राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का दासत्व

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क्रूसो का दासत्व

मैं लन्दन में पहुँचते ही दूर देश को जाने वाले जहाज़ की खोज करने लगा । मैं जिसके जहाज़ पर जाता था वही मेरे कपड़े-लत्ते, भद्रवेष और जेब में रुपया देखकर मेरी ख़ातिर करता था । भाग्यवशात् मैं लन्दन जाकर भद्र लोगों के ही साथ परिचित हुआ । अन्यान्य युवकों की भाँति में कुसंगति में न पड़ा । आफ्रिका महादेश के अन्तर्गत गिनी देश को जाने वाले जहाज़ के अध्यक्ष से मेरी भेंट हुई । पहली बार वहाँ जाने से उन्हें लाभ हुआ था, इस कारण वे फिर वहीं जा रहे थे । वे मेरे देशाटन के शौक की बात सुनकर बोले--यदि तुम मेरे साथ चलना चाहो तो चल सकते हो । न तुम्हें कुछ भाड़ा देना होगा, और न खाने-पीने की कुछ फ़िक्र करनी पड़ेगी । तुम मेरे साथी बनकर चलना । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो कुछ तिजारती चीजें भी अपने साथ ले सकते हो। हो सकेगा तो उससे वहाँ तुम्हें दो पैसे का लाभ भी हो जाय ।

मैं तुरन्त उसके प्रस्ताव पर सम्मत हुआ और शीध्र ही उसके साथ मेरी घनिष्ठता हो गई । किन्तु यह सुयोग मेरे लिए कुछ अच्छा न था । इसे मेरा अभाग्य ही कहना ठीक होगा । जब समुद्र-भ्रमण की मेरी दुर्दम्य स्पृहा थी तब क्यों न ऐसा हो । समुद्र-भ्रमण की उत्कट अभिलाषा रहने पर तो मुझे किसी जहाज़ पर नाविक होकर जहाज़ चलाने आदि की अभिज्ञता पहले प्राप्त कर लेनी चाहिए थी । इससे भविष्य में मेरा विशेष उपकार भी हो सकता था । किन्तु मेरे अच्छे कपड़े लत्ते और भद्रवेष मेरे नाविक होने में [ १८ ]
विघ्न-स्वरूप हो रहा था । मैं जहाँ जाता था वहीं सब लोग शिष्ट जान कर मेरा आदर करते थे ।

कप्तान के उपदेशानुसार मैं कई रुपयों के अच्छे अच्छे खिलौने और अन्याय चटकीली भड़कीली कम दाम की चीजें लेकर गिनी शहर के गया । वहाँ अच्छा मुनाफ़ा हुआ । वहाँ से अन्दाज़न पौने तीन सेर सोने की गर्दा लाकर लन्दन में बेंच कर मैंने कोई साढ़े चार हज़ार रुपये कमाये । यही सफलता मेरे वाणिज्य और विदेश-भ्रमण के प्रलोभन का विशेष कारण हुई ।

मेरे जीवन में यही एकमात्र सामुद्रिक यात्रा कितने ही अंशों में निर्विघ्न हुई थी । किन्तु दुर्भाग्य तो मेरे साथ ही था । मैं आफ्रिका के दुःसह ग्रीष्म ताप से यद्यपि अस्वस्थ हो गया था तथापि यह यात्रा मेरे लिए लाभमूलक ही रही । धन कमाने के अतिरिक्त मैंने नौका-संचालन के विषय में कितने ही तत्व भी स्थूलरूप से सीख लिये थे । यह सब मेरे मित्र कप्तान की दया का ही फल था । मुझ को कुछ सिखलाते समय वे बहुत प्रसन्न होते थे , और मैं भी सीखते समय विशेष आनन्द पाता था । सारांश यह कि इस दफ़े मैं नाविक और वणिक दोनों हो कर लौटा ।

मैं गिनी देश का एक व्यवसायी हो गया, किन्तु मेरे दुर्भाग्यदोष से मेरे कप्तान मित्र की शीघ्र ही मृत्यु हो गई । तब उस जहाज़ का मेट कप्तान हुआ । मैं उसके साथ यत्किंचित मूल धन लेकर गिनी को रवाना हुआ । और रुपया अपने मित्र की स्त्री के पास बतौर धरोहर के रख गया । [ १९ ]इस बार मैं अत्यन्त अशुभ मुहूर्त में रवाना हुआ था । लगातार आपदाएँ मेरा पीछा करने लगीं ।

