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राजस्थान की रजत बूँदें/ बिंदु में सिंधु समान

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राजस्थान की रजत बूँदें
अनुपम मिश्र

गाँधी शांति प्रतिष्ठान, पृष्ठ ४५ से – ६१ तक

 

बिंदु में सिंधु समान

भक्ति में डूबे संत-कवियों ने 'बिंदु में सिंधु समान' कहा। घर-गिरस्ती में डूबे लोगों ने इसे पहले मन में और फिर अपनी धरती पर कुछ इस रीति से उतारा कि 'हेरनहार हिरान' यानी देखने वाले हैरान हो जाएं।

पालर पानी यानी वर्षा के पानी की वरुण देवता का प्रसाद मान कर ग्रहण करना और फिर उसका एक कण भी, एक बूंद भी यहां-वहां बगरे नहीं - ऐसी श्रद्धा से उसके संग्रह का काम आध्यात्मिक भी था और निपट सांसारिक भी। विशाल मरुभूमि में इसके बिना जीवन कैसे हो सकता था।

पुर शब्द सब जगह है पर कापुर शब्द शायद केवल यहीं मिलता है। कापुर यानी बुनियादी सुविधाओं से वंचित गांव। भाषा में कापुर शब्द रखा गया पर कोई गांव कापुर न कहला सके, इसका भी पक्का प्रबंध किया। 

बंध-बंधा, ताल-तलाई, जोहड़-जोहड़ी, नाडी, तालाब, सरवर, सर, झील, देईबंध जगह, डहरी, खडीन और भे - इन सबको बिंदु से भर कर सिंधु समान बनाया गया। आज के नए समाज ने जिस क्षेत्र को पानी के मामले में एक असंभव क्षेत्र माना है, वहां पुराने समाज ने कहां क्या-क्या संभव है - इस भावना से काम किया। साईं 'इतना' दीजिए के बदले साईं जितना दीजिए वामे कुटुम समा कर दिखाया।

माटी और आकाश के बदलते रूपों के साथ ही यहां तालाबों के आकार, प्रकार और उनके नाम भी बदल जाते हैं। चारों तरफ मजबूत पहाड़ हों, पानी खूब गिरता हो तो उसे वर्ष भर नहीं, वर्षों तक रोक सकने वाली झीलों का, बड़े-बड़े तालाबों का निर्माण हुआ। ये बड़े काम केवल राज-परिवारों ने ही किए हों, ऐसा नहीं था। कई झील और बड़े-बड़े तालाब भीलों ने, बंजारों ने, चरवाहों ने भी वर्षों की मेहनत से तैयार किए थे।

अच्छी पगार पाने वाले बहुत से इतिहासकारों ने इस तरह के बड़े कामों को बेगारप्रथा से जोड़कर देखा है। पर अपवादों को नियम नहीं मान सकते हैं। इनमें से कुछ काम किसी अकाल के दौरान लोगों को थामने, अनाज पहुंचाने और साथ ही बाद में आ सकने वाले किसी और अकाल से निपट सकने की ताकत जुटाने के लिए किए गए थे तो कुछ अच्छे दौर में और अच्छे भविष्य के लिए पूरे हुए थे।

पानी की आवक पूरी नहीं हो, रोक लेने के लिए जगह भी छोटी हो तो उस जगह को छोड़ नहीं देना है - उस पर तालाब के बड़े कुटुंब की सबसे छोटी सदस्या-नाडी बनी मिलेगी। रेत की छोटी पहाड़ी, थली या छोटे से मगरे के आगोर से बहुत ही थोड़ी मात्रा में बहने वाले पानी का पूरा सम्मान करती है नाडी। उसे बह कर बर्बाद नहीं होने देती है नाडी। साधन, सामग्री कच्ची यानी मिट्टी की ही होती है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि नाडी का स्वभाव भी कच्चा ही होगा। यहां दो-सौ, चार-सौ साल पुरानी नाडियां भी खड़ी मिल जाएंगी। नाड़ियों में पानी महीने-डेढ़ महीने से सात-आठ महीने तक भी रुका रहता है। छोटे से छोटे गांव में एक से अधिक नाडियां मिलती हैं। मरुभूमि में बसे गांवों में इनकी संख्या हर गांव में दस-बारह भी हो सकती है। जैसलमेर में पालीवालों के ऐतिहासिक चौरासी गांवों में सात सौ से अधिक नाडियां या उनके चिन्ह आज भी देखे जा सकते हैं।

तलाई या जोहड़-जोहड़ी में पानी नाडी से कुछ ज्यादा देरी तक और कुछ अधिक मात्रा में जमा किया जाता है। इनकी पाल पर पत्थर का काम, छोटा-सा घाट, पानी में उतरने के लिए पांच-सात छोटी सीढ़ियों से लेकर महलनुमा छोटी-सी इमारत भी खड़ी मिल सकती है।


तलाई वहां भी हैं, जहां और कुछ नहीं हो सकता। राजस्थान में नमक की झीलों के आसपास फैले लंबे-चौड़े भाग में पूरी जमीन खारी है। यहां वर्षा की बूंदें धरती पर पड़ते ही खारी हो जाती हैं। भूजल, पाताल पानी खारा, ऊपर बहने वाला पालर पानी खारा और इन दो के बीच अटका रेजाणी पानी भी खारा। यहां नए नलकूप लगे, हैंडपंप लगे - सभी ने खारा पानी उलीचा। लेकिन ऐसे हिस्सों में भी चार सौ-पांच सौ साल पुरानी तलाइयां कुछ इस ढंग से बनी मिलेंगी कि वर्षा की बूंदों को खारी धरती से दो चार हाथ ऊपर उठे आगीर में समेट कर वर्ष-भर मीठा पानी देती हैं।

