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रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)/भूमिका/६. प्रामाणिकता का द्वन्द

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रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)
चंद वरदाई, संपादक विपिन बिहारी त्रिवेदी

हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ २०० से – २३४ तक

 

प्रामाणिकता का द्वन्द

जनश्रुति ने दिल्लीश्वर पृथ्वीराज और उनकी शूरवीरता की गाथा, हिन्दी- प्रदेशों के घर-घर में व्याप्त कर रखी थी। दिल्ली के इस अन्तिम हिन्दू सम्राट् का नाम हिन्दू जनता के लिये दान, उदारता, पराक्रम, निर्भयता, साहस और शौर्य की जाग्रति बनकर इन पौधेय गुणों के आवाहन का मंत्र भी हो गया था | अमित गुणों वाले इस योद्धा के कार्यों से अभिभूत होकर विमुग्ध जनता की अनुश्रुति का उनमें अन्य श्रुत परन्तु अनुरूप तथा बहुधा अति- रंजित घटनाओं द्वारा श्रभिवृद्धि करना स्वाभाविक ही था । भारत की जातीय और धार्मिक नव चेतना को प्राण देने वाले शिवाजी और छत्रसाल के साथ राणा प्रताप, हम्मीरदेव तथा राणा साँगा की स्मृति सहित पृथ्वीराज का नाम भी हिन्दू, सम्मान और श्रद्धा के साथ स्मरण करता रहा । निरक्षर जनता का ________________

( १६१ ) सम्बल यदि पृथ्वीराज विषयक लोक-कथायें थीं तो शिक्षित जनता का कठहार चंद बरदायी कृत 'पृथ्वीराज रासो' था; जिसकी छाप एक ओर जहाँ हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी साहित्यों पर थी वहाँ दूसरी ओर उसने राजपूताना के राज्यों के इतिहास को भी प्रभावित कर रखा था । बारहवीं शताब्दी में यद्यपि भारत में युद्ध और शासन का भार क्षत्रियों पर ही था परन्तु पृथ्वीराज की जय और पराजय जनता की अतः हिन्दुनों की जीत और हार थी । रातो में हिन्दू जनता को लक्ष्य करके ही चंद ने मानों इस प्रकार के वर्णन किये हैं--- 'हिंदू सेन उप्पर, साहिबज्जे रन जंगी" । 'पृथ्वीराज रासो' की कीर्ति योरप पहुँचाने का श्रेय कर्नल टॉड (Colonel James Tod) को है । इस विद्या मनीषी ने न केवल रासो के एक दीर्घ श्रंश का अंग्रेजी में अनुवाद किया वरन् इस वीर काव्य के आधार पर अपना 'राजस्थान' नामक विख्यात इतिहास -ग्रन्थ लिखा । 'राजस्थान' में उक्त नाम वाले प्रदेश के प्राय: प्रत्येक शासक वंश के पूर्व पुरुष का सम्बन्ध पृथ्वीराज और उनके रासो से पाकर प्राच्य विद्या-विशारद योरोपीय विद्वानों का इस महाकाव्य की ओर उन्मुख होना प्राकृतिक था। श्री ब्राउज़ (E. S Growse ) ४, बीम्स ( John Beames ) और डॉ० ह्योर्नले (Rev. Dr. १. हिन्दू सेना पर शाह ने भयानक धावा बोल दिया है ; २. राजस्थान, दो भाग, सन् १८२६ ३०; दि बाउ श्राव संजोगता, एशियाटिक जर्नल, (न्यू सीरीज़ ), जिल्द २५ ; तथा कनउज खंड, जे० आर० ए० एस० सन् १८३८ ई० ; ३. इस्त्वार द ला लितरात्यूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी, गार्सा द वासी, प्रथम भाग, पृ० ३८२; तथा ( हिन्दी ) टाड - राजस्थान, अनु० पं० रामगरीब चौबे, सम्पा० म० म० पं० गौरीशंकर हीराचंद ओझा, भूमिका पृ० ३३; ४. दि पोइम्स व चंद वरदाई, जे० ए० एस० बी०, जिल्द ३७ भाग १, सन् १८६८ ३० ; फर्दर नोट्स न प्रिथिराज रायसा, वही, भाग १, सन् १८६६ ३० ; ट्रांसलेशन्स फ्राम चंद, वही ; रिज्वाइन्डर ङ मिस्टर बीम्स, वहीं, भाग १, सन् १८८७० ई०; ए मेट्रिकल वर्शन यावदि श्रोषिनिंग स्टैंजाज़ नाव चंदस् प्रिथिराज रासो, वहीं, जिल्द ४२, भाग १, सन् १८७३ तथा इंडियन ऐन्टीक्वेरी, जिल्द ३, पृ० ३४० ; ५. दि नाइनटीन्थ बुक नाव दि जेस्टेस श्राव प्रिथीराज बाई चन्द ________________

( १६२ ) के A F. Rudolf Hoernle ) ' के इस दिशा में प्रयास मूलत: टॉड के 'राजस्थान' की प्रेरणा के फल हैं। जिस समय इन विद्वानों को नियुक्त कर, बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी ने रासो के उद्धार का बीड़ा उठा रखा था, उसी समय के लगभग जोधपुर के मुरारिदान चारण और उदयपुर कविराज श्यामलदास ने उक्त काव्य की ऐतिहासिकता पर शंका उठाई जिसे काश्मीर में अति अधूरे 'पृथ्वीराजविजय' की खोज करने वाले प्रो० बूलर (Bühler) और उनके शिष्य डॉ० मोरिसन (Dr. Herbert Morrison)u का बल मिला, जिसके फलस्वरूप सोसाइटी ने रासो कार्य बंद कर दिया । 5 बरदाई, इनटाइटिल्ड 'दि मैरिज विद पदमावती, ' लिटरली ट्रांसलेटड फ्राम बोल्ड हिन्दी, जे० ए० एस० बी०, जिल्द ३८, भाग १, सन् १८६६ ई० ; रेप्लाई टु मिस्टर ग्राउज़, वही ट्रांसलेशन्स याव सेलेक्टेड पोर्शन्स आव बुक I आव चंद बरदाईज़ एपिक, वही, जिल्द ४१, सन् १८७२ ई० ; लिस्ट या बुक्स कन्टेन्ड इन चंद पोइम, दि प्रिथ्वीराज रासौ, जे० आर० ए० एस० सन् १८७२ ई० ; और स्टडीज़ इन दि ग्रामर आव चंद बरदाई, जे० ए० एस० बी०, जिल्द ४२, भाग २, सन् १८७३ ई० ; 5 १. बोधेका इंडिका, (ए० एस० बी०), न्यू सीरीज़, संख्या ३०४, भाग २, फैसीक्यूलस १, सन् १८७४ ई०, (सम्पादित पाठ पृथ्वीराज रासो समय २६-३५) ; तथा वही, संख्या ४५२, भाग २, फैसीक्यूल १, सन् १८८१ ई०, ( रेवातट समय का अंग्रेजी अनुवाद ) ; तथा नोट्स यान सम प्रोसोडिकल पिक्यूलिरिटीज़ श्राव चंद, इंडियन ऐंटीक्वेरी, जिल्द ३, पृ० १०४ ; २. जे० बी० बी० ए० एस० जिल्द १२, सन् १८७६ ई० S ३. दि ऐन्टीकिटी, आथेन्टीसिटी ऐन्ड जिनूइननेस व दि एपिक काल्ड दि प्रिथीराज रासा, ऐन्ड कामनली ऐसक्राइब्ड टु चंद बर- दाई, जे० ए० एस० बी०, जिल्द ५५, भाग १, सन् १८८६ ई० ; तथा पृथ्वीराज रहस्य की नवीनता ; ४. प्रोसीडिंग्ज, जे० ए० एस० वी०, जनवरी-दिसम्बर सन् १८६३ ई०, पृ० ८२ ५ सम अकाउन्ट व दि जीनिनोलॉजीज़ इन दि पृथ्वीराज विजय, वियना श्ररियन्टल जर्नल, भाग ७, सन् १८६३३० ; ________________

( १६३ ) कविराज श्यामलदास के विरोधी तर्कों का उत्तर पं० मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या ने दिया । उदयपुर के बाबू रामनारायण दूगड़ ने पृथ्वीराज की जीवनी पर प्रकाश डालते हुए रासो की त्रुटियों की ओर ध्यान आकर्षित किया। मुंशी देवीप्रसाद ने रासो की समीक्षा करते हुए लेख लिखा । बाबू श्यामसुन्दर दास ने चंद को हिंदी का यदि कवि निश्चित किया | बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी द्वारा रासो का काम बंद देखकर, नागरी प्रचारिणी सभा काशी ने पं० मो० वि० पंड्या, बाबू राधाकृष्णदास, कुँवर कन्हैया जू और बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा उसका सम्पादन कराके प्रकाशित कराया। मिश्रबन्धुनों ने चंद को हिंदी का आदि महाकवि और पृथ्वीराज का दरवारी माना । महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्री ने चंद के वंशवृक्ष पर प्रकाश डाला | डॉ० टेसीटरी (Dr, L. P. Tessitory ) ने रासो की दो वाचनात्रों की संभावना की ओर संकेत किया । श्री अमृतलाल शील ने देवगिरि, मालवा, रणथम्भौर आदि के प्राचीन और पृथ्वीराज के समकालीन शासकों के प्रमाण देते हुए इन राज्यों से सम्बन्धित रासो की ये तथा अन्य कई चर्चायें सप्रमाण निराधार सिद्ध की। महामहोपाध्याय पं० गौरीशंकर हीराचंद श्रभा ने रासो को अनैतिहासिक ठहराते हुए, पृथ्वीराज के दरवार में चंद के अस्तित्व तक पर शंका उठाई और इस 'भट्ट भांत' को सन् १. पृथ्वीराज रासो की प्रथम संरक्षा, सन् १८३० २. पृथ्वीराज चरित्र, सन् १८६६ ई० ३. पृथ्वीराज रासो, ना० प्र० प०, भाग ५ सन् १६०१ ई०, ३० १७० १ ४. हिंदी का यदि कवि ना० प्र० प०, भाग ५, वही ५. सन् १६०१-६६१२ ई० '

६. मिश्रवन्धु विनोद, तृतीय संस्करण, पूर्व ५६१; हिंदी नवरत्न हिंदी का रासौ साहित्य, हिंदुस्तानी, अप्रैल १६३६ ई० ; ७. प्रिलिमिनरी रिपोर्ट धान दि आपरेशन इन सर्च याव मैनुस्क्रिप्टस श्राव बार्डिक क्रानिकल्स, ए० एस० बी०, सन् १९१३ ई० ८. विदितोथेका इंडिका, ( ए० एस० बी० ), न्यू सीरीज़, संख्या १४१३, सन् १९१८ ई०, पृ०७३ ६. सरस्वती, भाग २७ संख्या ५, नई, ०५५४-६२ तथा संख्या ६, जून, ० ६७६-८२, सन् १६२६ ई० : ________________

( १६४ ) १५४३ ई० के बास-पास कभी रचा गया सिद्ध किया । पं० रमाशंकर त्रिपाठी ने चंद के वंशजों पर प्रकाश डाला | पंजाब विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ० वूलनर ( Dr. A. C. Woolner ) ने डॉ० वनारसीदास जैन और महामहोपाध्याय पं० मथुराप्रसाद दीक्षित को अपने विश्वविद्यालय के सात सहत्र छन्द परिमाण वाले रासो का सम्पादन करने के लिये प्रोत्साहित किया । दीक्षित जी ने उक्त हस्तलिखित ग्रन्थ का प्रथम समय 'असली पृथ्वीराज रासो के नाम से सटीक प्रकाशित किया और अपने विविध लेखों४ में चंद और उसकी कृति को प्रामाणिक प्रतिपादित करते हुए गौ० ही ० ा का खंडन किया । श्रोभा जी ने दीक्षित जी के मत का विरोध करते हुए रासो को पुन: अप्रामाणिक ही निश्चय किया ।" हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वालों में प्रमुख गार्सा द तासीर, डॉ० ग्रियर्सन ७ ( जो बाद में बदल गये ) और बाबू श्यामसुन्दर दास ( जिन्होंने बाद में चंद द्वारा रासो के अपभ्रंश में रचे जाने पर विश्वास प्रकट किया ) १० को छोड़ कर १. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, नवीन संस्करण, भाग १, सन् १९२० ई०, पृ० ३७७-४५४; वहरे, भाग ६, पृ० ३३ ३४; तथा पृथ्वीराज रासो का निर्माण काल, कोषोत्सव स्मारक संग्रह, सन् १९२८ ई० ; २. महाकवि चंद के वंशधर, सरस्वती, नवम्बर सन् १६२६ ई० i ३. मोतीलाल बनारसी दास, लाहौर, सन् १९३८ ३० ; ४. पृथ्वीराज रासो और चंद वरदाई, सरस्वती, नवम्बर सन् १९३४ ई० ; चंद बरदाई और जयानक कवि, सरस्वती, जून सन् १६३५ ई०; पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता, सरस्वती, अप्रैल सन् १९४२ ई० ; ५. पृथ्वीराज रासो के संबंध की नवीन चर्चा, सुधा, फरवरी सन् १९४१ ई०; ६, इस्त्वार द ला लितरात्यूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी, प्रथम भाग, पृ० ३८२. ང་ྡ དྡི॰ ; ७. माडर्न वर्नाक्यूलर भाग १, सन् १८५ लिटरेचर आव हिन्दोस्तान, जे० ए० एस० बी०, ई०, पृ० ३-४ ८. प्रोसीडिंग्ज, जे० ए०, एस० बी०, सन् १८६३ ई०, पृ० ११६, ट्यूरी नोटिस व मिस्टर एफ० एस० प्राउज़ ; ६. हिंदी साहित्य, (चतुर्थ संस्करण, सं० २००३. वि० ), पृ० ८१-८६ १०. पृथ्वीराज रासो, ना० प्र० प०, वर्ष ४५ अंक ४, भाव, सं० १६६७ वि० ________________

