राजस्थान की रजत बूँदें/ भूण थारा बारे मास

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राजस्थान की रजत बूँदें  (1995) 
द्वारा अनुपम मिश्र
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भूण थारा बारे मास



गहरे कुएं की जगत पर लगी काठ की घिर्री यानी भूण बारह महीने घूमता है, पाताल का पानी ऊपर लाता रहता है। भूण को मरुभूमि में बारह महीने काम करने का अवसर है। और इन्द्र को? इंद्र की तो बस एक घड़ी है:

भूण थारा बारे मास

इंदर थारी एक घड़ी।

यह कहावत इंद्र के सम्मान में है या कि भूण के-ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। एक अर्थ है कि इन्द्र देवता एक घड़ी भर में एक बार में ही इतना पानी बरसा जाते हैं जितना बेचारा भूण बारह महीने घूम कर दे पाता है तो दूसरा संकेत यह भी है कि मरुभूमि में देवताओं के देवता इंद्र के लिए बस एक घड़ी लिखी है पर भूर्ण तो बारह महीने चलता है। [ ६७ ]दो में से किसी एक को लाचार बताने के बजाए जोर तो इंद्र और भूण यानी पालर पानी और पाताल पानी के शाश्वत संबंध पर है। एक घड़ी भर बरसा पालर पानी धीरे-धीरे रिसते हुए पाताल पानी का रूप लेता है। दोनों रूप सजीव हैं और बहते हैं। धरातल पर बहने वाला पालर पानी दिखता है, पाताल पानी दिखता नहीं। इस न दिख सकने वाले पानी को, भूजल को देख पाने के लिए एक विशिष्ट दृष्टि चाहिए। पाताल में कहीं गहरे बहने वाले जल का एक नाम सीर है और सीरवी है जो उसे 'देख' सके। पाताल पानी को सिर्फ देखने की दृष्टि ही पर्याप्त नहीं मानी गई, उसके प्रति समाज में एक विशिष्ट दृष्टिकोण भी रहा है। इस दृष्टिकोण में पाताल पानी को देखने, ढूंढने, निकालने और प्राप्त करने के साथ-साथ एक बार पाकर उसे हमेशा के लिए गंवा देने की भयंकर भूल से बचने का जतन भी शामिल रहा है।

कुएं पूरे देश में बनते रहे हैं पर राजस्थान के बहुत से हिस्सों में, विशेषकर मरुभूमि में कुएं का अर्थ है धरातल से सचमुच पाताल में उतरना। राजस्थान में जहां वर्षा ज्यादा है वहां पाताल पानी भी कम गहराई पर है और जहां वर्षा कम है वहां उसी ७ अनुपात में उसकी गहराई बढ़ती जाती है। मरुभूमि में यह गहराई १०० मीटर से १३० मीटर तक, ३०० फुट से ४०० फुट तक है। यहां समाज इस गहराई को अपने हाथों से, बहुत आत्मीय तरीके से नापता है। नाप का मापदंड यहां पुरुष या पुरस कहलाता है। एक पुरुष अपने दोनों हाथों को भूमि के समानांतर फैला कर खड़ा हो जाए तो उसकी एक हथेली से दूसरी हथेली तक की लंबाई पुरुष कहलाती है। यह मोटे तौर पर ५ फुट के आसपास बैठती है। अच्छे गहरे कुएं साठ पुरुष उतरते हैं। लेकिन इन्हें साठ पुरुष गहरा न कह कर प्यार में सिर्फ साठी भर कहा जाता है।

इतने गहरे कुएं एक तो देश के दूसरे भागों में खोदे नहीं जाते, उसकी जरूरत ही नहीं होती, पर खोदना चाहें तो भी वह साधारण तरीके से संभव नहीं होगा। गहरे कुएं खोदते समय उनकी मिट्टी थामना बहुत ही कठिन काम है। राजस्थान में पानी का काम करने वालों ने इस कठिन काम को सरल बना लिया, सो बात नहीं है। लेकिन उनने एक कठिन काम को सरलता के साथ करने के तरीके खोज लिए।

कीणना क्रिया है खोदने की और कीणियां हैं कुआं खोदने वाले। मिट्टी का कण-कण पहचानते हैं कीणियां। सिद्ध दृष्टि वाले सीरवी पाताल का पानी 'देखते' हैं और फिर [ ६८ ]
[ ६९ ]सिद्धहस्त कीणियां वहाँ खुदाई प्रारंभ करते हैं। कीणियां कोई अलग जात नहीं, किसी भी जाति में इस काम में निपुण लोग कीणियाँ बन जाते हैं। पर मेघवाल, ओड और भील परिवारों में कीणियां सहज ही निखर आते हैं।

