राबिन्सन-क्रूसो/गुफा का आविष्कार

विकिस्रोत से
राबिनसन-क्रूसो  (1922) 
द्वारा डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

[ १४७ ]

गुफा का आविष्कार

पहले की सोची हुई एक भी बात जब चरितार्थ न हो सकी तब मैंने सोचा कि मैं किसी जगह अपनी बन्दूक, पिस्तौल, और तलवार लेकर छिप रहूँगा और राक्षसों को देखते ही उन पर धड़ाधड़ गोलियाँ चलाऊँगा। प्रत्येक बार की गोली में दो तीन को मारूँगा, और दो एक को घायल भी करूँगा। इसके बाद उनके बीच में कूद पड़ेगा और कितनों ही पर सफ़ाई से तलवार का हाथ जमाऊँगा। इससे जो वे बीस-बाईस भी होंगे तो भी मैं उन पर विजय प्राप्त कर सकूँगा।

यही उपाय सबसे अच्छा जान पड़ा। मैं जब तब इसी उपाय को सोचता था। इस बात की चिन्ता बराबर मेरे [ १४८ ] चित्त में बनी रहती थी। मैं कभी कभी स्वप्न भी देखा करता था कि उन राक्षसों को मार रहा हूँ।

इस काम पर मैं यहाँ तक आरूढ़ हुआ कि अपने को अच्छी तरह छिपाने योग्य एक गुप्त स्थान की खोज में घूमने लगा। मैंने पहाड़ की तराई में एक ऐसो जगह ढूँढ़ निकाली जहाँ छिप कर मैं राक्षसों की नौका देख सकूँ और जङ्गल में कई एक ऐसी जगह ठीक कर रक्खी जहाँ पेड़ की आड़ में छिप कर उन पर एकाएक गोली बरसा सकूँ।

इस विचार को पक्का करके मैं रोज़ सबेरे दो तीन बन्दूकों में और पिस्तौल में गोली भर कर उस पहाड़ के ऊपर जाता और देखता कि उन राक्षसों की नौका आती है या नहीं। वह जगह मेरे किले से तीन मील पर थी। सिर्फ इतनी ही दूर मैं प्रतिदिन जाता-भाता था। पर मैंने किसी दिन किसी को देखा नहीं। दूरबीन लगा कर भी सारे समुद्र में देखता भालता, पर कहीं कोई नाव का चिह्नमात्र भी दिखाई नहीं देता था।

जब तक उत्साह था तब तक मुझे अकारण बीस-बाईस मनुष्यों को मारने की इच्छा अत्यन्त प्रबल थी। किन्तु उन लोगों को कहीं न देख कर जब मेरा उत्साह घट गया-जब तमोगुण की मात्रा कुछ कम हुई-तब शान्त चित्त से सोच कर मैंने देखा कि उन बेचारों का दोष क्या था जो मैं इतने दिनों से उनको मारने पर उद्यत था। मनुष्य का मांस खाना उनके देश का रिवाज है। उन लोगों ने कभी अच्छी शिक्षा नहीं पाई है, केवल अपनी प्रकृति की उत्तेजना से जो उनके जी में आता है, करते हैं। उन लोगों के गुण-दोष की विवेचना करने का मुझे क्या अधिकार है? उन लोगों ने [ १४९ ] अब तक मेरा क्या बिगाड़ा है? हम लोग भी तो जीवहिंसाजनित क्लेश का कुछ विचार न कर के उदर-तृप्ति के लिए पशु को मार डालते हैं, युद्ध में पकड़े गये शत्रुपक्ष के सैनिकों को बन्दी करके उनकी हत्या करते हैं। आत्मसमर्पण करने पर भी, क्रोध के वशीभूत होकर, शत्रु-सैन्य को मार डालते हैं। इस पर भी हम लोग अपनी सभ्यता की डींग हाँकते हैं। वे लोग भी वैसे ही अपने शत्रुओं को मार कर खाते हैं। इससे उन लोगों के मन में कई विकार उत्पन्न नहीं होता और न उन लोगों का आत्मा दुखी होता है। वे लोग इस अत्याचार को अत्याचार नहीं समझते। उनकी समझ में नहीं आता कि यह महाजघन्य कर्म है। इस विषय में ईसाई लोग भी तो कम नहीं होते। उन लोगों ने अमेरिका और आफ़्रिका के आदिम निवासियों को निर्दय भाव से मार कर गाँव के गाँव नष्ट कर दिये। क्या मैं भी उन्हीं की सी निष्ठुरता करके उनका अनुयायी बनूँगा?

