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रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)/भूमिका/५. पुरातन कथा-सूत्र

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रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)
चंद वरदाई, संपादक विपिन बिहारी त्रिवेदी

हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ १४९ से – २०० तक

 

पुरातन कथा-सूत्र

भारतीय आचायों ने ध्वनि, अलंकार, वक्रोक्ति, रस आदि जिसके भी लक्षणों पर प्रकाश डाला है, वे सब काव्य से सम्बन्धित हैं । अज्ञात सनीक्षक ने जब अपना सुप्रसिद्ध सूत्र-- गद्द कवीनां निपां वदन्ति' अर्थात् 'गद्द को कवि की कसौटी कहते हैं' कहा, तब उसका अभीष्ट साधारण गद्य से नहीं वरन् गद्य-काव्य से था । कवि अपने काव्य का सृजन अपनी अनुभूति को प्रत्यय और साधर्म्य द्वारा अभिव्यक्त करके के अर्थ-लोक, अनुभूति-लोक अथवा चेतना-लोक का व्यापकत्व ही आदिकवि वाल्मीकि के शब्दों में उसकी कान्तदर्शिता की परीक्षा है । कवि की अनुभूति को शरीर प्रदान करने वाला अलङ्कार होता है। अनजाने लोकों का अवगाहन अपनी कल्पना द्वारा करता हुआ कवि अलङ्कार द्वारा उन्हें मूर्त करता है । अस्तु, काव्य कल्पना पर आश्रित हैं और कल्पना अलङ्कार द्वारा साकार होती है। यही स्थिति 'कथा-काव्य' में भी है।

कथा का उद्गम निःसन्देह श्रति प्राचीन है परन्तु संस्कृत के आचार्यों ने जिस 'कथा' के लक्षण दिये हैं वह साधारण कथा नहीं वरन् 'कथा- काव्य' है। छठी ईसवी शताब्दी के भामह ने आख्यायिका और कथा का भेद करते हुए कथा का निरूपण इस प्रकार किया है-- 'कथा में वत्र और अपवत्र छन्द नहीं होते, उच्छवासों में इसे नहीं विभाजित करते, संस्कृत, असंस्कृत (प्राकृत) और अपभ्रंश में इसे कहा जा सकता है, स्वयं नायक इसमें अपना चरित्र नहीं कहता वरन् किन्हीं दो व्यक्तियों के वार्तालाप रूप में यह कही जाती है'। परन्तु सातवीं शती के दरडी ने आख्यायिका और कथा को एक पंक्ति में रखकर उनका भेद यह कहकर मिटाया-- 'कथा, नायक कहे चाहे दूसरा, अध्याय विभाजित हों अथवा नहीं और उनका नाम उच्छ बास हो चाहे लम्भ तथा चाहे बीच में यत्र और पवत्र छन्द आयें चाहे न आयें, इन सबसे कोई अन्तर नहीं


१--न वक्त्रापरवकत्राभ्यां युक्ता नोच्छु वासवत्यपि ।

संस्कृतऽसंस्कृता चेष्टा कथाsपत्र शभाक्तथा ।। २८

अन्यैः स्वचरितं तस्यां नायकेन तु नोच्यते ।

स्वगुणाविष्कृतिं कुर्यादभिजातः कथं जनः ।। १, २९, काव्यालङ्कार; पढ़ सकता । इसमें कन्याहरण, संग्राम, विप्रलम्भ यदि होते हैं" और प्राकृत-अपभ्रंश की कथाओं को सम्भवतः लक्ष्य करके महाकथा या कथा के लक्षण बताने वाले नवीं शताब्दी के रुद्रट ने-– 'कथा के प्रारम्भ में देवता और गुरु को नमस्कार, अपना तथा अपने कुल का परिचय देकर कथा का उद्देश्य कथन, प्रारम्भिक कथान्तर द्वारा प्रधान कहानी का आभास और सम्पूर्ण शृंगार का सम्यक-विन्यास करते हुए कन्या लाभ का अभीष्ट बतलाया है। बारहवीं शती के श्राचार्य हेमचन्द्र ने महाकाव्य के लक्षण गिना कर वारा भट्ट के 'हर्षचरित' सहरा केवल संस्कृत गद्य में


१- पादः पदसन्तानो गद्यमाख्यायिका कथा ।

इति तस्य प्रभेदौ द्वौ तयोराख्यायिका किल ॥ २३

नायकेनैव वाच्यान्या नायकेनेतरेण वा ।

स्वगुणाविष्क्रियादोषो नाव भूतार्थशंसिनः ॥ २४

अपि त्वनियमो दृष्टस्तत्राप्यन्यैरुदीरणात् ।

अन्य वक्ता स्वयं वेति कीहग्वा भेदकारणम् ॥ २५

वक्त्रं चापवक्त्रं च सोच्छ् वासत्वं च भेदकम् ।

चिह्नाभाख्यायिकायाश्चेत् प्रसङ्गेन कथास्वपि ॥ २६

श्रार्यादिवत् प्रवेशः किं न वक्त्रा परवकत्रयोः ।

भेदश्च दृष्टो लम्भादिरुच्छ वासो वास्तु किं ततः ॥ २७

तत् कथाख्यायिकेत्येका जाति: संज्ञायाङ्किता ।

त्रैवान्तर्भविष्यन्ति शेषाश्चाख्यानजातयः ॥ २८

कन्याहरणसंग्रामविप्रलम्भोदयादयः ।

सर्गबन्धसमा एव नैते वैशेषिका गुणाः ॥१, २९, काव्यादर्श;

२--श्लोकैर्महाकथायामिष्टान् देवान् गुरून्नमस्कृत्यं ।

संक्षेपण निजं कुलमभिदध्यात्स्वं च कर्तृ तथा ॥ २०

सानुप्रासेन ततो लघ्वारेण गद्येन ।

रचयेत् कथाशरीरं पुरेव पुरवर्णकप्रभृतीन् ॥ २१

आदौ कथान्तरं वा तस्यां न्यस्येत् प्रपञ्चितं सम्यक् ।

लघु तावत् संधानं प्रक्रान्तकथावताराय ॥ २२

कन्यालाभफलां वा सम्यग् विन्यस्य सकलशृंगारम् ।

इति संस्कृतेन कुर्यात् कथाभगद्येन चान्येन ॥ १६, २३, काव्यालङ्कार; लिखी जा सकने वाली 'आख्यायिका' के लक्षण बताये तदुपरान्त 'कथा' के लक्षण बताते हुए लिखा-- 'वह गद्य या पत्र, संस्कृत, प्राकृत अथवा किसी भी भाषा में लिखी जा सकती है तथा उसका नायक वीर शान्त होता है । और चौदहवीं शती के कविराज विश्वनाथ ने सम्भवतः वाणभट्ट के अनुपम तथा पूर्व संस्कृत गद्य-कथा- काव्य-ग्रन्थ 'कादम्बरी' के आधार पर यह लक्षण बना डाला 'कथा में सरस वस्तु गद्य के द्वारा ही बनती है। इसमें कहीं-कहीं आर्या छन्द और कहीं वक्त्र तथा श्रपवक्त्र छन्द होते हैं । प्रारम्भ में पद्दमय नमस्कार और खलादिकों का चरित्र निबद्ध होता है । इस प्रकार देखते हैं कि संस्कृत-याचार्यों ने आख्यायिका और कथा के बाहरी लक्षणों का निर्देश तो किया परन्तु उनकी 'वस्तु' के विषय में कुछ नहीं कहा । प्रतीत होता है कि इससे कालान्तर में संस्कृत के गद्य लेखकों ने अलंकृत गद्य-काव्य-लिखे । संस्कृत कथाकारों के आदर्श बाणभट्ट ने लिखा है-- 'अपने प्रियतम की शय्या पर प्रीतिपूर्वक आने वाली नवागता वधू की भाँति कथा अपने आकर्षक मधुर आलाप और कोमल विलास (अर्थात् प्रेम-क्रीड़ाओं) के कारण कौतुक-वश हृदय में राग उत्पन्न करती है । दीपक और उपमा अलंकार से युक्त, नवीन पदार्थ द्वारा विरचित, निरन्तर श्लेष के कारण सघन, उज्ज्वल दीपक सह उपयोगी कथा, चम्पा की कलियों से गुँथो और बीच-बीच में मल्लिका पुष्पों से अलङ्कृत माला के समान किसे श्राकर्षित नहीं करती' ।

आठवीं शती के हरिभद्र ने कथा के चार प्रकार--अर्थ-कथा, काम- कथा धर्म-कथा और संकीर्ण-कथा--बताते हुए प्राकृत भाषा में यत्र-तत्र पद्य-


१. नायकाख्यातस्ववृता भाव्यर्थंशंसिव कत्रादिः सोच्छवासा संस्कृता गद्य

युक्ताख्यायिका ८, ७, काव्यानुशासनम् ;

२. धीरशान्तनायका गद्येन पद्येन वा सर्वभाषा कथा ॥ ८८, वही;

३. कथायां सरसं वस्तु गद्यैरेव विनिर्मितम् । ३३२

क्वचिदत्र भवेदार्या क्वचिद्वक्त्रापवत्रके ।

आदो पद्यैर्नमस्कारः खलादेवृ त्तकीर्तनम् ।। ६, ३३३, साहित्यदर्पण,

४. स्फुरत्कलालापविलासकोमला करोति रागं हृदि कौतुकाधिकम् ।

रसेन शय्यां स्वयमभ्युपागता कथा जनस्याभिनवा वधूरिव ।। ८

हरन्ति कं नोज्ज्वलदीपकोपमैर्नवः पदार्थैरुपपादिता: कथा: ।

निरन्तरश्लेषघनाः सुजातयो महास्रजश्चम्पक कुड्मलैरिव ॥ १,९,

पूर्वभागः, कादम्बरी; समाविष्ट गद्य में 'समराइच्चकहा' नामक 'धम्मकहा' का प्रणयन किया है।' दसवीं शताब्दी के पुष्पदंत विरचित अपभ्रंश-काव्य गावकुमार चारेउ' ( नागकुमार चरित ) में वर्णित है कि रानी विशालनेत्रा ने सपत्नीक-द्वेष-शीभूत हो नागकुमार की माता के प्रति पर-प्रेम का दोष इङ्गित कर राजा से उसके आभूषण उतरवा लिये थे । नागकुमार ने लौटकर अपनी माता को अलङ्कारों से रहित इस प्रकार देखा जैसे कुकवि की लिखी हुई कथा हो । इस उल्लेख से प्रतीत होता है कि अलङ्कारों का लाया जाना ( कल्पनाक्षित )कथा-काव्य में अति आवश्यक था ।

संस्कृत-विजय काव्यों, प्राकृत-अपभ्रंश के चरिउ और कहा काव्यों तथा राजस्थानी-गुजराती के रासो या रास-विलास और रूपक काव्यों पर संस्कृत काव्यशास्त्र के कथा-काव्य के लक्षणों का प्रभाव संभव है । इन सभी कृतियों में पद और अलङ्कार योजना सरस रस की अभिव्यंजना करती हुई देखी जा सकती है ।

चंद वरदायी को 'कित्तीकहा' (कीर्ति-कथा) 'पृथ्वीराज रासो' भी युद्ध और प्रेम बद्ध कथा-काव्य है जिसकी वस्तु इतिहास और कल्पना के योग से प्रस्तुत की गई है । रासो के ६९ 'प्रस्तावों' में से दस का नाम-कथा भी है; यथा-- दिल्ली किल्ली कथा, नाहर राय कथा, मेवाती मुगल कथा, हुसेन कथा, इच्छनि व्याह कथा, माधो भाट कथा, होली कथा, दीप-मालिका कथा, धन कथा और वरुण कथा । रामायण, महाभारत, बृहत्कथा, वासवदत्ता, कादम्बरी, लीलावई प्रभृति ग्रन्थों की श्रोता-बक्का वाली पद्धति रासो में भी वर्तमान है जो परवर्ती कीर्तिलता और रामचरितमानस में भी पाई जाती है।

लगभग आठवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध प्राकृत-पद्य कथा-काव्य 'लीला बई' (लीलावती) को उसके रचयिता 'कइ कोऊहल' (कवि कुतूहल ) ने एक हेमन्त ऋतु की चन्द्र-ज्योत्स्ना पूर्ण रात्रि में अपने महल में 'ऐसी दिव्यमानुषी कथा जो कुछ देशी शब्द भिश्रित प्राकृत भाषा में नवयुवतियों


१. समराइच्च कहा, (भूमिया, पृ० २-४ ), हरिभद्र, सम्पादक डॉ० हरमन जाकोबी;

२. जिरणत्वथप विरइयणियंसण, तथाएं जणणि दिड शिम्भूसरा ।

पुच्छिय माइ काई थिय एही, निरलंकार कुकइ कह जेही ॥

२,११, ११-१२;

को प्रिय हो' अपनी प्रिय पत्नी सावित्री के कहने पर सुनाया था ।

'लीलावई' की भाँति 'पृथ्वीराज रासो' का प्रणयन भी 'एक रात्रि को दिल्लीश्वर (पृथ्वीराज ) की कीर्ति यादि से अन्त तक सुनाने की कवि-पत्नी की जिज्ञासा-पूर्ति हेतु' हुआ है :

समयं इक निमि चंद । वाम वत वद्दि रस पाई ।।
दिल्ली ईस गुनेयं । कित्ती कहो नादि अंताई ।। १, ७६१ ;

'एक दिन कवि चंद ने अपने भवन में (दिल्ली के सम्राट की ) कथा कही । जैसे-जैसे सारंग नेत्री उसे सुनती और समझती जाती थी वैसे ही वैसे और पूछती जाती थी' :

दिवस कवि चंद कथ । कही अप्पनें भोन ।।
जिम जिम श्रवनत संभरी । तिम पुछि सारंग नैंन ।। १,७६२,

फिर प्रियतमा ने प्रिय से पूछा कि दानव, मानव तथा राजा की कीर्ति से क्या लाभ है :

कहौ कंत सौ कति इम । हौं पूछों गुन तोहि ।।
को दानव मानव सु को । को नृप कित्तिक होहि ।। १,७६३,

( इसके बाद का कुछ प्रसंग छूटता है परन्तु छन्द-संख्या में कोई व्याघात नहीं पड़ता, वह अक्षुण्ण गति से अबाधित बढ़ती है ।) चंद ने विविध उदाहरण देकर बताया कि हरि-भक्ति के बिना मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती । उसकी पत्नी ने कहा कि हे समस्त विद्यार्थीों के ज्ञाता, उस विश्व-चितेरे के चित्र बनाओ,चौहान की कीर्ति-स्तवन से क्या लाभ है; ज्ञान-तत्व से रहित यह शरीर पाँच इन्द्रियों के द्वारा पाँच विषयों में बँधकर नाच रहा है; याशा रूपी वेगवती नदी में मनोरथ रूपी जीवों का संचय हो रहा है, तृष्णा रूपी उसकी तरंगें हैं, राग रूपी ग्राह हैं; चौहान की कीर्ति कथन से क्या होगा, त्रिभंगी (कृष्ण) का स्मरण करो; मूढ़ मन मोह में विस्तृत हो रहा है और आशा रूपिणी नदी चिन्ता-तट रूपी शरीर


१. एमेय मुद्ध-जुवई-मणोहरं पायया भासाए ।

पविरल-देसि सुलक्ख कहसु कहं दिव्व-माणुसियं ।। ४१

तं तह सोउण पुणेो भणियं उब्विंव-वाल-हरिणच्छि ।

जइ एवं ता सुन्दर सुसंधि-बंधं कहा- वत्युं ।। ४२ ; लीलावई, सम्पा०

डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, भारतीय विद्या भवन, बंबई, सं०

२००५ वि०९ ;

२. ६० ७६४-६५, स० १. को नष्ट कर रही हैं; हे कवि, इसके पार जाना दुस्तर है; चौहान को प्रसन्न करने से क्या होगा ?' कवि ने उत्तर दिया कि तुमने बात उचित कही परन्तु मेरे हृदय में यह अंदेशा है कि मैं पिथ्थल-नरेश (चौहान) का पूर्व जन्म का ऋण चुकाता हूँ। उसकी पत्नी ने कहा कि यदि राजा का ऋण चुकाते हो तो गोविन्द का स्मरण क्यों नहीं करते । कवि विस्तार पूर्वक समझाता है कि कमलासन सर्वव्यापी हैं। पत्नी कहती है कि यदि ऐसा ही है तो राजा की कीति मत गाओ वरन् हरि के अंग प्रत्यंगों का रूप और उनके चरित्रों का वर्णन करके सुनाओ जिससे मुक्ति प्राप्त हो । अन्तत: कहता है कि हे भामिनि, मुझसे तत्व पूछती हो तो कान देकर सुनो, मैं तुमको उसका (यथावत्) वर्णन करके दिखाऊँगा :

कोहौ भनि सौ कंत इम । जो पूछै तत मोहि ।।
कान धरौ रसना सरस । ब्रन्नि दिवाऊं तोहि ।। १,७८३

उपयुक्त छन्द रासो के 'आदि समय' का अन्तिम छन्द है । इसके पश्चात् 'अथ दशस' या 'दशावतार वर्णनं नाम द्वितीय प्रस्ताव' प्रारम्भ होता है जिसका पृथ्वीराज की कथा से कोई सम्बन्ध नहीं है अस्तु 'उसके परवर्ती प्रक्षेप होने का निर्देश किया जा चुका है।' विष्णु के दस अवतारों के वर्णन वाले इस द्वितीय प्रस्ताव को कभी परवर्ती काल में रासो की कथा से संलग्न करने के लिये आदि समय के निर्दिष्ट ७६२-८३ छन्दों में नर ( मनुष्य ) और नारायण की पृथकता तथा नारायण की महिमा सूचक आख्यान चंद्र और उसकी पत्नी के वार्तालाप के मिस प्रस्तुत किया गया है । आश्चर्य तो तब होता है जब कवि-पत्नी छं० ७६१ में दिल्लीश्वर का गुण- गान करने के लिये कहती है और फिर छं० ७६२ में 'निसि' के स्थान पर 'दिवस' हो जाता है तथा छं० ७६३ में यह अकारण अपनी जिज्ञासा पर ही शंका कर बैठती है । द्वितीय प्रस्ताव के उपसंहार में कवि कुछ चौंक कर कह बैठता है कि राम और कृष्ण की सरस कीर्ति कथन हेतु अधिक समय वांछित है, ग्रायु थोड़ी है और चौहान का भार सिर पर है:-


१. छं० ७६६-६७, स० १ ;

२. छं० ७६८, वही;

३. छं० ७६६, वही;

४. छं० ७७१-८०, वही ;

५. छं० ७८१-८२, वही;

६. चंद वरदायी और उनका काव्य, विपिनविहारी त्रिवेदी, पृ० ११४;

राम किसन किती सरस । कहत लगै वहु वार ।।
छुच्छ श्राव कवि चंद की । सिर चहुद्याना भार ।। २,५८५;

इसके बाद योगिनिपुर-सम्राट् की कथा बे रोक-टोक बढ़ चलती है ।

भारत की अनेक प्राचीन कथानक-रूढ़ियाँ साहित्य में प्रयुक्त हुई हैं। उन पर विशद रूप से विचार करके उनके मूल स्रोतों के अनुसंन्धान का प्रयत्न करने वाले विदेशी विद्वानों में बेनफे (Benfey),कोलर (Kohler),लिब्रेट (Liebrecht),कून (Kuhn ),हटेल (Hertel), मारिस ब्लूमफील्ड (Maurice Bloomfield), टानी (Tawney), पेंज़र ( Penzer) प्रभृति नाम चिरस्मरणीय रहेंगे। 'पृथ्वीराज रासो' में भी हमें इन प्राचीन कथा-सूत्रों के दर्शन होते हैं । उनमें से कुछ पर हम यहाँ विचार करेंगे ।

