राबिन्सन-क्रूसो/भग्न जहाज़ का दर्शन

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राबिनसन-क्रूसो  (1922) 
द्वारा डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा
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भग्न जहाज़ का दर्शन

मैं जहाज़ के निकट पहुँच गया, किन्तु उस पर चढू़ँगा किस तरह ? जहाज़ टीले पर आ जाने के कारण उसका कोना बहुत ऊँचा उठ गया था। ऐसा कुछ सहारे को भी न था जिसे पकड़ कर उस पर चढ़ता। मैंने जहाज़ के चारों तरफ़ दो बार घूम घाम कर देखा एक जगह ऊपर से एक रस्सी लटक रही थी। बड़े कष्ट से उसे पकड़ कर में जहाज़ पर सामने की ओर चढ़ गया। ऊपर जाकर देखा, जहाज़ के भीतरी पेंदे में खूब पानी भर गया है, बालू के ढेर में अटके रहने के कारण उसका पिछला हिस्सा ऊपर की ओर उठ गया है और आगे का हिस्सा नीचे की ओर झुक कर पानी में डूबने पर है। मैं जहाज़ पर चढ़ कर खोज ने लगा कि कौन कौन वस्तु सूखी है। सब से प्रथम मेरी दृष्टि खाद्य-सामग्री के भण्डार की ओर गई। देखा कि उसमें अभी तक जल नहीं पहुँचा है । खाने की सामग्री ज्यों की त्यों रक्खी है। मैं भूखा तो था ही, झट मुट्ठी भर बिस्कुट ले कर खाने लगा और खाते ही खाते अन्यान्य वस्तुओं की भी खेज करने लगा। वह समय मेरा नष्ट करने का न था। मैंने जहाज़ में बहुत सी ऐसी चीजें देखीं जो मेरे काम की थीं। किन्तु उन चीजों को ले जाने के लिए पहले एक नाव चाहिए। वह अभी कहाँ मिलेगी ? मैं चुपचाप बैठ कर सोचने लगा।

जो चीज़ मिलने की नहीं है उसके लिए माथे पर हाथ रक्खे मौन साध कर बैठ रहना वृथा है। नाव एक भी वहाँ

न थी, तब उसके लिए चिन्ता कैसी है किन्तु किसी वस्तु का
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अभाव ही नई वस्तु के आविष्कार का कारण होता है । मेरी

समझ में एक बात आई । जहाज़ के मस्तूल के कितने ही टूटे फूटे छोटे छोटे टुकड़े थे । उनको एकत्र कर मैंने एक बेड़ा बनाया, उस पर दो-तीन तखे़ बिछा दिये । और समय होता तो मैं इतना परिश्रम न कर सकता किन्तु प्राणों की विपत्ति के समय उस घोर परिश्रम से मैं कुछ भी क्लान्त न हुआ । जिन चीजों को मैं ले जाना चाहता था वे हिलकोरे के जल के छींटों से कहीं भीग न जायें, इस लिए मैंने एक उपाय किया । तीन सन्दूको़ के ताले तोड़ डाले और उन्हें खाली करके रस्सी से लटका कर बेड़े पर रख दिया । पहले बक्स में चावल, पनीर सूखा मांस, बिस्कुट आदि खाने-पीने की चीजें भर लीं । जब मैं इन चीजों को ठिकाने के साथ रखने लगा तब देखा कि समुद्र में ज्वार आगया । किनारे की सूखी ज़मीन पर मैं अपने बदन के जो कपड़े लत्ते रख आया था उन्हें वह बहा लेगया । यह देख कर मुझे बड़ा दुःख हुआ । फिर मैं धीरज धर कर जहाज़ में पोशाक ढूँढ़ने लगा । पोशाकें बहुत थीं, मैंने अपनी आवश्यकता भर के कपड़े ले लिये । विशेष कर मुझे उस समय पोशाक की अपेक्षा अस्त्र- शस्त्र अधिक प्रयोजनीय जान पड़े । कारण यह कि बिना उनके स्थल भाग में एक भी काम न चलता । इसलिए मैं हथियारों की खोज करने लगा । बहुत खोजने पर मुझे औज़ारों का बक्स मिल गया । उस समय वह एक जहाज़ भर सोने की अपेक्षा मुझे अधिक मूल्यवान् जान पड़ा । मैंने औजारों से भरा हुआ सन्दूक जहाज़ से उतार कर बेड़े पर रख दिया । इसके बाद मैंने दो पिस्तौल, कुछ गोली-बारूद और बहुत दिन की मोर्चा लगी हुई दो तलवारें खोल [ ५४ ]
निकालीं । मुझे मालूम था कि जहाज़ में तीन पीपे बरूद है । बहुत ढूँढने पर तीनों पीपे बरूद मिली; एक में पानी पैठ चुका था, और दो बच गये थे । उन दोनों पीपों और हथियारों को भी उतार कर बेड़े पर रक्खा । बेड़े पर अब बोझा भरपूर हो गया, यह जान कर मैंने स्थल भाग की ओर लौट जाना चाहा । किन्तु बेड़े को किस तरह किनारे तक ले जाऊँगा, यह सेच कर मैं घबरा गया । मेरे पास खेने की कोई वस्तु न थी । ज़रा तेज़ी के साथ हवा बहने ही से बेड़ा उलट जाता और मेरी सारी आशा मिट्टी में मिल जाती ।

