राजस्थान की रजत बूँदें/ ठहरा पानी निर्मला
ठहरा पानी निर्मला
'बहता पानी निर्मला' कहावत राजस्थान में ठिठक कर खड़ी हो जाती है। यहां कुंडियां हैं, जिनमें पानी बरस भर, और कभी-कभी उससे भी ज्यादा समय तक ठहरा रह कर भी निर्मल बना रहता है।
सिद्धांत वही है: वर्षा की बूंदों को यानी पालर पानी को एक खूब साफ़ सुथरी जगह में रोक कर उनका संग्रह करना। कुंडी, कुंड, टांका - नाम या आकार बदल जाएँ, काम एक ही है - आज गिरी बूंदों को कल के लिए रोक लेना। कुंडी सब जगह हैं। पहाड़ पर बने किलों में, मंदिरों में, पहाड़ की तलहटी में, घर के आंगन में, छत में, गांव में, गांव के बाहर निर्जन में, रेत में, खेत में ये सब जगह, सब समय में बनती रही हैं। तीन सौं, चार सौ बरस पुरानी कुंडी भी हैं और अभी कल ही बनी कुंडियां भी मिल जाएंगी। और तो और, स्टार टीवी के एंटिना के ठीक नीचे भी कुंडी दिख सकती है।
जहाँ जितनी भी जगह मिल सके, वहाँ गारे-चूने से लीप कर एक ऐसा 'आंगन" बना लिया जाता है, जो थोड़ी ढाल लिए रहता है। यह ढाल एक तरफ से दूसरी तरफ भी हो सकती है और यदि' अांगन'काफी बड़ा है तो ढाल उसके सब कोनों से बीच केद्र की तरफ भी आ सकती हैं।' अगिन' के आकार के हिसाब से, उस पर बरसने वाली वर्षा के हिसाब से इस केंद्र में एक कुंड बनाया जाता है। कुंड के भीतर की चिनाई इस ढंग से की जाती है कि उसमें एकत्र होने वाले पानी की एक बूंद भी रिसे नहीं, वर्ष भर पानी सुरक्षित और साफ-सुथरा बना रहे।
जिस आंगन से कुंडी के लिए वर्षा का पानी जमा किया जाता है, वह आगोर कहलाता है। आगोर संज्ञा आगोरना क्रिया से बनी है, बटोर लेने के अर्थ में। आगोर को खूब साफ-सुथरा रखा जाता है, वर्ष भर। वर्षा से पहले तो इसकी बहुत बारीकी से सफाई होती है। जूते, चप्पल आगौर में नहीं जा सकते।
आगोर की ढाल से बह कर आने वाला पानी कुंडी के मंडल, यानी घेरे में चारों तरफ बने ओयरो यानी सुराखों से भीतर पहुंचता है। ये छेद कहीं-कहीं इंडु भी कहलाते हैं। आगोर की सफाई के बाद भी पानी के साथ आ सकने वाली रेत, पत्तियाँ रोकने के लिए ओयरो में कचरा छानने के लिए जालियाँ भी लगती हैं। बड़े आकार की कुंड्डियों में वर्ष भर पानी को ताजा बनाए रखने के लिए हवा और उजाले का प्रबंध गोख (गवाक्ष) यानी झरोखों से किया जाता है।
कुंड छोटा हो या कितना भी बड़ा, इसे अछायो यानी खुला नहीं छोड़ा जाता। अछायी कुंड अशोभनीय माना जाता है और पानी के काम में शोभा तो होनी ही चाहिए. शोभा और शुचिता, साफ सफाई यहाँ साथ-साथ मिलती हैं।
कुंड्डियों का मुंह अकसर गोलाकार बनता है इसलिए इसे ढंक कर रखने के लिए गुंबद बनाया जाता है। मंदिर, मस्जिद की तरह उठा यह गुंबद कुंडी को भव्य भी बनाता है। जहाँ पत्थर की लंबी पट्टियाँ मिलती हैं, वहाँ कुंडों को गुंबद के बदले पट्टियों से भी ढंका जाता है। गुंबद हो या पत्थर की पट्टी, उसके एक कोने में लोहे या लकड़ी का एक ढक्कन और लगता है। इसे खोल कर पानी निकाला जाता है।
