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राबिन्सन-क्रूसो/अतिथि-सेवा

विकिस्रोत से
राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १९५ से – १९९ तक

 

अतिथि-सेवा

स्पेनियर्ड और फ़्राइडे के पिता को उठा कर हम लोग अपने पहले घेरे के भीतर तो ले आये। अब देखा कि दूसरे घेरे को लाँघ कर उनको भीतर ले जाना कठिन है। घेरा काट डालने को भी जी नहीं चाहता था। तब मैंने फ़्राइडे की सहायता से शीघ्र ही एक झोपड़ा तैयार किया। उसके ऊपर डाल-पात का छप्पर कर दिया। भीतर पयाल पर कम्बल बिछा कर दो बिछौने कर दिये।

फिर आसन्न मृत्यु के मुख से रक्षा प्राप्त इन दोनों दुर्बल व्यक्तियों के आश्रय और आराम की व्यवस्था कर के मैं उनके खान-पान का प्रबन्ध करने लगा। फ़्राइडे को एक बकरा काटने की आज्ञा दी। आज्ञा पाते ही उसने बकरे को काट-बना कर उसका माँस पका दिया। फ़्राइडे के हाथ का बना खाना बहुत साफ़ सुथरा और स्वादिष्ट होता था। मैंने नये तम्बू में टेबल पर खाने की सामग्री को भली भाँति सजा कर सब के साथ बैठ कर भोजन किया और भोजन करते करते उन दोनों अतिथियों को आश्वासन दिया। फ़्राइडे दुभाषिया बन कर मेरी बातें अपने बाप तथा स्पेनियर्ड को समझा देता था। स्पेनियर्ड उस असभ्य भाषा में भली भाँति बातें कर सकता था।

खाने-पीने के बाद मैंने फ़्राइडे से कहा कि युद्ध-क्षेत्र में मेरी बन्दूक़ें आदि जो चीजें पड़ी हों उन्हें तुम एक नाव ले जाकर उठा लाओ।" उसके दूसरे दिन उसी के द्वारा कुल मुर्दोंको मिट्टी में गड़वा दिया। कारण यह कि बाहर उन्हें यों हीं छोड़ देने से इस द्वीप में रहना कठिन हो जाता। उसने सब काम अच्छी तरह कर दिया। युद्ध का या असभ्यों का एक भी चिह्न न रहने दिया।

अब मेरे टापू में प्रजा की संख्या तीन हुई। पहले था मैं राजा, अब मानो हुआ सम्राट! यह भावना मेरे मन में बड़ा ही हर्ष उपजाती थी। मैं ही समग्र द्वीप का अधीश्वर हूँ। मेरी प्रजा का जीवन-मरण मेरे ही हाथ में है। मैंने उनके जीवन की रक्षा की है, वे मेरी आज्ञा से प्राण देने को प्रस्तुत हैं। किन्तु प्रजा के तीनों आदमियोंका धर्म और मत तीन तरह का था। फ़्राइडे प्रोटेस्टेन्ट (protestant) किरिस्तान था, उसका पिता नास्तिक था, और स्पेनियर्ड कैथलिक किरिस्तान था। किन्तु मैं इससे क्षुण्ण न था। मेरे राज्य में मज़हब की स्वाधीनता है। इसमें मैं अपना गौरव समझता था।

मैं फ़्राइडे को मध्यस्थ कर के अपने नवीन अतिथियों के साथ वार्तालाप करने में प्रवृत्त हुआ। मैंने फ़्राइडे के बाप से पूछा-"तुम क्या सोचते हो, इन चार भगोड़ों के मुँह से खबर पाकर क्या असभ्य गण दल बाँध कर यहाँ आवेंगे और मुझ पर आक्रमण करेंगे?" उसने कहा, "मेरा ख़याल तो ऐसा नहीं है। जैसी तेज़ हवा बह रही थी उससे यही मालूम होता है कि नाव डूब जाने से वे लोग मर गये होंगे या दूसरे देश में पहुँच गये होंगे। दूसरे देश के लोग उन्हें जीते जी कब जाने देंगे। कदाचित् वे बच कर अपने देश को लौट भी गये होंगे तो भी अब इस देश में न आवेंगे क्योंकि वे आपस में कह रहे थे कि 'दो स्वर्गीय देवों ने आकर वज्राघात से उन सब को मार डाला है,।' उन असभ्यों ने मुझको और फ़्राइडे को देव समझ रक्खा और बन्दूक़ की आवाज़ को वज्रनाद मान लिया था। वे असभ्य लोग आवे चाहे न आवें पर हम लोग सर्वदा चौकन्ने रहने लगे। अब हम लोग चार आदमी हुए। सौ आदमियों का सामना कर सकेंगे-ऐसा जी में भरोसा हुआ।

