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राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का भागना

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राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ३५५ से – ३६४ तक

 

क्रूसो का भागना

इस अकारण-विपत्ति से बच कर हम लोगों ने निश्चय किया कि अब यूरोपीय जहाज़ों के सामने न जायँगे। उन लोगों ने जब हमें सामुद्रिक लुटेरा मान लिया है तब उनके सामने पड़ कर उनसे सहज ही छुटकारा न पा सकेंगे। जो नालिश करे वही यदि विचारक हो तो सुविचार की संभावना बहुत कम रहती है। अतएव वाणिज्य अभी हम लोगों के माथे ही पर रहे; यही विचार निष्पन्न हुआ। जंगल का भूला-भटका साँझ को अपने अड्डे पर पहुँच जाय तो इसे कुशल ही मानना चाहिए। अभी हम लोग बंगाले को लौट जायँ तो वहाँ पर कुछ सही-सबूत दे भी सकेंगे। स्थल-भाग के विचारक पहले फाँसी देकर पीछे विचार न भी करें।

इधर हम लोगों की सुख्याति का प्रचार चारों ओर अच्छी तरह हो चुका है। अभी लौट जाने से पोर्चुगीज़ या अँगरेज़ जहाज़ की शुभ दृष्टि से बचना कठिन होगा। इसलिए हम लोगों ने अभी चीन के किसी बन्दर में जाने का निश्चय किया। वहाँ जैसे होगा, जहाज़ बेच डालेंगे। इस पाप से किसी तरह पिण्ड छुड़ा कर हम लोग किसी दूसरे जहाज़ पर सवार होकर घर को लौट जायँगे।

हम लोग चीन ही की ओर चले किन्तु सीधे मार्ग से नहीं। रास्ते से हट कर चलना ही उचित समझा। कौन जाने, यदि किसी जहाज़ के सामने पड़ जायँ, जो हमारे हालात से वाकिफ़ हो तो फिर विपत्ति में फँसना होगा।

इस समय की अवस्था मुझे बहुत बुरी लगती थी। इतने दिनों तक अनेक प्रकार की विपत्तियों में पड़ चुका हूँ परन्तु ऐसी आफ़त में कभी न पड़ा था। क्या इस बुढ़ापे में विधाता ने चोरी-डकैती का अपवाद भी मेरे कपार में लिखा था? यदि इस जीवन में कभी किसी का कुछ अनिष्ट भी किया होगा तो वह अपना ही। मैं आप ही अपना शत्र हूँ। इसके अतिरिक्त आज तक मैंने कभी किसी के साथ कोई ठगाई का काम नहीं किया है। मैं ऐसी अवस्था में पड़ गया हूँ कि अपनी निर्दोषता को सप्रमाण सिद्ध करना कठिन हो पड़ा है। मेरे पास प्रमाण ही क्या है? बिना कुछ सबूत दिखलाये मेरी बात का विश्वास ही कौन करेगा? इसलिए प्रतिपक्षियों से छिप कर भागने के लिए मेरा मन व्याकुल हो उठा था। किन्तु किस तरफ़ भागने से बच सकूँगा इसका कुछ निश्चय नहीं कर सकता था। अन्त में चीन के टंकुइन-उपसागर (खाड़ी) के मैकाओ बन्दर में जहाज़ ले जाने की बात तय हुई।

समुद्र के मध्यवर्ती होकर जाने में खटका था इस लिए हम लोग जहाज़ को एक नदी के मुहाने में ले गये। भाग्य से ही यह बात सूझी थी। हम लोगों के टंकुइन-उपसागर में प्रवेश करने के बाद तुरन्त दो ओलन्दाज़ (पोर्चुगीज़) जहाज़ वहाँ आ पहुँचे।

जहाँ मैं रहूँ वहाँ शान्ति की संभावना कहाँ? हम लोगों के पीछे तो शत्रु थे ही, पर भाग्यदोष से हम लोगों के सम्मुख भी मित्र न मिले। चीनवाले हम लोगों को देख कर जो भाव प्रकाश करने लगे उससे किसी को सन्देह न रहा कि ये लोग हम लोगों के साथ अच्छा बर्ताव करेंगे।