हमारा जहाज़ जब अफ्रीका के उपसमीप कनारी द्वीप के मध्य से जा रहा था तब एक दिन प्रातःकाल के ईषत् प्रकाश में देखा कि मरक्को देश के शैली बन्दर का एक तुर्की लुटेरा जहाज़ पाल ताने बड़े वेग से हम लोगों को पकड़ने के लिए दौड़ा चला आ रहा है । यह देख कर हम लोग भी यथासम्भव पाल तान कर भाग चले । किन्तु वह जहाज़ हम लोगों के जहाज़ की अपेक्षा फुर्ती से चलकर क्रमशः हम लोगों के निकट आने लगा । तब हम लोग समझ गये कि कुछ घंटों में उस जहाज़वाले हम लोगों को पकड़ लेंगे । अगत्या हम लोग उनके साथ युद्ध करने की तैयारी करने लगे । हम लोगों के जहाज़ पर बारह और उन लुटेरों के पास अठारह तोपें थीं कोई तीन बजे दिन के वह लुटेरा जहाज़ एकदम हम लोगों के समीप आ पहुंचा । किन्तु भूल से उन लोगों ने हम लोगों के पीछे की ओर से आक्रमण न करके पार्श्वभाग से आक्रमण किया । हम लोगों ने उस तरफ़ आठ तोपें लगा कर उस जहाज़ पर लगातार गोला बरसाना शुरू किया । गोलों की मार खाकर वह जलदस्यु जहाज़ दूर हट गया, किन्तु हटते हटते भी वह एक साथ दो सौ बन्दूकें दाग करके हमारी तोपों का जबाब देता गया । ईश्वर की कृपा से बन्दूकों की गोलियाँ हमारे दल में किसी को भी नहीं लगी । वह हत्यारा जहाज़ सँभल कर फिर हम लोगों के ऊपर आक्रमण करने आया । हम लौग भी आत्मरक्षा के लिए प्रस्तुत हुए । [ २० ]उस जहाज़ के अध्यक्ष ने हमारे जहाज़ से भिड़कर साठ लुटेरों को हमारे जहाज़ पर चढ़ जाने की आज्ञा दी । हमारे जहाज़ पर आते ही वे लोग झटपट पाल की रस्सी काटने लगे । हम लोगोंं ने बन्दूक़ और बर्छा चला कर तथा ख़ाली बारूद की पुड़िया छोड़ कर दो-एक बार उन को भगा कर अपने डेक को बचाया, किन्तु अन्त में हम लोगों के तीन आदमी मारे गये, आठ घायल हुए और जहाज़ की गति भी मन्द हो गई । उसके कई कल-पुर्ज़े टूट जाने से वह लँगड़ा सा हो गया । तब हम लोग पकड़ लिये गये । हम लोगों को पकड़ कर वे शैली बन्दर में ले गये ।

मैंने जैसी आशङ्का थी वैसा कोई क्रूर व्यवहार वहाँ जाने पर देखने में न आया । डाकुओं के सर्दार ने हमारे साथी अन्यान्य बन्दियों को राज-दरबार में दास बनाकर भेज दिया और मुझको अपने पास रख लिया । मैं युवा और उत्साही था, इसलिए उसने मुझको अपने काम के उपयुक्त समझ कर ही शायद अपने यहाँ रख लिया ।

मेरे इस अवस्था-परिवर्तन में--वणिक् से एकदम दास होकर रहने में--मेरा हृदय अत्यन्त व्यथित होने लगा । उस समय मुझे फिर पिता का उपदेश और दुर्भाग्य की बात स्मरण होने लगी । किन्तु मैं तब भी न समझ सका कि मेरे संकट का अभी अन्त नहीं हुआ है, अनेक संकट अब भी भोगने को पड़े हैं ।

मेरे नये मालिक मुझको अपने घर ले गये । तब मेरे मन में कुछ कुछ यह नई आशा होने लगी कि वे जब जब समुद्र की यात्रा करेंगे तब तब मुझको ज़रूर साथ ले जायँगे । और, मेरे भाग्य से वे कभी न कभो स्पेनिश या [ २१ ]
पोर्चुगीज़ों के सरकारी लड़ाकू जहाज़ से आक्रान्त होकर बन्दी होंगे तब मुझे फिर स्वाधीनता मिलेगी ।

किन्तु मेरी यह आशा शीघ्र ही जाती रही । जब वह जहाज़ पर जाता था तब मुझे अपने गृहसम्बन्धी काम सँभालने के लिए घर ही पर छोड़ जाता था और जब घर लौट आता था तब मुझको जहाज़ की निगरानी के लिए जहाज़ पर सोने की आज्ञा देता था ।

