सामग्री पर जाएँ

राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो के भाग्य में भयङ्कर तूफ़ान

विकिस्रोत से
राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ८ से – १६ तक

 

क्रूसो के भाग्य में भयङ्कर तूफ़ान

समुद्र-यात्रा के छठे दिन हम लोगों का जहाज़ यारमाउथ बन्दर में आ लगा । आँधी आने के पीछे आज तक हवा प्रतिकूल और समुद्र स्थिर था, इसलिए हम लोग बहुत ही थोड़ी दूर आगे बढ़ सके । हम लोगों ने बाध्य होकर यहाँ लङ्गर डाला । सात आठ दिन तक वायु प्रतिकूल चलती रही, इस कारण हम लोग वहाँ से हिलडुल न सके । इसी बीच न्यूकैसिल से बहुत से जहाज़ इस बन्दर में आकर अनुकूल वायु की प्रतीक्षा करने लगे ।

हम लोग इतने दिन इस बन्दर में बैठे न रहते, नदी के प्रवाह की विपरीत दिशा में चले जाते; किन्तु हवा का वेग बढ़ते बढ़ते चार पाँच दिन के बाद बहुत प्रबल हो उठा । परन्तु नदी के मुहाने को बन्दर की ही भाँति निरापद जान कर और हम लोगों के जहाज़ की रस्सी को बहुत मजबूत समझ कर माँझी लोग निश्चिन्त और निःशङ्कभाव से समुद्र
की आँधी के समय की भाँति बड़ी सावधानी और फुरती के साथ समय बिता रहे थे । आठवें दिन सवेरे वायु का वेग और भी प्रबल हो उठा । हम लोग जहाज़ सँभालने में जी जान से लग पड़े । मस्तूल का ऊपरी हिस्सा नीचे गिरा दिया । और ऐसी व्यवस्था करने लगे जिसमें जहाज सुरक्षित होकर हम लोगों को आराम दे । दो पहर होते होते समुद्र ने भयङ्कर रूप धारण किया । हम लेागों के जहाज का अग्रभाग और पीछे का हिस्सा जल में ऊब डूब करने लगा । समुद्र के प्रत्येक हिलकोरे में जहाज के भीतर जल आने लगा । कप्तान ने और कोई उपाय न देख एक बड़ा लंगर फेंक देने का आदेश दिया और लंगर की जितनी ज़ंज़ीरें थीं सब पानी में छोड़ दी गई ।

क्रमशः तूफ़ान भयानक हो उठा । उस समय मैंने नाविकों के चेहरे पर भी भय का चिह्न देखा । जहाज की रक्षा के प्रबन्ध में व्यग्र होकर कप्तान बार बार अपनी कोठरी में जाते थे, और बार बार बाहर आते थे । उनको मैंने आप ही आप यह कहते सुना था, "हे ईश्वर दया करो,हा सर्वनाश हुआ, हम लोगों की जान गई ।" तूफ़ान की प्रथम अवस्था में में कुछ निश्चिन्त सा होकर चुपचाप अपनी कोठरी में पड़ा था, और अपने मन में सोच रहा था कि यदि बहुत बड़ा तूफ़ान होगा तो उस दिन का ऐसा होगा । किन्तु स्वयं कप्तान को भीत होते देखकर मैं बेहद डरा ।

मैंने अपनी कोठरी से बाहर आकर जो भयंकर दृश्य देखा, उससे मेरे होश उड़ गये । पर्वत की तरह उच्च आकर धारण कर समुद्र तीन चार मिनट के भीतर ही हमारे जहाज़ को ले देकर रसातल में पहुँचा देगा । मैं जिस ओर देखता
था उधर विपत्ति ही विपत्ति नज़र आती थी । माल से भरे दो जहाज़ों के मस्तूल जड़ से काट कर इसलिए फेंक दिये गये कि वे कुछ हलके हो जायँ । एक भी जहाज़ ऐसा न था जिसका मस्तूल खड़ा हो; लंगर कट जाने से दो जहाज़ समुद्र की ओर प्रधावित होकर बाहर निकल गये । हमारे जहाज़ के नाविक गण कहने लगे–-“यहाँ से एक मील पर एक जहाज़ डूब गया है ।" केवल बोझ से खाली जहाज़ कुछ निरापद और स्वच्छन्द थे, किन्तु उनमें भी दो जहाज़ हमारे जहाज़ के निकट चले आये थे ।

सन्ध्या-समय हमारे जहाज़ के मेट और मल्लाहों ने मस्तूल काटकर जहाज़ हलका करने के लिए कप्तान की अनुमति चाही; किन्तु इसमें उनकी सम्मति न थी; पर मल्लाहों ने जब उनको अच्छी तरह समझा कर कहा कि मस्तूल न काटने से जहाज़ न बचेगा, तब लाचार होकर उन्होंने आज्ञा दे दी । आज्ञा होते ही मल्लाहों ने मस्तूल काट कर जितने डेक थे सबों को एक दम साफ़ कर दिया ।

