राजस्थान की रजत बूँदें/ जल और अन्न का अमरपटो

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राजस्थान की रजत बूँदें  (1995) 
द्वारा अनुपम मिश्र
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जल और अन्न का अमरपटो

ज्ञानी ने पूछा, 'कौन-सा तप सबसे बड़ा है?” सीधे-सादे ग्वाले ने उत्तर दिया, "आंख रो तो तप भली।"

आंख का ही सबसे बडा़ तप है। अपने आसपास के ससांर को ठीक ढंग देखने का अनुभव और पीढ़ियों के ऐसे अनुभव से बना एक दृष्टिकोण - यह तप इस लोक के जीवन को सरल बनाता है। आंख के इस तप ने जल के साथ साथ मरुभूमि में अन्न जुटाने की भी अनोखी साधना की। इसका साधन बनी खडीन।

लूनी नदी जैसे एकाध अपवाद छोड़ दें तो मरुभूमि में अधिकांश नदियां बारहमासी नहीं हैं। ये कहीं से प्रारंभ होती हैं, बहती हैं और फिर मरुभूमि में ही विलीन हो जाती हैं। पर आंख के तप ने प़वाह के पथ को बडी़ बारीकी से देख कर कई ऐसे स्थान चुने, जहां इनका पानी रोका जा सकता है। [ ६३ ]

되 राजस्थान की रजत बूंदें ऐसे सब स्थानों पर खडीन बनाई गई। खडीन एक तरह का अस्थाई तालाब है। दो तरफ मिट्टी की पाल उठा कर तीसरी तरफ पत्थर की मजबूत चादर लगाई जाती है। खडीन की पाल धोरा कहलाती है। धोरे की लंबाई पानी की आवक के हिसाब से कम ज्यादा होती है। कई खडीन पांच सात किलोमीटर तक चलती हैं। वर्षा के दिनों में चलती नदी खडीन में बांध ली जाती है। पानी और बहे तो चादर से बाहर निकल कर उसी प्रवाहपथ पर बनी दूसरी-तीसरी खडीनों को भी भरता चलता है। खडीन में आराम करती हुई यह नदी धीरे-धीरे सूखती जाती है पर इस तरह वह खडीन की भूमि को नम बनाती जाती है। इस नमी के बल पर खडीनों में गेहूं आदि की फसल बोई जाती है। मरुभूमि में जितनी वर्षा होती है उस हिसाब से यहां गेहूं की फसल लेना संभव ही नहीं था। पर यहां कई जगहों पर, विशेषकर जैसलमेर में सैकड़ों वर्षों पहले इतनी खडीन बनाई गई थीं कि इस जिले के एक क्षेत्र का पुराना नाम खडीन ही पड़ गया था।

खडीनों को बनाने का श्रेय पालीवाल ब्राह्मणों को जाता है। कभी पाली की तरफ से यहां आकर बसे पालीवालों ने जैसलमेर के राज को अनाज से भर दिया था। इस भाग में इनके चौरासी गांव बसे थे। गांव भी एक से एक सुंदर और हर तरह से व्यवस्थित । [ ६४ ]

 चौपड़ की तरह दाएं-बाएं काटती चौड़ी सड़कें, सीधे कतारों में बने पत्थर के सुंदर बड़े-बड़े मकानों की बस्ती, और बस्ती के बाहर दस-पांच नाडियां, दो-चार बड़े तालाब और फिर दूर क्षितिज तक फैली खडीनों में लहराती फसलें - इन गांवों में स्वावलंबन इतना सधा था कि अकाल भी यहां के अनाज के ढेर में दब जाए।

इस स्वावलंबन ने इन गांवों को घमंडी नहीं बनाया लेकिन स्वाभिमानी इतना बनाया कि राजा के एक मंत्री से किसी प्रसंग में विवाद बढ़ने पर पूरे चौरासी गांवों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ और निर्णय हुआ कि यह राज्य छोड़ देना है। वर्षों के श्रम से बने मकान, तालाब, खडीन, नाडी - सब कुछ ज्यों का त्यों छोड़ पालीवाल एक क्षण में अपने चौरासी गांव खाली कर गए।

