राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो और फ़्राइडे

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क्रूसो और फ़्राइडे

जितने दिनों से मैं इस द्वीप में हूँ उनमें यही साल मेरे बड़े सुख का था। फ्राइडे अब मेरी सब मोटी मोटी बातें समझ लेता था। अब वह मेरे साथ खूब बात-चीत करता था। इन बातों से भी बढ़ कर फ्राइडे की निश्छल भक्ति और विश्वास ने मुझे मुग्ध कर रक्खा था।

फ़्राइडे मुझको बहुत चाहता है सही, किन्तु मैंने जानना चाहा कि उसे अब अपने देशको लौट जाने की इच्छा है कि नहीं। एक दिन मैंने उससे पूछा-अच्छा फ़्राइडे, बतलायो तो, तुम्हारे दल के लोग भी युद्ध में कभी विजयी हुए हैं?

फ्राइडे-कभी कभी हो जाते हैं!

मैं-युद्ध में विजयी होकर बन्दियों को क्या करते हैं?

फ़्राइडे-करेंगे क्या? उन्हें मार कर खा डालते हैं।

मैं-तुम इसके पहले कभी इस द्वीप में आये थे?

फ़्राइडे-हाँ, कई बार।

मैं-यहाँ से महासमुद्र का उपकूल कितनी दूर होगा? इतनी दूर आने-जाने में डोंगी डूबती नहीं है? [ १७७ ]फ़्राइडे-नहीं, डोंगी कभी भारी नहीं जाती। प्रातःकाल समुद्र में हवा और जल का स्रोत एक ओर बहता है; साँझ को विपरीत दिशा में यह समझ लेने से समुद्रयात्रा में विपत्ति की आशङ्का नहीं रहती।

फ़्राइडे की इस बात से मैं समझ गया कि वह ज्वार-भाटे की बात कह रहा है। आखिर मैंने फ़्राइडे के कथन से समझा कि मेरा यह द्वीप अरुणक नदी के मुहाने पर है। उसी नदी के स्रोत की बात फ्राइडे कह रहा है। आग्नेय (पूरब और दक्खिन) कोण में जो द्वीप देख पड़ता है वह त्रिनिडाद टापू है। मैंने फ़्राइडे से उसके देश के सम्बन्ध में हज़ारों प्रश्न किये। उसे जहाँ तक मालूम था, सब का उत्तर दिया। उसकी जाति का नाम कारिब था। इससे मुझे मालूम हुआ कि नक़्शे में जो क्यारिबी द्वीप है वहीं के अधिवासी ये लोग हैं। फ़्राइडे ने कहा-मेरे देश में जहाँ चन्द्रमा डूबते हैं उसके आगे अर्थात् पश्चिम दिशा में बहुत दूर आपके ऐसे गोरे लोग हैं। वे लोग भी मनुष्य-हत्या करने में नहीं चूकते।" इससे मैंने समझा कि वे लोग स्पेनवाले हैं। उन्हीं के बारे में यह कह रहा है। उन की अकारण निष्ठुर हत्या का प्रवाद प्रायः देश-देशान्तर में फैला हुआ था।

मैंने पूछा-फ़्राइडे, तुम ऐसा कोई उपाय बता सकते हो जिससे मैं उन गोरे लोगों के पास तक पहुँच सकूँ।

फ़्राइडे-क्यों नहीं, ज़रूर पहुँच सकते हैं। दो डोगियों पर जाना होगा।

दो डोगियों पर जाना होगा, इसका मतलब मेरी समझ में न आया। बहुत पूछने पर मैंने समझा, कि दो डोंगियों [ १७८ ]से उसका मतलब दो डोगियों के बराबर एक बड़ी नाव से है। अब से मैं अपने उद्धार की कुछ कुछ आशा करने लगा। मेरे जी में इस बात की आशा ने जड़ बाँधी कि इस असभ्य की सहायता से मेरा छुटकारा होना असम्भव नहीं है। मैं जब तब फ़्राइडे के साथ इस बात की आलोचना करके बहुत सुख पाता था।

जब फ़्राइडे मेरी भाषा अच्छी तरह सीख गया तब मैंने उसको कुछ धर्म की शिक्षा देना उचित समझा। कारण यह कि धर्म-हीन जीवन भार मात्र है। धर्म-ज्ञान के बिना जीना वृथा है। मैंने एक दिन उससे पूछा-अच्छा, कहो तो फ़्राइडे, तुमको किसने सिरजा है?

यह अद्भुत प्रश्न सुन कर फ़्राइडे कुछ चकित सा होकर बोला,-"क्यों, मेरे पिता ने।" मैंने फिर हँस कर पूछा-अच्छा, ये सब समुद्र, धरती, पहाड़ और जङ्गल किसने बनाये हैं?