शुक और शुकी का कथा के श्रोता और वक्ता रूप में उपस्थित किया. जाना एक ऐसा ही सूत्र हैं । महाभारत के राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत् सुनाने वाले व्यास के परम ज्ञानी पुत्र का नाम शुकदेव था ही अस्तु मानव की बोली समझने और बोलने की क्षमता रखने वाले शुक को भी कवि-कल्पना ने ज्ञानी बना दिया । पुराणों में कश्यप की पत्नी( कहीं पुत्री )शुकी ही शुकों की आदि माता हैं तब इन दौहित्र पक्षियों को मानव के रहस्यों का जानकार होने में कवि कैसे सन्देह करता । शुक जब मानव की बोली का अनुकरण कर लेता है तब आठवीं शताब्दी के मंडन मिश्र के भवन में मानवीय ज्ञान-सम्पन्न शुकी 'स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं चादि दार्शनिक विचारात्मक उच्चारण क्यों न करे ।' और बारा का वैशम्पायन शुक जब पूर्व जन्म की कथायें कह सकता है? तब रासो को शुकी की जिज्ञासा-पूर्ति हेतु क्या वह बहुज्ञ, पृथ्वीराज के जीवन में घटनेवाली कथाओं का वर्णन भी नहीं कर सकता ? चंद के परवर्ती विद्यापति ने अपने चार 'पल्लव' वाले अवहट्ट काव्य


१.स्वतः प्रमाणं परत: प्रमाणं कीराङ्गना पत्र गिरं गिरन्ति ।

द्वारस्थानान्तरसंनिरुद्धा जानीहि तन्मण्डनपडितकः ॥ ६

फलप्रदं कर्म फलप्रदोज: कीराङ्गन यत्र गिरं गिरन्ति ।

द्वारस्थनीडान्तरसंनिरुद्धा जानीहि तन्मण्डनंपण्डितौक: ।। ७

जगद्व्र ुवं स्वाज्जगद्भवं स्यात् कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति ।

द्वारस्थनीडान्तरसंनिरुद्धा जानीहि तन्मण्डन पण्डितौकः ।। ८सर्ग: ८;

२.वैशम्पायनस्तु स्वयमुपजातकुतूहलेन सबहुमानमवनिपतिना पृष्ठो

मुहुर्तम व्यावा सादरमब्रवीत् - 'देव, महतीयं कथा । यदि

कौतुकमाकार्यताम्--, कादम्बरी, पूर्वभाग: ; 'कीर्तिलता' की कथा निर्दिष्ट श्रोता-वक्ता पद्धति पर भृङ्गी की जिज्ञासा पर भृङ्ग द्वारा कहलवाई है ।

रासो में शुक और शुकी तीन रूपों में आते हैं—- कथा के श्रोता और वक्ता होकर, प्रणाय-दूत वनकर तथा संपत्तियों के मध्य में धृष्ट दूतत्व करते हुए । अन्तिम रूप में केवल शुक कार्य करता है ।

श्रोता और वक्ता रूप में शुक-शुकी के प्रथम दर्शन रासो के 'कन्ह- पट्टी समय ५' में होते हैं। शुकी, पृथ्वीराज और भीमदेव चालुक्य के बैर का कारण पूछती है :

सुकी कहै मुक संमरों, कहौ कथा प्रति मान ।
पृथु भोरा भीमंग पहु, किम हुअ वैर बिनान ।। १,

और शुक, चालुक्य से बैर का कारण बिना किसी अन्य भूमिका के कह चलता है परन्तु न गले छन्द र में ही उसका उल्लेख होता है और नहीं 'समय' की समाप्ति पर ही । इसके उपरान्त 'पेटक वीर वरदान', 'नाहर राय कथा', 'मेवाती मुगल' कथा', और 'हुसेन कथा' के वर्णन ते हैं। केवल 'हुसेन कथा समय है' के यादि में कोई अज्ञात वक्ता ( भले ही वह शुक हो परन्तु कवि पत्नी आदि की भी सम्भावना है) संभरेश चौहान और राजनीपति शाह के आदि बैर की उत्कंठापूर्ण कथा कहने का निर्देश करता है।

संभरि वै चान कै अरु गज्जन वै साह ।
कौं यदि कम बैर हु, अति उत्कंठ कथाह ।। १

इसके बाद 'पेटक चूक चन समय १०' आता है । तदुपरान्त 'चिचरेषा समय' में चंद से कोई ( संभवत: कवि-पत्नी या पृथ्वीराज आदि ) सुन्दरी चित्ररेखा की उत्पत्ति और हुसेन खाँ द्वारा अश्वपति ( गोरी ) के यहाँ से उसकी प्राप्तिविषयक प्रश्न करता है :


१.भृङ्गी पुच्छर भिङ्ग सुन की संसारहि सार ।

मानिनि जीवन मान सञो वीर पुरुष अवतार ।। प्रथम पल्लव,

किमि उपन्नउँ कैरियर किनि उद्धरिउँ तेन ।

पुराण कहाणी पिञ कहहु सामिज सुनो सुहेण ।। द्वितीय पल्लव,

करण समाइ अमिञ रस तुज्भु कहन्ते कन्त ।

कहहु विखण नु कहहु तो यग्गम वित्तन्त । तृतीय पल्लव,

कह कह कन्ता सच्चु भणन्ता किमि परि सेना सवरिया ।

किमि तिरहुती होॐ पवित्ती, अरु असतान किकरिया ।।

चतुर्थ पल्लव;

पुछि चंद बरदाई नैं । चित्ररेख उतपत्ति ।।
षा हुसेन घावास कहि । जिम लीनी सपत्ति ।।१

और 'भोलाराय १२' में पिछले दीर्घ अन्तर के बाद शुक, शुकी का प्यार करते हुए, इंच्छिनी और पृथ्वीराज के विवाह की आदि से अन्त तक की गाथा का वर्णन सुनने के लिये कहता हुआ पाया जाता है :

अपि सुको सुक पेम करि । यदि अंत जो बत ।।
इंच्छिनि पियह व्याह विधि । सुष्ष सुनंते गन्त ।। २ ;

इस 'प्रस्ताव' के अन्त तक विवाह नहीं हो पाया था कि अचिन्त्य रूप से गोरी का युद्ध बीच में आ जाता है, जिसके वर्णन की समाप्ति 'सलघ जुध्द समयो १३' के अन्तिम छन्द में शुक शुकी के वार्तालाप में होती है :

सुकी सरस सुक उच्चरिय । प्रेम सहित आनंद ।।
चालुक्का सोझति सथ्यौ । सारूडै मे चंद ।। १५९


चौदहवें समय में नींद न आने वाली शुकी की पुन: जिज्ञासा पर शुक, इंच्छिनी-विवाह का वर्णन विस्तार से सुनाने के लिये सन्नद्ध हो जाता है :

कहै सुकी सुक संभलौ । नींद न आवै मोहि ।।
रय निवानिय बंद करि । कथ इक पूछ तोहि ।। १
सुकी सरित सुक उच्चरथौ । धरौ नारि सिर चत्त ।।
सयन संजोगिय संभरै । मन मैं मंडिय हिन्त ।। २
घन लध्दौ चालुक संध्यौ । बंध्यौ षैत घुरसान ।।
छनि व्याही इच्छ करि । कहों सुनहि दै कांन ।। ३,

इंच्छनी के घर पृथ्वीराज, धन-प्राप्ति, चालुक्य-विजय और गोरी-बन्धन के कारण अधिक यशस्वी श्रस्तु अपेक्षाकृत अधिक आकर्षक हो गये हैं। इसकी चर्चा करके कवि ने श्राबू-कुमारी के विवाह में अधिक रस पैदा कर दिया है। इसी 'समय' के बीच में शुकी,शुक से इंच्छिनी का नख -शिख पूछती हुई पाई जाती है :

बहुरि सुकी सुक सों कहै । अंग अंग दुति देह ।।
इछनि अंछ वषानि कै । मोहि सुनावहु एह ।। १३७ ,

और प्रियातमा शुकी को रानी के अंग और रूप-सौन्दर्य का वर्णन सुनाते-सुनाते सारी रात्रि व्यतीत हो जाती है :

सुनत कथा अछि वत्तरी । गइ रत्तरी विहाइ ।।
दुज्ज ऋही दुजि संभरिय । जिहि सुष श्रवन सुहाइ ।। १६३

शुक-शुकी का बक्का और श्रोता रूप अभी तक विधि पूर्वक आद्योपान्त केवल इसी 'प्रस्ताव' में देखने को मिलता है।

आगे के 'मुगल जुद्ध प्रस्ताव १५', 'पुण्डीरी दाहिमी विवाह नांम प्रस्ताव १६','भूमि सुपन प्रस्ताव १७' और 'दिल्ली दान प्रस्ताव १८' के वर्णन शुक-शुकी की वार्ता के बिना ही बढ़ते हैं । 'माधव भाट कथा पातिशाह ग्रहन राजा विजय नाम उनविंसमो प्रस्ताव' की समाप्ति पर द्विज-द्विजी रूप में शुक शुकी का फिर उल्लेख होता है, जिसमें द्विजी, पृथा का विवाह, शाह का बन्दी होना और धन प्राप्ति की 'विगत्ति' (< विगत = कथा ) पूछती है :

दुजिय सुबद्दिय प्रति दुजह । प्रिक्षा व्याह विगति ॥
किमि फिर बंध्यौ साह रिन । किम धन लद्ध सुमन्ति ॥ २५१,

परन्तु द्विजी रूपी शुकी की जिज्ञासा को पूर्ति का प्रसंग 'प्रिथा व्याह समय २१' से प्रारम्भ होता है जिसके पहले समुद्रशिखर की राजकुमारी के विवाह की कथा शुक शुकी प्रश्नोत्तर के प्रवाह के बीच में बाधक होकर आती है। बीसवें 'पदमावती समय' में भी ( केवल ) शुक आता है परन्तु इस बार प्रणय का दूत बन कर ।

प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व के कवि-कुल-गुरु कालिदास ने अपने 'मेघदूत' ' में मेव को, 'महाभारत' और 'कथासरित्सागर' से नल-दमयन्ती आख्यान को लौकिक काव्य-रूप देने की प्रेरणा पाकर कान्यकुब्जेश्वर जयचन्द्र के कवि श्रीहर्प ने अपने 'नैपधीयचरितम् ' में हंस को तथा


१. सन्तप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद प्रियाया:

सन्देशं मे हर धनपतिक्रोध विश्लेषितस्य ।

मन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणी

वाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिका धौत हर्म्या ।। ७, पूर्वमेत्र: ;

[ अर्थात् - तुम्हीं अकेले संसार के तपे हुए प्राणियों को शीतलता प्रदान करने वाले हो, अस्तु हे मेघ ! कुवेर के कोप से बहिष्कृत, अपनी प्रियतमा से सुदूर हटाये हुए सु विरही का सन्देश मेरी प्रिया तक पहुँचा दो । यह सन्देश लेकर तुम्हें यक्षेश्वर की अलका नामक पुरी को जाना होगा, जहाँ उक्त नगरी के बाहर वाले उद्यान में बनी हुई शिव मूर्ति के सिर पर जडी चन्द्रिका से भवनों में सदा उजाला रहता है ।]

२. अथ भीमसुतावलोकनैः सफलं कर्तुमहस्तदेव सः ।

दिति मण्डलमण्डननायितं नगरं कुण्डिनमण्डजो ययौ ।। २,६४ ;

[ अर्थात् राजा नल का प्रणय- सम्वाद लेकर हंस उसी दिन दमयन्ती बारहवीं शताब्दी के बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के कवि धोयी ने अपने 'पवनदूत' ' में पवन को प्रणय-दूत बनाया था, तब चंद के लिये उक्त कार्य हेतु शुक की नियुक्ति कवि-परम्पराश्रित ही थी ।

अव रासोकार के 'पद्मावती समय २०' के प्रणाय दूत का कौशल और साथ ही कवि-चातुर्य भी देखते चलना चाहिये । समुद्रशिखरगढ़ की राजकुमारी राज-उद्यान से एक शुक को पकड़ लेती है और उसे अपने महल में नग-मणि जटित पिंजड़े में रखती है :

सखियन सँग खेलत फिरत । महलनि बाग निवास ।।
कीर इक दिप्रिय नयन । तब मन भयो हुलास ।। ८ तथा ९,

और फिर उसका चित्त शुक की ओर कुछ इस प्रकार रम जाता है कि वह सारे खेल छोड़कर उसे राम-राम पढ़ाया करती है :

तिही महल रयत भई । गइव पेल सब भुल्ल ।।
चिस चट्टयौ कौर सौं । राँम पढ़ावल फुल्ल ।। १०

'कादम्बरी' और 'पदमावत' (जायसी) के शुक की भाँति रासो का इस स्थल का शुक पूर्व से ही वाचाल नहीं है, परन्तु आगे तो जैसे उसका कंठ एकदम खुल जाता है । पद्मावती के रूप, गुण आदि देखकर वह अपने मन में विचार करता है कि यह पृथ्वीराज को मिल जाय तो उचित हो :

कीर कुंवरि तन निरपि दिपि । न सिप लौं यह रूप ।।
करता करी बनाय । यह पदमिनी सरूप ।। ११, तथा


के दर्शन से अपने को सफल करने की कामना लिये, भूमण्डल के अलङ्कार सदृश कुंडिनपुर को प्रस्थित हुआ । ]

३. सारंगाच्या जनयति न यद् भस्मसादंगकानि

स्वदेश्ले स्मर हुतवह: श्वास संधुक्षितोऽपि ।

जाने तस्या: स खलु नवनद्रोणिवारां प्रभावो

यद्वाश्व तव मनोवर्तिन : शीतलस्य ।। ७५;
[अर्थात् -- (मलयाचल की गन्धर्व कन्या कुवलयावती ने राजा लक्ष्मणसेन के रूप पर मोहित होकर उनके चले जाने पर पवन दूत द्वारा अपना विरहसन्ताप प्रेषित किया । पवन कहता है-- हे राजन् ! तुम्हारे वियोग में यह कामरूपी अग्नि, श्वास के पवन से सुलगाई जाने पर भी उस मृगनयनी के कोमल अंगों को जलाकर राख नहीं कर देती इसके दो ही कारण संभव हैं--एक तो उसके सुन्दर नेत्रों से अनवरत अश्रुधारा बह रही है और दूसरे तुम्हारी शीतल मूर्ति उसके हृदय में प्रतिष्ठित हैं । ]

उमा प्रसाद हर हरियत । मिलहि राज प्रथिराज जिय ।।१२

फिर क्या था, शुक का दूत-कर्म प्रारम्भ हो जाता है । पद्मावती द्वारा अपना देश पूछे जाने पर वह कहता कि मैं हिन्दुओं के दिल्ली-गढ़ का निवासी हूँ, जहाँ के शासक सुभटों के सम्राट पृथ्वीराज मानों इन्द्र के अवतार हैं :

उच्चरि कीर सुनि बयन । हिंदवान दिल्ली गढ अयनं ।।
तहाँ इंद अवतार चहुवान । तह प्रथिराजह सूर सुभारं ।। १५,

और पृथ्वीराज के नाम का सूत्र पकड़ते ही वह चतुर दूत दिल्लीश्वर के सौन्दर्य और शूरता की प्रशस्ति पढ़ चलता है ( छं० १६-२२),जिसके पद्मावती के हृदय पर वांछित प्रभाव की सूचना देने में कवि नहीं चूकता :

सुनत भवन प्रियराज जस । उमग बाल विधि श्रंग ॥ तन मन चित्त चहुवाँन पर । बस्यौ सुरतह रंग ।। २३

सुग्धा-मोहिता राजकुमारी जब कमायूँ के राजा कुमोदमनि के साथ अपना विवाह होने और बारात आने की बात सुनती है ( छं० २४-३१ ) तब वह बिसूरती हुई शुक के पास एकान्त में जाकर उसे दिल्ली से चौहान को शीघ्र लाने की बात कहती है :

पदमावति विलषि बर बाल बेली । कही कोर सों बात होइ तब केली ।।
भटं जाहु तुम्ह कीर दिल्ली सुदेसं । वरं बाहुवानं जु आनौ नरेसं ।। ३२,

तथा 'ज्यौं रुकमनि कन्हर बरी' द्वारा अपने पत्र में प्रेरणा देती हुई, शिव-पूजन के समय अपना हरण करने का मंत्र भी लिख भेजती है।

ज्यों रुकमनि कन्हर बरी । ज्यों बरि संभरि कांत ।।
शिव मंडप पच्छिम दिसा । पूजि समय स प्रांत ।। ३५

और कार्य कुशल पर वह शुक-दूत आठ प्रहर में ही दिल्ली जा पहुँचता है :

लै पत्री सुक यौं चल्यो । उड्यौ गगन गहि बाब ।।
जाँ दिल्ली प्रथिराज नर । ग्रह्न जाँम में जान ।। ३६,

पृथ्वीराज पत्र पाकर, शुक के दौत्य पर रीझते-मुसकारते, प्रेम के श्रमदान की अकांक्षिणी के त्राण हेतु प्रस्थान की आयोजना में लग जाते हैं :

दिय कागर नृप राज कर । बुलि बंचिय प्रथिराज ।।
सुक देषत मन में हँसे । कियो चलन को साज ।। ३७

और जिस प्रकार जायसी के 'पदमावत' का शुक सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती को योगी रूप में उसी के हेतु श्राये हुए चित्तौड़ के राजा रतनसेन का वरण करने के लिये प्रेरित करता है ( १९-- पदमावती-सुधा-भेंट खंड ) :

तुम्ह बारी रस जोग जेहि, कँवलहि जस अरघानि ।।
तस सूरूज परगास कै, भौर मिलाएउँ श्रानि ।। ४,

अथवा जिस प्रकार पृथ्वीराज राठौर की 'वेति क्रिसन रुकमणी री' का ब्राह्मण दूत द्वारिकापुरी से कृष्ण को लाकर रुक्मिणी को सूचना द्वारा आश्वस्त करता :

सँगि सन्त सखीजण गुरजण स्यामा

मनसि विचार से कही महन्ति ।

कुसस्थली हूँता कुन्दणपुरि

क्रिसन पधारथा लोक कहन्ति ।। ७२,

उसी प्रकार अपनी प्रतीक्षा में श्रातुर समुद्रशिखर की विरह-विधुरा राजकुमारी को रासो का शुक अपने सम्वाद से हर्ष विहल कर देता है :

दिषत पंथ दिल्ली दिसॉन । सुष भयौ सूक जब मिल्यौ न ।।
संदेस सुनत आनंद मैंन । उमगिय बाल मनमथ्थ सैन ।। ४२,

और आल्हाद-पूरिता राजकन्या प्रियतम से मिलन हेतु अपने शृङ्गार में तन्मय हो जाती है :

तन चिकट वीर डारथौ उतारे । मज्जन मयंक नव सत सिंगार ।।
भूलन मँगाय न सिष अनूप सजि सेन मनों मनमथ्थ भूप ।। ४३

कहने की आवश्यकता नहीं, अपहरण और युद्ध के उपरान्त प्रणयिनी अपने अभीष्ट वर के साथ दिल्ली के राजमहल में विलास करती है |

इस प्रकार देखते हैं कि राम्रो में शुक को प्रणय-दूत बनाकर कवि ने अपना कथा कार्य साधा है । परन्तु इस कथा-सूत्र को रासो की पुरातनता की एक आधारशिला बनाकर चलते हुए हमें डॉ० दशरथ शर्मा की शोध व्यान में रखनी है । उन्होंने अपने 'सम्राट पृथ्वीराज चौहान की रानी पद्मावती' शीर्षक लेख में सं० १४५५ वि० में राजा अखैराज के आश्रित कवि पद्मनाभ द्वारा रचे गये 'कान्हड़ दे प्रबंध' के आधार पर सिद्ध किया है कि पृथ्वीराज की रानी पाहूला की पुत्री पद्मावती किसी राज्य प्रधान के हनन का कारण बनी थी और उसके इस कार्य से चाहमान राज्य को अत्यधिक क्षति पहुँची थी । उनका अनुमान है-- "अपरोक्ष रूप से चाहमान साम्राज्य के सर्वनाश