मेरे बेड़े के पार होने की आशा के तीन कारण थे--एक तो समुद्र शान्त और स्थिर था; दूसर, ज्वार आने से जल क्रमशः किनारे की ओर बढ़ रहा था, तीसरे जो कुछ कुछ हवा बह रही थी वह किनारे की ओर जाने ही में सहायता दे रही थी । मैंने दो तीन टूटी पतवारें, खनती ( खनित्र ), कुल्हाड़ी, हथौड़ी आदि उपयोगी वस्तुओं का संग्रह कर साथ में रख लिया । फिर कपार ठोक कर मैं रवाना हुआ । एक मील तक तो रास्ता मज़े में कटा । केवल जिस जगह मैं पहले उतरा था उस जगह से कुछ दूर हटकर बेड़ा बह चला । उससे मैंने समझा कि ज्वार का प्रवाह कहीं से प्रवेश का मार्ग पाकर उसी ओर बढ़ा जा रहा है । शायद मैं किसी खाड़ी या नदी के मुहाने में जा पहुँचूँगा, और वहाँ मेरे उतरने की सुविधा होगी ।

जो मैंने सोचा था वही हुआ । मैंने सामने एक खाड़ी देखी । प्रवाह उसी के भीतर जा रहा है । प्रवाह के बीच में बेड़े को करके मैं खाड़ो के भीतर जाने की चेष्टा करने लगा । [ ५५ ]यहाँ मेरा माल से भरा हुआ बेड़ा डूबने पर हुआ । ऐसा होता तो मैं मारे दुःख और शोच के छाती फाड़ कर मर जाता । वहाँ के किनारे की अवस्था से मैं बिलकुल अपरचित था । किधर क्या है, यह कुछ भी मुझे मालूम न था । प्रवाह क्रम से आगे जाते-जाते बेड़ा ऐसी जगह पहुँच गया कि उसका एक हिस्सा बालू के टीले पर चढ़ गया और दूसरा पार्श्व नीचे अगाध जल पर गया । बेड़े के पिछले हिस्से पर अधिक दबाव पड़ जाने के कारण वह पानी में धँस गया । ज़रा और दबाव पड़ते ही इतने कष्ट से संग्रह किया हुआ मेरा सब सामान पानी में गिर जाता । मैं तुरन्त जी पर खेल कर सन्दूकों को पीठ से ठेले ठेल खेल कर कुछ ऊपर की ओर खिसका लाया और बेड़े को बालू से हटाने की चेष्टा करने लगा । मेरे प्राणपण से ज़ोर लगाने पर भी बेड़ा अपनी जगह से ज़रा भी न हिला । मैंने पीठ के बल से सन्दूकों को ठेल ठेल कर रक्खा था, इससे मेरी पीठ की नसें जकड़ गई थीं । मैं अच्छी तरह हिल डोल भी नहीं सकता था । मैं सारे बदन का ज़ोर पीठ पर लगा कर सन्दूक से लग कर आध घंटे तक बैठा रहा । उतनी देर में ज्वार का जल क्रम क्रम से बढ़ कर बेड़े को विषम अवस्था से सम भाव में ले आया । बेड़ा सीधा होकर उस रेतीली भूमि से छूट कर उपलाने लगा तब मैं लग्गी से ठेल कर उसे धीरे धीरे खेता हुआ आगे की ओर बढ़ा ले चला । खाड़ी के भीतर जा करके मैंने एक नदी का मुहाना देखा । ज्वार का जल अभी खूब वेग से ऊपर की ओर चढ़ रहा था । मैं साकांक्ष दृष्टि से मुहाने के आस पास बेड़ा लगाने की जगह देखने लगा । मैं स्थल भाग की ओर बहुत दूर तक जाना नहीं चाहता था । कारण [ ५६ ]
यह कि किनारे के आस पास रहने से कभी कोई जहाज़ मिल जाने की आशा थी ।