हमारे जहाज़ को किनारे पर देख झंड के झंड चीनी लोग टिड्डीदल की भाँति नदी के किनारे एकत्र होने लगे। हम लोगों ने जब जहाज को किनारे लगा कर उस पर से चीज़-वस्तुओं को उतार कर जहाज को मरम्मत के लिए उलट दिया तब चीनी लोगों ने समझा कि इन का जहाज किनारे लग कर उलट गया है। इससे वे लोग हम सबको दासरूप में बन्दी करने और हम लोगों का माल-असबाब लूटने के लिए आतुर हो उठे। हमारे नाविक जब जहाज की मरम्मत कर रहे थे तब चीनी लोग नाव पर सवार हो हम लोगों को घेरने लगे। उन का दुराशय समझ कर हम अपनी तरफ के लोगों को जहाज से बन्दूक़ और गोली-बारूद देने लगे। चीनियों ने समझा कि हम लोग टूटे जहाज पर से माल उतार रहे हैं। वे लोग निःशङ्क भाव से झट आकर हमारे नाविकों को पकड़ने की चेष्टा करने लगे। हम लोगों का जहाज एक तरफ़ किनारे लगा था। सभी लोग एक तरह से असावधान थे। यह समय युद्ध करने के लिए उपयुक्त न था। हम लोगों ने झटपट माल-असबाब को सहेज कर अपने जहाज को किनारे से हटा कर पानी में ले जाना चाहा। चीनी लोग हमारी नाव पर चढ़ कर एक नाविक को ज्योंही पकड़ने गये त्योंही उसने हाथ की बन्दूक़ नीचे रख दी और भले आदमी की तरह अपने को पकड़ाने के लिए खड़ा हो गया। उसकी यह दशा देख मैं तलुवे से चोटी तक मारे क्रोध के जल उठा। किन्तु उस नाविक को मैंने जैसा मूर्ख समझ रक्खा था वास्तव में वह वैसा न था। चीनी ने हाथ बढ़ा कर ज्योंही उसे पकड़ना चाहा त्यों ही उसने चीनी का हाथ पकड़ कर ऐसा झटका दिया कि वह जहाज के भीतर धड़ाम से जा गिरा और उस चीनी के मस्तक को ऐसे जोर से ठोका कि उसीसे उसके प्राण निकल गये। दूसरे नाविक को पकड़ने गये तो उसने बन्दूक़ के कुन्दे से उनका अच्छा सत्कार किया। उससे पाँच आदमी जख्मी हुए। किन्तु इससे भी चीनी लोग शान्त न हुए। वे चालीस आदमी थे। हमारे नाविक गिनती में केवल पाँच थे और नाव पर बैठ कर जहाज़ की मरम्मत कर रहे थे। जहाज़ का छेद बन्द करने के लिए अलकतरा, मोम, चर्बी और तेल आदि मसाले गरम हो रहे थे। तेल खूब खौल रहा था। नाविको ने वही गरम तेल और अलकतरा उन चीनियों पर छिड़क दिया। खौलता हुआ तेल पड़ने से वे छटपटाते हुए पानी में जा गिरे। यह देख कर मिस्त्री ने चिल्ला कर कहा-"वाह, वाह! बड़ा अच्छा हुआ। सालों पर दो चार कलछी और डाल कर पूरे तौर से आतिथ्य कर दो। ये साले हमारे मेहमान हैं। इनकी खूब गरम गरम अभ्यर्थना करो।" यह कहते कहते वह खुद आगे बढ़ कर बड़ी फुरती से उन चीनियों पर गरम गरम तेल और अलकतरा छिड़कने लगा। चीनी लोग अजब तरह से चिल्लाते हुए वहाँ से भाग गये। यह विचित्र लीला देख कर हँसते हँसते मेरा दम फूलने लगा। ऐसा कुतूहल-पूर्ण विजय मैंने और कभी न देखा था। पहले ही जो एक चीनी मर चुका था उसे छोड़ और कोई मरा नहीं। जीत हमारी हुई। प्राण क्या ऐसी उपेक्षा की वस्तु है? मेरा सिद्धान्त तो यही है कि अपनी कुछ हानि भी हो तो भी किसीका प्राण लेना ठीक नहीं। इसीसे यह बिना खून-खराबी का विजय मेरे विशेष आनन्द का कारण हुआ।

