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राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का जहाज़ डूबा।

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राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ४३ से – ५० तक

 

क्रूसो का जहाज़ डूबा।

मैंने अपनी सम्पत्ति-रक्षा के लिए जितनी सावधानी और भविष्य-चिन्ता की थी, उसकी आधी भी यदि मेरे निज के लिए स्वार्थ बुद्धि होती तो मैं उत्तरोतर बढ़ती हुई निरापद आर्थिक अवस्था को छोड़ कर समुद्रयात्रा के प्रस्ताव पर कभी सम्मत न होता । एक तो समुद्रयात्रा स्वभावतः विघ्नों से युक्त होती है, उस पर मेरे ऐसे हतभाग्यों का तो का तो कुछ कहना ही नहीं । विपत्ति पर विपत्ति को आशंंका बनी ही रहती थी । बुद्धि की अवहेला करके इच्छा के अधीन होजाना मेरा स्वभाव था । इच्छा मुझे ज्ञानान्ध बनाकर बलात् खींच ले चली ।

जहाज़ जाने के प्रस्तुत हुआ । सीपों के हार, आइना, छुरी , कैंची, कुल्हाड़ी, और खिलौना आदि कम कीमती चीजें जहाज़ पर लादी गईं । मैं १६५९ ईसवी की पहली सितम्बर के अशुभ मुहूर्त में जहाज़ पर सवार हुआ । आठ वर्ष पूर्व इसी तारीख को मैने, मूर्ख की तरह माँ-बाप के आदेश का तिरस्कार करके पहले पहल समुद्र यात्रा की थी ।

जहाज़ पर छः तोपें चौदह नाविक, एक कप्तान, उनका नौकर और मैं था । हम लोग जिस दिन जहाज़ पर चढ़े उसी दिन जहाज़ रवाना हुआ । समुद्र का जल स्थिर था, और वायु भी अनुकूल थी । हम लोग अफ्रीका जाने के विचार से उत्तर और चल पड़े । बारह दिन बाद, हम लोगों को ज्ञात होने के पहले ही, एकाएक भयंकर तूफान उठा ।
बारह दिन तक लगातार तूफ़ान बना रहा । हम लोगों ने कुछ आगा पीछा न सोच कर भाग्य के भरोसे जहाज़ को तूफ़ान के मुँह में छोड़ दिया । न छोड़ने तो करते ही क्या ? सिवा इसके दूसरा उपाय ही क्या था ? इन बारह दिनों में मिनट मिनट पर यही जी में होता था कि इस बार समुद्र हम लोगों को सदा के लिए अपने पेट में रख लेगा । वास्तव में किसी नाविक को जीवन की आशा न थी ।

विपत्ति के ऊपर एक दुर्घटना और हुई । लू लग जाने से हमारा एक नाविक मर गया और एक दूसरे नाविक तथा कप्तान के नौकर को, जहाज़ के ऊपर से, समुद्र की तीक्ष्ण तरङ्ग बहा ले गई ।

बारह दिन के अनन्तर तूफ़ान कुछ कम हुआ । कप्तान ने और मैंने देखा कि हम लोग ब्रेज़िल के उत्तरी भाग अमेज़ान नदी को छोड़ कर एक बड़ी नदी के पास गायना-उपकूल में आ गये हैं । कप्तान ने मुझ से पूछा किस रास्ते से जाना अच्छा होगा । उस समय जहाज़ के भीतर कुछ कुछ पानीं आ रहा था । जहाज़ पूरे तोर से ढोला पड़ चुका था । कप्तान की इच्छा ब्रेज़िल लौट जाने की थी । मैंने उसमें बाधा डाली । अमेरिका के उपकूल का नक़्शा देख कर तय किया कि केरिवो द्वीप के सिवा समीप में कोई ऐसा स्थान नहीं जहाँ आश्रय लिया जाय । तब मैंने बारबौडस द्वीप की ओर जाने का निश्चय किया और अटकल लड़ाई कि पन्द्रह दिन और चलने से हम लोग किसी न किसी बृटिश द्वीप में जाकर अफ्रीका जा सकने योग्य साहाय्य पा सकेंगे । चाहे जो हो, यात्रा करके अब लौट जाना ठीक नहीं । मेरी बुद्धि क्यों मुझे आपत्तिविहीन स्थान में ले जाने को सम्मत होती ?
मेरे भाग्य में तो अनेक दुःख का भोगना लिखा था । फिर तूफ़ान उठा और हम लोगों के जहाज़ को पच्छिम की ओर उड़ा ले चला । इस समय समुद्र से बच जाने पर भी हम लोगों को, किनारे उतर कर,नृशंस लोगों के हाथ से छुटकारा पाने की आशा न थी । हम लोगों की अक्ल कुछ काम न देती थी। स्थल भाग में उतरें तो राक्षस हम लोगों को खा ही डालेंगे । अब अपने देश की ओर भी लौट न सकेंगे ।