फ़्राइडे-"वीणामुख ने! वे सबसे रहित हैं। वे भूमि, समुद्र, चन्द्र, सूर्य और तारागणों की अपेक्षा भी पुरातन हैं। वही सम्पूर्ण संसार के सृष्टिकर्ता हैं। उन्हें सब लोग जगत्पिता कहते हैं। मृत्यु होने के अनन्तर सभी प्राणी उन्हीं वीणामुख के साथ जा मिलते हैं।" ईश्वर के सम्बन्ध में मनुष्य का स्वाभाविक ज्ञान देख कर मैं पुलकित हो उठा। मैं फ़्राइडे के इस अस्फुट भगवद्ज्ञान को और विशद करने के लिए उसको सर्वशक्तिमान् विधाता के सम्बन्ध में अनेक बातें सुनाने लगा। यद्यपि मैं स्वयं खूब ज्ञानी या धार्मिक न था तथापि मैं भगवान् से ज्ञान की [ १७९ ] प्रार्थना करता था और फ़्राइडे को शिक्षा देता था। थोड़े ही दिनों में वह मुझसे भी विशेष धार्मिक हो गया। उसकी संगति से मेरा दिन बड़े ही आनन्द के साथ कटने लगा। यहाँ हम लोगों का आपस में मत-विरोध नहीं, संस्कार की संकीर्णता नहीं, और शास्त्र की भी दुहाई नहीं। हम दोनों व्यक्ति साक्षात् ईश्वर से ज्ञान प्राप्त करके उनको पहचानने की चेष्टा कर रहे हैं।

मैंने फ़्राइडे को अपना सारा जीवन-वृत्त सुनाया और उसको एक छुरी और एक कुल्हाड़ी पुरस्कार में दी। बेहद खुश हुआ। फिर उसको मैंने बन्दूक का सारा तत्त्व सिखला दिया।

मैंने उसको यूरप का, विशेष करके इँगलैन्ड का, वर्णन करके सुनाया। अपने जातीय इतिहास, समाज, धर्म, वाणिज्य, शिक्षा आदि के विषय में बहुत सी बातें कहीं। एक दिन बात ही बात में मेरे जहाज़ डूबने की बात निकल आई। मैंने उसको अपने साथ ले जाकर टूटा हुआ जहाज़ दिखलाया। उसे देख कर फ़्राइडे ने कहा-"ऐसा ही एक जहाज़ मेरे देश में भी एक बार आया था। उस पर सत्रह गौराङ्ग थे। हम लोगों ने उन्हें डूबने से बचाया था।" मैंने पूछा-फिर उन लोगों का क्या हुआ? तुम लोगों ने मार कर उनका कलेवा तो नहीं कर लिया?

फ्राइडे-"नहीं, वे लोग अभी तक मेरे ही देश में हैं।" मैंने पूछा-यह क्यों? क्या तुम्हारे देशवासियों को मन्दाग्नि का रोग हो गया है? तुम लोगों की नरमांस-भक्षण में ऐसी अरुचि क्यों हो गई? [ १८० ]फ़्राइडे-हम लोग मनुष्य मात्र को नहीं खाते। केवल बन्दी-गणों को ही खाते हैं।

इसके कुछ दिन बाद एक दिन द्वीप के पूरब ओर पहाड़ की चोटी पर चढ़ कर फ़्राइडे एकाएक मारे खुशी के नाचने लगा। मैंने पूछा-क्यों फ्राइडे, क्या है? कुछ कहो भी तो।