ऐसी अधिकांश तलाइयां कोई चार सौ साल पुरानी हैं। यह वह दौर था जब नमक का सारा काम बंजारों के हाथ में था। बंजारे हजारों बैलों का कारवां लेकर नमक का कारोबार करने इस कोने से उस कोने तक जाते थे। ये रास्ते में पड़ने वाले गांवों के बाहरी हिस्सों में पड़ाव डालते थे। उन्हें अपने पशुओं के लिए भी पानी चाहिए था। बंजारे नमक का स्वभाव जानते थे कि वह पानी में घुल जाता है। वे पानी का भी स्वभाव जानते थे कि वह नमक को अपने में मिला लेता है - लेकिन उन्होंने इन दोनों के इस घुल-मिल कर रहने वाले स्वभावों को किस चतुराई से अलग-अलग रखा - यह बताती हैं सांभर झील के लंबे-चौड़े खारे आगोर में जरा-सी ऊपर उठ कर बनाई गई तलाइयां।

बीसवीं सदी की सब तरह की सरकारें और इक्कीसवीं सदी में ले जाने वाली सरकार भी ऐसे खारे क्षेत्रों के गांवों के लिए मीठा पानी नहीं जुटा पाई। पर बंजारों ने तो इस इलाके का नमक खाया था - उन्हीं ने इन गांवों को मीठा पानी पिलाया है। कुछ बरस पहले नई-पुरानी सरकारों ने इन बंजारों की तलाइयों के आसपास ठीक वैसी ही नई तलाई बनाने की कोशिश की पर नमक और पानी के "घुल-मिल" स्वभाव को वे अलग नहीं कर पाई।

पानी आने और उसे रोक लेने की जगह और ज्यादा मिल जाए तो फिर तलाई से आगे बढ़ कर तालाब बनते रहे हैं। इनमें वर्षा का पानी अगली वर्षा तक बना रहता है। नई भागदौड़ के कारण पुराने कुछ तालाब नष्ट जरूर हुए हैं पर आज भी वर्ष-भर भरे रहने वाले तालाबों की यहां कमी नहीं है। इसीलिए जनगणना करने वालों को भरोसा तक नहीं होता कि मरुभूमि के गांवों में इतने सारे तालाब कहां से आ गए हैं। सरकारें अपनी ऐसी रिपोर्ट में यह बतलाने से कतराती हैं कि इन्हें किनने बनाया है। यह सारा प्रबंध समाज ने अपने दम पर किया था और इसकी मजबूती इतनी कि उपेक्षा के इस लंबे दौर के बाद भी यह किसी न किसी रूप में आज भी टिका है और समाज को भी टिकाए हुए है ।

गजेटियर में जैसलमेर का वर्णन तो बहुत डरावना है : "यहां एक भी बारामासी


नदी नहीं है। भूजल १२५ से २५० फुट और कहीं-कहीं तो ४०० फुट नीचे है। वर्षा मीठी तलाई अविश्वसनीय रूप से कम है, सिर्फ़ १६४० सेंटीमीटर। पिछले ७० वर्षों के अध्ययन किया के अनुसार वर्ष के ३६५ दिनों में से ३५५ दिन सूखे गिने गए हैं। यानी १२० दिन की स्वभाव वर्षा ऋतु यहाँ अपने संक्षिप्ततम रूप में केवल १० दिन के लिए आती है।"

लेकिन यह सारा हिसाब-किताब कुछ नए लोगों का है। मरुभूमि के समाज ने १० दिन की वर्षा में करोड़ों रजत बूंदों को देखा और फिर उनको एकत्र करने का काम घर-घर में, गांव-गांव में और अपने शहरों तक में किया। इस तपस्या का परिणाम सामने है:

जैसलमेर जिले में आज ५१० गांव हैं। इनमें से ५३ गांव किसी न किसी वजह से उजड़ चुके हैं। आबाद हैं ४६२। इनमें से सिर्फ़ एक गांव को छोड़ हर गांव में पीने के पानी का प्रबंध है। उजड़ चुके गांवों तक में यह प्रबंध कायम मिलता है। सरकार के आंकड़ों के अनुसार जैसलमेर के ९९.७८ प्रतिशत गांवों में तालाब, कुएँ और 'अन्य' स्रोत हैं। इनमें नल, ट्यूबवैल जैसे नए इंतजाम कम ही हैं। इस सीमांत जिले के ५१५


गांवों में से केवल १.७५ प्रतिशत गांवों में बिजली है। इसे हिसाब की सुविधा के लिए २ प्रतिशत कर लें तब भी ग्यारह गांव बैठेंगे। यह आंकड़ा पिछली जनगणना रिपोर्ट का है। मान लें कि इस बीच में और भी विकास हुआ है तो पहले के 11 गांवों में 20-30 गांव और जोड़ लें। 515 में से बिजली वाले गांवों की संख्या तब भी नगण्य ही होगी। इसका एक अर्थ यह भी है कि बहुत-सी जगह ट्यूबवैल बिजली से नहीं, डीजल तेल से चलते हैं। तेल बाहर दूर से आता है। तेल का टैंकर न आ पाए तो पंप नहीं चलेंगे, पानी नहीं मिलेगा। सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा तो भी आगे-पीछे ट्यूबवैल से जलस्तर घटेगा ही। उसे जहाँ के तहाँ थामने का कोई तरीका अभी ती है नहीं। वैसे कहा जाता है कि जैसलमेर के नीचे भूजल का अच्छा भंडार है। पर जल की इस गुल्लक में बिना कुछ डाले सिर्फ़ निकालते रहने की प्रवृत्ति कभी तो धोखा देगी ही।