ऐसी विपन्न अवस्था में एक दिन सवेरे एक नाविक चिल्ला कर बोला-ठहरो ज़मीन है, ठहरो ज़मीन है" । हम लोग पृथवी के किस अंश में आ गये हैं, यह देखने के लिए कमरे से बाहर आते न आते हम लोगों का जहाज़ बालू के टीले से रगड़ खाकर बैठ गया । जहाज़ की गति एकाएक रुक जाने से कुछ ही देर में समुद्र की लहर ऐसे प्रखर वेग से जहाज़ के ऊपर आ पड़ी कि हम लोगों ने समझा कि इसी दफ़े सब समाप्त हुआ । हम लोग पानी के छींटों और फेन से बचने के लिए झटपट कमरे के भीतर चले गये । जिन लोगों के ऊपर कभी ऐसा संकट नहीं पड़ा है, वे हमारी इस अवस्था या भय का कुछ भी अनुभव न कर सकेंगे । हम लोग कहाँ किस देश में जा पहुँचे हैं, यह मालूम न हुआ । वह स्थान कोई टापू था या कोई देश; वहाँ मनुष्यों की बस्ती थी या जनशून्य स्थान था, इसका भी कुछ निश्चय न हो सका । हवा तब भी जैसी तेज़ बह रही थी, उससे यह आशा न थी कि जहाज़ टूक टूक न होकर क्षण भर भो और बचा रहेगा । हम लोग एक दूसरे का मुँह देखते हुए निरुपाय होकर बैठ रहे और मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे । सभी लोग परलोक-यात्रा के लिए कटिबद्ध हो कर ईश्वर का स्मरण करने लगे । इसके अतिरिक्त
हम लोग और करते ही क्या ? वैसी दशा में हम लोगों को एक यही सान्त्वना मिली कि जितने शीघ्र जहाज़ के टूटने की संभावना थी उतने शीघ्र वह टूटा नहीं और वायु का वेग भी कुछ कम हो गया ।

किन्तु जहाज़ के टुकड़े टुकड़े न होने और हवा का वेग घट जाने पर भी हम लोगों की विपत्ति कम न हुई । जहाज़ इतने ज़ोर से बालू में धंस गया था कि उसका उद्धार होना कठिन था । हम लोग ज्यों त्यों कर अपने अपने प्राण बचाने का उपाय सोचने लगे । जहाज़ के पीछे एक छोटी नाव बँधी थी किन्तु वह पहली ही झपेट में जहाज़ का धक्का लगने से टूट गई थी । फिर रस्सी से खुल कर वह समुद्र में बह चली । कौन जाने वह डूबी या बची ? इसलिए उससे तो हम लोग सन्तोष ही कर बैठे थे । हमारे जहाज़ के ऊपर एक और नाव थी, परन्तु उसको रक्षा-पूर्वक पानी में उतार लाना विषम समस्या थी । किन्तु वह समय सोच-विचार करने या तर्क वितर्क करने का न था, क्यों कि जहाज़ क्रमशः टूट फूट कर इधर उधर गिर रहा था । इस मुसीबत में जहाज़ का मेट अन्य मल्लाहों की सहायता से नाव को जहाज़ के ऊपर से धीरे धीरे पानी में उतार लाया । हम ग्यारह आदमी राम राम कर उस नाव पर चढ़े । उस उन्मत्त उत्तुंगतरंगवाले समुद्र के हाथ में आत्मसमर्पण कर भगवान के भरोसे नाव को बहा दिया । हवा कम पड़ जाने पर भी समुद्र की लहरें तट पर दूर तक उछल पड़ती थीं ।

