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राबिन्सन-क्रूसो/वस्त्रों की चिन्ता

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राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १२२ से – १२४ तक

 

वस्त्रों की चिन्ता

मेरी स्याही क्रमशः घटने लगी और मैं थोड़ा थोड़ा पानी मिला कर उसे बढ़ाने लगा। आख़िर वह ऐसी फीकी हो गई कि कागज़ के ऊपर उसका कोई चिन्ह ही न देख पड़ता था। जब तक काम चलाने योग्य कुछ स्याही थी तब तक मैं अपने जीवन की विशेष विशेष घटनाएँ लिख लिया करता था।

एक दिन मैं अपनी डायरी की आलोचना करते करते घटनाओँ की एकता देखकर अत्यन्त विस्मित हुना। ३० वीं सितम्बर को मेरा जन्म हुआ था और इसी तारीख़ को मेरा यहाँ का एकान्तवास भी आरम्भ हुआ। जन्म और विजन वास का प्रारम्भ एक ही दिन! जिस तारीख को मैं अपना देश का घर छोड़ करके भागा, उसी तारीख को मैं दास रूप में बन्दी होकर शैली टापू में गया था। जिस तारीख को मैं यारमाउथ मुहाने में जहाज़ डूबने से बाल बाल बचा, उसी तारीख को मैं शैली से भागा था।

स्याही के साथ रोटी का भी अभाव हो गया। यद्यपि मैंने बहुत अन्दाज़ से ख़र्च किया तो भी जहाज़ पर से लाई हुई सब रोटियाँ ख़तम हो गई। स्वयं अपने हाथ से रोटी बनाने के पहले प्रायः एक वर्ष तक मैंने रोटी नहीं खाई। किन्तु भगवान् की दया से वह कमी भी बड़े विचित्र ढंग से दूर होगई। मेरे पहनने के कपड़े भी अब धीरे धीरे फटने लगे। एक भी सूती कुर्ता मेरे पास नया न था; सभी पुराने और फटे थे। नाविकों के सन्दूक में जो छींट के कई कुत्ते मिले थे उन्हीं को यत्नपूर्वक पूँजी की तरह सँभाल कर रक्खा था; कारण यह कि किसी किसी समय सूती कपड़े को छोड़ कर दूसरा कपड़ा पहना ही न जा सकता था। यद्यपि यह देश ग्रीष्मप्रधान है, किसी कपड़े की उतनी आवश्यकता नहीं, तथापि मैं नंगा रहना हर्गिज़ पसन्द न करता था। मैं यहाँ एकाकी था फिर भी अपने शरीर की मुझे आप ही लजा होती थी। इसके अतिरिक्त यहाँ धूप इतनी कड़ी पड़ती थी कि खुला बदन रहने से शरीर में फफोले पड़ जाते थे। कुर्ता पहने रहने से उतनी गरमी नहीं जान पड़ती थी बल्कि कुत्ते के भीतर हवा जाने से ठंढक मालूम होती थी। मुझे एक टोपी की भी ज़रूरत थी। खाली सिर धूप में फिरने से सिर में दर्द होने लगता था।

यह सब सोच-विचार कर मैंने एक तरकीब से काम लिया। अपने जिन पुराने कपड़ों को अकारथ समझ कर मैंने त्याग दिया था उन्हें जोड़जाड़ कर कुछ बना सकता हूँ या नहीं, इसकी जाँच कर लेना मैंने उचित समझा। मैं रफ करने में तो अनाड़ी था ही, दर्जी के काम में और भी अनाड़ी था। इसलिए उन कपड़ों से जो कुछ बनाया वह एक विचित्र ढंग की वस्तु हुई। फिर भी वह मेरे काम चलाने योग्य हो गई।

मैंने अब तक जितने पशुओं को मारा था उनके चमड़ों को फेंक न दिया था, बल्कि उन्हें धूप में अच्छी तरह सुखाकर एक लकड़ी में लटकाकर रख दिया था। उनमें से कितने ही तो धूप में सूख कर ऐसे सख्त हो गये थे कि उनसे कोई काम लेना कठिन था। पर उन में कई एक मुलायम भी थे। उसी चमडे की पहले मैंने एक टोपी बनाई। चमड़े का चिकना हिस्सा नीचे रहने दिया और ऊन को ऊपर कर दिया। टोपी बनाने में सफलता प्राप्त करके मैंने उस चमड़े की कुछ पोशाकें भी बनानी चाहीं। कुछ दिन में खूब अच्छी ढीली ढाली कुछ पोशाकें तैयार कर ली। उनकी काट छाँट बहुत भद्दी थी, यह मुझे स्वीकार करना ही पड़ेगा। जो हो, उनसे मेरा काम मज़े में चल जाता था। वृष्टि में भी वे न भीगती थीं। ऊन पर से होकर पानी तुरन्त नीचे गिर पड़ता था। वे मज़े में बरसाती कपड़ों का काम देती थीं।

इसके अनन्तर एक छतरी बनाने में मुझे बहुत श्रम करना और समय लगाना पड़ा। धूप इतनी कड़ी होती थी कि छतरी नितान्त आवश्यक थी। बड़ी कठिनाई और अनेक युक्तियों से मैने जैसी तैसी एक काम चलाने योग्य छतरी तैयार की। वह खोली और मोड़ी भी जाती थी। इसके ऊपर भी ऊन ही थी। वह धूप और पानी दोनों का, विलक्षण रीति से, निवारण करती थी।

इस प्रकार मैं बड़े आराम से अपने को ईश्वर की कृपा के ऊपर निर्भर कर एकान्तवास करने लगा।