आखिर मुहाने के पास एक सुभीते की जगह देख कर मैंने बड़े बड़े कष्ट और परिश्रम से बेड़े को वहाँ लेजाकर तटस्थ भूमि में भिड़ाने की चेष्टा की । किन्तु किनारे की भूमि इतनी ऊँची ढलुवाँ थी कि फिर मेरा बेड़ा किनारे से लग कर उलटने पर हो गया । तब मैं कुछ देर तक ज्वार के और अधिक होने की प्रतीक्षा से ठहर गया । ज्वार के बढ़ने से पानी कछार के ऊपर तक पहुँच गया, तब मैंने बेड़े को किनारे लगा कर अपनी सब चीज़ों को उतार उतार कर सूखी ज़मीन पर ला रक्खा ।

मैं अब अपने रहने के लिए एक रक्षिता स्थान खोजने लगा । क्या मालूम मैं कहाँ हूँ, यह देश है या टापू ? मनुष्यों की यहाँ वस्ती है या नहीं ? हिंस्त्र जन्तु या नृशंक लोगों का यहाँ भय है या नहीं,-- मैं यह कुछ न जानता था । वहाँ से कोई एक मील पर एक पहाड़ दिखाई दे रहा था । एक बन्दूक और गोली-बारूद ले कर मैं अपने रहने को जगह ठाक करने चला । बड़े बड़े कष्ट से पहाड़ की चोटी पर चढ़कर देखा कि मैं एक टापू में आ गया हूँ । चारों ओर पानी ही पानी नजर आता था, कहीं स्थल का चिह्न भी दिखाई न देता था । पच्छिम ओर तीन-चार मील पर एक पहाड़ और दो छोटे छोटे टापू देख पड़ते थे । मैंने खूब ग़ौर करके देखा, वे दोनों द्वीप गैर आबाद थे और मनुष्य तथा हिंस्त्र पशुओं से बिलकुल खाली थे । वहाँ पक्षी असंख्य देखने में आये । वैसे पक्षी अब तक मैंने कभी न देखे थे । उन पक्षियों में कौन खाद्य थे और कौन अखाद्य, इसका भी मैं [ ५७ ]
निश्चय न कर सका । मैंने एक बाज़ पक्षी की किस्म की चिड़िया मारी ।

जब से संसार की सृष्टि हुई है तब से, मालूम होता है, इस द्वीप में इसके पूर्व कभी बन्दूक की आवाज़ न हुई थी । बन्दूक की आवाज़ सुनकर चिड़ियाँ विचित्र कलरव करके आकाश में उड़ने लगीं । जिस पक्षी को मैंने मारा था उसका मांस बहुत ख़राब था, खाने के येाग्य नहीं था ।