इस समय हम लोगों की अवस्था अत्यन्त शोचनीय हो उठी । समुद्र का जल बढ़ कर जिस प्रकार ऊपर की ओर बढ़ता जा रहा था, उससे हम लोगों ने स्पष्ट ही समझ लिया
कि नाव अब देर तक ठहरने की नहीं, अवश्य ही हम लोग डूब मरगे । हमारी नाव पर पाल न था, जो होता भी तो क्या कर सकते ? हम लोग मृत्यु को सामने रख किनारे की ओर नाव ले जाने का प्रयत्न करने लगे । बध्यभूमि में जाते समय मारे जाने वाले लोगों की तरह हम लेागों का जीवन भारा क्रान्त हो रहा था । हम लोगों ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था कि तट के समीप पहुँचते ही एक ही हिलकोरे में हमारी नाव चूर चूर हो जायगी, तो भी हम लोगों को अन्य गति न थी । हवा हम लोगों के किनारे की ओर ठेलती थी और हम लोग स्वयं भी, अपने को मृत्युमुख में डालने के लिए, किनारे ही की तरफ़ नाव को लिये जा रहे थे ।

वहाँ का तट कैसा था, वहाँ पहाड़ था या बालू का ढेर, यह हम लोग न जानते थे, तथापि कुछ आशा थी तो यही कि यदि किसी खाड़ी या नदी के मुहाने में पहुँच सकें तो शायद स्थिर जल मिल भी जाय, किन्तु वैसा कोई लक्षण देख न पड़ता था । हम लोग जितना ही तट के समीप जाने लगे उतना ही समुद्र की अपेक्षा तटस्थ भूमि भयंकर प्रतीत होने लगी ।

करीब डेढ़ मील मार्ग तय करने के बाद, एक पहाड़ के बराबर ऊँची, समुद्र की लहर हम लोगों को पीछे आती दिखाई दी । मानो उसने खुलासा तौर से हम लोगों को मरने की सूचना दे दी । वह तरंग इस प्रखर वेग से हम लोगों के ऊपर आ पड़ी कि नाव उसी घड़ी उलट गई । हम लोग भी परस्पर एक दूसरे से बिछुड़ गये । ईश्वर का नाम लेने के पहले ही हम लेाम समुद्र में डूब गये । जब मैं पानी के नीचे दूर तक चला गया तब मेरे मन की जो अवस्था थी वह वाणी द्वारा नहीं समझाई जा सकती । यद्यपि मैं तैरना अच्छा जानता था तथापि तरंगों की भरमार से मुझे एक बार भी दम लेने की फुरसत न मिलती थी । आखिर समुद्र का हिलकोरा मुझे लिये दिये किनारे की जमीन पर पटक कर लैट चला । मेरी आँखें, नाक, कान, सब में पानी भर गया । पानी पीते पीते मैं बेदम हो गया था, पर तब भी मुझे इतना होश हवास और बल था कि मैं झट खड़ा हो गया और साहस करके स्थल-भाग की ओर इस भय से दौड़ चला, कि दूसरी बार का हिलकोरा फिर कहीं मुझे लौटा कर बीच समुद्र में न ले जाय । किन्तु मैंने देखा, उस तीव्रगामिनी तरंग से बचना कठिन है । समुद्र की लहर फ़िर पहाड़ के बराबर दीर्घ आकार धारण किये, क्रुद्ध शत्रु की भाँति गरजती हुई, मेरे पीछे दौड़ी चली आ रही है । उसके आक्रमण से बचने की कोई शक्ति या सामग्री मेरे पास न थी । मैं सोचने लगा--तरंग आने पर मैं अपने श्वास को रोक कर पानी पर उतराता हुआ स्थल की ओर चेष्टा करूँगा । बहुत दूर तक तो मुझे तरंग ही पहुँचा देगी । किन्तु समुद्र की ओर लौटती बार तरंग फिर कहीं मुझे समुद्र में न घसीट ले जाय, इसकी उस समय मेरे मन में बड़ी चिन्ता थी । समुद्र की लहर से बचने का एक भी उपाय न सूझता था ।

