राबिन्सन-क्रूसो/द्वीप के पास जहाज़ का डूबना

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राबिनसन-क्रूसो  (1922) 
द्वारा डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

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द्वीप के पास जहाज़ का डूबना

क्रम क्रम से मई महीना आया। उस दिन सोलहवीं तारीख़ थी। मेरी काठ की यंत्री की गणना से यही ठीक था। दिन भर आँधी के साथ साथ पानी बरसता रहा। रात में भी हवा का वेग कम न हुआ। वन-विद्युत् का प्रभाव भी ज्यों का त्यों बना रहा। मैं बैठ कर बाइबिल पढ़ रहा था। एकाएक समुद्र में तोप का धडाका सुन कर मैं चकित हुआ। मैं आश्चर्यान्वित हो कर झट अपने आसन से उठ बैठा। सीढ़ी के सहारे पहाड़ की चोटी पर चढ़ कर मैंने देखा, जिस तरफ़ स्रोत के प्रखर वेग में पड़ कर मेरी नाव बह चली थी उसी ओर आग की झलक दिखाई दी। मैंने निश्चय किया कि वहीं से तोप की आवाज़ आई है। यथार्थ में थी भी यही बात। आध मिनट के बाद फिर तोप का शब्द सुन पड़ा। कोई जहाज़ तूफान में पड़ कर साहाय्य का संकेत कर रहा है। मेरी समझ में झट एक बात आगई। मेरे आस पास वहाँ जितनी सूखी लकड़ियाँ थीं सब को मैंने इकट्ठा किया और चकमक से आग बना कर उसमें बत्ती लगा दी। आग लगते ही बल उठी। ऐसा करने का मेरा यह अभिप्राय न था कि मैं उस जहाज़ की कुछ सहायता कर सकूँगा। मेरा इरादा तो यह था कि वही शायद मेरी कुछ सहायता कर सके। मेरे द्वारा प्रज्वलित आग का प्रकाश जहाज़ के लोगों ने देख लिया। मेरी आग की ज्वाला ऊपर की ओर उठते ही पहले [ १५८ ]तोप की आग की झलक देख पड़ी फिर पीछे शब्द सुन पड़ा। उसके बाद धड़ाधड़ तोप की आवाज़ होने लगी। मैंने सारी रात बैठ कर भाग जलाई। सुबह होने पर बहुत दूर समुद्र में कुछ दिखाई दिया, किन्तु दूरबीन लगा कर भी मैं ठीक न कर सका कि वह क्या था।

मैं दिन भर बार बार उसी ओर देखने लगा किन्तु उससे कुछ फल न हुआ। मैंने सोचा कि कोई जहाज़ लंगर डाले ठहरा है। मैं बन्दूक लेकर झट पहाड़ से उतरा और द्वीप के दक्षिण ओर दौड़ा गया। वहाँ पहाड़ पर चढ़ कर नैराश्य भाव से देखा, वह एक टूटा हुआ जहाज़ था। उसी भँवर के पास वह पहाड़ से टकरा कर टूट जाने के कारण जलमग्न हो गया है। उसके नाविक और यात्री क्या हुए, कहाँ गये, इसका कुछ पता नहीं। उस भन्न जहाज़ को देख कर मैं बहुतेरा अनुमान करने लगा। मैं जिस अवस्था में था उसमें उन लोगों की विपत्ति में समवेदना प्रकट करने के अतिरिक्त और साहाय्य कर ही क्या सकता था! शायद दूसरे जहाज़ ने उन लोगों का इस विपदा से उद्धार किया हो; किन्तु उसका कोई लक्षण दिखाई नहीं दिया। तो क्या इतने जीव सब के सब एक साथ डूब मरे? हाय! यदि उनमें से एक भी आदमी बच कर मेरे पास आता, तो मैं संगी पाकर कितना खुश होता! उसके साथ बात चीत कर के जी का बोझ हलका करता। उन नौकारोहियों में कोई बचा या नहीं, यह मुझे मालूम न हुआ। किन्तु कई दिनों के बाद एक जलमग्न लड़के का मृत कलेवर उतराता हुआ समुद्र के किनारे श्रा लगा था। उसकी पोशाक नाविक की थी। वह किस देश या किस जाति का था यह, उसे देख कर [ १५९ ] मैं न जान सका। उसके पाकेट में दो अठनियाँ और एक तम्बाकू पीने का नल था। तम्बाकू के नल को मैंने रुपये से कहीं बढ़ कर मूल्यवान् समझा।