यह देख सुन कर मैं अपनी वस्तुओं के निकट लौट आया और ऐसी आयेाजना करने लगा जिससे निर्विघ्नपूर्वक रात कटे । मैंने चारों ओर बक्स रख कर उसके ऊपर तखा़ रक्खा और झोपड़े के किस्म का छोटा सा कुटीर बना लिया ।

अब मैंने फिर जहाज़ पर से कुछ वस्तुएँ ले आने का इरादा किया । मैं अपने मन में तर्क-वितर्क करने लगा कि बेड़े को ले जाने में सुविधा है या नहीं, पर केाई सुभीता न देख पड़ा । तब भाट के समय पूर्ववत् नीचे की राह से जाने का ही मैंने निश्चय किया । इस दफ़े मैं अपने बदन के कपड़े उतार कर झोपड़े में रख गया ।

मैंने पहले की तरह जहाज़ में जाकर फिर एक बेड़ा बनाया । पहली बार ठोकर लगने से मैं चेत गया । अब की बार मैंने बहुत बड़ा बेड़ा न बनाया और न उस पर ज़्यादा बोझ ही रक्खा । फिर भी मैं अनेक आवश्यक वस्तुएँ जहाज़ पर से ले आया। चन्द किस्म के हथियार, लोहे की छड़, बन्दूक, गोली-बारूद और सान चढ़ाने की कलं आदि अनेक वस्तुओं का संग्रह कर लिया । इनके अतिरिक्त पुरुषों के [ ५८ ]
पहनने की कुल पोशाकें, जहाज़ का पाल, बिछौना, और बिछौने की चादरें आदि ले आया । मैं जब जहाज़ पर से चीजें लाने गया था तब मेरे मन में इस बात का खटका था कि मेरी अनुपस्थिति में मेरे खाने-पीने की चीजें उठा कर कोई ले न जाय । किन्तु लौट कर देखा तो मेरे घर में कोई न आया था, केवल एक वनविड़ाल एक सन्दूक़ के ऊपर बैठा था । वह मुझे अपनी ओर आते देख दौड़ कर अलग जा बैठा । वह बड़े निश्चिन्त भाव से बैठ कर मेरे मुँह की ओर ताकने लगा, मानो वह मेरे साथ परिचय करना चाहता हो, मैंने उसकी ओर बन्दूक़ दिखलाई किन्तु बन्दूक की पहचान न रखने के कारण वह ज्यों का त्यों बैठा रहा-- डरा नहीं । तब मैंने उसके आगे एक बिस्कुट फेंक दिया । वह अपनी जगह से उठा और उसे सूँघ कर खाने लगा । बिस्कुट खाकर वह कृतज्ञता की दृष्टि से प्रसन्नता पूर्वक मेरी ओर देखने लगा मानो वह और लेना चाहता था । किन्तु मेरे पास खाने की फ़ालतू सामग्री न थी इसलिए उसके और न दे सका । तब वह वहाँ से चला गया ।

दूसरी खेप की चीजें ले आने पर मैंने एक तम्बू बनाया । धरती में कई खँटे गाड़ कर उसके ऊपर मैंने पाल फैला कर एक वस्त्रागार बना लिया ।

इसके अनन्तर जो वस्तुएँ धूप में या पानी में बिगड़ने योग्य थीं उन्हें मैंने तम्बू के भीतर रक्खा और सन्दूकों को तम्बू के चारों ओर इस ढँग से रक्खा जिसमें कोई मनुष्य या हिंस्त्र पशु मुझ पर एकाएक आक्रमण न कर सके । फिर तम्बू के द्वार पर कई एक तख़े खड़े कर के एक खाली बक्स सीधा खड़ा कर के टिका दिया । इस प्रकार चारों [ ५९ ]
ओर अच्छी तरह घेर घार कर के मैं जमीन में एक बिछौना बिछा कर सो रहा । मैंने अपने सिरहाने दो पिस्तौल और पास ही एक बन्दूक भर कर रख ली और निश्चिन्त होकर खूब सोया । बहुत दिनों पर बिछौने का शयन, पूर्वरात्रि का जागरण और दिन भर का परिश्रम, शीघ्र ही मेरी गाढ़ निद्रा के कारण हुए ।

