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रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)/भूमिका/४. रासो-काव्य-परम्परा

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रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)
चंद वरदाई, संपादक विपिन बिहारी त्रिवेदी

हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ १४१ से – १४८ तक

 

रासो काव्य-परम्परा

अपभ्रंश, गुजराती और राजस्थानी भाषाओं के अनेक रास, रासा और रासो काव्य ग्रन्थ साक्षात् और सूचना रूप में प्रकाश में या चुके हैं जो 'पृथ्वीराज रासो' से पूर्व और पश्चात् की रासो काव्य की अक्षुण्ण परम्परा के प्रतीक हैं ।

श्रीमद्भागवत् में 'रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डित : ' के'रास' शब्द का प्रयोग गीत-नृत्य के लिये हुआ है जिसका वर्णन इस प्रकार है--'जिनके मुख पर पसीने की बूँदें झलक रही हैं और जिन्होंने अपने केश तथा कटि के बन्धन कस कर बाँध रखे हैं वे कृष्ण-प्रिया गोपियाँ भगवान् कृष्ण का यशोगान करती हुई विचित्र पद-विन्यास, बाहु-विक्षेप, मधुर मुस्कानयुक्त कुटि विलास, कमर की लोच, चंचल चंचल और कपोलों के पास मिलते हुए कुंडलों के कारण मेघमंडल में चमकती हुई चपला के समान सुशोभित


१. छं० ८८, स०;

२. स्कंध १०, अध्याय ३३, श्लोक ३; हुई"। 'रास' में पद आदि अनेक रागों का प्रयोग भी किया जाता था ।" बारहवी-तेरहवीं शताब्दी के जिनदत्त सूरि विरचित अपभ्रंश नीति काव्य'चर्चरी' में लिखा है-- 'जहाँ रात्रि में रथ भ्रमण नहीं किया जाता,जहाँ लगुरास करने वाले पुरुषों का निषेध है,जहाँ जल क्रीड़ा में ग्रान्दोलन होता है मूर्तियों का नहीं वहाँ ( व्याकरण ) महाभाष्य ( पतंजलि ) के आठ आहिको का अध्ययन करनेवाले के लिये माघ- मास में माला धारण करने का निषेध नहीं है' तथा उनके 'उपदेशरायनरास' में छाया है-- 'जो सिद्धान्त के अनुसार कार्य करते हैं उन्हें स्तुति और स्तोत्र पाठ उचित रूप से देवताओं के अनुसार करना चाहिये । तालारासक भी रात्रि में नहीं करते और दिन में भी पुरुषों के साथ लगुडरास नहीं किया जाता' ४ । अस्तु लगुडस और तालारास की विधि और निषेध की सूचना के साथ बारहवीं शताब्दी में उनका प्रचलन भी सिद्ध होता है । कृष्ण की रासलीलायें दिखाने वाली रास मंडलियाँ आज भी उत्तर भारत में अतीत नहीं हैं । गेम-नाट्यों के आविष्कर्ता कोहल, शारदातनय, ५ आचार्य


१. पादन्यासैर्भजविधुतिभिः सम्मितैर्भविलास-
भज्यन्मध्यैश्चलकुचपटैः कुण्डलैर्गण्डलोले ।
स्विन्मुख्य: कबररसना ग्रन्थयः कृष्णवध्वी
न्यस्तं तडित इव ता मे चक्रे विरेजुः ॥ १०-३३-८;

२. तदेव ध्रुवन्निन्ये तस्यै मानं च यदात् ।। १०-३३ १०, श्रीमद्भागवत्

३. जहिं रहि रहममणु कमाइ न कारियइ
लउडारसु जहिं पुरिसु विदितउ वारियर ।
जहिं जल कीडंदोलण हुति न देववह
माहनाल न निसिद्धी कहाहि ॥ १६६

