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राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो की मानसिक अशान्ति

विकिस्रोत से
राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ २४० से – २४५ तक

 

उत्तरार्ध

क्रूसो की मानसिक अशान्ति

बहुत लोग यह समझेगे कि मैं इतना बड़ा धनाढ्य होकर भ्रमण करना छोड़ एक जगह स्थिर होकर बैठ रहा हूँगा। किन्तु मेरे भाग्य में यह लिखा ही न था। घूमने का रोग मेरी नस नस में घुसा हुआ था। उस पर न मेरे बन्धु-बान्धव थे, न स्वजन-परिवार था और न घर-द्वार था, जिनके मोह से मैं देश छोड़ अन्यत्र नहीं जाता। संसार ही मेरा घर था; संसार के मनुष्य ही मेरे आत्मीय बन्धु थे। देश में आते ही फिर मुझे बेज़िल जाने की इच्छा होने लगी। एक बार फिर अपने उस टापू को देखने की इच्छा हुई। उस टापू में आने वाले स्पेनियर्ड लोगों का क्या हुआ, यह जानने के लिए मेरा चित्त बड़ा ही उत्सुक था। मेरे मित्र की पत्नी ने रोक रोक कर मुझे सात वर्ष देश में अटका रक्खा। इस अरसे में मैंने अपने दोनों भतीजों को कुछ लिखा-पढ़ाकर और कुछ रुपया-पैसा देकर मनुष्य बना दिया। उनकी हैसियत ऐसी हो गई जिससे वे अपना जीवन-निर्वाह अच्छी तरह कर सकते थे। मेरा एक भतीजा जहाज़ का कप्तान हुआ। वही छोकरा मुझे इस वृद्धावस्था में फिर विपत्ति के साथ युद्ध करने के लिए घर से खींचकर बाहर ले गया।

जब मैं लौटकर देश गया था तब मैंने ब्याह किया था। दो लड़के और एक लड़की होने के बाद मेरी स्त्री की मृत्यु हुई। उसी अवसर पर, १६९४ ईसवी को, मैं अपने भतीजे के जहाज़ पर सवार हो वाणिज्य करने की इच्छा से अमेरिका को रवाना हुआ। लोग कहा करते हैं, "जाको है जौन सुभाव, सुनो वह कोटि उपाय किये न हिलै," "न घिसने से स्वभाव जाता है, और न धोने से कलङ्क छूटता है।" यह कहावत मुझपर खूब घटती थी। पैंतीस वर्ष तक दारुण कष्ट भोगने के बाद सात वर्ष शान्ति से सुख भोग कर इस एकसठ साल के बुढ़ापे में देश-भ्रमण की इच्छा जाग उठने का कोई कारण न था, क्योंकि जो लोग देश घूमते हैं वे या तो द्रव्योपार्जन के लिए जाते हैं या देश देखने के लिए। किन्तु मैंने देश घूम कर रुपया भी खूब बटोरा और देश भी अनेक देखे। अतएव देशान्तर जाने की मुझे कोई आवश्यकता न थी। परन्तु यह बात मैं ऊपर कह आया हूँ कि "स्वभावो बलवत्तरः", मेरा सैर करने का स्वभाव मुझको घर से बाहर होने के लिए दिन रात तक़ाज़ा करने लगा। इस विषय में मेरा जो इतना लगा रहता था कि स्वप्न में भी देश-भ्रमण की ही बात देखता और बकता था। मेरे इस विषय की नित्य प्रति की एक ही बात लोगों को कर्णकटु हो उठी थी। यह मै भली भाँति समझता था, किन्तु भ्रमण का उन्माद मेरे सिर पर सवार था। वह मुझे दूसरी ओर हिलने डुलने न देता था।

