राबिन्सन-क्रूसो/द्वीप में असभ्य

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द्वीप में असभ्य

देखते ही देखते इस द्वीप में मेरे तेईस वर्ष कट गये। मैं इस निर्जन प्रवास-वास में ऐसा असभ्य होगया था कि असभ्यों का भय न रहता तो मैं बूढ़े बकरे की भाँति शान्तिपूर्वक यहीं वृद्ध होकर अपना जीवन बिता देता। मैंने यहाँ अपना जी बहलाने का भी प्रबन्ध कर लिया था। [ १५४ ]मेरा तोता मेरे साथ आत्मीयभाव से मीठी मीठी बातें करता था। पक्षी के मुँह से एस स्पष्ट बात मन और कभी नहीं सुनी थीं। वह छब्बीस वर्ष मेरे पास रहा। मेरा कुत्ता भी, बन्धु की भाँति सोलह वर्ष मेरे साथ रह कर, वृद्ध होकर मर गया। मेरी पालतू दो तीन बिल्लियाँ भी मेरे आत्मीयजनों के अन्तर्गत थीं। और भी कितने ही पालतू बकरे, दो एक, तथा कितने ही जल घर पक्षी मेरे साथी बन गये थे। उन चिड़ियों के मैंने डैने कतर दिये थे। इससे वे मेरे घेरे के पेड़ों पर रहा करती थीं। उन्हें देख कर मैं अत्यन्त आनन्द पाता था। किन्तु मनुष्य-जीवन का सुख सदा निरवच्छिन्न नहीं रहता जिसे दूर करने की इच्छा होती है वही आगे आ खड़ा होता है। जिसे दुख समझते हैं उसी के भीतर सुख का नूतन बीज छिपा रहता है।

दिसम्बर का महीना है। खेती का समय है। मैं खूब तड़के बिछौने से उठ कर बाहर मैदान में गया। समुद्र के किनारे अन्दाज़न दो मील पर आग जलते देख कर मैं अचम्भे में आ गया। यह आग द्वीप के अपर भाग में न थी, मेरे दुर्भाग्य से मेरे ही घर की ओर थी।

मैं भय और आश्चर्य से स्तब्ध होकर अपने कुञ्जभवन के भीतर छिप रहा। कदाचित् अलक्षित भाव से वे असभ्यगण मुझ पर आक्रमण करेंइस भय से मैं आगे बढ़ने का साहस न कर सका। वहाँ भी देर तक ठहरना उचित नहीं समझा। क्या जानें, यदि मेरे खेत या मेरे हाथ का कोई काम देखने से उन्हें यहाँ मनुष्य-वास का गन्ध मिले तब तो वे लोग मेरा पता लगाये बिना न छोड़ेंगे। यह सोच कर मैं अपने किले के पास दौड़ आया और बाहर जो कुछ चीज़ें [ १५५ ] थीं उन्हें क़िले के भीतर रख दिया, जिसमें किसी को यह न मालूम हो कि यहाँ कोई आदमी रहता है। फिर भीतर जाकर बाहर की सीढ़ी खींच ली।

अब मैं कुछ स्थिर होकर आत्म-रक्षा का प्रबन्ध करने लगा। बन्दूक़ों को भरा और किले की दीवार से सटा कर रख दिया। अब मैं ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करने लगा। मैं किले के भीतर दो घंटे किसी तरह बैठा, फिर बाहर की खबर लेने के लिए व्यग्र हो उठा। मेरे पास चर तो था नहीं जिसे जासूसी के लिए भेजता। कुछ देर और अपेक्षा करके सीढ़ी लगा कर पहाड़ के ऊपर ठहराव की जगह उतर आया। फिर सीढ़ी को पहाड़ से लगा कर उसकी चोटी पर चढ़ गया। वहाँ लेट कर स्थिर दृष्टि से देखा, आग के चारों ओर नौ असभ्य बैठे हैं, जो सब के सब नंगे हैं। ऐसा जान पड़ा जैसे वे लोग राक्षसीवृत्ति को चरितार्थ करने के लिए मनुष्य का मांस पका रहे हों।

उन लोगों के साथ दो डोंगियाँ थीं। दोनों को खींच कर उन्होंने बालू के ऊपर ला रक्खा है। अभी भाटा था, शायद ज्वार आने पर नाव को बहा कर ले जाने की अपेक्षा से वे लोग बैठे हैं। पीछे उन लोगों को अपने घर की ओर और इतने सन्निकट आते देख कर में तो भय से सूख कर काठ हो गया। किन्तु इतना मैं समझ गया कि वे लोग भाटा पड़ने के समय प्राते हैं और ज्वार आते ही चल देते हैं। इसलिए ज्वार के समय में खूब निश्चिन्त होकर खेती-बारी का काम कर सकूँगा। यह सोच कर मैं खुश हुआ।

ज्वार आने के एक प्राध घंटा पहले ही से वे लोग आग की परिक्रमा कर के नाना प्रकार के अङ्ग विक्षेप के साथ [ १५६ ] नाचने लगे। मैं दूरबीन के द्वारा उन लोगों का अङ्ग विक्षेप स्पष्ट रूप से देख रहा था। वे बिलकुल नङ्ग धड़ङ्ग थे। एक भी वस्त्र उनके शरीर पर न था। वे लोग पुरुष थे या स्त्री, अथवा उनमें कितने पुरुष और कितनी स्त्रियाँ थीं, यह इतनी दूर से मैं नहीं जान सका।

ज्वार आते ही उन लोगों ने नाव खोल दी और लग्गा ले कर नाव खेने लगे। उन लोगों को जाते देख कर मैं झटपट दोनों कन्धों पर दो बन्दूके, कमरबन्द में दो पिस्तौल और हाथ में नङ्गी तलवार ले कर जिधर उन नृशंसों को देखा था उधर खूब ज़ोर से दौड़ कर गया। इतना बड़ा बोझ ले कर वहाँ पहुँचते प्रायः दो घंटे लग गये। वहाँ जा कर देखा कि छोटी बड़ी सब मिला कर पाँच डोगियाँ आई थीं। वे सब की सब एक साथ समुद्र के अपर तट में जा रही हैं। कैसा भयङ्कर दृश्य है! उस समय भी वहाँ आग के चारों ओर उन लोगों के प्रचण्ड आनन्द का कारण दग्ध नर-मांस और नर-कपाल जहाँ तहाँ बिखरे पड़े थे। यह हृदय-विदारक दृश्य देख कर उन नर-मांस-खादकों को मारने की प्रवृत्ति और भी प्रबल हो उठी।

वे लोग कभी कभी यहाँ आते थे। इसके बाद पन्द्रह महीने तक उन लोगों के आने का कोई चिह्न दिखाई नहीं दिया तो भी मैं बराबर भयभीत बना रहता था। सदा विपत्ति के भय से दबा रहना बड़ी विडम्बना है। इसकी अपेक्षा विपत्ति का आ जाना कहीं अच्छा है। मैं भी नर-खादकों के भय से मन ही मन पक्का नरघाती बन गया। इस दफ़े उन लोगों के आने पर किस उपाय से उन्हें मार डालना होगा, इसी की चिन्ता सदा मन में लगी रहती थी। रात में [ १५७ ] ख़ूब अच्छी नींद नहीं पाती थी। मैं भयङ्कर स्वप्न देख कर बैंक उठता था। यों ही महीने पर महीना बीतने लगा।