अपेक्षा में मुझे यहाँ पर जितना हो अधिक विलम्ब हो रहा है, रुष्ट हुआ रति-पति उतना ही अधिक देवताओं को अपने वाणों का निशाना बना रहा होगा। मेरा एक-एक क्षण यहाँ पर एक-एक कल्प के समान बीत रहा है। मुझे धिक्कार है। दूत का काम करना भी मुझे न आया। यह काम बड़ी ही जल्दी का था; परन्तु, हाय! इसमें व्यर्थ विलम्ब हो रहा है।

इतना कह कर राजा नल के चुप हो जाने पर परम विदुषी दमयन्ती ने मन ही मन उन देवताओं की मूर्खता पर अफसोस किया जिन्होने ऐसे सुन्दर पुरुष को स्त्री के पास दूत बना कर भेजा। उसने अपने मन में कहा कि जलों [ड़ो] के अधिपति, प्रेतो के राजा [यम], मरुत्वान् [वात-ग्रस्त], इन्द्र और उर्ध्वमुख अग्नि से और क्या उम्मेद की जा सकती है? जैसे वे स्वयं हैं वैसा ही दूत भी उनको मिला है। यह कह कर, और कुछ मुसकरा कर, नल को उत्तर देने के लिए वह प्रस्तुत हुई। वह बोली—

आपके साथ व्यर्थ परिहास करने बैठना मेरे लिए ढिठाई है। बार-बार निषेध-वाक्यों का प्रयोग करते जाना वाणी की विडम्बना है। और, आपकी बात का उत्तर न देना आपधा अनादर करना है। इससे मुझे विवश होकर, देवताओ के सन्देश का उत्तर देना पड़ता है। सुनिए—

मैं मनुष्य-जन्म के कलंक से कलंकित हूँ। अतएव बड़ा ही आश्चर्य है जो देवताओ के मुँह से मेरे विषय में ऐसी बात निकली। हाँ मैं उनकी भक्त हूँ। इसीसे सम्भव है, दिगीश्वरों ने मुझ पर कृपा की हो। क्योंकि भक्त-वात्सल्य के कारण स्वामी [ १०७ ]अपने सेवकों को भी कभी-कभी ऊँची से ऊँची कृपा का पात्र समझ लेते हैं। सुराङ्गनाओं के सम्पर्क से सुखी महेन्द्र की यह मनोवाञ्छा कदापि उचित नहीं। सैकड़ों हसनियो ने जिस सरोवर की शोभा को बढ़ाया है, वह यदि किसी अन्य तुच्छ जल-चारिणी चिड़िया की आकांक्षा करे तो उसकी ऐसी नीच आकांक्षा उसकी विडम्बना का कारण हुए बिना नहीं रह सकती। दिगीश्वर चाहे कुछ ही क्यों न कहे, उनकी बातें सुनने के लिए मैं बहरी बन रही हूं। मत्त गजराज के विषय में कुरङ्ग-कन्या क्या कभी अपना मन चलायमान कर सकती है? यदि करे तो उसका यह काम बहुत ही असंगत हो।

इतना कह कर दमयन्ती ने सिर नीचा कर लिया और चुप हो गई। उसका इशारा पाकर उसकी एक सहेली उसके पास गई। उसके कान में दमयन्ती ने कुछ कहा। तब सहेली ने नल को सम्मुखीन करके इस प्रकार उत्तर दिया—

लज्जा और संकोच के कारण मेरी सखी दमयन्ती इस विषय में और कुछ नहीं कह सकती। मेरे हृदय के भीतर घुस कर जो कुछ उसने कहा है, उसे अब आप मेरे मुँह से सुन लीजिए।