कई कुंडियाँ या कुंड इतने गहरे होते हैं, तीस-चालीस हाथ गहरे कि उनमें से पानी किसी गहरे कुएँ की तरह ही निकाला जाता है। तब कुंडी की जगत भी बनती है, उस पर चढ़ने के लिए पांच-सात सीढ़ियाँ भी और फिर ढक्कन के ऊपर गड़गड़ी, चखरी भी लगती है। चुरू के कई हिस्सों में कुंड बहुत बड़े और गहरे हैं। गहराई के कारण इन पर
मजबूत चखरी लगाई जाती है और इतनी गहराई से पानी खींच कर ला रही वजनी बाल्टी
को सह सकने के लिए चखरी को दो सुंदर मीनारों पर टिकाया जाता है। कहीं-कहीं चारमीनार-कुंडी भी बनती है।
जगह की कमी हो तो कुंडी बहुत छोटी भी बनती है। तब उसका आगीर ऊंचा उठा लिया जाता है। संकरी जगह का अर्थ ही है कि आसपास की जगह समाज या परिवार के किसी और काम में लगी है। इसलिए एकत्र होने वाले पानी की शुद्धता के लिए आगोर ठीक किसी चबूतरे की तरह ऊंचा उठा रहता है।
बहुत बड़ी जीतों के कारण मरुभूमि में गांव और खेतों की दूरी और भी बढ़ जाती है। खेत पर दिन-भर काम करने के लिए भी पानी चाहिए. खेतों में भी थोड़ी-थोड़ी दूर पर छोटी-बड़ी कुंडियाँ बनाई जाती हैं।
कुंडी बनती ही ऐसे रेतीले इलाकों में है, जहाँ भूजल सौ-दो सौ हाथ से भी गहरा और प्रायः खारा मिलता है। बड़ी कुंडियाँ भी बीस-तीस हाथ गहरी बनती हैं और वह भी रेत में। भीतर बूंद-बूंद भी रिसने लगे तो भरी-भराई कुंडी खाली होने में देर नहीं लगे। इसलिए कुंडी के भीतरी भाग में सर्वोतम चिनाई की जाती है। आकार छोटा हो या बड़ा, चिनाई तो सौ टका ही होती है। चिनाई में पत्थर या पत्थर की पट्टियाँ भी लगाई जाती हैं। सांस यानी पत्थरों के बीच जोड़ते समय रह गई जगह में फिर से महीन चूने का लेप किया जाता है। मरुभूमि में तीस हाथ पानी भरा हो और तीस बूंद भी रिसन नहीं होगी-ऐसा वचन बड़े से बड़े वास्तुकार न दे पाएं, चेलवांजी तो देते है।
आगोर की सफाई औ भारी सावधानी के बाद भी कुछ रेत कुंडी में पानी के साथ-साथ चली जाती है। इसलिए कभी-कभी वर्ष के प्रारंभ में, चैत में कुंडी के भीतर उतर कर इसकी सफाई भी करनी पड़ती है। नीचे उतरने के लिए चिनाई के समय ही दीवार की गोलाई में एक-एक हाथ के अंतर पर जरा-सी बाहर निकली पत्थर की एक-एक छोटी-छोटी पट्टी बिठा दी जाती है।
नीचे कुंडी के तल पर जमा रेत आसानी से समेट कर निकाली जा सके, इसका भी पूरा ध्यान रखा जाता है। तल एक बड़े कढ़ाव जैसा ढालदार बनाया जाता है। इसे खमाड़ियो या कुंडालियो भी कहते हैं। लेकिन ऊपर आगोर में इतनी अधिक सावधानी रखी जाती है कि खमाड़ियो में से रेत निकालने का काम दस से बीस बरस में एकाध बार ही करना