यह हाल देख-सुन कर मेरे चित्त की जो अवस्था हो रही थी वह अनिर्वचनीय है । क्रमशः तूफ़ान ने ऐसा भयानक रूप धारण किया जिससे मल्लाह भी कहने लगे कि "ऐसा तूफ़ान हम लोगों ने कभी न देखा था ।" हम लोगों का जहाज़ बहुत मज़बूत और अच्छा था, किन्तु बोझा बहुत था, इससे वह ऐसा बेढब हिलने डुलने लगा कि मल्लाह लोग भी रह रह कर चिल्ला उठते थे कि "अब की बार जहाज़ गया, अब डूबा, इस बार अब न बचेगा ।" मैंने अब तक कभी जहाज़ डूबते नहीं देखा था, इससे कुछ जीवित दशा में था, नहीं तो भय से ही मर गया होता । मैंने देखा कि जहाज़ के कप्तान, माझी, मल्लाह और मेट आदि, जो सहज ही डरने वाले न थे वे लोग भी, लग्गी-पतवार छोड़ कर ईश्वर की प्रार्थना करने बैठ गये । सभी लोग पल पल में समुद्र की तलहटी में जाने की आशङ्का कर रहे थे ।

इसी प्रकार उद्वेग और अशंका में समय कटने लगा । आधी रात के समय एक नाविक ने आकर ख़बर दी कि जहाज़ में छेद हो गया है । एक और व्यक्ति ने ख़बर दी कि जहाज़ के भीतरी पेदे में चार फुट पानी भर गया है । तब सब लोग पानी उलीचने के लिए बुलाये गये । इतनी देर में मैं अकर्म्मणय हो बैठा था, क्यों कि मैं नौका-सम्बन्धी विद्या में अपटु था । मैं न जानता था कि क्या करने से जहाज़ की रक्षा होगी । नौका-सचांलन की शिक्षा का प्रारम्भ ही किया था । किन्तु इस समय पम्प चलाने के लिए मेरी भी पुकार हुई । मैं भय से काँपता हुआ कोठरी से निकल चला ।

हम लोग प्राणपण से पम्प चला कर जहाज़ में से पानी उलीच कर बाहर फेंक रहे थे । इतने में हमारे जहाज़ से विपत्ति के संकेत-स्वरूप तोप का शब्द हुआ । मैंने समझा, या तो जहाज़ टूट गया है या और ही कई भयानक दुर्घटना हुई है । मैं ख़ौफ़ के मारे मूर्छित हो गिर पड़ा । उस समय सभी लोग अपने अपने प्राण बचाने की फिक्र में थे, किसी ने मेरी अवस्था पर ध्यान न दिया । एक व्यक्ति ने मुझे मुर्दा समझ कर लाठी से अलग हटा दिया और मेरी जगह आकर आप पम्प चलाने लगा । मैं बहुत देर बाद होश में आया और देह झाड़ कर उठ खड़ा हुआ ।

हम लोग पम्प के द्वारा पानी फेंक रहे थे, किन्तु जहाज़ के निम्नप्रदेश में पानी क्रमशः बढ़ने ही लगा। तब सभी ने
निश्चय किया कि अब हम लोगों का जहाज़ डूब जायगा । यद्यपि तूफ़ान कुछ कम हुआ, तो भी किसी बन्दर तक जहाज़ का पहुंचना असम्भव जान कर जहाज़ का मालिक, सहायता के लिए,संकेत स्वरूप तोप की आवाज़ करने लगा । एक जहाज़ी ने साहस कर के हम लोगों के सहायतार्थ एक नाव भेजी । अत्यन्त विपत्ति के बीच से होकर नाव हम लोगों के पास आई । किन्तु यह जहाज़ के पार्श्व में किसी तरह स्थिर नहीं रह सकती थी । इस कारण हम लोग भी उस नाव पर न जा सकते थे । आख़िर उस नाव के मल्लाह हम लोगों के प्राण बचाने के लिए अपने प्राणों की ममता छोड़ कर के बड़ी फुरती के साथ खूब ज़ोर से पतवार चलाने लगे और हम लोगों के माँझी ने उस नाव पर झट एक रस्सी फेंक दी । नाव के खेने वाले बड़े कष्ट से उस रस्सी को पकड़ कर किसी किसी तरह अपनी नाव के जहाज़ के पास ले आये । फिर क्या था, हम लोग बड़ी फुरती के साथ उस पर चढ़ गये । नाव पर चढ़ कर फिर उस नाव भेजने वाले जहाज़ के पास उसे लौटा कर ले जाना हम लोगों के लिए असंभव था । इस लिए हम लोग नाव को समुद्र के प्रवाह में छोड़ कर धीरे धीरे सूखी ज़मीन की ओर ले जाने के लिए पतवार से काम लेने लगे । प्रवाह और पतवार के ज़ोर से नाव उत्तर ओर बह चली ।

जहाज़ छोड़ने के पन्द्रह मिनट पीछे हम लोगों का जहाज़ डूबने का उपक्रम करने लगा । तब मैं अच्छी तरह समझ गया कि जहाज़ का डूबना कैसा भयंकर दृश्य है !

