राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का क़िला

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क्रूसो का क़िला

मैंने अपने रहने के स्थान को निरापद करने पर पूरा ध्यान दिया । जंगली असभ्य मनुष्य व हिंस्त्र पशु मेरा कोई नुकसान न कर सकें, इसके लिए कैसा घर बनाना चाहिए-- में यही सोचने लगा । एक बार यह सोचता था कि जमीन में सुरंग खोद कर उसी में रहूंगा, फिर जी में होता कि तम्बू के भीतर ही रहूँगा । आख़िर मैंने दोनों तरह से रहने का निश्चय किया ।

मैं उस समय जहाँ था वह जगह रहने के लायक न थी । समुद्र के किनारे की भूमि सील होने के कारण स्वास्थ्यकर नहीं होती ; दूसरे पीने का पानी भी वहाँ अच्छा न था । इसलिए मैं अपने रहने के लिए उपयुक्त स्थान खोजने लगा ।

मैंने सोच कर देखा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ इतनी बातें होनी चाहिएँ । प्रथम जगह स्वास्थ्यकर हो, दूसरे मीठा पानी हो, तीसरे धूप का बचाव हो, चौथे हिंस्त्र मनुष्य और पशुओं से आत्मरक्षा हो सके ; पाँचवें समुद्र का दृश्य हो । यदि जहाज़ को जाते देखूँगा तो किसी तरह भगवान की कृपा से उद्धार हो सकेगा । कारण यह कि मैं तब भी उद्धार की आशा को एकदम छोड़ न बैठा था । [ ६२ ]घूमते घूमते एक पहाड़ की तलहटी में मुझे समतल भूमि मिली । वहाँ हर तरह का सुभीता देख पड़ा । इस स्थान की बगल में पहाड़ इतना बड़ा था कि कोई प्राणी उस तरफ़ से उतर कर मुझ पर आक्रमण न कर सकता था ।

पहाड़ में एक जगह गुफा की तरह खुदा था, किन्तु वह असली गुफ़ा न थी । एक प्रकार का गड्ढा था ।

मैंने उसी तृणसंकुल हरित-भूमि में पर्वतस्थित खोह के समीप तम्बू खड़ा करने का विचार किया ।

खोह के सामने दस गज हट कर बीस गज व्यास में मैंने धनुषाकार एक अर्धवृत्त का चिह्न अंकित किया । इस अर्धवृत के ऊपर मैंने खूँटे गाड़ कर एक घेरा डाला ; प्रथम पंक्ति के पीछे छः इंच दूरी पर फिर एक पंक्ति-बद्ध खूँटों का घेरा बनाया । खूँटों को मैंने खूब मजबूती के साथ गाड़ा था, और खूँटों का सिरा अच्छी तरह बल्लम की तरह पैना कर एकसा कर दिया था । जंगल से खूँटों के उपयुक्त लकड़ी काट कर लाने और उसके सिरे छील कर गाड़ने में मेरा बहुत समय लगा और परिश्रम तो करना ही पड़ा । खूँटे गड़ जाने पर दो पंक्ति-बद्ध खूँटों के बीच की जगह को जहाज की रस्सी से उनकी ऊँचाई के बराबर भर दिया । उसके बाद भीतर से खूँटों की सहायता के लिए तिरछी मेखें गाड़ दीं । यह घेरा ऐसा सुदृढ़ हुआ कि किसी मनुष्य या हिंस्त्र पशु के मुझ पर आक्रमण करने की सम्भावना न रही ।

इस घेरे के भीतर जाने-आने के लिए मैंने कोई दर्वाजा न रक्खा । एक छोटी सीढ़ी के द्वारा घेरे के लाँघ कर जाने[ ६३ ]
आने की व्यवस्था की । इस प्रकार किले की रचना करके मैं खूब निश्चिन्त हो कर रात में खाने लगा । किन्तु बाद को मैंने समझा, इस टापू में मेरा कोई दुश्मन नहीं है । मेरी इतनी सावधानी निरर्थक हुई । इस क़िले के भीतर मैंने अपनी वस्तुओं को पहली जगह से बड़े परिश्रम के साथ ढो ढो कर ला रक्खा । उस प्रदेश में वर्षा बहुत होती थी, इस कारण मैंने दोहरा तम्बू अर्थात् एक के भीतर और एक तम्बू खड़ा किया और ऊपर के तम्बू को तिरपाल से ढँक दिया ।

बहुत दिनों तक मैं बड़े परिश्रम से ये सब काम कर ही रहा था, कि एक दिन काली घटा घिर आई । सारा आकाश-मण्डल काले बादलों से भर गया और इसके साथ ही पानी बरसने लगा । बिजली कड़कने लगी । बिजली की चमक की तरह मेरे हृदय में धक से एक बात याद हो आई, मेरी बारूद ! यदि उसमें आग लग जाय तब तो सर्वनाश हो जायगा । मेरी आत्मरक्षा और आहार-संग्रह करने का उपाय एक दम नष्ट हो जायगा । बारूद में आग लग जाने से अन्यान्य वस्तुओं के साथ मैं भी उड़ जा सकता था--यह चिन्ता पहले मेरे मन में न थी । क्योंकि बारूद से उड़ जाने पर मैं किस तरह, कब मर जाता, यह जानने का अवसर ही न मिलता तो फिर मृत्यु से डरता ही क्यों ?

वृष्टि बन्द होने पर, बारूद रखने के लिए, मैं छोटी छोटी थैलियाँ और बक्स बनाने लगा । बारूद के बक्स अलग अलग रक्खे जायेंगे तो एक लाभ होगा । वह यह कि यदि आग लगेगी भी तो सब एक साथ न जलेंगे । यह सोच कर मैं उसी की व्यवस्था करने लगा । मेरे पास प्रायः तीन मन [ ६४ ]बारूद थी । मैंने उसे सौ हिस्सों में बाँट कर पहाड़ के नीचे गढ़ा खोद खोद कर पृथक् पृथक् गाड़ रक्खा और उन सब जगहों पर भली भाँति निशान भी कर दिया, जिस से खोद कर निकालते समय गड़बड़ न हो । मैंने पूरा प्रबन्ध कर दिया जिससे वे बक्स वर्षा के जल में भीग न जायँ । जिस पीपे में पानी घुस जाने से बारूद भीग गया था उसके लिए कोई चिन्ता न थी । उसे पहाड़ की खोह में रख दिया । यह सब करते धरते मेरे पन्दह दिन कट गये ।