तूफ़ान रुक गया था। मैं अपनी डोंगी पर चढ़कर उस भग्न जहाज़ को देखने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित होने लगा। संभव है, उसमें मेरे लिए आवश्यक अनेक पदार्थ मिल जायँ। इसको अपेक्षा मुझे यह भावना और भी उत्साहित करने लगी कि उसमें यदि कोई प्राणी असहाय अवस्था में होगा तो उसके प्राण बचा सकूँगा। यह संभावना मेरे मन को क्षण क्षण में इस प्रकार उत्तेजित करने लगी जैसे इस काम के लिए ईश्वर मुझे प्रेरणा कर रहे हो। उन्हीं के प्रेरणा-विधान पर अपने को निर्भर कर मैं जहाज़ देखने के लिए जाने की आयोजना करने लगा। मैं अपने किले के भीतर आकर एक घड़ा पानी, कुछ रोटियाँ, थैली भर सूखे अंगूर और एक दिगदर्शकयन्त्र लेकर नाव में रख पाया। इसके बाद फिर लौट कर किले के अन्दर से एक थैली में खाना, अपनी छतरी, एक घड़ा और पानी, दो दर्जन चपातियाँ, कुछ पूर्व, बोतल भर दूध, और कुछ खोया साथ लेकर पसीने से तरबतर होता हुआ बड़े कष्ट और कठिनाई से अपनी डोंगी तक पहुँचा। सब चीज़ों को डोगी पर लाद कर और भगवान् का नाम लेकर मै डोगी में सवार हो रवाना हुआ और धीरे धीरे उस भीषण स्रोत के पास पहुँचा। उसका वह तोव वेग देख कर मेरा जी सूखने लगा। आख़िर मैंने ज्वार आने पर जाने का निश्चय किया।

वह रात मैंने नाव ही पर बिताई। सबेरे ज्वार आते ही मैंने डोंगी खोल दी। दो ही घंटे में प्रखर-प्रवाह के सहारे उस, टूटे हुए जहाज़ के पास जा पहुँचा। जहाज़ की दुर्दशा देख [ १६० ] कर मेरी छाती फट गई। वह दो पहाड़ों के बीच में पड़कर चूर चूर हो गया है। उसका अगला और पिछला हिस्सा समुद्र की तरङ्ग-ताड़ना से भग्न हो गया है। जहाज़ की गढ़न देख कर मैंने समझ लिया कि वह स्पेन देश का था।

जहाज़ के पास डोगी के पहुँचते ही जहाज़ पर एक कुत्ता मेरी ओर झुक झुक कर भूँकने लगा। मेरे बुलाते ही वह समुद्र में कूद पड़ा। मैंने उसे अपनी डोंगी पर चढ़ा लिया। वह बेचारा मारे भूख-प्यास के अधमरा सा हो गया था। मैंने ज्योंही उसके आगे एक रोटी फेंकी त्योंही वह उसे एक ही बार में निगल गया। तब उसे पीने को थोड़ा सा पानी दिया। यदि मैं उसे पानी पीने से न रोकता तो शायद वह इतना पानी पी लेता कि पेट फटने से मर जाता। इसके बाद मैं जहाज़ के ऊपर गया। देखा, रसोईघर में दो आदमी एक दूसरे से चिपके हुए मरे पड़े हैं। इस कुत्ते के सिवा जहाज़ पर एक भी प्राणी जीता न मिला। दो सन्दूक मिले। उनमें क्या है, यह देखे बिना ही उन्हें उठा कर मैं अपनी डोंगी पर ले आया। कमरे के भीतर कई बन्दूके और बारूद की थैलियाँ थीं। बन्दूको की आवश्यकता न थी। केवल बारूद उठाकर ले आया। कितने ही काठ के बर्तन, जंजीर, चिमटा और कोयला खोदने के कुदाल मिले। ये चीजें बड़ी आवश्यक थीं। इन चीज़ों और कुत्ते को लेकर मैं लौट चला, कारण यह कि भाटा शुरू हो गया था।