( १६५ ) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल १, डॉ० रामकुमार वर्मा और पं० मोतीलाल मेनारिया ने रासो को जाली और अनैतिहासिक माना । मुनिराज जिन- विजय ने पृथ्वीराज और जयचन्द्र सम्बन्धी चार अपभ्रंश छन्दों की खोज प्रकाशित कर, चंद बलद्दिक ( बरद्दिया < वरदायी ) द्वारा अपना मूल ग्रन्थ अपभ्रंश में लिखने की श्राशा प्रकट करके इस क्षेत्र में फिर गर्मी पैदा कर दी। डॉ० दशरथ शर्मा" ने अथक परिश्रम करके राम्रो विषयक अनेक तथ्यों की १. हिंदी साहित्य का इतिहास, (सं० २००३ वि० ), १०४४ २. हिन्दी साहित्य का यालोचनात्मक इतिहास, (द्वितीय संस्करण ), पु० २४६ ; ३. राजस्थान का पिंगल साहित्य, १० ५२, सन् १९५२ ई० ; ४. पुरातन प्रबन्ध संग्रह, भूमिका, पृ० ८-१० सं० १६६२ वि० ( तन् १९३५ ई० ) ; प्र० ए०, ५. पृथ्वीराज रासो की एक प्राचीन प्रति और उसकी प्रामाणिकता, ना कार्तिक सं० १९९६ बि० ( सन् १९३६ ई० ); अग्निवंशियों और पह्लवादि की उत्पत्ति कथा में समता, राजस्थानी, भाग ३, अङ्क २, अक्टूबर १९३६ ३०; पृथ्वीराज रासो की कथाओंों का ऐतिहासिक श्राधार, राजस्थानी, भाग ६, अङ्क ३, जनवरी १६४० ई०; दि एज ऐंड हिस्टारीसिटी श्राव पृथ्वीराज रासो, इंडियन हिस्टारिकल क्वार्टली, जिल्द १६, दिसम्बर १९४० ई०, तथा वही, जिल्द, १८, सन् १६४२ ई०, सुर्जन चरित्र महाकाव्य, ना० प्र० प० सं० १९६८ वि० (सन् १६४१ ई०) : पृथ्वीराज रासो संबंधी कुछ विचार, वीणा, अप्रैल सन् १९४४ ई० ; चरलू के शिलालेख, राजस्थान भारती, भाग १, अङ्क १० अप्रैल सन् १९४६ ई० ; दि ओरिजिनल पृथ्वीराज रासो ऐन अपभ्रंश वर्क, वही संयोगिता, राजस्थान भारती, भाग १, अङ्क २-३, जुलाई- अक्टूबर सन् १६४६ ई० ; चन्द्रावती एवं आबू के देवड़े चौहान, वही, भाग १, अङ्क ४, जनवरी सन् १६४७ ३०, पृथ्वीराज रासो की भाषा, वही, भाग १, अङ्क ४; पृथ्वीराज रासो की ऐतिहासिकता पर प्रे महमूद खाँ शीरानी के श्राक्षेप, वही, भाग २, अङ्क १, जुलाई सन् १९४८ ई० ; कुमारपाल चालुक्य का शाकंभरी के श्रणराज के साथ युद्ध, यही, भाग २, अङ्क २, मार्च १६४६ ३०१ राजस्थान के नगर एवं ग्राम (बारहवी तेरहवीं शताब्दी के लगभग ), वही भाग ३, १, अप्रैल शोध की और अपने विविध लेखों द्वारा रासो के विरोधियों को अपना मत सुधारने की प्रेरणा देने का यथाशक्ति उद्योग किया। पं॰ झाबरमल शर्मा[] ने चौहानों को अग्निवंशी कहलाने के प्रमाण देकर रासो वर्णित अग्नि-कुल का प्रतिपादन किया। पं॰ नरोत्तमदास स्वामी[] ने पृथ्वीराज रासो की भाषा तथा पृथ्वीराज के दो मंत्रियों पर प्रकाश डाला। श्री अगरचंद नाहटा[] ने पृथ्वीराज रासो की हस्तलिखित प्रतियों की सूचना दी और पृथ्वीराज की सभा में जैनाचार्यों के एक विनोदपूर्ण शास्त्रार्थ का उल्लेख किया। प्रो० नीनाराम रंगा[] ने डॉ० दशरथ शर्मा के सहयोग से रासो की भाषा पर विचार प्रकट किये । श्री उदयसिंह भटनागर[] ने 'पृथ्वीराजरासो' में चंद के वंशजों के कई नाम उसके छन्दों के रचयिता के स्वरूप में प्रयुक्त किये जाने की ओर भी ध्यान रखने का संकेत किया। कवि राव मोहनसिंह[] ने रासो की प्रामाणि कता की परीक्षा तथा उसके प्रक्षेपों को हटाने के लिये नये विचारणीय तर्क


सन् १९५० ई० : परमारों की उत्पत्ति, वही, भाग ३, श्रङ्क २, जुलाई सन् १९५१ ३० ; रासो के अर्थ का क्रमिक विकास, साहित्य-सन्देश, जुलाई सन् १९५१ ई० : सम्राट पृथ्वीराज चौहान की रानी पद्मावती, मरु- भारती, वर्ष १, अङ्क १, सितम्बर सन् १६५९ ३०; दिल्ली का तोमर राज्य, राजस्थान-भारती, भाग ३, अङ्क ३-४, जुलाई सन् १९५३ ई० प्रस्तुत किये | डॉ० धीरेन्द्र वर्मा[] ने राखी के महत्वपूर्ण प्रस्तावों, उसमें निहित धार्मिक भावना और उसकी भाषा का परिचय देते हुए हिन्दी साहित्य-सेवियों को उसकी और अधिक ध्यान देने के लिये प्रोत्साहित किया। श्री मूलराज जैन[] ने रासो की विविध वाचनाओं पर प्रकाश डाला। डॉ० माता प्रसाद गुप्त[] ने रासो प्रबन्ध परम्परा का अवलोकन करके 'पृथ्वीराज रासो' को fre से for free की चौदहवीं शताब्दी की कृति माना। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी[१०] ने चरित और कथा काव्य के गुणों से परिपूर्ण, उप- लब्ध रासो में चंद की मूल कृति गुम्फित होने का प्रगाढ़ विश्वास करके, प्राचीन कथा-सूत्रों और काव्य-रूढ़ियों के आधार पर भी इस काव्य की परीक्षा करने का परामर्श दिया तथा अपने निश्चित किये हुए सिद्धान्तों के व्याधार पर श्री नामावर सिंह[११] के सहयोग सहित एक संक्षिप्त रासो सम्पादित करके प्रकाशित करवा दिया | डॉ० माताप्रसाद गुप्त[१२] ने आचार्य द्विवेदी जी के कार्य में शिथिलताओं का निर्देश करते हुए अपने निर्दिष्ट मत की यावृत्ति की ।

'पृथ्वीराज रासो' पर किये गये कार्य का संक्षिप्त विवरण यहाँ पर यह दिखाने के लिये दिया गया है कि गति भले ही कुछ धीमी रही हो परन्तु आज भी अधिकारी विद्वान उस पर विचार कर रहे हैं। अनैतिहासिक समझकर हिन्दी साहित्यकार उसकी ओर से तटस्थ नहीं हुए, उनके सप्रयत्न चले ही जा रहे हैं। इस समय भी जहाँ पं० मोतीलाल मेनारिया जैसे विचारक रासो की चार वाचनाओं के लिये कहते देखे जाते हैं---'वे वास्तव में रासो के रूपा- न्तर नहीं, प्रत्युत बृहत् सम्पूर्ण रासो ( जो सं० १७०० के आस-पास बनाया गया है ) के ही कटे-छँटे रूप हैं जिनको अपनी-अपनी रुचि एवं आव-


श्यकता के अनुसार समय-समय पर लोगों ने तैयार कर लिया है[१३]; और

डॉ० माताप्रसाद गुप्त, प्राप्त वाचनाओं का कृतित्व काल गणना से करके रासो का मूल रूप की चौदहवीं शताब्दी का बतलाते हैं, वहाँ मुनिराज जिन- विजय, महामहोपाध्याय पं० मथुराप्रसाद दीक्षित, डॉ० दशरथ शर्मा, प्रो० ललिताप्रसाद सुकु.ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और मेरे जैसे कुछ व्यक्ति अनुमान करते हैं कि उपलब्ध रासो में पृथ्वीराज चौहान तृतीय के दरबारी (और 'पृथ्वीराज विजय' के अनुसार पृथ्वीभट या पृथ्वीराज के भाट अर्थात् ) कवि चंद बरदायी की मूल कृति विकृत रूप में निःसन्देह उपस्थित हैं, जिसका पृथक् किया जाना दुसाध्य भले ही हो असाध्य नहीं। इस युग में विना 'पृथ्वी- राज रासो' का अवलोकन किये 'रासोसार' मात्र पढ़कर, कविराज श्यामल- दास और विशेषकर म० म० गौरीशंकर हीराचन्द्र तर्क जानकर तदनुसार राग अलापना अपेक्षाकृत समस्या उसे अप्रामाणिक और अनैतिहासिक सिद्ध करने जितनी उसके अन्दर बैठ कर उसके प्रक्षेप-जाल का के रासो विरोधी है। आज रासो की की इतनी नहीं है दूर करने की है।

रासो की ऐतिहासिकता के विरोधी जहाँ एक ओर भारतवर्ष में इतिहास लिखने की परम्परा न होने के कारण[१४] चन्द द्वारा इतिहास-काव्य लिखे जाने की बात नहीं समझ सकते, वहाँ दूसरी ओर सिर-पैर की अ बातें लिखने वाले 'पृथ्वीराजविजय,[१५] को क्यों मामाणिक समझते हैं ? तथा


एक ओर जहाँ उनकी सम्मति से कवि इतिहास नहीं लिख सकता, यहाँ वे

शिलालेखों को प्रमाण रूप से क्यों लाते हैं, जिनका प्रवन इतिहासज्ञ या वैज्ञानिक नहीं करते वरन् कल्पना को व्याश्रय बनाकरोकियों से पूर्ण करके कवि ही प्रस्तुत करता है। इस विरोध से मेरा यह अभीष्ट कदापि नहीं कि रासो की संगत बातों पर प्रकाश न डाला जाय, वरन् निवेदन इतना ही है कि यदि रासो में वर्णित कोई विवरण अन्य प्रमाणों से सिद्ध होता है तो शिलालेख मात्र के अभाव में उसे एकदन अनैतिहासिक न कह दिया जाय | भारतीय इतिहास के अन्धकार-युग में जहाँ शिलालेख और ताम्रपत्र प्राप्त नहीं हैं, वहाँ अपने इतिहास के कलेबर को प्राण-रूपी वरदान देने के लिये इतिहासकार प्रबन्ध और मुक्तक कवि के ही नहीं लोक-गीतकार तक के द्वार पर क्यों गिड़गिड़ाता है ?

अब हम रासो सम्बन्धी कतिपय अनैतिहासिक कहे जाने वाले तथ्यों की परीक्षा करेंगे :-

अग्नि-वंश

चंद ने लिखा है कि करते देखकर[१६],दानवों ने उसमें पर्वत पर अनेक ऋषियों को यज्ञानुष्ठान नाना प्रकार से विघ्न डालने आरम्भ किये[१७], यह देखकर ऋविगण वशिष्ठ के पास गये और उनसे राक्षसों का विनाश करने की प्रार्थना की[१८], तब वशिष्ठ ने अस्ति-कुंड से प्रतिहार, चालुक्य और परमार इन तीन वीर पुरुषों को उत्पन्न किया जो राक्षसों से भिड़ पड़े

तब सुरिष वाचिष्ट। कुंड रोचन रचि तामह।।
धरिय ध्यान जान होम। मध्य वेदी सुर सामह।।


torical, imaginary or legendary element." Dinesh Chandra Sarkar, Review of the Prthviraj Vijaya of Jayanaka, with the commentary of Jonaraj, edited by M. M. Dr. G. H. Ojha and Pandit Chandra Dhar Sharma Guleri. Indian Historical Quarterly, p. 80, vol. XVIII, March

1942.