इतने में हम लोगों ने जहाज को एक तरह से दुरुस्त कर लिया। अब यहाँ रहना निरापद नहीं हो सकता। चीनी लोग अब ऐसा दल बाँध कर आवेगे कि अलकतरे से काम न चलेगा। दूसरे दिन खूब तड़के हम लोग पाल तान कर रवाना हो गये। जहाज के भीतर पानी पाना बन्द हो गया। हम लोगों ने टङ्कइन-उपसागर में जाकर देखा कि वहाँ और भी कितने ही जहाज़ हैं। इसलिए हम लोग फ़ौरन वहाँ से फारमोसा टापू की ओर चले गये। वहाँ जहाज लगा कर हम लोगों ने खाने-पीने की वस्तुओं का संग्रह कर लिया। वहाँ के लोगों ने अपनी शिष्टता दिखला कर हम लोगों को तृप्त किया। हम लोग क्रमशः उत्तर ही की ओर इस मतलब से जाने लगे, कि अँगरेजो के जहाज जहाँ तक जाते हैं उस सीमा से बाहर हो जाने से हम लोग निश्चिन्त हो सकेंगे।


क्रूसो का छुटकारा

हम लोग जब किनारे पर जहाज़ लगाने के लिए बन्दर खोज रहे थे तब एक दिन एक नाव हमारे जहाज के पास आ लगी। उसमें बैठ कर एक वृद्ध पोर्चुगीज़ हम लोगों को बन्दर में पहुँचा देने के लिए आया था। हम लोगों ने उस को अपने जहाज पर बिठा लिया। नाव वहाँ से चली गई।

मैंने समझा कि इस वृद्ध को हम लोग जहाँ जहाज ले चलने को कहेंगे वहाँ वह बेउज्र ले चलेगा। हम लोगों को अपना आशय प्रकट करना ही पड़ा। मैंने वृद्ध से जहाज़ को नानकुइन-उपसागर में ले चलने के लिए कहा-वह चीन का नितान्त उत्तरीय उपकूल था। बूढ़े ने जरा व्यंग की हँसी हँस कर कहा-"मैं नानकुइन-उपसागर को भलो भाँति जानता हूँ। किन्तु एकदम उत्तर ओर जाने का अभिप्राय क्या है?" उसकी यह व्यङ्ग की हँसी और दूसरे का अभिप्राय जानने की धृष्टता देख कर मेरा जी जल उठा। मैंने कहा-"हम लोग अपने जहाज की विक्रय वस्तुएँ बेच कर चीनी बर्तन, छींट, रेशम, चाय और कपड़े आदि देसावरी चीजें खरीदेंगे।" वृद्ध ने कहा-"यह काम तो मैकिंग बन्दर में भी बड़े सुभीते के साथ हो जाता। इतना घूम कर उत्तर और जाने की क्या ज़रूरत है?" एक बार तो मेरे मन में आया कि बूढ़े से कह दूँ कि "मेरी खुशी। मैंने खूब अच्छा किया कि टेढ़ी राह से आया हूँ और टेढ़ी राह से ही जाऊँगा इसमें तुम्हारा क्या? तुम विदेशी हो, जहाज़ों को बन्दर में पहुँचा देना ही तुम्हारा पेशा है। तुम वही करो जो मैं कहता हूँ। हल्दी बेचने वालों के लिए जवाहिर का भाव ताव करना वृथा है।" किन्तु बूढ़े को नाराज कर देना अभी अच्छा न समझ कर मैंने बड़ी मुलायमियत से कहा-"हम लोग निरे व्यवसायी ही नहीं हैं। हम लोग रईस हैं। देश देखने की भी हमारी इच्छा है। हम लोग एक बार पेकिन शहर में जाकर चीन के सम्राट का दरबार देखना चाहते हैं।" इस पर भी वह चुप न हो कर तुरन्त बोल उठा-"तब तो आप लोगों का निम्पो से होकर नदी के रास्ते जाना ही ठीक होगा।" मैंने क्रुद्ध हो कर कहा-"हम लोग अभी पेकिन न जायँगे। हम पहले नानकुइन जायँगे, तब वहाँ से पेकिन। साफ़ साफ़ कहो, हम लोगों को तुम नानकुइन ले जा सकते हो या नहीं।" उसने कहा-"क्यों न ले जा सकूँगा। यही तो कुछ देर पहले एक बहुत बड़ा पोर्चुगीज़ जहाज़ उस ओर गया है।" पोर्चुगीज़ जहाज़ का नाम सुनते ही हृदय काँप उठा। बूढ़े ने पोर्चुगीज़ जहाज़ के नाम से मुझको चौंकते देख कर कहा-पोर्चुगीज़ जहाज़ से अभी आपको डरने का कोई कारण नहीं। उन लोगों के साथ आपके देशवासियों की तो अभी कोई दुश्मनी नहीं है?

