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रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)/भूमिका/२. महाकाव्यत्व

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रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)
चंद वरदाई, संपादक विपिन बिहारी त्रिवेदी

हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ ६४ से – १३१ तक

 

 

महाकाव्यत्व

'प्रबन्ध' और 'निर्बन्ध' (या मुक्तक) श्रव्य-काव्य के दो भेद माने गये हैं। पूर्वापर से सम्बन्ध रखने वाला 'प्रबन्ध' और इस तारतम्य से रहित 'मुक्तक' कहा गया है। 'प्रबन्ध' में छन्द परस्पर कथा-सूत्र से ग्रथित रहते हैं और उनमें किसी प्रकार का व्यतिक्रम संभव नहीं है। 'मुक्तक' के स्वयं-स्वतंत्र छन्दों का क्रम भंग किया जा सकता है। कुछ आचार्यों ने दो-दो और तीन-तीन छन्दों के भी 'मुक्तक' माने हैं। आधुनिक हिन्दी-काव्य के गीत संयुक्त-मुक्तकों की कोटि में आते हैं। 'प्रबन्ध' में सम्पूर्ण काव्य सामूहिक रूप से अपना प्रभाव डालता है परन्तु 'मुक्तक' का प्रत्येक स्वतंत्र छन्द अपने भाव और प्रभाव में उन्मुक्त रहता है।

'महाकाव्य', 'काव्य' और 'खण्डकाव्य' ये तीन प्रबन्ध-काव्य के भेद हैं। जीवन को अनेकरूपता दिखाने वाला या समग्र रूप में उसका चित्रण करने वाला 'महाकाव्य' विशाल आकार और दीर्घ कथानक वाला होता है। 'महाकाव्य' की प्रणाली पर लिखा जाकर भी उसके सम्पूर्ण लक्षणों का उपयोग न करने वाला 'काव्य' कहलाता है और विद्वानों ने इस प्रकार के कथा-निरूपक सर्ग-बद्ध काव्यों को 'एकार्थ-काव्य' कहा है। जीवन की एक ही परन्तु स्वत:पूर्ण घटना को मुख्यता देने के कारण एकदेशीयता वाला 'खण्डकाव्य' विख्यात हैं।

जिस प्रकार भाषा बन जाने के उपरान्त उसका व्याकरण निर्धारित किया जाता है उसी प्रकार साहित्य की विविध विधाओं—श्रव्य और दृश्य काव्यों के निर्माण के बाद उनके लक्षण निश्चित किये जाते हैं। और जिस प्रकार आगामी पीढ़ियाँ व्याकरण के ज्ञान प्राप्ति के माध्यम से किसी भाषा का ज्ञान अर्जन करके उसमें साहित्य सर्जन करती हैं उसी प्रकार लक्षण-ग्रन्थों के आधार पर परवर्ती विद्वान् साहित्य के विविध प्रकारों को जन्म देते हैं तथा बहुतेरे मेधावी अपूर्व योजनाओं की चमत्कृति से लक्षणों में परिवर्तन या नवीन योग उपस्थित करते हुए भी पाये गये हैं। प्रो॰ ललिताप्रसाद सुकुल ने उचित ही लिखा है—'कलाकार मन्तव्य न जानता हुआ, असीम गन्तव्य में, अनुगामियों की दृष्टि से अदृश्य रहकर उनका मार्ग प्रदर्शन करता हुआ, आलोचक (आचार्य) के इशारों से नई प्रेरणा और नवीन आदर्श पाकर भी उसे पीछे छोड़कर सृजन का अग्रदूत है।'[] पाश्चात्य प्राचार्यों के अनुसार महाकाव्य' वर्णन-प्रधान या विषय-प्रधांने काव्य के अन्तर्गत रखा जाता है और इसी से उसे एपिंक' कहा गया है । संस्कृत के लक्षण-ग्रन्थों में महाकाव्य' के बिविध अंगों का विस्तार पर्वक विवेचन मिलता है। पाश्चात्य और भारतीय प्राचार्यों द्वारा प्रतिपादित ‘महाकाव्य’ के लक्षणों में विशेष अन्तर नहीं है। पश्चिात्य अाचार्यं नहाकाव्य' में जातीय भावनाओं के समावेश पर अधिक बल देते हैं जब कि भारतीय महाकाव्य जातीय भावनाओं के स्थान पर युद्ध, यात्रा, ऋतु-वर्णन आदि को प्रश्रय देते हैं । अाज विकासशील मानव ने महाकाव्य-सम्बन्धी प्राचीन दश में परिवर्तन और संशोधन कर लिये हैं।

भारतीय प्राचार्यों में आठवीं शताब्दी के दंडी ने महाकाव्य के लक्षणों की विवेचना अपने ‘काव्यादर्श' में इस प्रकार की है——

सर्गबन्धो महाकाव्यमुच्यते तस्य लक्षणम् । आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम् ।। १४ इतिहासकथोद्भूत भितरः सदाश्रयम् । चतुर्वर्गफलोपेतं चतुरोदात्तनायकम् ।। १५ नगरार्णव - शैलर्तु • चन्द्राक्रोदयवर्णनैः । उद्यानसलिल - क्रीड़ा - मधुपान - रतोत्सवैः ।। १६ विप्रलम्सैबिंनाहैश्च कुमारोदयवर्णनैः। मन्त्र - दूत - प्रयाणाजि • नायकाभ्युदयैरपि ।। १७ अलंकृतमसंक्षिप्त रसभवि निरन्तरम् । सरनतिविस्तीरः श्रव्य वृत्तै: सुसन्धिभि: ।। १८ सर्बत्र 'भिन्नवृत्तान्तैरुपेतं लोकरञ्जकम् ।

काव्यं कल्पान्तरस्थायि जायेत सलंकृति ।। १६

काव्य की सगुण शब्दार्थों परिभाप करने वाले बारहवीं शताब्दी के प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि ने अपने काव्यानुशासनम् में महाकाव्य को संस्कृत भाषा तक ही सीमित नहीं रखा वरन् विभिन्न प्राकृतों, अपभ्रंश और ग्राम्यभाषाओं के महाकाव्यों का भी उल्लेख किया तथा उनमें सर्ग के पर्याय क्रमश: आश्वास, सन्धि और अवस्कन्ध बतलाये और मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श तथा निर्वहण ये पाँच सन्धियाँ जो अभी तक पूर्ववर्तियों द्वारा केवल नाटक में अपेक्षित कही गई थीं, उन्होंने महाकाव्य में आवश्यक बतलाई|

‘पद्यं'प्राय:संस्कृतप्राकृतापभ्रशग्राम्यभानिवद्धभिन्नान्त्यवृत्तसगश्वाससंध्यवस्कन्धकबन्धं सत्सन्धि शब्दार्थ वैचित्र्योपेतं महाकाव्यमः । ८, ६

चौदहवीं शती के, कविराज विश्वनाथ ने पूर्ववतीं आचार्यों द्वारा दिये गये लक्षणों को ध्यान में रखते हुये महाकाव्य के निम्न लक्षण अपने साहित्य दर्पण में दिये जिनकी सर्व मान्यता विदित है:

सर्गबन्धों महाकाव्यम् तत्रैको नायकः सुरः।
सद्वंशः क्षत्रियों वापि धीरोदात्तगुणान्वितः॥१
एक वंशभवा भूपा: कुलजा वहवोऽपि वा।
शृङ्गार वीरशान्तानामेकोङ्गी रस इष्यते॥२
अङ्गानि सर्वेतिरसाः सर्वे नाटक सन्धयः।
इतिहासोद्‌भयं वृत्तम् अन्यद्वा सज्जनाश्रयम्॥३
चत्वारस्तस्य वर्गाः स्युस्तेष्वेकं च फलं भवेत्।।
आदौ नमस्क्रियाशीर्वा वस्तुनिर्देश एव वा॥४
क्वाचिन्निन्दा खलादीनां सतां च गुणकीर्तनम्।
एक वृत्तमयैः पद्यैरवसानेऽन्यवृत्तकैः॥५
नातिस्वल्पा नातिदीर्घाः सर्गा अष्टाधिकाइह।
नाना वृत्तमयः क्वापि सर्गः कश्चन दृश्यते॥६
सर्गान्ते भावि सर्गस्य कथायाः सूचनं भवेत्।
सन्ध्यासूर्येन्दुरजनीप्रदोषध्वान्तवासराः॥७
प्रातर्मध्याह्नमृगयाशैलर्तुवन सागराः।
सम्भोग विप्रलम्भौ च मुनि स्वर्ग पुराध्वराः॥८
रणप्रयाणोपयममन्त्रपुत्रोदयादयः।
वर्णनीया यथायोगं साङ्गोपाङ्गा अमी इह॥९
कवेर्वृत्तस्य वा नाम्ना नायकस्येतरस्य वा।
नामास्य सर्गोपादेयकथया सर्वनाम तु॥१०

अर्थात्‌—

(१) महाकाव्य में सर्गों का निबन्धन होता है।

(२) इसका नायक देवता या धीरोदात्त गुणों से समन्वित कोई सद्‌वंशी क्षत्रिय होता है। एक वंश के सत्कुलीन अनेक राजा भी नायक हो सकते हैं।

(३) शृङ्गार, वीर और शान्त में से कोई एक रस अंगी होता है तथा अन्य रस गौण होते हैं।

(४) नाटक की सब सन्धियाँ रहती हैं। ('सन्धियों के अङ्ग यहाँ यथासम्भव रखने चाहिये।' टीकाकार)

(५) कथा ऐतिहासिक या लोक में प्रसिद्ध सज्जन सम्बन्धिनी होती है। (६) (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) इस चतुर्वर्ग में से एक उसका फल होता है।

(७) प्रारम्भ में आशीर्वाद, नमस्कार या वर्थ-वस्तु का निर्देश होता है।

(८) कहीं खलों की निन्दा शौर सज्जनों का गुणानुवाद रहता है।

(९) इसमें न बहुत छोटे और न बहुत बड़े आठ से अधिक सर्ग होते हैं।

(१०) इन सर्गों में प्रत्येक में एक ही छन्द होता है किन्तु सग का अन्तिम पद्य भिन्न छन्द में होता है। कहीं-कहीं सर्ग में अनेक छन्द भी मिलते हैं।

(११) सर्ग के अन्त में आगामी कंथा की सूचना होनी चाहिये।

(१२) इसमें सन्ध्या, सूर्य, चन्द्रमा, रात्रि, प्रदोष, ध्वान्त, वसिर, प्रात:काल, मध्याह्न, भृया, शैल, ऋतु, वन, सागर, सम्भोग, विप्रलम्भ, मुनि, स्वर्ग, नगर, अध्वर, रण, प्रयाण, उपयम, मंत्र, पुत्र और उदय अदि का यथा सम्भव साङ्गपाङ्ग वर्णन होना चाहिये।।

(१३) इसका नाम कवि के नाम से (यथा माघ) या चरित्र के नाम से (यथा कुमारसंभव) अथवा चरित्रनायक के नाम से (यथा रघुवंश) होना चाहिये। कहीं-कहीं इनके अतिरिक्त भी नाम होता है (थथा भट्टि)।

(१४) सर्ग की वर्णनीय कथा से सर्ग का नाम रखा जाता है।

महाकाव्य की इस कसौटी पर देखना है कि पृथ्वीराज-रास में निर्दिष्ट लक्षण कहाँ तक उपलब्ध होते हैं। इन पर क्रमशः विचार उचित होरा:--

(१) रासो में ‘महोवा समय’ को लेकर ६९ समय यो प्रस्ताब हैं जो कथा के बलयनसूत्र से आबद्ध हैं। 'समय' या प्रस्ताव” शब्द सर्ग का पर्याय है। ये विविध समय महाराज पृथ्वीराज के जीवन की घटनाओं पर आधारित हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इनकी शृङ्खलायें बहुत सुद्दढ़ नहीं परन्तु आकर्षण की इनमें कभी नहीं है। डा० धीरेन्द्र वर्मा ने अपने ‘पृथ्वीराज रासो' शीर्षक लेख में उचित ही लिखा है——“इस क्रमबद्ध जंजीर को तैयार करने में लम्बी-छोटी, सुडौल-बेडौल, अनेक हाथों से गढ़ी हुई पृथक पृथक कड़ियों का उपयोग किया गया हैं जो एक दूसरे के साथ बाद को उड़ दी गई हैं। ऐसा होने पर भी यह जंजीर असाधारण ही है।”[]

(२) महाराज सोमेश्वर के पुत्र तथा अजमेर और दिल्ली के शासक ‘बंस अनल बहुआन’१, वज्रग बाहु अरि दल मलन’२, शत्र-शास्त्र पारंगत३, ‘अतार अजित दानव मनुस’४, ‘सत्रु त्रिनु रद गहि छडै'५, जिनके कारण 'अरि बरन धरनि घर चैनं नहिं'६, 'दिल्लीबै चहुआन महाभर'७, ‘आधेट दुष्ट दुज्जन दलन'८, ‘ध्रुझ समान संभरि धनिय’९, कामिनि पूजत मार' १०, कलि काज किति बेली अमर' ११ करने वाले, 'सुरतन गहन सोधन करन' १२,

लज्जा रूप गुयोन नैषध सुतो । वाचा च धर्मो सुतं ।।
बाने पार्थिव भूपति समुदिता । मानेषु दुर्योधनं ।।
तेजे सूर समं ससी अमि गुन । सन विक्रम विक्रमं ।।
इन्द्रो दान सुशोभन सुरतरू । कामी रमावल्लभं ।। १३

'ना समान चहुआन कौ' १४, 'मंजेब जग्य जैचंद नृप' १५, 'भीम चालुक अहि साहिय’ १६, ‘दल चल धरै न आस' १७, 'पैज कनवज्ञ सपूरिय’ १८, 'सिंगिनि सरवर इच्छिविन सत्त हनन घारेयार' १९ पृथ्वीराज चौहान तृतीय इस काव्य के धीरोदात्त नायक हैं, जिनके सहायक हैं मनसा वाचा कर्मणा से स्वाभि-धर्म के परम अनुयायी शूर सामंत और विषम प्रतिद्वंदी हैं गुर्जरेश्वर, कान्यकुब्जेश्वर और ज़लाधिति ।

(३) युद्ध के शाश्वत व्रती महाराज पृथ्वीराज के जीवन का आद्योपान्त वर्णन करने वाले ६९ समय के इस काव्य में इक्कीस समय २० छोड़कर ( जिनमें चढ़ाई के उपरान्त बिना युद्ध के सन्धि का वर्णन करने वाले समय ११ और ३० भी सम्मिलित हैं ) शेष अङ्गतालिस समय रण-साज-सज्जा और संग्राम में अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार तथा वीरों के हाँकों से ओत-प्रोत हैं इससे सहज


पृ० रा०, (१) छं० १८६, स० ७ (२) छं० ६२, स० १ (३) छं० ७२६-४६, सं० १ (४) छं० ५५, १० ३ (५) छं० १२८, स० ६ (६) छं० १८६, स० ७ (७) छं० ७६, स० २५ (८) छं० १५८, स० २६ (६) छं० १७४, स० ३१ (१०) छं० १६६, स० ३६ (११) छं० १३४, स० ३७ (१२) छं० १५१, ०३६ (१३) छं० ८५, स० ४५ (१४) छं० १७, स० ४७ (१५) छं० २७३, स० ४८ (१६) छं० ३४, स० ५० (१७) छं० ६५१, स० ६१ (१८) छं० २, स० ६२ (१६) छं० ३६६, स० ६७; (२०) स० १, २, ३, ६, ११, १६, १७, १८, २१, २२, २३, ३०, ४२, ४६, ४७, ५७, ५६, ६०, ६२, ६३ और ६५; ही अनुमान किया जा सकता है कि इस काव्य में वीर रस की प्रधानता है। अपनी अनुभूति के कारण कवि ने इन युद्धों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन बड़ी कुशलता से किया है और यह उत्कृष्ट भावाभिव्यंजन का ही फल हैं कि ये स्थल अपने रस में बहा ले जाने की क्षमता रखते हैं। युद्ध में जीवनआहुति के विषम कष्टों और शोकाकुल परिणामों के स्थान पर मिलते हैं। वीरगति पाने पर उच्च लोक के सौख्य-समृद्धि पूरा निवास और चिर-यौवना अप्सराश्नों के साथ विलास तथा आततायी शत्रु-दर्स चूर्ण करके विजयोल्लास यौर ऐहिक सुखों की प्राप्ति जो नायक के रस में मान कर देते हैं।

अपने काव्य में 'राजनीति नवं रसं' और 'रासौ असंभ नव रस सरस’ का दावा करने वाले रासोकार ने सुचिर मैत्री वाले उत्साह क्रोध नामक भावों को ही स्थान दिया है जिनमें बहुधा जुगुप्सा और बदा-कदा भय का मिश्रण देखा जाता है। इनके उपरान्त रूप की राशि अनेक राजकुमारियों का सौन्दर्य चित्रित करने के अतिरिक्त, उनकी कामनूर्ति पृथ्वीराज से विवाह करने की साध और उसमें विध्न तथा अन्त में वांछित प्राप्ति के वर्णन ने रति-भाई की व्यंजना को सद; मानव-चिंच द्वीभूत करने की शक्ति से सम्पन्न होने पर भी उसे विशेष लुभावने वल से समन्वित कर दिया है। शेष भाव आंशिक रूप से उपस्थित होते हुए भी गौण हैं।

(४) पृथ्वीराज के किंचितु पूर्ववर्ती अचार्य हेमचन्द्र ने महाकाव्य में सन्धियों का निरूपण किया जाना ग्रावश्यक ठहराया था परन्तु ऐतिहासिक वृत्त लेने के कारण कवि ईद को रासो में यथेच्छा परिवर्तन करने और काव्याङ्गों के अनुकुल कथा को चुमार देने की स्वाधीनता न थी। रासो वर्णित पृथ्वीराज की मृत्यु का ढंग भले ही प्रमाणों के अभाव में इतिहासकारों द्वारा मनोनीत न हो और भले ही स्वदेश र हिन्दू जाति की रक्षा में अपनी आहुति देने वाले चौहान सम्राट के कीर्तिकार ने उस पर कुछ रंग चढ़ाया हो चुरन्तु शोक में अवसान होने वाली अपनी कृति को नैतिक, आध्यात्मिक और आंशिक लौकिक विजय प्रदान करके अपने कार्य-नायक की कीर्ति-गाथा ही उसने प्रकारान्तर से गान करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी की है।

पृथ्वीराज का यशोगान ही इस काव्य का उद्देश्य था, चाहे वह मित्रभवि के नाते रहा हो, चाहे जीविका के कारण स्वामि-बर्स की पूर्ति हेत रहा हो अथवा चाहें जनता द्वारा समादृत लोक-कल्याण के कारण प्रसिद्धि को प्राप्त प्रजावत्सल शासक के प्रति स्वाभाविक श्रद्धा वश रहा हो, कवि ने अपने ध्येय को पूरा किया है। दिल्लीश्वर के जीवन की क्रमबद्ध घटनाओं को भले ही किंचित् शैथिल्य से परन्तु निश्चित रूप से अबद्ध किये हुए इस सम्पूर्ण ख्याति-काव्य में मुख-संधि है ‘आदि पर्च’ का निम्न छप्पथ, जिसमें मङ्गलाचरण और विविध स्तुतियाँ करने तथा काव्यगत अपना दैन्य निवेदन करने के उपरान्त, उसने संक्षेप में अपनी रचना के लक्ष्य की सूचना इस प्रकार दे दी है―‘क्षत्रियों के दानव कुल में ढंढा नाम का श्रेष्ठ राक्षस था! उसकी ज्योति से पृथ्वीराज, अस्थियों से शूर वीर सामंत, जिह्वा से चंद और रूप से संयोगिता के जन्म पाया। जैसी कुछ कथा हुई तथा राजा ने जिस प्रकार योग से भोग प्राप्त किये उन्हीं शत्रु-समूह का नाश करने वाले वज्राङ्ग-वाहु की कीर्ति चंद ने कही है। श्रेष्ठ पृथ्वीराज चौहान जंगल-भूमि के प्रथम शासक हुए जिनके यहाँ साभंत, शर और भट्ट रहते थे तथा जिन्होंने सुलतान को बन्दी बनाया था। मैं कवि चंद जिनकी मित्र तथा सेवापरक हूँ तथा श्रेष्ठ योद्धा सामंत जिनके हितैषी हैं, उनकी कीर्ति वर्षों में बाँधकर मैं सार सहित प्रसारित करता हूँ:

दानव कुल छत्रीय। नाम ढूंढा रष्षस बर॥
तिहिं सु जोत प्रथिराज। सूर सामंत अस्ति भर॥
जीह जोति कविचंद। रूप संजौगि भगि भ्रम॥
इक्क दीह ऊपन्न। इक्क दीहै समय क्रम॥
जथ्थ कथ्थ होइ निर्मये। जोग भोग राजन लहिय॥
बज़्रगं बाहु अरि दल मलन। तासु कित्ति चंदह कहिय॥ ९२
प्रथम राज चहुवांन पिथ्थ बर। राजधान रंजे जंगल धर॥
मुत्र सु भट्ट सूर सामंत दर। जिहि बंध्यो सुरतांन प्रान भर॥ ९३
हे कविचंद मित्त सेवह पर। अरु सुहित सामंत सूर बर॥
बंधौं कित्ति प्रसार सार सह। अध्धों बरनि भति थिति थह॥ ६४, स० १

पृथ्वीराज द्वारा लोहाना आजानुबाहु के साहस पर उसे पुरस्कृत करना और भीमदेव के पैतृव्य भ्राताओं तथा गोरी सुलतान के भाई हुसेन खाँ को शरण देने के वृत्तान्त प्रतिमुख-रून्धियाँ हैं, जिनमें लोहाना को पुरस्कारस्वरूप बढ़ावा ऐसे अच्छे स्वामी के प्रति आस्था जागृत कर कालान्तर में किसी रणभूमि में अपने जीवन पर खेल कर उसकी ख्याति बढ़ाने वाला है। और आश्रय देना प्रत्यक्ष ही कीर्ति का द्योतक हैं। अनायास और अकारण अनेक आक्रमणों का पृथ्वीराज द्वारा मोर्चा लेना भी इसी सन्धि के अन्तर्गत आवेगा।

अपने प्रतिद्वन्दियों के कई बार छक्के छुड़ाने वाले, अनेक युद्धों के विजेता पृथ्वीराज का अन्तिम बुद्ध में इन्दी किये जाने पर भी उससे बदला लेकर अपने प्राण-ल्योग करना इस कीर्ति-काव्य में ‘निर्बह-सन्धि’ है।

विभिन्न कथा संघ-बद्ध इस काव्य के अचूल रूप से सन्धियों में निबद्ध नहीं पाया जाता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसकी कथा के क्रम में नायक के उत्तरोत्तर जीवन-विकास का ध्यान रखा गया है परन्तु इतना होने पर भी विशेषता किंवा अनोखापन यह हैं कि उनमें से अनेक स्वयं-स्वतंत्र, पूर्ण और पूर्वापर सम्बन्ध से रहित इस ढंग की हैं कि उनके हटा लेने से शेष कथानक में कोई व्याघात नहीं पड़ता। इन विभिन्न प्रस्तावों में दी हुई पूर्ण कथाओं के चित्रण में एक ही प्रयोजन की साधिका उन कथाओं का अध्युवत किसी एक प्रयोजन के साथ सम्बन्धित होने वाला व्यापार अथात् सन्धियों का निर्वाह अवश्य ही कुशलता पूर्वक किया गया है। उदाहरण के लिए हम ‘शशिवृत्ता समय पचीस’ लेंगे।

इस समय की कथा का प्रारम्भ करता हुआ। कवि कहता है कि एक ग्रीष्म के उपरान्त वधु-काल में पृथ्वीराज के दिल्ली-दरबार में देवगिरि का एक नट आया और उसने वहाँ की राजकुमारी शशिवृता के विषय में पूछे जाने पर कहा कि उज्जैन-नरेश कुमुज्ज' के भतीजे वीरचंद से उसकी सगाई के लिये ब्राह्मण भेजा गया है परन्तु उसको यह सम्बन्ध प्रिय नहीं है। फिर नष्ट का राजकुमारी का रूप वर्णन—

कहै सु नट राजिंद। ब्रह्म आमोदक्क दिन॥
चंद कला मुई कंज। लच्छि सहजहँ सरूप तन॥
नेंन सु मृग शुक नास। अधर बर बिंब एक्क मति॥
कंठ कपोत मृनाल भुज। नारंगि उरज सति॥
कटि लेक सिद्ध जुग जंघ रँभ। चलत हंस गति गयँद लजि॥
सा नृपति काज न मिय तरुनि। मनों मेनिका रूप सजि॥ २६,
कह गुन बरनौं राज कहिं। कुंअरी जय नाथ॥
विधना रचि पचि कर करी। मनुं मेंनिका समाथ॥ २७,

‘सुख-सन्धि’ का विलोभन है जिसे सुनकर पृथ्वीराज का आसक्त होकर उससे विवाह करने का विचार―

सुनि राजन्न लगो ओतानं। लग्गे मीन केतु कद बानं॥
कहै नट सों राजंन बेर प्रेमं। महं सरापन सा करहि सु केभं॥ २८,
‘उपक्षेप’ है। नट का उत्तर कि जो मेरे किये होगा उठा न रखूँगा―
जौ मुझ कीयौ होइ है। तौ करि हौं नृप इंद।। २६,

‘परिक्रिया’ है।

हंस रूपी गन्धर्व की शशिवृता से वीरचन्द की अयोग्यता—
तिहि सु दई मातु पितु बंधं। सो तुम जोग नहीं बर कंधं॥७३,