इसने अपना चित्त, बहुत दिन हुए, निषध-नरेश को दे डाला है। यह उन्ही की हो गई है। अतएव, जिस बात की इच्छा आप इसमें रखते हैं, उसे कर दिखाना तो दूर रहा, उसकी चिन्तना तक करते इसे डर लगता है। सती स्त्रियों की स्थिति बहुत ही नाजुक होती है। मृणाल-तन्तु की तरह, जरा-सा भी धक्का लगने से, वह टूट जाती है। वह यह कहती है कि स्वप्न में भी, मैंने नल को छोड़ कर और किसी के पाने की कभी इच्छा नहीं की। तुम्हारे ये चारो देवता तो सर्वज्ञ है। फिर ये अपनी समस्त-साक्षिणी बुद्धि से ही यह बात क्यों नहीं पूछ देखते? उन्हे सब कुछ ज्ञात है [ १०८ ]फिर ऐसा असंगत प्रस्ताव क्यों? ये तो सदाचार-समुद्र के कर्णधार समझे जाते हैं। अतएव, मुझे पर-स्त्री जान कर भी किस तरह ये मेरे पाने की इच्छा करते हैं? इनके मनमें तो इस प्रकार का विकार उत्पन्न ही न होना चाहिए। यह इनका केवल अनुग्रह है, जो मुझ मानुषी की प्राप्ति के ये इच्छुक है। परन्तु, यदि इन्हे मुझ पर अनुग्रह ही करना है, तो मुझे नल-प्रदान रूपी भिक्षा देकर ही ये मुझ पर अपना अनुग्रह प्रकट करें। ये ईश्वर हैं, इनमें सब कुछ दे डालने की सामर्थ्य है। अतएव मुझे यह भिक्षा देना इनके लिए कोई बड़ी बात नहीं। सुन लीजिए, मेरी सखी ने तो दृढतापूर्वक यह प्रतिज्ञा तक कर डाली है कि यदि नल ने मेरा पाणि-ग्रहण न किया तो मैं आग मे जल कर मर जाऊँगी, या फाँसी लगा कर प्राण छोड़ दूँगी, या जल मे डूब कर जान दे दूँगी। मैं जीती रहने की नहीं। नल की अप्राप्ति में, मैं अपने शरीर को अपना शत्रु समझ कर उसके सर्वनाश द्वारा उसके शत्रु-भाव की समाप्ति किए बिना न रहूंगी। इस प्रतिज्ञा को आप अच्छी तरह याद रखिए। आत्म-हत्या करना बुरा है, यह वह जानती है। परन्तु सती-धर्म की यदि रक्षा न हो सके तो, आपत्ति काल में निषिद्ध आचरण करना भी अनुचित नहीं। राजमार्ग के कर्दम-मय हो जाने पर क्या समझदार आदमी अन्य मार्ग से नहीं आते-जाते? मैं स्त्री हूँ। दिक्पाल पुरुष हैं और वाग्मी भी हैं। इससे मैं उनकी बातों का समुचित उत्तर देने में समर्थ नहीं। आप मुझ पर कृपा करें तो बात बन जाय। मैंने सूत्ररूप में जो कुछ आप से निवेदन किया है उस पर एक भाष्य की रचना कर के तब आप उसे देवताओं को सुनाइएगा। देखिए, काट-छाँट करके कहीं उसे आप और भी छोटा न कर दीजिएगा।

इस पर नल की विकलता की बातें सुनिए—

ये त्रिलोक वन्दनीय दिक‍्पाल तो तुम पर इतना प्रेम प्रकट [ १०९ ]कर रहे हैं, पर तुम उनसे विमुख हो रही हो। यह पहेली मेरी समझ में नही आती। मुझे तो तुम्हारी बातें बड़ी ही कौतुकपूर्ण मालूम होती है। क्या यह भी कहीं सुना गया है कि निधि किसी निर्धन के घर में घुसने की चेष्टा करे और वह भीतर से किवाड़ बन्द कर के उसे बाहर निकाल दे? तुम्हारा व्यवहार इस समय ठीक इसी तरह का हो रहा है। यह जान कर कि तुम पर सुरेन्द्र का इतना अनुराग है, मैं तुम्हें परम सौभाग्यवती समझता हूँ, और तुम्हारा हृदय से आदर करता हूँ। परन्तु तुम ऐसे सौभाग्यवर्द्धक व्यापार से पराङ‍्मुखी हो रही हो। चन्द्रमुखी! यह तो बड़े ही आश्चर्य की बात है। मर्त्यजन्म पाई हुई मानवी स्त्री अमरतत्व पाये हुये देवताओं को नहीं चाहती, यह बिलकुल ही नयी बात है, जिसे मैं आज तुम्हारे मुख से सुन रहा हूँ। यह तुम्हारा दुराग्रहमात्र है। दुख की बात है जो सब प्रकार तुम्हारा हित चाहने वाला तुम्हारा पिता भी हमारे इस दुराग्रह दोष को दूर नहीं कर देता। तुम तो स्वयं भी समझदार हो—विदुषी कहलाती हो। अतएव महेन्द्र को छोड़ कर नलप्राप्ति की अभिलाषा रखने में तुम्हे क्या लज्जा भी नहीं आती? सारे सुरों के अधीश्वर के मुकाबिले में क्यों तुम य.कश्चित् नरेश्वर को अधिक अच्छा समझ रही हो? उसका इतना आदर क्यों? इसे भावी प्रबलता ही कहना चाहिए। देखो न इतना चौड़ा मुख छोड़ कर श्वासोच्छवास ने संकीर्ण-नासा की राह से आने जाने का श्रम उठाया है। यह भावी की बात नहीं तो और क्या है? दूसरे जन्म मे जिस सुर लोक की प्राप्ति के लिए बड़े-बड़े ऋषि मुनि अपने शरीर को, तपस्यारूपी अग्नि में हुत कर देते हैं, वही सुरलोक स्वयं ही तुम्हें इसी जन्म में, अपने यहाँ ले जाने के लिए उतावला हो रहा है! परन्तु तुम उसकी एक नहीं सुनती। तुम्हारी मूढ़ता की सीमा नहीं। [ ११० ]

