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राबिन्सन-क्रूसो/द्वीप का परिदर्शन

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राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ९३ से – ९८ तक

 

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द्वीप का परिदर्शन

इस निरानन्दकारी द्वीप में आये मुझे दस महीने से ऊपर हुए। मालूम होता है, इस द्वीप की सृष्टि होने से लेकर अब तक मेरे सिवा, कोई मनुष्य आज तक यहाँ न आया था। इस

समय इस टापू को एक बार अच्छी तरह देखने की इच्छा हुई।

१५ जुलाई से मैंने इस द्वीप की देख भाल करना आरम्भ किया। मैं जिस जगह खाड़ी के भीतर बेड़े से उतरा था उस खाड़ी में कछार ही कछार जाकर देखा कि उसके किनारे कहीं कहीं हरित क्षेत्र हैं। एक जगह देखा कि तम्बाकू के बड़े बड़े पेड़ बहुतायत से उगे हैं। कई एक पेड़ जंगली ऊख के भी देख पड़े। आज यहीं तक देख कर लौट आया।

दूसरे दिन और आगे बढ़ कर एक जंगल से घिरी हुई जगह पहुँचा। वहाँ पेड़ों में भाँति भाँति के परिचित और अपरिचित फले हुए फलों को देख कर मैं अत्यन्त आह्लादित हुआ। परिचित फलों में देखा कि कितने ही पक्के तरबूज़ लगे हैं और रस से परिपूर्ण आङ्गर के गुच्छे के गुच्छे पके हुए हैं। यह विचित्र मधुमय आविष्कार देख मैं अंगूर के गुच्छे तोड़ कर खाने लगा। मैं जानता था कि अधिक अंगूर खाने से कितने ही लोगों को ज्वर हो जाता है और उससे उनकी मृत्यु हो जाती है। इस भय से मैंने अधिक नहीं खाये। मैंने इन फलो का संग्रह करना चाहा, और उन्हें सुखा कर किसमिस की तरह रखना चाहा। इन्हें सुखा कर रखने से यह लाभ सोचा कि जब अंगूरों का समय न भी रहेगा तब भी मधुर और पुष्टिकारक खाद्य की कमी न होगी।

मैंने सारा दिन वहीं बिताया। रात को भी घर लौट कर नहीं आया। इस द्वीप में प्रथम दिन जैसे पेड़ पर चढ़ कर रात बिताई थी उसी तरह आज की रात भी बिताई। सवेरे उठ कर लगातार चार मील उत्तर ओर जाकर एक पहाड़ की तल
हटी में पहुँचा। वह स्थान हरियालियों और भाँति भाँति के पेड़-पौधों से ऐसा सुशोभित मालूम होता था जैसा कोई सुन्दर उद्यान हो। नारियल, नारङ्ग, काग़ज़ी और बीजपूरक नींबू के पेड़ इस अधिकता से उपजे थे कि एक उपवन सा प्रतीत होता था। किन्तु ये सब जङ्गली थे और फल भी उनमें कम ही थे। मैंने कुछ नींबू तोड़ लिये पानी में नीबू का रस डाल कर जो शरबत बनाया वह बड़ी अच्छी ठंडाई और बलकारक जँचा। बरसात का मौसम करीब आ पहुँचा। इसलिए अभी से बरसात के लिए खाद्य-सामग्री का सञ्चय करना आवश्यक जान जहाँ तक हो सका अंगूर, नींबू आदि फल तोड़ लिये। दूसरी बेर थैली लाकर और उन्हें उसमें भर कर घर ले आने का विचार किया। तीन दिन बाद में घर को लौट आया। अभी मैंने तम्बू को ही घर बना रक्खा था।

घर आते आते जो अंगूर खूव पके थे वे आप ही आप फट गये और उनका रस बह गया। नींबू ठीक थे। किन्तु बहुत तो ला नहीं सका था।

१६ वीं तारीख को दो छोटी थैलियाँ लेकर मैं फल बटोरने के लिए फिर बाहर हुआ। कल जिन पेड़ों में गुच्छे के गुच्छे फल लदे थे, आज उनमें अधिकांश कटे फटे और खाये हुए तथा नीचे गिरे पड़े थे। यह देख कर मैंने समझा कि किसी जङ्गली जानवर ने इन फलों की ऐसी दुर्दशा कर डाली है। किन्तु उस जन्तु का मैं ठीक ठीक पता न लग सका। जो हो, जितने फल थे वे ही मुझ अकेले के लिए काफ़ी थे। जितने मुझ से बने उतने नींबू ले लिये। किन्तु अंगूर मारे रस के फटे जा रहे थे। वे थैली में भर कर ले जाने येाग्य न थे।
यह समझ कर मैंने अंगूर की डाल को झुका देना ही अच्छा समझा। इससे अंगूरों के दब जाने का भय न था और दूसरा फ़ायदा यह कि वे धूप में सूख भी जायँगे।