पड़ता है। एक पूरी पीढ़ी कुंडी को इतने समार, यानी संभाल कर रखती है कि दूसरी पीढ़ी को ही उसमें सीढ़ियों से उतरने का मौका मिल पाता है। पिछले दौर में सरकारों ने कहीं- कहीं पानी का नया प्रबंध किया है, वहां कुंडियों की रखवाली की मजबूत परंपरा जरूर कमजोर हुई है।
कुंडी निजी भी हैं और सार्वजनिक भी। निजी कुंडियां घरों के सामने, आंगन में, हाते यानी अहाते में और पिछवाड़े, बाड़ों में बनती हैं। सार्वजनिक कुंडियां पंचायती भूमि में या प्राय: दो गांव के बीच बनाई जाती हैं। बड़ी कुंडियों की चारदीवारी में प्रवेश के लिए दरवाजा होता है। इसके सामने प्राय: दो खुले हौज रहते हैं। एक छोटा, एक बड़ा। इनकी ऊंचाई भी कम ज्यादा रखी जाती है। ये खेल, थाला, हवाड़ो, अवाड़ो या उबारा कहलाते हैं। इनमें आसपास से गुजरने वाले भेड़-बकरियों, ऊंट और गायों के लिए पानी भर कर रखा जाता है। सार्वजनिक कुंडियां भी लोग ही बनाते हैं। पानी का काम पुण्य का काम है। किसी
भी घर में कोई अच्छा प्रसंग आने पर गृहस्थ सार्वजनिक कुंडी बनाने का संकल्प लेते हैं और फिर इसे पूरा करने में गांव के दूसरे घर भी अपना श्रम देते हैं। कुछ सम्पन्न परिवार सार्वजनिक कुंडी बना कर उसकी रखवाली का काम एक परिवार को सौंप देते हैं। कुंड के बड़े अहाते में आगोर के बाहर इस परिवार के रहने का प्रबंध कर दिया जाता है। यह व्यवस्था दोनों तरफ से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती है। कुंडी बनाने वाले परिवार का मुखिया अपनी संपत्ति का एक निश्चित भाग कुंडी की सारसंभाल के लिए अलग रख देता है। बाद की पीढ़ियां भी इसे निभाती हैं। आज भी यहां ऐसे बहुत से कुंड हैं, जिनको बनाने
वाले परिवार नौकरी, व्यापार के कारण यहां से निकल कर असम, बंगाल, बंबई जा बसे हैं पर रखवाली करने वाले परिवार कुंड पर ही बसे हैं। ऐसे बड़े कुंड आज भी वर्षा के जल का संग्रह करते हैं और पूरे बरस भर किसी भी नगरपालिका से ज्यादा शुद्ध पानी देते हैं।
कई कुंड टूट-फूट भी गए हैं, कहीं-कहीं पानी भी खराब हुआ है पर यह सब समाज की टूट-फूट के अनुपात में ही मिलेगा। इसमें इस पद्धति का कोई दोष नहीं है। यह पद्धति तो नई खर्चीली और अव्यावहारिक योजनाओं के दोष भी ढंकने की उदारता रखती है।
इन इलाकों में पिछले दिनों जल संकट 'हल' करने के लिए जितने भी नलकूप और 'हैंडपंप' लगे, उनमें पानी खारा ही निकला। पीने लायक मीठा पानी इन कुंड, कुंडियों में ही उपलब्ध था। इसलिए बाद में अकल आने पर कहीं-कहीं कुंडों के ऊपर ही 'हैंडपंप' लगा दिए गए हैं। बहुप्रचारित इंदिरा गांधी नहर से ऐसे कुछ ही क्षेत्रों में पीने का पानी पहुंचाया गया है और इस पानी का संग्रह कहीं तो नई बनी सरकारी टंकियों में किया गया है और कहीं-कहीं इन्हीं पुराने कुंडों में।