नल के न मिलने पर मर जाने का जो तुमने प्रण किया है; वह भी तुम्हारी मूर्खता ही का सूचक है। यदि तुम फाँसी लगा कर मर जाओगी तो प्राणोत्क्रमण के अनन्तर तुम्हें अवश्य ही कुछ समय तक, अन्तरिक्ष में भ्रमण करना पड़ेगा और अन्तरिक्ष में रहने वाले जीव समुदाय का स्वामी, जानती हो, कौन है? वही इन्द्र उनका स्वामी है। वह तुम्हें वहाँ पाकर क्यों छोड़ने लगा। अतएव, इस दशा में तुम्हे अवश्य ही उसकी होना पड़ेगा। यदि तुम आग में जल कर शरीर त्याग करोगी तो अग्नि पर मानो तुम्हारी बड़ी ही दया होगी। चिरकाल से अनेकानेक प्रार्थनाएँ करने पर भी जो तुम इस समय उसके लिए दुर्लभ हो रही हो वही तुम स्वयं ही उसे प्राप्त हो जाओगी। बिना नल के यदि तुम जल में डूब मरोगी तो फिर वरुण के सौभाग्य का कहना ही क्या है। तुम्हारे बहिर्गत प्राणों को हृदय में धारण करके वह अवश्य ही कृतकृत्य हो जायगा। इन परिणामों के बचने के इरादे से सम्भव है, तुम और किसी उपाय का अवलम्बन करो। परन्तु वैसा करने से भी तुम्हारा परित्राण नहीं। क्योंकि मृत्यु के उपरान्त तुम्हें निःसंदेह ही धर्मराज का अतिथि होना पड़ेगा। अतएव तुम्हारे सदृश प्रियतम अतिथि को स्वयंमेव अपने घर आया पाकर वह अवश्य ही अपना परम सौभाग्य समझेगा।

तुम्हारी बातें सुन कर मुझे सन्देह हो रहा है कि इन्द्रादि देवताओं के विषय में जो तुमने निषेध-सूचक वाक्य कहे हैं वे कहीं स्वीकार सूचक तो नहीं। अपनी वक्रोक्तियो से कहीं तुम मेरे अभिलषित अर्थ ही की पुष्टि तो नहीं कर रही? तुम्हारे वचनो में वक्रता का होना सर्वथा स्वाभाविक भी है। क्योंकि विदग्ध-बालाओं के मुख से यदि व्यञ्जक वृत्ति से विभूषित वक्र वचन न निकलेंगे तो निकलेंगे किसके मुख से? चतुरा स्त्रियों का मुख ही तो ध्वनि-प्रधान उक्तियो का आकार है। [ १११ ]

भौमि! तुम्हारे सरस्वती-रस के प्रवाह में निमग्न हुआ मैं कब तक चक्कर खाया करूँ? अपने संकोच-भाव को जरा कम करके साफ-साफ कह क्यों नहीं देती कि किस सुरोत्तम को तुम कृतार्थ करना चाहती हो। मेरी राय में तो सहस्र-नेत्र सुरेन्द्र को छोड़ कर और कोई तुम्हारे योग्य वर नहीं। संभव है, क्षत्रिय-गोत्र में जन्म लेने के कारण अग्निदेव पर तुम अनुरक्त हो। इस दशा में उस ओजस्वी देवता की प्राप्ति के लिए तुम्हारा मनोरथवती होना भी सर्वथा उचित है। मैं जानता हूँ कि तुम बड़ी ही धर्मशीला हो। अतएव तुमने धर्मराज को अपने चित्त का अतिथि बनाया हो, तो उसका भी मैं अनुमोदन करता हूँ। योग्य से योग्य का संगम होना चाहिए। शिरिष-पुष्प के समान कोमल गात को होने के कारण यदि तुम सारे मृदुल पदार्थो के राजा वरुण को चाहती हो तो वही क्यों न तुम्हारा पणिग्रहण करें। निशा ने तो इसी निमित्त शीतांशु को अपना पति बनाया है। सुरपुर परित्याग करके लक्ष्मी-पति भगवान जिस रमणीक समुद्र में दिन-रात बिहार किया करते है, वहीं तुम भी वारीश्वर वरुण के साथ आनन्द से विहार कर सकती हो।