कुएँ का व्यास तय होता है भीतर बह रहे जल की मात्रा से। जल खूब मात्रा में मिलने का अनुमान है तो व्यास बड़ा होगा। तब पानी निकालने के लिए एक नहीं दो या चार चड़स भी लग सकती हैं और वे नीचे से ऊपर आते हुए आपस में टकराएंगी नहीं।

राजस्थान के उन क्षेत्रों में जहाँ भूजल बहुत गहरा नहीं है, वहाँ पूरी खुदाई हो जाने पर, स्रोत मिल जाने पर नीचे से चिनाई की जाती है। यह साधारण पत्थर और ईट से होती है। ऐसी चिनाई सीध यानी सीधी कहलाती है। पर जहाँ भूजल बहुत गहरा है वहाँ लगातार खुदाई करते गए तो मिट्टी धंसने का खतरा रहता है। ऐसे भागों में कुओं में ऊपर से नीचे की ओर चिनाई की जाती है - थोड़ा खोदा, उतना चिन दिया और फिर आगे बढ़े। ऐसी उल्टी चिनाई ऊंध कहलाती है। लेकिन जहां पानी और भी गहरा हो वहाँ साधारण पत्थर की चिनाई, चाहे वह सीध हो या ऊंध, मजबूती नहीं दे सकती। ऐसे स्थानों में हरेक पत्थर को सचमुच तराशा जाता है, हरेक टुकड़ा अपने पास वाले टुकड़े में गुटकों और फांस के सहारे फंस जाता है। गुटका-फांस दाएँ-बाएँ भी रहती है और ऊपर-नीचे भी। इसे सूखी चिनाई कहते हैं। इस तरह तराशे गए पत्थर के टुकड़ों से चिनाई का एक-एक घेरा धीरे-धीरे पूरा होता है और फिर नीचे की खुदाई शुरू हो जाती है।

कहीं-कहीं बहुत गहराई के साथ मिट्टी का स्वभाव कुछ ऐसा रहता है कि ये तीनों तरीके-सीध, ऊंध और सूखी चिनाई से भी काम नहीं चलता। तब पूरे कुएँ में थोड़ी-सी खुदाई और चिनाई गोलाकार में की जाती है। पर अच्छी गहराई आने पर पूरी खुदाई रोककर फांक खुदाई की जाती है। वृत्त की एक चौथाई फांक खोद कर उतने हिस्से की चिनाई कर, उस चौथाई भाग को मजबूती दे दी जाती है। तब उसके सामने का दूसरा


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पाव-भाग खोदते हैं। इस तरह चार हाथ खोदना हो तो उसे चार-चार हाथ के हिस्सों में खोदते हैं, चिनते हैं और नीचे पाताल पानी तक उतरते जाते हैं। बीच में कभी-कभी चट्टान आ जाए तो उसे बारूद लगा कर नहीं तोड़ा जाता। धमाके के झटके ऊपर की चिनाई को भी कमजोर बना सकते हैं। इसलिए चट्टान आने पर उसे धीरज के साथ हाथ से ही तोड़ा जाता है।

फांक खुदाई में थमता धरातल

धरातल और पाताल को जोड़ना है पर सावधानी रखनी है कि धरातल पाताल में धंस न जाए–इसलिए इतनी तरह-तरह की चिनाई की जाती है। गीली चिनाई में भी साधारण गारे चूने से काम नहीं चलता। इसमें ईंट की राख, बेल का फल, गुड़, सन के बारीक कुतरे गए टुकड़े मिलाए जाते हैं। कभी-कभी घरट, यानी बैल से चलने वाली पत्थर की चक्की से पीसा। गया मोटा चूना फिर हाथ की चक्की से भी पीसा जाता है ताकि इतने गहरे और वजनी काम को थामे रहने की ताकत उसमें आ जाए।