इन कुंडियों ने पुराना समय भी देखा है, नया भी। इस हिसाब से वे समयसिद्ध हैं। स्वयंसिद्ध इनकी एक और विशेषता है। इन्हें बनाने के लिए किसी भी तरह की सामग्री कहीं और से नहीं लानी पड़ती। मरुभूमि में पानी का काम करने वाले विशाल संगठन का एक बड़ा गुण है–अपनी ही जगह उपलब्ध चीजों से अपना मजबूत ढांचा खड़ा करना। किसी जगह कोई एक सामग्री मिलती है, पर किसी और जगह पर वह है नहीं-पर कुंडी वहां भी बनेगी।
जहां पत्थर की पट्टियां निकलती हैं, वहां कुंडी का मुख्य भाग उसी से बनता है। कुछ जगह यह नहीं है। पर वहां फोग नाम का पेड़ खड़ा है साथ देने। फोग की टहनियों को एक दूसरे में गूंथ कर, फंसा कर कुंडी के ऊपर का गुंबदनुमा ढांचा बनाया जाता है। इस पर रेत, मिट्टी और चूने का मोटा लेप लगाया जाता है। गुंबद के ऊपर चढ़ने के लिए भीतर गुंथी लकड़ियों का कुछ भाग बाहर निकाल कर रखा जाता है। बीच में पानी निकालने की जगह। यहां भी वर्षा का पानी कुंडी के मंडल में बने ओयरो, छेद से जाता है। पत्थर वाली कुंडी में ओयरो की संख्या एक से अधिक रहती है, लेकिन फोग की कुंडियों में सिर्फ एक ही रखी जाती है। कुंडी का व्यास कोई सात-आठ हाथ, ऊंचाई कोई चार हाथ और पानी जाने वाला छेद प्रायः एक बित्ता बड़ा होता है। वर्षा का पानी भीतर कुंडी में जमा करने के बाद बाकी दिनों इस छेद को कपड़ों को लपेट कर बनाए गए एक डाट से ढंक कर रखते हैं। फोग वाली कुंडियां अलग-अलग आगोर के बदले एक ही बड़े आगोर में बनती हैं, कुंइयों की तरह। आगोर के साथ ही साफ लिपे-पुते सुंदर घर और वैसी ही लिपी-पुती कुंडियां चारों तरफ फैली विशाल मरुभूमि में लुकाछिपी का खेल खेलती लगती हैं।
राजस्थान में रंगों के प्रति एक विशेष आकर्षण है। लहंगे, ओढ़नी और चटकीले रंगों की पगड़ियां जीवन के सुख और दुख में रंग बदलती हैं। पर इन कुंडियों का केवल एक ही रंग मिलता है-केवल सफेद। तेज धूप और गरमी के इस इलाके में यदि कुंडियों पर कोई गहरा रंग हो तो वह बाहर की गरमी सोख कर भीतर के पानी पर भी अपना असर छोड़ेगा। इसलिए इतना रंगीन समाज कुंडियों को सिर्फ़ सफेद रंग में रंगता है। सफेद परत तेज धूप की किरणों को वापस लौटा देती है। फोग की टहनियों से बना गुंबद भी इस तेज धूप में गरम नहीं होता। उसमें चटक कर दरारें नहीं पड़तीं और भीतर का पानी ठंडा बना रहता है।
पिछले दौर में किसी विभाग ने एक नई योजना के अंतर्गत उस इलाके में फोग से बनने वाली कुंडियों पर कुछ प्रयोग किए थे। फोग के बदले नई आधुनिक सामग्री-सीमेंट का उपयोग किया। प्रयोग करने वालों को लगा होगा कि यह आधुनिक कुंडी ज़्यादा मजबूत होगी। पर ऐसा नहीं हुआ। सीमेंट से बनी आदर्श कुंडियौं का ऊपरी गुंबद इतनी तेज गरमी सह नहीं सका, वह नीचे गहरे गड्ढे में गिर गया। नई कुंडी में भीतर की चिनाई भी रेत और चूने के बदले सीमेंट से की गई थी। उसमें भी अनगिनत दरारें पड़ गई. फिर उन्हें ठीक करने के लिए उनमें डामर भरा गया। 'मरुभट्टी' में डामर भी पिघल गया। वर्षा में जमा किया सारा पानी रिस गया। तब लोगों ने यहाँ फिर से फोग, रेत ओर चूने से बनने वाली समयसिदृ कुंडी को अपनाया और आघुनिक सामगई के कारण उत्पन्न जल संकट को दूर किया।