यद्यपि नल के इन बचनों में दमयन्ती के देव-सम्बन्धी अनुराग का मिथ्या आरोप था, अतएव वे सर्वथा विडम्बनीय थे, तथापि नल की उक्तियों को वह बड़े आदर की चीज समझती थी। इससे कान सहित अपने एक कपोल को हाथ पर रखे हुए दमयन्ती चुपचाप बैठी रही। खुले हुए कान से नल की उक्तियाँ मात्र उसने सुनी । दूसरे कान को हाथ से ढक कर देव-सम्बन्धी अपने अनुराग की बातें उसने अनुसुनी कर दी।

बडी देर तक सिर नीचा किये हुए दमयन्ती सोचती रही। तदनन्तर लम्बी उसाँस लेकर वह इस प्रकार करुण वचन बोली— [ ११२ ]

तुमने मेरे और देवताओ के सम्बन्ध में जो बातें कहीं उन्होंने मेरे लिए तेज़ नोक वालो सुइयों का काम किया—मेरे पापी कानों को उन्होंने छेद-सा डाला। अथवा यह कहना चाहिए कि उन्होंने मेरे प्राण ही निकाल लिये। कृतान्त के तो तुम दूत ही ठहरे। तुम से और क्या आशा की जा सकती है? तुमने मेरे विषय में जो मिथ्या सम्भावनाएँ की हैं, उनके अक्षर मेरे कानों में असह्य वेदना उत्पन्न कर रहे हैं। इस कारण मैं, इस समय और कुछ कहने में समर्थ नहीं।

इसके अनन्तर विदर्भनन्दिनी दमयन्ती की प्रेरणा से उसकी सहेली नल के सम्मुख हुई। वह बोली—

मेरी सखी इस समय अपनी एक जिह्वा से लज्जारूपी देवी की आराधना कर रही है। अतएव उसे मौनव्रत धारण करना पड़ा है। उसकी दूसरी जिह्वा आप मुझे समझे और मुझ से मेरी सखी का उत्तर सुने। जो कुछ मैं कहती हूं उसे आप मेरी सखी ही के मुख से निकले हुए वचन समझे।

कल ही स्वयंवर होने वाला है। उसमें निषाधनाथ नल के कण्ठ में वरमाला पहिनाने का मैंने निश्चय कर लिया है। आज का दिन मेरे इस काम में विघ्न डाल रहा है। क्योंकि मेरे प्राण कल के पहिले ही निकल जाना चाहते हैं। उनके लिए एक दिन का विलम्ब भी दुःसह हो रहा है। इसलिए आज आप यही ठहर जाइए तो मुझ पर बड़ी दया हो। आपका दर्शन कर के मैं इस एक दिन को किसी तरह बिताने की चेष्टा करूँगी। कारण यह है कि उस हंस ने अपने नखो से मेरे प्राणाधार का जो चित्र बनाया था वह तुमसे बहुत कुछ मिलता-जुलता है। इसमे तुम्हारा भी फायदा है। तुम्हारी आँखे तुम्हारे मुख की शोभा देखने में असमर्थ हैं। ब्रह्मा ने उन्हें उस शोभा-विलोकन से वंचित रक्खा है। अपना मुँह अपनी ही आँखों से नहीं देख पड़ता। यदि आप [ ११३ ]आज ठहर जायँगे तो कल अपनी मुख-शोभा को नल के मुख-मंडल पर देख कर आपकी भी आँखे अपना जन्म सफल कर लेंगी। मैं हाथ जोड़ती हूं दिगीश्वरों के लिए अब फिर याचना करके मुझे आप तङ्ग न करे। फिर वैसे शब्द आपके मुँह से न निकलें। देखिए, मेरी आँखे बेतरह अश्रु-पूर्ण हो आई हैं।

प्रियतमा दमयन्ती की ऐसी पीयूषपूर्ण वाणी सुन कर नल ने अपने आपको बहुत धिक्कारा। दमयन्ती ने तो उसे कृतान्त-दूत ही बनाया था। उसने अपने आपको महानिष्ठुर कृतान्त ही समझा। दमयन्ती की करुणोक्तियाँ सुन कर नल का हृदय यद्यपि विदीर्ण हो गया, तथापि उसने, इतने पर भी अपने दूत-धर्म से च्युत होना उचित नहीं समझा। भीतर ही भीतर ठण्डी साँस लेकर धीरे-धीरे उसने इस प्रकार कहना आरम्भ किया—