४. उचिय युत्ति पाठ पढिनहिं, जे सिद्धतिहिं सहु संधिजहिं ।
तालारामु विदिति न रथशहि, दिवसि विलउडारसु सहुं पुरिसिंहिं । ३६।।;

५. तोटकं नाटिका गोष्ठी संल्लाए शिल्पकस्तथा
डोम्बी श्रीगदितं भागो भागी प्रस्थानमेव च ।
काव्यं च प्रेक्षणं नाट्यरासकं रासकं तथा उल्लोष्यक हल्लीसमथ दुर्मल्लिकाऽपि च काव्यवल्ली महिलका व पारिजातकमित्यपि
एतानामान्तरै; कैचिद्राचायें कथितामपि ॥

भावप्रकाशनम् ६० ६५४

हेमचन्द्र', वारभट (द्वितीय) और कविराज विश्वनाथ ने नाट्य का विवेचन करते हुए उपरूपकों के अन्तर्गत 'रासक' नामक गेय-नाट्य का भी उल्लेख किया है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का अनुमान कि इन गेय- नाट्यों का गीत भाग कालान्तर में क्रमशः स्वतंत्र श्रव्य अथवा पाठ्य काव्य हो गया और इनके चरित नायकों के अनुसार इनमें युद्ध वर्णन का समावेश हुम्रा, वास्तविकता के समीप है ।

रास-काव्यों का प्रेम काव्य और रासो-काव्यों का वीर काव्य की श्रेणी में विभाजन कुछ संगत नहीं प्रतीत होता क्योंकि इस नियम की विपरीतता भी देखी जाती है, जैसे 'भरतेश्वर बाहुबलि रास' रास होते हुए भी वीरकाव्य है और 'उपदेशरसायनरास' नीति-काव्य है तथा 'वीसलदेव रासो' रासो होकर भी प्रेम-काव्य है ।

प्राकृत और अपश के छन्द-ग्रन्थों में 'रासा' नामक छन्द का उल्लेख भी पाया जाता है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ० हरमन याकोबी ने लिखा है कि 'रासा' नागर अपभ्रंश का प्रधान छन्द है ।" नवीं-दसवीं शती के विरहाङ्क ने अपने 'वृत्त जाति समुच्चय:' नामक छन्द निरूपक ग्रन्थ में लिखा है कि वह रचना जिसमें अनेक दोहा, मात्रा, रड्डा और ठोस छन्द्र पाये जाते हैं, उसे 'रासा' कहा जाता है। दसवीं शताब्दी के स्वयम्भु देव ने अपने 'श्री स्वयम्भू छन्द:' नामक ग्रन्थ में लिखा है, कि घसा, डणिया, पद्धतिया तथा अन्य रूपकों के कारण 'रासायन्ध' अनमन


१. गेय डोम्बिकाराप्रस्थानशिंगकमाणिकाप्रेररारामा क्रीडहल्लीसक-

रासकगोष्ठी श्रोगदितरागकाव्यादि । ८-४, काव्यानुशासनम् ;

२. काव्यानुशासनम् ;

३. नाटिका त्रोटकं गोष्ठी सहकं नाट्यरासकम् ।

प्रस्थान ल्लाघ्य काव्यनि प्रेङ्खणं रासकं तथा ॥ ४

संलापकं श्रवदितं शिल्पकं च विलासिका ।

दुर्मल्लिका प्रकरणी हल्लीशी भाषिकेति च ॥ परि० ६, साहित्य

दर्पण :

४. हिंदी साहित्य का श्रादिकाल, पृ० ५ ६१

५. भूमिका पृ० ७९, भविसयत्तकहा, धण्वाल, ( जर्मन संस्करण );