१. मरु भारती, वर्ष १, अंक १, सितम्बर १९५२ ई०, पृ० २७-८; का सूत्रपात, प्रधान मंत्री कैमास के यक्ष द्वारा कराने वाली चाबू के परमार राजा की पुत्री, रासो की महारानी इंछिनी और पद्मावती संभवत: एक ही रही हो । उनका पृथक्करण उस समय हुआ होगा जब चारण और भाट चौहान इति- हास को अंशत: भूल चुके थे। इसीसे उन्हें इच्छनी को आबू के राजा सलख की पुत्री और जैत परमार की बहन बनाना पड़ा, यद्यपि पृथ्वीराज की गद्दीनशीनी से लगाकर उसकी मृत्यु के बहुत पीछे तक आबू का राजा ( ग्रह-लादन या पाहण का बड़ा भाई ) धारावर्ष था; और शायद इसी से पूर्व दिशा में उन्हें समुद्रशिखर नाम के एक ऐसे दुर्ग की कल्पना करनी पड़ी, जिसके विषय में इतिहास कुछ नहीं जानता । तुए की कथा प्रचलित लोका-ख्यानों, कल्कि पुराण, जायसी के पद्मावत से भले ही ली गई हो परन्तु पद्मावती स्वयं कल्पित न थी साहित्य की दृष्टि से रासो का 'पद्मावती समय ' बहुत सुन्दर है, किन्तु अपने सत्य और असत्य के अविवेच्य संमिश्रण के कारण ऐतिहासिक के लिये यह प्राय: निरर्थक है ।"

इस प्रसंग के उपरान्त शुक-शुकी का बक्ता श्रोता रूप 'शशिवृता समय २५' में देखने को मिलता है। जिसमें देवगिरि की राजकुमारी शशित्रुता का सौन्दर्य एक नट द्वारा सुनकर पृथ्वीराज उस पर व्यासक्त हो, उसकी प्राप्ति की चेष्टा करते हैं और कामातुर हो उसके विरह में लीन, मृगया-रत हो जाते हैं, जहाँ वन में एक वाराह का पता बताने वाले बधिक के साथ अपने अनु गामियों सहित 'तुपक' धारी राजा के वर्णन के बीच में अनायास झुकी, शुक से कह बैठती है कि दिल्लीश्वर के गन्धर्व विवाह की कहानी सुनाओ :

पुच्छ कथा तुक कहो । समह गंधवी सुप्रेमहि ।।
स्रवन मंभि संजोग । राज समधरी सुनेमहि ।।
.... .... .... । इम चिंतिय मन मलिक ।।
करौ पति जुग्गनि ईसह । इस पुज्जै सु जग्गीसह ।।
शुक चिंति बाल अति लघु सुनत । ततबिन विस उपजै तिहि ।।
देव सभा न जददुवनपति । नाल केर दुज अनुसरह ।। ६८,

और इसके बाद ही शशिता के पास दवा-भाव से त्राने वाले एक हंसरूपी


९. वही, पृ० २८;

२. छं० ६७ में 'ग्रह करि तुपक सुराज' वरण का 'तुपक' (बन्दूक ) शब्द उक्त शब्द या सम्पूर्ण छन्द के परवर्ती प्रक्षेप होने का सूचक है । इसी प्रकार पिछले छं० ५२ में 'बन्दूक' शब्द का प्रयोग है :

सर नाक बंदूक । हरित जन बसन विरज्जिय ।। गन्धर्व का प्रेसर बनकर पृथ्वीराज को नाना युक्तियों से प्रबोधते, सन्तुष्ट और प्रेरित करते हुए देवगिरि लाने का वृत्तान्त कवि ने दिया है ।'

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-- 'पत्रोसवें समय के बाद बहुत दूर तक शुक और शुकी का पता नहीं चलता । सैंतीसवें समय में वे फिर द्विज और द्विजी के रूप में आते हैं । सम्भवत: तैंतीसवें समय का प्रसंग उनसे भूल से छूट गया है । इस इन्द्रावती व्याह समय ३३' के अन्त में उज्जैन के राजा भीम को कन्या इन्द्रावती और पृथ्वीराज का शयनागर में प्रथम मिलन और रति-क्रीड़ा के प्रसंग में नव रसों की स्फुरणा का संकेत कौशल से करते हुए-

रस विलास उपज्यौ । सधी रस हार सुरत्तिय ।।
ठांम ठाम चढ़ि हरन । सह कहकह तह मन्तिय ।।
सुरत प्रथम संभोग । हैंह हंहं मुष रट्टयि ।।
ना ना ना परि त्रबल । प्रीति संपति रत थट्टिय ।।
शृंगार हास करुणा सु रुद्र । वीर भयान विभाछ रस ।।
अदभूत संत उपज्य सहज । सेज रमत दंपति सरस ।। ८१,

शुक दम्पति संमरेश के इस पूर्व रस का श्रास्वादन करते दिखाई देते हैं :

सुकी सरस सुक उच्चरिंग । गंधब गति सो ग्यान ।।
इह अपुब्ब गति संभरिय । कहि चरित चहुत्रान ।। ८२

इसी 'समय' में—

सो मति पच्छै उपजै । सो मति पहिले होइ ।।
काज न विनसै पनौ । दुज्जन हँसै न कोइ ।। ५०,

पढ़कर, मेाचार्य की 'प्रबन्ध-चिन्तामणि' का सुख और मृणालवती सम्बन्धी निम्न छन्द स्मरण या जाता है तथा रासो का उपयुक्त छन्द इसी की छाया प्रतीत होता है :

जा मति पच्छइ सम्पूजइ । सा मति पहिली होइ ।
मुञ्ज भाइ मुणलवइ । बिधन न बेढइ कोइ ।।

मुजराजग्रबन्ध, पृ० २४,

सैंतीसवें 'पहाड़राय सम्यो' के व्यारम्भ में शुक्र और शुकी, द्विज और द्विजी के रूप में परस्पर जिज्ञासा करते हुए दिखाई देते हैं :


१. छं० ६९--२२५ ;

२. हिंदी साहित्य का श्रादिकाल, पृ० ६४ ;

दुज सम दुजी सु उचरिय । ससि निसि उज्जल देस ।।
किन तूअर पाहार पहु । गहिय सु असुर नरेस ।। १

आचार्य द्विवेदी जी का अनुमान है कि मूल रासो में शुक और शुकी के वार्तालाप ढंग के अन्तर्गत शहाबुद्दीन के खाने का यह प्रथम अवसर है ।'

पैंतालिसवें 'संयोगिता पूर्वजन्म प्रस्ताव' में इन्द्र की प्रेरणा से जयचन्द्र और पृथ्वीराज के वैर की कथा का सूत्रपात एक गन्धर्व द्वारा होता है। गन्धर्व शुक-वेष में कन्नौज जाता है और रात्रि में मदन ब्राह्मणी के घर जहाँ संयोगिता पढ़ती थी, जाकर ठहर जाता है तथा उक्त नगरी का माहात्म्य अनुभव करता है ( छं० ५१-५२ ) । गन्धर्वी, संयोगिता का राजा के घर में जन्म लेने का वृत्तान्त पूछती है ( छं० ५३ ) । वह उत्तर देता है कि संयोगिता श्रप्सरा का अवतार है और सुमन्त मुनि के ( कारण ) आप से शूरों का संहार करने के लिये जन्मी है ( छं० ५४ ) । तदनन्तर शुक कहता है कि शुकी, जिस प्रकार अप्सरा ने मुनि को धोखे से छला था और जिसके कारण उसे श्राप मिला, वह सुनो :

सुकी सुनै सुक उच्चरै । पुब्ब संजोय प्रताप ।।
जिहि छर अच्छर मुनि छरयौ । जिन त्रिय भयो सराप ।। ५५

यहाँ शुक और की वार्तालाप के प्रसंगानुसार गन्धर्वगन्धर्वी हैं । कन्नौज की, राजकुमारी संयोगिता का व्याख्यान यहीं से प्रारम्भ होता है। देवलोक की मंजुषा (जिसे छं० ७५ में रम्भा भी कहा गया है ) देवराज की आज्ञा से मर्त्यलोक के सुमन्त ऋषि की तपस्या भंग करने के लिये आती है ( छं० ७४ ) और अपने संगीत द्वारा वह ऋषि की समाधि मंग करती है तथा उसके रूप लावराय और भाव-विलास को देखकर (छं० ७७-६६), सुनि आश्चर्य चकित हो जाते हैं (छ०९७-६६ ) तथा जप-तप का मोह छोड़कर कामार्त हो उसका हाथ पकड़ लेते हैं, जिसे हँसी के साथ छुढाती हुई वह अन्तध्दर्न हो जाती है (कुं० २०० ) । मुनि मूच्छित होकर क्षण भर के लिये गिर पड़ते हैं परन्तु फिर अपने चित्त को सँभाल कर मग्न हो जाते हैं (छं० १०१-२ ) । यहीं पर शुकी, शुक से मुनि का मन डिगनेवाली अप्सरा के सौन्दर्य का वर्णन पूछती है :

सुकी सुकहं पुच्छे रहसि । नष सिष बरनहु ताहि ।।
जा दिन सुनि मन रयौ । रह्यौ टगट्टग चाहि ।। १०३,

और इस मिस से कवि को रमणी-रूप वर्णन का एक अवसर मिल जाता


१. वही, पृ० ६४; है ( छं० १०४-१७ ) । इसी शुक्र-शुकी वार्तालाप सूत्र के अन्तर्गत आगे चलकर पढ़ते हैं कि जब योगिनी रूपिणी अप्सरा के प्रति सुमन्त काम के बशीभूत हो रहे हैं (छं० १५०-५३ ), तब वह कहती हैं कि योग की उक्तियों से क्या होगा, श्यामा से प्रेम सहित रमख करो जिससे पूर्व जन्म का फल प्राप्त हो :

वनिता बदंत विप्पं । जोगं जुगति केन कम्मायं ।।
स्थामा सनेह रमनं । जनमें फल पुल्व दत्ता ।। १५४,

इसी अवसर पर सुमन्त के पिता जरज ऋषि थाकर अप्सरा को श्राप दे देते हैं (छं० १५८-९९ ) । यही श्रापित ( रम्भा ) ग्रप्सरा पहुषंग ( जयचन्द्र) के घर में जन्म लेकर संयोगिता के नाम से प्रसिद्ध होती हैं और ( मदन ) ब्राह्मणी के घर विनय-संगत पढ़ने जाती है (छं० २००) ।

सुमन्त मुनि और अप्सरा के वार्तालाप में सगुणोपासना का उपदेश भी मिलता है ( छं० १४३-४६) । इस चर्चा में भा बिन प्रीति न होइ' (छं० १४८) देखकर आचार्य द्विवेदीजी का अनुमान है-- 'यह प्रसंग तुलसी के मानस की कथा से प्रभावित होकर लिखा जा रहा हैं ग्रस्तु यह सावधान करता है कि शुक शुकी का नाम देखकर ही सब बातों को ज्यो-का-त्यो पुराना नहीं मान लिया जा सकता ।' परन्तु संयोगिता का व्यक्तित्व और उसकी कहानी मूल रासो की कथा है जिसे डॉ० दशरथ शर्मा विविध प्रमाणों द्वारा सिद्ध कर चुके हैं ।

छियालिसवें ‘विनय मंगल नांम प्रस्ताव' के श्रोता यक्ता पूर्व 'समय' के गन्धर्व-गन्धवी है :

पुन कथा संजोग की । कहत चंद बरदाई ।
सुनत सुगंधव गंत्रवी । अति श्रानंद सुहाई ।।१,

फिर संयोगिता को शिक्षा देने के प्रकरण में शुक शुकी आ जाते हैं । शुक-शुकी, द्विज-द्विजी और गन्धर्व-गन्धर्वी इस प्रकरण में बहुत उसके हुए से हैं परन्तु मूलतः वे इन्द्र प्रेरित गन्धर्व-गन्धर्वी हैं, जो शेष दो रूपों में देव- राजका कार्य साधते हैं। जयचन्द्र अपनी किशोरी कुमारी संयोगिता को शिक्षा देने के लिए मदन ब्राह्मणी को नियुक्त करते हैं। एक रात्रि के पिछले प्रहर में द्विजी, द्विज से संयोगिता के विषय में प्रश्न करती है :


१. हिंदी साहित्य का आदिकाल, पृ० ६५ ;

२.संयोगिता, राजस्थान भारती, भाग २, अंक २-३ जुलाई-अक्टूबर

१९४६ ई०५ पृ० २१-२७;

जाम एक निसि पच्छिली । दुजनिय दुजबर पुच्छि ।।
प्रात अप्प धर दिसि उडै । जे लच्छिन कहि अच्छि ।। ४३,

और द्विज द्वारा उसकी पूर्ति करने पर (छं० ४४-५१ ); द्विजी, कुमारी को युवती देखकर वधू-धर्म की शिक्षा तथा विनय की मर्यादा, गौरव और प्रशंसा का पाठ पढ़ाती है (छं० ५६-१०७ ) । इसी शिक्षा-काल में मदन ब्राह्मणी के घर के प्रांगण में आम्रवृक्ष पर रहने वाले असंख्य शुक्र-पिक पक्षियों में से एक शुक-शुकी दम्पति संयोगिता की पूर्व कथा के वक्ता-श्रोता के रूप में द्विज-द्विजी नाम से दिखाई पड़ते हैं :

सुधरता तर रतिर रत्तिय । दुज दुज्जानी बत्तर मन्तिय ।
प्रोग प्रियं रज राजन मंडिय । जीहा जान उभै षह पंडिय ।। १०८

मदन वृद्ध बंभनिय । सार माननिय मनोबसि ।।
कामपाल संजोग । विनय मंगलति पढति रस ।।
वह सहारंतर एक । अंग अंगन घन मौरिय ।
सुक पिक पंषि । बसहि वासर निसि घेरिय ।।
इक बार दुजी दुज सों कहै । सुनहि न पुम्ब अपुन कथ ।।
उतकंठ बधै मन उल्लसै । रहहि नींद आवै सुनत ।। १०९

द्विज,द्विजी को उत्तर देते हुए योगिनिपुर और अजमेर नरेश (पृथ्वीराज ) के शौर्य का वर्णन करता है (छं०११०-११) । यह कथा कहते-सुनते रात्रि व्यतीत हो जाती और द्विज द्वारा कथित, श्रवणों को सुखद, यह कथा द्विजी समझती जाती है :

सुमत कथा अछित्तरी । गइ रत्तरी बिहार ।।
दुज्ज कहयौ दुजि संभल्यौ । जिहि सुख श्रवन सुहाय ।। ११२,
प्रातःकाल यह द्विज रूपी शुक योगिनिपुर चल दिया :
होत प्रात तब पठन तजि । वाइ हिंडोरन श्राइ ।।


१. श्राचार्य द्विवेदी जी की ( हिंदी साहित्य का आदिकाल, पृ० ६५ पर) कथन है कि यहाँ दुज दुजी को सँभलने के लिये कहता है । परन्तु मेरा अनुमान है कि 'संभल्यौ' क्रिया यहाँ पर हिंदी की न होकर राजस्थानी की हैं, जिसका अर्थ होता है 'स्मरण करना', 'समझना', 'सुनना' आदि । इसी अर्थ में वेतिकार पृथ्वीराज ने इस का प्रयोग कई स्थलों पर किया है :

साँभल अनुराग थयौ मनि स्यामा, वर प्रापति वच्छती घर ।।
हरि गुण भणि ऊपनी जिका हरि हरि तिथि बन्दै गरि हर ।। २९,

इह चरित दुज देष कै । पछ जुगिनिपुर जाइ ।। ११३

सैंतालिस 'सुक वर्णन समय' में मदन ब्राह्मणी के घर में पढ़ने वाली संयोगिता तथा अन्य कुमारियों की तुलना क्रमश: चन्द्रमा और तारागणों से करते हुए (छं ०१), पूर्व 'समय' वर्णित शुक शुकी दम्पति के दिल्ली की ओर उड़ने का वर्णन आता है :

इति हन्फालय छंद । गुर च्यार नभ जिम चंद ।।
उड़ चले दंपति जोर । चितः स पिथ्थह और ।। ४ और छं० ५;

और शुक का ब्राह्मण-वेश में पृथ्वीराज के पास जाने का समाचार मिलता है :

नर भेष घरि साकार । दुज भेज मुक्कयो सार ।।
दिवि ब्रह्म भेस प्रकार । किय मान व अपार ।।६
सोई दुज दुजनी करे । बहु तरुवर उडि जानि ।।
सो सहार संजोग किय। तीयह रम्य सु थान ।। ७,


सम्भलत धवल सर साहुलि सम्मति, आलूदा ठाकुर अलल ।।
पिंड बहुरूप कि भेत्र पालटे, केसरिया ठाहे क्रिंगल । ११३, वेलि;

तथा

गंगा कर गीताह, श्रवण सुखी अरु साँभली ।
जुगनर वह जीताह, वेद कहै भागीरथी ।४, गंगालहरी;

'ढोला मारू रा दूहा' में भी इस शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग मिलता है:

ढोलइ मनि आरति हुई , साँभलि ए विरतंत ।
जे दिन मारू विरा गया, दई न ग्यॉन गिरांत ।। २०८,

और सम्भवत: तुलसी ने भी अपने 'मानस' में निर्दिष्ट अर्थ में 'संभारे' का प्रयोग किया है :

बंदि पितर सब सुकृत सँभारे । जो कछु पुण्य प्रभाव हमारे ।। दोहा २५४

और २५५ के बीच में, बालकाण्ड;

शुक शुकी सम्बन्धित रासो के कई अन्य स्थलों पर 'संभलो' का प्रयोग ‘समझना' अथवा ‘स्मरण करना' के अर्थ में हुआ है; यथा— सुकी कहै क संभरौ, कहैं सुकी सुक संभलौ; सुक्क सुकी सुरु संभरिय; आदि ।

२. शुकी रूपी ब्राह्मणी संयोगिता के पास अभी नहीं जाती जैसा कि सभा वाले रासो (पृ० १२७५ ) के सम्पादकों ने इस छन्द के श्राधार है । फिर ये शुक शुकी, द्विज-द्विजी के रूप में पृथ्वीराज के पास पहुँच कर उन्हें संयोगिता के प्रति आकृष्ट करते हैं :

कहै सु दुज दुजनीय । सुनौ संभरि त्रप राजं ।।
तीन लोक हम गवन । भवन दिष्त्रे हम साजं ।।
जं हम दिषिय एक । तेह नभ तड़िक प्रकारं ।।
सदन बंसनिय ग्रेह । नाम संजोगि कुमारिं ।।
सित पंच कन्प तिन मध्य श्रव । अवर सोभ तिन समुद बन ।।
आकास मदि जिम उडगनिन । चंद विराजै मन भुवन ।।८,

और कान्यकुब्ज की राजकुमारी का रूप, वयः सन्धि, वसंत सदृश अङ्कुरित यौवन तथा नख-शिल यादि का वर्णन करके पृथ्वीराज को उस पर आसक्त कर देते हैं (छं० ९-७७ ) ।

तदुपरान्त पृथ्वीराज द्वारा मनोवांछित द्रव्य-प्राप्ति का प्रलोभन पाकर, ' वे शुक शुकी कन्नौज-दिशा की ओर उड़ जाते हैं और मदन ब्राह्मणी के घर जा पहुँचते हैं:

दुज चलै उड्डि कनवज्ञ दिसि । येह सपत्तिय बंभनिय ।। ७८,

और की ब्राह्मणी-रूप में संयोगिता से मिलकर, पृथ्वीराज के रूप- गुणानुवाद के प्रति उसे आकृष्ट करती है ( छं० ७६-८७ ), जिसके फलस्वरूप राजकुमारी दिल्लीश्वर के वरण की अभिलाषा मात्र ही नहीं करती वरन् वैसा न होने पर जल में डूब मरने का निर्णय कर लेती है :

यो वृत लीनो सुंदरी । ज्यों दमयंती पुब्ब ।।
कै हथ लेबौ पिथ करौं । के जल मध्यें दुब्ब ।। १०१,