का उल्लेख करते हुए कहना कि उसकी आयु एक ही वर्ष की है इसी से इन्हें ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।

तेम रहै वर बरष इक्क महि। हय गय अनत भुभिक्त हैं समतहि ।।
तिहि चार करि तुमही पै आयौ। करि करुना यह इन्द्र पठायौ।।७४,

‘युक्ति’ है। तथा शशिवृता द्वारा उचित वर बतलाने की अभिलाषा प्रकट करने पर हंस का कथन कि दिल्ली के महा पराक्रमी चौहान तुम्हारे योग्य हैं। जिनके सौ सामंत हैं और जिन्होंने ग्रज़नी-पति ग़ोरी को युद्ध में बन्दी बनाकर दंड लेकर छोड़ दिया है―

दिल्ली वै चहुबान महा भर। सो तुम जग चिन्तयौ हम बर॥७६
संत सामंत सूर बलकारी। तिन सम जुद्ध सु देव बिचारी॥
जिन गहियौ सर वर गज्जन वै। हव गय मंडि छंडि पुनि हिय वै॥७७,

‘समाधान’ है।

हंस से पृथ्वीराज का शशिवृता से मिलने का संकेत-स्थल पूछना और उसका उत्तर―

कह सँभरि वर हंस सुनि। कह जहों संकेत॥
कोन थान हम मिलन है। कहन बीच संमेत॥ १९९
कह यह दुज संकेतं। हो राज्यद धीर ढिल्लेर्स॥
तेरसि उज्जले माघे। ब्याहन बरनीय थान हर सिद्धि॥२००,

तथा पृथ्वीराजर का आने की वचन देना―

तब राजन फिरि उच्चरै। हो देवस दुजराज॥
जो संकेत सु हम कहिय। सो अधी त्रिय काज॥२०१,

‘प्रतिमुख-सन्धि’ है।

देवगिरि के राजा भान को अपनी कन्या के प्राण देने के संकल्प के विचार से गुप्त रूप से पृथ्वीराज को निमंत्रण और देवालय में शशिवृता की प्राप्ति का समाचार―

यों सु सुनिय नृप भान नैं। पुत्र प्रलय व्रत लीन॥
चर पिष्षिय चहुआन पै। जद्वव मोकल दीन॥ २६५
मुक्काए मति वंतिनी। नृप कागद लै हथ्थ॥
पूजा मिसि बाला सु भर। संभु यान मिलि तथ्थ॥२६६;

तथा पृथ्वीराज के सामंतों का उत्साहित होना ( छं० २६७) और कावे का प्रोत्साहन कि गन्धर्व विवाह शूर वीर ही करते हैं―

सार प्रहारवि भेवो। देवो देवत्त जुद्धयौ वलयं॥
गंध्रव्वी प्रति ब्याहं। सा ब्याहं सूर कलयामं॥२६८,

'गर्भ-सन्धि' है, जिसमें अंकुरित बीज का विस्तार हुआ है। इसी के अन्तर्गत देवालय में शिव-पूजन हेतु गई हुई शशिवृता की पृथ्वीराज से मिलन हेतु स्तुति का भी प्रसंग है―

उतरि बाल चौडोल तैं। प्रीति प्रात छुटि लाज॥
शिवहिं पूजि अस्तुति करी। मिलन करै प्रथुराज॥ ३५७

सात सहस्त्र कपट वेश धारी सैनिकों सहित पृथ्वीराज का देवालय में घुसकर पूजन करती हुई सशंकित और लजित शशिवृता को लेकर चल देना―

दिठ्ठ दिठ्ठ लग्गी समूह। उतकंठ सु भग्गिय॥
निष लज्जानिय नयन। मयन माया रस पग्गिय॥
छल बल कल चहुआन। बाल कुँचरप्पन भंजे॥
दोष मिट्टयौ। उभय भारी मन रंजे॥

चौहान हथ्थ बाला गहिय। सो ओपम कविचंद कहि॥
मानों कि लता कंचन लहरि। भत्त बीर गजराज गहि॥ ३७४
बीर गत्ति संधिय सुमति। वृत्त अवृत न जाइ॥
घरी एक आवृत्त रषि। सुबर बाल अनुराइ॥ ३८२,

जिसके फल स्वरूप चौहान की सेना का राजा भान और कमधज्ज की संयुक्त वाहिनी से युद्ध ( छं० ३८३-७७२) 'अवमर्श-सन्धि' है जिसमें 'संफेट', 'विद्रय', 'शक्ति', 'व्यवसाय', 'द्युति', 'विरोधन’, ‘प्ररोचना' आदि मिलते हैं।

‘अनंछित्ति अंगं बरं अत्तताई। भई जीत चहुआन प्रथिराज राई।७७३’

से 'निर्वहण-सन्धि' का प्रारम्भ होता है जिसका 'ग्रथन' कमज्ज वीरचंद के प्रति निढदुर राय के इन वाक्यों से होता है कि पृथ्वीराज बाला को लेकर चले गये अब किस लिये युद्ध ठाना है―

परे सुभर दोऊन दल। निढ़्दुर देष्यौ बंध॥
कोन भुजा बल जुध करै। मुनि कमधज्ज अमुंद्ध॥ ७७४
बाला लै प्रथिराज गय। गहिय बग्ग कमधज्ज॥
रोस रीस विरसोज भय। रह बाजे अनवज॥ ७७५,

में मिलता है। 'निर्णय' और 'प्रशस्ति' सूचक निम्न छन्द हैं जिनमें यादवराज द्वारा शेष डोलियाँ पृथ्वीराज को देने तथा चौहान की प्रशंस का उल्लेख है--

षूब राजे प्रथिरज । खूब जैचंद बंध बर।। षूब सूर सामंत । यूब नृप सेन पंग बर ।।
षूब सेन ढंढोरि । पूब झोरी करि डारिय ।।
षूब बेत विधि गाम । वाम गंगा पथ झारिय ।।
आसेर आस छंडिया नृपति । विपति सपति जानीय भर ।।
सुठिहार राज प्रथिराज कौ । धरे सबह चौंडोल घर ।। ७७७

इन परत पत्तौ सुग्रह । सुवर राज प्रथिराज ।।
हब गये दल बल नथत बर । रंभ सजीव काज ।। ७८१
तपय सु नरपति दिल्ली । दीह दी पद्धर राजे ।।
जै संगै क्रत कामं । सा देवं सोइयं देहिं ।। ७८५
दीहं पास रूवं । सारूवं भूपयो सब्बं ।।
जे नष्डै ते मंगै । देवानं देवय दीहं ।। ७८६

रसों के अन्य कई प्रस्तावों में सन्धियों का उपयुक्त ढंग से निरूपण किया जा सकता है।

{ ५ } बारहवीं शती के दिल्ली और अजमेर के शासक, ऐतिहासिक वीर महाराज पृथ्वीराज चौहान तृतीय का जिस दिन जन्म हुआ....गजनी नगर भग्न होने लहा, अन्हलवाड़ा पट्टन में सेंध लग गई, धरा का भार उतर गया और युग-युग तक उनका यश अमर हो गया--

जे दिन जनम प्रिथिराजे । घरिंग बह कनवजह ॥
ज दिन जनम प्रिथिराज । के दिन गज्जन पुर भज्जह ।।
ज दिन जनम प्रिथिराज ! त दिन पट्टन वै सद्धिय ।।
ज दिन जनभ ग्रिथिराज । त दिन मन काल न षद्धिय ।।
ज दिन जनम प्रथिराज भौ । त दिन भार धर उत्तरिय ।।
बतरीय अंस अंसन अहम । ही जुगें जुग बत्तरिय

'उनका जन्म होते ही शिखरों ( पर्वतों ) के दुर्गा लड़खड़ाने लगे, भूमि में भूचाल आ गया, शत्रुओं के नगर धराशायी होने लगे और उनके बाढ़ तथा कोट टूटने लगे, सरिताशों में ज्वार आ गया, भूमिपालों के चित्त में चमक पैठ गई और में भौचक्के रह गये, खुरासान में खलबली पड़ गई

और वहाँ की रमणियों के गर्भ पात हो गये, वीर वैताल गणों के मन प्रफुल्लित हुए और देवी रणचंडी हुंकारने लग'---

भयौ जनम प्रथिराज। द्वग्ग परहरिय सिषर गुर॥
भयौ भूमि भूचाल। धममि घम धम्म रिनपुर॥
गढन कोट से लोट। नीर सरितन बहु बढिढ़्य॥
भै चक भै भूमिया। चमक चक्रित चित चढिढ़्य॥
पुरसान थान पलभल परिय। ग्रम्भ पात भै ग्रभ्भ निय॥
बेताल वीर बिकसे मनह। हुंकारत षह देव निय॥ ७१६, स०६

आबू के यज्ञ कुण्ड से प्रतिहार, चालुक्य, प्रमार और चाहुआन उत्पत्ति बताकर, अग्नि कुलीन चौहान पृथ्वीराज के तेरह पूर्वजों के नामों का उल्लेख करके, उनके पितामह विग्रहराज चतुर्थ उपनाम वीसलदेव, सारंगदेव, अर्णोराज उपनाम आना का विशेष प्रसंग चलाकर, जैसिंहदेव और आनंदमेव जी का निर्देश करके तथा उनके पिता सोमेश्वर के बाहुबल द्वारा दिल्लीश्वर अनंगपाल की कान्यकुब्जेश्वर विजयपाल के आक्रमण से रक्षा के वृत्तान्त द्वारा काव्य की कथा का श्री गणेश होता है। पृथ्वीराज से भीमदेव चालुक्य, जयचन्द्र गाहड़वाल, परमर्दिदेव उपनाम परमाल चंदेल और खुरासान, कंधार, ग़ज़नी तथा पंजाब के शासक शाह शहाबुद्दीन गोरी के कई युद्धों का इसमें उल्लेख है, जिनमें से सब प्रमाणित नहीं हो सके हैं। इतिहास के इस अंधकार-युग के रासो के विविध वर्णन ऐतिहासिक प्रमाणों के अभाव में कवि-कल्पना-प्रसूत आदि से अभिषिक्त हैं। पृथ्वीराज के दुर्द्धर्ष वीर सामंतों के शौर्य के विस्तृत वर्णन, उनके प्रतिद्वंदियों से विग्रह की मूल स्वरूप घटनायें और उनके अनेक विवाहों के विवरण सभी खटाई में पड़े हुए हैं। परन्तु पृथ्वीराज के ऐतिहासिक सम्राट होने के अतिरिक्त लोक में उनकी शूरवीरता, पराक्रम, दया और दान की प्रसिद्धि का प्रतिबिंबित्व करने के कारण उनका प्रस्तुत काव्य शताब्दियों से उत्तर भारतीय हिन्दू जनता द्वारा समाहत होता चला था रहा है। शोध की वर्तमान परिस्थिति इस काव्य की कथा को इतिहास और कल्पना के योग पर आश्रित ठहराती है।

(६) • मंगलाचरण के बाद रासोकार ने धर्म, कर्म और मोक्ष की स्तुति क्रमश: तीन छन्दों में इस प्रकार की है— श्रेष्ठ मंगल हो उस ( धर्म रूपी वृक्ष ) का मूल है, श्रुति ( वेद ) ही बीज है, तथा स्मृति (धर्म-शास्त्र) के सत्य रूपी जल से सींचकर यह धर्म रूपी वृक्ष पृथ्वी पर खड़ा किया गया है। अठारह पुराणों रूपी उसकी शाखायें आकाश, पाताल और मर्त्य तीनों लोकों में छाई हुई हैं तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्ध व रूपी उसके पत्ते हैं, राग-रंग रूपी उसके पुष्य हैं और भारत में जन्म ही उसका फल है। धर्म की इस उक्ति के आलंबन अमीरों ( मुसलमानों ) के अतिरिक्त हिन्दू मात्र हैं। कवि रूपी शुक भोजन की श्राशा में दर्शन रूपी रस पाकर इस धर्म वृक्ष के चारों ओर मँडरा रहा हैं।

प्रथम सुमंगल मूल श्रुतविय। स्मृति सत्य जल सिंचिय।
सुतरु एक घर धम्म उभ्यौ॥
त्रिपट साघ रम्मिय त्रिपुर। बरन पत्त मुख पत सुभ्यौ॥
कुसम रंग भारह सुफल। उकति अलंब अमीर॥
रस दरसन पारस रमिय। कवि कीर॥ २, स० १;

‘( कर्म रूपी वृक्ष का ) प्रमाणभूत मंगल रूपी बीज है, निगम ( अर्थात्वै दिक कर्मकांड है, वेद ( ज्ञान कांड ) धुरा है, त्रिगुणात्मक (सतरज, तम रूपी) शाखायें चारों ओर फैली हैं, वर्ण रूपी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र (कर्म के कारण) गिरने वाले पत्ते हैं। धर्म ही त्वचा (छाल) है, सत्य रूपी पुष्पों से यह चारों ओर से शोभित है, कर्म रूपी सुंदर फल उससे विकसित होता है (अर्थात् धर्म करने से यह कर्म रूपी वृक्ष सुस्वादु फल का दाता है), उसके मध्य में अविनाशी अमृत स्वर्ग सुख है, राजनीति रूपी वायु उसकी स्थिरता नहीं हिला सकती, स्वाद लेने से वह जीव को अमरत्व प्रदान करता है तथा यदि शक्ति और बुद्धि दृढ़ता पूर्वक इस (वेदानुकूल कर्म) को धारण करे तो कलिकाल के कलंक नहीं व्याप्त होते’:

प्रथम मंगल प्रमान। निगम संपजय वेद धुर॥
त्रिगुन साख चिहुँ चक्क। वरन लग्गो सु पत्त छर॥
त्वचा श्रम्म उद्धरिय। सत्त फूल्यौ चावद्दसि॥
क्रम्म सुफल उदयत्त। अम्रत सुम्रत मध्य बसि॥
दुलै न वाय त्रप नीति अति। स्वाद जीवन करिय॥
कलि जाय न लगै कलंक इहि। सत्ति मत्ति आढति धरिय॥३, स०१;

‘भोग-भूमि रूपी क्यारी को, वेद रूपी जल से सींचकर उसके मध्य में श्रेष्ठ मय रूपी बीज बोया गया जिससे ज्ञान रूपी अंकुर निकला, त्रिगुयात्मिक (सत, रज और तम रूपी) उसकी शाखायें हुई और पृथ्वी पर अनेक नामवारी उसके पत्ते हुए, सत्कर्म रूपी सुन्दर फूल उसमें आया जिसमें मुक्ति रूपी फल लगा। इस (मुक्ति रूपी) वटवृक्ष के गुणों में विलसित बुद्धिमान (गुर रूपी) शुक्र मन से इसके मुक्ति रूपी पके फल में चोंच मारता है। इस एक वृक्ष की शाखायें तीनों लोकों में फैली हुई हैं तथा जय और पराजय इसके प्रख्यात गुण हैं:

भुगति भूमि किय क्यार। वेद सिंचय जल पूरन।
बीय सुवय लय मध्य। ग्यांन अंकू रस जूरन॥
त्रिगुन साख संग्रहिय। नाम बहु पत्त रत्त छिति॥
सुक्रम सुमन फुल्लवौ। सुगति पक्की द्रव संगति॥
दुज सुमन डसिय बुध पक्क रस। वट विलास गुन पिस्तरिय॥
तरु इक साख त्रयलोक महि। अजय विजय गुन विस्तरिथ॥ ४, स० १

इस प्रकार धर्म के आधार पर कर्म करते हुए मुक्ति प्राप्ति की प्रशंसा का इस बीर गाथात्मक कृति में विशेष प्रयोजन है क्योंकि इस क्षत्रिय-लोकादर्श काव्य में स्वामि-धर्म के लिये रगा रूपी कर्म करके मुक्ति प्राप्त करने का विधान आद्योपान्त मिलता है।

अन्य को समाप्ति में उसका माहात्म्य कथन करते हुए कवि ने जहाँ अन्य अनेक वरदान दिये हैं वहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति की बात भी कह डाली है―

पावहि सु अरथ अरु ध्रम्म काम।
निरमान भोष पावहि सुं धाम॥ २३२, स० ६७

(७) अपने मंगलाचरण में चंद ने इस प्रकार स्तुति की है― ‘आदि देव उँ को प्रणाम कर, गुरुदेव को नमन करके और वाणी के चरणों की बंदना करके, मैं स्वर्ग, पाताल और पृथ्वी को धारण करने वाले श्रेष्ठ इंदिरा के पति (अर्थात् विष्णु) के चरणों का आश्रय ग्रहण करता हूँ, दुष्टों का निश्चय ही विनाश करने वाले, देवताओं के नाथ तथा सिद्धि के आश्रय ईश (शंकर) की वंदना करता हूँ (या ईश की का सेवन करता हूँ) और स्थिर, चर तथा जंगम सब जीवों के वरदानी और स्वामी ब्रह्मा को नमस्कार करता हूँ:

ॐ आदि देव प्रनम्य नभ्य गुरुयं, बानीय वंदे पयं।
सिष्टं धारन धारयं वसुमती, लच्छीस चर्नाश्रयं।
तं गुं तिष्ठति ईस दुष्ट दहनं, सुर्नाथ सिद्धिश्रयं।
चिरजंगम जीव चंद नमयं, सर्वेस वर्दामयं॥ १, स० १

इसके उपरान्त कवि ने धर्म, कर्म और मुक्ति की स्तुति की है (चं० २-४) तथा पूर्व कवियों की स्तुति करते हुए अपने काव्य को उनका उच्छिष्ट कहा है: (०५-१०) और अपनी पत्नी की शंका का समाधान करते हुए (छं० ११-४१) अपने को पूर्व कवियों का दास कहकर दुर्जनों और सज्जनों का स्वभाव वर्णन किया है (छं० ५०-५२) तथा सरस्वती की वंदना इस प्रकार की है― 'मोतियों का हार पहनने वाली, विहार से प्रसन्न, विदुषी, अहिंसक, विद्वानों की रक्षिका, श्वेत वस्त्रों को धारण करने वाली, लावण्य से सुन्दर शरीर वाली, गौरवणी, वाणी स्वरूपा, योगिनी, हाँथ में बीसा लिये, ब्रह्माणी रूपा, हंस और जिह्वा पर आसीन होने वाली तथा दीर्घ केश और पृथुल उरुओं वाली देवी विघ्नों के समूह का नाश करें':

मुक्काहार बिहार सार सुबुधा, अबुधा बुधा गोपिनी॥
सेतं चीर सरीर नीर गहिरा, गौरी गिरा जोगिनी॥
बीना पाने सुबानि जानि दधिजा, हंसा रसा आसिनी॥
लंबोजा चिहुरार भार जघना, विघ्ना धना नासिनी॥ ५३, सा० १;

तथा गजानन का स्तवन इस प्रकार किया है― 'मस्तक से उत्पन्न मदगंध और सिंदूर राग से रुचिर भ्रमरों से आच्छादित गुंजा (घुंघचिलों) की माला धारण किये, उत्तम गुणों के सार, भंझायुक्त पदों से शोभित, (समग्र देवताओं में प्रथम पूजनीय होने के कारण) अग्रज, कानों में कुंडल धारण किये, सूँड़ उछालते हुए गणेश जी पृथ्वीराज के काव्य की रचना को अन्त तक सफल करें':

छत्रंजा मद गंध राग रुचयं, अलिभूराछादिता॥
गुंजा हार अधार सार गुनजा, भंझा पया भासिता॥
अग्रेजा श्रुति कुंडलं करि कर, स्तुद्दीर उहारयं॥
सोयं पातु गनेस सेस सफलं, पृथाज काव्यं कृतं॥ ५४, स० १;

इसके उपरान्त गणपति के जन्म आदि की कथा कहकर (०५५-६७) कवि ने भगवान् शंकर की स्तुति करते हुए (छं० ६८-७५) तथा हरि और हर की उपासना का द्वन्द मिटाते हुए ( छं० ७६-७७) उसका समन्वय इस प्रकार किया है.―'लक्ष्मी और उमा दोनों के क्रमश: स्वामी हरि और हर पापों का निवारण करें। हरि जिनके वक्षस्थल पर भृगु ऋषि के चरण का चिन्ह है तथा हर जिनकी जटाओं से गंगा निसृत हुई हैं, वैजयन्ती माला धारण करने वाले हरि और शंख सदृश श्वेत (प्राणियों या नरों के) कपालों की माला से सुशोभित हर, मध्यकाल में पोषणकर्ता तथा रक्षक हरि और चरम काल में ऐश्वर्यवान तथा संहारक हर, विभूति और माया से सेवित हरि तथा चरणों में मभूत (राख या भस्म) रमाये हर, मुक्ति प्राप्ति के मूल ये दोनों श्रेष्ठ देवता पापों को दूर करें':

गंगाया अनुलत्त वसन्न मसनं[], लच्छी उमा दो बरं॥
संखं भूत कपाल माल असितं, बैजंति माला हरी॥
चर्म मध्य विभूति भूतिक युगं, विभूति माया क्रमं॥
पापं विहरति मुक्ति अपन बियं, वीयं वरं देवयं॥ ७८, स० १

इन स्तुतियों के बाद कवि ने अपनी रचना की वर्णय-वस्तु इस प्रकार निर्दिष्ट कर दी है—'क्षत्रिय कुल में ढुण्ढा नामक एक श्रेष्ठ राक्षस हुआ। उसकी ज्योति से पृथ्वीराज का जन्म हुआ, अस्थियों से शूरमा सामंत उत्पन्न हुए, जिह्वा की ज्योति से कविचन्द हुआ और रूप से संयोगिता पैदा हुई। एक शरीर से जन्म प्राप्त करके सब क्रम से एक शरीर में ही समा गये।[] यथानुसार जैसे कुछ वे उत्पन्न हुए तथा राजा को भोग और योग की प्राप्ति हुई, उसी शत्रु दल के दलन करने वाले वज्राङ्ग-वाहु की कीर्ति चंद ने कही है':

दानव कुल छत्रीय। नाम ढूंढा रष्यस बर॥
तिहिं सु जोत प्रथिराज। सूर सामंत अस्ति भर॥
जीह जोति कविचंद। रूप संजोगि भोगि भ्रम॥
इक दीह ऊपन्न॥ इक दौहै समाय क्रम॥
जथ्थ कथ्ध होइ निर्मथे। जोग भोग राजन लहिय॥
बज्रड़ बाहु अरि दल मलन। तासु कित्ति चंदह कहिय॥ ६६, स० १

(८) सजनों और दुर्जनों के अनादि अस्तित्व ने काव्य में भी उनकी स्तुति-निन्दा करना विधेय बनाया होगा यही कारण है भारतीय महाकाव्यों के आदि में इनके प्रसंग का। रामायण और महाभारत जैसे विश्व - विश्रुत काव्यों में इनके वर्णन की अनुपस्थिति किञ्चित् विचार में डालने वाली है तथा संस्कृत पंडितों द्वारा इन्हें महाकाव्य न मानकर क्रमश: आदिकाव्य और इतिहास कहकर इस प्रश्न से मुक्ति पाने का यत्न बहुत समाधान नहीं से करता क्योंकि संस्कृत के अन्य कई श्रेष्ठ काव्यों में उनके महाकाव्य न होने पर भी इनकी यथेष्ट चर्चा हुई है।

भारत की इन दो विशिष्ट रचनाओं को छोड़कर ६००ई के आस-पास होनेवाले महाकवि भारवि ने अपने 'किरातार्जुनीयम्' नामक महाकाव्य में लिखा है कि वे मूढ़ बुद्धि वाले पराभव को प्राप्त होते हैं जो मायात्रियों के साथ मायः नहीं करते, शठ जन प्रवेश करके उसी प्रकार बात करते हैं जिस प्रकार बाण खुले हुए अंगों में--

व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवे

भवन्ति मायाचिषु ये ने मायिन: ।

प्रविश्य हिनन्ति ठास्तथाविधान-

संवृताङ्गाग्निशिता इवेव: ।। १-३०

दसवीं शताब्दी के अपभ्रंश के महाकवि 'अहिरामैरु पुष्कदंत' (अभिमानमेर पुष्यन्त ) ने अपने 'महापुराण' में दुर्जनों की निन्दा करते हुए लिखा है कि गिरि कंदरा में घास खाकर रह जाना अच्छा है परन्तु दुर्जनों की टेढ़ी भृकुटियाँ देखना अच्छा नहीं---

ते सुरिणवि भणइ अहिमाणमेरु, वर खजइ रिपरि कन्दर कसेरु । गड दुज्जनभङ हा बंकियाई, दीसंतु कलुससावं कियाई ।।

और इसी शती के 'घवाल'( धनपाल ) ने अपने 'भविसयतकहा' काव्य की पतवार विद्वत् जनों को यह कहकर सौंप दी कि मैं मन्द बुद्धि बाल गुणों से हीन और व्यर्थ का व्यक्ति हूँ; हे बुध जन, तुम मेरी काय कथा को सँभाल लेना--

बुहथण संभालमि तुम्ह तेत्यु, हड मन्द बुद्धि शिरगुण णित्यु ।।

तथा दुर्जनों के लिये कह दिया कि पराये छिद्र देखना ही जिनका व्यापार है उन्हें कोई किस प्रकार गुणवान कह सकता है, वे श्रेष्ठ कवियों में त्रुटियाँ ढूंढते हैं और महान् सतियों को दोष लगाते हैं--

पछिसएहिं बाबरु जासु.गुणवंतु कहिभि किं कवि तालु ।।

१८८५ ई० के कवि बिल्हण ने अपने सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक काव्य 'विक्रमांकदेवचरितम' में लिखा है कि विद्वानों की श्री जड़ों ( मुख ) की प्रसन्नता के लिये नहीं होती क्योंकि मोती में छिद्र करने वाली शलाका टॉकी का काम नहीं दे सकती; और दुर्जनों को इसमें कोई दोष नहीं क्योंकि उनको स्वभाव ही गुण के प्रति असहिष्णु होना है जैसे चन्द्र के वरई के समान उज्ज्वल मिश्री भी कुछ लोगों के लिये ३प की पात्र होती है--

व्युत्पत्तिावनिकोविदापि न ३जनाय क्रम जडानम् ।।
न मौक्तिकच्छिद्रक ताक, प्रगल्भते कमीण टुङ्किकाया: ।। १-१६....