तब प्रगटयौ प्रतिहार।राज तिन ठौर सुधारिय॥
फुनि प्रगटयौ प्रचालुक्क।ब्रह्मचारी व्रत चारिय ।।
पावार प्रगट्या बीर बर। कयौ रिथ्य परमार वन॥
त्रय पुरष जुद्ध कौतुल ।मह रस कृत तन ॥ २५०,

परन्तु असुरों का उपद्रव शान्त होते न देखकर[१९], वशिष्ठ ने देवताओं का अंश ग्रहण करने वाले असुरों का दमन करने वाले शूरमा को पैदा करने का विचार किया[२०] और फिर उन्होंने ब्रह्मा की स्तुति करके मंत्रों के द्वारा अनल- कुण्ड से, ऊँचे शरीर और रक्त वर्ण के चार मुखों वाले तथा खड्ग धारण किये चार भुजाओं वाले चाहुवान को उत्पन्न किया-


अनल कंड कि हाल। सब्जि उपगार सार सुर।
कमलासन आसनह। मंडि जग्योपवीत जुरि ॥
चतुरानन स्तुति सद्द। मंत्र उच्चार सार किय॥
सु करि कमंडल वारि । जुजित आव्हान थान दिय।
जा जन्नि पानि श्रब अहुति जॉर्ज ।भजि सु दुष्ट आव्हान करि ॥
उप्पज्यौ अनल चहुधान तब चव सुबाहु असि वाह घरि ॥२५५
भुज प्रचंड चव च्यार मुष ।रत्त वन तन तुरंग ।।
अनल कंड उपज्यो अनल। चाहुवान चतुरंग ॥ २५६,

इन अग्नि कुलीन चारों क्षत्रियों ने ऋषियों का यज्ञ निर्विघ्न समाप्त कराया।[२१] इन्हीं के वंश में पृथ्वीराज का जन्म हुआ-

तिन रक्षा कीन्ही सु दुज । तिहि सु वंस प्रथिराज॥
सो सिरवत पर वादनह किय रासो जु विराज ॥ २८१

इस समय निर्दिष्ट चारो जातियों के क्षत्रिय अपने को अग्नि-वंशी मानते हैं ।

बाँसवाड़ा राज्य के अधुग्राम के मन्दिर में राजा मंडनदेव परमार के सन् १०७६ ई० के शिलालेख[२२] में तथा पद्मगुप्त के 'नवसाहसाङ्क-


चरित'[२३] में श्राबू के ऋषि वशिष्ठ के अग्नि-कुण्ड से एक वीर पुरुष की

उत्पत्ति की कथा दी है जो विश्वामित्र के पक्ष को परास्त करके, ऋविर की अपहृत नन्दिनी गाय लौटा लाया था, और इस पराक्रम के फलस्वरूप उसे परमार अर्थात् शत्रुहन्ता नाम मिला था। 'वाल्मीकि रामायण' के सर्ग ५४ और५५ में विश्वामित्र द्वारा वशिष्ठ की कामधेनु हरण, वशिष्ठ की ग्राहा से उसके द्वारा पहों और शकों की सृष्टि तथा विश्वामित्र की सेना के संहार का विवरण मिलता है। विशियों की उत्पत्ति का air रामायण की यही कथा प्रतीत होती है। डॉ० दशरथ शर्मा का कथन उचित ही है---- "ग्राज से हजारों वर्ष पूर्व जब शकादि की उत्पत्ति का समझना एवं समझाना आवश्यक हुआ तब वशिष्ठ एवं कामधेनु की कथा की कल्पना की आवश्य कता हुई । लगभग एक हजार वर्ष बाद जब पहवादि भारतीय जन समाज के अंग बन गये और परमारादि कई अन्य जातियों की उत्पत्ति को समझना समझाना आवश्यक हुआ तब इन जातियों के इतिहास को न जानते हुए कई कवियों ने उसी पुराने रामायण के कथानक का सहारा लिया और केवल जातियों का नाम बदल और इतस्तत: थोड़ा बहुत फेरफार कर पर- मारादि की उत्पत्ति कथा हमारे पूर्वजों के सामने रखी ।"[२४]

ग्वालियर के सन् ८४३३० के प्रतिहार राजा भोजदेव की प्रशस्ति[२५] दसवीं शती के राजशेखर[२६] द्वारा भोज के पुत्र महेन्द्रपाल का 'रघुकुलतिलक' और उसके पुत्र का 'रघुवंशमुक्तामणि' वर्णन तथा शेखावटी वाले हर्षनाथ के मन्दिर की चौहान विग्रहराज की सन् ६८३ ई० की प्रशस्ति[२७] में कन्नौज के


( २०२ )

प्रतिहारों के ( रघुवंशी ) उल्लेख से प्रतिहारों के सूर्यवंशी होने का ; राजा विमलादत्त चालुक्य के सन् २०१८ ई० के दानपत्र[२८], कुलोत्तुंग चोड़देव सोलंकी (चालुक्य ) द्वितीय के सन् १९७१ ई० के दानपत्र[२९] और गुर्जरेश्वर भीमदेव चालुक्य को आचर्य हेमचन्द्र द्वारा 'द्वयाश्रय'[३०] में सोम (चन्द्र) बंशी बताने से चालुक्यों के चन्द्रवंशी होने का तथा विग्रहराज चतुर्थ के राजकवि सोमेश्वर रचित चौहानों के इतिहास-काव्य[३१], जयानक के 'पृथ्वीराज विजय[३२] और नयचन्द्ररि के सन् १४०३ ई० के 'हम्मीरमहाकाव्य'[३३] में चौहानों के सूर्यवंशी होने के प्रमाण देकर महामहोपाध्याय पं० गौरीशंकर हीराचंद ओझा[३४] ने रासो की वंशी कथा की आलोचना की है।

चौहानों के अग्निवंशी कहे जाने के लिये वीं शती के कविराज सूर्यमल मिश्रण ने अपने 'वंशभास्कर' में लिखा है- 'कितने ही लोग अग्नि- वंश को सूर्यवंश कहकर वर्णन करते हैं, उनमें तेज तत्व की एकता के कारण विरोध नहीं समझना चाहिये ।[३५]

पं० भाबरमल शर्मा ने परमारों की उत्पत्ति कथा का वा अपनी मौलिक कल्पना का सहारा लेकर सम्भवतः रासोकार द्वारा अदगिरि के


यज्ञ की कथा के रचे जाने का उल्लेख करते हुए बताया है कि कर्नल

टॉड और जी राव तुम्भा के शिलालेख[३६] के आधार पर चौहानों को अपने को कहता हुआ मानते हैं। अस्तु उनके अनुसार यह वत्स-गोत्र ही चौहानों को अग्नि-वंश से सम्बन्धित करता हैं। अपने निष्कर्म के प्रमाण में शर्मा जी कहते हैं--- 'हिंदुओं के यहाँ बड़े गोत्र-प्रव- तक ऋऋषि हो गये हैं--- विश्वामित्र, भृगु, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप और अगस्य | इनमें से भृगु-गोत्र की ७ शाखा [ ( वत्स, विद, आपेण, यास्क, मित्रयु, वैन्य और शौनक ) | गोत्रमवर निबन्ध कदम्बम् भृगु काण्डम्, पृ० २३-२४] में से एक वत्स शाखा है । जब बत्स गोत्र के यादि पुरुष महर्षि भृगु बताये गये हैं तब यह देखना चाहिये कि भृगु किस वंश के हैं। मनुस्मृति में लिखा है- 'इदमूचुर्महात्मानं न प्रभवं भृगुं' (५-१) । इसमें भृगु का विशेषण अनल-प्रभव स्पष्ट है। इस सम्बन्ध में केवल मनु- स्मृति ही नहीं श्रुति भी साक्षी देती है- 'तस्य बद्रो तसः प्रथमं देदीप्यते तद्- सावादित्योऽभवत् । यद्वीतीयमासीद् भृगुः ।' [अर्थात्- उसकी शक्ति (रेतस= वीर्य) से जो पहला प्रकाश (अग्नि) हुआ, वह सूर्य बन गया और जो दूसरा हुआ उसीसे भृगु हुआ ] । इसी प्रमाण से भृगु को अल-भव कहा गया है। इस प्रकार भृगु अग्निवंशी हुए और भृगुवंशी हुए वत्स | बत्स गोभी हैं चौहान | अतएव चौहानों को अग्निवंशी कहलाने में कोई तात्विक आपत्ति नहीं दिखाई देती ।"[३७]

-‘ईशावास्योपनिषद' में मरणोन्मुख उपासक मार्ग की याचना करते हुए कहता है कि हेग्ने ! हमें कर्म फलभोग के लिये सन्मार्ग से ले चल देव ! तू समस्त ज्ञान और कर्मों को जानने वाला है। हमारे पाषण्डपूर्ण पापों को नष्ट कर हम तेरे लिये अनेकों नमस्कार करते हैं--

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युषोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूविष्ठां ते नमउक्ति ते नमउकिं विधेम ॥ १८


यहाँ अग्नि, सूर्य का पर्याय है। स्तुनि को सूर्य भी कह देने

में कोई अड़चन नहीं हो सकती | अग्नि-वंशी चौहानों को भी सूर्यवंशी लिखा गया परन्तु इसके द्वारा एक विशेष अर्थ की साधना भी इष्ट थी। इसे स्पष्ट करने के लिए हमें 'पृथ्वीराजविजय' की ओर चलना होगा । 'रासो' में चहुवान या चाहमान की उत्पत्ति दैत्यों और राक्षसों के विनाश के लिए अनि से होती है तो 'पृथ्वीराजविजय' में भी लगभग उसी प्रकार के हेतु का संकेत करते हुए सूर्य से इस प्रकार होती है.---"पुष्कर के विषय में जब पुष्करोद्भव ब्रह्मा जी इतना कह कर चुप हुए, तब सृष्टि के आदि से ही जिनको पिशाच जनों का मर्दन इष्ट है, उन श्री जनार्दन की दृष्टि सूर्य- नारायण पर पड़ी-

व्याहृत्य वाक्यमिति पुष्कर कारणेन
तूष्णीमभूयत च पुष्कर कारणेन।
आसर्ग सम्मत पिशाचजनार्दनस्य
भास्वत्यपत्यत दृशा व जनार्दनस्य॥ सर्ग १ ;

तदनन्तर सूर्य मंडल से एक तेज-पंज उत्पन्न होकर पृथ्वी पर उतरने लगा। उसे देख आकाश के प्राणी सोचने लगे कि क्या इन्द्र के लिये प्रकल्पित आहुति सूर्य-बिम्ब को प्राप्त कर, वायु से अधिक प्रदीप्त हो, फिर पृथ्वी को लौट रही है । जिस सुषुम्ण नामक किरण की याचना प्रति अमावस्या को चन्द्र किया करता था, वह सब क्या सूर्य ने उसे दे दी है ? इस कारण क्या चन्द्र उस किरण को औषधियों को दिखायेगा ? क्या उत्तरदिकपति (काम) का पुत्र मडकूबर रम्भा के अनुराग से स्वर्ग में आकर सूर्य से सत्कार पाकर लौट रहा है ? क्या भौम, ग्लेदों के उपद्रवों का निवारण करने के लिये अपनी माता, भूमि के श्रम में ग्रा रहा है ? कानीनता से कदर्थित, परन्तु युद्ध-क्रिया द्वारा अर्क-मण्डल में प्रवेश कर जन्म से युतिमान हो क्या कर्ण पुनरपि पृथ्वी पर ॠा रहा है ? इसके अनन्तर उस अर्क-मण्डल में से बहुत सुन्दर काले बालों वाला, किरीट, केयूर, कुण्डल, माला, मणिमय-मुक्काहार आदि आभरण धारण किये, चन्दन लगाये, खङ्ग और कवच से सुशोभित, वपुष्मान् लोहमय पादवाला एक त्रिभुवन पुराय-राशि पुरुष निकला | वह धर्म व्यवहार में मन से भी अधिक वेगवाला, कुपथ पर चलने में शनि से भी आलसी, सुग्रीव से भी अतिशय मित्रप्रिय और यम से भी अधिक यथोचित दण्डधर था । वह दान में कर्ण से भी अधिक उत्साहवान और साधु की मनोवेद नाओं को दूर करने में अश्विनीकुमारों से भी अधिक साबधान था । वह अश्व विद्या में सूर्य के प्रसिद्ध पुत्र रेवन्त से भी अधिक प्रवीण था।[३८] कर में चापे ग्रहण करने, मन में हरि को धारण करने, बल में मान धारण करने तथा मंत्रियों द्वारा नय ( राजनीति) धारण करने के कारण वह इन गुणों के अलिम वर्णों से निर्मित चा-ह-ना-न' संज्ञा को प्राप्त हुआ :