पथ-विहरण की लालसा लगी रहे जिय माँहि।
मनो पुकारत सो हमें छिनहू बिसरत नाँहि॥

मैं किसी तरह उसके खिंचाव को रोक नहीं सकता था, किन्तु यह भी न जान सकता था कि मेरा झुकाव उस तरफ़ इतना क्यों है। चाहे जिस कारण से हो, मुझे घूमने का नशा था और उसने मुझको अपने अधीन बना रक्खा था। बुद्धिमान् लोग कहा करते हैं कि असल में भूत-प्रेत कुछ नहीं है, केवल मस्तिष्क की ख़राबी से लोगों के ख़यालात बदल जाते हैं और उसी से भूत-प्रेत देख पड़ते हैं; वे भूतों के साथ बाते करते हैं और उनकी बातें सुन सकते हैं। यथार्थ में भूत है कि नहीं, यह मैं नहीं जानता। अब तक तो मैंने कभी भूत नहीं देखा, किन्तु दिमाग गर्म होने से जो मन में भाँति भाँति की भ्रान्तियाँ उत्पन्न होती हैं इसका मुझे पूर्णपरिचय है। मस्तिष्क उत्तेजित होने से लोगों के मन में विचित्र भावनायें होने लगती हैं। कभी कभी मेरे मन में यह भावना होती थी कि मैं अपने द्वीप में गया हूँ और अपने किले के भीतर बैठ कर स्पेनियर्ड, फ़्राइडे के बाप तथा विद्रोही नाविकों के साथ बातें कर रहा हूँ; उनका पारस्परिक विवाद मिटा कर कर्तव्य की मीमांसा कर रहा हूँ और अपराधियों के दण्ड की व्यवस्था कर रहा हूँ। इस तरह सोचते-विचारते कई साल गुज़र गये। मेरे पास आराम की सब सामग्री थी, फिर भी मुझे दिन-रात छटपटी लगी रहती थी। न दिन को चैन मिलता था न रात को नींद आती थी। मैं हर घड़ी सोच-सागर में डूबा रहता था। एक दिन मेरी स्त्री ने कहा, "आपके चित्त की अवस्था देख कर यही जान पड़ता है कि ईश्वर किसी महान् उद्देश से आपको इस ओर खींच रहे हैं। इस समय मैं और बाल-बच्चे आपके बाधक हो रहे हैं। मैं आपको छोड़ कर अकेली न रह सकूँगी। मेरी मृत्यु होने ही से आप निर्बन्ध हो सकते हैं। अभी आप अपने को एक प्रकार से बद्ध समझें।" यह कहते कहते उस बेचारी की आँखों से आँसू टपक टपक कर गिरने लगे। इसके बाद फिर उसने कहा, "इस बुढ़ापे में आपका देशदेशान्तर का घूमना अच्छा नहीं। आपकी अब वह उम्र नहीं जो स्वतन्त्रता-पूर्वक देश-भ्रमण करें, यदि आपका जाना ज़रूरी ही होगा तो मैं भी आपके साथ चलूँगी।" स्त्री की ऐसी स्नेह-भरी मीठी बात सुनकर और मीठे तिरस्कार का इशारा पाकर मुझे कुछ चेत हुआ। तब मैंने समझा कि मैं यथार्थ में पागलपन करने को उद्यत हुआ हूँ। मनही मन अनेक तर्क-वितर्क कर के मैंने अपनी चित्त-वृत्ति को रोका।

मैंने बेडफ़ोर्ड जिले में एक छोटा सा गँवई-मकान खरीद लिया। वह मकान काम चलाने लायक़ अच्छा था। हाते के भीतर ज़मीन भी बहुत थी। मैंने खेती-बाड़ी में जी लगाया। छः महीने के भीतर मैं पक्का किसान हो गया। अनाज से बुखारी भर गई, गाय-बछड़ों से गोठ भर गया। कई घोड़े भी खरीद लिये। नौकर-चाकरों से घर भर गया। कोई घर का काम करता, कोई बाहर का और कोई खेती-बाड़ी की देखभाल करने लगा। मैं गृहस्थी के कामों में लग कर समुद्र-यात्रा की बात एक प्रकार से भूल ही गया। मैं नगर-निवास के समस्त पाप-प्रलोभन से बच कर निश्चिन्तभाव से देहात में रह कर समय बिताने लगा।

किन्तु मेरे इस भरे-पूरे सुख में भगवान् ने मेरे एक-मात्र स्नेहबन्धन को तोड़ दिया; मेरे बने-बनाये घर को बिगाड़ दिया। मेरे दबे हुए भ्रमणात्मक रोग को फिर उभड़ने का अवसर दिया। मेरी स्त्री का देहान्त होगया। मैं यहाँ उसके गुणों का सविस्तार वर्णन करके पृष्ठों की संख्या बढ़ाना नहीं चाहता किन्तु इतना ज़रूरी है कि वह मेरे विश्राम की एकमात्र आश्रय थी; संसार-बन्धन और समस्त उद्यमों की केन्द्र थी। मेरी माता के गरम आँसू, पिता के उपदेश, मित्रों के परामर्श और मेरा अपना विवेक जिस समुद्रयात्रा से मुझे न रोक सका उसे मेरी पत्नी ने अपने मधुर उपदेश से रोक दिया था। अब उस स्त्री-रत्न को खोकर मैं एकदम निराश्रय और निरवलम्ब हो गया।