अब फिर छुटकारे की चिन्ता होने लगी। फ़्राइडे के पिता ने भी मुझको भरोसा दिया कि उनके देश में जाने पर सब लोग मेरे साथ सद्व्यवहार करेंगे। स्पेनियर्ड ने भी कहा कि उस देश में जो और पोर्चुगीज़ और स्पेनियर्ड लोग हैं उन लोगों के साथ कोई बुरे तौर से पेश नहीं आता। सभी लोग उनका सम्मान करते हैं। वहाँ जाने पर वे लोग भी मेरा सम्मान करेंगे। मैंने कहा, "यदि मैं वहाँ न जाऊँ और उन यूरोपियनों के यहीं बुला लूँ तो हम लोग मिल कर एक बहुत बड़ा जहाज़ बना सकेंगे। किन्तु सच तो यह है कि मनुष्य एक विचित्र जीव होता है। जब तक उन लोगों को अपना मतलब निकालना होगा तब तक तो वे मेरा उपकार मानेंगे पीछे से चाहे मेरा ही सर्वनाश करेंगे। जानते तो हो, स्पेन और इंगलैन्ड की चिरशत्रुता है"। स्पेनियर्ड ने इस बात का प्रतिवाद कर के कहा-यह बात अब नहीं है, उसका आप भय न करे। वे लोग वहाँ बेकार पड़े हैं, इससे किसी तरह का साहाय्य पाने ही से वे कृतार्थ होंगे। आप कहें तो मैं वहाँ जाकर और उन लोगों का अभिप्राय जान कर फिर यहाँ आ सकता हूँ। उन लोगों के पास अस्त्र-शस्त्र, कपड़े-लत्ते आदि कुछ नहीं हैं। असभ्यों की दया के भरोसे बैठे हैं। वे लोग आपसे सहायता पाने पर आपकी आज्ञा के अनुसार चलेंगे, क्योंकि वे सभी भद्र और सहृदय हैं। आपके स्वामी समझ कर चिरकाल तक आपकी सेवा करेंगे और आपही की आज्ञा पर अपने जीवन-मरण को निर्भर करेंगे। स्पेनियर्ड की बात सुन कर मैं उन लोगों की सहायता करने के राज़ी हुआ और उसे वहाँ भेजने का प्रबन्ध भी करने लगा। किन्तु उसने एक आपत्ति की। उस आपत्ति में दीर्घदर्शिता और सत्यता दोनों का परिचय मिला। स्पेनियर्ड मेरे पास एक महीने से है। मेरा जीवन-निर्वाह किस तरह होता है, इसे वह अच्छी तरह समझ गया है। सब अपनी आँखों देख चुका है। मेरे पास जो संचित अनाज था वह एक आदमी के लिए यथेष्ट था किन्तु अभी तो वह चार मुँह में जाता है। उस पर यदि और यूरोपियन आई आ जायँ तो उतने अनाज से कै दिन गुज़र होगी। इसलिए एक फ़सल अन्न खूब अधिकता से उपजा कर तब उन लोगों को बुलाना ठीक होगा। नहीं तो वे लोग एक विपत्ति से निकल दूसरी विपत्ति में आकर अप्रसन्न हो सकते हैं।

उसकी इस सलाह से प्रसन्न हो कर हम चारों आदमी खेती के काम में प्रवृत्त हुए। एक महीने बाद ज़मीन के अच्छी। तरह जोत गोड़ कर बीज बो दिया।

साथी मिल जाने से मैं अब निर्भय होकर टापू में जहाँ जी चाहता, जाता था। मैं चुन चुन कर पेड़ दिखलाने लगा और फ़्राइडे तथा उसका बाप देने उन्हें काटने लगे। स्पेनियर्ड को मैंने उनकी देखभाल पर नियुक्त किया। मैंने जिस तरह एक एक पेड़ से एक एक तख्ता निकाला था उसी तरह निकालना उन्हें भी बता दिया। क्रमशः उन्होंने एक दर्जन बड़े बड़े तख्ते तैयार किये। भावुक व्यक्ति सोच कर स्वयं समझ सकते हैं कि उस तरह तख़्ता निकालना कैसे कठिन परिश्रम का फल है। इसके बाद पारी बाँध कर हम और फ्राइडे एक दिन और स्पेनियर्ड और फ़्राइडे का पिता दूसरे दिन बकरे पकड़ने के लिए जाने लगे। थोड़े ही दिनों में हम लोगों ने बीस पचीस बकरे और बढ़ा लिये। इसके अनन्तर हम लोगों ने पचास-साठ मन सूखे अंगूर इकट्ठे कर लिये। फसल तैयार होने पर धान और जौ भी बहुत हुए। अनाज रखने के लिए और कितनी ही टोकरियाँ बुननी पड़ीं। स्पेनियर्ड इस काम में बड़ा दक्ष निकला। खाद्य-सामग्री पूर्णरूप से सञ्चित हो जाने पर मैंने स्पेनियर्ड से उनके साथियों को बुला लाने को कहा। उससे मैंने अच्छी तरह समझा कर कह दिया कि जो व्यक्ति शपथपूर्वक मेरा अनुगत होना स्वीकार न करें उन्हें न लाना। जो लोग मेरी अधीनता स्वीकार करें उन के स्वीकृति-पत्र पर मेरी अनुगामिता के विषय में हस्ताक्षर करना होगा। उस समय मुझे इसका खयाल न रहा कि उन लोगों के पास स्याही, कलम और कागज़ भी तो कुछ न होगा। जो हो, स्पेनियर्ड और फ़्राइडे के पिता डोंगी पर सवार हो कर चले गये। मैंने उनके साथ दो बन्दूक़ें, कुछ गोली-बारूद और आठ दिन का भोजन रख दिया। आज सत्ताइस वर्ष के अनन्तर अपने उद्धार की इस प्रकृत आयोजना से मेरा हृदय आनन्द से आप्लावित हो रहा था। कुँवार की पूर्णिमा की रात में अनुकूल वायु देख कर वे दोनों रवाना हुए।