न दुनानामिह कपि दोषस्तेषां स्वभाबसि गणासहिष्णुः ।।

द्वेष्यै बामपि चन्द्रखण्ड विपाडुरा पुण्डुक शर्करापि ॥ १-२०

'वंदऊँ संत असज्जन चरना' बाझे मानसकार ने सुजन समाज सकल न खानी को प्रणाम करके परहित हानि लाभ जिन केर' की भी स्तुति की और फिर दोनों की विषम भिन्नता दिखाकर कह ही तो डाला कि दुष्टों के पापों तथा अवगुणों की तथा साधुओं ( सज्जनों ) के गुणों की गाथायें दोनों ही अथाह और अपार सागर हैं---

खल अध अगुन साधु गुन गाहा ।

उभय अथार उदधि शवगाहः ।।

सोलहवीं शती तक के उपर्युक्त प्रमाण स्वत: सिद्ध करते हैं कि चंद के काल में सज्जन-दुर्जन की वर्णन-परम्परा अवश्य ही माननीय रहीं होगी । 'पृथ्वीराज रासो' के प्रारम्भिक प्रस्ताव में कवि अपने पूर्ववत कवियों की स्तुति करके अपनी रचना को उनका उच्छिष्ट ( जूठन ) कहता है--'तिनै की उचिट्ठी कवी चन्द भख्खी' ( छं०१०, स०१ )। और चौहान की प्रशस्त कीर्ति के सम्मुख अपनी बुद्धि की लघुता का वर्णन करता हुआ (छं०८४२-४९, स०१ ) अपने को पूर्वं कवियों का दास बताकर कहता है कि जो कुछ उनके द्वारा कहा जा चुका है उसी की मैं अपने कहां

लगि लघुता बरनवौं । कविन दास कवि चन्द ।।

उन कहि ते जी उब्वरी । सो कहाँ करि छंद ।। ५०,

'मैं सरस काव्य की रचना कर रहा हूँ जिसे सुनकर दुष्ट जन उपहास करेंगे जैसे हाथी को मार्ग पर जाते देखकर कुते स्वभाव इंश भूँकने लगते हैं'--

सरस काव्य रचना रचौं । खुल जन सुनि न हसँत ।।

जैसे सिंधुर देखि मग | स्वान सुझाव भुसंते ।। ५१,

तथापि 'सज्जनों के गुणों ( की गुण ग्राहकता ) के कारण में तन मन से प्रफुल्लित होकर अपनी रचना कर रहा हूँ क्योंकि 'नहियूकभयाल्लोक: कॅथत्यिजतिनिर्भय':---

तौ पनि निमित्त सुजन गुन । चिये तन मन फूल ।।

जूका भय जिय जानि कैं। क्य डारियै दुकूल ।। ५२,

'रासो को तत्व श्रेष्ठ विद्वान् जितना अच्छा बता सकता हैं उतना अच्छा दुर्मति नहीं, अल्तु उसे सद्गुरु से पढ़ना चाहिये'--


१—ष्ट्रजन्माङ्गदीपिका, नृ० २६; ( ७२ ) जो पढय तत्त रासो सुगुर । कुमति मति नहिं दरसाइय ॥८८, विधि ( कर्म ) और बिनान ( विज्ञान ) का सर्वस्व छिद्रान्वेषक को नहीं श्रा सकता परन्तु जो विशुद्ध गणों वाले सज्जन वृन्द हैं उनको इसका वर्शन और रस सरसित होता है.-- कुमति मति दरसत तिहिं विधि विनान अब्बान । तिहिं रासौ जु पवित्र गुन । सरसौ अन्न रसान 1८९, स०१ (E) महाकाव्य में न बहुत छोटे और न बहुत बड़े पाठ से अधिक सर्गों का निदान आचार्य ने किया है। श्रादिकाव्य 'रामायण' में ७ कांड हैं और 'महाभारत' इतिहास में १८ पर्व हैं, कमारसम्भव में १७ सर्ग हैं. रघुवंश में २१ सर्ग हैं, शिशुपाल-बध में २० सर्ग हैं, नैषध में २२ सर्ग हैं, सेतुबंध में १५ अाश्वास हैं, ( स्वयम्भू के ) पउमचरिउ में ५ कांड हैं परन्तु पृथ्वीराज- रासो में ६६ समय या प्रस्ताव हैं । जहाँ तक छोटे और बड़े प्रस्तावों का प्रश्न है, छोटे प्रस्तावों में रासो के चौथे समय में ३१ छन्द हैं, १० वे में ३६, ११ वें में ३३, १५ वें में ३६, १६ वें में १८, २२ वें में २२, २३ वें में ३५, ३५ 4 में ४६, ४० वें में २४, ४१ वे में ३५, ४६ ३ में ४३, ५३ वें में ३१ और ६५३ में १२ हैं तथा बड़े प्रस्तावों में पहले समय में ७३ छन्द हैं, दूसरे में ५८६, २४ ३ में ४६४, २५ ३ में ७८६, ६१ वें में २५५३, ६६ वें में १७१४, ६७ वें में ५६८८ और महोबा समय में ८२८ हैं; इनके अतिरिक्त शेष प्रस्तावों में ५५ से लेकर ५.३ छन्द तक पाये जाते हैं। नीचे दी हुई तालिका से यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि महाकाव्य का यह नियम ससो में अत्यन्त शिथिल है-. mawwanima- समय समय या प्रस्ताव छन्द संख्या छन्द प्रकार या छन्द संख्या छन्द प्रकार छन्द प्रस्ताव २१० ५८६ 10 1 Gmku १०८ ३६७ १५६ १८६ ________________

(04) समय समय या प्रस्ताव छन्द संख्या छन्द प्रकार या छन्द संख्या छन्द प्रकार प्रस्ताव १७ ८० ६ '** २०६ १२ १८ १०४ ११ ४५ २१६ १६ १६ २५१ ४६ ११३ १४ २० ७१ ४७ १३७ ११ २१ २१४ १५. ४८ २७५ २२ २२ २ देह ५ २१ ३५. २ ५० ६६ १० २४ ४९४ २३ ५१ १४५ ૨ २५. ७८८६ २२ २०३ १४ २६ १० ८ ५३ ३१ २७ १५० ११ ५४ ५७ ५. २८ १३८ ११ ५५ १६५ १३ २ε ५७ ५. ५६ १०६ १२ ३० ५७ १० ५७ ३२२ १८ ३१ १७८ १० २६७ १८ ३२ ११५ १० ५६ ६६ ५. ८२ ६० उप ७२ १० ६१ २२५१ ३७ દ ६ ६२ १८८ २१ ३६ २५३ १८ ६३ २०४ ११ ३७ १३४ १३ ३४ ४५३ १५. ३८ ५५ ६५ १२ २ ३६ १५२ १३ ६६ १७१४ २८ ४० २४ ५६८ १८ ४१ ३५. ६ ६८ २४४ १० ४२ ७ महोबा ८२८ १२ १३२ १० समय (१०) जहाँ तक सर्गों में छन्द की एकता का प्रश्न है रासो की स्थिति महाकाव्य की कसौटी पर बहुत आशाजनक न कही जा सकती थी यदि साहित्यदर्पणकार ने सर्ग में एक छन्द के नियम के अतिरिक्त यह भी न कह दिया होता कि कहीं-कहीं सर्ग में अनेक छन्द भी मिलते हैं। रासो में यह अनेक छन्दों वाला नियम ही लागू होता है। अनुमान है कि कालिदास, माघ, श्रीहर्ष और प्रवरसेन के विश्रुत महाकाव्यों के सर्गों में प्रत्येक में एक छन्द तथा सर्ग की समाप्ति के अंतिम पद्य की दूसरे छन्द में योजना द्वारा रस और की अविकल साधना होते देखकर आचार्य ने यह नियम बनाया होगा परन्तु साथ ही उन्होंने छन्दों को यति, गति और गेयता के वरदानी कुशल कवियों के लिये छूट भी दे रखी होगी। भायानुकूल छन्दों की योजना करने में सक्षम रासोकार को तभी तो छन्दों का सम्राट कहना पड़ता है।

निर्दिष्ट तालिका के अनुसार रासो के समय ६५ में २ प्रकार के १२ छन्द हैं, समय २२ में २ प्रकार के २२ छन्द हैं, समय २३ में २ प्रकार के ३५, छन्द हैं, समय १६ में ४ प्रकार के १८ छन्द हैं, समय ४० में ४ प्रकार के २४ छन्द हैं और समय ५३ में ४ प्रकार के ३१ छन्द हैं; शेष समय ५ प्रकार से लेकर ३७ प्रकार के छन्दों वाले हैं जिनमें छन्दों की संख्या ३३ से लेकर २२५३ तक हैं। परन्तु विविध आकार-प्रकार वाले रासो के प्रस्तावों की विषम छन्द योजना और उनका स्वच्छन्द दीर्घ विस्तार सरसता का साधक है बाधक नहीं। केशव की 'रामचन्द्रिका और सूदन के 'सुजान-चरित्र' सदृश रासो में भी छन्दों का मेला है परन्तु उनकी भाँति इसके छन्द कथा प्रवाह में अवरोध नहीं डालते वरन् अवसर के अनुकूल योज, माधुर्य और प्रसाद गुणों की सफल सृष्टि करते हैं। लाल के 'छत्र-प्रकाश' की भाँति चंद ने अपनी काव्य भाषा के प्रतिकूल छन्दों का चुनाव भी नहीं किया है। 'महाभारत' के विविध पर्वों में विविध छन्दों की सफल योजना देखकर यदि रासोकार प्रभावित हुआ हो तो आश्चर्य नहीं।

(११) पहले समय में वीसलदेव के ढुंढा दानव वाले विस्तृत प्रसंग और सोमेश्वर के पुत्र तथा दिल्लीश्वर अनंगपाल के दौहित्र पृथ्वीराज का अपने नाना के यहाँ दिल्ली में जन्म और अजमेर लाये जाने तथा शिक्षा-दीक्षा का वर्णन करके अंत में हरि के रूप-रस की जिज्ञासा करने चाली अपनी पत्नी से कहता है कि मैं वांछित सरस वार्ता का वर्णन करूंगा तुम ध्यान से सुनना―

कह्यौ भांनि सौं कृंत इम। जो पू तत मोहि॥
कान घरौ रसना सरस। ब्रन्नि दिपाऊं तोहि॥७८३

इसके उपरान्त दूसरे समय में उपयुक्त सूचना के अनुसार कवि ने दशावतार की कथा कही है और उसके में यह कहकर कि राम और कृष्ण की कीर्ति [अनन्त है, उसका कथन करने में अधिक समय लगेगा, आयु थोड़ी है और चौहान का भार सिर पर है-

राम किसन कित्ती सरस। कहत लगै बहु चार॥
छुच्छ आव कवि चंद की। सिर चहुयाना भार॥५८५

उसने तीसरे समय में 'दिल्ली किल्ली कथा' से चौहान का वृत्तान्त फिर आरम्भ किया है और अन्त में स्वप्न का सुफल तथा दिल्ली कथा कहकर आगे पृथ्वीराज के गुण और चाव वर्णन की सूचना देकर-

सुपन सुफल दिल्ली कथा। कही चंद बरदाय॥
अब अग्गे करि उच्चरों। पिथ्थ अँकुर गुन चाय॥५८

चौथे समय में लोहाना आजानुबाहु के साहस और पौरुष की कथा 'इक्क समय प्रिंथिराज राज ठढ्ढा सामंतह' से प्रारम्भ कर दी है तथा अंत में आगामी कथा की सूचना न देकर पाँचवाँ समय भोलाराय भीमदेव और पृथ्वीराज की शत्रुता के कारण की जिज्ञासा करने वाली शुक्री को शुक द्वारा उत्तर रूप में ग्रारम्भ किया है―

सुकी कहै सुक संभरौ। कहाँ कथा प्रति प्रान॥
पृथु भोरा भीमंग पहु। किम हुआ और बिना॥१,

इसके अंत में संभरेश चौहान को अजमेर की भूमि में रहकर कृष्ण सदृश्य अहर्निश लीला करते हुए बतलाकर छठे समय में इस वार्ता को युक्ति से जोड़ते हुए पृथ्वीराज की चौदह वर्ष की कुमारावस्था के एक आखेट में वीरों के वशीकरण की कथा कही गई है

कुँअरप्पन प्रथिराज। वर्ष विय सपत ससर तन॥

सातवें समय में ११२९ बदी फाल्गुन चतुर्दशी सोमवार को सोमेश्वर द्वारा किये गये शिवरात्रि व्रत का उल्लेख करते हुए, पृथ्वीराज पर मोहित होकर मंडोवर के नाहर राय के अपनी कन्या उन्हें देने की बात कहकर पलटने के फलस्वरूप युद्ध तथा चौहान की विजय का वर्णन कवि कर डालता है। आठवें समय में मंडोवर विजयी सोमेश्वर द्वारा युद्ध की लूट का विभाजन करके व मुगल का वृत्तान्त आ जाता है।

अति उत्कंठा पैदा करने वाली संभरेश और सोरी सुलतान के आदि बैर की कथा के मिस नवाँ समय प्रारम्भ होता है―

संभरि वै चाहुआन के। अरु गज्जन वै साह॥
कहौं आदि किम बैर हुआ। अति उतकंठ कथा॥१,

और उसमें चित्ररेखा वेश्या तथा गोरी के भाई हुसेन ख़ाँ के पृथ्वीराज के शरणार्थी होने का प्रसंग चलाकर तथा युद्ध में सुलतान की पराजय और वन्दीगृह से उसकी मुक्ति का वर्णन करके बड़ी आसानी से दसवाँ समय गोरी की द्रोहाग्नि से बढ़ चलता है—


वरष एक बीते कलह। रीस रषि सुरतान॥
उर अंतर अग्गी जलै। चित सल्लै चहुआन॥१

ग्यारहवें समय में कवि पाठकों की उत्सुकता तीव्र करता हुआ, उनकी सुपरिचिता सुन्दरी चित्ररेखा की उत्पत्ति तथा अश्वपति गोरी द्वारा उसकी प्राप्ति का ललित प्रसंग चलाता है―

पुच्छि चंद बरदाइ नैं॥ चित्ररेष उतपत्ति॥
षा हुसेन ग्रावास कहि। जिस लीनी असपत्ति॥१

परन्तु अन्त में आगे की कथा की कोई सूचना नहीं देता। पूर्व सूचित न होने के कारण बारहवें समय में नाटकीय ढंग से भोलाराय भीमदेव द्वारा शिवपुरी जलाने का वर्णन प्रारम्भ होता है जो अनायास कौतूहल बढ़ा देता है तथा यह प्रसंग पृथ्वीराज द्वारा भोलाराय की पराजय में समाप्त हो जाता है तथा तेरहवें समय के साथ वड़ी युक्ति यह कहकर सम्बन्धित कर दिया जाता है कि इधर जब भीमदेव से युद्ध छिड़ा था, गोरी के आक्रमण का समाचार मिला जिससे उधर चढ़ाई की गई

सयन सिंह लग्गा सुअरि। सुनि करि बर प्रथिराज॥
सारु है संम्हौ चढ्यौं। तहं गोरी प्रति बाज॥४

ये दोनों समय भारद्वाज नानी दो मुख और एक उदर वाले पक्षी का उदाहरण देकर निम्न 'गाथा' द्वारा मिलाये जाते हैं―

भारद्वाज सु पंषी। उभयं सुष उद्दर एक॥
त्यों इह कथ्य प्रमांनं। जानिज्यौ कोविंद लोयं॥५

चौदहवाँ समय शुक्र-शुक्र के प्रश्नोत्तरी से प्रारम्भ तो होता है परन्तु उसमें पिछले समय से जोड़ने वाला एक उपयुक्त सूत्र भी सुलभ है। 'पृथ्वीराज ने शाह को बन्दी बनाकर और उससे कर लेकर सत्कार पूर्वक मुक्त कर दिया है, यह जानकर आपति सलख लमार ने अपनी पुत्री इंच्छिनी से

उनके साथ विवाह करना चाहा;

मुकि साह पहिराइ करि। दंड दियौ सलपनि॥
लगन पठाइय विग्र कर। बर व्याहन पिथ्थांन॥४,

और इसके उपरान्त विवाह का सांगोपांग वर्णन उचित ही है।

पन्द्रहवें समय को पूर्व कथा से जोड़ने वाला प्रसंग है इंच्छिनी का परिणय करके जाते हुए पृथ्वीराज पर मेवात के मुगल राजा का पूर्व बैर के कारण आक्रमण करने का निश्चय―

प्रथीराज राजत सुवर। परनि लच्छि उनमांन॥
दिसि मुग्गल संभर धनी। वैर पटक्यौ प्रान॥१

सोलहवें समय में शुकी और शुक्र नहीं आते। पिछले विवाह के दम्पति लख का वर्णन करके पूर्व कथा से इस समय का सम्बन्ध जुड़ता है और इसी के साथ कवि पृथ्वीराज से पुंडीरी दाहिमी के विवाह की चर्चा छेड़ देता है।

सत्रहवें समय का पूर्व वार्ता से सम्बन्ध स्थापित करने का कोई उद्योग न करके पृथ्वीराज की कुमारावस्था में मृगया का एक प्रसंग चलाया गया है और यही स्थिति अठारहवें समय की है जिसमें अनंगपाल के दूत द्वारा कैमास को पत्र दिलाकर दिल्ली-दान की कथा कही गई है। उन्नीसवाँ समय पृथ्वीराज के दिल्ली आकर जाना के राज्य के अधिकारी होने की पूर्व बात छप्पय में दोहराकर पिछले समय से सम्बन्ध जोड़कर, गोरी के दरवारी माधौ भाट के आगमन की कथा कह चलता है।

'पूरब दिसि गढ गढनपति' वाले समुद्र शिखर गढ़ की राजकुमारी पद्मावती की कथा बताने वाला समय बीस, 'चित्रकोट रावर नरिंद' का विवाह प्रथा से वर्णन करने वाला समय इक्कीसे, एक दिन पृथ्वीराज द्वारा होली और दीपावली का माहात्म्य पूछे और चंद द्वारा बताये जाने वाले समय बाइस और तेइस, 'षड्ड आवेटक रमै' बताकर उक्क बन की भूमि से पृथ्वीराज द्वारा धन प्राप्त करने का उल्लेख करने वाला समय चौबिस और 'आदि कथा शशिवृत्त' की प्रारम्भ करने वाला समय पच्चीस, सब परस्पर स्वतंत्र हैं तथा एक दूसरे से कोई लगाव नहीं रखते।

छब्बीसवाँ समय, पिछले देवगिरि की कुमारी 'शशिवृता समय' की स्मृति हरी रहने के कारण 'न चल्लै कमज्ज ग्रह, ग्रह घेरयौ फिरि मान' प्रारम्भ करते ही उससे सम्बद्ध हो जाता है और एक प्रकार से उसका उपसंहार सदृश। सत्ताइसवाँ समय 'देवगिरि जोते सुभर झायौ चामंडराय' कहकर पिछले समय से जोड़ दिया गया है। (अनंगपाल) तोमर, चौहान को दिल्ली देकर बद्रीनाथ चले गये थे तो उन्होंने फिर दिल्ली लौटकर क्यों विग्रह छेड़ा?

दिय दिल्ली चहुचान कौं। तूंअर बद्री जाइ॥
कहौ दंद क्यों पुकरिय। फिरि दिल्ली पुर आइ॥१,

इस प्रश्न से सर्व स्वतंत्र वार्ता वाला हाईसवाँ समय प्रारम्भ हो जाता है।

'दिल्लियपति प्रथिराज, अवनि आवेटक पिल्लय' से प्रारम्भ करके धघर नदी के तट पर युद्ध का वृत्तान्त बताने वाला उन्तीसवाँ समय, चहुआन वीर क्रन्नाट देस' पर चढ़ाई बताने वाला तीसवाँ समय, 'महत भयौ नृप प्रात, आइ सामंत सूर भर' वाला दरबार में उज्जैन, देवास और धार पर चढ़ाई का मंतव्य कराने वाला इकतीसवाँ समय, कितक दिवस वित्ते' मालवा में मृगया हेतु जाने वाले पृथ्वीराज का वर्णन करने वाला बत्तीसवाँ समय परस्पर पूर्वापर सम्बन्ध से रहित हैं।

बत्तीसवें समय के अन्त में सुन्दरी इन्द्रावती से विवाह को सूचना है—

पंडौ सुनि पठ्यौ तु नृप। वंडिज निसानन धाइ॥
बर इंद्रावति सुंदरी। वित्र बर करि परनाइ॥११५

और इसी कथा को ढंग विशेष से प्रारम्भ करके तैंतीसवाँ समय जोड़ा गया है। चौंतीसवें समय में यह कहकर कि इन्द्रावती से विवाह के ढाई वर्ष उपरान्त पृथ्वीराज वन में मृगया हेतु गये, कवि ने उसको पूर्व प्रसंग से सम्बन्धित कर दिया है।

पैंतीसवाँ समय एक सर्वथा नवीन वार्ता से प्रारम्भ होता है। कितक दिवस निस मात, आइ जालंधर रानी' ने काँगड़ा दुर्ग को लेने की अभिलाषा प्रकट की। इस अभियान में चौहान केवल विजयी ही नहीं हुए वरन् भोटी राजा मान की पुनी से विवाह करके लौटे। छत्तीसवाँ समय रणथम्भौर की हंसावती का विवाह बिलकुल नये रूप में आरम्भ करके उसे समाप्त करता है। पहाबराव तोमर ने असुर-राज (गोरी) को किस प्रकार पकड़ा था,

शुकी के इस प्रश्न से सैंतीसवाँ समय प्रारम्भ होता है―

दुज सम दुजी सु उच्चरिय। सति निस उज्जल देस॥
किम तूंअर पाहर पहु। गहिय सु असुर नरेस॥१

और गोरी का एक युद्ध वर्णन कर जाता है।

चन्द्र ग्रहण की घटना का वर्णन करने वाला समय अहतिस और सोमेश्वर-वध का वृत्तान्त बताने वाला समय उन्तालिस दोनों निर्लिप्त रूप से हो पृथक प्रसंग हैं। चालीसवाँ समय 'मुनि कगद प्रथिराज जब, बंध्यो भीम सोमेस' कहकर पूर्व समय से श्रृंखलित कर दिया गया है। परन्तु जयचन्द्र की प्रेरणा से गोरी का दिल्ली पर आक्रमण वाला समय इकतालिस और चंद का द्वारिका गमन समय बयालिस पुन: दो हैं। बयालिस समय के अन्त में अन्हलवाड़ापन में चंद को पृथ्वीराज का पत्र मिला किशोरी आ रहा है और वह कूच पर कूच करता हुआ दिल्ली जा पहुँचा―

प्रथु कागद चंदह पढ़िय। आयाै परि राजनेस॥
कूच कूच मग चंद बरि। पहुंच्यौ घर दानेस॥८५,

इस कथन से ग़ोरी-युद्ध वाला समय पूर्व कथा-सूत्र से सम्बन्धित से हो गया है।

पिता सोमेश्वर के वध के कारण पृथ्वीराज दिन-रात भीमदेव से बदला लेने की ज्याला से धधकते रहते थे―

उर अड्डी भीमंग नृप। नित्त पटक्कै थाइ॥
अग्नि रूप प्रगटै उरह। सिंचै सत्रु बुझाइ॥ १,

इस प्रकार प्रारम्भ करने के कारण तथा सौम-वध और पृथ्वीराज की प्रतिज्ञा से परिचित होने के कारण यह घटना स्वतंत्र होते हुए भी प्रासंगिक नहीं हो पाती।

देवलोक की वार्ता प्रारम्भ करने वाला समय पैंतालिस तथा संयोगिता के जन्म, शिक्षा और पृथ्वीराज के प्रति अनुराग वर्णान करने वाले समय और सैंतालिस परस्पर सम्बन्धित होते हुए भी पूर्व और पर समय के सम्बन्ध से विछिन्न हैं।

समय अड़तालिस जयचन्द्र का राजसूय यज्ञ और पृथ्वीराज द्वारा उसका विध्वंस वर्णन करता है जिसके अंत में बालुकाराय की पत्नी का विलाप करते हुए जयचन्द्र के पास जाना―

रन हारी पुकार पुनि। गई पंग पंघाहि॥
जग्य विध्वंसिय नूप दुलह। पति जुग्गिनिपुर प्राहि॥२७५,

इस कथा को आगामी समय उन्चास की वार्ता से आसानी से जोड़ देता है और जयचन्द्र की पृथ्वीराज पर चढ़ाई का कारण स्पष्ट हो जाता है। पचासवें समय में पंग और चौहान का युद्ध वर्णन होने के कारण वह पूर्व समय से संयुक्त दिखाई पड़ता है। दिल्ली राज्य में अवचन्द्र की सेना द्वारा लूट-खसोट से प्रारम्भ होने के कारण―