करेश चापत्य हरेमनीषा
बलेन मानस्य नयेन मंत्रिभिः।
नामाग्रिमवर्णनिमितां घृतस्य
स चाहमानोयमिति प्रथां ययौ ॥४५,सर्ग २

वह वर्णन पढ़कर जहाँ एक ओर यह ध्यान है कि से प्रसूत होने वाले का रूप वर्णन करते हुए रासो में इतने अप्रस्तुत का विधान नहीं पाया जाता वहाँ दूसरी ओर एक स्वाभाविक प्रश्न भी उठता है कि जयानक ने चौहानों के मूल पुरुष 'चाहमान' को सीधे-सीधे सूर्यवंशी क्यों नहीं लिख दिया, क्योंकि सूर्यवंश प्राचीन और विश्रुत था, उसे उक्त पुरुष को सूर्य से उपर्युक ढंग से अतरण कराने की क्या आवश्यकता पड़ गई ? उत्तर स्पष्ट है। कर्नल टॉड द्वारा राजस्थान में अन्य क्षत्रियों की अपेक्षा चौहानों के पौष और पराक्रम की भर पेट कीर्ति अतिरंजित नहीं, लोकाfer अवश्य है। बाहर से आई हुई इस वीर जाति को यज्ञ आदि के द्वारा शुद्ध करके भारतीय बनाने का प्रयत्न अवश्य किया गया था। चंद ने चौहानों को अम्नि वंशी बताकर वस्तुतः सत्य का प्रकाश किया है जब कि ( संस्कृत ) 'पृथ्वीराज विजय' के कर्ता जयानक ने ही केवल नहीं वरन् उसके पूर्ववर्ती (संस्कृत) शिलालेखकार कवियों तथा परवर्ती ( संस्कृत ) 'हम्मीरमहाकाव्य' के कर्ता नपचन्द्रसूर और (संस्कृत) 'सुर्जनचरित्र - महाकाव्य'[३९] के रचयिता चन्द्रशेखर ने उन्हें सूर्यवंशी बतलाकर एक ओर जहाँ अरन और सूर्य में तेज- रूप के कारण तत्वत: समानता का भाव होने से ( सूर्य द्वारा चाहमान की उत्पत्ति आशिक परिवर्तन सहित प्रस्तुत करके ) सत्य से विरत न होने का दावा किया वहीं दूसरी ओर उनका भारत के सुप्रसिद्ध इक्ष्वाकु कुल वाले रघुवंशियों से गौरवपूर्ण और महिमामय सम्बन्ध भी सही स्थापित कर दिया। वास्तव में चौहानों को सूर्यवंशी बनाकर संस्कृत कवियों की एक पन्थ दो काज सिद्ध कर लेने की कल्पना परम सराहनीय है। परन्तु इसके बाव-


जूद लोक में चौहानों की ख्याति अग्निवंशी होने की ही चली जा रही है और स्वयम् वह जाति भी यही बात सर्व से स्वीकार करती है। देश्य भाषा की कृति 'पृथ्वीराजरासो' में चौहानों का अग्नि कुलीन उल्लेख अधिक ऐतिहासिक है |

'भविष्यपुराण'[४०] भी वशिष्ठ के आबू-शिखर के यज्ञ-कंड से परमार, प्रतिहार, चालुक्य और चाहुवान क्षत्रियों की उत्पत्ति बताता है:

एतस्मिन्नेव काले तु कान्यकुब्जो द्विजोत्तमः ।
शिखरं प्राप्य ब्रह्म होममथाकरोत् ॥ ४५
वेदमन्त्र प्रभावाच्च जाताश्चत्वारक्षत्रिया: ।
प्रमर: सामवेदी च चपहा निर्यजुर्वेदः ॥४६
त्रिवेदी च तथा शुक्लोऽथर्वा स परिहारकः ।
ऐरावत कुले जातान् गजानारुह्य ते पृथक ॥४७

पृथ्वीराज की माता

रासो में लिखा है कि दिल्लीराज अनंगपाल तोमर ने अपनी कन्या कमला का विवाह अजमेर नरेश सोमेश्वर के साथ किया था :

अनग पाल पुत्री उभय ।इक दोनी विजपाल ॥
इक दीनी सोमेस कौं। बीज बवन कलिकाल ॥ ६८१
एक नाम सुर सुंदरी अनि वर कमला नाम ॥
दरसन सुर नर दुल्लही । मन सु कलिका काम ॥६८२, सं १,

[४१]

और उसी ने दानव कुल वाले थ्वीराज को अपने गर्भ में धारण किया :

सोमेसर तोचर घरनि अलगपाल पुत्रीय ॥
तिन सु पिथ्य गर्भ धारय । दानव कुल छत्रीय ॥ ६८५,

समयानुसार पुत्र का जन्म होने पर अनन्त दान दिये गये ।[४२] पृथ्वी राज नामक अपने इस दौहित्र को अनंगपाल ने योगिनिपुर ( दिल्ली-राज्य ) का दान कर दिया और स्वयं तपस्या करने चले गये :

जुग्गिनिपुर चहुश्रान दिय । पुत्री पुत्र नरेस ॥
पारतिनिय किय तीरथ परवेस ॥१६, स० १८.

अमृतलाल शील ने दिल्ली के अशोक स्तम्भ ( जो फ़ीरोज़शाह की लाट कहलाती है ) पर सोमेश्वर के बड़े भाई विग्रहराज चतुर्थ उपनाम वीसल- देव के लेख के आधार पर लिखा है-'इससे यह प्रमाणित होता है कि सन् ११६३ ई० से कुछ पहले बीसलदेव ने दिल्ली की जय किया था। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि सोमेश्वर के राज्यकाल में दिल्ली में अजमेर का कोई करदाता राजा राज्य करता था अथवा अजमेर राज्य का कोई वेतनभोगी सामन्त वहाँ का दुर्ग-रक्षक था । पृथ्वीराज अजमेर के युचराज थे। उनका अपने पिता के अधीन किसी करदाता राजा अथवा उनके नौकर दुर्ग-रक्षक के घर गोद जाना केवल असम्भव ही नहीं, अश्रद्धेय भी प्रतीत होता है'[४३]

म०म० ओझा जी[४४] बिजोलियाँ के शिलालेख[४५] के ग्राधार पर विग्रहराज का दिल्ली पर अधिकार बताते हुए, चौहान और गोरी के अंतिम युद्ध में 'तबकाते-नासिरी'[४६] के अनुसार दिल्ली के राजा गोविंदराज की मृत्यु का उल्लेख करके निश्चित करते हैं कि पृथ्वीराज तीसरे के समय दिल्ली,


राजरासो' के नाम से म० म० मथुराप्रसाद दीक्षित ने हिंदी टीका सहित प्रकाशित किया है। अपनी इसी पुस्तक का उद्धरण देते हुए उन्होंने 'सरस्वती' नवम्बर सन् १९३४, १०४५८ पर लिखा है कि पृथ्वीराज की माता का नाम (कमला) रोटो वाले रासो में नहीं है । अजमेर के डक सामंत के अधिकार में थी। तदुपरान्त 'पृथ्वीराजविजय'[४७] 'हम्मीरमहाकाव्य'[४८] और 'सुर्जनचरित्र'[४९] के आधार पर वे पृथ्वीराज की माता का नाम कपूरदेवी बतलाते हैं जो त्रिपुरी ( चेदि अर्थात् जबलपुर के आस-पास के प्रदेश की राजधानी के हैहय ( कलचुरी ) वंशी राजा तेज (राज) की पुत्री थी, जिसे सुर्जनचरित्रकार चन्द्रशेखर दक्षिण के कंतल देश के राजा की पुत्री कहते हैं ।

जी के मत का खंडन करते हुए म० म० दीक्षित जी ने लिखा-- 'सोमेश्वर के विवाह सम्बन्ध में इतना कहना पर्याप्त हैं कि राजाओं के अनेक विवाह होते थे। दिल्ली को अजमेरनरेश के अधीन मान लेने पर भी दिल्ली नरेश अजमेरनरेश के यहाँ विवाह नहीं करेगा, यह नहीं सिद्ध होता है। और जिस पृथ्वीराज्यकाव्य के आधार पर वे वैसा यारोप करते हैं वही सन्दिग्धास्पद है[५०]


( २०६ )

डॉ० दशरथ शर्मा[५१] का (अधूरे प्र प्र)ललितविग्रहराज' नाटक के आधार पर अनुमान है कि दिल्ली के अन्तिन तोमर शासक ने अपना राज्य वीसलदेव चतुर्थ की कन्या के दहेज में दे दिया था. यही कथा रासो के परवर्ती संशोधन कर्ताओं द्वारा उनके छोटे भाई सोमेश्वर के साथ जोड़ दी गई है। उन्होंने बीकानेर-फोर्ट लाइब्ररी की रायसिंह जी के समय की लगभग सं० १६५७ वि० लिखित ४००४ छन्द परिमाण बाली रासो की हस्त- लिखित प्रति की प्रामाणिकता की विवेचना करते हुए यह भी लिखा है- 'सोमेश्वर की स्त्री को अनंगपाल की पुत्री अवश्य बतलाया गया है। परन्तु संभव है कि वे पृथ्वीराज की विमाता हो । दिल्ली के वीसलदेव के अधीन होने पर भी तोमर राजाओं का वहाँ रहना संभव है[५२]

कविराव मोहनसिंह दिल्ली में कुतुबद्दीन ऐबक की मसजिद के अहाते में पड़े हुए लोहस्तम्भ के लेख "संवत् दिल्ली ११०६ अनंगपाल वही का अर्थ 'दिल्ली संवत् अथवा पंड्या जी के अनंद विक्रम संवत् ११०६ में अनंग- पाल द्वारा दिल्ली बसाना' करके उक्त संवत् में ६१ वर्ष जोड़कर वि० सं० १२०० में अनंगपाल तोमर का दिल्लीश्वर होना मानते हैं और जिनपाल


रचित 'खरतरगच्छुपावली' के आधार पर सं० १२२३ वि० के दिल्ली के

राजा मदनपाल और अनंगपाल नाम एक ही व्यक्ति के स्वीकार करते हुए लिखते हैं---'जब कि उपरोक्त प्रमाणों से और लोक प्रसिद्धि से अनंगपाल तँबर का उस समय होना सिद्ध होता है तो उसकी पुत्री कमला से पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर का विवाह होने में कोई शंका नहीं होनी चाहिये और बहु विवाह की प्रथा होने से कपूरदेवी भी सोमेश्वर की रानी रही हो और विमाता होने से उसको भी पृथ्वीराज की माता लिखा गया हो यह संभव है। पृथ्वीराज विषयक अन्य पुस्तकादि ( पृथ्वीराजविजय और हम्मीरमहाकाव्य ) में लिखे गये उसके जीवन वृत्तान्त पर खूब सोचने से पृथ्वीराज का जन्म रासौ में लिखे अनुसार सं० १२८५-६ में होना ही मानना पड़ता है। परन्तु विद्वानों (जो ) ने सोमेश्वर का विवाह कर्पूरदेवी के साथ वि० सं० १२१८ के बाद होना माना है अत: पृथ्वीराज का कर्पूर- देवी के गर्भ से उत्पन्न होना संभव नहीं है[५३] "

समरसिंह या सामंतसिंह

रासो की ऐतिहासिकता की परीक्षा के लिये हर्षनाथ के मन्दिर की प्रशस्ति, बिजोलियाँ का शिलालेख, पृथ्वीराजविजय, प्रवन्धकोष, हम्मीरमहा- काव्य और सुर्जनचरित्र आदि प्रमाण सादर में लाये जाने वालों में से किसी में भी पृथ्वीराज की बहिन का उल्लेख नहीं मिलता है। रासो के अनुसार दिल्ली के अनंगपाल तोमर की कन्या कमला और अजमेर-नरेश सोमेश्वर के विवाह से उत्पन्न पृथा, पृथ्वीराज की सगी बहिन थी, जिसका विवाह चित्तौड़ के रावल समरसिंह के साथ हुआ था[५४] :

चित्रकोट रावर नरिंद। सा सिंघ तुल्य बल ॥
सोसेसर संभरिय । राव मानिक सुभरग कुल ॥
मुघ मंत्री कैमास । पनि अवलंबन मंडिय।
मास जेठ तेरसि सु मधि । ऐन उत्तर दिसि हिंडिय ॥
सुक्रवार सुकल तेरसि बरह । घर ति तिन बर घरह ॥
सुकलंक लगन मेवार घर । समर सिंघ रावर वरह ॥ २१-१

सत्ताइसवें समय में हम विषम मेवाड़पति को पृथ्वीराज के पक्ष से सुलतान गोरी की सेना पर भयङ्कर आक्रमण करते हुए पाते हैं :