यहाँ रह कर भागने की चिन्ता के सिवा मेरे मन में और कोई चिन्ता न थी । चिन्ता करके भी मैं भागने का कोई उपाय स्थिर न कर सकता था । कितने ही उपाय सोचता था, किन्तु किसी में जी न भरता था, एक भी उपाय युक्तियुक्त न जान पड़ता था । वहाँ मेरे मेल का कोई ऐसा आदमी भी न था जिसके साथ कुछ सलाह करता । दो वर्ष प्रायः योंही बीत गये । भागने की आशा भी क्रमशः क्षीण होने लगी । किन्तु दो साल के बाद एक अनुकूल घटना के सुयेाग से भागने की पुरानी चिन्ता फिर मेरे मन में उत्पन्न हुई । मेरे मालिक द्रव्य के अभाव से उस बार अधिक समय तक घर पर रह गये । उन दिन, आकाश साफ रहने पर, प्रति सताह में दो तीन दिन जहाज़ की उपसहायक छोटी डोंगियों पर चढ़कर वे मछली पकड़ने जाते थे । वे मुझको और मारइस्को नामक एक नवयुवक को पतवार चलाने के लिए साथ ले जाते थे । मैं नाव खेकर उन्हें खूब प्रसन्न कर देता था । दूसरे, मैं मछली पकड़ने में भी पूरा उस्ताद था । इसलिए वे कभी कभी अपने आदमी मुर और मारइस्को को मेरे साथ देकर मुझी को मछली पकड़ने के लिए भेज देते थे । [ २२ ]एक दिन बहुत सवेरे जब हम लोग मछली पकड़ने चले तब ऐसा गाढ़ा कुहरा पड़ा कि किनारे से आध मील दूर जाते जाते किनारा अदृश्य हो गया । हम लोग किस तरफ़ कहाँ जा रहे हैं, यह कुछ न समझ पड़ा । सारे दिन और सारी रात हम लोग बराबर नाव खेते रहे । जब प्रभात हुआ तब देखा कि हम लोग किनारे की ओर न जाकर किनारे से दो तीन मील दूर समुद्र की ही ओर चले गये हैं । निदान हम लोग बहुत परिश्रम और संकटों को झेलते हुए राम राम करके किनारे पर पहुँचे । किन्तु कठिन परिश्रम और दिन-रात के उपवास से हम लोग राक्षस की भाँति भूख से व्याकुल हो गये थे ।

हमारे स्वामी ने इस यात्रा में शिक्षा पाकर भविष्य में विशेष रूप से सावधान होने का संकल्प किया । उन्होंने प्रतिज्ञा की कि अब कभी दिग्दर्शक कंपास और भोजन की सामग्री साथ लिये बिना मछली पकड़ने न जायेंगे । वे हम लोगों के गिनी जानेवाले जहाज़ की एक लम्बी सी डोंगी पकड़ लाये थे । उन्होंने उस डोंगी के आगे पीछे मल्लाह के खेने की जगह छोड़ कर उसके बीच में एक छोटा सा घर बनाने के लिए अपने मिस्त्री के हुक्म दिया । उनका मिस्त्री भी एक बन्दी अँगरेज़ युवक था । उसने मालिक की आज्ञा पाते ही एक कमरा और उसके भीतर खाने पीने की वस्तुएँ तथा कपड़ा आदि रखने के लिए आलमारी इत्यादि बना कर एक अच्छा कमरा तैयार कर दिया ।

हम लोग अक्सर उसी डोंगी को लेकर मछली पकड़ने जाते थे । मछली पकड़ने में मैं सिद्धहस्त था, इसलिए कभी ऐसा न होता कि मेरे स्वामी मुझको अपने साथ न ले जायें । [ २३ ]
एक दिन निश्चय हुआ कि उस देश के दो तीन प्रतिष्ठित व्यक्ति मूर के साथ मछली का शिकार खेलने जायेंगे । इस कारण पूर्वरात्रि में ही खाने-पीने की यथेष्ट सामग्री डोंगी में भरी गई । वे लोग मछलियों और चिड़ियों का शिकार करने वाले थे, इसलिए उन्होंने मुझको कुछ गोली-बारूद और बन्दूक भी साथ में ले जाने की आज्ञा दी थी ।

दूसरे दिन बड़े तड़के मैंने, स्वामी की आज्ञा के अनुसार, सभी उपयुक्त वस्तुएँ ले जा कर कमरे में रख दीं । नाव को अच्छी तरह धो-धुला कर साफ करके मालिक और उनके साथिओं के आने की मैं प्रतीक्षा करने लगा । कुछ देर के बाद मालिक ने आ कर मुझसे कहा-“क्रूसो, हमारे आगस्तुक व्यक्तियों का आज शिकार के लिए आना न हुआ । वे किसी आवश्यक कार्यवश रुक गये । वे लोग आज कल रात को हमारे ही घर भोजन करेंगे, इसलिए हम भी आज मछली के शिकार में न जा सकेंगे । तुम्हीं लोग जाओ, जो कुछ थोड़ी घनी मिल जाय, लेकर शीघ्र घर लौट आना ।" वे अपने विश्वासपात्र मूर और इकजूरी नामक एक लड़के को मेरे साथ जाने की आज्ञा दे कर चले गये ।

उस समय भाग निकलने की धुन फिर मेरे हृदय में समाई ।


क्रूसो का भागना।

एक बहुत बड़ी डोगी मेरे अधीन हुई । उसे छोटा मोटा जहाज़ ही कहना चाहिए । मेरे लिए यह कुछ सामान्य सुयोग न था । जब मेरे मालिक चले गये तब मैं मछली पकड़ने का बहाना करके भागने का उद्योग करने लगा ।