ढुंढी फौज जयचंद फिरि। बर लभ्यौ चहुआन॥
चँपि न उप्पर जाहि बर। रहै ठठुक्कि समान॥१,

समय इक्यावन के हाँसीपुर युद्ध में सामंतों की विजय और मुसलमान सेना की पराजय का वृत्तान्त समय बावन में सुनकर गोरी का आक्रमण तथा परास्त होने के विवरण एक सूत्र में बँध जाते हैं।

तिरपनवाँ समय महुवा दुर्ग में ग़ोरी से युद्ध के कारण की झुकी द्वारा जिज्ञासा—

सुक सुकी सुक संभरिय। बालुक कुरंभ युद्ध॥
कोट महुआ साह दल। कहौ आनि किम रुद्ध॥१,

के फलस्वरूप शुक द्वारा उत्तर प्रारम्भ हो जाता है और इस मोर्चे परास्त गोरी का भेद या जाने के कारण पज्जून राय से बैर लेने के लिये नागौर जा धमकने वाला समय चउवन उससे पृथक नहीं प्रतीत होता। प्रासंगिक बार्ता होने के कारण उनकी कथा एक समय के अन्तर्गत रखी जा सकती थी परन्तु उस स्थिति में संभवतः पजून की वीरता की छाप गहरी न पड़ती।

समय पन्नपन में 'राह रूप चहुचान, मान लग्गौ सु भूमि पल से पृथ्वीराज की प्रशंसा करके, उनका सामंतों पर दिल्ली का भार छोड़कर को जाने पर जयचन्द्र से युद्ध का विस्तृत वर्णन है। 'चित्रंगी उप्पर तमकि, चढ़ि पंगुरौ नरेस के साथ समय छप्पन में जयचन्द्र और रावल समरसिंह का युद्ध दिया गया है तथा सत्तावनवें समय में 'दिल्ली वै चहुचान, तपै अति तेज बग्गवर' से प्रारम्भ करके, प्रसंग लाकर कैमास वध की कथा है। सावन में सामंतों के सिरताज पृथ्वीराज कैमास की मृत्यु से दुखी दिखाये गये हैं―

जह सच मुख्य गवष्य यह। नह सत्र अंदर राज॥
उर अं कैमास दुध। सामंता सिरताज॥१,

इस वर्णन द्वारा नवीन वार्ता को पूर्व कथा से सम्बन्धित कर दुर्गा केदार और चंद का वाद-विवाद, समय में कह डाली गई है। गोरी का आक्रमण तथा पराजय की कथा इस समय में डाली गई है।

समय उनसठ में तक अनेक युद्धों के विजेता पृथ्वीराज के ऐश्वर्य तथा दिल्ली नगर और दरबार का समयानुकूल वर्णन बड़े कौशल से किया गया है। यद्यपि पूर्व 'समय' की वार्ता से इसका कोई सम्बन्ध नहीं परन्तु उपयुक्त अवसर पर लाये जाने के कारण यह खटकता नहीं है। दरबार का वर्णन 'यो तपै पिथ्थ दिल्ली सजोर' के साथ समाप्त होता है जिसमें साठवें समय का प्रारम्भ 'बैठो राजन सुभा विराजं, सामँत सूर समूहति साजं' पूरी तरह खप जाता है तथा संयोगिता द्वारा उनकी मूर्ति को तीन बार वरमाला पहिनाने की सूचना से पृथ्वीराज का प्रेम और उत्साह जागत कर और 'चलन नरिंद कविंद पिथ, पुर कनवज मत मंडि' से उनका कान्यकुब्ज गमन का निश्चय दिखाकर आगामी पूर्व समय इसकी पृष्ठभूमि भलीभाँति प्रस्तुत कर दी गई है। शुक द्वारा संयोगिता के रूप-गुण वर्णन के प्रभाव से पृथ्वीराज को व्यथित दिखाकर तथा ग्रीष्म में दलपंग का दरबार दिखाने के अनुरोध से―

सुक बरनन संजोग गुन। डर लग्गे छुटि वान॥
षिन षिन सल्लै बार पर। न लहै वेद बिनान॥१
भय श्रोतान नरिंद मन। पुच्छे फिरि कविरज्ज॥
दिष्षावै दल पंगुरौ। घर ग्रीषम कनवज्ज॥२

रासोकार समय इकसठ की कन्नौज गमन, संयोगिता हरण और युद्ध में पृथ्वीराज के कुशलता पूर्वक दिल्ली पहुँचने की कहानी कह जाता है।

समय वासठ 'विलसन राज करै नव नित्तिय' की प्रारम्भिक सूचना चौहान नरेश के सुखोपभोग का परिचय देकर, पूर्व कथा-सूत्र से ग्रथित हो, इंच्छिनी के सपत्नीक विरोध तथा पृथ्वीराज द्वारा उसके मान-मोचनं में समाप्त हो जाती है।

समय तिरसठ कन्नौज-युद्ध में मारे गये सामंतों पर पृथ्वीराज के दुःख प्रकाश से प्रारम्भ होता है―

जिन दिन नृप रहते न छिन। ते भर कटि कनबज्ज॥
उर उप्पर रष्षत रहै। चढैन चित हित रज्ज॥१

और भविष्य में गोरी द्वारा उनके किये जाने की भूमिका, श्राप फलित होने के भारतीय विश्वास के कारण, दिल्लीश्वर को ऋषि-शाम दिलाकर पुष्ट की गई है। 'ते भट कटि कनवज्ज' के उल्लेख द्वारा समय इकसठ के प्रसंग से प्रस्तुत समय जोड़ने की चेष्टा की गई है। इस समय के में श्राप पाने के उपरान्त पृथ्वीराज का संयोगिता के महल में जाकर विश्वासी द्वारपालों को नियुक्त करके रस रंग में डूबने का समाचार―

गैर महल राजन भयौ। सहित संजोदय धाम॥
पोरि न रष्षो पोरिया। जे इतबारी धाम॥२०४,

आगामी छाँछठवें समय में रति-विस्मृत होकर, राज-कार्य से उनकी उपेक्षा का शिलान्यास कर चलता है। चौसठवाँ समय पृथ्वीराज का संयोगिता के साथ नित्य नवीन रूप से विलास करने की चर्चा से प्रारम्भ होता है―

सुष विलास संजोगि सम। विलसत नव नव नित्त॥
इक दिन मन में उप्पनी। ऐ ऐ वित्त वित्त॥१;

इस युक्ति से पूर्व कथा से इसे जोड़कर इसमें सामंतों के बलाबल की परीक्षा, धीर पुंडीर की वीरता और गोरी से युद्ध आदि के वृत्तान्त लाये गये हैं।

पैंसठवाँ समय अपने आदि तथा अंत की कथाओं से सम्बन्धित है और पृथ्वीराज की रानियों के नाम मात्र गिनाता है तथा समय छाँछट रावल समरसिंह को चित्तौर में स्वप्न में श्वेत वस्त्र धारिणी मन मलीन दिल्ली की राज्य-श्री द्वारा 'पहु अच्छ वधू वीरहतनी, को तन गोरी संग्रहै कथन से इस कथा के शोक में पर्यवसान का सूचक है। इस समय के अन्त में कविचंद के मोह का निवारण ―

तब रंज्यौ कविचंद चित। उर लड़ौ अविनास॥
जान्यौ कारन अप जिय। उर आनंदयौ तास॥१७१४,

करके अगले समय सरसठ के प्रथम छन्द में उसी प्रसंग को―

कहै चंद बलिभद्र सम। ग्रहो वीर जट जात॥
इह विभ्रम सुभ्रम सुमन। बज्रपाट विघ्घाट,॥१,

बढ़ाने के कारण अनायास संयुक्त हो गया है और ग़ज़नी दरबार में गोरी का वध तथा चंद और पृथ्वीराज के आत्मघात पर 'पुहपंजलि असमान, सीस छोड़ी सु देवतनि' समाप्त होता है।

अड़सठवाँ समय 'ग्रहिय राज सुरतान, गयौ गज्जन गज्जनबै' द्वारा छाँछठवें समय के युद्ध के अन्त की ओर ध्यान आकर्षित करके, पृथ्वीराज के पुत्र रैनसी को गद्दी पर बिठाकर 'सुन्यौ राज बरदाइ, सुरतान सट कै' द्वारा सरसठवें समय की कथा से सम्बन्ध जोड़ता हुआ, मुस्लिम युद्ध में रैनसी के साका करके वीरगति प्राप्त करने और जयचन्द्र को मृत्यु का वर्णन करके ग्रंथ-माहात्म्य के साथ समाप्त हो जाता है।

अन्त में जुड़ा होने के कारण उनहत्तरवाँ समझा जा सकने वाला 'महोबा समय' चौहान और चंदेल कुल में बैर और युद्ध के कारण की जिज्ञासा स्वरूप प्रारम्भ होता है ―

कहे चंद गुन छंद पढि। क्रोव उदंगल सोइ॥
चाहुचान चंदेल कुल। कंदल उपजन कोइ॥१,

परन्तु इस युद्ध की स्थिति 'पदमावती समय बीस' के उपरान्त है क्योंकि इस समय के दूसरे बन्द में ही वर्णन है कि पृथ्वीराज समुद्र शिखर गढ़ की राजकुमारी से परिणय करके ग़ोरी शाह को बन्दी बनाये दिल्ली चल दिये, उनके कुछ ग्राहत सैनिक लौटते समय महोबा होकर जा निकले―

समुद्र सिघर गढ परनि नृप। पकरि साहि लिय संग॥
चलि बहीर आई महुब। चढिव रंग बहु रंग॥२

इस प्रकार देखते हैं कि महाराज पृथ्वीराज के जीवन के विविध प्रसंग आदि से लेकर अन्त तक क्रमानुसार रखे गये हैं जिससे कथा-सूत्रों को बाँधने वाली सबसे बड़ी विशेषता इस काव्य में रक्षित हो गई है। इन घटनाओं के जोड़ों में कहीं-कहीं शिथिलता प्रत्यक्ष है परन्तु पृथ्वीराज से अनवरत रूप से सम्बन्धित होने के कारण उसका बहुत कुछ परिहार हो जाता है। आदि से अवसान तक इस विशाल काव्य में उमड़ती हुई घटनाओं के प्रवाह में उत्तोत्तर जिज्ञासु पाठक को बहा ले जाने की पूरी क्षमता है। दूसरे 'दशावतार समय में भले ही उक्त कथाओं से परिचित होने के कारण उनकी संक्षिप्त पुनरावृत्ति में मन अधिन रसे अन्यथा कहीं भी अटकने-भटकने के स्वरोध नहीं डालते। कथा कहने की प्रणाली के कौशल को ही यह श्रेय है कि रासोकार विविधता में एकता का संयुजन कर रमणीयता की रक्षा कर सका है।

(१२) साहित्यदर्पणकार ने इस शीर्षक के अन्तर्गत महाकाव्य में वर्णनीय जिन विषयों का उल्लेख किया है वे काव्य में वस्तु-वर्णन के अंक हैं यद्यपि पिछले 'काव्य-सौष्ठव' की मीमांसा में वस्तु-वर्णन की चर्चा की जा चुकी है फिर भी अनेक विषयों के नवीन होने और महाकाव्य में उनके आवश्यक होने के कारण परीक्षा कर लेना उचित होगा। हम क्रमशः उन पर विचार करेंगे:―

सन्ध्या―

रासो में सन्ध्या का वर्शन बहुधा युद्ध-काल के अन्तर्गत आता है, जिसका आगमन युद्ध बंद करने या राज में भी किसी विषम युद्ध की भूमिका हेतु कवि करता है:

(अ) 'संसार में सन्ध्या आई.... योगिनियों ने अपने पात्र भरे, शिव ने नर-मुण्डों की माला धारण की, चालुक्य के भृत्य मुड़े नहीं, कन्ह ने हृदय में रौद्र रस धारण किया, दरबार में गजराजों के मस्तक तैर चलें':

परिय संझ जग मंझ। टरिय कंकन रँकन धन॥
भरिव पत्र जुगिनीय। करिय सिव सोस माल घन॥

मुरिय न श्रित चालु । धरिय रस रोस कन्ह हिय

(ब) 'इच्छा या अनिच्छा से अपनी सीमा को प्रमाणित करती हुई जो सैनिकों और पथिकों को समान रूप से मिली । निशा का आगमन जानकर नगाड़े बज उठे। धूल के धुंध ऊपर उठकर लौटे जिससे कुएँ भर गये' :

छुटी छंद निच्छंद सीमा प्रसानं ।
मिली ढालनी माल राही समानं ।।
मान नीसांन नीसान धूत्रं ।
धुभ्रं धूरिनं मूरिनं पूर कुशं ॥ १०७, स० २७;

( स ) 'सन्ध्या काल आया, आकाश में चन्द्रोदय हुआ और दो प्रहर रात्रि बीती :

सांझ समय ससि उग्ग नभ । गइ जामिनि जुग जाम ॥;

(द) बजी संझ घरियार । सार बज्यौ तन झंझर ।।
अनु कि वज्जि झननंक । उनकि वन टोप सु उच्चर ।।
अनल अग्मि सम जपिंग । जेन धजि बंधि जग्गा ।।
मनु द्रप्पन में बैठि । नेत बडवानल जग्गा ।।

धन स्यांम पीत रत रंग बर । त्रिविधि वीर गुन बर भरिय ।।
हर हर गंठिठ रुठिठ उमां । किम उतारि पच्छो घरिय ।। ४९५,स०२५

युष्पदंत ( पुष्पदन्त ) ने अपने 'यदि पुराण' में ऋतु-वर्णन बड़ी कुशलता से किया है। उसी प्रसंग में सन्ध्या का भी अनूठा वर्णन है --'दिनेश्वर का अस्त होना पथिकों ने शकुन पूर्ण समझा । जैसे दीपक जलाने की बात कही गई वैसे ही प्रियतमाओं के आभरण प्रदीप्त हो उठे । जैसे सन्ध्या राग युक्त ( लालिमा पूर्ण ) हुई वैसे ही वेश्याओं का राग बढ़ा । जैसे भुवन संतप्त हुए वैसे ही चक्रवाक भी व्याकुल हुए । जैसे-जैसे दिशा-दिशा में तिमिर बढ़ने लगा वैसे-वैसे दिशा-दिशा में व्यभिचारिशियाँ जारों से संयोग करने लगीं । जैसे रात्रि में कमतिनी मलिन होकर मुकुलित हो गई वैसे ही विरहिणी का सुख भी मुकुलित हुआ। जिस घर के कपाट बंद हो गये उसे बल्लभ (पति) रूपी सम्पत्ति प्राप्त हो गई। जिस प्रकार चन्द्रमा ने अपनी किरणों का प्रसार किया वैसे ही प्रिया ने अपने हाथों से अपनी केश राशि बिखरा दी। जिस प्रकार कुवलय के पुष्प विकसित हुए उसी प्रकार मिथुन - कीड़ा ने भी विकास पाया ... पाया.....

अत्यधिक दियेसरि सिंह सा । तिह पंथिय थिय माणिय-सउणा ।
जिह फुरियउ दीवय-दित्तिय । तिह कांताहरणाह-दितियउ ।
जिह संझा-राएँ बेसा-राएँ रंजिवउ । तिह बेसा-राएँरंजियइ ।
जिह भुवसुल्लउ संतावियर । तिहँ चक्कुल्तुवि सँतात्रियउ ।
जिह दिस-दिस तिमिरइ मिलियाइँ । तिह दिस-दिस जारइ मिलिवाइँ । जिह रयणिहि कमल मउलिया । तिह विरहिणि-वयस मउलियाइँ ।
जिह घरहँ कवाडइ दिरणाइँ । तिह वल्लह-संबइँ दिण्णाइ ।
जिह चंदे शिव-कर पतरु किउ । तिह पित्र-केस हिं कर पसरु किउ ।
जिह कुवलय कुसुमइ वियसअइ । तिह कीलय-मिहुइँ वियसिअइ ।।

सूर्य--

( अ ) "आकाश को सरसित करने वाले हंस, श्याम लोक को प्रदीप्त करने वाले, सरसिज ( कमल) के बंधु, चक्रवाक को मुदित करने वाले, तिमिर रूपी गजराज के लिये सिंह, चन्द्रज्योत्स्ना के पीड़क भास्कर ( सूर्य ) कामाची दिशा में अरुणोदय हुआ । उनको नमस्कार है":

गगन सरस हंसे स्यास लोकं प्रदीपं ।
सस राज बंधू चक्रवाकोपि कीरा ॥
तिमिर गज मृगेन्द्र चन्द्रकांत प्रमाथी ।
विकसि अरुन प्राची भास्करं तं नमामी

(ब) 'निशाचरों ने जब सूर्योदय देखा, निर्मल किरणों जगमगाने लगीं, तमचुरों (कुक्कुटों) के शब्द होने लगे, किरणें प्रकट हुई और दिशा विदिशा में फैल गई' :

निसि चरन दिष्षि जब समय सूर । झलमलत किरन त्रिमल करूर ॥
तमचरह पूर प्रगटी किरन्न । प्रगटी सु दिसा विदिसान अन्न ॥ ३०, स०३८;

(स) 'जिस प्रकार शैशव-काल में ( वयःसन्धि के समय) यौवन का किंचित् आभास दिखाई देता है उसी प्रकार रात्रि के अवसान में अरुण (सूर्य) की किरणें प्राची में उदित होती हुई शोभित हो रही हैं' :

ज्यों सब में जुवन कल्लु । तुच्छ तुच्छ दरसाह ॥
यों निसि मध्यह अरुन कर । उद्दित दिसा लसाइ ॥ ३२, स०३८;

(द) 'शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा अपने बिस्व की ज्योत्स्ना से तिमिर- जाल विदीर्ण कर रहा था । देव-वंदना और कर्म-सेवा की प्रेरक सूर्य किरणें मग हुई। उनके सारथी अरुण ने अपने कमलस्वरूपी हाँथों से रथ की सँभाल की तथा यम और यमुना के पिता ( भगवान् भास्कर ) अपनी स्वर्ण किरणें बिखेरने लगे । जवास जल गये, कुमुद के सम्पुट वन्द हो गये और वरुण (रक्ताभ सूर्य) तारागण के भास का कारण हुए। शूर सामंतों ने उनके दर्शन किये और धर्म को धर्म रूप में उनके शरीर में विलसित पाया :

सरद इंद्र प्रतिष्यंब । तिमर तोरन किरनिय तम ॥
उग्गि किरन वर भान । देव बंदहि तु सेव क्रम ॥
कमल पानि सारथ्य । अरुन संभारति रषै ॥
जमुन तात जम तात । करन कंचन कर वरषै ॥

ग्रीषम जवास बध्यौ कमुद । श्ररुन बरुन तारक त्रसहि ।।
सामंत सूर दरसन दिविय । पाप धरम तन बसि लसहि ।। १६८, स० ४४

चन्द्र---

(अ) 'जिनका शरीर श्रमृतमय है अर्थात् जिनके कारण वनस्पतियाँ उत्पन्न होकर शारीरिक व्याधियों का हरण करती हैं ( इत्यादि ), सागर को प्रफुल्लित करने के जो मूल कारण हैं, कुमुदिनी को विकसित करने वाले, रोहिणी (नक्षत्र) के जीवनदाता, कन्दर्प के बन्धु, मानिनियों का मान मर्दन करने वाले और रात्रि रूपी रसही से रमण करने वाले चन्द्रदेव को नमस्कार है' :

अमृतमय सरीरं सागरा नंद हेतुं ।
कुमुद वन विकासी रोहीणी जीवतेसं ।।
मनसिज नस बंधुर्मानिनी मान मदीं ।
रमति रजनि रमनं चंद्रमा ते नमामी ।। २३७, स० ३६,

(ब) चन्द्र ग्रहण समाप्त होने पर चन्द्रमा का सौन्दर्य एक स्थान पर इस प्रकार चित्रित किया गया है -- 'कसलों की कला बंद हो गई, चक्रवाक चकित चित्त रह गये, चन्द्र-किरणो ने कुमुदिनी को विकसित किया, सूर्य की कला क्षीण हो गई, सन्मध के बाणों के आघात से मदोन्मत विश्व बढ़ी, जगत निद्रा के वशीभूत है जिसमें कामी और भक्त ये ही दो प्रकार जन जागरण कर रहे हैं। ( पृथ्वीराज ने भी अपनी 'वेलि' में लिखा है- 'निद्रावसि जग ऐउ महानिसि जामिअ कामिअ कीरत ऐश्वयों के उपभोग में जागरण' ) :

दी पुष्प कमोद हंसति कला, चक्कीय चक्कं चितं ।
चंद किरन क पोइन पिमं, भानं कला छीनये ॥
बानं मन्मथ मत रस जुगयं, भोग्यं च भोगं भवं ।
निद्रा अस्य जगत भक्क जलयं, वा अन्य कामी नरें ॥७, स०३८

रात्रि ---

(अ) युद्ध भूमि में रात्रि होने पर 'विकसित कमल अपने दलों को बाँधकर सम्पुट रूप में हो गये, चक्रवाक वियुक्त हुए, चकोर ने चन्द्रदेव के वृत्त पर अपनी दृष्टि बाँधी, युवती जन कान पूरित हुई, पक्षी अपने नीड़ों में चले गये, सुन्दरियों के सुन्दर नेत्रों के काम-कटाक्ष चढ़ गये, निर्मल चन्द्र आकाश में उदित हुत्रा, राजा ने शूर सामंतों पर सेना की रक्षा का भार छोड़ा और सारे योद्धा विश्राम करने लगे' :

कुमुद उघरि मूँदिय । सु बँधि सतपत्र प्रकारय ।।
चकिय चक्क विच्छुरहि । चक्कि शशिवृत्त निहारय ।।
जुवती जन चढि काम । जाहि कोतर तर पंत्री ।।
अवृत्त वृत्त सुंदरिय । काम बढिय वर अंपी ।।

नव नित्त हंस हंस मिले । बिमल चंद ज्यौ सुनम ।।
सामंत सूर अप रष्षि कै । करहि वीर विश्राम सभ ।। ६७५, स०२५

(ब) रात्रि के समय जयचन्द्र की सभा की सजावट और शोभा का वर्णन छं० ८३२-३४, स० ६१ में देखा जा सकता है ।

प्रदोष--

रण-काल में सूर्यास्त होने पर, युद्ध रुक जाने के उपरान्त कभी रात्रि के प्रथम प्रहर का किंचित् वर्णन कहीं-कहीं मिलता है और कहीं सन्ध्या होने के बाद भी युद्ध चलते रहने पर उसका उल्लेख पाया जाता है; अथवा निम्न ढंग के संकेत मिलते हैं :

(अ) बार सोम पंचमी । जाम एकह दिसि वित्तिय ॥२७३, स०६१;
(ब) भइत दिसा दिन मुदित बिनु । उड़पति तेज बिराज ।।
कथक साथ कथयहि कथा । तुष्ष सयन प्रथिराज ।। ८२४, स०६१
(स) जाम एक निसि बीति वर । बोले भट्ट नरिंद ।।
ओसर पंग नरिंद कौ । देष श्रय कविंद ॥ ८२६, स०६१;

ध्वान्त ( अन्धकार ) --

तम बढिढय धुंधर धरा । परष पयं पन मुष्ष ।।
तम्म तेज चाबदिसह । जुझ्झनि भरिग अरुष्ण ।।६७७,
जुझ्झ भरि ग्रारुप वर । रोकि रहिग बर स्याम ।।
सुबर सुर सामंत गुन । तम पुच्छे प ताम ॥ ६७८, स०२५;

युद्ध-भूमि की अँधेरी रात्रि में पलचरों, रुधिचरों और अंसरों का कोलाहल इस प्रकार पाया जाता है:

अध्द अवन्निय चंद किय । तारस मारू भिन्न ।।
पलचर रुचिर अचरस । करिय रखनिय रिन ।। १५४६, स०६१

वासर ( दिन ) --

दिन का वर्णन युद्ध के साथ ही मिलता है, यथा :
चढ़त दीह चिप्पहर । परिग हज्जार पंच लुधि ।। १०८, स०३२;

रासो में क्षत्रिय के लिये दिन और युद्ध अनवरत रूप से अगाध सम्बन्ध में बँधे हुए । शूरवीर युद्ध के लिये दिन की अभिलाषा करते थे जिसमें उन्हें अपने स्वामी, स्वामिधर्म और योद्धापन के जीवन की बाजी जीतनी रहती थी । देखिये :

प्रात तूर बंछई, चक्क चक्किय रबि बंछै ।
प्रात सूर बंछई, सुरह बुद्धि चल सो बंछै ।
प्रात सूर बंछिई, प्रात वर बंछै वियोगी ।
प्रात सूर बंछई, सु बंछे बर रोगी ।

बंछयौ प्रात ज्यों त्यों उनन, बंधै रंक करन्न वर ।।
बंछयौ प्रात प्रथिराज ने, ज्यौं सती सत्त बंछैति उर ।। ५७, स० २७;

मृत्यु युद्ध का वरदान थी, जिसकी प्राप्ति के लिये लालायित शूर-साधक दिन की साथ करते | रात्रि में युद्ध का उल्लेख कही-कही हुआ है परन्तु वे सम्भवत: कुछ तो महाभारत आदि वर्णित देशीय परम्पराओं की युद्ध-वीर-व-नीति के कारण और कुछ रात्रि में प्रकाश की अव्यवस्था के कारण एक प्रकार से वर्जित से थे । वैसे रात्रि में तभी तक युद्ध चलते थे जब तक ज्योत्स्ना रहती थी । एक स्थान पर आया भी है कि दितीय चन्द्रमा अस्त होते ही युद्ध बंद हो गया :