तथा दूसरी ओर पृथ्वीराज भी संयोगिता के प्रेम में अहर्निश चूर है :

विय पंगानि कुमारि सुमार सुमार तजि ।
घरी पहर दिन राति रहै गुन पिथ्थ भजि ।।
भेद भेजें और जोर मन में लजिहि ।
पुच्छहि त्रिबत्त न तत प्रकास किहि ।। १०२,

इस प्रकार देखते हैं कि शुक शुकी इस कथा के श्रोता-वक्ता मात्र ही नहीं रहते वरन् उसके पात्र बन जाते हैं । अवसर के अनुकूल अपना रूप


१. देउ द्रव्य मन वंछ । जाइ प्रमुधै तिथ श्राजं ।। ७८;
२. जिमि जिमि सुंदरि दुजि बयन । कही जु कथ्य सँवारि ।।
बरनन सुनि प्रथिराज कौ । भय अभिलाष कुश्रारि ।। ८८;

बदल कर ये इष्ट की प्राप्ति में सफल होते हैं । गन्धर्व-गन्ध का आचरणं रूप-परिवर्तन सम्बन्धी कथा-सूत्र का स्मरण भी करवा देता है।

'पज्जून महुवा नाम प्रस्ताव ५३' में फिर शाह गोरी और चौहान के महुवा में होने वाले युद्ध के कारण को जिज्ञासा करती हुई शुकी देखी जाती है :

सुक्क सुकी सुक संभरिय । बालुक कुरंभ जुद्ध ।।
कोट महुव्वा साहदत । कहाँ आनि किम रुद्ध ।। s

इस 'प्रस्ताव' के अन्त में यश-कथा कहने वाले किसी मलैसिंह का उल्लेख मिलता है :

जीति महुव्वा लीय बर । ढिल्ली श्रानि सुपथ्थ ।।
जं जं कित्ति कला बढ़ी । मलैसिंह जस कथ्थ ।। ३०,

जिससे अनुमान होने लगता है कि यह प्रकरण या तो सर्वथा प्रक्षित हैं अथवा महुवा में हुए किसी चौहान-युद्ध का कहीं संकेत पाकर प्रक्षेपकर्ता ने इसे वर्तमान रूप प्रदान किया है।

इकसठवे 'नवज समयो' का प्रारम्भ भी शुक-सुख से संयोगिता के विरह में सन्तप्त पृथ्वीराज की आन्तरिक दशा के वर्णन से होता है :

सुक वरनन संजोग गुन । उर लग्गे छुटि बान ।।
बिन बिन सल्ले वार पर । न लहै बेद बिनान ।।१,

परन्तु इसके उपरान्त शुकी-शुक, श्रोता-वक्ता रूप में रासो के उपसंहार तक कहीं नहीं दिखाई पड़ते । इस 'प्रस्ताव' में जयचन्द्र के दरबार में नीली चोंच और रक्तवर्ण-शरीर वाले एक शक की केवल चर्चा मिलती है जो राजा के वाक्यों को दुहराता है :

नील चंच अरु रत तन । कर कर कटी भवेत ।।
जो जोइ अर्षे राज मुख । सोइ सोइ कीर कहंत ।। ५२५

वृहत् रासो के शुक शुकी सम्वाद की परीक्षा करके आचार्य द्विवेदी जी ने अपनी धारणा इस प्रकार व्यक्त की है-- 'यह बात मेरे मन में समाई हुई है कि चंद' का मूल ग्रन्थ शुक शुकी सम्वाद के रूप में लिखा गया था । और जितना अंश इस सम्वाद के रूप में है उतना ही वास्तविक है" । इसी विचार के अनुसार उन्होंने अपने 'संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो' का सम्पादन भी किया है ।


१. हिंदी साहित्य का आदि काल, पृ० ६३ ;

२. साहित्य भवन लिमिटेड इलाहाबाद, सन् १९५२ ई० ; का स्वादात्मक रूप में प्रणयन पर्याप्त प्राचीन पद्धति है, फिर भी यह देख लेना समीचीन होगा कि क्या रासो की शेष तीन वाचनाओं में भी शुक शुकी मिलते हैं और इन वक्ता श्रोता का उल्लेख करने वाले छन्दों की भाषा कैसी है । इस पर भी विचार कर लेना चाहिए कि यदि शुक शुकी का प्रसंग हटा दिया जाय तो कथा में क्या परिवर्तन हो जायगा और साथ ही इस पर ध्यान देना आवश्यक है कि क्या शुक शुकी रासो की भिन्न कथाओं को जोड़ने वाली कड़ियों के रूप मात्र में तो नहीं लाये गये हैं । मेरा अनुमान है कि 'लीलावई' की भाँति मूल रासो भी पत्नी की जिज्ञासा-पूर्ति हेतु कवि द्वारा प्रणीत हुआ है । श्रोता-वक्ता के कई जोड़े जैसे महाभारत आदि में मिलते हैं उसी प्रकार रासो में भी वे वर्तमान हैं। उनकी उपस्थिति कहीं सम्भव है और कहीं विभिन्न कथाओं को श्रृंखलित करने के लिये कड़ियों के रूप में परवर्ती चातुर्य है ।

प्रशस्ति-पाठ आदि का कार्य कवियों ने शुक और सारिका से भी लिया है। बारहवीं शती के श्रीहर्ष ने लिखा है--'लोगों के द्वारा नल के उद्देश्य से सिखा पढ़ाकर वन में छोड़े गये चतुर तोते उनकी स्तुति करने लगे उसी तरह वहाँ छोड़ी गई सारिकाएँ भी उनके पराक्रम का गान करके अपने अमृत स्वर से उनकी स्तुति करने लगीं' :

तदर्थमध्याप्य जनेन तद्वने शुका विमुक्ताः पढवस्त मस्तुवन् ।
स्वरामृतेनोपजगुश्च सारिकास्तथैव तत्पौरुषगायनीकृताः ॥ १०३, नैषध;

परन्तु रहस्योद्घाटन करने वाले निर्दोष भेदिया के रूप में शुक और सारिका का प्रयोग भी भारत की एक प्राचीन कथा-योजना है। सातवीं इसवी शती के पूर्वार्द्ध के ( सम्राट ) हर्ष रचित विज्ञासमय प्रणय के रंगीन चित्र वाली नाटिका 'रत्नावली' की दासी रूपिणी सिंहत देश की राजकुमारी सागरिका राजा वत्सराज उदयन के प्रति विभोर होकर अपना गोपनीय प्रेम अपनी सहेली सुसङ्गता से प्रकट करती है-- 'दुर्लभ जन में अनुराग है, लज्जा बहुत भारी है और आत्मा परवश है; हे प्रिय सखी, विषम प्रेम है, मरण और शरण में एक भी श्रेष्ठ नहीं है':

दुल्लहपुरानो लज्जा गुरुई परव्वसौ अप्पा ।
पिअसहि विसमं प्पेम्मं मरणं सरणं गु वरमेकम् ।।११, अङ्क २;

महल की सारिका उपर्युक्त कथन सुनती थी, उसने इसे दोहराना प्रारम्भ कर दिया जिसे राजा ने भी सुन लिया और अपने विदूषक वसन्तक से कहा -- 'कठिनाई से निवारण करने योग्य कुसुम-शर की कथा को धारण किये हुए कामिनी के द्वारा जो कुछ सखियों के सामने कहा गया उसका पुनः शुक और शिशु सारिका द्वारा अपने श्रवण-पथ का अतिथि बनना भाग्यवानों को ही प्राप्त होता है' :

दुर्वारां कुसुमशरव्यथां वहन्त्या

कामिन्या यदभिहितं पुरः सलीनाम् ।

तद्भूयः शुकशिशुसारिका भिरुक्तं

धन्यानां श्रवणपथातिथित्वनेति ॥ ७, अङ्क २ ;

सारिका द्वारा प्रकाशित इस गुप्त प्रेम का निष्कर्ष सागरिका और वत्सराज के विवाह की सुखद परिणति है ।

'सतत रसस्यन्दी' पद्यों के रचयिता, सातवीं ईसवी शताब्दी के लगभग वर्तमान, मुक्तक काव्य में श्रृङ्गार के अप्रतिम चित्रकार तथा आनन्द-वर्द्धन के शब्दों में 'प्रबन्धायमान' रस कवि मरुक ने ऐसे शुक का उल्लेख किया है जो एक दम्पति का रात्रि में सम्पूर्ण प्रेमालाप सुनकर प्रात:काल उसे गुरुजनों (सास, श्वसुर आदि ) के सामने दुहराने लगा था; ब्रीड़ा से पूरित वधू ने उसकी वाणी निरुद्ध करने के लिये अपने कान के कर्णफूल का पद्मरागमणि उसके सामने रख दिया, जिस पर उसने दाहिम फल की भ्रान्ति से चोंच मारी और अपना आलाप बंद कर दिया' :

दम्पत्योर्निशि जल्पतोगृह सुकेनाकर्ति यद्वच-

स्तत्प्रातर्गुरुसन्निधौ निगदितः श्रुत्यैव तारं वधूः ।

कर्णालम्बितपद्मसकलं विन्यस्य स्वञ्चयाः पुरो

वीडार्ता प्रकरोति दाडिमफलव्याजेन वाग्बन्धनम् ॥१६,

श्रमस्तकम्;

रासो में भी एक शुक भेदिया का कार्य करता हुआ पाया जाता है । परन्तु वह निर्दोष नहीं वरन् पूर्ण अपराधी है । सपली-मर्दन के उद्देश्य से प्रेरित होकर, दूत-कर्म का कृती वह वाचात शुक, विग्रह का मूल होकर भी अन्त में स्वयं उसकी निवृति का हेतु बनकर धृष्ट-दूतत्व करने वाला कहा जा सकता है । बासठवें 'शुक चरित्र प्रस्ताव' में इसी शुक का वृत्तान्त है। पृथ्वीराज की महारानी इंच्छिनी, संयोगिता के आगमन के उपरान्त, राजा को सर्वथा उसके वशीभूत पाकर सपत्नीक डाह से जलती हैं (छं० ३- ८ ) । एक दिन वे अपने पालतू शक को अपने आन्तरिक दाह की सूचना देती हैं ( छं० १०-१३ ) । शुक पहले तो कहता है कि यदि मुझसे. इस प्रकार की बातें अधिक करोगी तो मैं चौहान से कह दूँगा ( छं० १४ ) । परन्तु फिर रानी को रुष्ट देखकर अपने को एक रात्रि के लिये संयोगिता के शयनागार में पहुँचाने के लिये कहता है ( इं० १५ ) । सौत-बैर के होते हुए भी इंच्छिनी संयोगिता से कपट-प्रीति बढ़ाती हैं और शुक को पिंजड़े सहित उसे दे देती हैं (छं० २६-२८ और ४७ ) । सरला संयोगिता शुक को अपने शयनागार में ले जाती है और वहाँ रहता हुआ वह शुक संयोगिता के हाव-भाव, शारीरिक सौन्दर्य, रति-क्रीड़ा आदि सभी कुछ तो देखता है (छं० ६७-८६ ) ।

पृथ्वीराज राठौर ने कृष्ण और रुक्मिणी की रति-वर्णन का प्रसंग 'दीठौ न सु किहि देवि दुजि' और 'अदिठ अलुत किम कहयौ आवै' कह कर टाल दिया, परन्तु इस वर्णन हेतु ही तो रासोकार ने शुक का मिस गढ़ा था फिर उक्त विवरण वह क्यों न प्रस्तुत करता ।

कई दिवस पश्चात् जब शुक इंच्छिनी के पास लौट आया तो रानी ने स्वभावतः ही संयोगिता का रति-रास पूछा ( छं० ९०-१ ) और उस शुक ने उस गुप्त प्रकरण का उद्घाटन इंन्च्छिनी तथा उसकी सखियों के आगे करना प्रारम्भ कर दिया :--

जो रस रखनन अनुदिनह । अधर दुराइ दुराइ ।।
सो र दुज कन कन करयौ । सपिन सुनाइ सुनाइ ।।
सबिन सुनाइ सुनाइ । हिय सुचि सुचि लज मन्नह ।।
सुथल विथत थत कंपि । नेन नटकीय नहन्नह ।।
जियन मरन भिल मैन । कह्यौ श्रदभुत प्रिय रस ।।
ए रस अंतर भेद । प्रीय जानै त्रिय जौ रस ।। १०३

इंच्छिनी द्वारा संयोगिता के प्रच्छन्नों के विषय में पूछने पर ( डं० १०४) शुक ने निम्न वर्णन किया :

क्रिसल थूल सित असित । थान चव एक एक प्रति ॥
पानि पाइ कटि कमल । सथल रंजे सुच्छिम ऋति ॥
कुच मंडल भुज मूल । नितंब जंघा गुरुधत्तं ॥
करज हास गोकन । मांग उज्जल सा उत्तं ॥
कुच अत्र कच द्विग महि तित्त । स्यामा अँग सब्बं गवन ॥
घोडस सिंगार सारूव सजि । सांइ रँजे संजोगि तन ॥ १०५,

और'तदुपरान्त उनके नख-शिख का विस्तृत परिचय देकर (छं० १०६-२६), दम्पति के पारस्परिक आकर्षण और अनुराग की चर्चा की (छं० १२७-४०) तथा उनके रति- विलास की रात्रि के युद्ध से उपमा देते हुए ( छं० १४१-४२ और---

मदन बयट्ठौ राज । काज मंत्री तिहि अग्गे ।।
हाय भाय विश्रम कटाच्छ । भेद संचारि विलग्गे ।।
काम कमलनी बनिय । चक्कनिय निय नित्यं भर ।।
मोह विद्दि पिझ्झति । ग्रज्ज मो मनिय पिंड वर ।।
बीनीति मधुर तिहि लोभ बसि । बसि संजोग माया उरह ।।
ऊथपन मग्ग गहि अँगन गति । नृप क्रम सह छुट्टिय बरह ।। १४४),

संयोगिता की समुद्र आदि और पृथ्वीराज की हंस यादि से तुलना की :

दुहु दिसि बढ़िव सनेह सब । संजोगिय वर कंति ।।
जिवन बार विरत तरुनि । हंस जुगल विछुरंत ।। १४५
रूप समुंद तरंग दुति । नदि सब की मलि मानि ।।
गुन मुत्ताहल अपि कै । बस किन्नौ चहुआन ।। १४६

तथा १४७-४८;

'अमरुशतकम्' की वधू की भाँति शुक को यहाँ रोकने वाला कोई था नहीं, अस्तु उसने खूब रस लेते हुए अपनी प्रत्यक्षदर्शिता के प्रमाण सम्यक आरोपों सहित प्रस्तुत किये ।

फिर सखियों द्वारा कन्नौज की राजकुमारी की अवस्था, रूप और अनुहार पूछने पर ( छं० १४६ ), उसने इच्छानुसार रमण करने वाली संयोगिता के अंगों पर प्रतीप करते हुए उत्तर दिया :

ससि रुन्नौ म्रग बह्यौ । काम हीनौति भोन रति ।।
पंकज अति दुम्मनौ । सुमन सुम्मनौ पयन पति ।।
पतंग दीप लगिय न । सीन दुम्मनो जीय नमः ।।
सुकिय समय सुत्र दिष्टं । चित चिंतंति नेह भ्रम ।।
सुप सक्ति होन सो दान नृप । हाव भाव विभ्रम श्रवन ।।
यो रति चरित मंगल गवन । सुनि इंछनि इंछनि रमन ।। १५०,

और युग की अनन्य सुन्दरी के स्वाभाविक लावण्य का उल्लेख करके (छं० १५१-६७ ), उसके आकर्षक नेत्रों के वर्णन ते अपना प्रकरण समाप्त किया ।

महारानी इंच्छिनी ने कहाँ तो शुरू की नियुक्ति सपत्नी की हँसी उड़ाने के लिये की थी और कहाँ वे उसका रूप-सौन्दर्य सुनकर हतप्रभ होकर ईर्ष्या के सन्ताप-सागर में निमज्जित हो गई (छं० १७०-७३ ) । तब शुक ने उन्हें प्रबोधा :

जीवं वारि तरंगं । श्रायासं नवै दुष्ष देहं ।।
भावि भावि गतनं । किं कारनं दुष्ष बालायं ।। १७४

इंच्छिनी के यह कहने पर कि सौत-क्लेश नहीं भुलाया जा सकता (छं० १७५-७६ ),शुक ने उन्हें राजमहल छोड़ने की सलाह दी (छं० १७७) और रानी जाने के लिये प्रस्तुत होने लगीं (छं० १७८ ) । यह समाचार पाकर पृथ्वीराज ने रानी से इस व्यवहार का कारण पूछा ( छं० १७६ ),तब शुक ने उत्तर दिया कि इसका मूल संयोगिता की दृष्टि है :

वर्क दिष्ट संजोग की ।सुक कहि त्रयहि सुनाय ।।
एक अचिज्ज इंछिनिय । में ग्रह दिडी राइ ।। १८०;

राजा ने कहा कि रे शुक ! तूने ही वह मंत्र दिया और अब तू ही नाना प्रकार की बातें गढ़ता है (छं० १८१ ) । शुक ने कहा कि अच्छा अब ग्राप दोनों एक दूसरे को समझा लें (छं० १८२ ) । और अन्ततः राजा के मनाने पर रूठी रानी ने अपना मान छोड़ दिया (छं० २८४-८५ ) ।

यदि शुक दूत हो सकता है तो सोम और दूध को जल से पृथक करने की शक्ति वाले, अश्विनी कुमारों और ब्रह्मा के वाहन, अपने श्वेतनिर्मल वर्ण के कारण आत्मा परमात्मा के प्रतीक, विराज, नारायण, विष्णु, शिव और काम के पर्याय नाम तथा उपनिषदों में 'अहं सा' में परिणत हंस के दूतत्व में कौन सी बाधा है, क्योंकि शुक यदि ज्ञानी है तो हंस विवेकी । पेंज़र (Penzer) महोदय का अनुमान है कि नल-दमयन्ती कथा 'महाभारत' में उसी प्रकार है जैसे 'कथासरित्सागर' में उर्वशी-पुरुरुवा की कथा, और यह सम्भवत: वैदिक काल से चली आ रही है । अस्तु, नल-दमयन्ती कथा में हंस दूत का प्रयोग भी पर्याप्त प्राचीन होना चाहिये । 'महाभारत' में वर्णित है कि नल और दमयन्ती क्रमश: विदर्भ और निषध देश के लोगों द्वारा परस्पर रूप-गुण सुनकर अनुरक्त हो चुके थे। एक दिन नल ने अपने उद्यान के हंसों में से एक को पकड़ लिया परन्तु उसके यह कहने पर कि यदि आप मुझे छोड़ दें तो हम लोग दमयन्ती के पास जाकर श्राप के गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह अवश्य वरण करेगी । नल के छोड़ने पर वह हंस ग्रन्थ हंसों के


१. दि श्रोशेन श्राव स्टोरीज, जिल्द ४, अपेंडिक्स द्वितीय, पृ० २७५ ;

२. तयोरहृष्टाः कामोभूच्छ एवतो सततं गुणान् ।

श्रन्योन्यं प्रति कौन्तेय से व्यवर्धत हृच्छयः ॥ १७, अध्याय ५७, वनपर्व

३. दमयन्तीसकाशे त्वां कथयिष्यामि नैषध ।

यथा त्वद्न्यं पुरुषं न सा संस्थति कर्हिचित् ॥२१, वही ; साथ विदर्भ की ओर उड़ गया ।' विदर्भ जाकर उन हंसों ने दमयन्ती को को घेर लिया और वह जिस हंस को पकड़ने के लिये दौड़ती थी, वही कहता था'-- 'हे दमयन्ती, निषध देश में नल नाम का राजा है। वह अश्विनीकुमार के समान सुन्दर हैं । मनुष्यों में उसके सदृश कोई नहीं हैं। यह साक्षात् कन्दर्प है । यदि तुम उसकी पत्नी हो जाओ तो तुम्हारा जन्म और रूप दोनों सफल हो जायें । हम लोगों ने देवता, गन्धर्व, मनुष्य, सर्प और राक्षसों को घूम-घूम कर देखा है । नल के समान सुन्दर पुरुष कहीं देखने में नहीं आया जैसे तुम स्त्रियों में रत्न हो, वैसे ही नल भी पुरुषों में भूषण है......:

दमयन्ती नलो नाम निषधेषु महीपतिः ।
अश्विनो सदृशो रूपे न समास्तस्य मानुषाः ।। २७
कन्दर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत्स्वयम् ।
तस्य वै यदि भार्या त्वं भवेथा वर वर्णिनि ।। २८
सफलं ते भवेज्जन्स रूपं चेदं सुमध्यमे ।
वयं हि देवगन्धर्वमनुष्योरगराचसान् ॥ २६
हृष्टवन्तो न चास्माभि ष्टपूर्वस्तथाविधः ।
त्वं वापि रत्नं नारीणां नरेषु च नलोवर: ।। ३०
विशिष्टया विशिष्टेन संग्रामो गुणवान्भवेत् ।
एवमुक्ता तु हंसेन दमयन्ती विशांपते ।। ३१,

यह सुनकर दमयन्ती ने कहा--'हे हंस, तुम नल से भी ऐसे ही बात कहना । और हंस ने निषेध लौट कर नल से सब निवेदन कर दिया ।

'श्रीमद्भागवत्' में कृष्ण की रानियाँ कहती हैं-'हे हंस, तुम्हारा स्वागत है, आओ यहाँ बैठो और कुछ दुग्धपान करो । हे प्रिय, हम समझती हैं कि तुम श्रीकृष्ण के दूत हो, अच्छा उनकी बातें तो सुनाओ, कहीं किसी के वश न होने वाले वे प्रियतम कुशल से तो हैं'।


१. एममुक्तस्ततां हंसमुत्ससर्ज महीपतिः ।

ते तु हंसाः समुत्पत्य विदर्भानगमस्ततः ॥ २२, वही ;

२. श्लोक २३ - २६, वही ;

३. अब्रवीतत्र तं तं त्वमप्येकं नले वद । ३२, वही ;

४. श्लोक ३२, वही ;

५. हंस स्वागतमास्वतां पिब पयो ब्रह्म शौरैः कथां ।

दूतं त्वां तु विदाम कचिदचितः स्वस्त्यात उक्तंपुरा ।। १०-९०-२४; 'महाभारत' की नल-दमयन्ती कथा से अनेक परवर्ती कवियों ने प्रेरणा पाई, जिसके फलस्वरूप संस्कृत में 'नलोदय' (कालिदास १ नवीं शती के केरल- कवि वासुदेव १), 'नल-विलास' (नाटक) [ रामचन्द्र, बारहवीं शती ], 'नैषधीय- चरितम्' (श्रीहर्ष, बारहवीं शती), 'नल-चरित' ( नीलकंठ दीक्षित, सन् १६५० ई०), 'नल- राज' (तेलुगु) [ राघव, सन् १६५० ई० ] प्रभृति काव्य विशेष प्रसिद्धि में आये । 'नलोदय' को छोड़कर शेत्र सभी में हंस की कथा कतिपय मौलिक सन्निवेशों सहित देखी जा सकती है। स्वारहवीं शती के सोमदेव के 'कथासरित्सागर' में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त को दो स्वर्ण हंस पार्वती द्वारा अपने पाँच गणों को श्राप की कथा सुनाते हैं तथा अपने को इन पाँच में से पिंगेश्वर और गुहेश्वर गण बतलाते हैं 'कथासरित्सागर' तक आते-आते भारतीय काव्य-परम्परा में स्त्री-राग पहले दिखाने की रूढ़ि स्थान पा चुकी थी । इसकी नल-दमयन्ती कथा में दिव्य हंस पहले दमयन्ती द्वारा वस्त्र फेंक कर पकड़ा जाता है और वह नल का रूप गुणानुवाद करके उनसे विवाह करने की सलाह देता है तथा प्रणय-दूत बनने के लिये प्रस्तुत हो जाता है । नल भी इस हंस को दमयन्ती की युक्ति से पकड़ते हैं, तब वह विदर्भ कुमारी का सौन्दर्य बखान कर कहता है कि मैंने ही आपके प्रति उसे प्राकृष्ट किया है। नज़ कहते हैं कि दमयन्ती द्वारा मेरा चुनाव, मेरी आन्तरिक अभिलाषाओं का प्रतीक है। हंस लौटकर दमयन्ती को यह सब समाचार दे आता है ।

नल-दमयन्ती कथा का विस्तार से विवेचन यहाँ यह दिखाने के लिये किया गया है कि कवियों को उक्त कथा के अन्य गुणों के अतिरिक्त हंस का दूत कार्य विशेष रूप से इष्ट था । श्रव अप्रतिम नल-दमयन्ती कथाकार श्रीहर्ष के काव्य और कथा की दृष्टि से अलौकिक महाकाव्य 'नैषधीयचरितम्' में भी हंस के प्रणय-दूतत्व पर किश्चित् दृष्टि डाल लेनी चाहिये । स्त्री-राग के प्रथम दर्शन सिद्धान्त के अनुसार पूर्व दमयन्ती' और फिर नलः रूपगुणानु-वाद सुनकर परस्पर आकर्षित और अनुरक्त हो चुके हैं। वन के सरोवर में नल ने जज स्वर्ण हंस को पकड़ लिया और पुनः उसके मानव-वाणी में विलाप तथा याचना करने पर उसे मुक्त कर दिया, 3 तब तो अपने विश्वास और प्रीति का पात्र पाकर उसने राजा से दमयन्ती का सौन्दर्य-वर्णन करके


१. श्लोक ३३-३८ सर्ग १;

२. श्लोक ४२-४६, वही;

३. श्लोक १२५ ४३, वही; कहा-- 'हे राजन्, तुम्हारा यह रूप दमयन्ती के बिना इस प्रकार निरर्थक है जैसे बाँझ वृक्ष का फल-हीन पुष्प । यह समृद्ध पृथ्वी भी वृथा है तथा कोकिलो के कूजने से शोभायमान विलास वाटिका भी व्यर्थ है':

तत्र रूपमिदं तथा विना विफलं पुष्पमिवावकेशिनः ।
इयमृध्दधना वृथावनी स्ववनी संप्रवदपिकापि का ॥ ४३,

सर्ग २

परन्तु देवता भी उसको प्राप्त करना चाहते हैं अत: उसके साथ तुम्हारा सम्बन्ध उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार वर्षा काल में मेव से ढँके हुए चन्द्रमा की दीप्ति के साथ समुद्रका', इसलिये मैं दमयन्ती से तुम्हारी प्रशंसा इस प्रकार करूँगा कि उसके हृदय में धारण किये गये तुमको इन्द्र भी न हटा सकें। फिर विदर्भ जाकर वन विहार करती हुई दमयन्ती को उसकी सखियों से युक्तिपूर्वक पृथक करके एकान्त में अकेले लाकर हंस ने उससे शुक-सदृश मानव वाणी में नल का रूप-गुण-वर्णन करके 'योगयोग्यासि नलेतरेण'(अर्थात् नल को छोड़कर तुम और किसी के साथ संयोग के योग्य नहीं हो ) कहा तथा लज्जित-हर्षित दमयन्ती से स्वीकार करा लिया कि मेरा चित केवल नल को चाहता है और कुछ नहीं --

इतीरिता पत्ररथेन तेन होणा च हृष्टा च बभाण भैमी । चेतो नलं कामयते मदीयं नाऽन्यत्र कुत्रापि च साभिलाषम् ॥ ६७,

सर्ग ३;

तथा वा तो मैं आज उन्हें प्राप्त करूँगी अथवा प्राण जावेंगे, दोनों तुम्हारे हाथ में हैं; इनमें से एक बात रह जायगी । इस प्रकार हंस ने जब दमयन्ती का हृदय टटोल कर उसका नल के प्रति पूर्ण राग का आभास पा


१. श्लोक ४६, सर्ग २;

२. श्लोक ४७, वही;

३. इलोक १-११, सर्ग ३;

४. श्लोक १२- ४८८ वहीं;

५. बेलातिगस्त्रैणगुणाब्धिवेणिर्न योगयोग्यासि नलेतरेण । सन्दर्म्यते दर्भगुणेन मल्लीमाला न मृद्वी भृशकर्कशेन ॥ ४६, वही;

६. श्रुतश्च दृष्टश्च हरित्सु मोहाद्ध्यातश्व नीरन्नितबुद्धिधारम् । मद्य तत्प्राप्ति सुरव्यया वा हस्ते तवास्ते द्वयमेकशेषः ॥ ८२, वही लिया' तब उसने अपनी 'वञ्च पुटमौनमुद्रा' ढीली की और नल का उसके प्रति श्रतिशय प्रेम, रूप-विमुग्धता, परवशता, विरह कातरता आदि का उल्लेख किया। फिर उसकी सखियों या पहुँचने पर हंस उससे विदो लेकर नल की राजवानी को प्रस्थित हो गया । विदर्भ पहुँचने पर राजा नल ने हंस से दमयन्ती के वचन 'कैसे, कैसे' इस प्रकार आदर-पूर्वक पूछकर बार-बार दुहरवाये और फिर अत्यन्त हर्ष रूपी मधु से मत्त होकर वे वचन स्वयं भी अनेक बार कहे :

कथितमपि नरेन्द्रः शंसयामात हंसं

किमिति किनति पृच्छन् भाषितं स प्रियायाः ।

अधिगतमथ सान्द्रानन्दमाध्वीकमत्तः

स्वयमपि शतकृत्वस्तत्तथान्वाचचक्षे ॥ १३५, सर्ग ३

'पृथ्वीराज रासो' के ‘शशिवृता वर्णनं नाम प्रस्ताव २५' का हंस दूत अपने कार्य में ‘नैषध" के प्रणय-दूत से बहुत सादृश्यता रखता है। देवगिर का नट दिल्ली दरबार में आया (छं० १५-१७ ) और पृथ्वीराज द्वारा पूछने पर कि वहाँ को कुमारी शशिष्वृता का विवाह किसके साथ निश्चित हुआ है (छं० १८ ), उसने बताया कि उज्जैन के कमधज्ज राजा के यहाँ सगाई ठहरी है परन्तु राजकुमारी को उक्त वर प्रिय नहीं है (छं० १६-२३ ) । फिर उसके द्वारा शशिवृता का मेनका सदृश रूप सुनकर (छं० २४, २६-२७), पृथ्वीराज उस पर अनुरक्त हो गये और नट से उसकी प्राप्ति का उपाय पूछने लगे (छं० २८) । नट ने यह कहकर कि हे राजेन्द्र, मैं कुछ उठा न रखूँगा, उनसे विदा ली (छं० २९ ) । राजा ने शिव से अपना मनोरथ सिद्ध होने का वरदान पाया तथा वर्षा और शरद ऋतुयें शशिवृता के विरह की काम-पीड़ा में बिताई और देवगिरि जाने का निश्चय किया (छं० ३२-४५)।

उधर जयचन्द्र के भ्रातृज वीरचन्द्र के साथ शशिवृता की सगाईं का समा चार पाकर एक गन्धर्व देवगिरि गया (छं० ६९ ) और वन में जहाँ वह अपनी समवयस्काओं के साथ क्रीड़ा कर रही थी (छं० ७०), वह हेम-हंस के रूप में एक स्थान पर विश्राम करने लगा; राजकुमारी ने अत्यन्त आश्चर्य से


१. श्लोक ८२-६८, वही;

२. श्लोक ६६, वही ;

३. श्लोक १००-२८, वही ;

४. श्लोक १२६, वही ; उसे देखा और बलपूर्वक पकड़ कर उससे पूछा कि तुम कौन हो, तुम्हारा स्थान कहाँ है और इस रूप में किस माया से आये हो ? हंस ने उत्तर दिया कि मैं मतिप्रधान नामक गन्धर्व हूँ, सुरराज के कार्य हेतु आया हूँ और हे बाले, तीनों लोकों में जा सकने की मुझ में शक्ति हैं :

हम हंस तन धरिय । विपन मध्य विश्राम लिय ।।
दिपि तास शशिवृत्त । प्रतिहि श्रन्चरिज्ज्ञ मानि जिय ।।
वल कर गहि सुतत्व । हृत्व लै करि तिहि पुच्छिय ।।
कवन देव तुम थान । कवन माया तन श्रच्छिय ।।
उच्चर हंस सति सम । मति प्रधान गन्धर्व हम ।।
सुरराज काज आए करन । तीन लोक हम बाल गम ।। ७१,

फिर उसने वीरचन्द्र की ग्रायु केवल एक वर्ष बतला कर (छं० ७३ ), इन्द्र द्वारा करुणपूर्वक अपने भेजे जाने की बात कहो :

तेम रहै बर बरष इक्क महि । हयगय अनत कि हैं समतहि ।।
तिहि चार करि तुमहि पै आयौ । करि करुना यह इन्द्र पठायौ ।। ७४

यह सुनकर स्वाभाविक ही था कि शशिवृता का चित्त उधर से विरत हो गया, और उसने उससे अपने अनुरूप वर पूछा :

तब उच्चारय बाल सम तेहं । तुम माता सम पिता सनेहं ।।
मुझ सहाय श्रवरि को करिहौ । पानि ग्रहन तुम चित अनुहरिहौ ।। ७५

फिर क्या था, चतुर हंस दूत तो इस ताक में था ही, अवसर मिलते ही शूरमाओं के अधिपति दिल्लीश्वर पृथ्वीराज का गुणगान कर चला (छ० ७६-७८) । उसे सुनकर शशिवृता ने कहा कि तुम जाकर उन्हें लिवा लाओ, मैं छै मास तक चौहान की प्रतीक्षा करूँगी और इस अवधि तक उनके न आने पर अपना शरीर त्याग दूँगी :

तहां तुम पिता कृपा करि जाउ । दिल्ली वै अनुराग उपाउ ।।
मांस ट हों वृत्तह मंडों । थ्थुना श्रावै तो तन छडौं ।। ७९

'श्रीमद्भागवत्' की रुक्मिणी भी तो कृष्ण के प्रति अपने सन्देश में कहलाती हैं -- '(यदि श्राप न आये तो )' मैं व्रत द्वारा अपने शरीर को सुखा कर प्राण छोड़ दूँगी; ....':

जामसूत्रत कुशाञ्छतजन्मभिः स्यात् ।। १०-५३-४३ ;

इस प्रकार शशिवता को पृथ्वीराज के अनुराग में पागकर, हंस उसके पास अपनी सुन्दरी को छोड़कर उत्तर की ओर उड़ चला और योगिनिपुर जा पहुँचा, उसके सुवर्णमय शरीर पर अनेक नगों की शोभा हो रही थीं :

तब उड़ चल्यो देह दिसि उत्तरि । दिग ससिबत रपि निज सुंदरि ॥ जुग्गिनिपुर श्राव दुज राजं । सोवन देह नगं नग साज ।।८,

वन में शिकार खेलते हुए किशोर पृथ्वीराज ने आश्चर्य के साथ इस स्वर्ण हंस को देखा और उसे पकड़ लिया तब उसने राजा से सारी कथा कह दी :

वय किसोर प्रथिराज । रम्य हा रम्य प्रकारं ॥
सेत पण विय चंद । कला उद्दित तन मारं ॥
विपन मध्य चलान । हंस दिष्यों आप अयि ॥
चरण भग्ग दुति होत । हेम पछ्छी वियलप्रिय ।।
श्राचिज्ज देषि प्रथिराज बर । धाइ नूपति वर कर गहिय ॥
श्रापुब्व दुज्ज गति दूत कथ । रहसि राज सों सब कहिय ८१ तथा ८२,

सायंकाल यादवराज के इस हंस दूत ने राजा को एक पत्र दिया ( छं० ५३ ) तथा एकान्त की वांछना करके चुप हो गया ( छं० ८४ ) । ( अभिलषित परिस्थिति होने पर ) उसने चौहान से कहा कि शशिवृता का वर्णन सुनने के लिये शारदा (सरस्वती) भी ललचाती हैं :

इह अष्षी चहुआन सों । न तो सार कहि आइ ।
सुनिवेकों ससिवृत्त गुन । सारदऊ ललचाई ॥ ८८,

और सूर्य तथा चन्द्र के उदय और ग्रस्त काल के मध्य में वह इस प्रकार शोभित होती है मानो शृङ्गार का सुमेरु हो :

राका अरू सूरज विच । उदै अस्त दुहु बेर ॥
बर शशिवृत्ता सोभई । मनों शृङ्गार सुमेर ॥ ८९

फिर हंस ने राजकुमारी की बाल्यावस्था व्यतीत होकर किशोरावस्था के आगमन पर शिशिर और वसंत का सावयत्र आरोप करके उस अज्ञात- यौवना का रूप चित्र खींचा :

सिर अंत आवन बसंत । बालह सैसब गम ॥
अनि पंप कोकिल सुकंठ । सजि गुंड मिलत भ्रम ।।
मुर मारुत मुरि चले । मुरे मुरि बैस प्रमानं ।।
तुछ को परसिस फुट्टि । यानि किस्सोर रँगानं ।।
लीनी न अमि नक स्थांम नन । मधुप मधुर धुनि धुनि करिय ।।
जानी न वयन बावन बसत अग्याता जोवन श्ररिय ।। ९५,
पत्त पुरातन ज्यों सैसव भरिग । पत्त अंकुरिय उड़ तुछ ।।
ज्यो सैसव उत्तरिय । चढ़िय सैसब किसोर कुछ ॥

शीतल मंद सुगंध । श्राइ रिति राज अचानं ॥
रोम राइ अंकुच नितंब । तुच्छं सरसानं ॥
बढ्दै न सीत कटि छीन है । लज्ज मानि टंकनि फिरै ॥
ढंकै न पत्त ढंकै कहै । बन वसंत मंत जु करे ॥ ६६

उपर्युक्त वर्णन सुनकर पृथ्वीराज के काम बाण लगे और वे रात्रि भर शशिवृता की चिन्ता मे लीन रहे, प्रात:काल उन्होने हंस से पुन: जिज्ञासा की (छं०६७-६८) । उसने बताया कि देवगिरि के राजा ( अर्थात् उसके पिता ) द्वारा उसकी सगाई जयचन्द्र के भ्रातृज वीरचन्द्र से करने के लिये भेजी गई है, यह जानकर राजकुमारी शोक-सागर मे डूब गई (छं० १०७-८) वह चित्ररेखा अप्सरा का अवतार है तथा बर रूप से आपकी प्राप्ति के लिये प्रतिदिन गौरी पूजन कर रही है (छं० १०६) । मैं शिवा की (पार्वती) की प्रेरणा के फलस्वरूप शिव की आज्ञा से तुम्हारे पास आया हूँ :

शिवा बानि शिव वचन करि । हो येठयो प्रति तुकूक ।।
कारन कुअरि वृत्त को मन । कामन भय मुझाझ ।।

तदुपरान्त उसने निम्न छन्द मे राजकन्या का नल-शिख वर्णन किया.

पोनो रूपीन उरजा, सम शशि वंदना, पद्मपत्रायताक्षी ।।
बोष्ठी दुरंग नासा, गज गति गमना, दक्षना वृत्त नाभी ।।
स्त्रिगंधा चारुकेशी, मृदु प्रभु जघ्ना, वाम मध्या सु वेसी ।।
हेमांगी कति हेला, वर रुचि दसना, काम वाना कटाक्षी ।। ११४,

इस पर पृथ्वीराज ने शास्त्रज्ञ इंस से चार प्रकार की स्त्रियों का वर्णन पूछा (छं० ११५ ), और उसने उन सबका वर्णन करके (छं० ११६- २६ ) पुन:,परन्तु इस बार सबसे अधिक विस्तार से देवगिरि की पद्मिनी शशिवृता का नख-शिव के मिस रूप-सौन्दर्य प्रस्तुत किया (छं० १३०-५२ ) ।


१. यही गन्धर्व रूपी हंस शशिवृत्ता से पहले कह चुका है कि मैं देव-

राज का कार्य करने लिये तुम्हारे पास आया हूं .