भीतर का सारा काम थमते ही ऊपर धरातल पर काम शुरू होता है। यहां कुएं के ऊपर बस एक जगत बना कर नहीं रुक जाते। मरुभूमि में कुओं की जगत पर, उसके ऊपर और उसके आसपास जगत-भर का काम मिलता है। इसके कई कारण हैं। एक तो पानी बहुत गहराई से ऊपर उठाना है। छोटी बाल्टी से तीन सौ हाथ का पानी निकाला तो इतने परिश्रम के बाद क्या मिला? इसलिए बड़े डोल या चड़स से पानी खींचा जाता है। इससे एक बार में आठ-दस बाल्टी पानी बाहर आता है। इतने वजन का डोल खींचने के लिए जो घिरौं, भूण लगेगा वह भी मजबूत चाहिए। उसे जिन खंबों के सहारे खड़ा करेंगे, उन्हें भी इतना वजन सहने लायक होना चाहिए। फिर इतनी मात्रा में पानी ऊपर आएगा तो उसे ठीक से खाली करने का कुंड, उस कुंड में से बह कर आए पानी का एक और बड़े कुंड में संग्रह ताकि वहां से उसे आसानी से लिया जा सके-इस सारी उठापटक [ ७१ ]में थोड़ा बहुत जो पानी जगत पर गिर जाए, उसको भी समेट कर पशुओं के लिए सुरक्षित करने का प्रबंध-सब कुछ करते-करते इन कुओं पर इतना कुछ बन जाता कि वे कुएं न रह कर कभी-कभी तो छोटे-छोटे भवन, विद्यालय और कभी तो महल जैसे लगने लगते।

पानी पाताल से उठा कर लाना हो तो कई चीजों की सहायता चाहिए। इस विशाल प्रबंध का छोटे से छोटा अंग महत्वपूर्ण है, उसके बिना बड़े अंग भी काम नहीं देंगे—हर चीज काम की है इसलिए नाम की भी है।

सबसे पहले तो भूजल के नाम देखें। पाताल पानी तो एक नाम है ही, फिर सेवो, सेजो, सोता, वाकल पानी, वालियो, भुंईजल भी है। तलसीर और केवल सीर भी है। भूजल के अलावा सीर के दो और अर्थ हैं। एक अर्थ है मीठा और दूसरा है कमाई का नित्य साधन। एक तरह से ये दोनों अर्थ भी कुएं के जल के साथ जुड़ जाते हैं। नित्य साधन कमाई की तरह कुआं भी नित्य जल देता है पर तेवड़ यानी किफायत, मितव्ययिता या ठीक प्रबंध के बिना यह कमाई पुसाती नहीं है।

फिर इस भवकूप में संसार रूपी कुएं में कई तरह के कुएं हैं। द्रह, दहड और दैड कच्चे, बिना बंधे कुएं के नाम हैं। ब और व के अंतर से बेरा, वेरा, बेरी, वेरी हैं। कूंडो, कूप और एक नाम पाहुर भी है। कहते हैं किसी पाहुर वंश ने एक समय इतने कुएं बनवाए थे कि उस हिस्से में बहुत लंबे समय तक कुएं का एक नाम पाहुर ही पड़ गया था। कोसीटो या कोइटो थोड़ा कम गहरा कुआं है तो कोहर नाम है ज्यादा गहरे कुएं का। बहुत से क्षेत्रों में भूजल खूब गहरा है इसलिए गहरे कुओं के नाम भी खूब हैं जैसेः पाखातल, भंवर कुआं, भमलियो, पाताल कुआं और खारी कुआं। वैरागर चौड़े कुएं का नाम है, तो चौतीना उस कुएं का जिस पर चार चड़सों द्वारा चारों दिशाओं से एक साथ पानी निकाला जाता है। चौतीना का एक नाम चौकरणो भी रहा है। फिर बावड़ी, पगबाव या झालरा हैं सीढ़ीदार ऐसे कुएं, जिनमें पानी तक सहज ही उतरा जा सकता है। और केवल पशुओं को पानी पिलाने के लिए बने कुओं का नाम पीचको या पेजको है।

