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रसज्ञ-रञ्जन/१-कवि-कर्त्तव्य २

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संसार में ईश्वर या देवताओं का अवतार कई प्रकार का और कई कामों के लिए होता है। अलौकिक कार्य करने वाले प्रतिभाशाली मनुष्य ही अवतार हैं। स्वाभाविक कवि भी एक प्रकार के अवतार है। इस पर कदाचित कोई प्रश्न करे कि अकेले कवि ही क्यों अवतार माने गये, और लेखक इस पद पर क्यों न बिठाये गये? तो यह कहा जा सकता है कि लेखक का समावेश कवि में है, पर कवियों में कुछ ऐसी विशेष शक्ति होती है, जिसके कारण उनका प्रभाव लोगों पर बहुत पड़ता है। अब मुख्य प्रश्न यह है कि कवि का अवतार होता ही क्यों है? पहुँचे हुये पण्डितों का कथन है कि कवि भी "धर्म्म-संस्थापनार्थाय" उत्पन्न होते हैं। उनका काम केवल तुक मिलाना या "पावस-पचासा" लिखना ही नहीं। तुलसीदास ने कवि होकर वैष्णव-धर्म की स्थापना की है, मत-मतान्तरो का भेद मिटाया है और "ज्ञान के पन्थ को कृपाण की धार" बताया है। प्रायः उसी प्रकार का काम, दूसरे रूप में, सूरदास, कबीर और लल्लूलाल ने किया है। हरिश्चन्द्र ने शूरता, स्वदेश-भक्ति और सत्य प्रेम का धर्म चलाया है। जिन कवियों ने केवल संस्कृत भाषा ही का भण्डार भरा है वे भी, किसी न किसी रूप में, लोगों के उपदेशक थे। हिन्दी के जितने कवि प्रसिद्ध हैं उन्होंने देश, काल, अवस्था और पात्र के अनुसार ही कविता की है। दूसरे देशों और दूसरी भाषाओं के कवियों का नाम लेने की यहाँ आवश्यकता नहीं; क्योंकि हिन्दी के पूर्ववर्ती कवियों ने, समय-समय पर, अपने कर्त्तव्य को समझा है और उसका पालन भी किया है। राजा शिवप्रसाद-सदृश इतिहासकारों ने भी अवतार का काम किया है, यद्यपि उनके विचारों को लोग मानते नहीं। सारांश यह कि कवियों को ऐसा काम करना पड़ता है—वे स्वभाव ही से ऐसा करते है कि—संसार का कल्याण हो और इस प्रकार उनका नाम आप ही आप अमर हो जाय। भूषण के समान कवियों ने तो राजनीतिक आन्दोलन तक उपस्थित कर दिया है। "पूर्ण" कवि ने हमें यह उपदेश दिया है कि जो लोग बोलचाल की भाषा से किसी प्रकार अप्रसन्न हैं वे भी अपनी पुरानी ब्रज (कविता) की बोली को बिना तोड़े-मरोड़े काम में ला सकते हैं, और यदि वे चाहे तो बोलचाल की भाषा मे भी कविता कर सकते है। सारांश यह कि कविता लिखते समय कवि के सामने एक ऊँचा उद्देश्य अवश्य रहना चाहिये। केवल कविता ही के लिये कविता करना एक तमाशा है। हिन्दी में कविता-सम्बन्धी इस प्रकार के लेख पढ़कर बाहर के लोग यह अनुमान कर सकते हैं कि कदाचित हिन्दी के कवि अपना कर्त्तव्य नहीं जानते; नहीं तो उनके लिये ऐसा लेख न लिखा जाता। यदि कोई मराठी या बंगला के समाचार-पत्र या मासिक पत्र पढ़े, तो उसे उनमें से लेख न मिलेंगे। ऐसे लेख उन भाषाओं में कम से कम चालीस वर्ष पहिले निकल चुके हैं। और उन लेखों के अनुसार उन भाषाओं की कविता इतने समय में इतनी ऊँची हो गई है कि समालोचकों के लिये जन्म भर विचार करने की सामग्री तैयार है। भाषा या साहित्य की जब जैसी अवस्था होती है, तब उसमें उसी प्रकार के लेख निकलते है। हम यहाँ पर इस विषय का एक उदाहरण देते है। एक बार "छत्तीसगढ़ -मित्र" में हिन्दी व्याकरण के विषय में कुछ लेख़ निकले थे। उस पर एक महाराष्ट्र सज्जन ने बम्बई के सम्पादक से पूछा कि क्या हिन्दी में भी व्याकरण नहीं? इस पर सुनने में आया कि सम्पादक ने उनको यह उत्तर दिया कि और-और भाषाओं के समान हिन्दी में कोई व्याकरण है। परन्तु इस विषय का निरूपण विदेशियों ने किया है। हिन्दुस्तानी लोग न उसे खोज सके है और न खोज हो जाने पर भी उसकी ओर ध्यान देते है।