एक बार फिर दुहरा लें कि मरुभूमि के सबसे विकट माने गए इस क्षेत्र में 99.78 प्रतिशत गांवों में पानी का प्रबंध है और अपने दम पर है। इसी के साथ उन सुविधाओं की तुलना करें जिन्हें जुटाना नए समाज की नई संस्थाओं, मुख्यतः सरकार की जिम्मेदारी मानी जाती है। पक्की सड़कों से अभी तक केवल 19 प्रतिशत गांव जुड़ पाए हैं, डाक आदि की सुविधा 30 प्रतिशत तक फैल पाई है। चिकित्सा आदि की देखरेख 9 प्रतिशत तक पहुंच सकी है। शिक्षा सुविधा इन सबकी तुलना में थोड़ी बेहतर है-50 प्रतिशत गांवों में। यहाँ इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि डाक, चिकित्सा, शिक्षा या बिजली की सुविधाएँ जुटाने के लिए सिर्फ़ एक निश्चित मात्रा में पैसा चाहिए। राज्य के कोष में उसका प्रावधान रखा जा सकता है, ज़रूरत पड़ने पर किसी और मद से या अनुदान के सहारे उसे बढ़ाया जा सकता है। फिर भी हम पाते हैं कि ये सेवाएँ यहाँ प्रतीक रूप में ही चल पा रही हैं।

लेकिन पानी का काम ऐसा नहीं है। प्रकृति से इस क्षेत्र को मिलने वाले पानी को समाज बढ़ा नहीं सकता। उसका 'बजट' स्थिर है। बस उसी मात्रा से पूरा काम करना है। इसके बाद भी समाज ने इसे कर दिखाया है। 515 गांवों में नाडियों, तलाइयों की गिनती छोड़ दें, बड़े तालाबों की संख्या 294 है।

जिसे नए लोगों ने निराशा का क्षेत्र माना, वहाँ सीमा के छोर पर, पाकिस्तान से थोड़ा पहले आसूताल यानी आस का ताल है। जहाँ तापमान 50 अंश छू लेता है, वहाँ

४८ सितलाई यानी शीतल तलाई है और जहां बादल सबसे ज्यादा 'धोखा' देते हैं, वहां बदरासर
राजस्थान की भी है।
रजत बूंदें पानी का सावधानी से संग्रह और फिर पूरी किफायत से उसका उपयोग-इस



स्वभाव को न समझ पाने वाले गजेटियर और जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं, उस राज और समाज को, उसकी नई सामाजिक संस्थाओं तक को यह क्षेत्र "वीरान,वीभत्स, स्फूर्तिहीन और जीवनहीन" दिखता है। लेकिन गजेटियर में यह सब लिख जाने वाला भी जब घड़सीसर पहुंचा है तो "वह भूल जाता है कि वह मरुभूमि की यात्रा पर है।”

कागज में, पर्यटन के नक्शों में जितना बड़ा शहर जैसलमेर है, लगभग उतना ही बड़ा तालाब घड़सीसर है। कागज की तरह मरुभूमि में भी ये एक दूसरे से सटे खड़े हैं-बिना घड़सीसर के जैसलमेर नहीं होता। लगभग ८०० बरस पुराने इस शहर के कोई ७०० बरस, उनका एक-एक दिन घड़सीसर की एक-एक बूंद से जुड़ा रहा है।

रेत का एक विशाल टीला सामने खड़ा है। पास पहुंचने पर भी समझ नहीं आएगा कि यह टीला नहीं, घड़सीसर की ऊंची-पूरी, लंबी-चौड़ी पाल है। जरा और आगे बढ़ें तो दो बुर्ज और पत्थर पर सुंदर नक्काशी के पांच झरोखों और दो छोटी और एक बड़ी पोल का प्रवेश द्वार सिर उठाए खड़ा दिखेगा। बड़ी और छोटी पोलों के सामने नीला आकाश झलकता है। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते हैं, प्रवेश द्वार से दिखने वाली झलक में नए-नए दृश्य जुड़ते जाते हैं। यहां तक पहुंच कर समझ में आएगा कि पोल से जो नीला आकाश दिख रहा था, वह तो सामने फैला नीला पानी है। फिर दाई-बाई तरफ सुंदर पक्के घाट, मंदिर, पटियाल, बारादरी, अनेक स्तंभों से सजे बरामदे, कमरे तथा और न जाने क्या-क्या जुड़ जाता है। हर क्षण बदलने वाले दृश्य पर जब तालाब के पास पहुंचकर विराम लगता है, तब आंखें सामने दिख रहे सुंदर दृश्य पर कहीं एक जगह टिक नहीं पातीं। पुतलियां हर क्षण घूम-घूम कर उस विचित्र दृश्य को नाप लेना चाहती हैं।

पर आंखें इसे नाप नहीं पातीं। तीन मील लंबे और कोई एक मील चौड़े आगर वाले इस तालाब का आगोर १२० वर्गमील क्षेत्र में फैला हुआ है। इसे जैसलमेर के राजा महारावल घड़सी ने विक्रम संवत १३९१ में यानी सन् १३३५ में बनाया था। दूसरे राजा तालाब बनवाया करते थे, लेकिन महारावल घड़सी ने तो इसे खुद बनाया था। महारावल रोज ऊंचे किले से उतर कर यहां आते और खुदाई, भराई आदि हरेक काम में खुद जुटे रहते।