सुरेश्वर इन्द के घर ही में कल्पवृक्ष है। उस पर इन्द्र ही का सर्वतोभाव से अधिकार है। यदि उससे इन्द्र यह याञ्चा करे कि तुम मेरे लिए दमयन्ती को ला दो, तो किस तरह तुम इन्द्र की जीवितेश्वरी होने से बच सकोगी? कल्पपादप से की गई याञ्चा कदापि व्यर्थ नहीं जाती। यदि तुम्हारे पाने की कामना से सर्वकामिक यज्ञ करे और अपनी ही आहवनीयादि मूर्त्तियों में हविष्य करना आरम्भ कर दें तो क्या होगा? इस तरह की वैदिक विधि मिथ्या नहीं हो सकती। तो तुम्हें अग्नि की प्राणेश्वरी होना ही पड़ेगा। दक्षिण दिशा में धर्म्मराज ही का अखण्ड राज्य है, उसी के राज्य में अगस्त्यमुनि रहते हैं। यदि उनसे धर्म्मराज यह कह दे कि इस दफे मैं तुम से धन-धान्यरूपी अपना षष्ठांश कर नहीं चाहता। उसके बदले तुम दमयन्ती को ला दो तो तुम्हारी क्या दशा होगी? वरुण के आश्रम में, यज्ञ के लिए सैकड़ों कामधेनु गायें बँधी रहती हैं। यदि वह उनमें से एक से भी तुम को पाने की याचना कर बैठें, तो तुम्हें उसके हस्तगत [ ११४ ]होने में कितनी देर लग सकती है? क्षण भर के लिए मान लो कि यह कुछ न हो। न सही। अच्छा यदि नल के साथ तुम्हारा पाणि-ग्रहण संस्कार होने के पहले यमराज तुम्हारे या नल के किसी कुटुम्बी का प्राणापहरण करके घर में सूतक कर दें तो! साक्षी-करण समय में अग्नि यदि प्रज्वलित होने से इन्कार कर दें तो!! कन्या-दान के समय वरुण यदि जल की धारा रोक दें तो!!! बिना इन्द्राणी के सानिध्य के स्वयंवर निर्विघ्न नहीं समाप्त हो सकता। अतएव यदि पति की आज्ञासे शची तुम्हारे स्वयंवर में न आवे और उपस्थित राजों में विघ्न-रूप युद्ध छिड़ जाय तो!!! दमयन्ती! सोच-समझ कर काम करो, हठ और दुराग्रह अच्छा नहीं। मूर्खता छोड़ो। मैंने जो कुछ कहा उसी में तुम्हारा परम हित है। विघ्न करने के लिए देवताओं के उतारू होने पर किस की सामर्थ्य है जो वह हथेली पर रक्खी हुई चीज़ पर भी अपना अधिकार जमा सके?

नल की इन बातों को दमयन्ती ने अक्षर-अक्षर सच समझा। उसे विश्वास हो गया है कि अब नल की प्राप्ति असम्भव है। निराशा ने उसे अभिभूति कर दिया। उसके नेत्र पर सावन भादो की जैसी घन-घटा छा गई। उसका सारा धैर्य्य जाता रहा। वह महाविकल और विह्वल हो उठी। आँखो से आँसुओ की झड़ी लग गई वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। उसे मतिभ्रम-सा हो गया। कुछ होश में आने पर उसने विलाप आरम्भ किया—

दूसरों के अभिलषित फल के खा जाने का व्रत धारण करने वाले रे पापी दैव! तू अब कृतार्थ हो। मेरे निष्फल प्राणों के पात के साथ ही तू भी पतित हो जा। स्त्री हत्या का पाप अब सिर पर ले। वियोग-वह्नि से अत्यन्त तप्त हुए हृदय! तू किस चीज का बना है? इस्पात का तो तू है नहीं? यदि होता तो इतना ताप सहने पर अवश्य ही गल जाता। वज्र भी तू नहीं, क्योंकि पञ्च [ ११५ ]शर के शरों से तू बेतरह छिदा हुआ है। और, वज्र में छेद हो नहीं सकते। अतएव, कहता क्यों नहीं, कि क्यों तू फट कर दो टुकड़े नहीं हो जाता? हे जीवित! शीघ्र ही तुम यहाँ से पलायन करो। मेरा हृदय ही तुम्हारा घर है और वहाँ आग लग गईहै—वह जल रहा है। सुख की व्यर्थ आशा को तुम अब तक नहीं छोड़ते! धिक्कार है, तुम्हारी इस मूर्खता और तुम्हारे अपूर्व आलस्य को!!!