मरुभूमि में कहीं-कहीं खड़िया पट्टी बहुत नीचे न होकर काफी ऊपर आ जाती है। चार-पांच हाथ। तब कुंई बनाना संभव नहीं होता। कुंई तो रेजाणी पानी पर चलती है। पट्टी कम गहराई पर हो तो उस क्षेत्र में रेजाणी पानी इतना जमा नहीं हो पाएगा कि वर्ष भर कुंई घड़ा भरती रह सके. इसलिए ऐसे क्षेत्रों में इसी खड़िया का उपयोग कुंडी बनाने के लिए किया जाता है। खड़िया के बड़े-बड़े टुकड़े खदान से निकाल कर लकड़ी की आग में पका लिए जाते हैं। एक निश्चित तापमान पर ये बड़े डले टूट-टूट कर छोटेछोटे टुकड़ों में बदल जाते हैं। फिर इन्हें कूटते हैं। आगोर का ठीक चुनाव कर कुंडी की खुदाई की जाती है। भीतर की चिनाई और ऊपर का गुंबद भी इसी खड़िया चूरे से बनाया जाता है। पांच-छह हाथ के व्यास वाला यह गुंबद कोई एक बिता मोटा रखा जाता है। इस पर दो महिलाएँ भी खड़े होकर पानी निकालें तो यह टूटता नहीं।
मरुभूमि में कई जगह चट्टानें हैं। इनसे पत्थर की पट्टियाँ निकलती हैं। इन पटिटयों की मदद से बड़े-बड़े कुंड तैयार होते हैं। ये पट्टियाँ प्राय: दो हाथ चौड़ी और चौदह हाथ लंबी रहती हैं। जितना बड़ा आगोर हो, जितना अधिक पानी एकत्र हो सकता हो, उतना ही बड़ा कुंड इन पट्टियों से ढंक कर बनाया जाता है।
घर छोटे हों, बड़े हों, कच्चे हों या पक्के-कुंडी तो उनमें पक्की तौर पर बनती ही है। मरुभूमि में गांव दूर-दूर बसे हैं। आबादी भी कम है। ऐसे छितरे हुए गांवों को
पानी की किसी केंद्रीय व्यवस्था से जोड़ने का काम संभव ही नहीं है। इसलिए समाज ने यहां पानी का सारा काम बिलकुल विकेंद्रित रखा, उसकी जिम्मेदारी को आपस में बूंद-बूंद बांट लिया। यह काम एक नीरस तकनीक, यांत्रिक न रह कर एक संस्कार में बदल गया। ये कुंडियां कितनी सुंदर हो सकती हैं, इसका परिचय दे सकते हैं जैसलमेर के गांव।
हर गांव में कोई पंद्रह-बीस घर ही हैं। पानी यहां बहुत ही कम बरसता है। जैसलमेर की औसत वर्षा से भी कम का क्षेत्र है यह। यहां घर के आगे एक बड़ा-सा चबूतरा बना मिलता है। चबूतरे के ऊपर और नीचे दीवारों पर रामरज, पीली मिट्टी और गेरू से बनी सुंदर अल्पनाएं - मानी रंगीन गलीचा बिछा हो। इन पर घर का सारा काम होता है। अनाज सुखाया जाता है, बच्चे खेलते हैं, शाम को इन्हीं पर बड़ों की चौपाल बैठती है और यदि कोई अतिथि आ जाए तो रात को उसका डेरा भी इन्हीं चबूतरों पर जमता है।
पर ये सुंदर चबूतरे केवल चबूतरे नहीं हैं। ये कुंड हैं। घर की छोटी-सी छत, आंगन
या सामने मैदान में बरसने वाला पानी इनमें जमा होता हैं। किसी बरस पानी कम गिरे और ये कुंड पूरे भर नहीं पाएं तो फिर पास दूर के किसी कुएं या तालाब से ऊंटगाड़ी के माध्यम से पानी लाकर इनमें भर लिया जाता है।