यों यह दौर जैसलमेर राज के लिए भारी उथल-पुथल का दौर था। भाटी वंश गद्दी की छीनाझपटी के लिए भीतरी कलह, षडयंत्र और संघर्ष से गुजर रहा था। मामा अपने भानजे पर घात लगाकर आक्रमण कर रहा था, सगे भाई को देश निकाला दिया जा रहा था तो कहीं किसी के प्याले में जहर घोला जा रहा था। राजवंश में आपसी कलह तो थी ही, उधर राज और शहर जैसलमेर भी चाहे जब देशी-विदेशी हमलावरों से घिर जाता था और जब-तब पुरुष वीरगति को प्राप्त होते और स्त्रियां जौहर की ज्वाला में अपने को


स्वाहा कर देती। ऐसे धधकते दौर में खुद घड़सी ने राठौरों की सेना की मदद से जैसलमेर पर अधिकार किया था। इतिहास की किताबों में घड़सी का काल जय-पराजय, वैभवपराभव, मौत के घाट और समर-सागर जैसे शब्दों से भरा पड़ा है।

तब भी यह सागर बन रहा था। वर्षों की इस योजना पर काम करने के लिए घड़सी ने अपार धीरज और अपार साधन जुटाए थे और फिर इसकी सबसे बड़ी कीमत भी चुकाई। पाल बन रही थी, महारावल पाल पर खड़े होकर सारा काम देख रहे थे। राज परिवार में चल रहे भीतरी षडयंत्र ने पाल पर खड़े घड़सी पर घातक हमला किया। राजा की चिता पर रानी का सती हो जाना उस समय का चलन था। लेकिन रानी विमला सती नहीं हुई। राजा का सपना रानी ने पूरा किया।

रेत के इस सपने में दो रंग हैं। नीला रंग है पानी का और पीला रंग है तीन-चार मील के तालाब की कोई आधी गोलाई में बने घाट, मंदिरों, बुर्ज और बारादरी, बरामदों का। लेकिन यह सपना दिन में दो बार बस केवल एक रंग में रंग जाता है। ऊगते और डूबते समय सूरज घड़सीसर में मन-भर पिघला सोना उंडेल देता है। मन-भर, यानी मापतौल वाला मन नहीं, सूरज का मन भर जाए इतना।

लोगों ने भी घड़सीसर में अपनी-अपनी सामर्थ्य से सोना डाला था। तालाब राजा का था पर प्रजा उसे संवारती, सजाती चली गई। पहले दौर में बने मंदिर, घाट और जलमहल आदि का विस्तार होता गया। जिसे जब भी जो कुछ अच्छा सूझा, उसे उसने घड़सीसर में न्यौछावर कर दिया। राजा प्रजा की उस जुगलबंदी में एक अद्भुत गीत बन गया था घड़सीसर। एक समय घाट पर पाठशालाएं भी बनीं। इनमें शहर और आसपास के गांवों के छात्र आकर रहते थे और वहीं गुरू से ज्ञान पाते थे। पाल पर एक तरफ छोटी-छोटी रसोइयां और कमरे भी हैं। दरबार में, कचहरी में जिनका कोई काम अटकता, वे गांवों से आकर यहीं डेरा जमाते। नीलकठ और गिरधारी के मंदिर बने। यज्ञशाला बनी। जमालशाह पीर की चौकी बनी। सब एक घाट पर।

काम-धंधे के कारण मरुभूमि छोड़कर देश में कहीं और जा बसे परिवारों का मन भी घड़सीसर में अटका रहता। इसी क्षेत्र से मध्यप्रदेश के जबलपुर में जाकर रहने लगे सेठ गोविंददास के पुरखों ने यहां लौटकर पठसाल पर एक भव्य मंदिर बनवाया था। इस प्रसंग में यह भी याद किया जा सकता है कि तालाबों की ऐसी परंपरा से जुड़े लोग, परिवार यहां से बाहर गए तो वहां भी उन्होंने तालाब बनवाए। सेठ गोविंददास के पुरखों ने जबलपुर में भी एक सुंदर तालाब अपनी बड़ी बाखर यानी घर के सामने बनवाया था। हनुमानताल नामक इस तालाब में घड़सीसर की प्रेरणा देखी जा सकती है।




पानी तो शहर-भर का यहीं से जाता था। यों तो दिन-भर यहां से पानी भरा जाता लेकिन सुबह और शाम तो सैकड़ों पनिहारिनों का मेला लगता। यह दृश्य शहर में नल आने से पहले तक रहा है। सन् १९१९ में घड़सीसर पर उम्मेदसिंहजी महेता की एक गजल ऐसे दृश्यों का बहुत सुंदर वर्णन करती है। 'भादों की कजली", तीज के मेले पर सारा शहर सज-धज कर घड़सीसर आ जाता। सिर्फ नीले और पीले रंग के इस तालाब में तब प्रकृति के सब रंग छिटक जाते।

घड़सीसर से लोगों का प्रेम एकतरफा नहीं था। लोग घड़सीसर आते और घड़सीसर भी लोगों तक जाता था और उनके मन में बस जाता। दूर सिंध में रहने वाली टीलों नामक गणिका के मन ने संभवतः ऐसे ही किसी क्षण में कुछ निर्णय ले लिए थे।