गहरे कुओं में बड़े डोल या चड़स का उपयोग होता है। एक साधारण घड़े में कोई २० लीटर पानी आता है। डोल दो-तीन-घड़े बराबर पानी लाता है। चड़स, कोस या मोट सात घड़े की होती है। इसका एक नाम पुर और गांजर भी है। इन सबमें खूब मात्रा में पानी भरता है और इसलिए इस वजनी काम को करने, इसे दो-तीन सौ हाथ ऊपर खींचने और फिर खाली करने में कई तरह के साधन और उतनी ही तरह की सावधानी की जरूरत रहती है। चड़स खिंचती है बैलजोड़ी या एक ऊंट से। उन्हें भी इतना भार खींच कर ऊपर [ ७२ ]
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लाने में ज़्यादा श्रम न लगाना पड़े, इसलिए ऐसे कुओं के साथ सारण बनती है। सारण है एक ढलवां रास्ता, जिस पर बैल चड़स को खींचते समय चलते हैं। सारण की ढाल के कारण ही उनका कठिन काम कुछ आसान बनता है। सारण का एक अर्थ काम निभाने या बनाने वाला भी है और सारण सचमुच गहरे कुएं से पानी खींचने का काम निभाती है। जो बैल जोड़ी सारण के एक छोर से चलेगी, वह इस लंबी सारण के दूसरे ढलवा छोर पर जाकर बहुत धीरे-धीरे ऊपर चढ़ेगी, दुबारा पानी खींचने में इस तरह काफी समय लगेगा। इसलिए सारण की कुल लंबाई कुएं की कुल गहराई से आधी रखी जाती है और बैलों की एक की खींचा जाता है।

तीन सौ हाथ गहरे कुएं में चड़स के भरते ही पहली जोड़ी ढलवां सारण पर डेढ़ सौ हाथ उतर कर चड़स को कुएं में आधी दूरी तक खींच लाती है। तभी उस रस्सी को बड़ी चतुराई से क्षण भर में दूसरी जोड़ी से जोड़ दिया जाता है और उधर पहली जोड़ी को खोल कर रस्सी से अलग हटा कर चढ़ाई पर हांक कर ऊपर लाया जाता है। इधर दूसरी जोड़ी बचे डेढ़ सौ हाथ की दूरी तक चड़स खींच लाती है। चड़स भलभला कर खाली होती है-पाताल का पानी धरातल पर बहने लगता है।

एक बार की यह पूरी क्रिया बारी या वारी कहलाती है। इस काम को करने वाले बारियी कहलाते हैं। इतनी वजनी चड़स को कुएं के ऊपर खाली करने के काम में बल और बुद्धि दोनों चाहिए। जब भरी चड़स ऊपर आकर थमती है तो उसे हाथ से नहीं पकड़ सकते-ऐसा करने में बारियो भरी वजनी चड़स के साथ कुएं में भीतर खींच लिया जा सकता है। इसलिए पहले चड़स को धक्का देकर उलटी तरफ धकेला जाता है। वजन के कारण वह दुगने वेग से फिर वापस लौटती है, और जगत तक आ जाती है तब झपट कर उसे खाली कर लिया जाता है।

बारियो के इस कठिन काम का समाज में एक समय बहुत सम्मान था। गांव में बरात आती थी तो पंगत में बारियों को सबसे पहले आदर के साथ बिठाकर भोजन कराया जाता था। बारियो का एक संबोधन चड़सियो यानी चड़स खाली करने वाला भी रहा है। [ ७४ ]

बारियो का जोड़ीदार है खांभी, खांभीड़ो। खांभी सारण में बैलों को हांकता है। आधी दूरी पार करने पर खांभीडो चड़स की रस्सी को एक विशेष कील के सहारे पहली जोड़ी से खोल कर दूसरी जोड़ी से बांधता है। इसलिए खांभीड़ो का एक नाम कीलियो भी है।

बैलजोड़ी और चड़स को जोड़ने वाली लंबी और मजबूत रस्सी लाव कहलाती है। यह रस्सी घास, या रेशों से नहीं बल्कि चमड़े से बनती है। घास या रेशों से बनी रस्सी इतनी मजबूत नहीं हो सकती कि दो मन चड़स दिन भर ढोती रहे। फिर बार-बार पानी में डूबते-उतरते रहने के कारण वह जल्दी सड़ भी सकती है। इसलिए चड़स की रस्सी चमड़े की लंबी-लंबी पट्टियों को बट कर बनाई जाती है। उपयोग के बाद इसे किसी ऐसी जगह टांग कर रखा जाता है, जहां चूहे न कुतर सकें। ठीक संभाल कर रखी गई लाव पन्द्रह-बीस बरस तक पानी खींचती रहती है।

लाव का एक नाम बरत भी है। बरत में भैंस का चमड़ा काम आता है। मरुभूमि में गाय-बैल और ऊंट ज्यादा हैं। भैंस का तो यह क्षेत्र था नहीं। पर इस काम के लिए पंजाब से भैंस का चमड़ा यहां आता था और जोधपुर, फलोदी, बीकानेर आदि में उसके लिए अलग बाजार हुआ करता था। कहीं-कहीं चड़स के बदले कोस काम आता था। उसे बैल या ऊंट की खाल से बनाया जाता था।