मारे परिश्रम के थक कर मैं साँझ को अपने द्वीप में लौट आया। इतना थका था कि नाव से उतरने का साहस न हुआ। उस रात को नाव में ही सो रहा। जहाज़ से लाई हुई नई चीज़ों को घर न ले जाकर नवीन गुफा के भीतर रखने का निश्चय किया। सबेरे उठकर सब चीज़ों को [ १६१ ] किनारे उतर कर ले गया और देखने लगा कि कौन कौन चीज़े हैं।

सन्दूक़ खोला। उसमें बहुत सी ज़रूरी चीजें मिलीं। सन्दूक में मुख्य चीजें थीं श्राटा, बोतल में भरी कुछ मिठाई, अच्छी अच्छी कमीज़, डेढ़ दर्जन रूमाल और छींट का गुलूबन्द। इस उपण-प्रधान देश में हाथ मुँह पोंछने के लिए रूमाल की बड़ी आवश्यकता थी । दूसरे सन्दूक में रुपये, सोने का पत्र और बारूद थी।

यद्यपि ये चीज़ें प्रयोजनीय थीं परन्तु ऐसी न थीं जिससे मेरा विशेष उपकार होता। रुपया बहुत मिला ही तो किस काम का, वह तो अभी मेरे पैर की धूल के बराबर है। उसकी न यहाँ कुछ उपयोगिता है और न कुछ मोल है। दो तीन जोड़े जूतो के बदले में ये सब रुपये खुशी से दे सकता था। बहुत दिनों से जूते न होने से कष्ट हो रहा था। जहाज़ के रसोईघर में जो दो आदमी लिपटे हुए मरे पड़े थे, उनके पैरों से मैं दो जोड़े जूते खोल कर लाया था और दो जोड़े सन्दूक में मिल गये। किन्तु ये पहनने में उतने सुखप्रद न थे।

इस जहाज़ में बहुत धन-रत्न थे। किन्तु जिस भाग में वे सब थे वह जल में डूब गया था; नहीं तो मैं कई नाव सोने चाँदी और रुपयों से अपनी गुफा को भर देता। इस अवस्था में भी मेरे पास धन की कमी न थी। यथेष्ट धन था, तथापि उस धन से मैं धनवान थोड़े ही था।

मैं उन चीज़ों को ढोकर ले आया और यथास्थान रख दिया। फिर नाव को अड्डे में ले जाकर बाँध आया। इसके बाद मैं घर गया। वहाँ सब चीज़ ज्यों की त्यो रक्खी थीं। [ १६२ ] अब मैं विश्राम करने की इच्छा से निश्चिन्त हो घर में रहने लगा। प्रायः बाहर न जाता था। यदि कभी जाता भी था तो पूरब ओर। क्योंकि उस ओर असभ्यों के आने की संभावना कम थी, इससे उस तरफ जाने में बन्दूक-बारूद आदि का भार ढोना न पड़ता था। इस तरह और दो साल गुज़र गये। किन्तु मैं अपने लिए आप ही शनिग्रह था। मैं अपने को कहीं स्थिर न रहने देता था। कभी जी में आता था कि एक बार फिर उस भग्न जहाज़ में जाऊँ; कभी मन में यह तरङ्ग उठती थी कि किसी तरह महासमुद्र के पार हो जाऊँ। यदि आफ्रिका का वह जहाज़ मेरे पास रहता तो जैसे होता मैं समुद्र में धंस पड़ता। जो लोग अपनी अवस्था में सन्तुष्ट नहीं रहते उन लोगों में मेरा नम्बर सब से ऊपर है। उन लोगों के लिए मैं ही शिक्षा का स्थल और ज्वलन्त उदाहरण हूँ। मैं अपने बाप के घर से असन्तुष्ट होकर, न मालूम कितनी दुर्दशा भोगकर, ब्रेज़िल में एक प्रकार से कुछ स्थिति पा गया था, किन्तु वहाँ भी सुख से रहना नसीब न हुआ। फिर मेरे सिर पर भूत सवार हुआ। मैं फिर शनिग्रह के फेर में पड़ा। कितने ही कष्ट सहे। अब भी, मैं सुख से हूँ तथापि मुझे अपनी अवस्था पर सन्तोष नहीं। इसके बाद न मालूम और कितना दुःख कपार में लिखा है। किसी ने सच कहा है-सन्तोषेण बिना पराभवपर्द प्राप्नोति मूढ़ो जनः।