कुंड-कुंडी जैसे ही होते हैं टांके। इनमें आंगन के बदले प्रायः घरों की छतों से वर्षा का पानी एकत्र किया जाता है। जिस घर की जितनी बड़ी छत, उसी अनुपात में उसका उतना ही बड़ा टांका। टांकों के छोटे-बड़े होने का संबंध उनमें रहने वाले परिवारों के छोटे-बड़े होने से भी है और उनकी पानी की आवश्यकता से भी। मरुभूमि के सभी गांव, शहरों के घर इसी ढंग से बनते रहे हैं कि उनकी छतों पर बरसने वाला पानी नीचे बने टांकों में आ सके। हरेक छत बहुत ही हल्की-सी ढाल लिए रहती है। ढाल के मुंह की तरफ एक साफ-सुथरी नाली बनाई जाती है। नाली के सामने ही पानी के साथ आ सकने वाले कचरे को रोकने का प्रबंध किया जाता है। इससे पानी छन कर नीचे टांके में जमा होता है। १०-१२ सदस्यों के परिवार का टांका प्रायः पंद्रह-बीस हाथ गहरा और इतना ही लंबाचौड़ा रखा जाता है।
टांका किसी कमरे, बैठक या आंगन के नीचे रहता है। यह भी पक्की तरह से ढंका
रहता है। किसी कोने में लकड़ी के एक साफ-सुथरे ढक्कन से ढंकी रहती है मोखी, जिसे खोल कर बाल्टी से पानी निकाला जाता है। टांके का पानी बरस- भर पीने और रसोई के काम में लिया जाता है। इसकी शुद्धता बनाए रखने के लिए इन छतों पर भी चप्पल जूते पहन कर नहीं जाते। गरमी की रातों में इन छतों पर परिवार सोता जरूर है पर अबोध बच्चों को छतों के किसी ऐसे हिस्से में सुलाया जाता है, जो टांके से जुड़ा नहीं रहता। अबोध बच्चे रात को बिस्तरा गीला कर सकते हैं और इससे छत खराब हो सकती है।
पहली सावधानी तो यही रखी जाती है कि छत, नालियां और उससे जुड़ा टांका पूरी तरह साफ रहे। पर फिर भी कुछ वर्षों के अंतर पर गरमी के दिनों में, यानी बरसात से ठीक पहले जब वर्ष भर का पानी कम हो चुका हो, टांकों की सफाई, धुलाई भीतर से भी की जाती है। भीतर उतरने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियां और तल पर वही खमाड़ियो बनाया जाता है ताकि साद को आसानी से हटा सकें। कहीं- कहीं टांकों को बड़ी छतों के साथ-साथ घर के बड़े आंगन से भी जोड़ लेते हैं। तब जल संग्रह की इनकी क्षमता दुगनी हो जाती है। ऐसे विशाल टांके भले ही किसी एक बड़े घर के होते हों, उपयोग की दृष्टि से तो उन पर पूरा मोहल्ला जमा हो जाता है।
मोहल्ले, गांव, कस्बों से बहुत दूर निर्जन क्षेत्रों में भी टांके बनते हैं। बनाने वाले इन्हें अपने लिए नहीं, अपने समाज के लिए बनाते हैं। 'स्वामित्व विसर्जन' का इससे अच्छा उदाहरण शायद ही मिले कोई। ये टांके पशुपालकों, ग्वालों के काम आते हैं। सुबह कंधे पर भरी कुपड़ी (मिट्टी की चपटी सुराही) टांग कर चले ग्वाले, चरवाहे दोपहर तक भी नहीं पहुंच पाते कि कुपड़ी खाली हो जाती है। लेकिन आसपास ही मिल जाता है कोई टांका। हरेक टांके पर रस्सी बंधी बाल्टी या कुछ नहीं तो टीन का डिब्बा तो रखा ही रहता है।