६. अडिलाह दुवह एहि व मत्ता रड्ड़हि तहश्र ठोसाहि ।

बहुहिजो र सो मगराइ रामश्रो ग्राम ।। ४-३८ अभिराम होता है।' इसके उपरान्त उन्होंने 'रासा' छन्द के नियम दिये हैं कि इसमें इक्कीस मात्रायें, अन्त में तीन लघु और चौदह मात्राओं के बाद यति होती है । ग्राचार्य हेमचंद्र के 'छन्दोनुशासनम्'३ तथा अज्ञात रचना 'विदर्पणम्' ४ के 'शसावलय' नामक छन्द तथा रत्नशेखर सूरि के 'छन्द: कोश:' के 'आहारा' ( आभाणक छंद के नियम 'सा' से मिलते हैं जिससे ये एक छन्द ही भिन्न नाम प्रतीत होते हैं । श्रहमाण के 'संदेश रासक' छंद २६ की व्याख्या में 'हाउ' का दूसरा नाम 'रासउ' भी मिलता है। इस विषय में जर्मन विद्वान डॉ० आसडॉर्फ भी इसी निर्णय पर पहुँचे हैं। भानु जी ने बाइस मात्रायों वाले 'महारौद्र' समूह के जिस 'रास' छंद का उल्लेख किया है वह 'रासा' से भिन्न है ।

'पृथ्वीराज रासो' में 'रासा' छंद पाँच स्थलों पर प्रयुक्त हुआ है ।"


१. बत्ता छड्डाणश्राहि पद्धडिया (हिं) सुरणरूपहिं ।

रासासबंधो कव्वे जगमगा हिरामत्री होई ।। ८-४९;

२. एक्कवीस मन्ता शिहराउ उद्दामगिरू

चउदउसाइ विस्साम हो भगत विरइ थिरु

रासबंधु समिद्धु एउ अहिरामअरु

लहुअतितिश्रवसा विरश्रमहुर अरु । ८-५० ;

३. षोऽजचः पौ रासाबलयम् । ५-२६ तथा उदाहरण छन्द ३४;

४. रातावलय यो अजटगण: पस्तश्च वस्तुवदने तु ।

पगणो अजटो मज्भकटगणो अजदश्च पश्च ॥ ए २५, ५० बी०

ओ० आर० आई०, जिल्द १६, भाग १-२, १० पृ०८८;

५. मत्त हुवइ चउरासी चऊपर चारि कल

तेसठि जोणि निबंधी जाणहु चहुयदल ।

पंचकलु वज्जिज्ज गणु सुदुवि गणहु

सोबि अहा छंदु जि महियलि बुह मुहु ।। १७।

६. मत्त होहि चरासी चहु पय चारि कल

ते सठि जोणि निबखी जाणहु बहु दल ।

पंचक बज्जिज्ज गर सुद्धि व गहु

सोति श्राहाराज छंदु के वि रास मुखहु ।।

७.अपभ्रंश स्शडियन ( अर्मन ), पृ० ४९ ।

८. बंद: प्रभाकर, पृ० ५९।

९. स० ५० छ० २२० स० ४७, छं०१७६१ स० ६१ छं० १६२२-२४१ 'रास'छन्द और 'रासो'काव्य भले ही सीधे सम्बन्धित न हो परन्तु बिरहाङ्क और स्वयम्भु के'सावंघ'अवश्य ही उससे छन्दों के अनुशासन के कारण अधिक सम्पर्क' में हैं । यद्यपि ये दोनों विद्वान् 'साबंध' के छन्दों के विषय मे नहीं रखते फिर भी इतना तो कहा जा ही सकता है कि एक समय रासा या रासो काव्यों में अनेक विशिष्ट छन्दों का व्यवहार इष्ट होकर शास्त्रोक्त हो गया था । और छन्दों की विवधता, केदारा राग में गाये जाने वाले, आदि से अन्त तक एक छन्द में प्रणीत गीत-काव्य 'बीसलदेव रासो' तथा दो चार और को छोड़कर शेष सभी रासो-ग्रंथों में मिलती है।