इन बातों को भली भाँति सोचने से मेरा अयुक्त हत्या का उत्साह एकदम कम होगया। तब मुझे मालूम हुआ कि यह मैं सरासर अन्याय करने चला था। जब वे लोग मुझ पर आक्रमण करेंगे तब जो उचित होगा किया जायगा! इसके पूर्व उन लोगों को छेड़ना आप ही अपनी मृत्यु को बुलाना है। यदि मैं उन सबों को न मार सकूँगा तो मेरी क्या गति होगी।

इस सावधानी और सुबुद्धि का साथ धर्मभाव ने दिया। मैं जो रक्तपात के पाप से निवृत्त हुछ एतदर्थ मैंने परमेश्वर को बार बार धन्यवाद दिया। इसी तरह एक वर्ष और बीता। [ १५० ]मैं अपनी डोंगी को खींच कर द्वीप के पूरब और एक समुद्र-संलग्न बृहत् जलाशय में ले गया और नाव में जो कुछ चीजें थीं उनको उस पर से उतार लाया। अब मैं पहले की तरह बाहर घूमने न जाता था। कौन जाने, एक बार सिर्फ पैर का चिह्न देखा है, अब की बार यदि उन पदचिह्न वालों का ही साक्षात् दर्शन हो। उनके सामने पड़ कर उनके हाथ से उद्धार पाना कठिन होगा। इस समय मेरे मन की वह तमोगुणप्रधान समुद्भाविनी शक्ति एकदम नष्ट हो गई थी। यहाँ तक कि एक लोहे की छड़ गाड़ने या लकड़ी काटने का भी साहस न होता था। बन्दूक की आवाज़ करना तो दूर की बात थी।

सब से अधिक डर लगता था मुझे आग जलाते, कारण यह कि झूठे बहुत दूर से देख पड़ता है। यदि उसे कोई देख ले में इसलिए अब से मैं आग का काम अपने कुञ्जभवन में करने लगा।

आग का जलाना कठिन हो गया, परन्तु बिना आग के काम भी तो नहीं चलता था। इसलिए कुछ कोयले बना कर रखना उचित समझा। मैंने अपने देश में देखा था कि लकड़ी में आग लगा कर ऊपर से मिट्टी और घास से दबा देते थे, तब कुछ देर में लकड़ी जल कर कोयला हो जाती थी। मैं भी इस प्रकार कोयला बनाने के लिए एक दिन अपने कुञ्जभवन में लकड़ियाँ काट रहा था। लकड़ी काटते काटते मैंने एक झुरमुट के पास, पहाड़ के नीचे, एक गढ़ा देखा। मैं पेड़ से उतरा और कुतूहलाक्रान्त होकर उसे देखने गया। बड़े कष्ट से झुरमुट के पत्तों को हटा कर मैंने के के सामने गढ़ मुँह के सामने जाकर देखा, जगह मेरे पसन्द लायक थी। उसके भीतर मैं [ १५१ ] खड़ा हो सकता था तथा दो आदमी और भी मेरे पास ही पास खड़े हो सकते थे। यह गुफा देख कर मेरे आनन्द की सीमा न रही। मैंने इसी के भीतर अपना गुप्तस्थान बनाने का निश्चय किया। यदि कोई असभ्य इस कन्दरा के मुँह के पास तक आवेगा तो भी वह सहसा इसके भीतर प्रवेश करने का साहस न करेगा। मुझको छोड़ दूसरा कोई इसके भीतर घुसने का साहस करता या नहीं, इसमें सन्देह है।

मैंने गुफा के भीतर प्रवेश किया। भीतर भयानक अन्धकार था। अच्छी तरह देखने के लिए आँखे फाड़ कर देखा कि किसी के दो नेत्र उस अन्धकार में तारों की तरह चमक रहे हैं। वह मनुष्य था या शैतान? कौन जाने क्या था? मैंने उसके शरीर का और आकार तो देखा नहीं, देखा सिर्फे वही एक अद्भुत ज्योतिर्मय पदार्थ। तब मैं एक ही छलाँग में कूद कर गुफा के बाहर निकल पाया।