प्रतिपद परितापह पहर । समर सूर चहुआन ।।
दिन दुतिया दल न उरभि । ससि जिम सद्धि पिसान ।।११९, स० ३७

प्रातःकाल--

इस युद्ध-काव्य में प्रात: की महिमा उचित ही हुई है। रात्रि की विश्रान्ति के पश्चात् प्रातः ही तो वीरों की कामना पूरी होती थी । यशःप्रदाता उषःकाल के कतिपय वर्णन देखिये :

(अ) प्रात:काल हुआ, रात्रि रक्त वर्ण दिखाई देने लगी, चन्द्र मंद होकर अस्ताचलगामी हुआ । तामसिक वृत्ति वाले शूर वीर तमस ( क्रोध ) में भर कर तामस पूर्ण शब्द कहने लगे । नगाड़ों का गंभीर घोष होते ही वीर वर्ण अंकुरित हो गया परन्तु जब युद्ध के चारणों ने कड़खा गाया तब कायरों की दृष्टि भी बीरों-सदृश हो गई' ।

भय प्रात रतिय जुरत दीसर, चंद मंद चंदयौ ।
भर तमस तामस, सूर बर भरि, रास तामस छंदयौ ॥
बर बज्जियं नीसान धुनि घन बीर बरनि अँकुरवं ।
घर घरकि धाइर करषि काइर रसभि सूरस क्रूरयं ॥ ५८, स० २७

( ब ) भीमदेव से युद्ध-काल में 'भयौ प्रात बर नूर' की प्रशंसा कवि ने इस प्रकार की है 'रात्रि में कमल के सम्पुट में बन्द हुए भ्रमर मुक्त होकर प्रसन्नता से गुजरने लगे, तारागण विलीन हुए, तिमिर विदीर्ण हो गया, चन्द्रदेव अपने ज्योत्स्ना रूपी गुण सहित अस्त हुए, देव कर्म प्रगट हुए वीरों का श्रेष्ठ कर्म सुनाई पड़ने लगा, चकवी ने वियोग का स्वर त्यागा, उल्लू के नेत्र चौंधियाने लगे, पौ फट गई, आकाश के तिमिर- जाल का नाश हुआ, देवताओं की अर्चना हेतु शंखध्वनि होने लगी, अभी सूर्य का बिम्ब नहीं निकला था कि पक्षी वृक्षों में कलरव करने लगे' :

निस सुमाय सत पत्र । मुक्कि अलि भ्रम तक सारस ।।
गय तारक फटि तिमिर । चंद भग्यौ गुन पारस ।।
देव क्रम्म उध्वरहि । बीर बर क्रम्म सुनिज्जह ।।
सोर चक्र तिथ तजिय । नवन बुध्धू रस भिज्जह ।।

पहु कट्टि फोड़े गये तिभर नभ । बजिय देव धुनि संघ घरु ।।
भय भान पान न उधरथौ । करहि रोर द्रुम पष्ष तर ।। १९७, २०४४

( स ) 'पौ फट गई, तिमिर घट गया, सूर्य की किरणों ने अन्धकार का नाश कर दिया, पृथ्वी पर उसे पाकर प्रहार करने के लिये उनका आकाश में उदय हुआ । सूर्य का बिम्ब रक्ताम्बर दिखाई पड़ रहा है; यह पंगराज का कलश नहीं है वरन् सूर्य का दूसरा गोला है' :

पहु फट्टिय वट्टिय तिमिर । तभचूरिय कर भान ।।
पहुमिय पाय प्रहार नह । उदो होत असमान ।। २९९,
रतंबर दीसे सुरबि । किरन परयि लेत ।।
कलस पंग नहिं होय यह । बिय रवि बंध्यौ नेत ।। ३००, स०६१

मध्याह्न --

दोपहर का वर्णन प्रात: और सायंकाल की भाँति विस्तृत और सौन्दर्य पूर्ण नहीं है । युद्धों के बीच में उसका उल्लेख मात्र हो जाता है । देखिये :

( अ ) कंध बंध संघिय निजर । परी पहर मध्यान ।।
तब बहुरचौ पारस फिरिय । फिरयों भीछ चहुवान ।। ५९२, स० २५;
(ब) छठिठ ऋद्ध बर घटिय । चढ्यौ मध्यान भान सिर ।।
सूर कंध बर कट्टि । मिले काइर कुरंग बर ।। ७२, स० २७;
( स ) जय जया सह जुग्गनि करहि । कलि कनवज्र दिल्लिय बय ।।
सामंत पंच वित्तह पिंग । भिरत पंच भये विप्महर ।। १७३३,स०६१

मृगया--

इस काव्य के चरित्र नायक का परम व्यसन मृगया था। तभी तो देखते हैं कि जहाँ युद्ध से विश्राम मिला कि मृगया का आयोजन किया गया परन्तु इसमें भी बहुधा युद्ध की जौवत आ पहुँचती थी। इस आखेट काल में हिंसक जन्तुयों को मारने के अतिरिक्त कभी किसी वन की भूमि से गड़ा द्रव्य खोदा जाता था, कभी वीरगण ( प्रेत, प्रमथ यादि ) वशीभूत किये जाते थे, कभी शत्रु की चढ़ाई का समाचार पाकर उसे स्थगित कर दिया जाता था और कभी वहीं शत्रु से मुठभेड़ हो जाती थी । इस प्रकार की विविधता के कारण रासो के मृगया-प्रसंग अधिक रोचक और सरस हो गए हैं तथा साथ ही उनका विस्तार भी अधिक हो गया है। एक आखेट वर्णन के कुछ अंश देखिये :

आषेट रमत प्रथिराज रंग । गिरवर उतंग उद्यान दंग ।।
उत्तंग तरुन छाया अकास । अनेक पंषि क्रीडति हुलास ।।
सुब्बा सुरास छुट्ट सुगंध । तहां भ्रमत भोर बहु बास अंध ।।
फल फूल भार नसि लगी साथ । नासा सुगंध रस जिह्न चात्र ।। १३
पत्र प्रचंड फूंकर फिरंत । देषंत नरह ते करत अंत ।।
अनेक जीव सह करत केलि । बट विटप छांह अवतंत्र वेलि ।।
एक घाट विकट जंगल दुबार । तहां बीर मूल पिथ्थल कुंझार ।।
वामंग अंग चामंड राय । चूकै न मूठि सौ काल घाइ ॥ १४, स० १७

इससे भी अधिक साङ्गोपाङ्ग वर्णन स० २५,छं० ५२-६७ में द्रष्टव्य है । वर्णन-विस्तार के साथ उसकी संश्लिष्ट योजना भी उल्लेखनीय है।

पर्वत--

(अ) 'प्रथम समय' में हिमालय का अपने पर्वत पुत्रों से वार्तालाप ( छं० १७८-६२), अर्बुद नाग द्वारा नंदगिरि को उठाकर उसे गहर में रखकर पूर देने, शिव के अचलेश्वर नाम से वहाँ स्थित होने तथा अर्बुद नाग के नाम पर उस पर्वत का आबू नाम होने और उस पर वशिष्ठ का ऋषियों को आमन्त्रित करके यश करने (छं० १९३-२४०) का उल्लेख है ।

(ब) दिल्ली से चंद के ग़ज़नी जाने पर मार्ग की विषमता, पर्वत, झरने, व्याघ्र प्रादि हिंसक जन्तुओं का वर्णन हुआ है :

सम चल्यो भट्ट गज्जन तु राह । वन विषम सुषम उग्गाह गाह ।।
रह उंच नीच सम विषम थान । गह बरन सैल रन जल थलान ।। ९६
द्रिग जोति लग्गि मन सबद भीन । भुल्ल्यौ सरीर निज मग्ग षीन ।।
रतौ सु जोग मग्गह सरुव । जगमगत जोति आयास भूव ।। ९७
भिधौ सु प्रीति प्रथिराज अंग । निरकार जीय रतौ सुरंग ।।
भुल्ल्यौ सु मग्ग गज भट्ट । बन चल्यौ थान उद्यान थट्ट ।। ९८
उभरत इम्भ सम अम्भ नद्द । के तरत भिरत भज्जत समद्द ।।
उद्यान तज्जि संग्रहै एक । गंजहिति बध्ध मग्गह अनेक ।। ९९
जुग देत दंति सिंधहि सुरम्भ । म्रिग वध्ध मंत्रि अजगर अदम्भ ।।
सा पंच चिल्ह संग्रहै सास । सा वद्द बनंचर विषम भास ।। १००
गुंजरत दरिय सम्मीर सद्द । निशुरत भरत नद रोर नह ।।
बन बिकट रंध को चक्क राह । सद्दहि सु ताम संमीर गाह ।। १०१
उड्डत उरंगवर तर सुलग्भग । सुझझहि न विदिसि दिसि मझ्झ मग्ग ।।
बन चल्यो मझ्झ भट्ट भयंक । रतौ सु जोति सज्जे निसंक ।। १०२
निझ्झरिह करिय रहर करूर । उम्भरहि सलित सहिता सपूर ।।
कलरव करत तुज नेक मास । तर विकट सघन पंषिनि हुलास ।। १०३ निसि दिवस भट्ट बन चल्यो जाम । संभरथौ राज भौ श्रम्म ताम ।।
बेयो सुगबुद्धा पियास । तर वह देषि लागे आयास ।। १०४, स०६७

ऋतु --

ऋतुओं के वर्णन का उल्लेख पिछले 'काव्य सौष्ठव' शीर्षक के अन्तर्गत पृष्ठ १३८ में किया जा चुका है तथापि 'शशिवृता वर्णनं नाम प्रस्ताव' के वर्षो और शरद वर्णन के दो स्थल अप्रासंगिक न होंगे। 'चारों और मोरों के स्वर हो रहे थे, आषाढ़ मास की घटायें आकाश में चढ़ीं थीं, मेढकों और झींगुरों के स्वर मुखरित थे, चातक रट रहे थे, अलंकृत श्राभरण धारण करके वसुन्धरा हरी हो गई थी, बादलों के गर्जन सहित वर्षा होने पर राजा यादव कुमारी का स्मरण करते थे, मन्मथ के बाण लगने पर उनकी आत्मा व्याकुल होने लगती और शरीर धैर्य नहीं धारण करता था' :

मोर सोर चिहुँ ओर । घटा आसाढ बंधि नभ ।।
बच दादुर भिंगुरन । रटन चातिग रंजत सुभ ।।
नील बरन बसुमतिय । पहिर आभ्रन अलंकिया ।।

बरषंत बंदू घन मेष सर । तब सुमिरै जद्दव कुअरि ।।
नन हंस धीर धीरज सुतन । इत्र फुढे मनमथ्य करि ।। ३५,

'कीचड़ सूख गया, सरितायें उतर गई, वल्लरियाँ कुम्हिला गई, बादलों से रहित पृथ्वी ऐसी प्रतीत होती है जैसे पति के बिना स्त्री । निर्मल कलाओं सहित चन्द्रोदय हुआ, कन्दर्प प्रकट होकर आकाश में उदित हुआ, नदियों का जल नीचा हो गया, प्रावरण (घूँघट) स्त्रियों के नेत्रों की लज्जा का हरण करने लगे, मल्लिका के पुष्पों से वायु सुगन्धित हो गई, संयोगिनी स्त्रियों अपने पति के श्रालिंगन पाश में बँध गई' :

सुक्क पंक उत्तरि सरित । गय बल्ली कुमिलाइ ।।
जलधर बिन ज्यों मेदिनी । ज्यों पतिहीन त्रियाइ ।। ४४
नूम्मतिय कला उग्गयौ सोम । कंदर्प प्रगट उद्दित्त व्योम ।।
सरिता सु नीर आए निवान । पंगुरन हरै त्रिय द्रग लजान ।।
मल्लिका फुल्ल सुगंध वाय । संजोगि कंत रहि तप्पटाइ ।। ४५,स०२५

वेलकार पृथ्वीराज राठौर ने भी शरद वर्णन में लिखा है--' नीखर जल जिम रह्यौ निवाणे निधुवन लज्जा श्री नयन' अर्थात् जल निर्मल होकर नीची भूमि में चला गया जिस प्रकार लज्जा रति-काल में स्त्री के नेत्रों में जा रहती है ।

ऋतुओं के इस प्रकार के वर्णन के अतिरिक्त युद्ध की उपमा कहीं से और कहीं वर्षा से दो गई है । इन स्थलों पर भी ऋतु-वर्णन मिल जाता है । सुसज्जित शाही सेना की वर्षा से चूर्णोपमा स० ६६, छं० ८३५-४२ में देखी जा सकती है । हिंदू सेना की पावस से उपमा देखिये :

झरि पास सिर वर प्राहरिं । बरषत रुद्धि घरं छिछवारं ।।
षग विज्जुल जोगिनि सिरधारं । बग्गी सौ जंबू परिवारं ।। १०३२
कटि टूक करें जिनके किरयं । मनौं इद्रवधू घरमें रचयं ।।
झमक्कै संगीन पनि बजे । सुनि बद्दति भिंगुर सद लजै ।। १०३३

लपटाइ सुकिय वेल तरं । पर रंमन रंसन रंभ बरं ।।
अकुरी बढ़ि चैति सुबीर बरं । वहि पावस पावस झार झर ।। १०३४, स०६६

वन--

धन का वर्णन मृगया के साथ मिला जुला प्राप्त होता है जो अनुचित नहीं क्योंकि आखेट का वही स्थल है। विशाल जंगल देश के स्वामित्व के कारण भी 'जंगलेश' उपाधि वाले पृथ्वीराज का वन में चाखेव मन रहना स्वाभाविक ही था । वन-वन का एक प्रसंग देखिये :

वन में शिकार के लिये पृथ्वीराज के पहुँचने पर हाँका हुआ और पशुओं में भगदड़ मच गई--

कवि चंद सोर चिहुँ ओर वन । दिध्व सद् दिग अंत भौ ।।
सकिय सयल्ल जिम रंक । इस अरव वाक भौ ।। १२;

कुमार पृथ्वीराज जंगल की भूमि में आखेट कर रहे थे । उनके साथ शूर सामंत, गहन पर्वतों और उनकी गुफाथों में भ्रमण कर रहे थे । एक सहस्त्र श्वान, एक सौ चीते, मन सदृश वेग वाले दो सौ हिरन उनके साथ थे । वहाँ उस सघन वन में कवि चंद मार्ग भूलकर भटक गया :

सम विषम विहर वन सघन घन । तहाँ सथ्य जित तित हुन ।।
भूल्ल्यौ सुसंग कवियन वनह । और नहीं जन सँग दुआ ।। १३

यह वन इस प्रकार का था :

विपन विहर ऊपल कल । सकल जीव जड जाल ।
परसंपर बेली बिटप । अवलंवि तरल तमाल ।। १४
सघन छाह रवि करन चत्र । धग तर पसु भजि जात ।।
सरित सोह सम पवन धुनि । सुनत श्रवन कहनात ।। १५
गिरि तट इक सरिता सजल । फिरत भिरन चहुँ पास ।।
सुतर छाँह फल अमिय सम । बेली विसद विलास ।। १६, २०६६

यहीं पर कवि को एक ऋषि के दर्शन हुए थे ( छं०१८, स०६ ) ।

'पउम चरिउ' में स्वयम्भु देव का वन-वर्णन भी देखिये :

तहि तेहएँ सुन्दरे सुम्पवहे । आचारण-महग्गय-जुत्त रहे ।
धुर लक्खणु रहवरे दासरहिं । सुर-लीलऍ पुणु विहरंत महि ।
तं करण-वरण-एईमुए विगया । वा केहिमि गिहालिय मत्तगया ।
कवि पंचाणण गिर-गुहेहिं । मुत्तवलि विक्रिंति राहे हैं।
कत्थवि उड्डाविय समसया । ण अडविहे उड्ढे विराण गया ।
कत्थवि कलाव च्वंति वर्णे । गावइ गट्ठावा जुयइ-जणो ।
कवि हरिणइँ भय-भीयाई । संसारहों जिह पावर याई ।
कत्थवि एणा-विह रक्ख राई । णं महि कुल बहुश्रहि रोमराइ ।। ३६-१

सागर--

'दूसरे समय' को 'मच्छावतार कथा' में मत्स्य भगवान् का सागर में निवास और सातों सागरों के जल का उछल-उछल कर श्राकाश में लगने का प्रलयकारी दृश्य भय के संचारी रूप में वर्णित हुआ है :

सायर मदि सु ठाम । करन त्रिभुवन तन अंजुल ।।
देव सिंगि रषि धरनि । सिरन चक्की चप् झंपल ।।
जैन भुजा ग्रज्जत । रसन दसनं झुकि झाइय ।।
एक करन ओढंत । एक पहरंत सवांइय ।।
चल चले सपत साइर अधर । इंद्र नाग मन कवन कहि
गिर घर चलंत पग मलन मल । लेन वेद अवतार गहि ।। ९२

इसके अतिरिक्त रासो में समुद्र का विस्तृत वर्णन पृथक रूप से नहीं किया गया है। अधिकांशतः वह उपमान रूप में आया है और जहाँ कहीं उसका प्रसंग है भी वहाँ पर सम्भवतः वार्ता विशेष का उससे अधिक सम्बन्ध न होने के कारण उसे चलता कर दिया गया है ।

चंद अन्हलवाड़ापन पहुँचा जो सागर के तट पर था। उसका किंचित दृश्य देखिये :

तिन नगर पहुच्यौ चंद कवि । मनो कैलास समाष लहि ।।
उपकंठ महल सागर प्रबल । सघन साह चाहन चलहि ।। ५०,
बजान बज्जयं घन । सुरा सुर अनगन ।।
सदान सद्द सागर । समुदवं पटा झरं ।। ५३, स० ४५

'मानस' में तुलसी के सामने सागर वर्णन के पाँच अवसर आये । प्रथम में 'सिंधु तीर एक भूधर सुन्दर,कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर' कहकर दूसरे में लंका-दाह करनेवाले हनुमान् को 'कूदि परा पुनि सिंधु मझारी' तथा 'नाषि सिंधु एहि पारहिं श्राचा' कहकर समाप्त किया गया । तीसरे स्थल पर जिसके प्रसंग में आदिकवि ने सागर का प्राकृतिक रूप साकार किया, तुलसी ने 'एहि विधि जान कृपानिधि उतरे सागर तीर' मात्र से अन्त कर दिया । चौथे में 'विनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन नीति' के पश्चात् खुपति ने चाप चढ़ाया और 'मकर उरग वन अकुलाने, जरत जन्तु जलनिधि जब जाने' पर सागर के विप्र रूप में उपस्थित होकर क्षमा प्रार्थी होने तथा अपने ऊपर पुल बनाने की युक्ति बताने का उल्लेख किया । पाँचवाँ स्थल लंका विजेता पुष्पकारूढ़ राम द्वारा सीता को सेतुबन्ध दिखाते हुए 'इहाँ सेतु बाँध्य अरु थापे व सुखधाम' कहकर समाप्त हो जाता है । अस्तु, प्रत्यक्ष है कि सागर का प्राकृतिक सौन्दर्य 'मानस' में नहीं है।

तुलसी की अपेक्षा उनके पूर्ववर्ती जायसी ने अपने 'पदमावत' में सागर का कुछ अधिक रूप दिखाने की चेष्टा की है। योगी राजा रतनसेन और उनके साथी योगियों की सिंहल यात्रा वाले 'बोहित खण्ड' ( १४ ) में ---

समुद अपार सरग जनु लागा । सरग न घाल गनै वैरागा ।।
ततखन चाल्हा एक देखावा । जनु धौलागिरि परत यावा ।।
उठी हिलोर जो चाल्ह नराजी । लहरि अकास लागि भुइँ बाजी ।।

इसके उपरान्त बड़ी मछलियों और राज पंखियों की कौतूहल-पूर्ण चर्चा है। और आगे सिंहल-कुमारी पद्मावती से परिणय करके समुद्र मार्ग से घर लौटते हुए राजा रतनसेन वाले 'देश यात्रा खंड' ( ३३ ) में कवि को सागर के प्रसंग में भँवर कुड वर्णन करने का एक अवसर और मिल गया है :

जहाँ समुद मधार मँढारू । फिर पानि पातार दुवाल ।।
फिरिफिरि पनि ठाँव ओहि मरै । फेरि न निकसे जो तहँ परे ।।

साथ महिरावण-पुरी आदि का भी ललित प्रसंग है ।

वस्तु-वर्णन में संस्कृत और अपभ्रंश के कवि अधिक निष्ठ पाये जाते हैं। क्रान्तदशी आदि कवि वाल्मीकि ने समुद्र का वर्णन इस प्रकार किया है- 'जो न और ग्राह के कारण भयंकर है, दिन की समाप्ति और रात्रि के प्रारम्भ में जो फेनराशि से हँसता हुआ तथा लहरियों से नाचता हुआ सा प्रतीत होता है । जो चन्द्रोदय के समय प्रत्येक लहर में चन्द्रमा के प्रति- बिम्ब होने से चन्द्रमय दीख पड़ता है और जो प्रचंड वायु के समान वेग वाले बड़े-बड़े ग्राह तथा तिमि तिभिङ्गलों से भरा हुआ हैज । उसमें प्रदीप्त फणवाले सर्प रहते हैं, अन्य अनेक बड़े बली जलचर भरे अनेक पर्वत छिपे हुए हैं। असुरों का निवास स्थान यह समुद्र अगाध है, जलचरों के कारण दुर्गम है तथा नौका आदि के द्वारा इसके पार जाना सम्भव है; मकर तथा सर्प के शरीर के समान प्रतीत होने वाली इसकी लहरें प्रसन्नता के साथ ऊपर उठतीं और नीचे जाती हैं। चमकीले जल के छोटे-छोटे कण बिखरे हुए अमृत-चूर्य के समान विदित होते हैं, इसमें बड़े-बड़े सर्प और राक्षस निवास करते हैं तथा यह पाताल सदृश गहरा है । इस प्रकार सागर आकाश के समान और नाकाश सागर के समान जान पड़ता है, उनमें कोई भेद नहीं दिखाई देता । सागर का जल आकाश में छू गया है और आकाश सागर को छू रहा है यस्तु तारा और रत्न युक्त वे दोनों समान देखे जाते हैं । आकाश में मेघ उठ रहे हैं और सागर में लहरें जिससे उनमें भेद हो गया है। सागर की लहरें परस्पर टकराकर भयंकर गर्जन कर रही है मानों आकाश में नगाड़े बजते हों ।

अपभ्रंश के कविर्मनीषी स्वयम्भु देव ने अपने 'पउम चरिउ' ( रामायण ) में समुद्र का प्रभावोत्पादक वर्णन किया है। कुछ अंश देखिये :

चल्लेउ राहव साहरोग । संघट्टिउ वाहणु वाहणेण ।
थोवंतरे दिट्ठु महासमुद्र । सुंमुबर मवर जलयर रउछ ।
मच्छोहरु -एक्क- गोहु वोरु । कल्लोलावंतु तरंग थोर ।
बेला बडढंतउ दुहुदुहतु । फेणुज्जल-तोय तुषार दिंतु ।
तहो अवरे पयडउ राम-सेण्णु । णं मेह-जालु राहवले सि ।। ५६९,

सम्भोग--

पूर्व राग द्वारा वरण और तदुपरान्त हरण कालीन संयोग का एक दृश्य देखिये --' ( पृथ्वीराज और शशिवृता की ) दृष्टियाँ परस्पर मिलीं, उत्कन्दा तुष्ट हो गई; बाला के नेत्र लज्जापूर्ण हो गए और वह कामराज की माया के रस में लीन हो गई... उसका महान सन्ताप मिट गया और दोनों के मन प्रसन्नता से छलक उठे। फिर तो चौहान ने उस किशोरी का हाँथ क्या पकड़ा मानों मदान्ध गजराज ने स्वर्ण-लता को लहरा दिया' :


( १ ) रामायण, युद्धकाण्डम्, सर्ग ४--
चनक्रमाह घोरं क्षपादौ दिवसक्षये ।
सन्तमिव फेनौधै स्यन्तमिव चोभिभि: ॥११०
चन्द्रोदये समुद्भूतं प्रतिचन्द्रसमाकुलम् ।
चानिल महाप्राहैः कीर्य तिमि तिमिगिलैः ॥ १११
दीप्तिभोगैरिवाकीर्ण भुजंगैर्वरुणालयम् ।
महासत्त्वैर्नाना शैलसमाकुलम् ॥ ११२
श्लोक ११३-१६ तथा-
समुत्पतित मेवस्य वीचि मालाकुलस्य च ।
विशेषो न द्वयोरासीसागरस्याम्बरस्य च ।। ११७
अन्योन्यैरहताः सक्ताः सस्वनुर्भीमनिः स्वनाः ।
कर्मय: सिन्धुराजस्य महाभेर्य इवाम्बरे ।। ११५:

दिट्ठ दिट्ठ लगी समूह । उतकंठ सु भरिय ।।
निष लज्जानिय नयन । मयन माया रस पग्गिय ।।
छल वल कल चहुआन । बाल कुवरप्पन भंजे ।।
दोष त्रीय मिट्टयौ । उभय भारी मन रंजे ।।

चौहान हथ्थ बाला गहिव । सो श्रोपम कवि चंद कहि ।।
मानों कि लता कंचन लहरि । मत्त वीर गजराज गहि ।। ३७४, स० २५

उत्साह के बाद रासो में रति भाव को ही स्थान मिला है जिसमें संयोग-शृङ्गार की अधिकता के कारण सम्भोग के अनेक अप्रतिम रूप देखने को मिलते हैं ।

विप्रलम्भ--

संयोगिता से गन्धर्व विवाह करके, जयचन्द्र के गंगातट वाले महत से जब पृथ्वीराज अपने सामंतों को घेरे हुए पंगराज की सेना से युद्ध करके अपने दल में चले गये, उस समय दुश्चिन्ताओं से पूर्ण शंकित हृदय राज कुमारी संज्ञा शून्य हो गई। 'सखियाँ पंखा कर रहीं थीं, बनसार ( कपूर ) और चंदन के लेप किये जा रहे थे । अनेक उपाय हो रहे थे परन्तु चित्र लिखी सी वह बाला अचेत पड़ी थी । उसके मुँह से हाय शब्द निकल पड़ता था । जब सखियों उसके कान में पृथ्वीराज के नाम का मंत्र सुनाती थी तब वह बलहीना क्षण भर की अपनी आँखें खोल देती थी' :

बाली बिजन फिरन । चंद चारी क्रितम रस ।।
के घन सार सुधारि । चंद चंदन सो भति लस ।।
बहु उपाय बल करत । बाल चेतै न चित्र मय ।।
है उचार उचार । सखी बुल्लपति हयति हय ।।

अपने सुनाइ जपै सुति । नाम मंत्र प्रथिराज बर ।।
आवस निवत अगाद भय । तं निबलह द्विग छिनक कर ॥ १२६५, स०६१

मुनि--

(अ) ढुंढा दानव ने योगिनिपुर में यमुना तट पर हारीफ ऋषि को देखा जिन्होंने उसे तपस्या करने का उपदेश दिया---

ढिंग जुगिनिपुर सरित तट । अचधन उदक सु श्राय ।।
लहं इक तापस तप तपत । बीली ब्रझ लगाय ।। ५६०
ताली पुल्लिय ब्रह्म । दिविष इक असुर अदभुत ॥
दिव देह चष सीस । मुष्ष करुना जस जप्यत ॥

तिनि रिपि पूलिय ताहि । कवन कारन इत अंगम ।।
कवन थान तुम नाम । कवन दिसि करबि सु जंगम ।।
मो नाम ढुढ बीसल नृपति । साप देह लम्मिय दयत ।।
सुह सु तेह गंगा दरस । तजन देह जन संत कृत ।। ५६१....
तब मुनि बर हसियौं कहिय । बिन तप लहिय न राज ।।
अन धन सुत दारा मुदित । लहौ सबै सुख साज ।। ५६४...