चारणों, भाटों तथा जैन कवियों द्वारा रास और रासो नाम से विविध विषय और रस वाले अनेक काव्य लिखे गये जिनका अध्ययन 'पृथ्वीराज-रासो' के परिदृश्य को समझने में सहायक होगा ।

अपभ्रंश में बारहवीं शती के अनेक रास-काव्य मिलते हैं । दुःखान्त प्रबन्ध काव्य'मुजरास'के फुटकर छन्द ( जिनके प्रकार और संख्या अज्ञात हैं ) 'सिद्धहेमशब्दानुशासनम्' तथा 'प्रबन्ध-चिन्तामणि' (मेरुतुङ्ग) में मिलते हैं, जो मालवा के राजा मुंज और कर्नाटक के राजा तैलप की बहिन मृणालवती की कथा से सम्बद्ध हैं । कवि हमारा ( अब्दुल रहमान ) के सं० १२०७ त्रि० के सुखान्त प्रबन्ध काव्य 'सन्देश रासक' में २२ प्रकार के २२३ छन्द हैं तथा एक प्रतिपतिका का विरह-वर्णन इसका विषय है । शालिभद्रसूरि का सं० १२४१ वि० का 'भरत बाहुबलि रास' बीर रसात्मक ग्रन्थ हैं,जिसके २०३ छन्दों में भगवान् ऋषभदेव के दो पुत्रों भरतेश्वर और बाहुबलि का राज्य के लिये संघर्ष वर्णित है तथा ६३ छन्दों वाला शान्त रस विधायक उनका दूसरा ग्रन्थ'बुद्धि रास'हैं । तेरहवीं शताब्दी के कवि सगु कृत 'जीव दयारास' तथा ३५ छन्दों वाला 'चंदन-बाजारास' १४ हैं । जिनदत्तसूरि के 'उपदेशरसायनरास' ५ में एक ही प्रकार के छन्द में शान्त रस की ८० चतुष्पदियाँ हैं, जिनमें जैन धर्माचार का


१. भारतीय विद्या, बंबई;

२. वही ;

३. वही ;

४. राजस्थान भारती, भाग २, अंक ३-४ जुलाई १९५३ ई०, पृ० १०६-१२ :

५. अपभ्रंश काव्यत्रयी, गायकवाद ओरियन्टल सीरीज़, संख्या ३२; वर्णन किया गया है । सं० १३०० वि० का कवि देल्हण कृत 'गयसुकुमाल-रास' है जिसमें भगवान् कृष्ण के लघु सहोदर भ्राता गज सुकुमाल मुनि का चरित्र ३४ छन्दों में वर्णित है । जीवंधर का 'मुक्तावलिरासा' भी इनके साथ विवेचनीय है ।

गुजराती में 'गिरनार रास,' 'जंबू रास' और 'घाबू रास' का उल्लेख थी चिम्मनलाल दलाल ने किया है, जिनके साथ यशोविजय कृत 'द्रव्यगुणपर्यवसा'तथा सं० १७३७ वि० रचित ज्ञानविमल सूरि कृत 'जंबू कुमार रास' भी गणनीय हैं ।

बारहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी के बीच में रचे गये 'जम्बू स्वामी रास" 'रेवतगिरि रास','कछूली रास','गोतम रास','दशार्णभद्र रास', 'वस्तुपाल तेजपाल रास','श्रेणिक रास','पेथड़ रास' और 'समरसिंह रास' भी विचारणीय हैं। सत्रहवीं शताब्दी और उसके बाद रचित डिंगल के अनेक रासो काव्यों को प्रकाश में लाने का श्रेय पं० मोतीलाल मेनारिया, श्री अगरचंद नाहटा, पं० नरोत्तम स्वामी और डॉ० दशरथ शर्मा को है । गुर्जरेश्वर कुमारपाल चालुक्य के युद्ध आदि का वर्णन करने वाला जैन ऋषभदास रचित 'कुमारपाल राजर्षि रास या कुमारपाल रास'६ सं० १६१७ वि० की कृति है । दधवाड़िया चारण माधौदास का राम की कथा वर्णन करने वाला 'रामरासौ सं० १६३०-६० वि० के बीच की रचना है । हूँगर सी के 'शत्रुसाल ( छत्रसाल ) रासो' को मेनारिया जी सं० १७९० वि० के आस-पास रखते हैं। गिरधर चारण के'सगतसिंह रासो' का काल