रे मन! जिस प्रिय वस्तु को तू चाहता था, उसके मिलने की जब आशा न रही तब तू मौत माँगने लगा। पर वह भी तुझे नहीं मिलती—न वह वस्तु ही मिलती है, न मौत ही मिलती है। जो कुछ तू चाहता है वही तेरे लिए अप्राप्य हो जाता है—इससे तू वियोग ही क्यों नहीं माँगता? मुझे यह इच्छा करनी चाहिए कि प्रियतम से मेरा वियोग हो जाय। परन्तु हाय! अब वह भी सम्भव नहीं। इस समय एक-एक क्षण मेरे लिए एक-एक युग हो रहा है। कब तक मुझे ये यातनाये सहनी पड़ेगीं? माँगने से मृत्यु भी नहीं मिलती। इधर मेरा अभिलषित कान्त मेरे हृदय को नहीं छोड़ता, उधर उसे मेरा मन नही छोड़ता, और, मन को भी मेरे प्राण नहीं छोड़ते। हाय-हाय, कैसी दुःख परम्परा है।

हे देववर्ग, जिसके एक ही कण में मेरे उग्र से उग्र सन्ताप का संहार हो सकता है; वह तुम्हारा दयासागर किसने पी लिया? क्या वह इस समय बिलकुल ही सूख गया है? यदि तुम मन में जरा भी इच्छा करो तो अपने एक ही संकल्प-कण से तुम मुझसे भी उत्तम और कोई नारी-रत्न अपने लिए प्राप्त कर सकते हो। मैं सर्वथा तुम्हारी अनुकम्पनीय हूं। अतएव मुझ पर तुम्हें इतना जुल्म न करना चाहिए। हे नैषध! मैं जी-जान से तुम पर अनुरक्त हूँ। तुम्हारे कारण, इस समय, मुझपर जो बीत रही है—जो यंत्रणा [ ११६ ]मैं भोग रही हूँ—उसकी खबर किस तरह मैं तुम तक पहुँचाऊँ। ब्रह्मा ने उस पक्षी को भी, न मालूम, कहाँ छिपा दिया। एक-एक सरोवर उसके लिए ढूँढ़ डाला गया। पर, कहीं पता न चला। यदि वह मिल जाता, तो मेरी इस दुर्गति का समाचार तो तुम्हें ज्ञात हो जाता। मेरा मन एकमात्र तुम्हारे ही चरण-कमलों में लीन है। क्या इस बात को तुम नहीं जानते? और यदि जानते हो तो तुम्हें मुझ पर दया क्या नहीं आती? दयाधनो को इतनी निठुराई शोभा नहीं देती। अथवा इसमे तुम्हारा कुछ भी अपराध नहीं। दैव जो चाहे करें। वह ज्ञानियों को भी विचारान्ध कर देता है। खैर। मेरी मृत्यु अब अनिवार्य है। मेरा प्राणान्त हो जाने पर कभी न कभी तो तुम्हारे कान में यह भनक अवश्य ही पड़ेगी कि दमयन्ती ने मेरे लिए प्राण दे दिये। अच्छा, नाथ। इस समय मुझ पर दया नहीं आई तो न सही। मेरा मृत्यु समाचार पाने पर ही मुझ पर कुछ दया दिखाने का अनुग्रह करना। मैंने सुना है कि तुम बड़े दानी हो—तुम याचकों के कल्पद्रुम हो। इसमे मैं भी तुमसे एक छोटी-सी याचना करती हूँ। हे प्राणाधिक! मेरा हृदय अब विदीर्ण होने ही पर है। उसके दो टुकड़े हो जाने पर जिस रास्ते मेरे प्राण निकलेगे उसी रास्ते, उन्ही के साथ, कहीं तुम भी न निकल खड़े हो जाना।

पत्थर को भी पिघलाने वाला दमयन्ती का ऐसा विलाप सुन कर नल को आत्म-विस्मृति हो गई। उन्माद-ग्रस्त मनुष्य की जो दशा होती है वही दशा उसकी भी हो गई। इस दशा को प्राप्त होने पर वह अपने दूत-भाव को बिलकुल ही भूल गया। अज्ञानावस्था में वह इस तरह की प्रलाप-पूर्ण बाते कहने लगा—