मुनि के इस उपदेश का फल यह हुआ कि ढुंढा ने तीन सौ अस्सी वर्ष तक तपस्या की :

तपत निसार तप्पं । बीते वरष तीन से असीयं ।।
भय वाधा विरा अगं । लग्गो राम धारना ध्यानं ।। ३६७, २०१

( ब )एक वन में एक ऋषि का मिलन और उनका रूप देखिये :
तहा सु अवतर रिष्क इक । कस तन अंग सरंग ।।
दव दद्धौं जनु द्रुम्म कोइ । कै कोई भूत भुअंग ।। १७
जप माला मृग छाला । गोटा विभूतं जोग पट्टायं ।।
कुविजा खप्पर हथ्थं । रिद्ध सिद्धाय बच्चनयं मम ।। १८, स०६

(स) एक बन में श्राखेट करते हुए पृथ्वीराज ने पर्वत की कन्दरा में सिंह के अम धुआ करवाया जिससे क्रोध में भरे सुनि निकले और उन्होंने राजा को श्राप दे दिया :

कोमल सु कमल द्रग भवै नीर । रद चंपि अधर कंपत सरीर ।।
जट जूट छूटि उरत पाय । म्रग चरम परम नंष्यौ रिसाय ।। १५३ तमिवोरिडारि दिय श्रच्छ माल । निकरथौ रिषीस बेहाल हाल ।।
गहि दर्भ हस्त बर नीर लीन । प्रथिराज राज कहुँ श्राप दीन ।। ह१५४, स०६३

स्वर्ग--

स्वर्ग का वर्णन पृथक रूप से नहीं किया गया है। स्वामि धर्म का पालन करते हुए युद्ध में वीरगति पाने वालों का स्वर्ग-गमन कवि ने बड़े उत्साह से वर्णन किया है । योद्धाओं का रण कौशल देखकर कहीं 'जै जै सुर सुर लोक जय' हो उठता है, कहीं अप्सरायें देव वरण त्याग कर लोक- युद्ध भूमि में बीर-वरण हेतु थाती हैं --( वर अच्छर बिंदौ सुरग मुक्के न सुर गहिय ), कहीं किसी के मृत्यु-पाश में जाते ही अप्सरायें उसे गोद मैं ले लेती हैं और वह देव- विमान में चढ़कर चल देता है-- ( उच्छृंगन अच्छरसों लयो, देव विमानन चढ़ि गयौ ), कहीं याओं को युद्ध में विजयी होने पर ऐहिक भोग प्राप्त करने की चर्चा है तो कहीं मरने पर अप्सराओं की प्राप्ति की --( जीविते लभ्यते लक्ष्मी मृते चापि सुरांगणा )। वीरों को स्वर्ग-लोक मात्र ही नहीं मिलता कभी-कभी वे यमलोक, शिवलोक और ब्रह्मलोक के ऊपर सूर्यलोक भी प्राप्त कर लेते हैं :

जमलोकन शिवपुर ब्रह्मपुर । भान थान माने भियौ ॥

रासो में वीरों के लिये सूर्य-लोक की महिमा सर्वोपरि दिखाई पड़ती है । महाभारत के प्रख्यात योद्धा और इच्छा-मृत्यु वाले महात्मा भीष्म शर-शय्या पर पड़े हुए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते रहे, क्योंकि दक्षिणायन या दक्षिण-मार्ग अर्थात् आवागमन से मुक्ति के वे आकांक्षी थे। उपनिषद काल तक सूर्य ब्रह्म के पर्याय निश्चित हो चुके थे । 'ईशावास्य' में उपासक अपने मार्ग की याचना करता हुआ कहता है कि आदित्य मण्डलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है । हे पूषन्, सुझ सत्यधर्मा को श्रात्मा की उपलब्धि कराने के लिये तू उसे उधार दे :

हिरमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषनपा सत्यधर्माय दृष्टये ।।१५

और है जगत्पोषक सूर्य ! हे एकाकी गमन करने वाले, हे यम ( संसार का नियम करने वाले ) ! हे सूर्य ( प्राण और रस का शोषण करने वाले ) ! है प्रजापतिनंदन ! तू अपनी किरणों को हटा ले ( अपने तेज को समेट ले ) । तेरा जो अतिशय कल्याणमय रूप है उसे मैं देखता हूँ । यह जो श्रादित्य मडलस्थ पुरुष है वह मैं हूँ :

पूषन्नकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन्समूह ।
तेजो यते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुष :
सोऽहमस्मि ।। १६

अस्तु, सूर्य-लोक पहुँच कर ब्रह्म और जीव की एकता अनिवार्य थी इसी से स्वर्ग-लोक, शिव-लोक, ब्रह्म-लोक ( ब्रह्मा का लोक ), यम-लोक आदि भोग-लोकों की अपेक्षा आवागमन मिटाने वाले सूर्य-लोक की प्राप्ति 'की अभिलाषा ज्ञानी योद्धाओं द्वारा की जानी उचित ही थी ।

स्वामी के लिये युद्ध में मृत्यु प्राप्त करने वाले हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मो के योद्धाओं को क्रमश: स्वर्ग और बिहिश्त में अप्सराओं और हूरों की प्राप्ति के दर्शन कवि की सहिष्णुता के परिचायक हैं। फ़ारसी इतिहासों में जहाँ कमीने काफ़िर हिन्दू तलवार के घाट उतार कर दोज़ख भेज दिये जाते हैं वहाँ राम्रो के मुस्लिम योद्धा स्वर्ग में स्थान प्राप्त करते हैं। कुछ स्थल देखिये :

( अ ) लघु बंधु हस्तमा हनिय सूर ।
बर जात बरै ले चली हूर ॥ ५५, स० २४,
(ब) तहां पान हिंदवान भए चक्र चूरं ।
तहां हूर रंभा बरै बरह सूर ।। १५५,स० ४३,
(स) जीवंतह की रति सुलभ । मरन पच्छर हूर ।। १५८, सं०४८

नगर--

योगनिपुर में यमुना तट पर निगमबोध के उद्यान के फूलों और फलों आदि का वर्णन करके, पृथ्वीराज के दरबार का प्रसंग है, फिर नगाड़ों के घोष वाली इन्द्रपुरी सदृश दिल्ली, वहाँ के सात खण्ड के प्रासाद, जना- कीर्ण हाद में अमूल्य वस्तुओं के क्रय-विक्रय इत्यादि का कवि ने उल्लेख किया है :

सुधं निर्गम बोधयं, जर्मन त सौधर्यं ।
तहाँ सु बाग ब्रच्यं, बने सु गुल्ल अच्छयं ॥ ५.
समीर तासु बासयं, फलं सु फूल रासयं ।
बिरष्ण बेलि डंबरं, सुरंग पान मरं ॥ ६
जु केसरं कुमकुमं, मधुप्प वास तं भ्रमं ।
अनार दाष पल्लव, सु छत्र पति ढिल्लव ।। ७
जु श्री फलं नरंगयं, सबह स्वाद होतयं ।
चत मोर वायकं मनों संगीत गायकं ।। १०
उपम्म बाग राजयं मनो कि इंद्र साजर्व ।
.... .... .... ,.... .... .... ।। ११

घुरि घुम्मिय व निसान घुरं । पुर है प्रथिराज कि इंद्रपुरं ।।
प्रथमं दिलिय किलिये कहने । यह पौरि प्रसाद षना सतनं ।। २३
वन भूप अनेक अनेक मती । जिन बंधिय बंधन छत्रपती ।।
जिन अश्व चढ़ै वरि अस्सि लर्ष । बल श्री प्रथु मत्र अनेक मष ।। २४
दह पोरि सु सोमत पिथ्थ बरं । नरनाह निसंकित दाम नरं ।।
भर हसु लघन भरयं । धरि बस्त अमोल नयं नरयं ।। २५
तिहि बीच महल्ल सतध्वनयं । रूप कोटि धर्जी से कभी गनयं ।।
नर सागर तारँग सुद्ध परें । परि राति सुरायन बाहु परे ।। २६, स०५९

'पउम चरिउ' में स्वयम्भु देव का नगर वर्शन देखिये- 'वहाँ पर धन और सुवर्ण से समृद्ध राजगृह नाम का नगर है जो नत्र यौवना पृथ्वी की श्री के शेखर सह दिखाई देता है । उक्त नगर में चार द्वार हैं जो चार प्रकार के हैं जिन पर मुक्ताफलों सह श्वेत हंस हैं। करात्र में चायु द्वारा ध्वजा इस प्रकार हिलती है जैसे व्याकाश-सार्य में धारा पड़ रही हो । शुद्ध के अन भाग में बंधे हुए देवल शिखर ऐसे बजते हैं जैसे पारावत गंभीर शब्द कर रहे हो । मद-विह्वल गजराजों पर जैसे घूँ बते हैं, चंचल तुरंगों पर जैसे उड़ते हैं । (वातायें) चन्द्रकान्त मणि सदृश जल में स्नान करती हैं और दैदीप्यमान मेखलायें धारण किये हुए प्रणाम करती हैं। अपने गिरे हुए नूपुरों को उठाते समय उनके युगल कुंडल हिलने लगते हैं । सर्वजनोत्सव में इस प्रकार की खिलखिलाहट हो रही है मानों मृदंग और मेरी के स्वरों का गर्जन हो रहा हो । नूर्च्छना और बालाप सहित गान हो रहे हैं मानो धन, धर्म और सुवर्ण को पूर्णता प्राप्त हो रही हो' :

ताहि पट्टखु णामे रायगिहु, धरा-कराय समिद्धउ ।
णं पुऍ एव-जोन्वणाइ, सिरि-सेहरु श्राइड ॥ ४
चउ गोरु-त्ति पावार वन्तु । हँस इव सुत्ताहल धवल दन्तु ।
सच्चई' व मरुद्धय-य-करा । घर इव विडंतउ गयण - सग्गु ।
सुलग्ग-भिराशु देउल-सिहरु । कण इब पराबय-तद्द-गहिर ।
धुम्म' व एहिं नयभिभतेहि । उड्डह' व तुरंगहि चंचलेहि ।
ग्रहाइ' व ससिकंत-जलोयरेहिं । पणवह' व तार-मेहल-हरेहि ।
पक्खतइ' व नेउर- सिय-लएहि । विष्फुरद्द' व कुंडल-युगल एहि ।
किलकिलइ'ब' सब-जयोच्छवेश । गज्जर इव मुख-मेरी रवेण ।
गावइ' व अलावा-मुच्छरोहि । पुरवई' व वस्तु पण-केचरोहि ।। १/५४-५

जयानक के 'पृथ्वीराज विजय' सर्ग ५ तथा 'प्रभावक चरित' (हेमचन्द्र सूरि प्रबंध) में अजमेर नगर का वर्णन प्रष्टव्य है ।

अध्वर ( यज्ञ ) --

रासो- काल तक यज्ञों की परम्परा समाप्त हो गई थी यही कारण है कि कान्यकुब्जेश्वर जयचन्द्र को राजसूय यज्ञ करने का समर्थन नहीं प्राप्त हुआ । पूर्व काल में अपना चक्रवर्तित्व स्थापित करके उक्त यज्ञ का विधान किया जाता था जिसका छोटे से लेकर बड़ा कार्य राजागण ही करते थे । गुजरात के चालुक्य और दिल्ली अजमेर के चौहान जयचन्द्र के प्रबल प्रति- स्पर्द्धा थे अस्तु ऐसी स्थिति में 'दलपंग' का राजसूय यज्ञ ठानना अनुचित ही था । फिर भी यज्ञ प्रारम्भ हुआ और पृथ्वीराज को उसमें द्वारपाल पद पर कार्य करने के हेतु दूतों द्वारा आमंत्रित किया गया :

छिति छत्र बंध आए सु सब्ब । तुम चलहु बेगि नह बिरम अन्न ।।
फुरमान दोन चहुबान तोहि । कर छरिय दावि दरवान होहि ॥ ५४,

यह सुनकर दिल्ली-राज के सामंत गोयंदराज गौरक्षा ने सतयुग, त्रेता और द्वापर के यज्ञों का उल्लेख करते हुए कहा कि--

जानौब तुम्ह पत्री न कोई । निरबीर पहुमि कहूँ न होइ ॥ ५८,

और फिर स्पष्ट कह डाला कि पृथ्वीराज का जीवन रहते हुए यज्ञ नहीं हो सकता ( छं० ८-६० )।

दिल्ली का समाचार जानकर कन्नौज में यज्ञ मण्डप के बाहर पृथ्वी-राज की सुवर्ण-प्रतिमा द्वारपाल के स्थान पर स्थापित करने का निश्चय हो गया :

सोवन प्रतिम प्रथिराज जानि । थप्पियै पवरि दरबार बानि ॥ ७०;

यह सुनकर पृथ्वीराज ने यज्ञ विध्वंस करने का निश्चय किया ---

मो उम्मे पहुषंग । जय मंडै अबुद्धि कर ।।
जो भंजौं दह जग्य । देव विध्वंसि धुम पारि ।।
कच करवत पावान । हथ्थ छुट्टै बर भग्गै ।।
प्रजा पंग आरही । बहुरि हथ्था नन लग्गे ।।
प्रथिराज राज हंकारि वर । मत सामंत सु मंडि घर ।।
कैमास वीर गुज्जर ठिल । करौ सूर एकठ्ठ बर ।।१०५;

सामंतों से मंत्रणा करके यह सम्मति हुई कि जयचन्द्र के भाई बालुकाराय पर आक्रमण करके उसे मारा जाय ( छं० १०६ ८, १२१-२२ ) । इस विचार के फलस्वरूप चढ़ाई हुई और युद्ध ( छं० १५२-२२८८ ) में बालुकाराय वीरता-पूर्वक लड़ता हुआ मारा गया :

भगी फौज कमज्ज सा छडि पंतं । हन्यौ बालुकाराइ देयौ समभ्यं ॥
२२८० स० ४८

जयचन्द्र ने यह समाचार पाकर, यज्ञ का विनाश समझकर, पृथ्वीराज को बाँधने तथा चित्र गपति रावल समरसिंह के साथ उन्हें कोल्हू में पेर : डालने की प्रतिज्ञा की :

बंधों सु चंपि अब चाहुश्रान । विग्गरथौ अग्य निहचे प्रमान ।। २४,
आहुराज प्रथिराज साहि । पीलों जु तेल जिस तिल प्रवाहि ।। २४,स०४९

रण--

युद्धों से ओत-प्रोत इस काव्य में रण- प्रांगण के कुशल और प्रभावोत्पादक वर्णन देखने को मिलते हैं और कवि हृदय समर्थित ये स्थल भय की प्रतीति नहीं करते वरन् श्राह्नान का मंत्र देते हैं जहाँ 'बधावधी निज त्रावण' ( सूर्यमल्ल ) की सिद्धि प्रत्यक्ष करते हुए संग्राम-साधकों की प्रोजस्विनी ललकार सुनाई देती है । एक स्थल देखिये :

मेछ हिंदू जुद्ध घरहरि । घाइ घाइ अघाय घर रुड मुंडन एंड पर हरि ।।
रूड मुंडन षंड षर हर । मत्त बहुत सुरत भाग काइर जूह भीरन ।। ७९
भग्ग काइर जूह भीरन । छंडि जल सूरिज्ज धीरन ।।
रूडचढ्ढि रचि थरहरि । रक्त जुग्गनि पत्र पिय भरि ।।८०

भर तोअर अभिरत । धरत कर कुंत जंत अरि ।।
गजन बाज घर ढारि । धरनि वर रत जुध्य परि ।।
भग्गि भीर काइर कनक । हिय पत मुच्छि द्रढ ।।
भग्यि सेन सुरतान । दिष्षि भर सुभर पानि कढ़ ।।
उम्मारि सिंग कुंभन छरिय । झरिय श्रोन मद गज ढरिय ।।
हर हरषि हरषि जुग्गनि सकल । जै जै जै सुर उच्चारय ।। ११८,स०३७

प्रयाग ( यात्रा )--

रासो में विवाह, रण और मृगया ये ही तीन यात्राओं के प्रकार हैं । आबूराज की कुमारी इंच्छिनी से परिणय हेतु पृथ्वीराज की विवाह यात्रा देखिये :

चढि चल्यौ राज प्रथिराज राज । रति भवन गवन मनमथ्य साज ।।
सिर पहुप पटल बहुसा प्रवास । अवलंब रहिय व्यक्ति सुर सुरास ।।
मुष सोभ जलज केंद्र किसोर । दीजै सु आज अप कौन जोर ।।
चिति काम बीर रजि अंग और । संकरथौ जान मनमथ्य जोर ।।
जिम जिमति ज्ञाज र चढत दीह । लज्जा सुजांनि संकलिय सीह ।।
जिम-जिम सुनंत त्रप श्रवन वन्त । तिम तिम हुत रस काम रत ।।
मधु मधुर बेन मधुरी कुमारि । रति रचिय जांनि सेंसब सवारि ।। १८, स० १४

सुलतान शोरी की सुसज्जित वाहिनी का रण प्रयाण दृष्टव्य होगा जिसके वर्णन के अन्त में कवि कहता है कि पृथ्वीराज चौहान के अतिरिक्त उसका मद कौन चूर्ण कर सकता है :

चढयौ साहि साहाब करि बुद्धि सार्ज । करी पंच फौज सुभं तथ्य राजं ।।
वरं मद्द वारे अकारे गमनं । हलै रत चौंसह वैरत वानं ।। ४०
षरौ फौज में सीस सुविहान छव । तिनं देपते कंपई चित्त सर्व ।।
तहा धारि हथ नारि कनत पच । .................।। ४१
तहां लष्प पाइक पंतां स्पेनं । तहां रव वैरम्प की बनी रेषं ।।
तहां तीन पाहार में मत्त जोर । तिनं गज्जतें मंद मवान सोरं ।। ४२

तहां सत्त उमराव सुरतान जोटं ।
मनो पेपियै मध्य साहाब कोर्ट ।।
इमं सज्ज सुरतान रिन चडि अप्पं ।
बिना राह बहुत को सतप्पं ।। ४३, स० ४३

और साँभर भूमि में पृथ्वीराज की मृगया यात्रा का एक अंश भी देखिये :

चढिय राज प्रथिराज । साज चापेट लिए सजि ।।
सभ्य सुभट सामंत । तंग सेना सु तुच्छ रजि ।।
जाम देव का कन्ह । अतताई निडर गुर ।।
मति मंत्री कैनास । राव चामंड जुझ्झ भर ।।
परमार सिंघ सूरन समय । रघुवंसी राजन सुवर ।।
इतनें सहित भर सेन चलि । उडी रेनु आयास पर ।। ५१
वागुर जाल बयल्ल । हिरन बीते सु स्वान गन ।।
कालबूत म्रग विहंग । विवाह तट्टीय चलत बन ।।
सर नाक बंदूक । हरित जन बसन विरज्जिय ।।
गै जिमि गिरिकरि अन्य । अप्प वन संपति सज्जिय ।।
है भारि भई कानन सकल । मग ग दल संचरिय ।।
पिल्लन सिकार चढिय त्रपति । प्रथियराज महि संभरिय ॥ ५२, स० २५

[उपयुक्त छन्द में 'बंदूक' शब्द उक्त छन्द का परवर्ती प्रक्षेप होना सिद्ध करता हैं ।]

उपयम (विवाह) --

रासो में कई विवाहों का उल्लेख है जिन्हें प्रधानतः दो प्रकारों में रखा जा सकता है । एक तो वे हैं जहाँ नाता-पिता की इच्छा से वर विवाह करने आता है और दूसरे वे जहाँ वर और कन्या परस्पर रूपगुण श्रवण से अनुरक्त हो जाते हैं तथा माता-पिता की इच्छा के विपरीत कन्या द्वारा आमंत्रित वर कर देवालय सदृश संकेत-स्थान से उसका हरण करता है और उसके पक्ष वालों को पराजित करके अपने घर पहुँच जाता है जहाँ विवाह की शेष शास्त्रीय रीतियाँ विधिवत् पूरी कर ली जाती हैं। प्रथम ढंग के विवाहों में कवि ने यदि पुरातन होते हुए भी युगीन संस्कार की नूतन प्रादेशिक विधियों और रीति-रिवाजों पर विस्तृत प्रकाश डालने का अवसर पाया है तो दूसरे में पूर्वराग, मिलन की युक्तियाँ, विप्रलम्भ, विराग, मोह, विस्मय, उद्यम, साहस, धैर्य यादि का चित्रण करने के कारण सरसता और आकर्षण की अपेक्षाकृत अधिकता है तथा उसका चित्त इनके दर्शन में अधिक रमा है। उसने (स० २५, छं० २६८ में ) अपनी सम्मति भी दे दी है कि गन्धर्व विवाह शूर वीर ही करते हैं । इस सम्मति ने रणानुराग में घुले हुए योद्धाओं को वांछित प्रेरणां श्रवश्य पहुँचाई होगी। खेलने वाले रातो के इस प्रकार के परिणय अपनी स्तम्भित करने की क्षमता रखते हैं ।

मंत्र--

मंत्र-तंत्र की कई होड़ें दिखाने वाले इस काव्य में तांत्रिक करानातें और उनकी युक्तियों की चर्चा तो मिलती है परन्तु जिनके कारण सिद्धि सम्पादित हुई वे मंत्र नहीं बताये गये हैं। मंत्रों के स्थान पर स्तुतियाँ मिलती । मंत्रों और स्तुतियों का आशय लगभग एक ही होता है अन्तर यह है कि मंत्र का आकार छोटा और स्तुति का बड़ा होता है ।

(अ) भैरव मंत्र की दीक्षा और उसकी परीक्षा का निम्न प्रसंग देखिये :

धरि कान मंत्र तीन कविय । परसि पात्र अग्गै चलिय ।।
करबे सुपरिष्षा मंत्र की । रचि आसन अग्गै बलिय ।। २६...
फुनि मंत्रह भैरव जयत । डक्कु गरज्जिय आभ ।। ३०...
गैन गहर गंभीर धुनि । सुनि ससंक भय गात ।।
श्रानन अग गअ गंज हुआ । जानि उलक्का पात ।।३१,स०६

(ब) राजनी दरबार के कवि दुर्गा केदार भट्ट के साथ मंत्र-तंत्र की होड़ में कवि चंद द्वारा देवी सरस्वती की मंत्र रूप में स्तुति इस प्रकार है :

सेत चीर सरीर नीर सुचितं स्वेतं सुभं निर्मलं ।
स्वेतं सति सुभाव स्वेत समितं हंसा रसा आसनं ।
बाला जागुन वृद्धि मौर सुभितं त्रिमे सुभं भासितं ।
लंबोजा चिराय चंद्र वदनी दुर्गं नमो निश्चितं ॥ १०८, स०५८