तालाब पर मंदिर, घाट-पाट सभी कुछ था। ठाट में कोई कमी नहीं थी। फिर भी टीलों को लगा कि इतने सुनहरे सरोवर का एक सुनहरा प्रवेश द्वार भी होना चाहिए। टीलों ने घड़सीसर के पश्चिमी घाट पर प्रवेश द्वार - पोल बनाना तय कर लिया। पत्थर पर बारीक नक्काशी वाले सुंदर झरोखों से युक्त विशाल द्वार अभी पूरा हो ही रहा था कि कुछ लोगों ने महारावल के कान भरे, "क्या आप एक गणिका द्वारा बनाए गए प्रवेश द्वार से घड़सीसर में प्रवेश किया करेंगे?" विवाद शुरू हो गया। उधर द्वार पर काम चलता रहा। एक दिन राजा ने इसे गिराने का फैसला ले लिया। टीलों को खबर लगी। रातों-रात टीलों ने प्रवेश द्वार की सबसे ऊंची मंजिल में मंदिर बनवा दिया। महारावल ने अपना निर्णय बदला। तब से पूरा शहर इसी सुंदर पोल से तालाब में प्रवेश करता है और इसे आज भी टीलों के नाम से ही याद रखे है।

टीलों की पोल के ठीक सामने तालाब की दूसरी तरफ परकोटेनुमा एक गोल बुर्ज है। तालाबों के बाहर तो अमराई, बगीचे आदि होते ही हैं पर इस बुर्ज में तालाब के भीतर 'बगीची' बनी है जिसमें लोग गोठ करने, यानी आनंद-मंगल मनाने आते रहते थे। इसी के साथ पूरब में एक और बड़ा गोल परकोटा है। इसमें तालाब की रक्षा करने वाली फौजी टुकड़ी रहती थी। देशी-विदेशी शत्रुओं से घिरे इस तालाब की सुरक्षा का भी पक्का प्रबंध था क्योंकि यह पूरे शहर को पानी देता था।

मरुभूमि में पानी कितना भी कम बरसता हो, घड़सीसर का आगोर अपने मूल रूप में इतना बड़ा था कि वह वहां बरसने वाली एक-एक बूंद को समेट कर तालाब को लबालब भर देता था। घड़सीसर के सामने पहाड़ पर बने ऊंचे किले पर चढ़ कर देखें या नीचे आगोर में पैदल घूमें, बार-बार समझाए जाने पर भी इस तालाब में पानी लाने का पूरा रजत बूंदें प्रबंध आसानी से समझ में नहीं आता। दूर क्षितिज तक से इसमें पानी आता था। विशाल


भाग के पानी को समेट कर उसे तालाब की तरफ मोड़ कर लाने के लिए कोई आठ किलोमीटर लंबी आड़, यानी एक तरह की मेड़बंदी की गई थी। फिर इतनी मात्रा में चले आ रहे पानी की ताकत को तोला गया था और इसकी टक्कर की मार को कम करने के लिए पत्थर की चादर यानी एक और लंबी मजबूत दीवार बनाई गई थी। पानी इस पर टकरा कर अपना सारा वेग तोड़ कर बड़े धीरज के साथ घड़सीसर में प्रवेश करता है। यह चादर न होती तो घड़सीसर का आगर, उसके सुंदर घाट - सब कुछ उखड़ सकता है।

फिर इस तरह लबालब भरे घड़सीसर की रखवाली नेष्टा के हाथ आ जाती हैं। नेष्टा यानी तालाब का वह अंग जहां से उसका अतिरिक्त पानी तालाब की पाल को नुकसान पहुचाए बिना बाहर बहने लगता है। नेष्ठा चलता है और इतने विशाल तालाब को तोड़ सकने वाले अतिरिक्त पानी को बाहर बहाने लगता है। लेकिन यह 'बहाना’ भी बहुत विचित्र था। जो लोग एक-एक बूंद एकत्र कर घड़सीसर भरना जानते थे, वे उसके अतिरिक्त पानी को भी केवल पानी नहीं, जलराशि मानते थे। नेष्टा से निकला पानी आगे एक और तालाब में जमा कर लिया जाता था। नेष्टा तब भी नहीं रुकता तो इस तालाब का नेष्टा भी चलने लगता। फिर उससे भी एक और तालाब भर जाता। यह सिलसिला - आसानी से भरोसा नहीं होगा - पूरे नौ तालाबों तक चलता रहता। नौताल, गोविंदसर, जोशीसर, गुलाबसर, भाटियासर, सूदासर, मोहतासर, रतनसर और फिर किसनघाट। यहां तक पहुंचने पर भी पानी बचता तो किसनघाट के बाद उसे कई बेरियों में, यानी छोटे-छोटे कुएंजुमा कुंडों में भर कर रख दिया जाता। पानी की एक-एक बूंद जैसे शब्द और वाक्य घड़सीसर से किसनघाट तक के ६.५ मील लंबे क्षेत्र में अपना ठीक अर्थ पाते थे।

लेकिन आज जिनके हाथ में जैसलमेर है, राज है, वे घड़सीसर का अर्थ ही भूल चले हैं तो उसके नेष्टा से जुड़े नौ तालाबों की याद उन्हें भला कैसे रहेगी। घड़सीसर के आगोर में वायुसेना का हवाई अड्डा बन गया है। इसलिए आगोर के इस हिस्से का पानी अब तालाब की और न आकर कहीं और बह जाता है। नेष्टा और उसके रास्ते में पड़ने वाले नौ तालाबों के आसपास बेतरतीब बढ़ते शहर के मकान, नई गृह निर्माण समीतियां और तो और पानी का ही नया काम करने वाला इंदिरा नहर प्राधिकरण का दफ्तर, उसमें काम करने वालों की कालोनी बन गई हैं। घाट, पठसाल (पाठशालाएं), रसोई, बारादरी, मंदिर ठीक सार-संभाल के अभाव में धीरे-धीरे टूट चले हैं। आज शहर ल्हास का वह खेल भी नहीं खेलता, जिसमें राजा-प्रजा सब मिलकर घड़सीसर की सफाई करते थे, साद निकालते थे। तालाब के किनारे स्थापित पत्थर का जलस्तंभ भी थोड़ा-सा हिलकर एक


