राबिन्सन-क्रूसो/नया आविष्कार

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राबिनसन-क्रूसो  (1922) 
द्वारा डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

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नया आविष्कार

मैंने अपने किले के पीछे वाली गुफा को खोद कर बड़ा किया था, इससे मेरे किले के भीतर घुसने का एक छोटा सा दर्वाज़ा बन गया था। इस बेजा काम के लिए इस समय मुझे अनुताप होने लगा। उस छिद्र को बन्द कर देने के लिए मैंने फिर एक घेरा बनाने का संकल्प किया। पहले खम्भों का घेरा बनाया था, तदनन्तर दूसरा घेरा दरखों का बनाया था। इसको बारह वर्ष हुए। उसके बाद इस समय फिर खुब मज़बूती के साथ खम्भों का अर्ध-चन्द्राकार एक तीसरा घेरा बनाया। इस घेरे के भीतर हाथ जाने लायक सात छिद्र रहने दिये। घेरे के बीच की जगह को मिट्टी से भर दिया और उसके ऊपर चल फिर कर उसे अच्छी तरह पैरों से दबा दिया। इसके अनन्तर उन सातों छिद्रों में अपनी सातो बन्दूक़ें रख दीं। वे कहीं गिर न पड़े इसलिए लकड़ी की एक एक टेक लगा कर उन्हें अच्छी तरह स्थिर कर दिया। यदि अब मेरे किले पर कोई आक्रमण करेगा तो मैं एक साथ दो मिनट के भीतर सात बन्दूके छोड़ सकूँगा। कई महीनों के कठिन [ १४३ ] श्रम से यह सब काम सम्पन्न हुआ। इसके बाद घेरे के बाहर बहुत दूर तक पेड़ की डाले काट कर गाड़ दी। दो वर्ष में मेरे घेरे के सामने एक उपवन सा बन गया। पाँच छः वर्ष में वह उपवन बृहत् दुर्भद्य वन के रूप में परिणत हुश्रा। अब उस घन जङ्गल को देख कर कोई यह न समझेगा कि इसके भीतर कोई रहता है। मैं इस समय दो सीढ़ियों के ऊपर से हो कर किले के भीतर जाता-पाता था। एक सीढ़ी बाहर जाने की और एक भीतर आने की थी। दोनों सीढ़ियों को भीतर रख लेने से सहसा कोई मेरे घर में प्रवेश करेगा, इसकी सम्भावना न थी। इस प्रकार अपनी प्राणरक्षा का, जहाँ तक मेरी बुद्धि की दौड़ थी वहाँ तक, मैंने प्रयत्न किया।

मैं केवल अपने घर को ही सुरक्षित करके निश्चिन्त न हुआ। अब मुझे अपने पालतू बकरो की चिन्ता हुई। अब मुझे शिकार का क्लेश उठाना नहीं पड़ता और न गोली-बारूद खर्च करनी पड़ती है। उन बकरियों से सहज ही में मेरे खाद्य की सामग्री मिल जाती है। अतएव किसी तरह इन उपयोगी जन्तुओं की रक्षा करनी चाहिए।

इसके लिए मैंने दो उपाय सोच निकाले। एक तो यह कि कहीं गुफा बना कर उसके भीतर बकरों को बन्द करके, अथवा छोटे छोटे घेरे बना करके उनमें थोड़े थोड़े बकरों को कुछ दूर दूर के फासले पर रक्खा जाय। दूसरा उपाय कुछ अच्छा जान पड़ा । यदि एक घेरे के बकरे किसी तरह खो भी जायँगे तो दूसरे घेरे के बकरे-बकरियों से उनके वंश की वृद्धि होती रहेगी।

इसके लिए मैं कई दिनों तक द्वीप के गुप्त स्थानों की खोज में घूमता रहा। एक बार पहले जिस स्थल-मार्ग से [ १४४ ] आने के समय मैं रास्ता भूल कर भटकने लग गया था वहीं, एक घने वन के भीतर, एक स्थान मेरे मन के अनुकूल मिला। ऐसे घने जंगल में घेरा लगाने के निमित्त मुझे विशेष कष्ट न उठाना पड़ा। इस जगह को घेर कर मैंने दो बकरों और दस बकरियों को लाकर यहाँ रक्खा और पूर्व के घेरे को भी घेर कर खूब मज़बूत कर दिया।

मैं एक और जगह की तलाश करने लगा। द्वीप के पच्छिम ओर समुद्र के किनारे जा कर मैंने बहुत दूर एक नाव की तरह कुछ देखा। उसको देखते देखते मेरी आँखें चौंधिया गई तथापि वह इतनी दूर थी कि ठीक ठीक निश्चय न कर सका कि वह क्या है। जहाज़ में मुझे दो चार दूरबीने मिली थीं, पर इस समय एक भी मेरे साथ न थी। पहाड़ के ऊपर चढ़ कर देखा तो भी उसका कुछ निश्चय न कर सका। तब मैंने पहाड़ से उतर कर संकल्प किया कि अब बिना दूरबीन साथ में लिये बाहर न निकलूँगा। आखिर वहाँ से श्रागे बढ़ा। जाते जाते मैं ऐसी जगह पहुँचा जहाँ इसके पहले कभी न गया था। वहाँ जाकर मैंने जो कुछ देखा, उससे निश्चय किया कि यहाँ मनुष्य के पैरों का चिह्न देखना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस ओर जंगली लोग प्रायः आते हैं। उनके पैरों के बहुत चिह्न यहाँ देख पड़े। मैंने ईश्वर को इस कृपा के लिए धन्यवाद दिया कि मैं जिधर हूँ उधर ये लोग नहीं जाते हैं।