प्रिये! तू किसके लिए इतना विलाप कर रही है? अपने मुख को अश्रुधारा से क्यों वृथा धो रही है? यह नल तो तेरे सामने ही, तुझे प्रणाम करता हुआ, खड़ा है। तिर्यक नेत्रों के [ ११७ ]विलास से क्या तूने उसे नहीं देखा? लीला कमल को हाथ में लेने के बदले अपने मुख को क्यों तूने उस पर रख छोड़ा है। मुख को लीला-कमल बनाने का कारण क्या? तेरे नेत्रों से बहने वाले अमङ्गल अश्रुओं को ला, मैं अपने हाथ से पोछ दूँ। ला, मैं अपने मस्तक से तेरे पद पङ्कजो की रेणुका का क्षालन करके उसके साथ ही अपने अपराधों का क्षालन करा लूँ। प्रिये! यदि तू मेरा आदर-सत्कार करके मुझ पर अनुग्रह नहीं करना चाहती तो न कर। पर मैं तेरे सामने सिर झुकाए खड़ा हूं। इससे मेरा प्रणाम तो तुझे स्वीकार ही कर लेना चाहिए। यह तो कोई बड़े परिश्रम का काम नहीं। याचकों के लिए तो तू कल्पवृक्ष हो रही है, पर मेरी तरफ एक बार अच्छी तरह देखती भी नहीं मुझे दृष्टिदान तक नहीं देती! मुझसे इतनी कंजूसी क्यों? आँखों से आँसुओं की झड़ी बन्द कर; मन्द मुसकान रूपी कौमुदी को फैलने दे; मुख-कमल को विकसित होने दे; नेत्र खञ्जरीटो को यथेच्छ विहार करने दे। बोल-बोल। अपनी मधुमयी वाणी सुनाकर मेरे मुरझाए हुए हृदय-पुष्प को फिर प्रफुल्लित कर दे। चन्द्रमा की निशा-नारी के समान तू ही नल की एक मात्र प्राणाधार है।

इतना कह चुकने पर नल का उन्माद अक्समात् जाता रहा। उसे होश आ गया। यह जान कर कि जो बातें मुझे न कहनी थीं वे भी मैंने कह डाली, उसे घोर परिताप हुआ। वह बोला—

हाय! मुझे क्या हो गया। क्यों मैंने इस तरह अपने को प्रकट कर दिया? इन्द्र मुझे अब क्या कहेगा? उसके सामने तो अब मैं मुँह दिखलाने लायक भी न रहा! अपना नाम अपने मुँह से बतला कर मैंने दिगीश्वरों का काम मिट्टी में मिला दिया। हनूमान आदि के उपार्जित यश से जो दूत पथ इतना [ ११८ ]प्रशस्त हो रहा था उसमें मैंने काँटे बखेर दिये। ईश्वर तू मेरा साक्षी है, जान बूझ कर मैंने ऐसा नहीं किया। हाय मेरी छाती लज्जा से फट क्यों नही जाती? यदि फट जाती तो देवताओं को मेरी हृदय-शुद्धि का ज्ञान तो हो जाता। खैर, देवता तो सर्वज्ञ हैं। सच क्या है वह जान लेंगे। पर सांसारिक जनो के मुँह पर कौन हाथ रखता फिरेगा? लोकनिन्दा से मेरी किसी तरह रक्षा नहीं।

बड़ी देर तक नल को इस तरह विलाप करते और सिर धुनते देख उस दिव्य हंस को उस पर दया आई। वह अचानक वहां आकर उपस्थित हो गया। उसने नल को समझा-बुझा कर शान्त कर दिया। उसने कहा—

बस, बहुत हो चुका। और अधिक दयमन्ती को पीड़ित न कीजिए। निर्दयता छोड़िए। इसको स्वीकार कीजिए। अधिक निराश करने से यह अवश्य ही अपनी जान दे देगी? आपने अपने आपको जान-बूझ कर प्रकाशित नहीं किया। इसमें आपका कोई अपराध नहीं। देवता आप पर कदापि अप्रसन्न न होगे। वे आपके हृदय की शुद्धता को अच्छी तरह जानते हैं। यह कह कर वह हंस जब वहां से उड़ गया तब उन चारो दिक‍्पाल-देवताओं को प्रणाम करके नल दयमन्ती से इस प्रकार मधुर वाणी बोला—