घर लौट कर मैं उस रमणीय स्थान के विविध फलों की बात सोचने लगा। मैं ही यहाँ का निष्कणटक एकाधिप हूँ, इस सम्पूर्ण द्वीप पर मेरा ही एकाधिपत्य है। अब मेरे मन में यह ख़याल पैदा हुआ कि मैंने जहाँ घर बनाया है वह जगह इस द्वीप में सब स्थानों की अपेक्षा निरानन्दकर है। उस प्राकृतिक उद्यान में यदि कहीं एक निरापद स्थान मिल जाय तो वहीं रहने लगूँगा। यह मैंने अपने मन में स्थिर किया।

उस प्राकृतिक उपवन में घर बनाने की लालसा बहुत दिनों तक मेरे मन में रही। किन्तु आगे-पीछे की बातें सोच कर उस लालसा को मन से हटा दिया। मैंने फिर यह बात सोची कि समुद्र के तट में हूँ। कदाचित् कोई सुयोग यहाँ से जाने का मिल भी सकता है। जो अभाग्य मुझ अकेले को खींच कर यहाँ ले आया वह किसी दिन मेरे सदृश किसी दूसरे हतभाग्य को भी ला कर मेरे पास पहुँचा सकता है। यहाँ रहने से यह घटना कदाचित् हो भी सकती है, किन्तु समुद्रतट से दूर पहाड़ में या जङ्गल में आश्रय लेने से उद्धार की आशा एकदम छोड़ ही देनी होगी। जिस किसी अभिप्राय से क्यों न हो, वह स्थान मुझे इतना पसन्द था कि जुलाई तक का मेरा समय वहीं कट गया। मैंने वहाँ एक कुञ्जभवन बना कर चारों ओर से उसे अच्छी तरह घेर दिया। ऊँचे ऊँचे खम्भों से घर को खूब मज़बूत कर दिया। यहाँ भी

उसी तरह सीढ़ी से हो कर जाने-आने की व्यवस्था की।

बिल्ली तीन बच्चों को साथ लेकर आगई। उसे देख कर मुझे बड़ा अचम्भा हुआ।-पृ॰ ९७ ।


यहाँ कभी कभी लगातार तीन चार रातें बड़े मजे में कट

जाती थीं। यह मेरे दिल बहलाने की जगह हुई और वह रहने की।

यह सब करते धरते अगस्त का महीना आ पहुँचा और पानी बरसना शुरू हुआ। यद्यपि तम्बू खड़ा कर के उसमें रहने का सब सामान ठीक कर लिया था, तथापि वहाँ झड़ी से बचने के लिए कोई पर्वत की ओट न थी। अगस्त से ले कर कुछ दिन अक्तूबर तक इस तरह वर्षा हुई कि घर से बाहर निकलना मेरे लिए कठिन हो गया। वर्षा आरम्भ होने के पहले अंगूर के कोई दो सौ गुच्छे सुखा कर मैंने रख लिये थे।

कुछ दिन से मेरी बिल्ली कहाँ चली गई थी। उसका कुछ पता न था। मैंने समझा, शायद वह मर गई। वर्षा आरम्भ होते ही देखा कि वह तीन बच्चों को साथ ले कर आ गई। उसे देख कर मुझे बड़ा अचम्भा हुआ। किन्तु उस दिन से मैं बिल्लियों के उपद्रव से हैरान हो गया। झुण्ड की झुण्ड बिल्लियाँ आने लगीं। तब मैं उनको भगाने की फिक्र में लगा। आख़िर जब मैं उन्हें यों न भगा सका तब गोली मारना शुरू किया।

बरसात के पानी में भीगने के भय से मैं बाहर न जाता था। इधर खाद्य-सामग्री भी समाप्त हो चली। मैं सुयोग पा कर दो दिन बाहर निकला। एक दिन एक बकरा और दूसरे दिन एक कछुआ शिकार में मिला। कछुआ खाने में बड़ा स्वादिष्ठ था। आज कल मेरे खाने का यह नियम था कि सवेरे सूखे अंगूरों का एक गुच्छा, दोपहर को बकरे या कछुए का भुना हुआ मांस और रात को कछुए के दो तीन


अंडे खाता था। मेरे पास ऐसा कोई बर्तन न था जिसमें मांस को पका कर शोरवा बनाता।

वर्षा बन्द होने पर मैं गुफा को खोद कर पार्श्व की ओर बढ़ाने लगा। उससे मेरे घर के बगल में जाने-आने का एक दर्वाज़ा सा बन गया। किन्तु यह द्वार ठीक नहीं जान पड़ा। मैं पहले घेरे के भीतर जैसा निश्चिन्त होकर रहता था वैसा अब न रह सकता था। यद्यपि इस द्वीप में सब से बड़ा जानवर जो देखने में आया वह बकरा ही था तो भी किसी के अतर्कित आक्रमण की आशङ्का बनी रहती थी।