१. राजस्थान भारती, भाग ३, अंक २, जुलाई १९५१ ई० ;

पृ० ८७६१ :

२. जैन सिद्धान्त भास्कर, वर्ष ११,अंक १;

३. प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह :

४. जैन साहित्य और इतिहास, पं० नाथूराम प्रेमी, पृ० १६६ ;

५. टॉड-संग्रह, जर्नल व दि रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ( ग्रेट ब्रिटेन ), भाग २, अप्रैल १९४० ई०;

६. वही, हस्तलिखित ग्रन्थ संख्या ३१;

७. राजस्थानी भाषा और साहित्य, पं० मोतीलाल मेनरिया, पृ० १४३;

८. वही, पृ० १५८;

६. वही, पृ० १६० ; सं० १७२० वि० के लगभग निश्चित किया गया है। मेवाड़ के नरेशों का वर्णन करने वाला जैन दौलत विजय ( दलपति विजय ) कृत 'खुमान रासो' मेनारिया जी के अनुसार सं० १७६७-९० वि० की रचना है । सं० १६९१ वि० का सुमतिहंत विरचित प्रेमाख्यानक काव्य 'विनोद रस' और एक जैन कथा वर्णन करने वाला उन्नीसवीं शताब्दी का 'श्रीपाल रास' भी उल्लेखनीय डिंगल में गंभीर रासो काव्यों के अतिरिक्त व्यंग्य भावात्मक रासो काव्य भी रचे गये, जिनका श्रेय जैन कवियों को है । कवि काह( कीर्ति सुन्दर )का 'माकद रासो'(खटमल रास )ऐसी ही रचनाओं में से एक है । श्री अगरचंद नाहटा ने ऐसी ही हास्यात्मक रचनाओं में 'अंदर रासो', 'खीचड़ रासो', और 'गोधा रासो' की भी चर्चा की है ।

पिंगल ( राजस्थानी व्रजभाषा) में भी अनेक रासो काव्य रचे गये हैं । प्रबल जनश्रुति पर आधारित तथा 'प्राकृत पैङ्गलम्' द्वारा पुष्ट शार्ङ्गधर रचित रणम्भौर के हुतात्मा शासक हम्मीर देव चौहान का कीर्ति-गायक 'हम्मीर रासो' महोबा के अधिपति परमर्दिदेव चंदेल उपनाम परनाल के यश सम्बन्धी अज्ञात कवि की रचना 'परमाल रासो' ; करौली राज्य का इतिहास बताने वाला, नल्लसिंह भट्ट रचित 'विजेपाल रासो'जिसका रचनाकाल मिश्रबंधु सं० १३५५ वि०, नाहटा जी १८ वीं या १९ वीं शती और मेनारिया जी सं० १९०० वि० बतलाते हैं; न्यामत खाँ उर्फ जान कवि का पितृवृत वर्णन करने वाला, सं० १६९१ वि० में रचित 'कायम रासा' रासा' या 'दीवान अलिक खान रासा '७; रतलाम के महाराजा रतनसिंह के युद्धादि का परिचय देने वाला सॉं चारण कुंभकर्ण का सं० १७३२ बि० में रचित 'रतन


१. खुँमाण रासौ, ना० प्र० प०, वर्ष ५७, अंक ४, सं० २००९

वि०, पृ० ३५०-५६ ;

२. राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १४४;

३. राजस्थान भारती, भाग ३, अंक ३-४, सन् १९५३ ई० ;