पवन रूप परचंड। घालि असु असि वर मारै ।
मार मार सुर बजि । पत्त तरु अरि तिर पारें ॥
फटकि सह फीफरा । हड्डु कंकर उपारै ॥
कटि भरुँड परि मुंड ।भिंड कंटकउप्पा॥
वजय विषम मेवार पति । रज उडाइ सुरतान दल॥
समरथ्य समर सम्मर मिलिय। अनी पियौ सवल ॥६९

उन्तीसवें समय में पृथ्वीराज द्वारा सुलतान से दंडस्वरूप पाया हुआ सुवर्ण रावल जी के पास भेजने का समाचार मिलता है।[५५] रणथम्भौर के राजा भान की अभयदान - याचना सुनकर पृथ्वीराज, समरसिंह को भी सहायतार्थ बुलाते हैं[५६] और दोनों की सेनायें चार्तं का उद्धार करती हैं[५७]| द्वारिका यात्रा में चंद चित्तौड़ जाकर पृथा और समरसिंह द्वारा पुरस्कृत होता है।[५८] द्वितीय हाँसोपुर युद्ध में आहुरुपति रावल चित्रांग को पृथ्वीराज के मंत्री कैमास बुला भेजते हैं जहाँ युद्ध में विजयी होकर वे दिल्ली जाते हैं तथा कुछ दिन वहाँ रहकर भेंटस्वरूप मुसजित बीस घोड़े और पाँच हाथी पाकर घर लौट जाते हैं।[५९] अपने राजसूय यज्ञ के निमंत्रण का रावल जी द्वारा विरोध सुनकर[६०] जयचन्द्र के चित्तौड़ पर आक्रमण में विजय श्री समरसिंह को ही प्राप्त होती है[६१]। एक रात्रि को स्वप्न में दिल्ली की मन-मलीन राज्यलक्ष्मी को देखकर[६२] रावत जी अपने पुत्र रतन को राज्यमार दे देते हैं[६३] जिससे उनका (ज्येष्ठ) पुत्र कुंभकर्ण (प्रसन्न होकर ) बीदर के बादशाह के पास चला जाता है[६४]। दिल्ली पहुँचकर वहाँ की अव्यवस्था और पृथ्वीराज को संयोगिता के रस-रंग में निमग्न देखकर उन्हें


बड़ा क्लेश होता है[६५], इसी बीच में गोरी के का समाचार मिलता है और पृथ्वीराज उसले मोर्चा लेने के लिये सद्ध होते हैं[६६], चौहान द्वारा घर चले जाने के प्रस्ताव और प्रार्थना पर रुष्ट होते हुए वे सुलतान से सिडने का हठ करके ठहर जाते हैं[६७] तथा युद्ध में अद्भुत पराक्रम प्रदर्शित कर, वीरगति प्राप्त करते हैं :

सेदिष्वि वान पुरसान गुर बर जंमथ्थ उपदिय ॥
समर सिंव दुष चहर । हिंदु मेछन मिलि जुट्टिय ॥
शिद्धिनि पल संग्रहन । जुम्भ लंबे रन आइ ॥
श्रोन परत निफरत । पत्र जुग्गिनि लै धाइय ॥
पल चरित्र मेछ हिंदू सहर । अच्छा मल अति जाग किय ॥
महदेव सीस बंधे गरां । काल झरपि लीनौ नुजिय ॥ १३८७

युद्ध का विषन परिणाम सुनकर संयोगिता के प्राण छूट जाते हैं और रावल जी की सहगामिनी पृथा सती हो जाती हैं

निरवि निधन संजोगि । प्रिथी सजी सु सामि सथ॥
हकि हंस तत्तारि । वीर अवरिय प्रेम पथ॥
साजि सकल शृंगार । हार मंडिय सुगतामनि ॥
रजि भूषन हयरोहि । जलिज अति उच्छारति ॥
है या सह जंपत जगत । हरि हर सुर उच्चार वर ।।
सह गमन सिंघ राबर चलें । तजि महि फूल श्रीफल सुकर ॥ १६२०

समरसिंह सम्बन्धी रासी की इस कथा का उल्लेख संक्षेप में 'राज- प्रशस्ति काव्य[६८] में भी मिलता है।

रासो की विवेचना करते हुए समरसिंह के प्रसंग में अमृतलाल शील ने लिखा है - "समरसिंह और रत्नसिंह के जो कई दान पत्र मिले हैं उनसे प्रमाणित होता है कि समरसिंह पृथ्वीराज से एक शताब्दी पीछे चित्तौर के राजसिंहासन पर बैठा था और उसका पुत्र रत्नसिंह ईसा की चौदहवीं सदी में अलाउद्दीन खिलजी के समय विद्यमान था। इससे प्रमाणित होता है कि समरसिंह पृथ्वीराज का बहनोई अथवा


रत्नसिंह पृथ्वीराज का भानजा नहीं हो सकता। चित्तौर के राना वंश में एक से अधिक समरसिंह और रत्नसिंह नाम के राना हो चुके हैं।"[६९]

महामहोपाध्याय ओझा जी ने भावनगर इंसक्रिप्शन्स[७०], नादेसमा के शिलालेख[७१], पाक्षिकवृत्ति[७२], चित्तौड़ के पास गंभीरी नदी के पुल की नवीं मेहराब के शिलालेख[७३], चीरवे के विष्णु-मन्दिर के समरसिंह के प्रथम[७४] और अन्तिम शिलालेख[७५] के प्रमाण देते हुए लिखा है—"रावल समरसिंह वि॰ सं॰ १३५८ तक अर्थात् पृथ्वीराज की मृत्यु से १०९ वर्ष पीछे तक तो अवश्य जीवित था। ऐसी अवस्था में पृथाबाई के विवाह की कथा भी कपोलकल्पित है। पृथ्वीराज, समरसिंह और पृथाबाई के वि॰ सं॰ ११४३ और ११४५ (इस संवत के दो); वि॰ सं॰ ११३९ और ११४५; तथा वि॰ सं॰ ११४५ और ११५७ के जो पत्र, पट्टे, परवाने नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हिंदी पुस्तकों की खोज में फोटो सहित छपे हैं, वे सब जाली हैं, जैसा कि हमनें नागरी प्रचारिणी पत्रिका (नवीन संस्करण) भाग १, पृ॰ ४३२-५२ में बतलाया है।"[७६]

शील जी रासो की कथा पर सन्देह प्रकट करके पूर्व ही यह भी लिख चुके थे कि समरसिंह और रत्नसिंह नाम के कई राना चित्तौड़ में हुए हैं। चित्तौड़ के राजाओं के विषय में पर्याप्त छान-बीन करके ओझा जी ने पहले यह अनुमान किया—'समतसी और समरसी नाम परस्पर मिलते-जुलते हैं…… अस्तु माना जा सकता है कि अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज दूसरे (पृथ्वीभट) की बहिन पृथाबाई का विवाह मेवाड़ के रावल समतसी (सामंतसिंह)


से हुआ होगा । दूँगरपुर की ख्यात में पृथाबाई का संबंध समती से बत- लाया भी गया है[७७]। और उन्होंने फिर अनुमान किया- 'समतसी और समरसी के नामों में थोड़ा सा ही अंतर है इसलिये संभव है कि पृथ्वीराज रासो के कर्ता ने समतसी को समरसी मान लिया हो। वागड़ का राज्य छुट जाने के पश्चात् सामंतसिंह कहाँ गया इसका पता नहीं चलता । यदि वह पृथ्वीराज का बहनोई माना जाय तो बागड़ का राज्य छूट जाने पर संभव है कि वह अपने साले पृथ्वीराज के पास चला गया हो और शहाबुद्दीन गोरी के साथ की लड़ाई में मारा गया हो[७८]। राजस्थान के अन्य इतिहासवेत्ता जगदीशसिंह गहलोत ने भी उपयुक्त अनुमान की पुष्टि की है[७९]

जैसा मैंने अपनी पूर्व पुस्तक[८०] में दिखलाया था तथा प्रस्तुत पुस्तक[८१] में विस्तार से विवेचना करते हुए सूचना दी है कि रासो के पृथ्वीराज (तृतीय) की बहिन पृथा से विवाह करने वाला, उनका समकालीन चित्तौड़ का सामंत- सिंह (समतसी ) था जिसके नाम का रूप लिपिकारों के अज्ञानवश समरसिंह या समरसी हो गया है। 'बड़ी लड़ाई से प्रस्ताव ६६' का छन्द ६, जिस में कुम्भ- कर्ण के बीदर जाने का उल्लेख है, परवर्ती प्रक्षेप हो सकता है । इस छन्द को हटा देने से कथा के प्रवाह में कोई बाधा नहीं पढ़ती । और रासो । के उन स्थलों पर जहाँ 'समरसिंघ' या 'समर' प्रयुक्त हुआ है, क्रमश: 'समत- सिंघ' और 'समत' कर देने पर छन्द की गति भी भङ्ग नहीं होती । रातो में कहीं-कहीं समर सिंह के स्थान पर सामंतसिंह भी प्रयुक्त हुआ है,

यथा- सामंत सिंह रावर चवै । सुगति सुगति लम्भ तुरत ॥ ६६-६५३

पृथ्वीराज के विवाह

रासो के 'विवाह सम्यो ६५' में पृथ्वीराज के चौदह विवाहों का निम्न- उल्लेख मिलता है :

प्रथम परनि परिहारि । राइ नाहर को जाइये॥
जा पाछै इंछनीय । सल की सुता बताइय॥


जा पाछै दाहिमी। राय डाहर की कन्या ॥
राय कुरिति रीत । सुता हमीर सु मन्या ॥
राम साह की नंदिनी । बगुजरि वानी बरनि॥
ता पाछे पदमावती । जादवानी जोरी एरनी॥१
रायधन की कुअरि । दुति जमुगीरी सुकहियै ॥
कछवाही पज्जूनि । भ्रात वलिभद्र सुलहिये ॥
जा पाछै पुंडीर । चंद नंदनी सु गायव॥
ससि वरना सुंदरी । अवर हंसायति पायव ॥
देवासी सोलंकनी । सारंग की पुत्री प्रगट॥
पंगानी संजोगता । इते राज महिला सुपट ॥२

इससे आगे आगामी छन्द ३-१२ तक इन विवाहों में पृथ्वीराज की यवस्था का वर्णन इस प्रकार किया गया है। ग्यारह वर्ष की उन्होंने नाहरराय परिहार को युद्ध में मारकर उसकी कन्या से 'पुहकार' ( पुष्कर) में विवाह किया, बारह वर्ष की आयु में आबू-दुर्ग तोड़ने वाले चालुक्य को परास्त करके सलख की पुत्री और चाबू की राजकुमारी इंच्छिनी से परिणय किया, उनके तेरहवें वर्ष में चामंडराय ने बड़े उत्साह से अपनी बहिन दाहिमी उन्हें व्याह दी, चौदहवें वर्ष हाहुलीराय हमीर ने अपनी कन्या का तिलक भेज कर उनके साथ विवाह कर दिया, पन्द्रह वर्ष की स्था में वीर चौहान ने अत्यंत गहीर ( गम्भीर ) बड़गूजरी को व्याहा और इसी वर्ष अत्यन्त हित मानते हुए उन्होंने रामसाहि की पुत्री से भी विवाह कर लिया, सोलह वर्ष की अवस्था में उन्होंने पूर्व दिशा के समुद्र- शिवरगढ़ के यादव राजा की कन्या पद्मावती को प्राप्त किया, सत्रहवें वर्ष के गिरदेव[८२] पर गर्जन करके रामघन की पुत्री ले आये, अठारहवें वर्ष उन्होंने वीर बलभद्र कछवाह की वहिन पज्जूनी का पाणिग्रहण किया, उन्नीस वर्ष की अवस्था में वे बंद पुंडीर की चन्द्रवदनी कुमारी पुंडीरनी से उपयमित हुए, बीस वर्ष की आयु में (देवगिरि की ) शशिता को ले आये, इक्कीसवें वर्ष संभर-नरेश ने ( रणथम्भौर की ) हंसावती से परिणय किया, वाइसवें वर्ष


उन्होंने शूरमा सारंग की पुत्री से ब्याह किया । तथा छत्तीस वर्ष और छै मास की अवस्था में अपने चौंसठ सामंतों की ग्राहुति देकर पचास लाख शत्रु दल का सफाया करके पंग की पुत्री राठौरनी को ले थाये :

छत्तीस बरस घट मास लोग । पंगानि सुता ल्याये सुसोय ॥
रहरि ल्याय चौसठ मराय । पंचास लाख अरि दल खपाय ॥१२

परन्तु उपर्युक्त विवरण में उज्जैन के राजा भीमप्रमार को जीतकर उसकी कन्या इन्द्रावती के विवाह का उल्लेख नहीं किया गया है जिसका विस्तृत वर्णन समय ३२ और ३३ में दिया है । रासो के वर्णन क्रम में इन्द्रावती का विवाह हंसावती से पूर्व होता है अस्तु समय ६५ की सारंग की पुत्री देवासी ( देवास की या देवी सदृश ) सोलंकिनी कोई दूसरी ही राजकुमारी है जिसे इन्द्रावती नहीं नाना जा सकता।