देखते ही देखते समुद्र की उत्ताल तरंग मेरे ऊपर आ पड़ी और मैं पन्द्रह बीस हाथ पानी के नीचे दब गया । मुझे कुछ कुछ मालूम हो रहा था कि मैं किसी बलिष्ठ शक्ति के द्वारा बड़े वेग से कछार के ऊपर हटाया जा रहा हूँ । मैं भी साँस रोक कर, यथाशक्ति पानी के भीतर ही भीतर तैरता
कर देखा, तरंग फिर दौड़ी आ रही है, और वह अभी मेरे हुआ, आगे की ओर बढ़ने लगा । देर तक साँस रोकने से मेरा कलेजा फटा ही चाहता था । ऐसे समय एकाएक मैं पानी के ऊपर उतरा उठा । मेरा सिर और हाथ पानी के बाहर निकल आये । इससे मुझे बहुत आराम मिला । मैं ज़्यादा से ज़्यादा दो सेकेन्ड पानी के ऊपर रहा हूँगा, किन्तु इतने ही में मेरा बहुत कुछ उपकार हुआ । साँस लेने से मुझे फिर नया साहस मिला । मेरे शरीर में फिर नई शक्ति का कुछ संचार हुआ । किन्तु फिर मैं पानी के भीतर छिप गया । इस दफ़े बहुत देर तक भीतर नहीं रहना पड़ा । मैंने देखा कि तरंग अब लौटी जा रही है । मैं हाथ पाँव के बल खूब जोर से तरंग के प्रतिकूल तैरकर ज्यों ही कुछ दूर आगे बढ़ा त्यों ही मेरे पैर ज़मीन से जा लगे । कुछ देर तक खड़े होकर मैंने साँस ली और फिर शरीर में जितना बल था उतने बल से मैं तुरन्त स्थल की ओर दौड़ चला किन्तु दौड़ने ही से मैंने समुद्र के हाथ से छुटकारा न पाया । अब भी मेरी जान की छुट्टी न हुई । फिर एक हिलकोरा मेरे पीछे बड़ी तीव्र गति से आ गया । मैं पूर्ववत् फिर पानी के भीतर आगे ओर लुढ़कने लगा । समुद्र का तट चिपटा था, इससे मैं दो बार और तरंगों का धक्का खाकर थल पर आ लगा ।

आख़िरी तरंग तो मुझे एक प्रकार से समाप्त ही कर चुकी थी । उसने मुझको लिये दिये ऐसे ज़ोर से एक पत्थर के ऊपर उठा कर पटक दिया कि ऐसा जान पड़ा मानो दम निकल गया हो । छाती में सख चोट लगने से मैं मूर्च्छित हो गया । यदि उसी समय फिर दूसरी लहर आती तो दम घुट कर वहीं मेरा काम तमाम हो जाता । मैंने कुछ सँभल ऊपर आ पड़ेगी । तब मैंने खूब ज़ोर से अँकवार भर कर पत्थर को पकड़ा और सास बन्द कर के लेट रहा । किनारे से वह जगह बहुत ऊँची थी, इसलिए तरंग हलकी सी होकर वहाँ आई । में तरंग के विरुद्ध पत्थर पकड़े पड़ा रहा । तरंग हटते ही फिर मैंने एक दौड़ लगाई । इस के बाद फिर एक तरंग यद्यपि मेरे ऊपर हो कर गई तथापि वह मुझे अपनी ओर खींच न सकी । उस तरंग के चले जाने पर मैं एक ही दौड़ में एक दम ऊपर चढ़ आया । इतनी देर में जाकर तरंग से मेरा पिण्ड छूटा । मैं किनारे के पास के पहाड़ से हट कर घास पर जा बैठा । तरंग की सीमा से बाहर रक्षित स्थान में पहुँचने पर मुझे अत्यन्त आराम मिला ।