देवताओं में अनुराग उत्पन्न करने की व्यर्थ चेष्टा करके मैंने तुम्हारी बहुत कदर्थना की। परन्तु इसमें मेरा कुछ दोष नहीं। मैं सर्वथा निरपराध हूं। मैंने निष्कपट भाव से देवताओं की दूतता की है यही मेरा धर्म था। धर्म-पथ से डिगना में मृत्यु से भी भयंकर समझता हूं। अब वे चाहे मुझ पर इस कार्य के उपलक्ष में दया दिखावें, चाहें मुझे अपराधी समझ कर दण्ड दें। मुझे कुछ नहीं कहना। देवता तो तुम पर हृदय से अनुरक्त हैं, पर [ ११९ ]तुम मुझ को अपना दास बनाने का आग्रह कर रही हो। यह बड़े ही असमञ्जस की बात है। खैर जो कुछ करना, बहुत सोच समझ कर करना। ऐसा न हो कि तुम्हें पीछे पश्चात्ताप करना पड़े। मेरी इस सलाह को तुम पक्षपात-दूषित मत समझो। यह सलाह मैं देवताओं के डर से नहीं दे रहा और न इसलिए दे रहा कि तुम में मेरा अनुराग ही कम है। नहीं, बात ऐसी नही। मैं पक्षपात रहित होकर तुम्हारे हित की आकांक्षा से ही ऐसी सलाह देने को बाध्य हुआ हूँ। मैं अपनी दशा का तुम से क्या वर्णन करूँ! तुम्हारे हित के लिए—तुम से उऋण होने के लिए यदि मुझे अपने प्राण भी दे देने पड़े तो भी मैं सुख पूर्वक उनका समर्पण करने को तैयार हूं। तुमने मुझपर जो कृपा की हैं उसके बदले में यदि मेरे प्राण भी तुम्हारे किसी काम आ सकें, तो उनके दान से भी मैं अपने को कृतार्थ समझूँगा।

नल की इस पीयूष वर्षिणी वाणी को सुन कर दयमन्ती को परमानन्द हुआ। नल को पर-पुरुष समझ कर, उसके सामने बातें करने के कारण, उसके हृदय में जो घृणा और आत्म-निन्दभाव उदित हुआ था, वह सब जाता रहा। परन्तु नल के सामने तद्विषयक अपने अनुराग आदि को प्रकट करने के कारण उसे बेतरह सङ्कोच हुआ। वह लज्जा से अभिभूत हो उठी। उसके मुँह से फिर एक भी शब्द न निकला! उसकी यह दशा देखकर उसकी सहेली अपना कान उसके मुँह के पास ले गई। परन्तु तब उसकी सहेली ने मुसकरा कर नल से कहा—सरकार प्रियतमा पर लज्जा ने यहां तक अपना अधिकार जमा लिया है कि अब वह आपके सम्मुख अपने मुख से एक अक्षर तक भी निकालने में समर्थ नहीं। उसके मौन-धारण का और कोई कारण नहीं, कारण केवल लज्जा है। अतएव आप उस पर अप्रसन्न न [ १२० ]हूजियेगा। कहीं आप उस पर यह इलजाम लगाने की चेष्टा न कीजियेगा कि यह तो बोलती नहीं—इसने जो कुछ पहले कहा था सब बनावटी था। नहीं ऐसा नहीं है। यह कह कर उसने दमयन्ती की नल-सम्बन्धिनी वे सब बातें कह सुनाई, जो उसने नल-प्राप्ति की कामना से, समय-सयय पर कही थी। उनसे सिद्ध किया कि नल पर दमयन्ती का स्नेह कितना प्रगाढ़ है।

इस प्रकार भीमात्मजा दमयन्ती की सारी रहस्य पूर्ण बातें सुन कर, अपने सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए, नल ने वहाँ से प्रस्थान किया। दमयन्ती के महल से चल कर नल शीघ्र ही पूर्वोक्त दिक‍्पालों के सामने उपस्थित हुआ और उसने अपने दूतत्व की सारी बातें यथातथ्य कह सुनाई। सुन कर देवताओं के चेहरों का रङ्ग फीका पड़ गया।

प्रातःकाल वे सब दमयन्ती के स्वयंवर मे पहुँचे। अपने कौटिल्य का जाल बिछाने में उन्होने वहां भी कसर न की। उन्होंने विषम विघ्न उपस्थित कर दिया। नल का रूप धारण करके वे वहाँ जा बैठे! परन्तु अपने सतीव्रत के बल से उन विघ्न-बाधाओ को पार कर के दमयन्ती ने अन्त मे नल के कण्ठ में वरण-माल्य पहना ही दिया। अपनी भक्ति से उसने उन देवताओं को यहाँ तक प्रसन्न कर लिया कि नल को उसकी वकालत का मिहनताना भी, वर-प्रदान के रूप में देना पड़ा।

 

समाप्त