इस प्रकार देखते हैं कि कुल मिलाकर पृथ्वीराज के पन्द्रह विवाहों का समाचार राम्रो देता है । परन्तु ये सारे विवाह पृथक रूप से वर्णित नहीं हैं और इनमें से कुछ की सूचना मात्र इसी प्रस्ताव में मिलती है, जिससे इन सबकी वास्तविकता में सन्देह भी होने लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जो विवाह अपहरण अथवा कन्या पक्ष के किसी विपक्षी से युद्ध करके उसे पराजित करने के फलस्वरूप हुए हैं कवि ने उन्हीं का विस्तृत वर्णन किया है और उनमें से भी जिनमें अपहरण द्वारा कुमारियों की प्राप्ति हुई है विशेष चात्र से लिखे गये हैं । ऐसे ही स्थलों पर रति-बश उत्साह की प्रेरणा पाकर शृङ्गार और वीर का सामञ्जस्य-विधान देखा जाता है । इन विवाहों के विषय में इतना ध्यान और रखने योग्य है कि कन्या पक्ष की अनुमति से होने वाले पृथ्वीराज के विवाह उनके सामंती घराने से होते हैं; जहाँ कन्या- पक्ष द्वारा अपने किसी शत्रु 'वास हेतु निमंत्रण पाकर युद्ध में उक्त विपक्षी को परास्त करके कुमारी की प्राप्ति होती है वहाँ उक्त पक्ष स्वाभाविक रूप से चिर मैत्री के बन्धन में बँध जाता है और जहाँ किसी राज-कन्या के रूप-गुण से प्रेरित हो उसकी प्राप्ति अपहरण और युद्ध करके होती है वहाँ भी अन्त में उस राज-कल से भविष्य में सहायता के प्रमाण मिलते हैं। इन तीनों प्रकार के विवाहों द्वारा पृथ्वीराज से सम्बन्धित होकर संकटकाल में उन्हें सहायता न देने के दो श्रपवाद हैं-- एक तो काँगड़ा के हाहुलीराय हमीर का जो अन्तिम युद्ध में गोरी के पक्ष में चला गया था और दूसरा कान्यकुब्जेश्वर जयचन्द्र का जो उक्त युद्ध में तटस्थ रहे ।

राज-पुरुषों के बहु विवाहों के पीछे जहाँ कुमारी के प्रति आकर्षण


और शौर्य-प्रदर्शन का एक निमित्त आदि रहे होंगे वहाँ येनकेनप्रकारेण विवाह- सम्बन्ध से अन्य शासकों की मैत्री का चिर बन्धन और उस पर आधारित सहायता प्राप्ति का अभीष्ट भी प्रेरक रहना सम्भव है । बहु विवाहों वाले उस युग में पूर्व शुरमा पृथ्वीराज के अनेक विवाह न हुए हों यह किञ्चित् याश्चर्य- जनक है। अभी तक उनके विवाह सम्बन्धी कोई शिलालेख नहीं मिले तथा अनेक विरोधी प्रमाण मिले अस्तु इतिहासकारों को रासो वशित विवाहों में से एक भी मान्य नहीं है। समय ६५ में केवल नाम देकर चलते कर दिये गये विवाहों को विवशता पूर्वक छोड़कर हम यहाँ केवल उनमें से कुछ पर क्रमशः विचार करेंगे जिनके सम्बन्ध में पृथक रूप से विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए कवि ने अन्य सूचनायें भी दे रखी हैं ।

रासो में सर्व प्रथम ग्यारह वर्ष की अवस्था में पृथ्वीराज का मंडोवर के परिहार (पड़िहार ) नाहरराव की कन्या से विवाह दिया है ।[८३] स० म० माजी ने मंडोवर के पड़िहारों के सन् ८३७ ई० (वि० सं०८६४ ) के शिलालेख[८४] के आधार पर बताया है कि नाहरराय पृथ्वीराज से कई सौ वर्ष पूर्व हुए थे। मंडोवर के परिहारों का राज्य सन् ११४३ ई० से पूर्व ही नाड़ेल के चौहानों के हाथ जा चुका था और नाडोल के चौहान सहजपाल के शिलालेख[८५] से प्रमाणित है कि पृथ्वीराज के समय वहीं वहाँ का अधिपति था ।

पृथ्वीराज का दूसरा विवाह बारह वर्ष की अवस्था में बू के राजा सलल परमार की पुत्री और जैतराव की बहिन इंच्छिनी से हुआ था ।[८६] रासो के अनुसार यह रानी इंच्छिनी ही पृथ्वीराज की पटरानी थी। अमृतलाल शील ने राष्ट्रकूट धवल के सन् ९९६ ई० के शिलालेख के आधार पर बताया है कि पृथ्वीराज से दो सौ वर्ष पूर्व श्राबू या चन्द्रावती का शासक धरणीवराह था जिसने गुजरात के राजा मूलराज सोलंकी ( चालुक्य ) को आधीनता स्वीकार कर ली थी तथा श्राबू के अचलेश्वर के मन्दिर और वस्तुपाल के जैन मन्दिर की सन् १२३० ई०


( वि० सं० १२८७ ) की प्रशस्ति[८७] में गुर्जरेश्वर कुमारपाल द्वारा सपादल या शाकम्भरी नरेश श्रराज को परास्त करके उनके पक्ष में चले जाने वाले अपने आबू के सामंत विक्रम परमार को गद्दी से उतार कर उसके भतीजे भक्त को वहाँ का अधिपति बनाने का उल्लेख करके, बाबू के जारी गाँव के कुमारपाल की शास्ति सूचक सन् १९४५ ई० ( वि० सं० १२०२ ) के लेख, सिरोही राज्य के कायद्रा ग्राम के उपकण्ठ में काशी विश्वेश्वर के मन्दिर के सन् १९६३ ई० ( वि० सं० १२२० ) के यशोधवल परमार के पुत्र धरावर्ष के शिलालेख[८८] और 'ताज-उल-म यासीर उल्लिखित सन् ११६७ ३० ( वि० सं० १२५४ ) में ख़ुसरो अर्थात् कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा अन्हलवाड़ा पर ग्रक्रमण काल में गुजरात के रायकर्ण और वारावर्ष ( परमार ) सामंतों के युद्ध करने का विवरण देकर सिद्ध किया है कि पृथ्वीराज के समय में ग्राबू पर गुर्जरेश्वर द्वारा नियुक्त परमार जातीय सामंतों का आधिपत्य था ।[८९] ओझा जी धारावर्ष के चौदह शिलालेखों और एक ताम्र- पत्र का उल्लेख करते हुए इनमें से राजपूताना म्यूजियम में सुरक्षित वि० सं० १२२० ज्येष्ठ सुदि १५[९०], वि० सं० १२६५, १२७१ और १२७४५[९१] के शिलालेखों के प्रमाण पर पृथ्वीराज के सिंहासनारूढ़ होने के पूर्व से लगाकर उनकी मृत्यु के बहुत पीछे तकाबू पर धाराव (परमार) का ही शासन निश्चित करते हैं, जैत या सलख का नहीं[९२] । जो कुछ भी हो प्रधान मंत्री कैनाल का वध कराने वाली, संयोगिता के रूप के कारण सपत्नी द्वेष से राजमहल त्यागने का उपक्रम करने वाली रासो की सुन्दरी, आबू की परमार राजकुमारी और पृथ्वीराज की पटरानी इच्छिनी चरित्र-चित्रण की दृष्टि से चंद काव्य की एक अद्भुत प्रतिमा है, जिसको डॉ दशरथ शर्मा 'कान्हड़ दे प्रबन्ध' के
वारावर्ष परमार के छोटे भाई पाहून हे की पुत्री पद्मावती भी अनुमान करते हैं।[९३]

रातो के 'विवाह सम्यो ६५' में वर्णत है कि तेरह वर्ष की स्था में पृथ्वीराज ने चामंडराय दाहिम की बहिन से विवाह दिया था। इस विवाह की विस्तृत या सूचना पिछले किती प्रस्ताव में नहीं है। 'मासवच नाम प्रस्ताव ५७' में हम पड़ते हैं कि मानजे रयनकुमार और माना चामंडराय में परस्पर बड़ी प्रीति थी :

दिल्लीवें चहुआन । तर्षे श्रति तेज पत्र बर॥
चंप देस सब सोम । गंजि ग्ररिमिलय चनुदर ॥
रयन कुमर ऋति तेज । रोहि हय॥
साथ राव चाड । करे कलि किसि असंमं॥
मेवास वाल गंजै द्रुगम । नेह नेह बड्दै अनत॥
मातुलह नेह भानेज पर । भागनेय मातुल सुरत ॥१,

और उनकी श्रीति देखकर बंद पुंडीर ने पृथ्वीराज के कान भरे थे ।[९४]

'बड़ी लड़ाई रो प्रस्ताव ६६' में पढ़ते हैं कि मुलतान गोरी का प्रबल आक्रमण सुनकर और अपने पक्ष को निर्बल देखकर पृथ्वीराज ने रयनकुमार का राज्याभिषेक कर दिया था :

करिय सुचित भर सव्त्र । राज दिनेव द्रव्य भर॥
मंत्रि मदन श्रृंगार। गज्जबर यह नद्द कर ॥
रयन कुमर श्रभासि । दीन माला मुत्ताहत ॥
ती बंधी निज पानि । बंदि कीनों कोलाहल ॥
चारोहि गज्ज कुम्मार निज । पच्छ बंध सा सिंधु किय॥
जोगिनिय बंदि चहुचान पहु । ऋत्य काज मन्नेव इव ॥ ६०८

'राजा रयन सी नाम प्रस्ताव ६८' में पढ़ते हैं कि पृथ्वीराज को बन्दी करके गोरी द्वारा उन्हें राजनी ले जाने का समाचार पाकर[९५], शेष शूर सामंतों नेरयनसी (रैनसी) को राजगद्दी पर बिठाया[९६]। चंद की युक्ति ते गोरी को


मारकर पृथ्वीराज के मरने का समाचार पाकर, सामंत- मण्डली ने शाही सेना से छेड़छाड़ करने की मंत्रणा की और इस निश्चय के फलस्वरूप राजा रयनसो ने चढ़ाई कर दी तथा शत्रु सेना को भगाकर लाहौर पर अधिकार कर लिया; इसकी सूचना ग़ज़नी पहुँचने पर वहाँ की सेना ने आगे बढ़ते हुए दिल्ली-दुर्गं का घेरा डाल दिया और अपने पूर्व पौरुष का परिचय देते हुए रयनसी ने वीर गति प्राप्ति की ।[९७]

ओझा जी का कथन हैं कि पृथ्वीराज के पुत्र का नाम 'हम्मीर महा- काव्य '[९८] में गोविन्दराज दिया है, जो उनकी मृत्यु के समय बालक था, तथा फारसी तवारीख़ों में उसका नाम गोला या गोदा पढ़ा जाता है, जो फारसी वर्णमाला की अपूर्णता के कारण गोविंदराज का बिगड़ा हुआ रूप ही है । [९९]परन्तु 'सुर्जन चरित्रमहाकाव्य'[१००] में पृथ्वीराज के पुत्र का नाम (बिना उसकी माता का उल्लेख किये) प्रह्लाद दिया है जिसका पुत्र गोविंदराज बतलाया गया है ।

ओझा ने लिखा है कि सुलतान शहाबुद्दीन ने पृथ्वीराज के पु गोविंदराज को अपनी आधीनता में अजमेर की गद्दी पर बिठाया जिससे उनके भाई हरिराज ने उसे अजमेर से निकाल दिया और वह रणथम्भौर में रहने लगा; हरिराज का नाम पृथ्वीराजरासो में नहीं दिया हैं परन्तु पृथ्वीराजविजय, प्रबन्धकोश के अन्त की वंशावली तथा हम्मीरमहाकाव्य में दिया है[१०१] और फारसी तवारीख़ों में हीराज या हेमराज मिलता है[१०२], जो उसी के नाम का बिगड़ा हुआ रूप है । परन्तु 'सुर्जनचरित्र महाकाव्य' में हरिराज के स्थान पर मानिक्यराज मिलता है ।

बीकानेर- फोर्ट-लाइनरी की ४००४ छन्द प्रमाण वाली रासो की प्रति में दाहिमी से पृथ्वीराज के विवाह का उल्लेख नहीं है और साथ ही शशिवृता एवं हंसती आदि अनेक कन्याओं से भी उनके विवाह नहीं मिलते ।[१०३] इन


सारे विवाहों की स्थिति रासो की अन्य वाचनानों में भी देखी जानी अति आवश्यक है।

शील जी ने समुद्रशिखरगढ़ की पद्मावती[१०४], देवगिरि की शशिवृता[१०५], मालवा की इन्द्रावती[१०६] और रणथम्भौर की हंसावती[१०७] के पृथ्वीराज से विवाह