कवि की कल्पना-शक्ति तीव्र होती है। इस कल्पना शक्ति के द्वारा वह कठिन बातों को ऐसे अनोखे ढङ्ग से सब के सामने रखता है कि वे सहज ही समझ में आ जाती है। इसी शक्ति से वह अनजाने हुये पदार्थों या दृश्यों का चित्र इतना मनोहर खींचता है कि पढ़ने या सुननेवाले एकाग्रचित्त हो जाते है और उस बात पर प्रेम पूर्वक विचार करत है। फिर कवि अपने अवतोकन और अपनी कल्पना से ऐसी शिक्षा देता है कि वह न तो आज्ञा का रूप धारण करती है, और न अपना स्वाभाविक रूखावन ही प्रकट करती है, किन्तु भीतर ही भीतर मन को उकसा देती है। ताजमहल का वर्णन करते समय कवि इस बात पर ध्यान न देगा कि यह किस सन् में बना था, इसकी लम्बाई-चौड़ाई कितनी है, या इसका पत्थर कहाँ से आया है। इमारत को देखकर उसका मन कदाचित् उसके मीनार से भी ऊँचा चढ़ जायगा और वह उस समय की कल्पना करने लगेगा जब बादशाहकी बेगम, मरते समय रोजे की वसीयत कर रही थी। उसके सन में पुराने और नये समय के मिलान का भी चित्र खिंच जायगा और वह समय के फेर की घटनाओं को सोचने लगेगा। मनोहर वर्णन और शिक्षा के साथ-साथ कवि अपने शब्द और वाक्य भी ऐसे मनोहर बनाता है कि पढ़ने वाले के आनन्द की सीमा नहीं रहती। कविता लिखते समय जो-जो भाव कविके हृदय में उदित होते हैं, वही भाव पढ़ने वाले के हृदय में उत्पन्न हो सकते हैं। इसके लिये पढ़ने वाला सहृदय होना चाहिये, नहीं तो भैस के आगे बीन बजने लगेगी। यदि स्वतः कवि में सहृदयता न हो तो फिर उसका श्रम ही वृथा है। मनोविज्ञानी लोग कदाचित किसी समय हमको यह बता सकेंगे कि मनोविकार प्रकट करने के लिए छन्द ही का उपयोग क्यो होता है? गद्य मे कोई-कोई लेखक—विशेषकर उपन्यास लेखक—ऐसा मनोहर वर्णन करते है और ऐसे भाव प्रकट करते हैं कि उनका गद्य पद्य हो जाता है। जोहो अभी तो कवि लोग ही विशेषकर यह काम करते हैं और उसके लिए छन्द काम में लाते है।

आजकल हिन्दी संक्रान्ति की अवस्था में है। हिन्दी कवि का कर्त्तव्य यह है कि वह लोगों की रुचि का विचार रख कर अपनी कविता ऐसी सहज और मनोहर रचे कि साधारण पढ़े-लिखे लोगों में भी पुरानी कविता के साथ-साथ नई कविता पढ़ने का अनुराग उत्पन्न हो जाय। पढ़नेवालोके मन में नई-नई उपमाओं को, नये-नये शब्दों को और नए-नए विचारों को समझने की योग्यता उत्पन्न करना कवि ही का कर्त्तव्य है। जब लोगों का झुकाव इस ओर होने लगे तब, समय-समय पर,कल्पित अथवा सत्य आख्यानों द्वारा सामाजिक, नैतिक और धार्मिक विषयों की मनोहर शिक्षा दें। जब जो विषय उसके अवलोकन में आवे, तभी उस पर अपनी स्वाभाविक शक्ति से कविता लिखकर लोगो को परोक्ष रूप से सचेत करे। कविता के प्रभाव का एक छोटा-सा उदाहरण सुनिए। पद्माकर कवि के घराने के लोगों में विवाह के समय कवित्त पढ़ने की चाल हैं। उनकी जाति के लोग कहते है कि यह चाल पद्माकर के समय में चली है और वह अब तक चली जाती है। क्या यह बात आजकल के कवियों में नहीं हो सकती? जान पड़ता है कि "अब के कवि खद्योत सम जहँ-तहँ करहि प्रकाश"—जिसने यह दोहा लिखा है उसको बड़ी दूर की सूझी है। बोल-चाल की भाषा में आज तक ऐसी कोई कविता नहीं[] बनी, जिसका प्रचार "चन्द्रकान्ता" के समान साधारण पढ़े-लिखे लोगों में भी हुआ हो। सदोष होने पर भी इस उपन्यास के कारण पुरुषों और स्त्रियों में उपन्यास पढ़ने की रूचि उत्पन्न हुई है। इसी प्रकार जब बोल-चाल की भाषा की कविता को, या आजकल के और दूसरे पद्यों को साधारण लोग भी पढ़ने लगे, तब समझना चाहिये कि कविता और कवि लोकप्रिय हैं। आजकल की संस्कृत-भरी कविता का रचा जाना और भी अधिक हानिकारक है।

सारांश यह कि यदि आजकल की कवितामें शास्त्रोक्त गुणों को छोड़कर नीचे लिखे हुये गुण हो तो सम्भव है कि वह लोकप्रिय होगी—

(१) कविता में साधारण लोगों की अवस्था, विचार और मनोविकारों का वर्णन हो।

(२) उसमें धीरज, साहस, प्रेम और दया आदि गुणों के उदाहरण रहे।

(३) कल्पना सूक्ष्म और उपमादिक अलङ्कार गूढ़ न हो।

(४) भाषा सहज, स्वाभाविक और मनोहर हो।

(५) छन्द सीधा, परिचित, मुहावना और वर्णन के अनुकूल हो।

  1. यह सम्मान अब 'भारत-भारती' और 'जयद्रथ-वध' को मिल गया है।॥१९१८॥