कम गहरे लेकिन खूब पानी देने वाले कुएं में चड़स, या कोस के बदले सूंडिया से पानी निकाला जाता है। सूंडिया भी है तो एक तरह की चड़स ही पर यह कुएं से ऊपर आते ही अपने आप खाली हो जाती है। इंडिया का आकार ऊपर से तो चड़स जैसा ही रहता है पर नीचे इसमें हाथी की सूंड जैसी एक नाली बनी रहती है। इसमें दो रस्सियां लगती हैं। ऊपर मुख्य वजन खींचने वाली चमड़े की रस्सी यानी बरत रहती है और फिर एक हल्की रस्सी सूंड के मुंह पर बांधी जाती है। कुएं के भीतर जाते समय सूंड का मुंह मुड़ कर बंद हो जाता है। पानी भर जाने के बाद ऊपर आते समय भी यह बंद रहता है पर जगत पर आते ही यह खुल जाता है और सूंडिया का पानी क्षण-भर में खाली हो जाता है।

सूंडिया वाले कुएं पर एक नहीं, दो चरखी लगती है। ऊपर की चरखी तो भूण है फिर भूण से चार हाथ नीचे सूंडिया की सूंड को खोलने वाली एक और घिरी लगती है। यह गिड़गिड़ी कहलाती है। भूण को तो सारा वजन ढोना है इसलिए उसका आकार पहिए [ ७५ ]

सूंडिया चड़स

जैसा रखा जाता है पर गिड़गिड़ी को हल्का काम करना है इसलिए वह बेलन जैसे आकार की बनती है।

नाम और काम की सूची समाप्त नहीं होती है। सूंडिया का मुख्य गोल मुंह जिस लोहे के तार या बबूल की लकड़ी के घेरे में कसा जाता है वह है पंजर। पंजर और चमड़े को बांधते हैं कसण । मुंह को खुला रखने लकड़ी का जो चौखट लगता है उसे कहते हैं कलतरू। कलतरू को मुख्य रस्सी यानी बरत से जोड़ने के लिए एक और रस्सी बंधती है, उसका नाम है तोकड़। लाव के एक छोर पर यह बंधी है, तो दूसरे छोर पर खड़ी है बैलजोड़ी। जोड़ी के कंधों पर चड़स खींचने जुआनुमा जो बंधा है, उसका नाम है पिंजरो। इसी पिंजरो में दोनों बैलों की गर्दन अटकाई जाती है। पिंजरो में चार तरह की लकड़ियां ठुकती हैं और चारों के नाम अलग-अलग हैं। संडिया ऊपर लंबाई में लगने वाली वजनी लकडी कोकरा है, नीचे की हल्की लकडी फट कहलाती चड़स है। चौड़ाई में लगने वाली पहली दो पट्टियों का नाम गाटा है तो भीतर की दो का नाम धूसर।

ये सारे नाम और काम कुछ जगहों पर, कुछ कुओं पर बिजली और डीजल के पंपों के कारण कुछ धुंधले पड़ने लगे हैं। इन नए पंपों में चड़स, कोस की तेवड़ यानी मितव्ययिता नहीं है। बहुत से साठी, चौतीनो कुएं आज बैलों के बदले 'घोड़ों' से यानी हार्स पावर से पहचाने जाने वाले पंपों से पानी उलीच रहे हैं। पिछले दौर में कई नई-पुरानी बस्तियों में नए नल लग गए हैं। पर उनमें पानी ऐसे ही पुराने साठी या चौतीनो कुओं पर लगे पंप से फेंका जाता है। नए से दिख रहे नलों में भी राजस्थान की जल परंपरा की धारा बहती है। कहीं यह धारा टूटी भी है। इसका सबसे दुखद उदाहरण जोधपुर जिले के ७४ फलोदी शहर में सेठ सांगीदासजी के साठी कुएं का है। कुआं क्या, वह तो वास्तुकला की गहराई-ऊंचाई नाप ले। [ ७६ ]

पत्थर का सुंदर अष्टकोणी बड़ा कुआं, आठ में से चार भुजाओं का विस्तार लंबे चबूतरों के रूप में चारों दिशाओं में बाहर निकलता है। फिर हरेक चबूतरे पर चार छोटे अष्टकोणी कोठे और फिर उनसे जुड़े चार और बड़े गहरे कोठे। हरेक कोठे के साथ बाहर की तरफ हर ऊंचाई के पशुओं के लिए पानी पीने की सुविधा देने वाली सुंदर खेलियां। चारों चबूतरों के बीच से निकलती चार सारणें, जिन पर एक ही बार में चारों दिशाओं में चार बैलजोड़ियां कोस से पानी निकालने की होड़ करती थीं।