विविध प्रमाणों के आधार पर अनैतिहासिक सिद्ध किये हैं[१०८] फिर भी इन पर और अधिक शोध की आवश्यकता है ।

पृथ्वीराज की रानी और कान्यकुब्ज की राजकुमारी संयोगिता का उल्लेख नागार्जुन, भादानक जाति, महोवानरेश परमर्दिदेव चन्देल, गुर्जरेश्वर भीमदेव चालुक्य द्वितीय और बाबू के धारावर्ष के साथ चौहान नरेश के इति हास प्रसिद्ध युद्धों का नाम तक न लेने वाले 'हम्मीरनहाकाव्य' और जयचन्द्र को सूर्यवंशी, मल्लदेव का पुत्र, नहोवा के मदनवर्मा को उसका चालान स्तम्भ यादि निरावार बातों का वर्णन करने वाली नाटिका रम्भामंजरी' में यदि नहीं है तो इसमें निराशा की कोई बात नहीं। डॉ० दशरथ शर्मा का सप्रमाण अनुमान उचित है कि 'पृथ्वीराजविजय' की तिलोत्तमा और 'सुर्जनचरित्र' की कान्तिमती ही रासो की संयोगिता है[१०९] जिसके कन्नौज से अपहरण का वृत्तान्त अबुल फजल ने अपनी 'आईने अकबरी' में भी दिया है । संयोगिता विषयक जनश्रुति इतनी प्रबल है कि अभी तक इतिहासकों द्वारा मनोनीत सुलभ साक्ष्यों के अभाव में भी उसे सत्य ही मानना पड़ता है ।

इनके अतिरिक्त 'पृथ्वीराज रासो' में प्रयुक्त किये गये संवत्, वंशावली, बीसलदेव विषयक वृत्तान्त, मेवाती मुगल युद्ध, भीमदेव चालुक्य के हाथ सोमेश्वर- वध, जिसके फलस्वरूप पृथ्वीराज द्वारा भीमदेव वध, समरसिंह के पुत्र कुम्भा का बीदर जाना, पृथ्वीराज की मृत्यु, अरबी-फारसी शब्दों का व्यवहार श्रादि कई अनैतिहासिक विवरणों की ओर संकेत किया जाता है । इन पर कोई निर्णय देने लगना वर्तमान स्थिति में उचित इसलिये नहीं दिखाई देता कि इस समय रासो की बार वाचनाओं की सूचना के साथ ही यह भी ज्ञात हुआ हैं कि उनमें इतिहास विरोधी अनेक निर्दिष्ट वर्णन नहीं पाये जाते हैं[११०] ऋतु सत्यासत्य विवेचन और रासो कार्य बढ़ाने के लिये सबसे बड़ी श्राव-


मदनपुर का शिलालेख पृथ्वीराज को चंदेरी और महोबा का स्वामी सिद्ध करता है । श्रस्तु रासो के समय ३६ के पात्र कल्पित हैं। वही १० ६७७-७८५ श्यकता इस बात की है कि उक्त वाचनायें आमूल प्रकाशित करवा दी जायें जिससे उन पर सभ्यक रूप से विचार करके एक निश्चित मत दिया जा सके । बृहत रासो पर तो अनेक विद्वानों ने विचार किया है परन्तु उसके अन्य छोटे रूपों को देखने और मनन करने का अवसर उनके संग्रह कर्तायों के प्रति- रिक्त विरलों के भाग्य में ही पड़ा है।

अनैतिहासिक कूड़े करकट के ढेर से श्रावृत्त 'पृथ्वीराज रासो' साहित्य


तरफ से छुपे हुए रासो में लिखा हैं, जो तत्कालीन शिलालेख के संवत् विरुद्ध है इत्यादि । लेकिन हमारे पास के रोटो वाले रासो में पाटन पर चढ़ाई आदि की घटना का वर्णन नहीं है, अतः कह सकते हैं कि छपे हुए उक्त रासो में प्रक्षेप है । एवं पृथ्वीराज की माता का नाम, पृथ्वीराज का जन्म संवत् यदि जिन जिन घटनाओं का उन्होंने (श्रोमा जी ने) उल्लेख किया हैं वे सब घटनायें हमारे पास के रोटो वाले रासो ('छन्द संख्या ग्रार्या छन्द से करीबन ७०००', 'असली पृथ्वीराज रासो' भूमिका, पृ० ३ ) में नहीं हैं और न हमारे पास के रासो में फारसी शब्द हैं। योभा जी कहते हैं कि रासो में दशमांश फारसी शब्द हैं, इसका भी पूर्णतया खण्डन इस पुस्तक के प्रकाशित होते ही स्वयं हो जायगा ।" महामहोपाध्याय पं मथुरा प्रसाद दीक्षित, सरस्वती, नवंबर, सन् १९३४ ई०, १०४५८ ;

(ब) "हम ऊपर बतला चुके हैं कि इस ( पृथ्वीराज रासो की बीकानेर- फोर्ट लाइब्रेरी को रामसिंह जी के समय की ४००४ छन्द प्रमाण वाली लगभग सं० १६५७ वि० की हस्तलिखित प्रति ) में दी हुई वंशावली विशेष शुद्ध नहीं है । रासो को प्राय: निम्नलिखित कथा- नकों के कारण कृत्रिम एवं जाती बतलाया जाता है:-

१- अग्निवंशी वृद्धियों की उत्पत्ति कथा |

२-- पृथाबाई और राणा संग्रामसिंह का विवाह।

३- भीम के हाथ सोमेश्वर की मृत्यु ।

४ -दाहिमा चामंड की बहिन, शशिवता एवं हंसावती आदि अनेक कन्याओं से पृथ्वीराज का विवाह ।

हमारी प्रति में इन सब कथाओं का अभाव है ।" डाँ० दशरथ शर्मा, पृथ्वीराजरासो की एक प्राचीन प्रति और उसकी प्रमाणिकता, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, कार्तिक १९६६ वि० (सन् १९३६३०), पृ० २८२ मनीषियों को उसी प्रकार अपनी ओर आकृष्ट करता है जिस प्रकार सिर पर जर्जरित लोम-पुटी डाले और गले में बोस मनकों को माला से भी रहित मुग्धा ( के सौन्दर्य ) ने गोष्ठ-स्थित ( रसिकों) में उठा बैठी करवा दी थी :

सिरि जर खराडी लोयडी गति मणियडा न वीस।
तो वि गोट्ठडा कराविआ मुदऍ उठ बईस ॥ ४२४-४,

हेमशब्दानुशासनम्,

और जिस प्रकार ( पति के हृदय में ) नव वधू के दर्शनों की लालसा लगाये अनेक मनोरथ हुआ करते हैं :

नव-वहु-दंसण-लालसर वह मणोरह सोइ । ४०१-१,वही,

लगभग उसी प्रकार साहित्यकार भी रासो के रहस्य के प्रति उत्सुक और जिज्ञासु है

  1. चौहानों को अग्निवंशी कहलाने का आधार, राजस्थानी, भाग ३, अङ्क २ अक्टूबर सन् १९३९ ई॰ ;
  2. सम्राट् पृथ्वीराज के दो मंत्री, राजस्थानी भाग ३, अंक २, जनवरी सन् १९४० ३० पृथ्वीराज रासो, राजस्थान भारती, भाग १, अंक १, अप्रैल सन् १६४६ ई०; पृथ्वीराज रासो की भाषा, वही, भाग १, अंक २, जुलाई सन् १९४६ ई०;
  3. पृथ्वीराज रासो और उसकी हस्तलिखित प्रतियाँ, राजस्थानी, भाग ३, अङ्क २, जनवरी सन् १६४० ई०; पृथ्वीराज की सभा में जैनाचार्यों के शास्त्रार्थ, हिन्दुस्तानी, पृ० ७१-६६;
  4. बीणा, अप्रैल १९४४ ३०, राजस्थान भारती, भाग १, अङ्क १, अप्रैल सन् १९४६ ३० ; बही, भाग १, अङ्क ४, जनवरी सन् १९४७ ई०;
  5. पृथ्वीराज रासो सम्बन्धी कुछ जानने योग्य बातें, शोध-पत्रिका, भाग २, अङ्क १, चैत्र सं० २००६ वि० ( सन् १९४६ ई० )
  6. पृथ्वीराज रासों की प्रामाणिकता पर पुनर्विचार, राजस्थान भारती, भाग १, अङ्क २-३, जुलाईक्टूबर सन् १९४६ ई०;
  7. पृथ्वीराज रासो, काशी विद्यापीठ रजत जयन्ती अभिनन्दन ग्रन्थ, वसंत पंचमी सं० २००३ वि० ( सन् १९४६ ई० );
  8. पृथ्वीराज रासो की विविध वाचनायें, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, अक्टूबर सन् १६४६ ई० ;
  9. 'रासो'- प्रबंध-परंपरा की रूप रेखा, हिन्दी-अनुशीलन, वर्ष ४, क पौष-फाल्गुन सं० २००८ वि० (सन् १९५१ ई० )
  10. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, सन् १६५२ ई०; और हिन्दी साहित्य, सन् १६५२ ३०;
  11. संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो, सन् १९५२ ई०;
  12. मूल्यांकन ( संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो ), श्रालोचना, वर्ष २, अंक ४, जुलाई सन् १९५३ ई०;
  13. राजस्थान का पिंगल साहित्य, सन् १९५२ ३०, १० ५३ ;
  14. “The Muhammadans had & regular system of writ- ing History, the Hindus had no such system, if there was anything of the kind, it was simply the genealo gies, and very little, if any, historical accounts written in the books of the bards, are exaggerated poems of the times". Kavirja Shyamal Das, J.A.S.B., Vol. LV, Pt. I, p. 16, 1886; तथा न्वंद वरदाई और जयानक कवि, म० स० पं० मथुरा प्रसाद दीक्षित, सरस्वती, जून १६३५ ई०, पृ० ५५६-६१;
  15. “Like all Indian Kavyas ( including the drshya- kavyas ) dealing with historical themes, the Prth- viraj Vijaya also contains an amount of unhis-
  16. छं० २४४, स० १;
  17. छं० २४५-४७, वहीं ;
  18. छं० २४८, वही;
  19. छं० २५१-५२, स० १ :
  20. छं० २५२, वही;
  21. छं० २७६-८०, बही;
  22. . अत्युच्चैर्गगनावलंबशिखरः क्षोणी मृदस्यां भुवि - रब्यातो मेरुमुखोच्छतादिषु परां कोटिं गतोप्यब्दः || ३ नस्य जयिन: परितुष्टो वांच्छिताशिषमसौबभिधाय । तस्य नाम परमार इतीत्थं तथ्यमेव मुनिरासु वकार ॥ ११;
  23. ब्रह्माण्डमण्डपस्तम्भः श्रीमानस्त्यत्रु दो गिरिः॥४६ ततः क्षणात् सकोदण्ड: किरीटी काञ्चनाङ्गदः। उज्जगामाग्नितः कोऽपि सहेमकवच: पुमान्॥ ६८ दूरं संतमसेनेव विश्वामित्रेण सा ह्ता । तेनानिन्ये मुनेधेनुर्दिनथीरिव लेना निन्ये भानुना ।।परमार इति प्रापत् स मुनेर्नाम चार्थवत् ॥॥७१, सर्ग ११ ;६६
  24. अग्निवंशियों और पवादि की उत्पत्ति की कथा में समानता, राज-स्थानी भाग ३, अंक २, पृ० ५५;
  25. आर्केलाजिकल सर्वे याब इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, सन् १६०३४ ३० पु० २८० ;
  26. १-१९, बालभारत;
  27. इंडियन ऐन्टीक्वेरी, जिल्द ४२, पृ०५८-५९;
  28. एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द ६, पृ० ३५१-५८;
  29. वही, जिल्द ६, पृ० २६६ ;
  30. श्लोक ४०-५६, सर्ग ६ ;
  31. राजपूताना म्यूजियम में चौहानों के ऐतिहासिक काव्य की प्रथम शिला;
  32. काकुत्समिक्ष्वाकुरघू च यद्दध- तपुराभव त्रिप्रवरं रघो: कुलम् । कलावपि प्राप्य स चाहमानतां प्ररूढतुर्यप्रवरं बभूव तत् ॥ २७२; तथा ७५०८०५४;
  33. अवातरमंडलतोथमासां पत्यु: मानुद्यतमंडलाम:। तं चाभिषिच्याश्वदीवरक्षाविधौ वधादेष मस्रं सुखेन ॥१-१६ ;
  34. पृथ्वीराज रासो का निर्मामा काल, कोषोत्सव स्मारक संग्रह, पृ०३३- ३६ तथा पृथ्वीराज रासो के संबंध की नवीन चर्चा, सुधा, फरवरी, सन् १९.४१ ई०, पृ० १३-१४;
  35. ववाहि किते बरनत सौर बखानि । तेज तत्व एकत्व करि, नहिं विरोध तहँ जानि || प्रथम राशि, दशय मयुख ;
  36. शिलालेख सं० १३७७ वि० अचलेश्वर का मन्दिर, आबू ; यह शिलालेख चौहानों के पूर्व पुरुष को वत्सगोत्री मात्र ही नहीं कहता वरन् उसे चन्द्रवंशी मी बताता है। इससे यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि शिलालेखों में भी परस्पर विरोधी प्रमाण पाये जाते हैं
  37. चौहानों के अग्निवंशी कहलाने का आधार, राजस्थानी भाग ३, अङ्क २, पृ० ७.८
  38. पृथ्वीराजविजय, सर्ग १, तथा श्लोक १-४४, सर्ग २:
  39. सर्ग ७, श्लोक ५८-६१ ;
  40. However, the text which has come down to us in manus- cript under the title, Bhavishya Purana, is certainly not the ancient work which is quoted in the Apastambiya- Dharam-sutra. The Bhavishya Purana, which appeared in Bombay in 1897 in the Srivenkata Press, has been un- masked by Th. Aufrecht as a literary fraud'. The account of the creation which it contrains, is borrowed from the law book of Manu, which is also otherwise frequently used. The greater part of the work deals with the brahmanical ceremonies and feasts, the duties of the castes and so on." A History of Indian Litera- ture. M. Winternitz, Vol. I, Cal. Uni., 1927, p. 567;
  41. बृहत रासो, समय १ के छन्द ६७१-८४ तक पंजाब विश्वविद्यालय के रोटो वाले रासो में नहीं हैं, जिसका प्रथम समय 'पृथ्वी-
  42. ६० ६८७, स० १:५
  43. चन्दबरदाई का पृथ्वीराजरासो, सरस्वती, भाग २७, संख्या ५, जून १६२६ ई०, पृ० ५५६ ;
  44. पृथ्वीराजरासो का निर्माणकाल, कोषोत्सवस्मारक संग्रह, पृ०४१-४३;
  45. प्रतोल्यां च बलम्यां च येन विश्रामितं यशः । दिल्किाग्रहणश्रांतमाशिकालाभलंभितः ( तं ) || २२ ;
  46. मेजर रैवर्टी द्वारा अंग्रेजी में अनूदित ;