पुत्र--

पृथ्वीराज के गर्भ- स्थिति होने और उनके जन्म उत्सव तथा दान आदि का वर्णन कवि ने 'प्रथम समय' में इस प्रकार किया है : "( दिल्लीश्वर अनंगपाल तोमर की कन्या कमला और अजमेर नरेश सोमेश्वर के विवाह के ) कुछ दिनों बाद रानी को गर्भ रहा जिसकी कला भाद्र मास में मेघों का दल, शुक्ल पक्ष प्रतिदिन उसी प्रकार बढ़ी जैसे में चन्द्रकला अथवा प्रियतम से मिलन पर प्रति क्षण सुग्धा सुन्दरी का यौन बढ़ता है । शुभ गर्भं शरीर में उसी प्रकार बढ़ा जैसे पूर्णिमा में सागर बढ़ता है। गर्भिणी पर जैसे-जैसे ज्योति चढ़ती जाती थी वैसे-वैसे ही पति और पत्नी के हृदय हुलसित हो रहे थे । अनंगपाल तोमर की पुत्री और सोमेश्वर की गृहिणी ने क्षत्रियों के दानव कुल वाले पृथ्वीराज को धारण किया। गंधपुर में ढूंढा के वरदान से सोमेश्वर के प्रथम पुत्र का जन्म स्मरण कर गन्धर्वों ने पुष्पांजलि डाली, ब्राह्मणों ने मंत्रोच्चारण किया, सिद्धों ने अर्द्ध रात्रि में बालक का सिर स्पर्श किया और आकाश में घनघोर शब्द 'उसके जीवन में युद्ध और विजय का घोष किया । एक सौ सूरमा भी साथ ही आये तथा चंद भट्ट कीर्ति कथन हेतु जन्मा....। ३ तपस्विनी वाला का श्राप वीसलदेव ने सिर पर धारण किया और तीन सौ वर्ष तक दिल्ली के समीप की गुफा में समाधि लगाई....; जिस दिन पृथ्वीराज ने जन्म लिया उस दिन अनंत दान दिये गये तथा कन्नौज, ग़ज़नी और हलवाड़ा पट्टन में रणचंडी किलकिला उठी । जिस दिन पृथ्वीराज का जन्म हुआ कन्नौज में बात फैल गई, गज्जनपुर भंग हो गया, मृत्यु ने भरपेट भोजन किया, पृथ्वी का भार उतर कीर्ति प्रशस्त हो गई ।" पृथ्वीपति अनंगपाल ने ज्योतिषी व्यास को अपनी पुत्री के पुत्र की जन्म लग्न पर विचारार्थं बुलाया | उसने कहा कि ( बालक ) चारों चक्रों ( दिशाओं ) में अपना नाम चलायेगा....कलिकाल में यह अनेक युद्ध करने वाला सौ भृत्यों सहित दैत्यों ( म्लेच्छों ) से भिड़ेगा । दिल्ली के कारण ही यह अपूर्व अवतार ( जन्म ) हुआ है । " पुत्री के पुत्रोत्सव में राजा ने अनेक दान दिये और (सबका ) घना सत्कार किया । घर-घर घमार गाये गये ( ऐसा हर्ष का साम्राज्य बिखर गया मानो सर्प को मणि मिल गई हो । (कन्नौज में जयचन्द्र ) की माता ने अपनी साँभर बाली बहिन के पुत्र का जन्म सुनकर सुवर्ण, व और थाल सहित ब्राह्मण भेजा, परिवार वालों को पहिरावे दिये, ब्राह्मणों


( १ ) छं० ६८४; (२) छं० ६८५; ( ३ ) छं० ६८६; ( ४ ) छं० ६८७ ;(५ )छं० ६८८;(६) छं० ६८९ । को दान दिये तथा सारे कृत्य किये और दस दिन तक अत्यन्त श्रानन्द पूर्वक उत्साह मनाया ।' पुत्र का जन्म सुनकर सोमेश्वर ने हाथी, घोड़ों और वस्त्रों द्वारा धावा दिया तथा उत्साह और ग्रानन्द से पूर्ण होने के कारण राजा के मुख की कान्ति बढ़ गई। तदुपरान्त उन्होंने लोहाना और चंद को बुलाकर ननिहाल से इन्द्र को अजमेर लाने के लिये कहा । फिर नरेश ( स्वयं ) उत्साहपूर्वक सहस्त्रों हाथी, घोड़े, सुभट और सौ दासियों सहित ( पुत्र को लेकर ) अजमेर चले ४ विक्रम के १११५ श्रानन्द शाका में शत्रुओं को जीतने वाले और उनके पुरों का हरण करने वाले नरेन्द्र पृथ्वीराज उत्पन्न हुए।" महाबाहु सोमेश्वर के पूर्व जन्म की तपस्या के गुण से और उनके पुण्य के कारण जगत् विजयी पृथ्वीराज का जन्म हुआ । अनंगपाल की पुत्री ने पुत्र का प्रसव किया मानो घनी मेघमाला में दामिनी दमक उठी । राव ने सोमेश्वर को बधाई दी जिन्हें एक सहस्र सुवर्ण मुद्रायें और एक ग्रश्व दिये जाने की यात्रा हुई । एक ग्राम, एक घोड़ा और एक हाथी उन्होंने अपने परिग्रह ( में प्रत्येक ) को देकर प्रसन्न किया, दरबार में नगाड़ों का तुमुल नाद होता था मानो बादलों का गर्जन हो अथवा समुद्र में उत्ताल तरंगों का शब्द हो । पुत्र को पधराकर राजा ने उसका मुख देखा और उसे अपने पूर्व कर्मों का फल जाना । विद्वान् ब्राह्मणों की सहायता से शिशु के वेदोक्त और शास्त्रोक्त जात-कर्म किये । मंगलाचरण करके नृत्य प्रारम्भ हुए जिनमें अप्सराओं सदृश आलाप ने देवलोक की अनुभूति कराई "--

अनस पुत्र पुत्र जन्म । बिज्जल चमंकि अनु मेघ धन्म ।।
बाइ राव सोमेस दीन । इक सहस हेम हय हुकम कीन ।। ६९७
दिय ग्राम एक हय इक हथ्य । परिग्रह प्रसाद सह कीन तथ्य ।।
नीसांन बाजि दरबार जोर। धन गञ्ज जान दरिया हिलोर ।। ६९८
पराइ राइ मुत्र दरस कीन । क्रित क्रम्म पुब्ब फल मान लीन ।।
करि जात क्रम्म मति ग्रंथ सोधि । वेदोक्त विप्प वर बुद्धि बोधि ।। ६९९ मंगल उच्चार करि नृत्य गान । अछ छरि अलाप सुर भुवन जान ।। ७००


( १ ) छं० ६९० : ( २ ) छं० ६९१; ( ३ ) छं० ६९२; ( ४ ) छं० ६९३ (५) छं० ६९४; ( ६ ) छं० ६९६ ।

टिप्पणी-- इछं० ६९२ प्रदिम है क्योंकि चंद ने अपना जन्म पृथ्वीराज के साथ ही लिखा है । उक्त वक्तव्य के आधार पर उसका नवजात पृथ्वीराज को लेने जाना असम्भव है । इसके बाद पृथ्वीराज के जन्मोत्तर गुणों का उल्लेख किया गया हैं जिसे सुनकर सोमेश्वर हर्षित और शोकाकुल हुए । तदुपरान्त उनके जन्मकाल के ग्रहों की स्थिति और जन्मपत्र का फल वर्णन करके फिर उत्सव का प्रसंग है जिसके अंत में दरवार की अवर्णनीय भीड़, सुगन्धित द्रव्यों की वास से नासिका के अधाने और मानों यदुवंश में यदुनाथ का जन्म हुआ हो यह जानकर क्षत्रियों के छत्तीस वंशों के मुखों के विकसित होने का विवरण है--

दरबार भीर बरनी न जाइ । सुगंध वास नासा अवाइ ।।
विगसंत वदन छत्तीस वंस । जदुनाथ जन्म जनु जदुन वंस ।। ७१५

उदय (अभ्युदय ) --

अनेक युद्धों के विजेता, जयचन्द्र, भीमदेव और शहाबुद्दीन सदृश युगीन महान प्रतिद्वन्दियों को परास्त करने वाले दिल्लीश्वर पृथ्वीराज के जीवन का चित्रण करने वाले इस इतिहास और कल्पना मिश्रित काव्य में उनका उत्तरोत्तर अभ्युदय दिखाते हुए, अन्तिम युद्ध में उनके वन्दी होने तथा नेत्र विहीन किये जाने पर भी शत्रु बदला लेने की चर्चा करके रासोकार ने 'यतो धर्मस्ततो जयः' के अनुसार अपने युद्ध और दया वीर नायक का पक्ष उठाया है ।

नयन बिना नरघात । कहो ऐसी कहु किद्धी ।।
हिंदू तुरक अनेक । हुए पै सिद्ध न सिद्धी ।।
धनि साहस पनि हथ्थ । धनि जस बासन पायौ ।।
ज्यों तरू छुट्टे पत्र । उडै अप सतियौ शायौ ।।
दिव्यै सु सथ्यौथ साह कौं । मनु नलिन नम तें टरयौ ।।
गोरी नरिद कवि चंद कहि । सय वरपर हम परयौ ।। ५६५ स०६७

( १३ ) कवि चंद ने अपने काव्य का नाम चरित्र के नाम से रखा हैं और आद्योपान्त पृथ्वीराज का चरित्र वर्णन होने के कारण उसको 'पृथ्वीराज रासो' नाम दिया है ।

'रासो' शब्द के विविध अर्थ विद्वानों द्वारा लगाये गये हैं । कविराजा श्यामलदान 'रहस्य' शब्द से इसकी व्युत्पत्ति मानते थे और डॉ० काशी- प्रसाद जायसवाल का भी ऐसा ही अनुमान था । फ्रांसीसी विद्वान् गार्सा


( १ ) पृथ्वीराज रहस्य की नवीनता; ( २ ) प्रिलिमिनरी रिपोर्ट ग्रॉन ऑपरेशन इन सर्च व वार्डिक कानिकल्न, पृ० २५, फुट लोट । द तासी ने 'राजसूय' शब्द से निष्पत्ति बतलाई । पं० मोहनलाल विष्णु- लाल पांड्या के अनुसार -- "रासो शब्द संस्कृत के रास अथवा राम्रक से हैं और संस्कृत भाषा में रास के 'शब्द, ध्वनि, क्रीड़ा, श्रृंखला, विलास, गर्जन, हृत्य और कोलाहल यादि के अर्थ और रासक के काव्य अथवा दृश्य काव्यादि के अर्थ परम प्रसिद्ध हैं। मालूम होता है कि अंधकार ने संस्कृत भारत शब्द के श रासो शब्द को भावार्थ से महाकाव्य के अर्थ में ग्रहण कर प्रयोग किया है। यह रासो शब्द आजकल की भाषा में भी चलित नहीं है किन्तु अन्वेषण करने से वह काव्य के अर्थ के अतिरिक्त अन्य अनेक अर्थों में प्रयोग होता ना विद्वानों को दृष्टि प्रावेगा, जैसे- 'हमने चौदे के गदर को एक रासी जोड्यो है। कल बहादुर सिंह जी की बैठक में वर ने गदर की रासो गावो हो, फिर मैंने भरतपुर के सूरजमल को रासो गायो सो सब देखते ही रह गये । श्रजी ये कहा रासो है। मैं तो कहल एक रासो में फँस गयौ या तू तुमारे यहाँ नावाव क्यों । श्री राम गोपाल व दिवारिया हैं, बाके ससे में फँस के रुपैया मत बिगाड दीजो । हमने आज विन की रासो निपटाय दीनों है। देखो सब रासो के संग रासो है, करती हैं---

गीत ।। मत काचो तोन्ह राखियो घानी
पान्ह करूँगी अँत रासा
गुर राख, पकावा, सत काचा । इत्यादि ।। १ ।।
जिव लोगन को रास उठेगी तौन्ह के खाक उठावेगा,
हल जोत नहीं पछतायेगा । इत्यादि ।। २ ।।"

बनारस के पं० विन्धेश्वरीप्रसाद दुबे ने 'राजयश:' शब्द से 'रासो' को निकला हुआ माना । प्राकृत में ज के स्थान पर य हो जाता है जिससे 'राय यशः ' हुआ और इससे उनके अनुसार कालान्तर में 'रावसा' बन गया । म० म० डॉ० हर प्रसाद शास्त्री का कथन है कि राजस्थान के भाट, चारण श्रादि रासा ( = क्रीड़ा ) या रासा ( = झगड़ा ) शब्द से 'रासो' शब्द का विकास बतलाते हैं । राजपूताना में बड़ा झगड़ा राता कहलाता है, और


( १ ) इस्स्वार द का लितेराव्थूर ऐंदूई ऐ ऐंदुस्तानी, प्रथम भाग, पृ०; ( २ ) पृथ्वीराज रासो, ( नागरी प्रचारिणी सभा ), उपसंहारिणी टिप्पणी, पृ० १६३-६४; (३) वही, प्रिलिमिनरी रिपोर्ट, पृ० २५ । भी जब कोई एक बात पर अधिक वार्तालाप करता है तो कहा जाता है---' क्या रासा करते हो' । जैनों ने अनेक 'सा' ग्रंथों की रचना की है। इतना कहकर शास्त्री जी का निष्कर्ष है कि 'पृथ्वीराज रासा' का अर्थ होगा पृथ्वीराज की क्रीड़ायें या साहसिक कार्य । पं० रामचन्द्र शुक्ल ने दोसल देव रासो में कई बार प्रयुक्त हुए 'रसायण' शब्द को 'रासो' शब्द का मूल माना है और प्रो० ललिता प्रसाद सुकुल विविध प्रधान रसों की निष्पति सूचक 'रसायण' (अर्थात् रस का प्रयन ) शब्द द्वारा विकसित 'दासी' शब्द को रासो साहित्य की भरपूर सार्थकता सिद्ध करने वाला मानते हैं। डॉ० दशरथ शर्मा ने सिद्ध किया है कि रासो प्रधानतः गान-युक्त नृत्य- विशेष से क्रमशः विकसित होते-होते उपरूपक और फिर उपरूपक से वीर रस के द्यात्मक प्रबन्धों में परिणत हो गया ।

(१४) शत्रु दल का दलन करने वाले, विग्रहराज चतुर्थ उपनाम बीसलदेव की मृत्यु के उपरान्त ढुंढा दानव की ज्योति से जन्म पाने वाले सोमेश्वर के पुत्र वज्रांग बाहु पृथ्वीराज को कीर्ति चंद ने रासो में वर्णन की क्योंकि पृथ्वीपति पृथ्वीराज क्षत्रियों के छत्तीसों कुलों द्वारा सम्मानित हैं, न से शिख तक परमित तेज वाले तथा राज्योचित बत्तीस गुणों से युक्त हैं--

प्रिथ्थिराज पति प्रिथ्यपति । सिर मनि कुस्ती छत्तीस ।।
नव सिष पर मित लस तजै । ते गुन बरनि बतौस ।। ७५८, स० १

इस यशस्वी सम्राट की कीर्ति अमर करना उसके दरबारी कवि के लिये स्वामि धर्म तो था ही परन्तु एक रात्रि को रस में आकर उसकी पत्नी ने दिल्लीश्वर का यश आदि से अन्त तक वर्णन करने के लिये कहकर --

समयं इक निसि चंदं । वाम वत्त वद्दि रस पाई ।।
दिल्ली ईस गुनेयं । कित्ती कहो आदि अंताई ।। ७६१,०१,

मानों अभिलषित प्रेरणा प्रदान कर दी । यही रासो का आदि पर्व है ।

फिर पत्नी की शंका का समाधान करने के लिये कवि ने दूसरे समय में 'दशावतार की कथा' कही और उसे अनंत कहकर अपने सिर पर चौहान ( से उद्धार ) का भार तथा थोड़ी श्रायु का उल्लेख किया--


( १ ) वही, प्रिलिमिनरी रिपोर्ट, पृ० २५; ( २ ) हिंदी साहित्य का इतिहास, सं० २००३ वि०, पृ० ३२ ; ( ३ ) साहित्य जिज्ञासा, पृ० १२७; ( ४ ) राम्रो के अर्थ का कमिक विकास, साहित्य सन्देश, जुलाई १९५१ १० ।

राम किसन कित्ती सरस । कहत लगे बहु बार ।।
कुछ कविचंद की । सिर चहुचाना भार ।। छं०५८५,स०२,

और तीसरी 'दिल्ली किल्ली कथा' में योगिनिपुर के राजा अनंगपाल तोमर द्वारा वहाँ पृथ्वी में अभिमंत्रित कील गाढ़ने, उखाड़ने और फिर गाड़ने पर उसके ढीले रहने के कारण 'दिल्ली' ( दिल्ली) नाम पड़ने का हाल कहकर उनके द्वारा अपने दौहित पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली-राज्य दान करने के विचार का वृत्तान्त दिया। चौथे 'लोहाना श्राजानुबाहु समय' में लोहाना आजानुबाहु नामक सामंत के साहस के फलस्वरूप पृथ्वीराज द्वारा विपक्षी के ओरछागढ़ का उसे पुरस्कार देना और उसका युद्ध करके उस पर अधिकार कर लेने का वर्णन है । पाँचवें 'कन्ह पट्टी समय' में पृथ्वीराज के श्राश्रित चालुक्य नरेश भोलाराम के सात चचेरे भाइयों को दरबार में मूँछ ऐंठने के अपराध पर कह चौहान का युद्ध में सब को मार डालने और अन्त में दण्ड- स्वरूप अपनी आँखों पर सोने की पट्टी चढ़वाने का प्रसंग है। छठवें 'आपेटक वीर बरदान समय में वन में मृगया-रत पृथ्वीराज का चंद की कृपा से बावन 'वीरों' को सिद्ध करने का हाल है। सातवें 'नाहरराय समय' में मंडोवर के शासक नाहरराय द्वारा अपनी कन्या पृथ्वीराज को व्याहने का वचन पलटने के परिणामस्वरूप युद्ध तथा चौहान का विजय प्राप्त करके इंच्छिनी से विवाह करने का विवरण है। आठवीं 'मेवाती मुगल कथा' में मेवात के राजा मुगल ( मुद्गलराव ) से सोमेश्वर द्वारा कर माँगने पर युद्ध और उनकी विजय का वृत्त है। नवीं 'हुसेन कथा' में गुज़नी के शाह शहाबुद्दीन और उसके चचेरे भाई मीरहुसेन का दरबार की चित्ररेखा नामक सुन्दरी वेश्या से प्रेम, शाह के मना करने पर भी हुसेन की अवज्ञा के कारण उसका देश- निर्वासित हो पृथ्वीराज के शरणार्थी होकर गोरी के आक्रमण में शौर्य दिखाकर मारे जाने और चित्ररेखा का जीवित ही उसकी कब्र में बंद हो जाने तथा बंदी गोरी का सन्धि के बाद हुसेन के पुत्र ग़ाज़ी के साथ ग़ज़नी लौटने का वर्णन है। दसवें 'आपेटक चूक वर्णनं' में अपना बैर सुनाने के लिये श्राखेट में संलग्न पृथ्वीराज पर गोरी द्वारा आक्रमण परन्तु युद्ध में उसके हारकर भाग खड़े होने का वृत्तान्त है । ग्यारहवें 'चित्ररेखा समयौ' में गोरी-द्वारा आरब ख़ाँ पर श्राक्रमण परन्तु सुन्दरी चित्ररेखा को प्राप्त करने पर सन्धि करने और सर्वथा उसके वशीभूत होने का आख्यान है । बारहवें 'भोताराय भीमदेव समय' में सुलतान गोरी की भीमदेव पर चढ़ाई का समाचार पाकर पृथ्वीराज का अपने दोनों शत्रुओं से लड़ने के लिये सन्नद्ध होने और भोलाराम की पराजय की वार्ता है । तेरहवे 'सलए जुद्ध समयो' में गोरी के आक्रमण, पृथ्वीराज द्वारा उसका मोर्चा रोकने,सलखराज प्रमार की वीरता और सुलतान के बंदी होने के उपरान्त युक्त किये जाने की कथा है। चौदहवीं 'इंच्छिनी व्याह कथा' सतख प्रसार की कन्या से पृथ्वीराज का विधिपूर्वक विवाह वर्णन करती है । पन्द्र मुगल परताव' इनको व्याह कर लाते हुए पृथ्वीराज पर मेवात के सुगत राजा द्वारा पूर्व बैर का बदला लेने के लिये आक्रमण परन्तु युद्ध में उसके बन्दी होने का विवरण प्रस्तुत करता है । सोलहवें 'पुंडीर दाहिनी विवाह नाम प्रस्ताव' में चंद पुंडीर की कन्या पुडी दाहिमी से पृथ्वीराज का विवाह दिया गया है ! सत्रहवें 'भूमिमुपन प्रस्ताव' में पृथ्वीराज को देवी वसुंधरा द्वारा खट्टू वन में असंख्य धन गड़े होने की स्वप्न में सूचना की चर्चा है। हारहवें 'दिल्ली दान प्रस्ताव' में अनंगपाल का पृथ्वीराज को अपना दिल्ली-राज्य दान करके तपस्या हेतु बद्रिकाश्रम जाने का समाचार सुनकर सोमेश्वर की प्रसन्नता का उल्लेख है । उन्नीसवीं 'माघी आट कथा' में राजनी दरवार के कवि माधौ भाट का पृथ्वीराज के दिल्ली दरबार में भेद हेतु श्राने और धर्मायन कायस्थ से गुप्त रहस्य प्राप्त करके राजनी भेजने, जिसके फल- स्वरूप गोरी के आक्रमण परन्तु युद्ध में उसके बन्दी होने और एक मास पश्चात् मुक्ति पाने का प्रसंग है। बीसवें 'पदमावती समय' में समुद्र- शिखर गढ़ के यादव राजा विजयपाल की पौत्री पद्मावती का एक शुक द्वारा पृथ्वीराज को रुक्मिणी की भाँति अपना उद्धार करने का संदेश, चौहान द्वारा शिव मंदिर से उसका हरण और युद्ध में विजयी होकर दिल्ली की ओर बढ़ना तथा इसी अवसर पर गौरी का व्याक्रमण, युद्ध और उसके बन्द किये जाने तथा कर देने पर मुक्ति का उल्लेख है । इक्कीसवें प्रिथा ब्याह वर्णन' में चित्तौड़ के रावल समरसिंह का पृथ्वीराज की बहिन पृथा से विवाह दिया है । बाईस 'होली कथा' में होली पर्व मनाये जाने का कारण बताया गया है । तेईसवी 'दीपमालिका कथा' में दीपोत्सव के कारण की चर्चा है। चौबीस 'घन कथा' पृथ्वीराज और रावल समरसिंह का नागौर के खट्टू वन की भूमि में गड़ा धन निकालने जाने का, धर्मायन कायस्थ द्वारा यह ससन्चार पाकर सुलतान गोरी के याक्रमण और युद्ध में पराजित होकर बन्दी होने तथा दिल्ली में कर देकर छुटकारा पाने का और इसके उपरान्त रावल और चौहान के पुनः खट्टू बन जाकर नाना प्रकार के विघ्नों को पार करने का तथा उसका एक भाग अपने सामंतों में वितरित करके क्षेत्र अपने कोष में रखने का वृत्तान्त देती है । पच्चीसवें 'शशिवृता वर्णनं नाम प्रस्ताव' में पृथ्वीराज और शशिता का परस्पर रूप, गुण आदि सुनकर अनुरक्त होने, शशिकता की सगाई कान्यकुब्ज नरेश के भतीजे से निश्चित होने पर उसके द्वारा चुपचाप पृथ्वीराज के पास हंस ( रूपी हृत ) भेजकर अपना हरण करने का मंतव्य देते, चौहान का अपने सात सहस्र कष्ट वेश धारी सैनिकों सहित श्राकर देवगिरि के देवालय से शिव पूजन हेतु श्राई हुई राजकुमारी को लेकर चल देने तथा युद्ध में यादवराज और कमवज्ज की संयुक्त वाहिनी को परास्त करके दिल्ली पहुँच जाने का प्रसंग है । छब्बीसवाँ 'देवगिरि समयौ' जयचन्द्र द्वारा देवगिरि घरे जाने के समाचार पर पृथ्वीराज द्वारा मंडराय और बड़गूजर की अध्यक्षता में सेना भेजने, विकट युद्ध के उपरान्त पंगराज द्वारा मेल का प्रस्ताव करने पर शान्ति स्थापित होने तथा विजयी चामंडराय के दिल्ली लौटने का उल्लेख करता है । सत्ताईसवाँ 'रेवातट समय' पृथ्वीराज को रेवा नदी के तट पर मृगया-हेतु गया जानकर गौरी की चढ़ाई, चौहान का लौटकर युद्ध में उसे बन्दी बनाने तथा एक मास सात दिन के वाद, कर देने पर कारागार से छोड़ने और श्रादर-सत्कार पूर्वक ग़ज़नी भेजने का हाल बताता है ! अट्ठाईसवें अनंगपाल समय' में दिल्ली की प्रजा की पुकार सुनकर बद्रिकाश्रम में अनंगपाल के पृथ्वीराज से दिल्ली-राज्य लौटाने के लिये चढ़ाई में हार कर वापिस याने परन्तु गोरी के साथ फिर आक्रमण करने पर उसके साथ वन्दी किये जाने और पृथ्वीराज द्वारा दस लाख रुपये प्राप्त करके तपस्या के लिये लौटने तथा गोरी के दंड देकर छूटने का प्रसंग है। उन्तीसवें 'वघर की लड़ाई रो प्रस्ताव' में घघर नदी के तट पर साठ सहस्त्र सैनिकों सहित आखेट के लिये गये हुए पृथ्वीराज पर गोरी के आक्रमण, विषम युद्ध में उसके पकडे जाने और भविष्य में विग्रह न करने की कुरान की शपथ खाने पर मुक्ति का उल्लेख है । तीसवें 'करनाटी पात्र समयौ' में देवगिरि के यादवराज सहित पृथ्वीराज का कर्नाटक देश के ऊपर आक्रमण पर वहाँ के राजा द्वारा सुन्दरी कर्नाटकी वेश्या अर्पित करके सन्धि कर लेने और चौहानराज द्वारा उसे अपने महल में रखकर क्रीड़ा करने का वर्णन है । इकतीस 'पीपा युद्ध प्रस्ताव' में सुलतान गोरी से युद्ध करते हुए सामंत पीपा परिहार द्वारा उसके वन्दी किये जाने और पृथ्वीराज द्वारा उसे मुक्त करने