तरफ झुक गया है। रखवाली करने वाली फौज की टुकड़ी के बुर्ज के पत्थर भी ढह गए हैं।

घाट की बारादरी पर कहीं-कहीं कब्जे हो गए हैं। पाठशालाओं में, जहां कभी परंपरागत ज्ञान का प्रकाश होता था, आज कचरे का ढेर लगा है। जैसलमेर पिछले कुछ वर्षों से विश्व के पर्यटन नक्शे पर आ गया है। ठंड के मौसम में - नवंबर से फरवरी तक यहां दुनिया भर के पर्यटक आते हैं और उनके लिए इतना सुंदर तालाब एक बड़ा आकर्षण है। इसीलिए दो वर्ष पहले सरकार का कुछ ध्यान इस तरफ गया था। आगोर से पानी की आवक में आई कमी को इंदिरा गांधी नहर से पानी लाकर दूर करने की कोशिश भी की गई। बाकायदा उद्घाटन हुआ इस योजना का। पर एक बार की भराई के बाद कहीं दूर से आ रही पाइप लाइन टूट-फूट गई। फिर उसे सुधारा नहीं जा सका। घड़सीसर अभी भी भरता है, वर्षा के पानी से।

६६८ बरस पुराना घड़सीसर मरा नहीं है। बनाने वालों ने उसे समय के थपेड़े सह पाने लायक मजबूती दी थी। रेत की आंधियों के बीच अपने तालाबों की उम्दा सार-संभाल की परंपरा डालने वालों को शायद इसका अंदाज नहीं था कि अभी उपेक्षा की आंधी चलेगी। लेकिन इस आंधी को भी घड़सीसर और उसे आज भी चाहने वाले लोग बहुत धीरज के साथ सह रहे हैं। तालाब पर पहरा देने वाली फौजी टुकड़ी आज भले ही नहीं हो, लोगों के मन का कुछ पहरा आज भी है। पहली किरन के साथ मंदिरों की घंटियां बजती हैं। दिन-भर लोग घाटों पर आते-जाते हैं। कुछ लोग यहां घंटों मौन बैठे-बैठे घड़सीसर को निहारते रहते हैं तो कुछ गीत गाते, रावणहत्था (एक तरह की सारंगी) बजाते हुए मिलते हैं। घड़सीसर से बहुत दूर रेत के टीले पार करते ऊंट वाले इसके ठंडे पानी के गुणों को गुनगुनाते मिल जाएंगे।

पनिहारिनें आज भी घाटों पर आती हैं। पानी ऊटगाड़ियों से भी जाता है और दिन में कई बार टैन्कर गाड़ियां भी यहां देखने मिल जाती हैं, जिनमें घड़सीसर से पानी भरने के लिए डीजल पंप तक लगा रहता है!

घड़सीसर आज भी पानी दे रहा है। और इसीलिए सूरज आज भी ऊगते और डूबते समय घड़सीसर में मन-भर सोना उंडेल जाता है।

घड़सीसर मानक बन चुका था। उसके बाद किसी और तालाब को बनाना बहुत कठिन रहा होगा। पर जैसलमेर में हर सौ-पचास बरस के अंतर पर तालाब बनते रहे - एक से एक, मानक घड़सीसर के साथ मोती की तरह गुंथे हुए।

घड़सीसर से कोई १७५ बरस बाद बना था जैतसर। यह था तो बंधनुमा ही, पर अपने बड़े बगीचे के कारण बाद में बस इसे 'बड़ा बाग' की तरह ही याद रखा गया।


इस पत्थर के बांध ने जैसलमेर के उत्तर की तरफ खड़ी पहाड़ियों से आने वाला सारा पानी रोक लिया है। एक तरफ जैतसर है और दूसरी तरफ उसी पानी से सिंचित बड़ा बाग। दोनों का विभाजन करती है बांध की दीवार। लेकिन यह दीवार नहीं, अच्छी खासी चौड़ी सड़क लगती है जो घाटी पार कर सामने की पहाड़ी तक जाती है। दीवार के नीचे बनी सिंचाई नाली का नाम है राम नाल। राम नाल नहर बंध की तरफ सीढ़ीनुमा है। जैतसर में पानी का स्तर ज्यादा हो या कम, नहर का सीढ़ीनुमा ढांचा पानी को बड़े बाग की तरफ उतारता रहता है। बड़ा बाग में पहुंचने पर राम नाल राम नाम की तरह कण-कण में बंट जाती है। नहर के पहले छोर पर एक कुआं भी है। पानी सूख जाए, नहर बंद हो जाए तो भूमि में रिसन के पानी से भरे कुएं का उपयोग होने लगता है। इस बड़े कुएं में चड़स चलती है। कभी इस पर रहट भी चलती थी। बाग में छोटे-छोटे कुओं की तो कोई गिनती ही नहीं है।

बड़ा बाग सचमुच बहुत हरा और बड़ा है। विशाल और ऊंची अमराई और उसके साथ-साथ तरह-तरह के पेड़-पौधे। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में, वहां भी प्राय: नदी के किनारे मिलने वाला अर्जुन का पेड़ भी बड़ा बाग में मिल जाएगा। घने बड़ा बाग में सूरज की किरणें पेड़ों की पत्तियों में अटकी रहती हैं, हवा चले, पत्तियां हिलें तो मौका पाकर किरणें नीचे छन-छन कर टपकती रहती हैं। बांध के उस पार पहाड़ियों पर राजघराने का श्मशान है। यहां दिवंगतों की स्मृति में असंख्य सुंदर छतरियां बनी हैं।