रेतीले भागों में जहां कहीं भी थोड़ी-सी पथरीली या मगरा यानी मुरम वाली जमीन मिलती है, वहां टांका बना दिया जाता है। यहां जोर पानी की मात्रा पर नहीं, उसके संग्रह पर रहता है। 'चुर्रो' के पानी को भी रोक कर टांके भर लिए जाते हैं। चुर्रो यानी रेतीले टीले के बीच फंसी ऐसी छोटी जगह, जहां वर्षा का ज्यादा पानी नहीं बह सकता। पर कम बहाव भी टांके को भरने के लिए रोक लिया जाता है। ऐसे टांकों में आसपास थोड़ी 'आड़' बना कर भी पानी की आवक बढ़ा ली जाती है।
नए हिसाब से देखें तो छोटी से छोटी कुंडी, टांके में कोई दस हजार लीटर और मंझौले कुंडों में पचास हजार लीटर पानी जमा किया जाता है। बड़े कुंड और टांके तो बस लखटकिया ही होते हैं। लाख दो लाख लीटर पानी इनमें समाए रहता है।
लेकिन सबसे बड़ा टांका तो करोड़पति ही समझिए। इसमें साठ लाख गैलन यानी लगभग तीन करोड़ लीटर पानी समाता है। यह आज से कोई ३५० बरस पहले जयपुर के पास जयगढ़ किले में बनाया गया था। कोई ९५० हाथ लंबा-चौड़ा यह विशाल टांका चालीस हाथ गहरा है। इसकी विशाल छत भीतर पानी में डूबे इक्यासी खंभों पर टिकाई गई है। चारों तरफ गोख, यानी गवाक्ष बने हैं, ताजी हवा और उजाले को भीतर उतरने के लिए। इनसे पानी वर्ष-भर निर्दोष बना रहता है। टांके के दो कोनों से भीतर उतरने के लिए दो तरफ दरवाजे है। दोनों दरवाजों को एक लंबा गलियारा जोड़ता है और दोनों तरफ़ से पानी तक उतरने के लिए सीढ़ियां हैं। यहीं से उतर कर बहंगियों से पानी ऊपर लाया जाता है। बाहर लगे गवाक्षों में से किसी एकाध की परछाई खंभो के बीच से नीचे
पानी पर पड़ती है तो अंदाज लगता है कि पानी कितना नीला है।
यह नीला पानी किले के आसपास की पहाड़ियों पर बनी छोटी-छोटी नहरों से एक बड़ी नहर में आता है। सड़क जैसी चौड़ी यह नहर किले की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखते हुए किले की दीवार से नीचे उतर कर किले के भीतर पहुंचती है।
जब पनी का पूरा रस्ता, नहरों का पूरा जाल धूल जाए, तब पहला फाटक गिरता है और दूसरा फाटक खुलता है और मुख्य टांका तीन करोड़ लीटर झेलने के लिये तैयार हो जाता है। इतनी बड़ी क्षमता का यह टांका किले की जरूरत के साथ-साथ किले की सुरक्षा के लिए भी बनाया गया था। कभी किला शत्रुओं से घिर जाए तो लंबे समय तक भीतर पानी की कमी नहीं रहे। राजा गए, उनकी फौज गई। अब आए हैं जयपुर घूमने आने वाले पर्यटक। अच्छी खासी चढ़ाई चढ़ कर आने वाले हर पर्यटक की थकान इस टांके के शीतल और निर्मल जल से दूर होती है। टांकों और कुंडों में ठहरा पानी इतना निर्मल हो सकता है, इसका अंदाज देश-भर में बहती कहावत को भी नहीं रहा होगा।
यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।
यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।