उच्चर हंस सत्रित सम । मति प्रधान गन्धर्व हम ।।

सुरराज काज चाये करन । तीन लोक हम बाल गम ।। ७१,

और फिर दूसरी बार भी कहता है कि इन्द्र ने करुणा करके मुझे भेजा है :

तिहि चार करि तुमहि पै आयो । करि करना यह इन्द्र पठायौ ।। ७४ तथा चौहान द्वारा अप्सरा के शशिवृता रूप में अवतार लेने का कारण पूछने पर (छं० १५३), उसने श्राप और शिव वरदान की बात कही '(छं० १५५-६१ ) और यह भी बता दिया कि शिव की वाणी के अनुसार वह आपकी ( अवश्य ) प्राप्त करेगी :


तुछ दिन अंतर ऋमियं । श्रगम भरतार यांमि उद्ध लोकं ॥
फिर अच्छर अवतारं । पांमै तुम इस बर बांनी ॥ १६२,

फिर आगे कहा कि इस मेनका का अवतार आपके लिये ही हुआ है

और सुंबर संकेत सुनि । हंस कहै नर राज ।।
मैंन केस अवतार इह । तुश्र कारन कहि साज ।। १६४

इस अवसर पर शशिवृता की मँगनी कमधज्ञ को दी जाने, उसके दिल्लीश्वर के गुणों में अनुरक्त होने, शिव पूजन करने और शिव की आज्ञा से ही स्वयं उन्हें बुलाने थाने की बात हंस एक बार फिर दोहरा गया (छं० १६५-६८, तथा :

चढ़न कहिय राजन सो हेर्स । उडिड चलौ दक्षिण तुम देतं ।।१६९ ) |

इस वर्णन से प्रतीत होता है कि पृथ्वीराज को देवगिरि ले जाने के लिये हंस दूत को अथक परिश्रम करना पड़ा था । यद्यपि प्रस्तुत 'प्रस्ताव' के प्रारम्भ में वे शशिवृता के प्रति अतिशय कामासक्त चित्रित किये गये हैं फिर भी समुद्रशिखर की पद्मावती और कन्नौज की संयोगिता को लाने के समान इस स्थल विशेष पर जो वे अपेक्षाकृत कम व्यग्र दिखाई देते हैं, इसके कई कारण भी हैं। परन्तु अन्ततः प्रेम-घटक हंस दूत सफल हुआ और दिल्ली- श्वर ने दस सहस्त्र अश्वारोही सैनिकों को सुसज्जित किये जाने की आज्ञा दे दी :

सुनत भवन चढ्यौ नृप राजं । कहि-कहि दूत दुजन सिरताजं ।। १६९
भय अनुराग राज दिल्ली वै। दस सहस्त्र सज्जी नूप हेबै ॥ १७०,

तथा हंस से देवगिरि के राजा का वृत्तान्त पूछा (छं० १७१ ) । उसने भानु यादव के धन, ऐश्वर्य, बल, प्रताप, सेना, पुन, पुत्रियों आदि उल्लेख करके (छं० १७२-७४), इसी प्रसंग के साथ बतलाया कि देवगिरि के श्रानन्दचन्द्र की कोट-हिसार में विवाहित, गान यादि विद्याओं में पारंगत, इस समय विधवा और अपने भाई के साथ रहने वाली बहिन (छं० १७५-७६) तथा अपनी शिक्षिका के मुँह से श्रापके पराक्रम आदि का वृत्त सुनकर शशिवृता आप में अनुरक्त हो गई और आपकी प्राप्ति का प्रण कर बैठी :


१. परन्तु यहाँ पूर्वं वर्णित चित्ररेखा के स्थान पर रम्भा आ जाती है।

जब वित्रिन चंद्रिका । कहै गुन नित चहुवानं ।।
जैस पराक्रम राज । तेइ बरने दिन मानं ।।
राजकु र जब सुने । तबै उभ्भरै रोम तन ।।
फिरि पुच्छे ससिवृत्त । सद्दि एकंत मत्त गुन ।।
जे जे सु पराक्रम राज किय । सोइ कहै वित्रिन समर्थ ।।
श्रोतान राग लग्यो उर । तो वृत लिनौ सुनी सुकथ ।। १७८ ;

युवावस्था में पदार्पण करने पर उसे काम पीड़ा सताने लगी (छं० १७६ ), आप को प्राप्त करने की कामना से वह मनसा, वाचा, कर्मणा से शिव-शिवा ( गौरी-शंकर ) की कठोर उपासना में रत हुई (छं० १८१-८३), जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने स्वप्न में उसे मनोवाञ्छित वर प्रदान कर दिया (छं० १८४ ) तथा रुक्मिणी की भाँति उसका हरण करने का सन्देश देकर मुझे आप के पास भेजा :

हुअ प्रसंन सिव सिवा । बोलि हूँ पठय तुझ प्रति ।।
इह बरनी तुम जोग । चंद जोसना बांन वृत ।।
क्यों रुकमिनि हरि देव । प्रीति प्रति बढ़ें प्रेम भर ।।
इह गुन हंस सरूप । नाम दुजराज भनिय चर ।। १८६ ;

जयानक ने भी अपने 'पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम्' में लिखा है कि दमघोष के पुत्र शिशुपाल को त्यागकर रुक्मिणी ने कृष्ण का वरण किया था— व बलादाङ्गिरसाङ्गनापि

यदेनमेषोपि कथं कलङ्कः ।

विहाय देवी दमघोषत्नु

न रुक्मिणी किं विधुमातिलिङ्ग || षण्ठसर्गः ;

राजा ने हंस से फिर पूछा कि यदि राजकुमारी की यह मनोदशा थी तो उसके पिता ने पुरोहित भेजकर विवाह क्यों रचाया (छं० १८७ ) ? हंस ने उत्तर दिया कि यादव राज को जयचन्द्र से हो सम्बन्ध प्रिय लगा और उन्होंने उनके पास पुरोहित के हाथ श्रीफल तथा वस्त्राभूषणों सहित लग्न भेज दी (छं० १८८-८९ ); जयचन्द्र ने पुरोहित से यह जानकर कि विवाह का मूहूर्त पास ही है अपनी चतुरंगिणी सेना सजाकर, अगणित द्रव्य सहित, उत्साहपूर्वक देवगिरि के लिये प्रस्थान कर दिया है (छं० १९०-६२ ), उन की दस लाख सेना विवाहोत्सव के उत्साह में स्थान-स्थान पर ठहरती आगे बढ़ रही है (छं० १९३-६४ ); हे दिल्लीश्वर ! कलियुग में कीर्ति अमर करने के लिये आप भी चढ़ चलिये देवगिरि की सुगंधा आप ही के योग्य है, जिसके व्रत के कारण शिव ने मुझे आप के पास भेजा है, कुमारी ने आप का ही वरण करने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर रखी है, अस्तु हे राजन् विलम्ब न करिये, एक मास की अवधि है, विवाह हेतु अपने मन को अनुरक्त कर लीजिये :

कह हंस राज राजन सु बत्त । चढ़ि चतौ कलू रब्पन सु कत्थ ॥
तुम योग नारि बरनी कुमारि । हू पठय ईस तु वृत्त नारि ॥ १९५
उन लिय वृत्त तु दृढ नेम । नन करि विरम्म राजन सु एम ॥
इक मास अवधि दुज कहै बत्त । व्याहन सु काज मन करौ रन्त ॥१९६,

यह सुनकर राजा ने शशिवृता से मिलने के लिये संकेत स्थल पूछा (छं० १९९ ) ।

ऐसी ही स्थिति में रुक्मिणी ने संकेत किया था-- 'हमारे यहाँ विवाह के पहले दिन कुल देवी की यात्रा हुआ करती है । उसमें नववधू को नगर के बाहर श्री पार्वती जी के मन्दिर में जाना पड़ता है' :

पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवियात्रा

यस्यां बहिर्नववधू गिरिजामुपेयात् ॥ १०-५३-४२,

श्रीमद्भागवत् ;

तब उसी परिपाटी पर विवाह की प्रेरणा और निमंत्रण देने वाला हंस पृथ्वी- राज से माघ शुक्ल त्रयोदशी को हरसिद्धि के स्थान ( अर्थात् पार्वती या देवी के मन्दिर ) में मिलन की स्पष्ट बात क्यों न कहता :

कह यह दुज संकेतं । हो राज्यंद धीर ढिल्लेसं ॥
तेरसि उज्जल माघे । ब्याहन वरनीय थान हर सिद्धिं ॥ २००
फिर पृथ्वीराज द्वारा अपने आने का बच्चन दे देने पर (छं० २०१ ),

वह कृत प्रेम दूत उधर वापस उड़ गया :

इह कहि हंस जुड़ गयौ । लग्यौ राज श्रोतान ।।
छिन न हंस धीरज धरत । सुख जीवन दुख प्रान ।। २०३,

और इधर पृथ्वीराज 'ज्यों रुकमनि कन्हर बरिय" हेतु देवगिरि जाने का प्रायोजन करने लगे ।

'नैषध' के नल और दमयन्ती यदि एक दूसरे के देशों से आने वाले लोगों के द्वारा परस्पर गुण सुनकर अनुरक्त होते हैं तो 'रासो' के पृथ्वीराज और शशिवृता क्रमश: नट और शिक्षिका द्वारा पारस्परिक राग के लिये प्रेरित किये जाते हैं । 'नैषध' का हंस दूत यदि दमयन्ती को एकान्त में ले जाकर


१. छं० ३४, पद्मावती समय २०, 'पृथ्वीराज रासो'; बहुत माता है तो एकान्त का अभिलाषी 'रासो' का हंस दूत भी पृथ्वीराज के साथ पर्यात माथापच्ची करता है । दशायें पृथक हैं । वहाँ स्वयम्बर होना है और वरमाला डालने का पूर्ण उत्तरदायित्व दमयन्ती का है, यहाँ हरण होना है जिसमें पराक्रम रूप में पृथ्वीराज को मूल्य चुकाना है । नारी को स्वयम्बर में परीक्षा देनी है परन्तु पुरुष को समर में । परिस्थितियाँ भिन्न हैं । 'नैषध' और 'रासो' के विवाहों में प्रधान कार्य-पात्र पृथक हैं, एक में नारी है तो दूसरे में नर, अस्तु अनुरूप दूत होकर भी उनके तत्व में विभेद है । प्रयोजन एक है परन्तु वातावरण भिन्न है । और इसी का ज्ञान चंद के कवि-कर्म की सफलता का रहस्य है।

प्रस्तुत 'शिवृता विवाह नाम प्रस्ताव' में कवि ने प्रेम-वाहक हंस दूत, रूप-परिवर्तन, अप्सरा और कन्या हरण इन चार प्राचीन कथा-सूत्रों का कुशलता से उपयोग किया है।

रासो में पद्मावती, शशिवृता और संयोगिता के विवाहों का ढंग लगभग समान है परन्तु 'श्रीमद्भागवत्' की रुक्मिणी' की भाँति चंद उन्हें, 'राक्षस विवाह' नहीं कहते वरन् 'गन्धर्व विवाह' कहकर शूर वीरों को बढ़ावा देते हैं । अपने इन गन्धर्व विवाहों का वर्णन उन्होंने बहुत जम कर किया है। तथा इनमें शृङ्गार और वीर का घटनावश अनुषन योग होने के कारण विप्रलम्भ, उत्साह, क्रोध, भय और सम्भोग आदि भावों के मनोमुग्धकारी प्रसंगों के चित्रण में उन्हें आशातीत सफलता मिली है । यहीं देखे जाते हैं कवि के लोक-प्रसिद्ध, स्वाभाविक, ललित और हृदयग्राही प्रस्तुत, उसके वणों के सुघड़ संयुजन द्वारा निर्मित विस्फोटक शब्दों की अर्थ-मूर्तियाँ तथा वह ध्वनि जो हमें प्रत्यक्ष से ऊँचा उठाकर कल्पना के असीम सरस आलोक-लोक में विचरण कराती है ।

श्रीहर्ष ने 'नैषध' में नल के स्वरूप की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है-- 'किस स्त्री ने रात को स्वप्न में उन्हें नहीं देखा ? नाम की भ्रान्ति


१. निर्मथ्य वैद्यमगधेन्द्रबलं असश्य

मां राक्षसेन विधिनो वीर्य शुल्काम् ।।१०-५३-४१,

[ अर्थात् मगध की सेना को बलपूर्वक नष्ट करते हुए, केवल वीर्य रूप मूल्य देकर मेरे साथ राक्षस-विधि के अनुसार विवाह कीजिये । ]

२. सार प्रहारति मेवो देवो देवत्त जुद्धयौ बलयं ॥ .

गंभवी प्रति व्याहं । सा व्याहं सूर कत्तयामं ॥ छं० २६८, स० २५; से किसके मुँह से उनका नाम नहीं निकला ? और सुरत में नल के स्वरूप मैं अपने पति का ध्यान करके किसने अपने काम को जागृत नहीं किया ?'

न का निशि स्वमगतं ददर्श तं जगाद गोत्रस्खलिते च का न तम् । तदात्मताच्यातधवा रते चं का चकार वा ना स्वमनोभवोद्भवम् ॥

३० सर्ग १;

और आगे वे लिखते हैं-- 'दमयन्ती, इच्छा से पति बनाये हुए नल को निद्रा में किस रात्रि में नहीं देखती थी ? स्वम अष्ट वस्तु को भी भाग्य से दृष्टिगोचर कर देता है' :

निमीलिताददियुगाच्च निद्रया हृदोऽपि बाह्येन्द्रिय मौनमुद्रितात् ।
अदर्शि संगोप्य कदाप्यवीक्षितो रहस्यमस्या : रुमहन्महीपतिः ४०,

वही;

स्वप्न में देखे हुए प्रिय की बहुधा प्राप्ति ने 'स्वप्न में प्रिय दर्शन' को कालान्तर में एक कथा-सूत्र बना दिया । 'श्रीमद्भागवत्' में बलि के औरस पुत्र, शंकर के परम भक्त, शोणितपुर के शासक वाणासुर के "ऊषा नाम की एक कन्या थी । कुमारावस्था में उसने स्वप्नकाल में, ग्रहश्य और श्रुत प्रद्युम्न के कुमार परम सुन्दर अनिरुद्ध से रति-सुख प्राप्त किया । फिर अचानक उन्हें न देखने पर ऊषा-- 'हे प्रिय, तुम कहाँ हो' इस प्रकार कहती हुई प्रति व्याकुल हो उठ बैठी और अपने को सखियों के बीच में देखकर प्रति लज्जित हुई" :

तस्योषा नाम दुहिता स्वम प्राद्युम्निना रतिम् ।
कन्यालभत कान्तेन प्रागदृष्टश्रुतेन सा ।। १२
सा तत्र तमपश्यन्ती कासि कान्तति वादिनी ।
सखीनां मध्य उत्तस्थौला ब्रीडिता भृशम ।। १०-६३ १३;

दमयन्ती को नल मिले और ऊषा को अनिरुद्ध । इसी प्रकार साहित्य में स्वप्न, प्रिय द्वारा प्रिया और प्रिया द्वारा प्रिय की प्राप्ति की योजना का एक मिस हो गया ।

'पृथ्वीराज रासो' में अनेक स्वमों का उल्लेख हैं परन्तु एक स्थल पर प्रिया को निद्राकाल में देखने के उपरान्त प्रिय को उसकी प्राप्ति स्वप्न-दर्शन-कथा-सूत्र से आलोकित है। नारी यदि स्वप्न में देखे हुए पुरुष को प्राप्त कर सकती है तो पुरुष को स्वप्न में देखी हुई नारी की प्राप्ति से कवि कैसे वञ्चित कर सकता है ।

रासो के 'हंसावती विवाह नाम प्रस्ताव ३६' में रणथम्भौर के राजा मान की सुन्दरी कुमारी पर कामासक्त होकर, शिशुपाल वंशी चंदेरीपति पंचान, राजकन्या से विवाह या राज्य-हरण का प्रस्ताव और घुड़की देता है (छं० २-५ ) । काम-लिप्सा के नग्न प्रदर्शन में निहित यह ललकार राजा मान का क्षत्रियत्व जगा देती है और वह पंचाइन को कोरा-करारा जवाब दे देता है (छं० ६-७ ), जिसके फलस्वरूप पंचाइन शाह गोरी को सहायता लेकर रणथम्भौर को या बेरता है (छं० ८-१८) । इस पर मान दिल्लीश्वर चौहान से सहायता की याचना करते हैं (छं० १६-२० ), और पृथ्वीराज 'भान वीर पुकार, धार आई ढिल्लीवै' समाचार कन्ह द्वारा 'काक राइ कम्पन विरद' चित्तौड़ के रावल के पास भेज देते हैं (छं० २१-२२ ) । आर्त की पुकार और शरणागत का दैन्य, दिल्ली तथा चित्तौड़ की सहायता ले आते हैं (छं० ३६ ) । फिर मृदंग की भाँति शत्रु को पूर्व और पश्चिम दो चोर से दबाये हुए, उस भयंकर युद्ध में कमनीय मूर्ति पराक्रमी चौहान विजयी होते हैं (छं० ४०-८५ ) । विजय की रात्रि में पृथ्वीराज एक हंसगामिनी और मानिनी सुन्दरी को पुष्प लिये हुए देखते हैं:

हंस सुगति माननी । चंद जामिनि प्रति घट्टी ॥
इक तरंग सुंदरि सुचंग । हथ नयन प्रगट्टी ।।
हंस कला अवतरी । कुमुद वर फुल्लि समर्थ्यं ॥
एक चिंत सोइ बाल । मीत संकर स रथ्यै ॥
तेहि बाल संग में पूहुत्र लिय । बरन वीर संगति जुवह ॥
जात देवि बोलिन कछू । नवह देव नन मानवह ॥ ८६

यहाँ पृथ्वीराज के पास 'श्रीमद्भागवत्' की योगमाया से अनिरुद्ध को सोते ही उठा लानेवाली ऊषा की सखी चित्ररेखा सदृश कोई सखा था नहीं, अस्तु प्रात:काल राजा ने अपने चिर सहचर कविचंद को अपना स्वम सुनाया । जिसे सुनते ही उसने कह दिया कि स्वप्न की श्रुत तथा श्रदृष्ट रमणी और कोई नहीं,आपकी भविष्य पत्नी राजकुमारी हंसावती है (छं० ८७ ) । तदुपरान्त देवी प्रतिभा-सम्पन्न कवि उसका स्वरूप वर्णन करने लगा ( छं० ८५-६८ ) । इसी बीच में राजां भान का पुरोहित लग्न लेकर श्रा गया (छं० ९९ )।

पुरुषार्थी वीरों को इन परिस्थितियों में स्वाभाविक रूप से पुरस्कार- स्वरूप सुन्दरियों की प्राप्ति का साक्षी मध्ययुगीन योरप का वीर-साहित्य भी है । परन्तु अवस्था विशेष में शूरता के बरदान पर भी विचार कर लेने के साथ हमारा अभीष्ट यहाँ स्वप्न में प्रिय दर्शन विषयक कथा-सूत्र हैं।

विवेन्दित प्राचीन कथा-सूत्रों की भाँति लिङ्ग-परिवर्तन भी एक सुप्रसिद्ध कथा-सूत्र है। इन्द्र का अपनी प्रेयसी दानवी विलिस्तेङ्गा के साथ असुरों के बीच में पुरुषों के सामने पुरुष और स्त्रियों के सामने स्त्री रूप में प्रेम पूर्वक विचरण इसका सबसे प्राचीन और अभी तक सुलभ उदाहरण हैं।[] विष्णु द्वारा स्त्री-रूप धारण करके समुद्र-मन्थन से निकले हुए श्रमृत-कमण्डलु को दानवों से लेकर देवताओं को दे देने का वृत्तान्त भी मिलता है ('विष्णु-पुराण' १-९-१०९)। परन्तु यह सब देवता सम्बन्धी है, जो अलौकिक शक्ति-सम्पन्न होने के कारण ऐसे रूप धारण कर सकने में स्वाभाविक रूप से सक्षम समझे जाते हैं। परन्तु मानव जगत में ये परिवर्तन अघटित, असाधारण और अपूर्व व्यापार हैं। स्त्री का पुरुष हो जाना और पुरुष का स्त्री हो जाना पाँच प्रकारों से साहित्य में उपलब्ध होता है :—