अमर सागर घड़सीसर से ३२५ साल बाद बना है। किसी और दिशा में बरसने वाले पानी को रोकना मुख्य कारण रहा ही होगा लेकिन अमर सागर बनाने वाला समाज शायद यह भी जताना चाहता था कि उपयोगी और सुंदर तालाबों को बनाते रहने की उसकी इच्छा अमर है। पत्थर के टुकड़ों को जोड़-जोड़ कर कितना बेजोड़ तालाब बन सकता है - अमर सागर इसका अद्भुत उदाहरण है। तालाब की चौड़ाई की एक पाल, भुजा सीधी खड़ी उंची दीवार से बनाई गई है। दीवार पर जुड़ी सुंदर सीढ़ियां झरोखों और बुर्ज में से होती हुई नीचे तालाब में उतरती हैं। इसी दीवार के बड़े सपाट भाग में अलग-अलग उंचाई पर पत्थर के शेर, हाथी-घोड़े बने हैं। ये सुंदर सजी-धजी मूर्तियां तालाब का जलस्तर बताती हैं। पूरे शहर को पता चल जाता है कि पानी कितना आया है और कितने महिनों तक चलेगा।

अमर सागर का आगोर इतना बड़ा नहीं है कि वहां से साल-भर का पानी जमा हो जाए। गर्मी आते-आते यह तालाब सूखने लगता है। इसका अर्थ था कि जैसलमेर के लोग इतने सुंदर तालाब को उस मौसम में भूल जाएं, जिसमें पानी की सबसे ज्यादा



जरूरत रहती है। लेकिन जैसलमेर के शिल्पियों ने यहां कुछ ऐसे काम किए जिनसे शिल्प सुंदरता का शास्त्र में कुछ नए पन्ने जुड़ सकते हैं। यहां तालाब के तल में सात सुंदर बेरियां बनाई गईं। बेरी एक तरह की बावड़ी, पगबाव भी कहलाती है। तालाब का पानी सूख जाता है, लेकिन उसके रिसाव से भूमि का जल स्तर ऊपर उठ जाता है। इसी साफ छने पानी से बेरियां भरी रहती हैं। बेरियां भी ऐसी बनी हैं कि अपना जल खो बैठा अमर सागर अपनी सुंदरता नहीं खो देता। सभी बेरियों पर पत्थर के सुन्दर चबूतरे, स्तंभ, छतरियां और नीचे उतरने के लिए कलात्मक सीढ़ियां हैं। गर्मी में, बैसाख में भी मेला भरता है और बरसात में, भादों में भी। सूखे अमर सागर में ये बेरियां किसी महल के टुकड़े जैसी लगती हैं और जब यह भर जाता है तो लगता है तालाब में छतरीदार बड़ी-बड़ी नावें तैर रही हैं।

जैसलमेर मरुभूमि का एक ऐसा राज रहा है, जिसका व्यापारी-दुनिया में डंका बजता था। तब यहां सैकड़ों ऊंटों के कारवां रोज आते थे। आज के सिंध, पाकिस्तान,


अफगानिस्तान, ईरान, ईराक, अफ्रीका और दूर रूस के कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान आदि का माल उतरता था। यहां के माणक चौक पर आज सब्जी-भाजी बिकती है पर एक जमाना था जब यहां माणिक-मोती बिकते थे। ऊंटों की कतार संभालने वाले कतारिए यहां लाखों का माल उतारते-लादते थे। सन् १८०० के प्रारंभ तक जैसलमेर ने अपना वैभव नहीं खोया था। तब यहां की जनसंख्या ३५,००० थी। आज यह घट कर आधी रह गई है।

लेकिन बाद में मंदी के दौर में भी जैसलमेर और उसके आसपास तालाब बनाने का काम मंदा नहीं पड़ा। गजरूप सागर, मूल सागर, गंगा सागर, डेडासर, गुलाब तालाब और ईसरलालजी का तालाब - एक के बाद एक तालाब बनते चले गए। इस शहर में तालाब इतने बने कि उनकी पूरी गिनती भी कठिन है। पूरी मान ली गई सूची में यहां कोई भी चलते-फिरते दो चार नाम जोड़ कर हंस देता हैं।

तालाबों की यह सुंदर कड़ी अंग्रेजों के आने तक टूटी नहीं थी। इस कड़ी की मजबूती सिर्फ राजाओं, रावलों, महारावलों पर नहीं छोड़ी गई थी। समाज के वे अंग भी, जो आज की परिभाषा में आर्थिक रूप से कमजोर माने जाते हैं, तालाबों की कडी को मजबूत बनाए रखते थे।

मेघा ढोर चराया करता था। यह किस्सा ५०० बरस पहले का है। पशुओं के साथ मेघा भोर सुबह निकल जाता। कोसों तक फैला सपाट तपता रेगिस्तान। मेघा दिन-भर का पानी अपने साथ एक कुपड़ी, मिट्टी की चपटी सुराही में ले जाता। शाम वापस लौटता। एक दिन कुपड़ी में थोड़ा-सा पानी बच गया। मेघा को न जाने क्या सूझा, उसने एक छोटा-सा गड्ढा किया, उसमें कुपड़ी का पानी डाला और आक के पत्तों से गड्ढे को अच्छी तरह ढंक दिया।

चराई का काम, आज यहां, कल कहीं और। मेघा दो दिन तक उस जगह पर नहीं आ सका। वहां वह तीसरे दिन पहुंच पाया। उत्सुक हाथों ने आक के पत्ते धीरे से हटाए। गड्ढे में पानी तो नहीं था पर ठंडी हवा आई। मेधा के मुंह से शब्द निकला -'बाफ'। मेघा ने सोचा कि यहां इतनी गरमी में थोड़े से पानी की नमी बची रह सकती है तो फिर यहां तालाब भी बन सकता है।

