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राबिन्सन-क्रूसो/कृषि-कर्म्म

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राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ९८ से – १०१ तक

 

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कृषि-कर्म्म

आज ३० वीं सितम्बर है। आज इस द्वीप में आने का मेरा वार्षिक दिन है। लकड़ी के तख़्ते पर तारीख़ के चिह्नों को गिन कर देखा, यहाँ आये ३६५ दिन हो गये। आज के दिन मैंने उपवास किया। दिन भर भूखा रह कर मैंने बड़े विनीत भाव से केवल परमेश्वर का भजन किया। सूर्यास्त होने पर एक बिस्कुट और थोड़े से सूखे अंगूर खाकर पारण किया। इसके पहले, धर्म क्या चीज़ है इसे कुछ न समझ कर, मैं पर्व के दिन भी परमेश्वर का नाम न लेता था। इस समय मैंने अपनी काष्ठ-पञ्ची (पत्रा) की दिन-संख्या के चिह्न के सात सात विभाग करके रविवार का निर्णय करलिया। पीछे से मुझे मालूम हुआ कि गिनती में एक दिन किसी तरह कम हो गया है। मेरे पास स्याही बहुत कम रह गई थी, इसलिए जीवन की विशेष घटना को छोड़ और दैनिक समाचार नहीं लिख सकता था। पहले लिखा जा चुका है कि मेरे घर के पास कुछ जौ और धान के पौधे उपजे थे। उनमें से मैंने तीस बालें धान की और बीस जौ की, बीज बोने के लिए, रख छोड़ी थीं। बरसात के बाद मैंने सोचा कि बीज बोने का यह उपयुक्त समय है। मैंने अपने काठ के कुदाल से ज़मीन खोद कर उसे दो हिस्सों में बाँटा। बीज बोते समय इस बात पर ध्यान गया कि "ज़मीन की पहचान और फ़सल बोने का समय मैं ठीक ठीक नहीं जानता, अतएव एक ही बार सब बीजों को बो देना बुद्धिमानी न होगी।" यह सोच कर मैंने एक एक मुट्ठी बीज दोनों में से रख कर बाक़ी बो दिया। मैंने यह बड़ी अक्लमन्दी का काम किया, क्योंकि बरसात बीत जाने पर वृष्टि के अभाव से एक भी बीज अङ्कुरित न हुआ। किन्तु दूसरे साल वही बीज, वर्षा का पानी पाकर, सब के सब उग आये जैसे नया बीज बोया गया हो। परन्तु उस समय बीज को निष्फल होते देख मैं खेती के उपयुक्त ज़मीन ढूढँने लगा। मेरे कुञ्जभवन के पास एक जमीन का टुकड़ा था। उसे मैंने खेत के लायक पसन्द कर के जोत गोड़ कर आबाद किया और फ़रवरी के अन्त में बीज बोया। मार्च और अपरैल की वर्षा का पानी पाकर बड़े सुन्दर पौदे निकले और फले भी खूब। किन्तु इस दफ़े भी मैं सब बीज बोने का साहस न कर सका। इसलिए पूरे तौर से मुझे फ़सल भी न मिली। जो हो, दो बार परीक्षा करने से मुझे अभिज्ञता हो गई कि खेती का ठीक समय कब होता है। साल में दो बार बीज बोने और फ़सल तैयार करने का समय आता है।

धान के पौदे क्रमशः बढ़ने लगे। नवम्बर में आकर वर्षा रुक गई। मैं फिर अपनी विनोदवाटिका में गया। यधपि कई
महीनों से वहाँ नहीं गया था तथापि वहाँ जिन वस्तुओं को जैसे रख आया था उन्हें उसी रूप में पाया। कुञ्जनभवन के चारों ओर जिन पेड़ों का घेरा दिया था, वे अब अच्छी तरह लग गये हैं और उनकी डालें तथा पत्ते चारों ओर फैल गये हैं। मैंने उनके नूतन डाल पत्तों को छाँट कर एक सा कर दिया। तीन वर्ष में वे पेड़ से झंखाड़ होकर, पचीस फुट व्यास के एक वृत्ताकार स्थान को अपनी शाखाओं से ढक कर, शोभायमान होने लगे। उन्होंने एक ऐसा सुन्दर छायाशीतल कुञ्जवितान निर्माण किया कि उसकी शोभा बरनी नहीं जाती। यह देख कर मेरे मन में यह इच्छा हुई कि अपने निवास-स्थान के सामने अर्घ वृत्ताकार में इन पेड़ों का एक घेरा बनाऊँ। पहले के घेरे से आठ फुट के अन्तर पर इन पेड़ों को मैंने पंक्तिबद्ध रोप दिया। पेड़ शीघ्र ही लग गये और पल्लवित होकर प्रथम तो घर के आच्छादक और दूसरे रक्षा के कारण हो उठे।

यहाँ विलायत की तरह ठण्ड और गरमी नहीं पड़ती थी। यहाँ साल में दो मौसम, एक वर्षा और दूसरा वसन्त अर्थात् जाड़े और गरमी का मध्य समय होता था। वर्षा का दारमदार हवा पर था। जब मौसमी हवा चलती थी तब बीच बीच में भी पानी बरस जाता था। वर्षा में भीग कर मैं एक बार बीमारी से बहुत कष्ट भोग चुका था, इस कारण अब की वर्षा में यथासंभव घर ही में रहता था। इस अवकाश के समय टोकरी बुनने के लिए मैंने बहुत चेष्टा की किन्तु इसके लिए उपयुक्त समग्री न मिलती थी। मैंने सोचा कि जिन पेड़ों से मैंने घर का घेरा बनाया है उनकी पतली डाल से टोकरी बन सकती है। इसलिए दूसरे दिन कुञ्जभवन में जाकर कुछ पतली डालें काट कर कोशिश की तो मालूम हुआ कि टोकरी बढ़िया बन सकती है। उसके दूसरे दिन कुल्हाड़ी लेकर गया और एक बोझ डालें काट कर सूखने के लिए घेरे के भीतर रख दी। जब वे डालें मुरझा कर काम लायक हो गईं तब उन्हें अपने घर पर ले गया। मैंने देश में अपने घर में टोकरी बनाने वालों को टोकरी बुनते देखा था और कुछ कुछ सीखा भी था। इस समय वह विद्या काम आ गई। मैंने छोटे बड़े कितने ही टोकरे बना डाले। यद्यपि वे खूबसूरत नहीं बने तथापि घर के काम चलाने लायक तो हो गये। अपनी फ़सल रखने के लिए कितने ही टोकरों को खूब गहरा बनाया। मैं गरमी के दिनों में बैठ कर अधिकतर टोकरी ही बुनता रहा।

अब भी दो तीन प्रधान वस्तुओं की कमी बनी रही। एक तो कुछ बोतलों के सिवा पतली चीज़ रखने को कोई बर्तन न था और न कोई रसोई बनाने ही का पात्र था। दूसरे तम्बाकू पीने का नल भी न था।