(१) इच्छा-सरोवरों में स्नान द्वारा (अचानक और अवांछित रूप से)— जैसे 'बौद्धायन श्रौत सूत्र' में शफाल देश के राजा भाङ्गाश्विन् के पुत्र ऋतुपर्ण को यज्ञ में अपना भाग न देने के कारण रुष्ट इन्द्र ने सरोवर में स्नान करते ही सुदेवला नामक स्त्री के रूप में परिवर्तित कर दिया था। पुरुष और स्त्री रूपों में उन्होंने अनेक पुत्रों को जन्म दिया और इन्द्र द्वारा पूछने पर, अपने स्त्री-रूप से हुए पुत्रों के प्रति अधिक अनुराग बताया। 'महाभारत' के शान्तिपर्व में युधिष्ठिर द्वारा पूछे जाने पर कि रति में स्त्री को अधिक आनन्द मिलता है या पुरुष को, भीष्म ने ऋतुपर्ण की उल्लिखित कथा सुनाई थी। 'कथा-प्रकाश' में दो गर्भवती रानियाँ भिन्न योनि वाले बालकों का प्रसव करने पर उनका विवाह करने के लिये वचनबद्ध होती हैं। दोनों कन्याओं को जन्म देती हैं परन्तु उनमें से एक वास्तविकता को छिपा कर अपनी कन्या को पुत्र बतलाती हैं। वयस्क होने पर उनका विवाह होता है और भेद खुल जाता है जिससे युद्ध की घटायें घिर आती हैं। वर बनी हुई कन्या घोड़े पर चढ़कर भाग खड़ी होती है और अचानक एक पीपल पर बैठे हुए पक्षियों के मुँह अपनी कथा की चर्चा के साथ सुनती है कि यदि उक्त कन्या इस वृक्ष के नीचे के कूप में स्नान कर ले और उसका जल पी ले तो वह पुरुष हो जाय। राजकन्या तदनुसार करती है और पुरुष होकर घर लौट जाती है। 'कथा-रत्नाकर' में भी लगभग इसी ढंग की कथा है।

(२) श्राप या वरदान द्वारा—जिसके अनेक उदाहरण विविध पुराणों, 'रामायण' और 'कथासरित्सागर' में पाये जाते हैं। 'लिङ्ग-पुराण' में वर्णित हैं कि मनु की ज्येष्ठा और प्रिय कन्या इला, मित्र और वरुण के वरदान से सुद्युम्न नामक पुरुष हो जाती है। बुध के महल में वह क्रमशः स्त्री और पुरुष होती रहती है। स्त्री-रूप में बुध द्वारा वह पुरुरुवा को जन्म देती है और पुरुष सुद्युम्न रूप में उससे तीन पुत्र पैदा होते हैं। सायणाचार्य ने 'ऋक्वेद' के भाग्य में देवताओं के श्राप द्वारा आसङ्ग के स्त्री होने और मेध्यातिथि के बर से उसके पुनः पुरुष होने का बत्तान्त दिया है।

(३) मंत्र-तंत्र द्वारा—जैसे 'वैताल पंचविंशतिका' के मूलदेव की प्रसिद्ध कहानी है, जिसमें अभिमंत्रित गोलियाँ मुँह में रखने से, स्त्री को पुरुष और पुरुष को स्त्री बनाने का कौशल मिलता है।

(४) धार्मिक-धार्मिक विचारों के कारण—जैसे 'दिव्यावदान' की रूपावती जो एक विभुक्षिणी से अपने नव-जात शिशु की रक्षा तथा उसकी क्षुधा-तृप्ति हेतु अपने पयोधर काट कर उसे दे देती है, और अपनी इस दया तथा उच्च विचार के कारण पुरुष हो जाती है। 'धम्मपद-भाध्य' का सोरेय्य नामक व्यक्ति महाकच्चयन के वर्ण के प्रति दुर्भावना करने के कारण स्त्री हो गया था और स्त्री-रूप में छै बच्चों को जन्म देने के उपरान्त उन्हीं ऋषि की कृपा से पुनः पुरुष-रूप प्राप्त कर सका था। लिङ्ग-परिवर्तन सम्बन्धी इस प्रकार के उदाहरण केवल बौद्ध-साहित्य में प्राप्त होते हैं।

(५) यक्ष द्वारा—जैसे 'महाभारत' के शिखंडी की कथा है। 'पञ्चतंत्र' और 'गुलबकावली' में एक देव द्वारा भी लिङ्ग-परिवर्तन सम्बन्धी कथायें मिलती हैं।

डबल्यू नार्मन ब्राउन[] ने उपर्युक्त प्रकारों की विस्तारपूर्वक विवेचना करते हुए, इस कथा-सूत्र के उद्गम में पैठने का प्रयास किया है। उनका निष्कर्ष है कि एक (लिङ्ग) वर्ग बालों की दूसरे (लिङ्ग) वर्ग वालों में होने की यदा-कदा अभिलाषा, हिजड़ों का स्त्री-रूप में विचरण, प्रेत-बाधाओं आदि के भय के कारण बहुधा बालकों के बालिकाओं सदृश नाम, भक्तों का देवता की प्रीति हेतु स्त्री-रूप धारण (परन्तु साम्ब की भाँति उसका दुरुपयोग करने पर महान् आपसि सूचक), स्त्री-पुरुषों में अर्द्धनारीश्वर सदृश विपरीत यक्ष के शारीरिक लक्षण आदि ने मिलकर इस लिङ्ग-परिवर्तन सम्बन्धी कथा-सूत्र को साहित्य में जन्म दिया होगा और फिर कथा अपनी स्वतंत्र प्रकृतिवश इसे अनुकूल रूप देती गई।

'पृथ्वीराज रासो' में आई हुई लिङ्ग-परिवर्तन विषयक कथा, शिखंडी की कथा से मिलती-जुलती है, अस्तु हम पहले 'महाभारत' को कथा पर दृष्टि-पात् करेंगे। इस 'इतिहास-काव्य' के आदि-पर्व में काशी-नरेश की कन्या अम्बा, भीष्म द्वारा अपहृत होने पर शाल्व को पति-रूप में पूर्व ही स्वीकार किये जाने का आग्रह दिखाकर, इच्छानुसार जाने की अनुमति पा जाती है। उद्योग-पर्व में हम उसे शाल्व द्वारा तिरस्कृत, उसके लिये भीष्म से युद्ध में परशुराम की पराजय, भीष्म के वध हेतु उसकी तपस्या, अपने आधे शरीर से नदी और आधे ते वत्सराज की कन्या रूप में उसका जन्म, उसकी पुनः तपस्या और अगले जन्म में भीष्म का वध करने का उसे शंकर द्वारा वरदान का वर्णन पाते हैं। इसी पर्व में पढ़ते हैं कि पुत्र के लिये तप करने वाले राजा द्रुपद को शंकर ने वर दिया कि तुम्हारे एक कन्या पैदा होगी जो बाद में पुरुष हो जायगी। समयानुसार द्रुपद के शिखंडी नाम की कन्या हुई परन्तु पुत्र कह कर उसकी प्रसिद्धि की गई। वयस्का होने पर, शिव के वर से आश्वस्त राजा ने दशार्ण-कुमारी से उसका विवाह कर दिया। तब रहस्य खुल गया और अपमान का प्रतिशोध लेने के लिये दशार्ण में पांचाल पर चढ़ाई की जाने की योजना प्रारम्भ हो गई। माता-पिता पर विपत्ति देखकर शिखंडी वन में चली गई और वहाँ बहुत समय तक निराहार रहकर उसने अपना शरीर सुखा डाला, तब एक दिन स्थूणाकर्ण नामक यक्ष उसपर द्रवीभूत हुआ और उसने उसके स्वसुर हिरण्यवर्मा द्वारा उसकी परीक्षा तक, उसे अपना पुरुषत्व देकर उसका स्त्रीत्व ले लिया। इस आदान-प्रदान के बाद शिखंडी पांचाल लौट आया। इसी बीच स्थूणाकर्ण को कुबेर ने शिखंडी की मृत्यु तक स्त्री बने रहने का श्राप दे दिया। परीक्षा में शिखंडी पुरुष सिद्ध हुआ और युद्ध की विभीषिका समाप्त हो गई। तदुपरान्त स्थूणाकर्ता का पुरुषत्व लौटाने वह वन में गया और वहाँ आजीवन पुरुष बने रहने का प्रसाद पाकर हर्ष से लौट आया। यह वृत्तान्त बताकर भीष्म ने दुर्योधन से कहा—"द्रोण से उसने भी शिक्षा पाई है, द्रुपद का यह पुत्र महारथी शिखंडी पहले स्त्री था पीछे पुरुष हो गया है, काशिराज की ज्येष्ठा कन्या अम्बा ही द्रुपद कुलोत्पन्न शिखंडी है, यह यदि धनुष लेकर युद्ध के लिये उपस्थित होगा तो मैं क्षण भर भी इसकी और न देखूँगा और न शस्त्र ही छोड़ूँगा; हे कुरुनन्दन, मेरा यह व्रत पृथ्वी पर विश्रुत है, कि स्त्री, पूर्व स्त्री, स्त्री-नाम और स्त्री-स्वरूप वाले पर मैं बाण नहीं छोड़ता, इसी कारण मैं शिखंडी पर भी प्रहार नहीं करूँगा

शिष्यार्थ प्रददौ चाथ द्रोणाय कुरुपुङ्गवः।
शिखण्डिनं महाराज पुत्रं स्त्रीपूर्विणं तथा॥६१...
एवमेव महाराज स्त्री युनान द्रुपदात्मजः।
स सम्भूतः कुरुश्रेष्ठ शिखण्डी रथसत्तमः॥६४
ज्येष्ठा काशिपते कन्या अम्बा नामेति विश्रुता।
द्रुपदस्य कुले जाता शिखण्डी भरतर्षभ॥६५
नाहमेनं धनुष्पाणिं युयुत्सं समुपस्थितम्।
मुहूर्तमपि पश्येयं प्रहरेयं न चाप्युत॥६६
व्रतमेतन्मम सदा पृथिव्यामपि विश्रुतम्
स्त्रियां स्त्री पूर्व के चापि स्त्रीनाम्नि स्त्रीस्वरूपिणि॥६७
न मुञ्चेयमहं वाणम् इति कौरवनन्दन॥६८
न हन्यामहमेतेन कारणेन शिखण्डिनम्।
एतत तत्वमहं वेद जन्म तात शिखण्डिनः॥६९,

अम्बोपाख्यानपर्व (उद्योगपर्वणि);

रासो के 'कनवज्ज समयो ६१' की लिङ्ग-परिवर्तन सम्बन्धिनी कथा इस प्रकार है। कन्नौज और दिल्ली के मार्ग में जब कान्यकुब्जेश्वर की विशाल वाहिनी से चारों ओर से घिरे हुए पृथ्वीराज संयोगिता का अपहरण करके, उसे घोड़े पर अपने आगे बिठाये दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे तथा उनके सामंत अपने स्वामी की रक्षा के लिये युद्ध में अपने प्राणों की आहुति दे रहे थे, उस समय अपने योद्धा वीरवर अत्ताताई चौहान को विषम रण करके वीरगति पाते देखकर (छं° १९५९-६१), दिल्लीश्वर ने चंद से पूछा—"अमित साहसी शूरमा अत्ताताई का पराक्रम देखकर दोनों दलों में टकटकी बँध गई थी; हे कवि, तुम अतुल बल, असमान शरीर, औपमेय योद्धा और बेजोड़ युद्ध के स्वामी की उत्पत्ति की कथा सुनाओ':

अत्ताताई अभंग भर। सब पहु प्राक्रम पेखि॥
लगी टगटगी दुअ दलनि। त्रिप कवि पुच्छि विसेष॥१९७०
अतुलित बल अतुलित तनह। अतुलित जुद्ध सु बिंद।
अतुलित र संग्राम किय। कहि उतपति कवि चंद॥१९७१

कवि ने उत्तर दिया—'आशापुर राज्य-मंडल के तोमरों का प्रधान (मंत्री) चौरंगी (चतुरंगी) चौहान था, उसके घर में असंख्य धन और पतिव्रता पत्नी थी, जिसके गर्भ से उत्पन्न पुत्री की ख्याति पुत्र रूप में हुई; अत्ताताई नामकरण करके कुमारों सदृश उसके संस्कार किये गये और ब्राह्मणों को दान दिये गये तथा अनंगपाल तोमर के दीवान के पुत्र-रूप में वह पृथ्वी पर प्रसिद्ध हुई :

चौरंगी चहुआन। राज मंडल आसापुर॥
तूंअर घर परधान। सु वर जानै वृत्तासुर॥
घर असंष घर धरिय। एक मारिय सुचि धाइय॥
तिहिं उर पुत्री जाई। पुत्र करि कही वधाइय॥
करि संसकार दुज दान दिय। अत्ताताइय कुल कुअर॥
त्रिप अनंगपाल दीवान महि। पुत्र नाम अनुसरइ सर॥१६७१,

उस अत्यन्त स्वरूपवान को देखकर राजा उसका उठकर सम्मान करते थे, उसके कारण चौरंगी चौहान की कीर्ति बढ़ गई, बारह वर्ष तक उसकी माता उसका रूप छिपाये रही और राज्य-कार्य में चौहान के पुत्र-रूप में उसका उल्लेख किया गया, मनुष्य और देवता उसके रूप पर विमुग्ध थे : उसी समय उसकी माता ने हरद्वार जाकर शिव की शरण लेने का विचार किया :

अति तन रूप सरूप। भूप आदर कर उट्ठहि॥
चौरंगी चहुआन। नाम कीरति कर पट्ठहिं॥
द्वादस बरस स पुज्ज। मात गोचर करि रध्यौ॥
राज काज चहुआन। पुत्र कहि कहि करि भष्यो॥
हरद्वार जाइ बुल्यौ सु हर। सेव जननि संहर करिय॥
नर कहै रवन रवनिय पुरुष। रूप देपि सुर उद्धरिय॥१६७३

इस कथा में 'महाभारत' के शिखंडी सदृश अत्ताताई के विवाह की विडम्बना सामने नहीं आई। 'किशोरावस्था में पदार्पण करते ही उसके स्त्रियोचित अङ्ग प्रगट होने लगे और उसकी माता अर्द्ध रात्रि में उसे लेकर शिव के आश्रय हेतु चल दी :

जब त्रिय अंग प्रगट्ट हुआ। तब किय अंग दुराइ॥
अद्ध रवन लै अनुसरिय। सिव सेवन सत भाइ॥१९७४

शिखंडी, माता-पिता पर आपत्ति देखकर अकेले ही वन को भाग गई थी और रासो में कन्या की माता का भी इससे आगे कोई उल्लेख नहीं मिलता।

भगवान् शंकर की स्तुति करते हुए (छं° १९७५-८३), उस बाला ने सारी शंकायें त्यागकर, अविचल रूप से निराहार व्रत की दीक्षा लेकर, शिव का जप आरम्भ कर दिया :

ईस जप्य उर दिन धरति। तजि संका सुर बार॥
सो बाली लंघन किये। पानी पन्न अधार॥१९८४,

भयावने हिंसक पशुओं वाले वन में (छं° १९८१), शिव का ध्यान किये हुए उस कन्या को विना अन्न-जल के छै मास बीत गये, तब उसके चित्त का निष्कपट भाव परख कर :

घट् मास गये विन अन्न पान। दिष्यो सुचिंत निह कपट मान॥१९९२

एक रात्रि के तीसरे प्रहर के स्वप्न में शिव उसके साक्षात् हुए :

जगि जग्गि निसा तज्जिय विजाम। सपनंत ईस दिय्यौ प्रमान॥१९९३,

और प्रसन्न होकर उन्होंने उससे वर माँगने की आज्ञा दी :

एक दिवस सिरी रीझी कै। पूछन छेहन लीन॥
सुनि सुनि वाल विसाल तौ। जो मंगै सोइ दीन॥१९८६;

कन्या ने कहा—'मेरे पिता योगिनिपुर के स्वामी अनंगपाल के मंत्री हैं, मुझे पुत्र-रूप में प्रसिद्ध करके वे झंझट में पड़ गये हैं; हे सर्वज्ञ! सती के प्राणधार, संगीत के अधिष्ठाता, काम को जलाने, यम का पाश काटने और तीनों लोकों को आलोकित करने वाले त्रिशूलपाणि! मेरे पिता का अपवाद मिटाइये, आप को छोड़कर अन्य कोई इस कार्य में समर्थ नहीं है' :

मुझ पित जुग्गिनिपुर धनिय। अनँगपाल परधान॥
पुत्र पुत्र कहि अनुसरिय। जानि बितड्डर मानि॥१९८७
विदित सकल सुनि चपल। सतीअ लंपट विन कपटे॥
भगत उधव अरविंद। सीस चंदह दिषि झपटे॥
गीत राग रस सार। सुभर भासत तन सोभित॥
काम दहन जम दहन। तीन लोकह सोय लोकित॥
सुर अनंग निद्धि सामँत गवन। अरि भंजन सज्जन रवन॥
भो तात दोष वर भंजनह। तुअ बिन नह भंजै कवन॥१९८८

इस कथा में आगे अवढर दानी शिव का कथन—'मैंने पूर्व पुत्र ही दिया था, उसे प्रमाणित करूँगा, अस्तु जो कुछ मनोकामना है उसकी पूर्ति करता हूँ' :

पुत्र लिपिनि पुरुबैं कहों। देउ सु ताहि प्रमान॥
जु कछु इंछ वंछै मनह। सो अप्पौ तुहि ध्यान॥१९९०,

पढ़कर, शिखंडी के पिता राजा द्रुपद का स्मरण आ जाता है। उन्होंने भी पुत्र-प्राप्ति हेतु शंकर की तपस्या के फलस्वरूप पुत्री पाई थी, जिसको बाद में पुरुष हो जाने का वर था। अस्तु यह स्पष्ट है अत्ताताई की कथा 'महाभारत' की शिखंडी-कथा की प्रणाली का सहारा लेकर लिखी गई है।

शंकर उस कन्या से उसी स्वप्नकाल में आगे कहते हैं कि तेरा नाम

मैं अत्ताताई रखता हूँ; हे पुत्र, तेरा स्त्री-रूप चला जायगा, तू वीर और पराक्रमी योद्धा होगा, युद्ध में कोई तेरी समानता न कर सकेगा (छं° १९९४-९८)। यह कहकर डमरूधर अन्तर्द्धान हो गये (छं° १९९८-९९)।

चंद ने कहा कि हे संभरेश चौहान्! दिल्ली लौटने के एक मास छै दिन बाद उक्त कन्या को पुरुषत्व प्राप्त हो गया :

इक्क मास पट दिवस वर। रहि तृप दिल्ली थान॥
सु वर वीर गुन उप्पजिय। सुनि संभरि चहुआन॥२००५;

शिव-पार्वती द्वारा सिर पर हाथ रखने के कारण परम सामर्थ्यवान् अत्ताताई अपने शरीर पर राख मले, शृङ्गी बाजा और तीक्षण त्रिशूल लिये रहता था युद्ध-भूमि में उसकी ललकार के साथ किलकिलाती हुई योगिनी साथ-साथ चलती थी :

सिव सिवाह सिर हथ्थ। भयौ कर पर समथ्य दै॥
सु विधि राज आदरिय। सत्ति स्वामित्त अथ्य लै॥
वपु विभूति आसरै। सिंगि संग्रह धरै उर॥
त्रिजट कथं कंठरिय। तिष्प तिरसूल घरै कर॥
कलकंत बार किलकंत क्रमि। जुग्गिनि सह सथ्यै फिरै॥
चौरंगि नंद चहुआन चित। अत्ताताई नामह सरै॥२००८