एक मनुष्य के लिए मेरे घर का प्रबन्ध काफ़ी हो चुका था, किन्तु मैंने उतने पर ही सन्तुष्ट न होकर जहाज़ पर से और और चीजे ले आने का संकल्प किया । प्रतिदिन भाटे के समय जाकर जहाज़ पर से पाल और कैम्बिस काट कर ले आता था; रस्सी, डोरी, भीगी हुई बारूद का पीपा, छुरी, कैंची, लोहे की छड़े, लकड़ी और तख़े आदि जो मिल जाता उसे उठा कर वहाँ से डेरे पर मैं रोज़ लाने लगा । तीसरी बार को खोज में फिर कुछ चपातियाँ, एक बर्तन भर मैदा, और चीनी मिली । इन चीजों को मैं बड़ी हिफ़ाज़त से ले आया । चौथी बार मैंने अपने बेड़े पर इतना बोझा रक्खा कि जो किनारे आते आते उलट गया । उस पर जितनी चीजें थीं उनके साथ साथ मैं भी पानी में गिर पड़ा । उससे मेरी विशेष हानि नहीं हुई । मेरी लाई हुई उन चीज़ों में बहुत सी ऐसी थीं जो पानी में डूब नहीं उतराने लगीं । सिर्फ लोहे की वस्तुएँ डूब गई । कितनी ही वस्तुओं को मैं तैर कर पानी में से खींच लाया और कितनी ही वस्तुओं को भाटे के समय ढूँढकर निकाल लाया ।

इस तरह तेरह दिन बीते । इस बीच में ग्यारह बार जाकर जहाज़ पर से--अकेले जहाँ तक हो सका--आवश्यक [ ६० ]
वस्तुएँ उठा लाया । मैं समूचे जहाज़ को टुकड़े टुकड़े करके धीरे धीरे ऊपर ले आता, किन्तु इतने में वायु का वेग प्रबल हो उठा । फिर भी भाटे के समय मैं बारहवीं बार गया । जहाज़ की एक दराज़ में अस्तुरा, कैंची, काँटा, छुरी और कुछ रुपये मिले । रुपये को देख कर मैंने मन ही मन हँस कर कहा -"बेकार है ! तुम्हारी अपेक्षा मेरे निकट अभी एक छुरी का मूल्य कहीं बढ़ कर है ।" एक बार मैंने सोचा, रुपया लेकर क्या करूँगा किन्तु फिर भविष्य की बात सोच कर उन्हें भी रख लिया । देखा, आकाश में बादल उमड़ रहे हैं । मैं एक बेड़ा बनाने की बात सोच रहा था और कुछ कुछ उसकी आयोजना भी कर रहा था । पन्द्रह मिनट के भीतर ही पानी बरसने लगा और उलटी हवा बहने लगी, आर्थात् किनारे से समुद्र की ओर । वायु की प्रतिकूलता में किनारे तक बेड़ा ले जाना असंभव होगा और ज्वार आने के पहले स्थल भाग में न लौट जायेंगे तो नीचे के रास्ते से लौट जाना भी असंभव है, यह सोचकर मैं पानी मैं उतर पड़ा । देखते ही देखते हवा ने ज़ोर पकड़ा, समुद्र में तरंग पर तरंग उछलने लगी । मेरी पीठ पर गठरी बँधी थी, इसलिए मैं बड़ी कठिनता से किसी तरह तैर कर ऊपर आाया ।

मैंने अपने नव-निर्मित गृह में जाकर बेखटके रात बिताई । सवेरे उठकर देखा, जहाज़ का कहीं नाम-निशान तक नहीं । यह देख कर मैं अत्यन्त विस्मित हुआ । किन्तु मैं इतने दिनों में जहाज़ से चीजें ढो ढो कर ले आया था । और कोई चीज़ लाने को न रह गई थी । यह मेरे लिए विशेष सन्तोष का कारण हुआ । [ ६१ ]इस समय मैंने जहाज़ के अलक्षित होने की चिन्ता छोड़ कर दूसरे काम में मन लगाया ।