कुछ देर के बाद सँभल कर फिर मैंने साहस किया। एक धधकती हुई लकड़ी लेकर मैं गुफा के भीतर घुसा। तीन चार डग जाते न जाते एक कष्ट-जनक दीर्घश्वास और कराहने का शब्द सुन कर में फिर पूर्ववत् डर गया। मेरा शरीर पसीने से तर बतर हो गया। बार बार रोमाञ्च होने लगा। कुछ देर बाद फिर साहस किया और यह सोचा कि भगवान् सर्वत्र रक्षक हैं-"जाको राखे साँइयाँ मारि सकै नहिं कोय।" मैं फिर गुफा में गया और उस प्रज्वलित लकड़ी को ऊपर उठा कर देखा कि एक बहुत बूढ़ा बकरा मरणासन्न पड़ा है। मैंने उसे हाथ से ज़रा ढकेला, तो उसने उठने की चेष्टा की, पर वह उठ न सका। तब मैंने कहा कि अच्छा, [ १५२ ] इसे यहीं पड़ा रहने दो। यदि कोई साहस कर के भीतर आवेगा तो मेरी ही भाँति भयभीत होगा।

मैंने अब स्थिर होकर अच्छी तरह देखा। गुफा बहुत बड़ी न थी, ज़्यादा से ज़्यादा भोतर का विस्तार बारह फट होगा। वह न गोल थी न चौकोर, उसका कोई निर्दिष्ट आकार न था। गुफा के एक तरफ़ एक पतली सुरङ्ग थी। कौन जाने, वह कहाँ कितनी दूर तक गई है। आज मेरे पास बत्ती न थी, इससे आज उसके भोतर न गया। कल बत्ती और चकमक साथ में लेकर इसमें प्रवेश करूँगा। इसके भीतर घुटनों के बल जाना होगा।

दूसरे दिन अपने हाथ से बकरे की चर्बी की बड़ी बड़ी छः बत्तियाँ बनाईं। उन्हें साथ ले कर मैं गुफा के भीतर गया और घुटनों के बल सुरङ्ग में घुसा। लगभग दस गज़ भीतर घुस कर मैंने सोचा, कौन जाने में कहाँ जा रहा हूँ। कुछ और आगे बढ़ने पर सुरङ्ग की छत ऊँची देख पड़ी। मैंने खड़े होकर देखा, कि एक छोटी सी कोठरी है, ऊँचाई अन्दाज़न बीस फुट होगी। मैंने वहाँ जो विलक्षण दृश्य देखा, वैसा कभी कहीं न देखा था। इस गुफा की दीवार और छत से मेरी बत्ती के प्रकाश का लाख गुना प्रत्यालोक मेरे चारों ओर प्रतिफलित होने लगा। वह बड़ा उज्ज्वल और विचित्र था। बड़ा अद्भुत चमत्कार था। दीवारों में हीरे जड़े थे या सोने के पत्तर मढ़े थे-कुछ मालूम न हुआ। यह कोठरी बड़े आराम को थी। नीचे की ज़मीन खूब सूखी और साफ़ थी। बीच में पत्थर के टुकड़े बिछे थे। कहीं एक भी कीड़ा-मकोड़ा न था। यहाँ मेरे लिए एक मात्र प्रवेश [ १५३ ] की असुविधा थी; किन्तु इस संकीर्ण पथ से सुरङ्ग और भी सुरक्षित है, यह जान कर मैंने इसे सुभीता ही समझा।

इस गुफा के आविष्कार से मेरे हर्ष की सीमा न रही। जिन वस्तुओं की मुझे विशेष चिन्ता थी, उन्हें अब शीघ्र ही लाकर यहाँ रख देना चाहा। गोली, बारूद और फालतू तीन बन्दूक़ों को पहले यहाँ लाकर रक्खा। जिस बारूद के पीपे में पानी घुस गया था उसे तोड़ कर देखा, तीन चार इञ्च बारूद चारों ओर पानी पड़ने से जम कर बैठ गई थी, उसके भीतर पानी न पहुँचा था। इसलिए पीपे के बीच की बारूद बहुत अच्छी थी। यह विस्मय मेरे लिए विशेष आनन्दवर्द्धक हुआ। इस पीपे से मैंने तोस सेर बढ़िया बारूद निकाली।

वह बूढ़ा बकरा दूसरे दिन मर गया। उसको खींच कर बाहर फेकने की अपेक्षा मैने उसे वहीं गाड़ देना अच्छा समझा।मैंने गढ़ा खोद कर उसे वहीं गाड़ दिया।

मैं अब बिलकुल निर्भय होगया। पाँच सौ असभ्य आवेगे तब भी मेरा पता न पावेंगे।