राबिन्सन-क्रूसो/नौका-गठन

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राबिनसन-क्रूसो  (1922) 
द्वारा डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

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नौका-गठन

जब मैं इन झमेलों को लेकर व्यस्त था तब भी मेरा मन इस जनशून्य द्वीप से मुक्ति पाने के लिए चिन्तित रहा करता था। मैंने इस द्वीप के अन्य भाग से जबसे दूर से स्थलचिह्न देखा था तबसे मेरा जी वहाँ जाने के लिए पातुर हो रहा था। यदि मैं महादेश के किसी अंश में पहुँच जाऊँगा तो घूमते फिरते किसी न किसी दिन स्वदेश का मुँह देख सगा, अथवा जनसमूह में पहुँच जाने से भी कोई न कोई उपाय होगा। मैं मन में यही मन के लड्डू खा रहा था। किन्तु उस समय यह चिन्ता मेरे मन में एक बार भी उदित न होती थी कि यदि कहीं असभ्य जंगली मनुष्यों या हिंस्त्र पशुओं के बीच पहुँच गया तो मेरी क्या दुर्दशा होगी-वे दुष्ट जन्तु मुझे किस निर्दयता के साथ मार कर खा जायँगे। मेरे चित्त को तो एक यही चिन्ता धेरे रहती थी कि इस द्वीप से कब अन्यत्र जाऊँगा। [ ११८ ]इस समय उस एकजूरी लड़के की और आफ़्रीका के उपकूल में जिसने बचायाराथा उस लम्बे जहाज़ की बात याद आने लगी। किन्तु वह तो अब मिलने का नहीं। मैं उस डोंगी की खोज में गया जो हम लोगों के जहाज़ के साथ आई थी; जिस पर सवार हो कर हम लोग डूबे थे और जो समुद्र की लहर से ऊपर आकर सूखे में उलट पड़ी थी। वह जहाँ की तहाँ पड़ी थी किन्तु समुद्र की तरङ्ग और वायु के धके खाकर वह उलट गई थी। उसके आस पास चारों ओर बालू जम गई थी और पानी वहाँ से बहुत दूर हट गया था। नाव ज्यों की त्यों थी, कहीं टूटी फूटी न थी। यदि कोई सहायता करने वाला होता तो मैं ठेल पेल कर किसी तरह नाव को पानी में ले जाता। इससे मेरा बहुत काम चलता। मैं सहज ही ब्रेजिल को जा सकता।

यद्यपि मैं जानता था कि नाव को सीधा करना मेरे सामर्थ्य से बाहर की बात है तथापि असाध्य साधन होता है या नहीं-यह देखने के लिए मैं जंगल से लकड़ी काट कर ले आया और उसको ठेक लगा कर नाव को उलटाने की चेष्टा करने लगा। मेरे शरीर में जितना बल था उसे लगा करके मैं थक गया, पर नाव को हिला तक न सका। इसके बाद नाव के नीचे की बालू खोद कर उसे उलटाने की चेष्टा करने लगा। तीन चार सप्ताह तक मैंने जान लड़ा कर परिश्रम किया, बड़ी बड़ी चेष्टाय की, पर सभी व्यर्थ हुई। जब किसी तरह उसे उलटा न सका तब उस नाव की प्राशा छोड़ दी। किन्तु इससे कोई यह न समझे कि मैंने इसके साथ ही समुद्र पार होने की आशा भी छोड़ दी। नहीं, उपाय जितना ही [ ११९ ] कठिन प्रतीत होने लगा मेरा आग्रह भी उतना ही बढ़ने लगा।

अब मैं यह सोचने लगा कि क्या मैं स्वयं एक नई डोंगी नहीं बना सकता? आफ़्रीका के रहने वाले तो बिना विशेष अस्त्र शस्त्र के ही पेड़ के तने को खोखला करके अच्छी डॉगी बना लेते हैं; मेरे पास इतने हथियार होते हुए भी क्या मैं एक नाव न बना सकूँगा? यह भावना होते ही मेरे मन में पूर्ण उत्साह हुआ। किन्तु उस समय मुझे यह न सूझा कि हबशियों के औज़ार के अभाव की अपेक्षा भी मुझ में एक गुरुतर अभाव है। हबशियों को जनसमाज का बल रहता है पर मैं अकेला उस बल से रहित हूँ। नाव बन जाने पर भी उसे ठेल कर पानी में कैसे ले जाऊँगा?