  47. इति साहससाहचर्चचर्य समयज्ञैः प्र [ तिपादि ] तप्रभावाम्।
    तनयां च सपादलक्षपुण्यैरुपयेमे त्रिपुरीपुर [न्द] रस्य ॥ [१६], सर्ग७;
    पृथ्वी पवित्रतां नेतु राजशब्दं कृतार्थताम् ।
    चतुर्थराधनं नाम पृथ्वीराज इति व्यथात् ॥ [३०],
    मुक्त यति सुधवा वंशं गलत्पुरुषमौक्तिकं ।
    देवं सोमेश्वरं द्रष्टु राजश्रीरुदकण्ठत ॥ [५.७]
    आत्मजाभ्यामिव यश: प्रतापाभ्यामिवान्वितः ।
    सपादलक्षमानिन्ये महामात्यैर्महीपतिः ॥ [ ५८ ],
    कपूरदेव्यथादाय दानभोगाचिवात्मजौ ।
    विवेशाजयराजस्व संपन्नूर्तिमती पुरीम् ॥ [५६], सर्ग ८

  48. इलाविलासी जयति स्म तस्मात्
    सोमेश्वरोऽनश्वरनीतिरीतिः ॥ ६७***
    कपूरदेवीति बभूब तस्य
    प्रिया [ प्रिया ] राधनसावधाना ॥ ७२, सर्ग २ :

  49. शकुन्तलाभां गुणरूपशील:
    स कुन्तलानामधिपस्य पुत्रीम् ।
    कर्पूरवारां जनलोचनानां
    कपूरदेवीमुनुवाह विद्वान् ॥ ४, सर्ग १;

  50. पृथ्वीराजरासो औौर चंद बरदाई, सरस्वती, नवंबर सन् १९३४ ३०, पु० ४५८;
  51. “ But is it not possible that Delhi might have been actually given in Dowry by the last Tomar ruler of the place to Visaldeva, the half brother of Someshvat, from whom the story might have been transferred to Someshvar by some late redact- or of Raso ? We learn from the Lalitvigraharaja- nataka that Visaldeva IV had actually determ mined to march tawards Indraprastha, the ruler of which had a daughter who had fallen in love with Visaldeva. Unfortunataly, the drama as we have it now is not complete. " The Age and the Historicity of the Prthviraj Raso, The Indian Historical Quarterly, Vol. XVI, Dece mber 1940,
  52. पृथ्वीराज रासो की एक प्राचीन प्रति और उसकी प्रमाणिकता, ना० प्र० प०, कार्तिक सं० १६६६ वि०, पृ० २७५८२ |
  53. पथ्वीराज रासो पर पुनर्विचार, राजस्थान-भारती, भाग १, अङ्क २- ३, सन् १६४६ ई०, पृ० ४३४४;
  54. पृथाव्वाह कथा, स० २१;
  55. छं० ५६-५७;
  56. छं० २२, स० ३६;
  57. ६० २३.८५, वही }
  58. छं० १८-२५, स० ४२;
  59. ६० ६४-२०३, स० ५२;
  60. ६०.० २४-५१, स० ५५ ;
  61. ई० ११०६, स० ५६ :
  62. ई० ११०६, स० ५६ :
  63. छं०५, वही;
  64. छं० ६,वही
  65. छं० ७७०, बही;
  66. छं० १८०-३३८, वही;
  67. घं० ३३६-६५, वही;
  68. सर्ग ३, श्लोक २४-२७ ;
  69. चन्दबरदाई का पृथ्वीराजरासो, सरस्वती, भाग २७, संख्या ६, जून, सन् १९२६ ई॰, पृ॰ ६७८;
  70. सं॰ १२७० वि॰ का लेख, टिप्पणी पृ॰ ९३;
  71. सं॰ १९७९ वि॰ का लेख, भावनगर प्राचीन शोध संग्रह;
  72. पीटर्सन की तीसरी रिपोर्ट, पृ॰ १३० के अनुसार सं॰ १३०९ वि॰ रचित;
  73. जे॰ ए॰ एस॰ बी॰, जिल्द ५५ भाग १, सन् १८८६ ई॰, पृ॰ ४६-४७;
  74. वियना ओरियंटल जर्नल, जिल्द २१, पृ॰ १५५-६२
  75. उदयपुर के विक्टोरिया हाल में सुरक्षित;
  76. पृथ्वीराज रासो का निर्माण काल, ना॰ प्र॰ प॰, भाग १०, सं॰ १९-८६ वि॰ (सन् १९२९ ई॰), पृ० ४४-४५;
  77. उदयपुर राज्य का इतिहास, पहली जिल्द, पृ० १५४; सन् १६३१३०,
  78. डूंगरपुर राज्य का इतिहास, पृ० ५३; सन् १९३६ ई० ;
  79. राजपूताना का इतिहास, पृ० १६८ ; सन् १९३७ ३० ;
  80. चंद वरदायी और उनका काव्य, पृ० २७ ;
  81. रेवातट, भाग २, पृ० ६८-६६
  82. रासोसार, पृ० ३८२ पर 'गिरदेव' का शब्द - विपर्यय करके 'देवगिरि लिखा गया है, जो मेरे अनुमान से उचित नहीं है। देवगिरि की कुमारी शशिवृता भी पृथ्वीराज से विवाहित हुई हैं अस्तु 'गिरदेव' को 'देवगिरि' मानने में समस्या उलझती ही है सुलझती नहीं ।
  83. नाहरराय कथा वर्णनं, सातवाँ समय;
  84. एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द १०, ६० ६५-१७;
  85. केरा जिकल सर्वे भाव इंडिया, एन्युअल रिपोर्ट, सन् १६०६-१० ई०, ४० १०२-३
  86. इच्छिनि व्याह कथा, चोह समय ;
  87. एपित्राफिया इंडिका, जिल्द ८, पृ० १०८-१३ ;
  88. राजपूताना म्यूज़ियम अजमेर ;
  89. हिस्टारसिटी व दि एपिक, पृथ्वीराज रासो, मार्डन रिव्यू तथा चंदबरदाई का पृथ्वीराज रासो, सरस्वती, मई, सन् १६२६ ई०, पृ० ५५८-६१;
  90. इंडियन ऐन्टीक्वैरी, जिल्द ५६, पृ० ५१;
  91. वही, जिल्द ५६, पृ० ५१ ;
  92. पृथ्वीराज रासो का निर्माणकाल, कोषोत्सव स्मारक संग्रह, सन् १६ २८ ३०, ४०४५-४६
  93. सम्राट पृथ्वीराज चौहान की रानी पद्मावती, मरु-भारती, भाग १,१ सितम्बर १९५२ ई० ;
  94. छ० २,सं० ५७ ;
  95. छं० १-५ ;
  96. कुं० ७-५२;
  97. छं० ५३ - २१३ ;
  98. तत्रास्ति पृथ्वीराजस्य प्राक पित्रातो निरासितः ।- पुत्र गोविन्दराजाख्य: स्वसामर्थ्यात्तवैभवः || २४, सर्ग ४ ;
  99. पृथ्वीराजरासो का निर्माण काल, कोत्रोत्सव स्मारक संग्रह, पृ० ४८८ :
  100. इलोक -१ - ३, सर्ग ११
  101. जे० ए० एस० बी०, सन् १९१३ ३०, पृ० २७०-७१ ;
  102. इलियट, हिस्ट्री व इंडिया, जिल्द २, पू० २१६
  103. पृथ्वीराजरासो की एक प्राचीन प्रति और उसकी प्रामाणिकता, डॉ० दशरथ शर्मा, ना० प्र० प०, कार्तिक १९६६ वि०, पृ० २७४८२१
  104. " लेखक ने राढ़ के पालवंशी प्रतापी राजाओं के नाम सुने होंगे और वारेन्द्र भूमि के प्रतापी राजा विजयसेन का नाम सुना होगा, इन दोनों को मिलाकर उसने विजयपाल नाम गढ़ लिया होगा । इस विवाह की कहानी को यदि अधिक ध्यान देकर देखें तो प्रतीत होगा कि रासो के रसिक लेखक ने महाभारत में वर्णित भगवान श्रीकृष्ण और after के विवाह की कथा का अनुकरण कर यह एक नई कथा गढ़ कर लिख दी है । पृथ्वीराज को श्रीकृष्ण से उपमित कर उनको भी एक अवतार बनाना चाहा। रासो के इस अंश से ऐति- हासिक सत्य संवाद निकालना और महभूमि की बालुकाराशि से विशुद्ध पय उत्पन्न करना किसी गुप्त विद्या से ही संभव हो सकता है।" सरस्वती, सन् १९२६ ई०, भाग २७, संख्या ५, पृ० ५६१-६२ ;
  105. "पृथ्वीराज की यौवनावस्था में नर्मदा से कौंची तक विस्तृत कल्याण राज्य की ईंटें खिसक रही थीं उस समय देवगिरि में वहाँ का एक वेतनभोगी दुर्गपति रहता था । ११८६ ई० के उपरान्त इस दुर्गपति ने कल्याण - राज को दुर्बल देखकर स्वाधीन होने की चेष्टा की । ईसा की तेरहवीं सदी में देवगिरि के यादवों ने पूर्ण गौरव से राज्य किया ! ... रासो में संवत् नहीं लिखा है, तथापि शशिवृता का विवाह सन् १९८६ ई० से पहले ही हुआ होगा ।" सरस्वती, भाग २७, संख्या ६, ० ६७६ ; अस्तु आचार्य द्विवेदी जी के 'संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो' का 'शशिवता विवाह प्रस्ताव' भी द्विविधा में पड़ जाता।
  106. मालवा के लक्ष्मीवर्मा (सन् १९४३ ई० ), हरिश्चन्द्र ( सन् ११७६ ई० ) और उदय वर्मा (सन् १९६६ ई०) के दानपत्रों को देखने पर रासो के ( समय ३३ ) के भीमदेव यादवराय और इन्द्रावती कल्पित पात्र प्रमाणित होते हैं । वही, पृ० ६७७ ;
  107. वि० सं० १५०० रचित हम्मीरमहाकाव्य ( सर्ग ४ ) के आधार पर पृथ्वीराज का पुत्र गोविंदराज ही रणथम्भौर का प्रथम शासक था ।
  108. चन्दबरदाई का पृथ्वीराजरासो, सरस्वती, सन् १६२६ ३०, संख्या ५, पृ० ५६१-६२, संख्या ६, पृ० ६७६-७८;
  109. संयोगिता, राजस्थान भारती, भाग १, अङ्क २-३, जुलाई अक्टूबर, सन १६४६ ई० :
  110. (अ) "बीसलदेव का चढ़ाई करना आदि नागरी प्रचारिणी सभा की