स्त्री के न रहने से मैं फिर अकेले का अकेला रह गया। जब मैं पहले पहल ब्रेज़िल गया था तब जैसे किसी के साथ मेरा परिचय न था वैसे ही अब भी मैं सब के लिए अपरिचित सा हो रहा। द्वीप में जाकर जैसे मैं अकेला रहता था, वैसे ही अब भी रहने लगा। अब मैं क्या करूँगा, यह मेरी समझ में न आता था। मैं अपने भविष्यजीवन को किस तरीके पर बिताऊँगा इसका कुछ निर्णय नहीं कर सकता था। मैंने देखा कि मेरे चारों ओर सभी लोग सांसारिक व्यवहार में लगे हुए हैं। उनमें कितने ही ऐसे हैं जो मुट्ठी भर अन्न के लिए जी तोड़ परिश्रम करते हैं। कितने ही दुर्व्यसन में, आनन्द के अध्यासमात्र का अनुभव कर के, उसीके पीछे हैरान रहते हैं; कितने ही लोग पागलपन ही में मिथ्या आनन्द खोजते रहते हैं। निष्कर्ष यह कि सभी लोगों का भला या बुरा अपना एक उद्देश ज़रूर रहता है। सभी लोग जीने के लिए श्रम करते हैं और श्रम करने के लिए जीते हैं। बिना परिश्रम के कोई रोजी हासिल नहीं कर सकता। जब तक इस शरीर से जीवन का सम्बन्ध बना रहता है तब तक भोजन का सम्बन्ध भी छूटने वाला नहीं। जीवन-धारण के लिए जैसे भोजन अत्यावश्यक है वैसे ही भोजन प्राप्त करने के लिए शरीर-परिचालन भी नितान्त आवश्यक है। सभी लोग कमाते कमाते मर मिटते हैं पर वास्तविक सुख किमी को नहीं मिलता। इस शरीर-यात्रा के साथ अपनी द्वीपान्तर की शरीर-यात्रा की तुलना करने से वह सुगम जँचती थी। मैं अपने प्रयोजन से अधिक अन्न न उपजाता था। वहाँ सन्दूक़ में रक्खे हुए रुपये काले पड़ गये थे, पर बीस वर्ष के दरमियान कभी उनको एक बार भी देखने की आवश्यकता न हुई थी। अब मैं कुछ कुछ समझने लग गया था कि मनुष्य-जीवन का उद्देश केवल आहार-निद्रा और विषय-भोग ही नहीं है, प्रत्युत आत्मा की उन्नति ही उसका चरम उद्देश है। उसी के सहायतार्थ देह रक्षा भी आवश्यक है। अर्थ की अपेक्षा धर्म ही मनुष्य के लिए अमूल्य सम्पत्ति है। किन्तु इस सम्पत्ति की रक्षा अब मुझसे कौन करावेगा? मेरी प्रिय शिष्या और सचिव मुझे अकेला छोड़ चली गई। मैं कर्णधार-विहीन नौका की भाँति धन-दौलतरूपी तूफान में पड़ कर संसार में डूबता-उतराता हूँ।

विदेश-भ्रमण की चिन्ता फिर मेरे शान्त निरापद भाव से-गृह वास के सुख और खेती-बाड़ी के आनन्द को भुला कर-बड़ी निर्दयता के साथ मुझे बाहर की ओर खींचने लगी। बहरों के लिए संगीत की तरह, बिना जीभ वाले के लिए स्वादिष्ट खाद्य की तरह मेरे लिए मेरे घर का सुख नितान्त निरर्थक सा अँचने लगा। कई महीने बाद मैं अपना घर द्वार भाड़े पर दे कर लन्दन गया।

लन्दन में भी मेरा जी न लगा। वहाँ भी चित्त को चैन न मिला। बिना कुछ रोज़गार के जीवन का बोझ लेकर घूमना कैसा कष्ट-दायक है, यह वही समझ सकेंगे जो चिरकाल से कर्मनिष्ठ हैं और जिनका जीवन-समय कभी व्यर्थ नहीं जाता। आलसी होकर एक जगह बैठा रहना जीवन की हेयतम अवस्था है। वह जीवन के लिए एक बड़ी लाञ्छना है। लन्दन में बैठकर आलसी की तरह जीवन बिताने की अपेक्षा निर्जन द्वीप में रह कर जब मैं छब्बीस दिन में एक तख्ता तैयार करता था तब वह मेरे लिए कहीं बढ़कर सुख का समय था।