मैं इस असुविधा की ओर कुछ भी लक्ष्य न कर के वजमूर्ख की तरह नाव बनाने पर उद्यत हुआ। यदि मन में कभी यह प्रश्न होता भी था तो यही कह कर टाल देता था कि पहले नाव बन ले फिर देखा जायगा।

मैंने एक पेड़ काट डाला। यह पेड़ खुब मोटा और लम्बा था। उसके नीचे का हिस्सा एकसा सीधा, बाईस फुट से भी कुछ ज्यादा लम्बा, था। उसकी जड़ का व्यास पाँच फुट दस इञ्च और बाईस फुट के ऊपर का व्यास चार फट ग्यारह इञ्च था। उसके ऊपर का हिस्सा कुछ पतला सा हो कर शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त हो गया था। पेड़ तो मैंने किसी तरह काट कर गिराया। इसकी जड़ काटने में बीस दिन लगे और चौदह दिन इसके ऊपर का हिस्सा काटने और डाल-पात छाँटने में लगे। इसके बाद उस तने को नाव [ १२० ] के आकार में गढ़ने में पूरा एक महीना लगा। तदनन्तर रुखानी और बसूले से छील छाल कर बड़े परिश्रम से एक सुन्दर डोंगी तैयार कर ली। यह इतनी बड़ी थी कि इसमें छब्बीस आदमी खुशी से बैठ कर समुद्र-यात्रा कर सकते थे। इसलिए यह नौका मुझ अकेले को और मेरे माल असबाब को ढोकर ले जाने के लिए बड़ी ही उपयुक्त हुई।

नाव बन गई, पर उसे जल में ले जाने का उपाय क्या है? मेरे सब परिश्रम व्यर्थ हुए। नौका पानी से करीब सौ गज़ के फासले पर थी। मैंने नाव को लुढ़का कर ले जाने के लिए मिट्टी खोद कर ज़मीन को ढलुवा बनाया। यह युक्ति भी मेरी ख़ाली गई। अनेक चेष्टा करने पर भी नाव अपनी जगह से न हिली। तब मैंने संकल्प किया कि समुद्र से नाला खोद कर नाव के पास तक पानी ले पाऊँगा, इससे नाव सहज ही पानी पर तैरने लगेगी। समुद्र से नाव तक नाले की लम्बाई, चौड़ाई और गहराई का परिणाम ठोक कर के देखा कि उतना बड़ा नाला खोदने में मुझ अकेले को कम से कम दस-बारह वर्ष लगेंगे। तब एक दम हतोत्साह होकर मैंने इस संकल्प को त्याग दिया। इस नौका-संगठन से जो मेरे मन में पश्चात्ताप हुआ उसका वर्णन नहीं हो सकता। हाँ, इससे मैंने एक शिक्षा ज़रूर पाई-आगे पीछे की बिना विवेचना किये किसी काम में हाथ डालना ठीक नहीं।

इस समय मेरे एकान्त-वास का चौथा साल पूरा हुआ। यहाँ अपने आने की प्रथम तिथि को पूर्ववत् पर्व की भाँति मान कर उत्सव मनाया। ईश्वर की कृपा से इस समय मैं सांसारिक विषय सम्बन्ध से बहुत कुछ विरक्त हो गया था। [ १२१ ] माना मैं संसार के सम्पर्क से विमुक्त होकर सदेह परलोकवास कर रहा हूँ। यहाँ मैं ही एक निष्कण्टक बादशाह था। अब मुझे किसी वस्तु की कमी के कारण कोई कष्ट न था। कोई व्यर्थ की वासना अब मन को पीड़ित नहीं करती थी। इसके सिवा इस एकाधिप-सम्पत्ति-सम्भोग में लेशमात्र अहङ्कार न था। यहाँ मैं ढेर का ढेर अन्न उपजा सकता था; पके अंगूरों से घर भर सकता था। अपनी इच्छा के अनुसार जितने चाहिएँ उतने कछुए, बकरे, भाँति भाँति के पक्षी और लड़कियाँ ले आ सकता था। किन्तु इतना लेकर मैं करता क्या? एक व्यक्ति के लिए जितना यथेष्ट हो सकता है उतना ही में लेता था। अधिक लेकर क्या करता? इस समय अपनी अवस्था की बात सोच कर मुझे यत्किञ्चित् यही ज्ञान हुआ कि वस्तुओं का मूल्य आवश्यकता के ही अनुसार होता है। उत्तम से उत्तम पदार्थ तभी तक मूल्यवान् गिना जाता है जब तक लोग उसे आवश्यक समझते हैं। आवश्यकता न रहने पर उसका कुछ मोल नहीं। संसार का सर्वप्रधान लोभी अथवा कृपण मेरी अवस्था में पड़ कर एक अच्छा दानी बन जाता, इसमें सन्देह नहीं। मेरे पास कुछ रुपया था, यह पहले ही पाठकों को मालूम हो चुका है। मैं इस समय मटर, सेम, मूली, शलगम प्रति तरकारियों के एक एक बोज के लिए या एक बोतल स्याही के लिए मुट्ठी भर रुपया देने को प्रस्तुत हूँ। जिस रुपये के लिए संसार के कितने ही लोग दिन रात लालायित रहते हैं वह रुपया मेरे नजदीक इस समय कोई चीज नहीं। इन बातों को सोच विचार कर मेरा मन ईश्वर के प्रति दृढ़ भक्ति से प्रार्द्र हो उठा। मैंने विशुद्ध भाव से ईश्वर की उपासना की और उन्हें अनेकानेक धन्यवाद दिये। मैं इस [ १२२ ] समय निश्चिन्त मन से अपनी अवस्था का सुविचार कर प्रसन्न था।