पकड़े जाने और की चर्चा है। बत्तीसवें 'करहे से बुद्ध प्रस्ताव' में मालना में मृगया - रत पृथ्वीराज का उज्जैन के भीम प्रसार को जीतकर उसकी कन्या इन्द्रावती से विवाह के लिये प्रस्तुत होने पर, भीमदेव चालुक्य द्वारा चित्तौर गढ़ धेरे जाने का समाचार पाकर, पज्जूनराय को अपना खड्ग बँधवा कर विवाह के लिये भेजने और स्वयं रावल जी की सहायतार्थं जाकर युद्ध में विजयी होने का वृत्त है। तीसवें 'इन्द्रावती व्याह' में भीमदेव प्रमार का नीरस ह्रदय पृथ्वीराज को अपनी कन्या इन्द्रावती न देने के निश्चय के फलस्वरूप चौहान से युद्ध और उनके विजयी होने पर विवाह का हाल है। चौंतीसवें 'जैतराव जुद्ध सम्यौ' में नीतिराव खत्री द्वारा खट्टु घन में पृथ्वीराज के खेट-मग्न होने का समाचार पाकर गोरी का आक्रमण, युद्ध और उसके वन्दी होकर मुक्त किये जाने का समाचार है । पैंतीसवें 'काँगुरा जुद प्रस्ताव' में काँगड़ा के राजा भान रघुवंशी पर पृथ्वीराज के आक्रमण और युद्ध में उसे परास्त कर उसको कन्या से विवाह की कथा है। छत्तीसवें 'हंसावती विवाह नाम प्रस्ताव' में रणथम्भौर के राजा भन का अपनी कन्या हंसावती से चंदेरी के शासक पंचान का विवाह करने का प्रस्ताव पाने पर उसे ठुकराकर पृथ्वीराज को अपनी सहायता के लिये बुलाने, मंबाइन के गोरी की सहायता सहित या धमकने, पृथ्वीराज के आगमन पर युद्ध में उनकी विजय के बाद हंसावती से उनके विवाह और प्रेम-क्रीड़ा का प्रसंग है। तीस 'पहाड़राय सम्बो' सुलतान गोरी का दिल्ली पर आक्रमण, युद्ध और पहाड़राय तोमर द्वारा उसके पकड़े जाने तथा दंड-स्वरूप कर देकर छूटने का ब्यौरा देता है । अडतीसवी 'वरुण कथा'एक चन्द्रग्रहण के अवसर पर सोमेश्वर का यमुना में स्नान करते समय वरुण के वीरों से युद्ध में पराजित होकर अपने साथी सामंतों सहित मूर्छित होने और प्रात:काल यह दशा देखकर पृथ्वीराज द्वारा यमुना की स्तुति से सबको चैतन्य करने का उल्लेख करती है। उन्तालीसवें 'सोमबध सम्यौ' में गुर्जरेश्वर भीमदेव चालुक्य के अजमेर के ऊपर आक्रमण पर युद्ध में सोमेश्वर की मृत्यु और उत्तर से लौटकर पृथ्वीराज का यह सुनकर बदला लेने की शपथ और उनकी राजगद्दी का विवरण है । चालिसवें 'पज्जून छोगा नाम प्रस्ताव' में सोनिंगरा दुर्ग में स्थित भीमदेव चालुक्य पर चौहान नरेश के सामंत पज्जनराय का छापा मारकर सकुशल लौटने की वार्ता है। इकतालिसवें 'पज्जून चालुक्य नाम प्रस्ताव' में कमधज्ज की सेना सहित गौरी के दिल्ली आक्रमण और एज्जूनराय की अध्यक्षता में पृथ्वीराज की विजय वर्णित है । बयालिसव "चंद द्वारका समयौ' दिल्ली से कविचंद की द्वारिका तीर्थ-यात्रा और चित्तौड़ में रावल जी से तथा ग्रन्हलवाड़ा में भीमदेव चालुक्य से भेंट करके उसके दिल्ली लौटने का उल्लेख करता है । तैंतालिसवें 'कैमास जुद्ध' में गोरी के आक्रमण का मोर्चा कैमास दाहिम द्वारा लिये जाने, शाह के पराजित होकर वन्दी होने तथा दंड भरने पर पृथ्वीराज द्वारा छोड़े जाने की चर्चा है । चवालिसवें 'भीमवध सम्यो' में अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिये भीमदेव चालुक्य पर पृथ्वीराज की चढ़ाई, युद्ध में चालुक्य की मृत्यु और चौहान द्वारा उसके पुत्र कचराराय का तिलक किये जाने का प्रसंग है । पैंतालिसव 'संयोगिता पूर्व जन्म प्रस्ताव' इन्द्र-प्रेषित मंजुघोषा अप्सरा का सुमंत मुनि का तप भंग करने के लिये आने परन्तु प्रेम-पाश की पूर्ति के काल में अचानक मुनि के पिता जरज ऋषि के आगमन और अप्सरा को पृथ्वी पर जन्म लेने के आप-स्वरूप संयोगिता का अवतरण वर्णन करता है । छियालिसवें 'विनय मंगल नाम प्रस्ताव' में किशोरी राजकुमारी संयोगिता को वृद्धा मदन ब्राह्मणी द्वारा विनय पूर्ण आचर की शिक्षा का उल्लेख है। सैंतालिसवें 'सुक वर्णन' में एक शुक और शुकी का क्रमश: ब्राह्मण और ब्राह्मणी वेश में संयोगिता और पृथ्वीराज को रूप और गुणानुवाद द्वारा परस्पर आकर्षित करने का लेख है । इतालिसवें 'बालुका राय सम्यौ' में जयचन्द्र के राजसूय यज्ञ करने, पृथ्वीराज को उसमें द्वारपाल का कार्यभार ग्रहण करने के लिये बुलाने और उनकी अस्वीकृति पर उनकी सुवर्ण-मूर्ति उक्त स्थान पर खड़े किये जाने तथा इस समाचार को पाकर पृथ्वीराज के रोष युक्त हो कान्यकुब्जेश्वर के भाई बालुकाराय पर चढ़ाई करके उसे मारने तथा उसकी स्त्री का विलाप करते कन्नौज- हुए यज्ञ में जाकर पुकारने का लापन है । उन्चासवें 'पंग जग्य विध्वंसनो नाम प्रस्ताव' में सारी वार्ता सुनकर और अपना यज्ञ विध्वंस हुआ देख जयचन्द्र का पृथ्वीराज पर चढ़ाई करने, संयोगिता की प्रीति दृढतर होने तथा आखेट में संलग्न चौहान का शत्रुत्रों से घिरने पर भी केवल एक सौ सामंतों की सहायता से विजयी होने का हाल है। पचासवें 'संजोगता नाम प्रस्ताव' में संयोगिता का स्वयम्बर करने के विचार से उनका मन पृथ्वीराज की ओर से फेरने के लिये जयचन्द्र द्वारा एक दूत भेजने और राजकुमारी को अपने हठ पर दृढ़ जानकर गंगा तट के एक महल में निवास देने का विवरण है। इक्यावनवें 'हाँसीपुर प्रथम जुद्ध' में मका जाती हुई सुलतान की बेग्रमों को हाँसीगढ़ स्थित पृथ्वीराज के सामंतों और रक्षकों द्वारा लूटने पर शाही सेना के श्राक्रमण परन्तु युद्ध में हारकर भाग खड़े होने का वृतान्त है । बायनवें 'द्वितीय हाँसी युद्ध वर्णन ' में हाँसी में तातार ख़ाँ की पराजय सुनकर सुलतान का स्वयं गढ़ का घेरा डालने और उसके रक्षकों से दुर्ग का अधिकार देने के प्रस्तावस्वरूप विकट संग्राम का प्रारम्भ तथा पृथ्वीराज का स्वम में हाँसी की दुर्दशा देखकर रावल जी को उधर ही बुलाकर स्वयं प्रस्थित होने और यवन-सेना से भिडकर उसे भगाने का हाल है। चौवन 'पज्जून पातसाह जुद नाम प्रस्ताव' में धर्मायन कायस्थ द्वारा पज्जूनराय के महुवा दुर्ग नागौर जाने का समाचार पाकर गोरी शाह का नागौर पर आक्रमण, युद्ध में विषम वीरता प्रदर्शित करके पज्जून का शाह को पकड़ने और पृथ्वीराज द्वारा दंड लेकर उसे छुटकारा देने का कथन है । पचपनवें 'सामंत पंग जुद्ध नाम प्रस्ताव' में जयचन्द्र का रावल जी को अपने पक्ष में करने के प्रयल में असफलता, पृथ्वीराज से नाना का आधा राज्य माँगने पर गोविन्दराय का करारा उत्तर सुनकर दिल्ली राज्य के मुख्य-मुख्य स्थानों को घेरने, श्राखेट के कारण पृथ्वीराज के बाहर होने पर कैमास, कन्ह, अताताई आदि सामंतों के दिल्ली-दुर्ग में कन्नौज की विशाल वाहिनी द्वारा बिरने और युद्ध प्रारम्भ होने पर जयचन्द्र की सेना के ऊपर बाहर से पृथ्वीराज का आक्रमण होने से उसका साहस भंग होकर तितर-बितर हो जाने की चर्चा है । छप्पनवें 'समर पंग जुद्ध नाम प्रस्ताव' में जयचन्द्र द्वारा रावल जी के चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण में, उनका वीरतापूर्वक मोर्चा लेकर विजयी होने का वृत्त है | सतानवें "कैमास वध नाम प्रस्ताव' में चंद पुंडीर द्वारा राजकुमार रैनसी में दुर्भावना-पोषण का संदेह पृथ्वीराज को दिलाकर या मंडराय के बेड़ियाँ डलवाने, दिल्ली-दुर्ग का भार कैमास पर रखकर चौहान के गया हेतु बाहर जाने, इधर कर्नाटकी और कैमास के परस्पर आकर्षित होकर रति-लीन होने का दृश्य महारानी इच्छिनी द्वारा पृथ्वीराज को रातोरात बुलाकर दिखाने के फलस्वरूप उनका शब्द-बेधी-वारा से कैमास को मारकर भूमि में गाड़ने, राजा के वन-शिविर में लौट जाने तथा वन्दिनी कर्नाटकी के निकल भागने और दूसरे दिन दरबार में कैमास की अनुपस्थिति का कारण पूछते हुए चंद की सिद्धि को ललकारने पर रहस्योद्घाटन के फलस्वरूप सामंतों का खिन्न चित होकर अपने-अपने घर जाने और कवि द्वारा भर्त्सना करने तथा बरदायी के अनुरोध पर कैमास का शव उसके परिवार को देने परन्तु अपने को हृद्म वेश में जयचन्द्र का दरबार दिखाने का वचन देने का प्रसंग हैं । अडवन मे 'दुर्गा केदार सन्दय' में राज़नी दरबार के भट्ट दुर्गा केदार और चंद का दिल्ली में वादविवाद में समान सिद्ध होते, धयन कायस्थ द्वारा भेद पाकर गोरी के आक्रमण का समाचार दुर्गा केदार द्वारा भेजे कविदास से पृथ्वीराज को मिल जाने के कारण उनका भी युद्ध हेतु सन्नद्ध हो जाने, तुमुलयुद्ध में श्राजानुबाहु लोहाना द्वारा गोरी को बन्दी बनाने, उसकी सेना के पलायन करने और शाह के दंड अदा करने पर छुटकारा पाने का वृतान्त है । उनसठ 'दिल्ली वर्णन' में दिल्ली दरबार का सौन्दर्य, निगमबोध के उद्यान की शोभा, पृथ्वीराज के सुख्ख सभासदों के नाम, दिल्ली नगर का वर्णन, राजकुमार रैनसी की सवारी और उनके साथी कुमार सामंतों का उल्लेख तथा वसन्तोत्सव का विवरण है । साठवी 'जंगम कथा' में कन्नौज के स्वयम्बर में तीन बार अपनी मूर्ति को संयोगिता द्वारा वरमाला पहिनाने के कारण, उसे गंगातट के महल में निवास देने का वृत्तान्त एक जंगम से सुनकर पृथ्वीराज राजकुमारी के प्रेम से उद्वेलित हो चंद से कन्नौज चलने का आग्रह करते हैं और मृगया के उपरान्त शिव-पूजन करके वे फिर कवि से चलने की चर्चा चलते हैं। इकसठवे 'कनवज्ज समयो' में पृथ्वीराज का है रानियों के साथ षट् ऋतुयें बिताकर सौं सामंतों और ग्यारह सौ रवारों तथा चंद सहित कन्नौज गमन करने, कन्नौज के समीप पहुँचने पर सबका कवि के साथियों के वेश में रूप बदलने, चंद का अपने साथियों समेत राजा जयचन्द्र के दरबार में जाने और उनसे विनोदपूर्ण तथा प्रगल्भ वार्तालाप के उपरान्त सम्मानित होने और चादर-सत्कार से ठहराये जाने, पृथ्वीराज के छद्म वेश का उद्घाटन होने पर कवि का पड़ाव घेरने की जयचन्द्र की आस तथा युद्धारम्भ, इसी समय पृथ्वीराज का गंगा तट के महल से संयोगिता को अपने घोड़े पर बिठाकर अपने दल में श्राने तथा क्रमशः दल-पंग की विशाल वाहिनी से लड़ते भिड़ते दिल्ली की ओर प्रस्थान और सामंतों की अपार हानि सहकर अपने राज्य की सीमा में पहुँचने तब पंगराज का पश्चाताप करते हुए कन्नौज लौट जाने, दिल्ली पहुँचकर संयोगिता और पृथ्वीराज के विधिपूर्वक विवाह में जयचन्द्र द्वारा पुरोहित के हाँथ से बहुत सा दहेज भेजने तथा दम्पति- विलास और सुख का विस्तृत वर्णन है । बासठवें 'शुक चरित्र प्रस्ताव' मैं के प्रत्यक्षदर्शी वाचाल शुक द्वारा संयोगिता का नख-शिख और रति-क्रीड़ा वर्णन, सपत्नी द्वेष से इच्छिनी का संयोगिता के प्रति मनमुटाव और पृथ्वीराज द्वारा उसके निराकारण का उल्लेख है । तिरसटवे आखेट चष श्राप नाम प्रस्ताव' में कन्नौज शुद्ध में अनेक सामंतों के मारे जाने से खिन्न चित्त पृथ्वीराज का मन बहलाने के लिये रानियों सहित वन-यात्रा तथा बहाँ भोज और मृगया का रस लेने, लौटते समय एक गुफा में सिंह के भ्रम से कराने पर उससे एक क्रोधित सुनि का निकल कर पृथ्वीराज को शत्रु द्वारा चन्तु विहीन किये जाने का श्राप देने, जिसे सुनकर सबके दुखी होने और संयोगिता के विशेष पश्चाताप करने तथा दिल्ली पहुँचकर दान दिये जाने और राजा का अन्तरङ्ग महलों में निवास करने का प्रसंग है। चौंसठवें 'धीर पुंडीर नाम प्रस्ताव' में पृथ्वीराज का कन्नौज से भाग याने का पछतावा और सामंतों के बलाबल की परीक्षा के लिये जैत खम्भ का निर्माण, जिसका चंद पुंडीर के पुत्र वीर पुंडीर द्वारा किये जाने पर उसका सम्मान और जागीर प्रदान, अपने को पकड़ने की धीर की प्रतिज्ञा सुनकर गोरी का उसे पकड़ने के लिये राक्खरों को नियुक्ति, जालंधरी देवी के पूजन हेतु जाते हुए धीर को बन्दी करके गोरी के सम्मुख लाये जाने पर उसका बल, धैर्य और साहस देखकर सुलतान का उसे फिर अपने को पकड़ने की बात निर्भयता से कहने पर उसे मुक्त करके एक अवसर देने और उसके जाने के बाद ही पृथ्वी- राज पर चढ़ाई कर देने, बचन के पक्के धीर द्वारा शाह को बन्दी बनाने तथा जल खवास की प्रार्थना पर पृथ्वीराज द्वारा कर लेकर सुलतान की मुक्ति, जैतरा और चमंडराय के भड़काने पर धीर का निर्वासन तथा गौरी द्वारा समात हो ढिल्ला नामक स्थान पर निवास प्राप्त करने और पृथ्वीराज के उसे वापिस बुलाने पर घोड़ों के सौदागरों के साथ गोरी के सैनिकों द्वारा उसका छलपूर्वक वध करने, इस समाचार से पुंडीर वीरों सहित पावस पुंडीर का आक्रमण और मुस्लिम दल की भगदंड तथा राज्य कार्य त्यागकर संयोगिता के साथ पृथ्वीराज के रस-विलास का विवरण है । पैंसठयाँ 'विवाह सम्बो' पृथ्वीराज की रानियों के नाम और उनसे विवाह - काल में राजा की आयु की सूचना देता है। छाछठवें 'घड़ी लड़ाई रो प्रस्ताव' में रावलजी का चित्तौड़ से दिल्ली आगमन परन्तु संयोगिता के राग में रँगे पृथ्वीराज से इक्कीस दिनों तक भेंट न हो सकने, दिल्ली-राज्य की अव्यवस्था, दुर्बलता और क्षीण शासन का भेद नीतिराव खत्री से पाकर शोरी का प्रबल प्राक्रमण, प्रजाजन, गुरुराम और चंद का बड़ी कठिनता से रंग महल में रमे पृथ्वीराज तक इस अभियान की सूचना, राजा का श्रृंगार से वीर रस में परिवर्तित होना और बाहर रावल जी से क्षमा याचना करके शत्रु से लोहा लेने के लिए शक्तिसंगठन, चामंडराय की बेड़ियाँ काटी जाने, काँगड़ा के हाहुलीराव हमीर को मनाकर अपने पक्ष में लाने वाले चंद का छल पूर्वक देवी के मन्दिर में बन्दी किये जाने और हमीर के शाह के पक्ष में जाने का समाचार पाकर पृथ्वीराज द्वारा प्रेषित पावस पुंडीर का हमीर के निकल भागने परन्तु उसके दल का सफाया कर डालने, रैन सी को राज्य भार समर्पण, भयंकर युद्ध में पृथ्वीराज के बन्दी होने और हाथी पर राजनी ले जाये जाने, रावल जी तथा अन्य सामंतों की वीरगति, संयोगिता का प्राण त्याग, वीरभद्र की कृपा से चंद्र का देवी के मन्दिर से उदार, दिल्ली में क्षत्राणियों का चितारोहण, पृथ्वीराज का हुजाब खाँ की प्रेरणा से चतु विहीन किये जाने, नेत्र-हीन महाराज का पश्चाताप और वीरभद्र द्वारा शोकाकुल राजकवि को प्रबोध का चित्रण है । सरसठवें 'वान बेध प्रस्ताव' में दुखी कवि का दिल्ली पहुँचकर ढाई सास में 'पृथ्वीराज-'रासो' का प्रणयन कर, उसे अपने श्रेष्ठ पुत्र जल्ह को अर्पित कर, परिवार से विदा लेकर, योगी के वेश में स्वामि धर्म हेतु गज़नी गमन, उपाय विशेष से सुलतान से मिलकर और उसे प्रसन्न करके पृथ्वीराज के शब्द वेधी बाण का कौशल देखने को प्रस्तुत करने, गज़नी दरबार में नेत्र-रहित राजा को सुलतान की बैठक का पता युक्तिपूर्ण वाक्यों द्वारा देकर उनके बाग से सुलतान का वध कराने के उपरान्त अपनी जटाथों में छिपी छुरी राजा को प्राणान्त- हेतु देकर योग द्वारा अपने प्राण त्याग करने का प्रसंग है । अड़सठवें 'राजा रयन सी नाम प्रस्ताव' में दिल्ली में रैन सी की राजगद्दी और गज़नी में शोरी के उत्तराधिकारी की तल्तनशीनी, पंजाब की सीमा स्थित शाही सेना पर रैन सी के आक्रमण और लाहौर में अपने थाने बिठाने के फलस्वरूप मुस्लिम चढ़ाई तथा हिन्दू दल का दिल्ली दुर्ग में रहकर उससे मोर्चा लेने का निश्चय, युद्ध में दुर्ग को दीवाल टूटने पर रैन सी का वीर क्षत्रियों सहित संग्राम में वीर गति प्राप्त करने, दिल्ली के पराभव के बाद कन्नौज पर मुस्लिम अभियान और युद्ध में जयचन्द्र की मृत्यु का वर्णन है। अंतिम 'महोबा समयो' में समुद्रशिखर-गढ़ ले पद्मावती का हरण करके श्राते हुए पृथ्वीराज पर गोरी का आक्रमण और युद्ध में उसके वन्दी किये जाने तथा चौहान के कुछ सैनिकों का भूल से महोबा के राज उद्यान में ठहरने और वहाँ के माली से बतनड़ होने पर उसे मार डालने के फलस्वरूप राजा परमाल की आज्ञा से इन सबके मारे जाने, पृथ्वीराज की महोबा पर चढ़ाई और महान युद्ध में आल्हा ऊदल सरीखे योद्धाओं की मृत्यु के बाद महोबा- पतन तथा पज्जनराय को वहाँ का अधिपति नियुक्त किये जाने का वृत्तन्त है । [ वस्तुतः इस 'समय' की चटना बीसवें 'पदमावती समय' के बाद की है परन्तु भाषा में अपेक्षकृत आधुनिकता का पुट अधिक होने के कारण इसका अधिकांश अंश प्रति है । वैसे महोबा के शासक परमर्दिदेव उपन्नम परमाल पर पृथ्वीराज का आक्रमण और युद्ध में विजय शिलालेख द्वारा सिद्ध ऐतिहासिक वार्ता है । ]

अतएव रासो के सम्पूर्ण प्रस्तावों के नामों और उनमें वर्णित विविध की यह विस्तृत विवेचना सिद्ध करती है कि इसमें 'सर्ग की वर्णनीय कथा से सर्ग के नाम' बाला नियम पूरा-पूरा लग जाता है।

महाकाव्य की कसौटी पर रासो का अनुशीलन और परिशीलन करने के उपरान्त हम इस योग्य हो गये हैं कि उस पर अपना निश्चित मत दे सकें। इसमें सर्पों का निबंधन है परन्तु किंचित् शिथिलता के साथ, पृथ्वीराज चौहान इसके धीरोदात्त नायक वीर इसका प्रधान रस है, नाटक की सन्धियों इसके कई प्रस्तावों में पृथक रूप से सन्निविष्ट देखी जा सकती हैं, इसकी कथा ऐतिहासिक है जिस पर कल्पना का प्रचुर पुट भी दिया गया है, ( धर्म पूर्वक ) कर्म ही इसका फल है (जो मुक्तिदाता सिद्ध किया गया है), इसका व्यारम्भ देवताओं को नमस्कार और वर्य वस्तु का निर्देश करके होता है, इसमें दलों की निन्दा और सजनों का गुणातुवाद वर्तमान है, इसमें ६९ समय ( सर्ग ) हैं जो बाठ के आठ रुने से भी अधिक हैं, इसके प्रस्तावों ( सर्गों ) में अनेक छन्द मिलते हैं जिनके क्रम में किसी नियम विशेष का पालन नहीं देखा जाता परन्तु वे कथा की गति में बाधा नहीं डालने वरन् उन्हें साधक ही कहा जा सकता है, इसके सर्गों के अन्त में कहीं आगामी कथा की सूचना दी गई है और कहीं नहीं भी, यहाँ तक कि ने पूर्वापर सम्बन्ध से रहित हैं परन्तु उन्हें परस्पर जोड़ने वाला पृथ्वीराज का उत्तरोत्तर विकसित जीवन व्यापार है, इसके वस्तु-वर्णन की कुशलता इतिवृत्तात्मक अंश को सरस करने वाली है, इसका नाम महाराज पृथ्वीराज के चरित्र के नाम से 'पृथ्वीराज रासो' है और इसमें सर्गों का नाम उनकी वर्णनीय कथा के आधार पर रखा गया है । अस्तु कतिपय त्रुटियाँ होने पर भी हिन्दी के इस प्रबन्ध काव्य का महाकाव्यत्व निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। पं० मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या, राधाकृष्ण दास और श्यामसुन्दर दास ने इसको महाकाव्य माना था', बाद


१. पृथ्वीराज रासो [ ना० प्र० स० ], ( उपसंहारिणी टिप्पणी ) पृ० १६५ ; में डॉ श्यामसुन्दर दास ने इसे महाकाव्य न कहकर 'विशालकाय वीर काव्य' कहना ही उचित ठहराया, बाबू दुलाबराय ने इसे स्वाभाविक विकासशील महाकाव्य ( Epic of Growth ) माना है और प्रो० ललिताप्रसाद सुकुल ने इसे साङ्गोपाङ्ग सफल एवं सिद्ध महाकाव्य बताया है ।

  1. साहित्य जिज्ञासा, पृ॰ २४;
  2. ——काशी विद्यापीठ रजत जयन्ती अभिनंदन ग्रंथ, पृ० १७८;
  3. 'वसन्न मसन' का अर्थ 'मसान का बासी' भी सम्भव है; वैसे इसके दूसरे पाठ 'बासमसनं' से अभीष्ट है 'वास का स्थान' जो यहाँ अधिक अभिप्रेत है।
  4. या―एक ही दिन उत्पन्न होकर एक ही दिन क्रम से समा गये।