मैंने कहा-"सच है, दुश्मनी तो नहीं है, किन्तु मनुष्य किसको किस नजर से देखते हैं यह बात पहले नहीं जानी जा सकती। इसी से अपरिचित लोगों से दबना पड़ता है।" बूढ़े ने कहा-"आप सीधे सादे व्यवसायी है, इसमें डरने की क्या बात है? आप लोग लुटेरे तो हैं नहीं।" लुटेरे का नाम सुनते ही मेरा मुँह लज्जा से लाल हो उठा। वृद्ध ने मेरे चेहरे पर लक्ष्य देकर कहा-"महाशय, मैं देख रहा हूँ कि आपके मन में कुछ गोलमाल है। खैर, आपका जहाँ जी चाहे जहाज़ ले चलें। मैं यथासाध्य आपका उपकार करूँगा।" मैंने बात टालने के इरादे से कहा-"महाशय! आपका अनुमान बहुत ठीक है, मैं इस बात का अभी तक कोई निश्चय नहीं कर सका कि इस जहाज को कहाँ ले जाऊँ। आपके मुँह से लुटेरे का नाम सुन कर मुझे और भी डर लग रहा है।" वृद्ध ने कहा-आप क्यों डरते हैं? इस तरफ़ समुद्र में लुटेरे नहीं रहते। क़रीब एक महीना हुआ, स्याम की खाड़ी में सुमात्रा द्वीप के निकट एक दुर्घटना हो गई है। जहाज़ का कप्तान जब मलय देशवासियों के हाथ से मारा गया तब जहाज़ के नाविकगण जहाज़ चुरा कर ले गये। फिर उन नाविकों ने लुटेरों के हाथ वह जहाज़ बेच डाला। वह लुटेरा जहाज़ स्याम-उपसागर में पोर्चुगीज़ (ओलन्दाज) और अँगरेजी जहाज़ के हाथ पकड़ा ही जाने को था पर जरा सा अवकाश मिल जाने से वह भाग गया। उस लुटेरे जहाज़ की बात सभी जहाज़ी सुन चुके हैं। देखते ही उसे पहचान लेंगे। अब जहाँ उसे एक बार पकड़ पावेंगे तहाँ फिर उसे कुछ कहने का भी मौका न देंगे। गिरफ्तार होते ही उन नाविकों को मस्तूल को रस्सी से लटका देंगे।