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आज इसे थका दिया गया है

उन्नीसवीं सदी के इस साठी कुएं ने बीसवीं सदी भी आधी पार कर ली थी। फिर सन् १९५६ में यह सांगीदासजी के परिवार के हाथ से नगरपालिका के हाथ में आ गया। चार सारणों पर बैलजोड़ियों का दौड़ना थम गया। सुंदर कुएं के ठीक ऊपर एक बेहद भद्दा कमरा बनाया गया, बिजली लगी और कुएं में तीन सौ पांच फुट की गहराई पर पंद्रह हार्स पावर का एक पंप बिठा दिया गया। पानी अथाह था। यदि चौबीस घंटे शहर में बिजली रहे तो वह दिन-रात चलता था और हर घंटे हजार गैलन पानी ऊपर फेंकता था। फिर पंप की मोटर को पंद्रह से बढ़ा कर पच्चीस हार्स पावर में बदला गया। साफ-सफाई होना बंद हो गया, बस पानी खींचते चले गए। पानी कुछ कम होता दिखा, कुएं ने संकेत दिया कि काम तो पूरा ले रहे हो पर सार संभाल भूल गए हो। नगरपालिका ने संकेत का अर्थ कुछ और ढंग से लिया। सत्तर फुट की बोरिंग और कर दी। तीन सौ हाथ गहरे कुएं में सत्तर फुट और जुड़ गए। लेकिन सन् ९० तक आते-आते कुआं थक गया। फिर भी थके-मांदे कुएं ने और चार साल तक शहर की सेवा की। मार्च १९९४ [ ७८ ]

में सेठ सांगीदासजी का कुआं जवाब दे गया।

पानी इसमें आज भी है पर सफाई के अभाव में सोते पुर गए हैं। सफाई के लिए इतने नीचे कौन उतरे? जिस शहर में इतना गहरा कुआं खोदने वाले कीणियां मिलते थे, उसे पत्थर से बांधने वाले गजधर मिलते थे, आज वहां नगरपालिका उसे साफ करने वालों को ढूंढ नहीं पा रही है।

चौतीना कुआं, बीकानेर

लेकिन बीकानेर शहर में १८वीं सदी में बना भव्य चौतीना कुआं आज भी न सिर्फ मीठा पानी दे रहा है, इसी 'कुएं' में नगरपालिका का दफ्तर चल रहा है, आसपास के मोहल्लों के बिजली-पानी के बिल जमा होते हैं और जल विभाग के कर्मचारियों की यूनियन का भी काम चलता है। पहले कभी चार सारणों पर आठ बैलजोड़ियां पानी खींचती थीं। अब यहां भी बिजली के बड़े-बड़े पंप लगे हैं, दिन-रात पानी उलीचते हैं, पर चौतीना की थाह नहीं ले पाते। हर समय बीस-पच्चीस साइकिलें, स्कूटर और मोटर गाड़ियां कुआं, कुएं पर खड़ी मिलती हैं। इन सबको अपने विशाल हृदय में समेटता यह कुआं कहीं बीकानेर से भी, दूर से या बिलकुल पास से भी कुआं नहीं, किसी छोटे सुंदर रेलवे स्टेशन, बस स्टेंड या छोटे महल की तरह दिखता है।

और वहां एक नहीं, अनेक कुएं हैं, सिर्फ वहीं नहीं, हर कहीं ऐसे कुएं हैं, कुंई, कुंड और टांके हैं। तालाब हैं, बावड़ी, पगबाव हैं, नाडियां हैं, खडीन, देईबंध जगह हैं, भे हैं, जिनमें रजत बूंदें सहेज कर रखी जाती हैं। माटी, जल और ताप की तपस्या करने वाला यह देस बहते और ठहरे पानी को निर्मल बना कर रखता है, पालर पानी, रेजाणी पानी और पाताल पानी की एक-एक बिंदु को सिंधु समान मानता है और इंद्र की एक घड़ी को अपने लिए बारह मास में बदलता है।

कभी क्षितिज तक लहराने वाला अखंड समुद्र हाकड़ो यहां आज भी खंड-खंड होकर उतरता है।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।