राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का फिर ब्रेज़िल में आना

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क्रूसो का फिर ब्रेज़िल में आना

बारह दिन समुद्रयात्रा करने के बाद हम लोगों ने अमेरिका का उपकूल देखा। इसके चार दिन बाद हम लोगों ने ब्रेज़िल पहुँच कर लंगर डाला। यह वही जगह थी जहाँ से मेरे सौभाग्य और अभाग्य की सूचना आरम्भ हुई थी।

हम लोग ब्रेज़िल में आये तो सही किन्तु हम लोगों को स्थल में उतरने की आज्ञा नहीं मिली। मेरे पुराने हिस्सेदार अब भी जीवित थे। मेरे और उनके बीच जो शर्तनामा लिखा गया था वह भी इस समय हम लोगों का कोई उपकार न कर सका। सौदागरों ने हम लोगों के लिए बहुत कुछ सिफ़ा[ ३२३ ] रिश की किन्तु उससे भी कुछ फल न हुआ। मेरे द्वीप के अद्भुत कार्यकलाप की ख्याति भी हम लोगो को इस अनुग्रह का पात्र नहीं बना सकती थी। तब मेरे हिस्सेदार को स्मरण हुआ, कि मैंने वहीं को धर्मशाला के फ़ण्ड और दरिद्रों के भरण-पोषण के लिए यत्किञ्चित् दान दिया था। इससे उन्होंने धर्मशाला में जाकर महन्त को मेरी उदारता का स्मरण दिलाया और उन्हें नगराधीश के निकट, हम लोगों के लिए जहाज़ से उतरने की, अनुमति लाने को भेजा। बड़ी बड़ी मुश्किल से मैं, मेरा भतीजा (कप्तान), और छः व्यक्ति, कुल पाठ आदमियों को जहाज़ से उतरने की आज्ञा मिली। किन्तु यह भी इस शर्त पर कि हम लोग जहाज़ से कोई माल न उतारेंगे और बिना सरकार की आज्ञा के किसी व्यक्ति को वहाँ से अपने साथ न ले जा सकेंगे। इस शर्त का पालन इतनी कड़ाई से हुआ कि अपने हिस्सेदार को उपहार देने की सामग्री भी मैं बड़ी कठिनाई से जहाज़ पर से उतारने पाया ।

मेरे हिस्सेदार बड़े सज्जन थे। वे भी मेरी ही भाँति बिना कुछ पूँजी के व्यापार शुरू कर के अब अच्छे धनी हो गये थे। जितने दिन तक हम लोग जहाज़ से न उतर सके उतने दिन तक उन्होंने तरह तरह की खाने-पीने की स्वादिष्ठ वस्तुएँ भेज कर हम लोगों का सत्कार किया था। मैंने जहाज़ से उतर कर उनको प्रतिदान-स्वरूप विविध उपहार दिये।

मैं इँगलैन्ड से जो एक छप्परवाली नाव का फ्रेम लाया था उसमें इन्हींकी सहायता से तख़्ते जड़वा लिये। उन्होंने मिस्त्री के द्वारा उसे भली भाँति ठीक ठाक करा दिया। मैंने वह नाव एक व्यक्ति को सौंप कर उसकी मारफ़त भाँति भाँति [ ३२४ ] की चीज़ें अपने टापू में भेज दीं। हमारे साथ का एक नाविक टापू में जाकर रहने की इच्छा करने लगा। मैंने उसे भी जाने की आज्ञा दी। असभ्य बन्दी को उसीके हवाले किया। वह नाविक का भृत्य होकर रहेगा। स्पेनियर्ड सरदार को मैंने एक चिट्ठी लिख दी कि इस नाविक को खेती के लिए ज़मीन, खेती-बारी के उपयुक्त हथियार और अन्यान्य आवश्यक वस्तुएँ दे देना।

नाव रवाना होने के पहिले मेरे कारबार के साझेदार ने मुझसे कहा कि-हमारा परिचित एक सज्जन यहाँ के पुरोहित-सम्प्रदाय की आँखों का काँटा हो रहा है। उस पर उनकी बुरी दृष्टि है। वह अपनी स्त्री और दो लड़कियों को लेकर यहाँ से भागने का उपाय खोज रहा है। यदि आप उसको अपने टापू में भेज कर खेती के लिए ज़मीन दें और सब बातों का प्रबन्ध कर दें तो उस भले मानस का बड़ा उपकार हो। वह पुरोहितों के हाथ में कहीं पड़ गया तो वे उसे जीते ही जला डालेंगे।

इस बात को मैंने तुरन्त स्वीकार कर लिया। उन लोगों को अपने जहाज़ में लाकर छिपा रक्खा। जब नाव रवाना होने लगी तब उन्हें उस पर सवार करा कर बिदा कर दिया।

ये महाशय यहाँ के एक प्रसिद्ध काश्तकार थे। जाते समय ये अपने साथ कुछ ऊख की जड़ें इसलिए लेते गये कि वहाँ जाकर ऊख की खेती करेंगे।