हाय हाय! हे भगवान्! यह हमारी ही कीर्ति-कहानी है और प्राण जुड़ाने वाले भविष्य चित्र का निदर्शन है। वह बूढ़ा पथ-प्रदर्शक इस समय सम्पूर्ण रूप से हमारी आज्ञा के अधीन है। इसका उतना भय नहीं। यह सोच कर मैंने उससे खुलासा कहा-"महाशय, इसी कारण हम लोग उद्विग्न होकर उत्तर ओर दौड़े जा रहे हैं। वे भागने वाले हमी लोग हैं। लुटेरे न होने पर भी हम उस कलङ्क से कलङ्कित हैं।" इसके बाद मैंने अपने जहाज़ का समस्त इतिहास उससे कह सुनाया। सुन कर वृद्ध बेचारा अवाक् हो रहा। उसने हम लोगों से कहा-आप लोगों ने बहुत दूर उत्तर ओर आकर सचमुच ही बहुत बुद्धिमानी का काम किया है। मैं आपके इस जहाज़ को बेच कर एक दूसरा जहाज़ ख़रीद दूँगा। उससे आप लोग निर्विघ्न बंगाल को लौट जा सकेंगे।

मैंने कहा-महाशय! जहाज़ तो आप बेव देंगे, किन्तु जो भलेमानस इस जहाज़ को खरीदेंगे उनके साथ तो यह आफ़त लगी ही रहेगी। क्योंकि सभी इस जहाज़ पर नाराज़ हैं। वह मनुष्य भीतर से कितना ही निर्दोषी और सज्जन क्यों न होगा पर पोर्चुगीज़ों और अँगरेज़ों के जहाज़ से उसकी रक्षा न होगी।

वृद्ध ने कहा-मैं उसका भी प्रबन्ध कर दूँगा। बहुत कप्तानों के साथ मेरा परिचय है। वे लोग जब इस रास्ते से जायँगे तब मैं उन सबों से भेट करके सब वृत्तान्त समझा कर कह दूँगा।

हम लोगों ने नानकुईन-उपसागर के प्रान्तीय क्युच्याँग बन्दर में जाकर जहाज़ लगाया। आफ़त की जड़ जहाज़ से उतर कर धरती में पाँव रखते ही हम लोगों की जान में जान आई। यदि जहाज़ मिट्टी मोल भी बिक जायगा तो हम लोग एक बार सिर न हिलावेंगे। रात-दिन भयभीत बना रहना कैसी विडम्बना है! आँखों में नींद नहीं, चित्त में चैन नहीं, खाने-पीने की इच्छा नहीं। केवल मृत्यु और कलङ्क की विभीषिका को सामने रख कर समय बिताना बड़ा कष्टकर है। मैं इस बुढ़ापे में चोरी की इल्लत में पकड़ा जाकर विदेश में फाँसी से प्राण गवाँने बैठा था। किन्तु मैं किसी भाँति यह अपमानजनक मृत्यु सह्य नहीं कर सकता। मैं शत्रुओं के साथ प्राणपण से युद्ध करता। यदि युद्ध में जीत न सकता तो जहाज़ को बारूद से उड़ा देता। किसीको विजय-जनित अहङ्कार करने का अवकाश न देता। जब मैं इन बातों को सोचता था तब मेरा दिमाग गरम हो उठता था। एक दिन ऊँघते ऊँघते मैने जहाज़ के तख्ते पर ऐसे ज़ोर से घूँसा मारा कि हाथ में चोट लगने से लहू बह निकला। समुद्र में रहने से जितना ही प्राण व्याकुल था उतना ही स्थल में आने से आराम मालूम होने लगा। किनारे उतर कर वृद्ध महाशय ने हम लोगों के रहने के लिए एक स्थान ठीक कर दिया। हम लोग उसी स्थान में अपना माल उतार कर ले गये और वहीं रहे। घर बेत के बने थे। घर के चारों ओर मोटे मोटे बेतों का घेरा था। इस देश में चोरों का बड़ा भय था। वहाँ मैजिस्ट्रेट ने हम लोगों के माल की निगरानो के लिए कई पहरेदार तैनात कर दिये थे। उन लोगों के खाने के लिए चार मुट्ठी चावल और चार आना पैसे रोज़ देकर उन्हें काबू में कर लिया था। वे लोग फरसे को कन्धे पर रख कर बड़ी सावधानी के साथ पहरा देने लगे।