मैंने दक्खिन और पूरब की ओर समुद्र के किनारे जाकर देखा कि मनुष्य की खोपड़ी, हाथ, पाँव और हड्डियाँ बहुतेरी इधर उधर बिखरी पड़ी हैं। यह देख कर मेरे आश्चर्य और भय की सीमा न रही। एक जगह मैंने एक अग्निकुण्ड भी [ १४५ ] देखा। मालूम होता है, वे राक्षस उस अग्निकुण्ड के चारों ओर बैठ कर मनुष्य का मांस खाया करते हैं।

यह दृश्य देख कर मैं अपनी विपदा की बात भूल गया। इन नर-पिशाचों के राक्षसी व्यवहार की बात ने मेरे हृदय में घर कर लिया। मैंने उस भीषण दृश्य की ओर से अपनी दृष्टि फेर ली। मेरा जी घूमने लगा। मूर्च्छित होने की तरह एक प्रकार से मैं अचेत होगया।

आखिर खब वमन कर डालने पर मेरा शरीर कुछ हलका सा हुआ। वहाँ से झट पट मैंने बड़े बड़े कदम बढ़ा कर अपने घर की ओर प्रस्थान किया।

मार्ग में जब मुझे कुछ होश हुआ तब ईश्वर की दया के लिए मेरा हृदय कृतज्ञ हो उठा। उन्होंने इतने दिनों से मुझे इन राक्षसों के हाथ से बचाया है, इससे मैंने सजल नेत्रों से उनको धन्यवाद दिया।

इस प्रकार ईश्वर की उदारता को मन ही मन सोचता हा मैं घर पहुँचा। घर पहुँच कर मैं अपने को बहुत कुछ निरापद समझ स्वस्थ हुआ। तब मैंने सोचा कि वे असभ्य राक्षस इस द्वीप में किसी को खोजने या कुछ लेने की आशा से अक्सर नहीं आते। मैं अट्ठारह वर्ष से यहाँ हूँ, पर एक दिन भी किसी मनुष्य की सूरत नहीं देखी। शायद और भी अट्ठारह वर्ष यहाँ रहूँगा, तब भी किसी को न देखूँगा। अब मुझे इतना सावधान होकर रहना चाहिए जिसमें मैं स्वयं उन धूर्तों के चंगुल में न जा फँसूँ। इस भय से मैंने दो वर्ष तक अपने घर की सीमा के बाहर पैर न रक्खा। यहाँ तक कि मैंने अपनी डोंगी की भी कुछ ख़बर न ली। उसकी आशा मैंने [ १४६ ] एक दम छोड़ दी। उसे लाने के लिए जाकर यदि मैं असभ्यों के सामने पहुँच जाऊँ तो मेरी जो दशा होगी वह मैं जानता हूँ या विधाता जानते हैं। इसलिए मैंने एक और नाव बनाने का संकल्प किया।

जब यों ही अधिक समय बीत गया तब राक्षसों का भय बहुत कुछ जाता रहा। मैं पहले ही की भाँति निश्चिन्त भाव से अपना काम-धन्धा करने लगा। हाँ, चौकन्ना ज़रूर बना रहता था। वे नरभक्षी असभ्य कहीं आवाज़ न सुन लें, इस भय से मुझे बन्दूक चलाने का भी साहस न होता था। अब मैंने समझा कि बकरों को पाल कर मैंने सचमुच बड़ी बुद्धिमानी का काम किया है। यद्यपि मैं बिना बन्दूक लिये कभी बाहर नहीं जाता था तथापि दो वर्ष के बीच मैंने एक बार भी बन्दूक की आवाज़ नहीं की। यदि बकरे की आवश्यकता होती तो जाल बिछा कर पकड़ लेता था।

अभी मेरी जीवन-यात्रा के लिए प्रभाव-जनित कोई कष्ट न था। केवल इन अभागे राक्षसों के भय से मेरी बुद्धि स्तब्ध हो गई थी, इसलिए कोई नवीन वस्तु बनाने की उत्पादिका शक्ति भी मन्द हो गई थी। यदि कुछ चिन्ता थी तो उन्हीं राक्षसों को। दिन रात उनकी चिन्ता मेरे चित्त को घेरे रहती थी। कभी कभी मैं यह सोचता था कि वे हतभागे जो महा-मांस खाते हैं, सो इस राक्षसी वृत्ति से किसी तरह उनका मैं उद्धार कर सकता हूँ या नहीं? उन नर-मांसभक्षियों को इस दुराचार का कुछ दण्ड दे सकता हूँ या नहीं। ऐसे हो न मालूम कितनी अद्भुत और असम्भव बातों को मैं सोचता रहता था। राक्षसों को इस द्वीप में न आने [ १४७ ] देने के लिए कितने ही उपाय सोचता था किन्तु यह सोची हुई बात एक भो काम में परिणत न होती थी। होती कैसे? असम्भव बातें सोचता रहता था, कारण यह कि संकल्पित काम करने के लिए मुझे उनका सामना करना पड़ेगा। मैं अकेला और वे बीस बाईस से गिनतो में कम न रहते होंगे। मैं उनका शासन क्या करूँगा, मुझी को वे खा डालेंगे।

कभी कभी जी चाहता था कि जहाँ वे लोग आग जलाते हैं वहाँ मैं दो-तीन सेर बारूद गाड़ दूँ तो उसमें आग का संयोग होते ही उनमें से कितने ही अपने आप उड़ जायँगे। किन्तु मेरे पास बारूद बहुत कम बच रही थी। अभी उसे इस तरह ख़र्च करने को मैं राजी नहीं हुआ। अतएव इस इरादे को भी छोड़ देना पड़ा।