पृ० ९७-१०० ;

४. वहीं, पृ० ९७;

५. नागरी प्रचारिणी ग्रंथ माला २३, सन् १९१९ ई०;

६. मिश्रबंधु विनोद, प्रथम भाग, तृतीय संस्करण, पृ० १६७;राजस्थान

का पिंगल साहित्य, पं० मोतीलाल मेनारिया, पृ० ५३-५५ ;

७, राजस्थान भारती, भाग १, अङ्क १, १९४६ ई०, पृ०३९-४६; रासो' मेवाड़ के राणा कर्णसिंह तक के शौर्य-गीत गाने वाला सं० १७३७-५५० रचित सिंढायच दयालदास कृत 'राणा रासो', सं० १७८५ वि० में जीवराज कृत 'हम्मीर रासो'; गुलाब कवि कृत १६ वीं शती का 'करहिया रौ रामसौ' तना हुमायूँ के भाई कामरों को परास्त करने वाले बीकानेर के महाराजा राव जैत सी का प्रशस्ति वाचक, पं० नरोत्तमस्वामी द्वारा प्रकाश में लाया हुआ, अज्ञात कवि रचित 'राउ जैत सी रौ रासौ' सुप्रसिद्ध रचनायें हैं । इनके अतिरिक्त कृष्ण का रास वर्णन करने वाले व्यास कृत 'रास'( लिपिकाल सं० १७२४ वि० ) और रसिकराय कृत 'राम' विलास'( लिपिकाल सं० १८०० वि० ) भी पिंगल की रचनायें हैं तथा सं० १६२५ वि० में कवि जल्ह द्वारा प्रणीत 'बुद्धि रासो' जो रासो होते हुए भी प्रेमाख्यान है, उल्लेखनीय हैं ।

यद्यपि इन सारे रास, रासा, रासो, रासौ, रायता, रायसौ ग्रन्थों का सम्यक अध्ययन अभी तक प्रकाश में नहीं आया है परन्तु काल, यश और प्रचार की कसौटी पर 'पृथ्वीराज रासो' को जो मान प्राप्त हुआ वह इन में से किसी के भाग्य में न पड़ा । श्रारोहावरोहपूर्ण विशिष्ट मानव जीवन के संघर्ष का चित्रण, वर्णं अ र अर्थ मूर्तियों द्वारा सृजन कर, यति-गति वाले वांछित छन्दों से अपने पात्रों के श्रान्तरिक उद्वेलन को शाश्वत रूप से मूर्त करते हुए कवि ने इतिहास और कल्पना के योग से उनके विजय, आल्हाद अवसाद, होम, चिन्ता, ग्राशा, निराशा यादि के द्वारा श्रोता अथवा पाठक के चित्त को अभिभूत करने का मंत्र सिद्ध किया है । यही कारण है रासो की साहित्यिक जय-दुन्दुभी का । उसकी सुदीर्घ और सुनिश्चित परम्परा अपनी छाप सहित परवर्ती रासो-काव्य में निरन्तर प्रतिविम्वित देखी जा सकती है।


१. राजस्थान का पिंगल साहित्य, पृ० १६९ ; राजस्थान भारती, भाग ३,

श्रङ्क ३-४ जुलाई १९५३ ई०;

२. राजस्थान का पिंगल साहित्य, पृ० ११५; राजस्थान में हिन्दी के

हस्त लिखित ग्रन्थों की खोज, प्रथम भाग, पृ० ११८ ;

३. नागरी प्रचारिणी ग्रंथ माला. १३, सन् १६०८ ई० ;

४. राजस्थान भारती, भाग २, अङ्क २, सन् १९४६ ई०, पृ० ७०-८५;

५. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, प्रथम भाग, पृ० १२१;

६. वही पृ० १२१;

७. वही, पृ० ७६-७७, राजस्थान का पिंगल साहित्य, पु० ७०-२ ;