जब नाविक गण कहने लगे कि जहाज़ डूब रहा है तब मारे भय के मैं आंख उठा कर उस तरफ़ देख तक नहीं सकता


राबिन्सन क्रूसो

प्रवाह और पतवार के जोर से नाव उत्तर ओर बहने लगी ।----पृष्ट १२
था । जब से जहाज़ वालों ने झट पट जहाज़ से उतार कर मुझे नाव पर बैठा दिया था तब से भय और भविष्य की चिन्ता से मेरा प्राण अब-तब में हो रहा था ।

हम लोगों की नाव जब उच्च तरंग के ऊपर आ पड़ती थी तब समुद्र का किनारा देख पड़ता था, और हम लोगों की नौका समुद्रतट के निकटवर्ती होने पर सहायता करने की इच्छा से कितने ही लोग समुद्र के किनारे इधर उधर दौड़ते हुए दिखाई दे रहे थे । किन्तु हम लोगों की नाव किनारे की ओर बहुत ही धीरे धीरे जा रही थी । नाव बहुत दूर तक बह कर एक खाड़ी में जा पड़ी इससे हवा कम लगने लगी । तब हम लोग बड़े परिश्रम से नाव को किनारे लगा कर सूखी जमीन पर उतर आये और स्थलमार्ग से यारमाउथ लौट गये । वहाँ के अधिवासी सौदागर और मजिस्ट्रेट प्रभृति सभी सज्जनों ने हम लोगों के दुर्भाग्य पर सहानुभूति प्रकट कर आश्रय और साहाय्य दिया और प्रत्येक को हल या लन्दन शहर जाने तक का राह-ख़र्च देने की भी कृपा की ।

इस समय मैं यही सोचने लगा कि किधर का रास्ता पकड़ूँ । सुबुद्धि होने से अपने घर लौट जाना उचित था । किन्तु मेरी ज़िद मुझे विनाश-पथ की ही ओर बलात् खींच कर ले जाने लगी । घर जाकर माँ बाप और पड़ोसियों को मुख दिखलाने में लज़ा-होने लगी । मैं, दिये के पतंग की भांति विवेकशून्य होकर आप ही अपने विनाश की ओर उद्यत हुआ ।

कप्तान का बेटा मेरा साथी था । उसे मैंने अब की बार अत्यन्त क्रुद्ध और गम्भीर देखा । स्वयं कप्तान अपने पुत्र से
मेरा परिचय पाकर क्रोध से भयानक मूर्ति धारण कर बोला—-अभाग कहीं का, तेरे ही कारण मेरा सर्वनाश हुआ । जा, तू अभी घर लौट जा । माँ-बाप की असम्मति से यात्रा करके तू खुद मरेगा और दूसरों को भो मारेगा । कोई मुझको लाख रुपया भी देगा तो भी जिस जहाज़ पर तू रहेगा उस पर मैं पैर न रक्खूँगा । बच्चा ! समुद्रयात्रा का मज़ा तो तुम ने खूब ही चखा, अब घर जाकर अपने माँ बाप से जा मिलो ।

उन्होंने इस प्रकार भला-बुरा कह कर मुझे कितना ही समझाया-बुझाया । किन्तु मैं तो मरने ही पर कमर कसे था, इसलिए उनके उपदेश पर ध्यान न देकर वहाँ से निकल चला । जेब में खर्च के लिए कुछ रुपया आ ही गया था; अतएव स्थल-मार्ग से मैं लन्दन को रवाना हुआ । किन्तु रास्ते में दो ओर मेरे चित्त का खिंचाव होने लगा । एक बार मैं सोचता था कि "मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ? समुद्र-यात्रा में क्या लाभ है ? घर लौट जाना ही अच्छा है ।" फिर अकारण लज्जा और चित्त का एक विचित्र झुकाव मुझे रोक लेता था । विशेष कर मनुष्यों की कम उम्र का स्वभाव बड़ा ही विलक्षण होता है । पाप करने में उसे कुछ लज्जा नहीं होती, बल्कि अनुताप द्वारा प्रायश्चित्त करके पाप के संशोधन करने ही में लज्जा मालूम होती है । जिस काम के करने से वे मूर्ख कहलायेंगे वह काम निःसंकोच होकरकरेंगे; किन्तु जिस काम के द्वारा उनके सद्ज्ञान का परिचय पाया जायगा वही करने में उनको शर्म लगती है ।

मैंने फिर समुद्रयात्रा की ही बात स्थिर की ।

_________