कविचंद द्वारा कही गई यह वार्ता पृथ्वीराज ने सुनी तथा अत्ताताई का शौर्य युद्ध में देखकर, उसे वीर-कार्य का कुती माना :

इह बत्ती कविचंद कहि। सुनिय राज प्रथिराज॥
जुद्ध पराक्रम पेषि कैं। मन्यौ सब क्रत काज॥२०१२

जहाँ तक शौर्य का प्रश्न है, भीष्म ने शिखंडी को 'रथसत्तम' भी कहा है। अत्ताताई की कथा का विन्यास रासो में शिथिल है। एक ही बात को पहले कहकर दूसरी बार फिर उसे विस्तारपूर्वक दोहराया गया है तथा कहीं-कहीं परस्पर विरोधी बातें भी आ गई हैं, परन्तु यह शिथिलता याद्योपान्त रासो की एक विशेषता है।

व्यतीत होती हुई ऋतु की कठोरता विस्मृत करने के उद्देश्य से वैदिक-कालीन आर्यों द्वारा पूर्ण समारोह के साथ नवीन ऋतु का अभिनन्दन कालान्तर में साहित्य में निःशेष ऋतुओं का एक साथ एक स्थान पर चित्रण करने के लिये प्रेरक रहा होगा। 'ऋक्वेद', 'अथर्ववेद', 'वाजसनेयी संहिता', 'महाभारत' और 'मनुस्मृति' में ऋतुओं को व्यक्तित्व प्रदान करके उनका ऋचाओं द्वारा यजन तथा बलि प्रदान करने के उदाहरण अलभ्य नहीं हैं। मानव के मिलन और वियोग के सुप्त भावों को जगाने वाले बरही के नृत्य, क्रौज्च की क्रीड़ा, चातक की रट, कोकिल की कूज, भ्रमर के पुष्पासव-पान आदि भी प्रकृति-पट पर ऋतु-परिवर्तन के साथ सुलभ होते ही रहे होंगे। अपने मन के सुख और दुःख का स्पन्दन जड़ प्रकृति में आरोपित करके मानव ने अनुभूति की कि उसके आनन्द में चाँद हँसता है, नेत्र उत्कर्ष देते हैं और विकसित पुष्प हास्य से झूम उठते हैं तथा उसके निराशा और अवसाद के क्षणों में, प्रकृति के ये विभिन्न अवयव उसके आत्मीय प्रिय सहचर की भाँति तादात्म्य भाव से प्रतिक्रिया स्वरूप तदनुसार आचरण करने लगते हैं। इस प्रकार प्रकृति के वे ही अङ्ग जहाँ दुखी विरही के लिये शूल हुए, सुखी संयोगी के लिये फूल बन गये। कवि ने अपने पात्र-पात्राओं की परिस्थिति के अनुसार साहित्य के पैतृक उत्तराधिकार में प्राप्त सम्वेदनशील प्रकृति के जड़ जगत को ही अपनी प्रतिभा के अनुसार नहीं हँसाया-स्लाया वरन् उसके आश्रित पशु-पक्षी भी अनुरूप व्यवहार कर उठे।

प्रसवण गिरि की गुफा में लक्ष्मण के साथ निवास करते हुए वाल्मीकि के राम ने वर्षा-ऋतु[] का वर्णन करते हुए कहा—"यह वर्षा अनेक गुणों से सम्पन्न है। इस समय सुग्रीव अपने शत्रु को परास्त करके महान राज्य पर अभिषिक्त हो स्त्री के साथ रहकर सुख भोग रहे हैं। किन्तु मेरी स्त्री का अपहरण हो गया है, इसलिये मेरा शोक बढ़ा हुआ है। इधर, वर्षा के दिनों को बिताना मेरे लिये अत्यन्त कठिन हो रहा है।[] 'ब्रह्माण्डपुराण' (उत्तरखण्ड) में वे कहते हैं—'चन्द्रमुखी सीता के बिना मुझे चन्द्रमा भी सूर्य के समान (तापमान) प्रतीत होता है। हे चन्द्र, तुम अपनी किरणों से पहले जानकी को स्पर्श करो; (उनका स्पर्श करने से वे शीतल हो जायेंगी) फिर उन शीतल किरणों से मुझे स्पर्श करना'[]। कृष्ण की रानियाँ कहती हैं—'ए टिटिहरी! इस रात्रि के समय जब कि गुप्त बोध भगवान् कृष्ण सोये हुए हैं तू क्यों नहीं सो जाती! क्या तुझे नींद नहीं रही जो इस प्रकार विलाप कर रही है? हे सखि हमारे समान क्या तेरा हृदय कमलनयन के लीला-हास्वमय कटाक्ष-बाण से अत्यन्त बिंध गया है? अरी चकवी! तूने रात्रि के समय अपने नेत्र क्यों मूद लिये हैं? क्या अपने पति को न देख पाने के कारण ही तू ऐसे कम स्वर से पुकार रही हैं? क्या तू भी हमारे समान ही अच्युत के दास्य भाव को प्राप्त होकर उनके चरण कमलों पर चढ़ाई हुई पुष्पमाला को अपने जूरे में धारण करना चाहती है'[], इसी प्रकार उन्होंने समुद्र, चन्द्र, मलयमास्त, मेघ, कोकिल, भूधर और नदी को भी सम्बोधन किया है।

कालिदास के यक्ष ने अपना विरह प्रेषित करने के लिये भेघ का पल्ला पकड़ा तो घोयी की कुवलयवती ने पवन का। ऋतु-वर्णन की साहित्य में


अहं तु हृतदारश्च राज्याच्च महतश्च्युतः।
नदीकूलमिव ल्किन्नवसीदामि लक्ष्मण॥५८
शोकश्च मम विस्तीर्णो वर्षाश्च भृशदुर्गमा:।
रावणश्च महाज्छत्रुपारः प्रतिभाति में॥५९,

सर्ग २८, किष्किन्धा°, रामायण;

सजीवता से अनुप्राणित होकर संस्कृत के आचार्यों ने महाकाव्य के कई लक्षणों में उसके वर्णन मात्र की ही नहीं वरन् नाम ले लेकर उसके विभिन्न अङ्गों की भी गणना की है। यही कारण है संस्कृत के महाकाव्यों में अनिवार्य रूप से

ऋतु-वर्णन की परिपाटी का।

स्वयम्भूदेव के वर्षा-वर्णन का एक अंश इस प्रकार है—'सीता और लक्ष्मण सहित जब दाशरथि वृक्ष के नीचे बैठे तो गगनाङ्गण में मेव-जाल उसी प्रकार उमड़ आया जैसे सुकवि का काव्य प्रसारित होता है और जैसे ज्ञानी की बुद्धि, पापी का पाप, धर्मी का धर्म, मृगाङ्क की ज्योत्स्ना, जगत-स्वामी की कीर्ति, धनहीन की चिन्ता, कुलीन का यश, निर्धन का क्लेश, सूर्य का शब्द, आकाश में सूर्य की राशि और वन में दावाग्नि प्रसरित होते हैं वैसे ही अम्बर में मेघमाला फैल गई'[]। अपभ्रंश कवि की इस प्रकार की योजना से तुलसी ने अपने 'रामचरितमानस' के किष्किन्धाकाण्ड में प्राकृतिक विधान करते हुए उपदेशात्मक अप्रकृतों के नियोजन की प्रेरणा पाईं हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

प्रकृति के अनुरंजनकारी रूप, प्रत्येक ऋतु तथा उसके कारण लता, गुल्म, पुष्प, धान्य की उपज का सूक्ष्म और विस्तृत ज्ञान रखने वाले पुष्पदन्त का पावस-काल में प्रसाधित भूमि का वर्णन, कामनाओं को पूर्ण करने वाला और अमित सुख का स्वाभाविक दाता है।[]

सुरम्य वन में गुंजार पूर्वक विचरण करते हुए, मालती-पुष्पों के वक्ष देश का चुम्बन करने वाले भ्रमर के अति मुक्त रति-विलास को देखकर धनपाल ने श्रेष्ठ वसन्त का स्मरण किया जाना अनिवार्य बतलाया है।[]

अपभ्रंश काव्य में कहीं विरहिणी चातक को सम्बोधन करके कहती है—'तुम हताश होकर कितना रोते रहोगे, तुम्हारी जल से और मेरी प्रियतम से, दोनों के मिलन की आशा पूरी न होगी'[१०]। कहीं परदेशी प्रियतम मेघ-गर्जन सुनकर अपनी प्रेयसी की याद से आन्दोलित होकर कह बैठता है—'यदि वह प्रेम-पूर्ण थी तो मर चुकी है और यदि जीवित है तो प्रेम-शून्य है, दोनों प्रकार से मैंने धन्या को खो दिया, अरे दुष्ट बादल! तुम क्यों गरजते हो'[११]। कहीं अति शारीरिक कृशता वश विरहिणी को वलय गिरने के भय से अपनी भुजायें उठाकर चलते देख कवि अनुमान करता है कि वह प्रियतम के विरह-सागर में थाह ढूँढ़ रही है।[१२] कहीं प्रियतम के श्रागमन का शकुन लेते हुए कौए को उड़ाने में क्षीण काया प्रोषितपतिका की आधी चूड़ियाँ पृथ्वी पर गिरकर टूट जाती हैं और शेष उसके उसी समय आगतपतिका हो जाने के कारण हर्षोत्फुल्ल शरीर के स्थूल हो जाने पर तड़ककर टूट जाती हैं।[१३] कहीं हम विरही को अनुभव करते हुए पाते हैं कि सन्ध्या-काल भी वियोगियों को सुखद नहीं, क्योंकि उस समय मृगाङ्क वैसा ही तपता है जैसा सूर्य दिन में।[१४] और कहीं एक आँख में सावन, दूसरी में भादौं नये पत्तों के बिछौने में वसन्त, कपोलों पर शरद्, अङ्गों में ग्रीष्म, कटे हुए तिल-वन में अगहन रूप में हेमन्त तथा मुख-कमल पर शिशिर वाली विरह-जड़िता मुग्धा दृष्टिगोचर होती हैं।[१५]

अब्दुलरहमान कृत 'सन्देशरासक' की प्रोषितपतिका एक पथिक द्वारा अपने प्रियतम को विरह सन्देश भेजते हुए षट् ऋतुओं में अपनी दशा का मार्मिक विवेचन करती है। उदाहरणस्वरूप हेमन्त में उसकी स्थिति देखिये—"सुगन्धि के लिये अगरु जलाया जाने लगा, शरीर पर केशर मली जाने लगी, दृढ़ आलिङ्गन सुखकर हुआ, दिन क्रमशः छोटे होने लगे परन्तु मेरा ध्यान प्रियतम की ओर लगा रहा। उस समय मैंने कहा, मैं दीर्घ श्वासों से लम्बी रातें बिता रही हूँ। तुम्हारी स्मृति मुझे सोने नहीं देती। तुम्हारा स्पर्श न पाने से ठंढक के कारण मेरे अङ्ग ठिठुर गये हैं। यदि इस शीत में भी तुम न आए तो हे मूर्ख! हे दुष्ट! हे पापी! क्या तुम मेरी मृत्यु का समाचार पाकर ही आओगे"[१६]

ऋतु-वर्णन विषयक काव्य-परम्परा का पालन करते हुए चंद ने भी रासो में ऋतुओं के अनुपम चित्र अवान्तर रूप से कहीं पुरुष और कहीं स्त्री-विरह का माध्यम बनाकर खींचे हैं, जो उसकी मौलिक प्रतिभा के द्योतक ________________

( १६० ) हैं । पिछले 'काव्य-सौष्ठव' और 'महाकाव्यत्व' शीर्षक प्रकरणों में उनका परिचय दिया जा चुका है FI जायसी के 'पदमावत' के बारहमासा के- और सूर Ref जो बिरे साजन, शंकर मैटि गहंत | तपनि मृगशिरा जे सधैं, ते अद्रा पलुहंत || यदि के पिक चातक वन बसन न पावहिं बायस बलिहिन खात । सूरस्याम संदेसन के डर पृथिक न वा मग जात ॥, आदि स मर्मस्पर्शी भावों के व्यक्तीकरण का श्रेय ॠतु वर्णन विषयक काव्य-रूढ़ि कोही है। रासो के अन्य महत्वपूर्ण कथा-सूत्र भी विचारणीय हैं। जब तक नवीन शिलालेख और ताम्रपत्र इस चरित - कथा काव्य के अनेक तथ्यों का इतिहासकारों द्वारा मनोनीत कराने के लिये नहीं मिलते तब तक कथा- सूत्रों और काव्य- रूढ़ियों के सहारे साहित्यकार कुछ निर्णय देने और विवेक जागृत करने का सद्प्रयास तो कर ही सकता है । यह किससे छिपा है कि उसकी इस दिशा की खोज वैज्ञानिक गुरु ( Formulae ) नहीं, जिनका परिणाम स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष हो जाता है वरन् ये वे मार्ग हैं जिनका सतर्क अनुसरण दुसाध्य गन्तव्य तक पहुँचने में कुछ दूर तक सहायता अवश्य कर सकता 1

  1. १. रिलिजन ऐन्ड फिलासफी आव दि वेद, कीथ, भाग १, पृ॰ १२५;
  2. १. चेंज आय सेक्स ऐज़ ए हिन्दू स्टोरी मोदिफ़, जर्नल आय हि अमेरिकन ओरियन्ट्रल सोसाइटी, जिल्द ४७, पृ° ३-२४;
  3. १. घनोपगूढं गगनं न तारा न भास्करो दर्शनसभ्युपैति।
    नवैर्जलौचैर्वरणी वितृप्ता तमोविलिप्ता न दिशः प्रकाशाः॥४७
    महान्ति कूटानि महीधराणां वाराविधौतान्यधिकं विभान्ति।
    महाप्रमाणैर्विपुलैः प्रयातै मुक्राकलापैरिव लम्बमानैः॥४८
    शैलोपल प्रस्वलमानवेगा: शैलोत्तमानां विपुलाः प्रपाताः।
    गुहासु संनादितवर्हिणासु हारा विकीर्यन्त इवाभान्ति॥४९
    शीघ्रं प्रवेग विपुला: प्रपाताः निश्रौंतशृङ्गोपतलागिरीगाम।
    मुक्ताकलापप्रतिमाः पतन्तो महागुहोत्सङ्गतलैर्धियन्ते॥५०
    सुरतामर्दाविच्छिन्ना: स्वर्गस्वीहार मौक्तिका:।
    पतन्ति चातुला दिक्षु तोयधाराः समन्ततः॥५१,

    सर्ग २८ किष्किन्धा°, रामायण;

  4. २. इमा: स्फीतगुणा वर्षाः सुग्रीवः सुखमश्नुते।
    विजितारिः सदारश्च राज्ये महति च स्थितः॥५७

  5. १. चन्द्रोऽपि भानुवद्भाति मम चन्द्राननां विना॥६
    चन्द्र त्वं जानकीं स्पृष्ट्वा करैर्मा स्पृश शीतलैः॥७, सर्ग ५,

    किष्किन्धा°;

  6. २. कुररि विलपसि त्वं वीतनिद्रा न शेषे
    स्वपिति जगति राज्यमीश्वरो गुप्र बोधः।
    वयसिव सखि कच्चिसणढनिर्भिन्नचेटा
    नलिननयन हासोदारलीलेक्षितेन॥
    नेत्रे निमीलयसि नक्तमदृष्टवन्धु-
    स्स्वं रोरवीषि करुणं वत चक्रवाकि।
    दास्यं गता वयमिवाच्युतपादजुष्टां
    किं वा स्रजं स्पृहयसे कवरेण वोटुम्॥

    १०, ९०, १५-१६;

  7. १. सीय स-लक्खण दासरहि, तरुवर मूलेॅ परिट्ठि जावेॅ हिँ।
    पसरह सुकइहि कव्वु जिह, मेह-जालु गयरांगणेॅ तावेहिँ॥
    पसरइ जेम बुद्धि बहु जाणहोॅ। पसरइ जेम पाउ पाविट्ठहोॅ॥
    पसरइ जेम धम्मू धम्मिट्ठहोॅ। पसरइ जेम जोणह मयवाहहोॅ॥
    पसरइ जेम कित्ति जगणाहहोॅ। पसरइ जेॅम चिंता धरणहीणहोॅ॥
    पसरइ जेम कित्ति सुकुलीणहोॅ। पसरइ जेॅम किलेसु णिहीणहु॥
    पसरइ जेम सद्दु सुर-तूरहोॅ। पसरइ जेॅम रासि णहेॅ सूरहोॅ॥
    पसरइ जेम दवग्गि वणंतरे। पसरिउ मेह-जालु तह अंबरे॥२८१,

    पउमचरिउ;

  8. २. मुग्ग-कुलत्थु-कंगु-जब-कलव-तिलेसी-वीहि-मासया॥
    फलभर-णविय-कणिस-कण-लंपड-णिवडिय-सुय-सहासया॥
    ववगय-भोय-भूमि-भव-भूरुह-सिरि-णरवइ-रमा सही॥
    जाया विविध-धण्ण-दुम-बेल्ली-गुम्म-पसाहणा मही॥ पृ° २९-

    ३०, आदिपुराण;

  9. १. जहिं मालइकुसुमामोयरउ, चुंवंतु भमइ वणि महुअरउ।
    अइमुत्तए' वि जहिं रह करइ, सो बालवसंतु को न सरइ॥ १०,

    सन्धि ८, भविसवत्तकहा;

  10. २. वप्पीहा पिउ पिउ भणबि कित्तिउ रुअहिं हयास।
    तुह जलि महु पुणु वल्लहइ बिहुँ विन पुरिअ आस॥ ३८३-१,

    हेसशब्दानुशासनम्;

  11. ३. जइ ससणेही तो मुइअ अह जीवइ निन्नेह।
    बिहिं वि पयारेॅहिं गइअ धण किं गज्जब खल मेह॥ ३६७-४, वही;

  12. ४. वलयावलि निवडण भएणॅ धण उद्रब्भुअ जाइ।
    वल्लह-विरह-महादहहो थाह गवेसइ नाइ॥ ४४४-२, वही;

  13. ५. वायसु उड्डावन्तिअए पिउ दिट्ठउ सहस त्ति।
    श्रद्धा वलया महिहि गय अद्धा फुट्ट तड त्ति॥ ३५२-१, वही;

  14. ६. मइँ जाणिउँ पिअ विरहिअहं कवि घर होइ विआलि।
    णवर मिअक्ङु वि तिह तवइ जिह दिणयर खय-गालि॥ ३७७, १, वही;

  15. १. एकहिँ अक्खिहिं सावणु अन्नहिं मद्दवउ।
    माहउ महियल-सत्थरि गराड-त्थलेँ सरउ।
    अङ्गिहिं गिम्ह सुहच्छी-तिल-वाणि मग्गसिरु।
    तहेॅ मुद्धहेॅ मुह-पक्ङइ आवासिउ सिसिरु॥ ३५७-२, वही;

  16. २. धूइज्जइ तह अगरु घुसिणु तणि लाइयइ,
    गाढउ निवडालिंगणु अंगि सुहाइयइ।
    अन्नह दिवसह सन्निहि अंगुलमत्त हुय,
    महु इक्कह परि पहिय णिवेहिय बम्हजुय॥ १८६,....
    दीहउससिहि दीहरयणि मह गइय णिरक्खर,
    आइ ण णिद्दय णिंद तुज्झ सुयरंतिय तक्खर।
    अंगिहिं तुह अलहंत धिठ्ठ किरयलफरिसु,
    संसोइउ तणु हिमिण हाम हेयह सरिसु।
    हेमंति कंत विलवंतियह, जइ पलुट्टि नासासिहसि।
    संतइय मुक्ख खल पाइ मइ, मुइव विज्ज किं श्राविहसि॥

    १९१, सन्देसरासक;