फ़्राइडे-"अहा, बड़ा आनन्द है, बड़ा महोत्सव है! प्रभो देखिए, देखिए, यहाँ से मेरा देश देख पड़ता है।" उसका चेहरा हर्ष से प्रफुल्लित था, दोनों आँखों में प्रेमाश्रु भरे थे, सर्वाङ्ग पुलकित था। धन्य मातृ-भूमि! एक असभ्य सन्तान के हृदय में भी तुमने कैसा पवित्र प्रीति का संचार कर रक्खा है! किन्तु उसका यह आनन्द मुझे अच्छा न लगा। मेरे मन में यह खटका हुआ कि यदि फ़्राइडे किसी तरह अपने देश को चला गया तो संभव है वह धर्म की शिक्षा और कृतज्ञता भूल कर फिर अपनी पूर्व वृत्ति में प्रवृत्त हो जाय। इसके सिवा यदि वह अपने देश में जाकर मेरी चर्चा चलावे तो आश्चर्य नहीं कि दो तीन सौ आदमी यहाँ आकर भोज में मुझी को स्वाहा कर डालें। मैं उस बेचारे निर्दोषी को दोषी मान कर अविश्वास और उदासीनता की दृष्टि से उसकी ओर देखने लगा। हा, स्वार्थ ऐसा निन्द्य है। स्वदेश के प्रति प्रीति प्रकट करना स्वाभाविक है। अपने देश को दूर से देख कर उसका प्रसन्न होना अयुक्त न था, किन्तु उससे कहीं मेरे स्वार्थ में आघात न लगे, इस आशङ्का से मैं उसको विषभरी दृष्टि से देखने लगा। उसकी यह स्वदेश-प्रीति मेरी आँखों में काँटे की तरह गड़ने लगी। उसका स्वदेशाभिलाष मेरी दृष्टि में घोर अन्याय जँचने लगा। मैंने अब उसके साथ पहले की तरह बातचीत करना छोड़ दिया। मैं पहले उसे जिस दृष्टि से देखता [ १८१ ] था उस दृष्टि से अब नहीं देखता। उसके साथ अब मैं उस तरह मिलता-जुलता भी न था। इसके अलावा उसका असली मतलब जानने के लिए मैं रोज़ रोज़ उससे अनेक प्रकार की जिरह करने लगा। मेरे प्रश्न का उत्तर वह ऐसा सरल और प्रेमपूर्ण देता था जिससे मेरे मन का भ्रम शीघ्र ही दूर हो जाता था। एक दिन मैं उससे यों प्रश्न करने लगा:-

मैं-फ़्राइडे, क्या तुमको अपने देश जाने की बड़ी अभिलाषा होती है?

फ़्राइडे-हाँ, होती क्यों नहीं, अपने देश जाने की इच्छा किसे नहीं होती?

मैं-तुम वहाँ जाकर फिर उसी तरह नंगे, नरमांसभोजी, और अधार्मिक बनोगे?

फ़्राइडे-नहीं, नहीं, यह क्यों? मैं अपने देश के लोगों को प्रेम और धर्म की शिक्षा दूँगा और नर-हत्या करने से उन्हें रोकूँगा।

मैं-तब तो वे लोग तुम्हें मार ही डालेंगे?

फ़्राइडे-नहीं, वे लोग धर्म-कर्म की बात सीखना बहुत पसन्द करते हैं। उन बृहत्-नौकारोही गौराङ्ग लोगों से वे लोग कितने ही विषय सीख चुके हैं, और भी सीखते होंगे।

मैं-तो क्या तुम देश लौट जाओगे?

फ़्राइडे हँस कर बोला-जाऊँगा कैसे? इतनी दूर तैर कर कोई कैसे जा सकता है?

मैं-जाने के लिए तुमको एक नाव तैयार कर दूँगा। [ १८२ ]फ़्राइडे-यदि आप चलें तो मैं भी आपके साथ साथ जाऊँगा।

मैं-अरे! मैं चलूँ? ऐसा होने से तो वे लोग मिल कर मुझे खा ही डालेंगे।

फ़्राइडे-नहीं, नहीं, आप ऐसा न समझें। मैं उन लोगों से आप की दया और अपने ऊपर उपकार की बात कहूँगा। उन लोगों को श्रद्धा-भक्ति करना सिखलाऊँगा। मेरे देश में जो अभी सत्रह गौराङ्ग विद्यमान हैं उनसे तो कोई किसी तरह की छेड़-छाड़ नहीं करता।

अब मेरे मन में यह धुन समाई कि समुद्रपार होकर उन सत्रह यूरोपवासियों के साथ किसी तरह भेंट करनी चाहिए। उन लोगों के साथ सम्मिलित होने की वासना प्रबल हो उठी। मैंने फ़्राइडे को ले जाकर अपनी डोंगी दिखलाई। हम दोनों उस पर सवार हुए। देखा, फ़्राइडे नाव खेने में पूरा उस्ताद है। मैंने कहा है-"फ़्राइडे, चलो तुम्हारे देश को चलूँ।" फ़्राइडे गम्भीर भाव धारण कर चुप हो रहा। उसका अर्थ मैंने यही समझा कि इतनी छोटी डोंगी से समुद्रयात्रा करने का उसे साहस नहीं होता। मैंने कहा,-"मेरे पास एक और बड़ी नाव है।" दूसरे दिन उसको वह नाव दिखाने के लिए ले गया। देख कर उसने कहा-हाँ, यह नाव बेशक बड़ी है। किन्तु बाईस-तेईस वर्ष से बे हिफ़ाज़त यों ही पड़ी रहने से सड़ गल गई है।

तब मैंने एक और बड़ी डोंगी बनाने का संकल्प किया। मैंने कहा, "आओ, फ़्राइडे, मैं तुम्हारे देश जाने का प्रबन्ध कर दूँ।" फ़्राइडे बड़ी अप्रसन्नता और अनुत्साह के साथ बोला[ १८३ ] मैंने आपका क्या अपराध किया है? आप इस दास पर क्यों इतने नाराज़ हैं?