मेघा ने अकेले ही तालाब बनाना शुरू किया। अब वह रोज अपने साथ कुदालतगाड़ी भी लाता। दिन-भर अकेले मिट्टी खोदता और पाल पर डालता। गाएं भी वहीं आसपास चरती रहतीं। भीम जैसी शक्ति नहीं थी, लेकिन भीम की शक्ति जैसा संकल्प था मेघा के पास। दो वर्ष वह अकेले ही लगा रहा। सपाट रेगिस्तान में पाल का विशाल घेरा अब दूर से ही दिखने लगा था। पाल की खबर आसपास के गांवों को भी



लगी। अब रोज सुबह गांवों से बच्चे और दूसरे लोग भी मेधा के साथ आने लगे। सब मिलकर काम करते। १२ साल हो गए थे, अब भी विशाल तालाब पर काम चल रहा था। लेकिन मेघा की उमर पूरी हो गई। पत्नी सती नहीं हुई। अब तालाब पर मेघा के बदले वह काम करने आती। ६ महीने में तालाब पूरा हुआ। बाफ यानी भाप के कारण बनना शुरू हुआ था इसलिए इस जगह का नाम भी बाफ पड़ा जो बाद में बिगड़ कर बाप हो गया। चरवाहे मेघा को समाज ने मेघोजी की तरह याद रखा और तालाब की पाल पर ही उनकी सुंदर छतरी और उनकी पत्नी की स्मृति में वहीं एक देवली बनाई गई।

बाप बीकानेर-जैसलमेर के रास्ते में पड़ने वाला छोटा-सा कस्बा है। चाय और कचौरी की ५-७ दुकानों वाला बस अड्डा है। बसों से तिगुनी ऊंची पाल अड्डे के बगल में खड़ी हैं। गर्मी मे पाल के इस तरफ लू चलती हैं, उस तरफ मेघोजी के तालाब में लहरें उठती हैं। बरसात के दिनों में तो तालाब में लाखेटा (द्वीप) 'लग' जाता है। तब पानी ४ मील


में फैल जाता है। मेघ और मेघराज भले ही यहां कम आते हों, लेकिन मरुभूमि में मेघोजी जैसे लोगों की कमी नहीं रही।

राजस्थान के तालाबों का यह जसढोल जसेरी नाम के एक अद्भुत तालाब के बिना पूरा नहीं हो सकता। जैसलमेर से कोई ४० किलोमीटर दूर डेढ़ा गांव के पास बना यह तालाब पानी रोकने की सारी सीमाएं तोड़ देता है। चारों तरफ तपता रेगिस्तान है पर जसेरी का न तो पानी सूखता है न उसका यश ही। जाल और देशी बबूल के पेड़ों से ढंकी पाल पर एक छोटा-सा सुंदर घाट और फिर तालाब के एक कोने में पत्थर की सुंदर छतरी - कहने लायक कुछ खास नहीं मिलेगा यहां। पर किसी भी महीने में यहां जाएं, साफ नीले पानी में लहरें उठती मिलेंगी, पक्षियों का मेला मिलेगा। जसेरी का पानी सूखता नहीं। बड़े से बड़े अकाल में भी जसेरी का यह जस सूखा नहीं है।

जसेरी तालाब भी है और एक बड़ी विशाल कुंई भी। इसके आगर के नीचे कुंई की तरह बिट्टू रो बल्लियो है, यानी पत्थर की पट्टी चलती है। इसे खोदते समय इस पट्टी का पूरा ध्यान रखा गया। उसे कहीं से भी टूटने नहीं दिया गया। इस तरह इसमें पालर पानी और रेजाणी पानी का मेल बन जाता है। पिछली वर्षा का पानी सूखता नहीं और फिर अगली वर्षा का पानी आ मिलता है - जसेरी हर बरस बरसी बूंदों का संगम है।

कहा जाता है कि तालाब के बीच में एक पगबाव, यानी बावड़ी भी है और उसी के किनारे तालाब को बनाने वाले पालीवाल ब्राह्मण परिवार की ओर से एक ताम्रपत्र लगा है। लेकिन किसी ने इसे पढ़ा नहीं है क्योंकि तालाब में पानी हमेशा भरा रहता है। बावड़ी तथा ताम्रपत्र देखने, पढ़ने का कोई मौका ही नहीं मिला है। संभवत: जसेरी बनाने वालों ने बहुत सोच समझ कर ताम्रपत्र को तालाब के बीच में लगाया था - लोग ताम्रपत्र के बदले चांदी जैसे चमकीले तालाब को पढ़ते हैं और इसका जस फैलाते जाते हैं।

आसपास के एक या दो नहीं, सात गांव इसका पानी लेते हैं। कई गांवों का पशुधन जसेरी की सम्पन्नता पर टिका हुआ है। अन्नपूर्णा की तरह लोग इसका वर्णन जलपूर्णा की तरह करते हैं और फिर इसके जस की एक सबसे बड़ी बात यह भी बताते हैं कि जसेरी में अथाह पानी के साथ-साथ ममता भी भरी है - आज तक इसमें कोई डूबा नहीं है। कलत (साद) इसमें भी आई है - फिर भी इसकी गहराई इतनी है कि ऊंट पर बैठा सवार डूब जाए - लेकिन आज तक इसमें कोई डूब कर मरा नहीं है। इसीलिए जसेरी को निर्दोष तालाब भी कहा गया है।

पानी की ऐसी निर्दोष व्यवस्था करने वाला समाज, बिंदु में सिंधु देखने वाला समाज हेरनहार को हिरान कर देता है।


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