मैंने अपने द्वीप की प्रजा के लिए निम्न लिखित वस्तुएँ भेज दीं-तीन दुधार गायें, पाँच भेड़ें, बाइस सुअर, दो घोड़ियाँ और एक घोड़ा; तथा स्पेनियर्डों के विवाहार्थ तीन [ ३२५ ] पोर्तुगीज़ रमणियाँ भी। ब्याहने योग्य और कन्याएँ भी मैं भेज सकता था किन्तु स्पेनियों में पाँच ही व्यक्ति अविवाहित थे और सभी विवाहित थे। देश में उनके स्त्रीपुत्र घर-द्वार सब कुछ थे। पाँच व्यक्तियों के विवाहार्थ मैंने तीन कन्यायें भेजीं और दो कुमारिकायें उस भगोड़े भलेमानस के साथ गई थीं।

मेरी भेजी हुई वस्तुएँ टापू में सुरक्षित पहुँच गई थीं और वहाँ के निवासियों के परम आनन्द का कारण हुई थीं। इँगलैन्ड पहुँचने पर जब मुझे उनकी चिट्ठी मिली तब मालूम हुआ कि उस समय ७० आदमी द्वीप में थे। उनमें बालकों की गिनती न थी।

द्वीप के साथ मेरा यही अन्तिम सम्पर्क था। द्वीप की बात ख़तम हुई। अब वहाँ का वृत्तान्त कहने का मुझे अवसर न मिलेगा। इसके अतिरिक्त पाठकगण केवल एक वृद्ध की निर्बुद्धिता का इतिहास पढ़ सकेंगे। वह वृद्ध कैसा कि एकदम नासमझ, विपत्ति की बार बार ठोकरें खाकर और दूसरे की अवस्था देख कर भी उसमें कुछ समझ न आई। चालोस वर्ष का असाधारण कष्ट या आशातीत ऐश्वर्य भी उसे किसी प्रकार शान्त न कर सका।

किसी स्वाधीन सज्जन को जेलखाने में कैद होकर रहने की जैसे कोई आवश्यकता नहीं वैसे ही मुझे भी भारतवर्ष में जाने की कोई आवश्यकता न थी। यदि मैं इँगलैंड से एक छोटे से जहाज़ पर आवश्यक वस्तुओं को अपने टापू में ले जाता और इँगलैंड के राजा से अनुमतिपत्र ग्रहण कर इँगलैंड के नाम से द्वीप को अपने अधिकार में करके उसकी रक्षा [ ३२६ ] करता तो मेरी अक्ल की तारीफ़ की जा सकती। यदि मैं वहीं रह कर द्वीप से देशान्तर को चावल भेजता और द्वीपनिवासियों के लिए आवश्यक वस्तुएँ देश से मँगा कर बनजब्यापार करता तो मैं अपनी बुद्धि का कुछ न कुछ परिचय देता। किन्तु मुझे तो भ्रमण का रोग दबाये बैठा था। मेरे सुख के पीछे शनिग्रह लगा फिरता था। द्वीपनिवासियों का अध्यक्ष होकर ही मैं अपने को धन्य मान बैठा था। अहङ्कार में फूल कर उन लोगों पर हुकूमत करता था। किन्तु उन लोगों को किसी राजा के नाम से आबद्ध करने की बात कभी जी में न आती थी। यहाँ तक कि मैंने उस द्वीप का अब तक कुछ नाम भी न रक्खा था। वे लोग मुझको अपना सर्दार मानते थे और मेरी आज्ञा के अनुसार चलते थे किन्तु वह भी उनकी इच्छा पर निर्भर था। उन पर ज़ोर करने योग्य मेरी क्षमता ही क्या थी? कुछ दिन के बाद मुझे ख़बर मिली कि विल एटकिंस मर गया; पाँच स्पेनियर्ड रुष्ट होकर देश चले गये हैं और सभी लोग देश लौट जाने के हेतु व्यग्र हो रहे हैं। मैं कोरे का कोरा ही रह गया। भर पेट खाना और नींद भर सोना ही मेरा कर्तव्य रह गया। इससे संसार में किसका क्या उपकार हुआ? यह न समझिए कि मेरी मूर्खता का अन्त यहीं होगया; इसके अतिरिक्त मैं अपनी अज्ञता का अभी बहुत कुछ परिचय दूँगा। ईश्वर मेरी प्रार्थना को पूरी कर के दिखला देते थे कि तुम जो चाहते हो वह तुम्हारी भूल है, उससे तुम्हारा कोई कल्याण न होगा। मैं प्रार्थित फल पाकर भी पीछे से हाय हाय कर के मरता था। जिसे मैं सुख का कारण समझ कर चाहता था भगवान् वही मेरे हाथ देकर दिखला देते थे कि 'तेरे ज्ञान की दौड़ कहाँ तक है' [ ३२७ ] और जिसको हम लोग सुख का कारण समझते थे, वह न मालूम कहाँ तक दुःखदायक था। इसी कारण उपनिषद् के परमज्ञाता ऋषियों ने ईश्वर से प्रार्थना करके कहा है-हे जगत्पिता, हमें आप वहो दें जिससे हम लोगों का परममङ्गल हो, हम लोग जो चाहे वही न दे दें।