मैं-असन्तुष्ट क्यों हूँगा? तुम देश जाना चाहते हो, उसी का प्रबन्ध करता हूँ।

फ़्राइडे-मैं आपको छोड़ कर अकेला जाना नहीं चाहता।

मैं-वहाँ जाकर मैं क्या करूँगा?

फ़्राइडे-आप क्या नहीं करेंगे? आप मेरे देश का बहुत कुछ उपकार कर सकेंगे। धर्म कर्म और ज्ञान का उपदेश दे कर मेरे देश के मनुष्यों को वास्तविक मनुष्य कहलाने योग्य बनावेंगे।

मैं-हाँ! तुम नहीं जानते कि मैं कितना बड़ा नीच, अयोग्य और अधार्मिक हूँ। मैं न जाऊँगा, तुम अकेले जाओ।

फ़्राइडे ने झट एक कुल्हाड़ी उठा कर मेरे हाथ में दी और कहा-"लो साहब, मुझे निर्वासित करने के बदले एकदम मार ही डालो। इसमें तुम्हारी बड़ी दया होगी।" आँसू भरी आँखों से मेरी ओर देख कर ऐसे दीनभाव से उसने कोमल वचन कहे कि मैं मुग्ध हो गया।

द्वीप में डोंगियों की तो कुछ बात ही नहीं, बड़े बड़े जहाज़ बनने के उपयुक्त बहुत से दरख्त थे, किन्तु हमें तो डोंगी के योग्य एक ऐसा पेड़ चाहिए जो पानी के समीप हो।

इतना सुभीता मिलना कठिन था। फ़्राइडे ने बहुत खोज कर एक ऐसा पेड़ ढूँढ़ लिया। उसने पेड़ की जड़ को आग से जला कर खोखली करने का प्रस्ताव किया तो मैंने उसको लोहे के हथियार की उपयोगिता दिखला दी। उसने शीघ्र [ १८४ ] ही वह काम सीख लिया और बसूला तथा रुखानी के द्वारा एक ही महीने में डोंगी तैयार कर ली। इसके बाद छोटी छोटी चिकनी डालों को बिछा कर उनके ऊपर से थोड़ा थोड़ा लुढ़का कर नाव को पानी पर ले जाने में और पन्द्रह दिन लगे। इस नाव में बीस आदमी मज़े में बैठ सकते थे।

यद्यपि नाव इतनी बड़ी थी तो भी फ़्राइडे का इस तेज़ी से खेना देख कर मैं विस्मित हुआ। वह अब नाव खे कर मुझको समुद्र पार कर देने को राजी है। किन्तु नाव का कुछ और काम करना बाकी रह गया था; मस्तूल और पाल लगाना था। मस्तूल की कमी न थी, फ़्राइडे को एक सीधा सा पेड़ दिखला कर मस्तूल बनाने की रीति बता दी। अब पाल का प्रबन्ध करना बाक़ी रहा। मेरे पास पुराने पाल के बहुत टुकड़े थे, किन्तु इतने दिनों से वे यों ही पड़े थे। उन्हें उलट पलट कर देखा तो उनमें दो टुकड़े अच्छे निकले। उन्हीं दोनों टुकड़ों को जोड़ कर पाल बनाया। यह सब करते धरते दो महीने लगे। इसके बाद पतवार बनाई। पतवार बनाने में मुझे उतना ही परिश्रम करना पड़ा जितना एक छोटी सी नाव बनाने में करना पड़ता।

अब फ़्राइडे को नौका-परिचालन की शिक्षा देने का अवसर आया। फ़्राइडे नाव चलाना जानता था, किन्तु वह पतवार और पाल आदि के विषय में कुछ न जानता था। कब, कैसे, इनसे काम लेना चाहिए यह फ्राइडे को बता देना ज़रूरी था। मैं स्वयं नाव खे कर फ़्राइडे को सिखलाने लगा। पतवार को जिधर घुमाओ उधर ही नाव घूमेगी। लग्गी से नाव न खेने पर भी पाल के ज़ोर से नाव मजे में चलती है-यह देख सुन कर फ़्राइडे चकित हो मेरे मुँह की ओर [ १८५ ]देखने लगा। आखिर थोड़े ही दिनों में वह खासा नाविक हो गया। किन्तु मैं कम्पास का रहस्य उसे किसी तरह भी न समझा सका।