उसी दौर में बनी ज्यादातर खडीनें आज भी गेहूं दे रही हैं। अच्छी वर्षा हो जाए, यानी जैसलमेर में जितना कम पानी गिरता है, उतना गिर जाए तो खडीन एक मन का पंद्रह से बीस मन गेहूं वापस देती हैं। हर खडीन के बाहर पत्थर के बड़े-बड़े रामकोठे बने रहते हैं। इन्हें कराई कहते हैं। कराई का व्यास कोई पंद्रह हाथ होता है और उंचाई दस हाथ। उड़ावनी के बाद अनाज खलियानों में जाता है और भूसा कराई में रखा जाता है। एक कराई में सौ मन तक भूसा रखा जा सकता है। यह भूसा सूकला कहलाता है।

तालाबों की तरह खडीनों के भी नाम रखे जाते हैं और तालाबों के अंगों की तरह ही खडीनों के विभिन्न अंगों के भी नाम हैं। धोरा है पाल। धोरा और पत्थर की चादर को जोड़ने वाला मजबूत बंध पानी के वेग को तोड़ने के लिए अर्धवृत्ताकार रखा जाता है। इसे पंखा कहते हैं। दो धोरे, दो पंखे, एक चादर और अतिरिक्त पानी को बाहर निकालने का नेष्टा भी - सभी कुछ पूरी सावधानी से बनाया जाता था। बारहमासी न सही पर चौमासी यानी बरसाती नदी का वेग भी इतना होता है कि जरा-सी असावधानी पूरी खडीन को बहा ले जाए।

बहुत-सी खडीनें समाज ने बनाईं तो कुछ प्रकृति देवी ने भी। मरुभूमि में प्राकृतिक रूप से कुछ भाग ऐसे हैं जहां तीन तरफ से आड़ होने के कारण चौथी तरफ से बह कर आने वाला पानी वहीं रुक जाता है। इन्हें देवी बंध कहते हैं। यही फिर बोलचाल में दईबंध भी हुआ और किसी एक नियम के कारण इसे 'दईबंध जगह' कहने लगे।

खडीन और दईबंध जगह चौमासी चलती नदी से भरते हैं। चलती-बढ़ती नदी यहां-वहां मुड़ती भी है। इन मोड़ों पर पानी का तेज बहाव भूमि को काटता है और वहां एक [ ६५ ]

कुलधरा, जैसलमेर

छोटा डबरा-सा बन जाता है। नदी बाद में सूख जाती है पर इस जगह कुछ समय तक पानी बना रहता है। यह जगह भे कहलाती है। भे का उपयोग बाद में रेजाणी पानी पाने के लिए किया जाता है।

खेतों में भी कुछ निचले भागों में कहीं-कहीं पानी ठहर जाता है। इन्हें डहरी, डहर या डैर कहते हैं। इहरियों की संख्या भी सैकड़ों में जाती है। इन सब जगहों पर पालर पानी रोका जाता है, फिर उसे रेजाणी में बदलने का अवसर मिलता है। इसकी मात्रा कम है या ज्यादा-ऐसा रत्ती भर नहीं सोचा जाता। रजत तोला हो या रत्ती, वह तो तुलता ही है। रजत बूंदें चार हाथ की डहरी में आने लायक हों या चार कोस की खडीन में, उनका तो संग्रह होता ही है। कुंई, पार, कुंड, टांकें, नाडी, तलाई, तालाब, सरवर, बेरे, खडीन, दईबंध जगह, डेहरी और भे इन रजत बूंदों से भरते हैं, कुछ समय के लिए सूखते भी हैं पर मरते नहीं।

ये सब आंख के तप से लिखे जल और अन्न के अमरपटो, अमर लेख हैं ।

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