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लेखाञ्जलि/१३—जापान और भारत में शिक्षा का तारतम्य

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लेखाञ्जलि
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ११० से – ११४ तक

 

१३—जापान और भारतमें शिक्षाका तारतम्य।

इण्डियन सोशल रिफार्मर नामक पत्रमें एक लेख, शिक्षा-प्रचार-विषयक, प्रकाशित हुआ है। उसमें यह दिखाया गया है कि जापान और भारतमें शिक्षाकी क्या दशा है। इन दोनों देशोंमें शिक्षा-प्रचारका तारतम्य देखकर इस बातपर अफसोस—बहुत अफसोस—होता है कि जापानके मुकाबलेमें भारतवर्ष अत्यन्त ही पिछड़ा हुआ है। जिस जापानमें नई सभ्यताकी जागृति हुए अभी ८० वर्ष भी नहीं हुए, वही जापान इस विषयमें हजारों वर्षके सभ्य और शिक्षित भारतवर्षसे बाजी मार ले जाय, यह इस देशका परम दुर्भाग्य ही समझना चाहिये। इसका दोष, हम नहीं जानते, किसपर मढ़ें—अपने दुर्दैवपर या उस शासनपर जिसका कर्तव्य इस देशमें शिक्षा-प्रचार करना है और जो कोई डेढ़ सौ वर्षसे यहाँ अपना पराक्रम प्रकट कर रहा है।

भारतका जो अंश अँगरेजी गवर्नमेंटके अधीन है उसकी जनसंख्या २४ करोड़ ७० लाख है और जापानकी सिर्फ ६ करोड़ २ लाख। अर्थात् जापानकी अपेक्षा भारतकी आबादी चौगुनीसे भी अधिक है। यदि स्कूल जाने योग्य उम्रके बच्चोंकी संख्या फ़ी सदी १५ मान ली जाय तो भारतमें ऐसे बच्चोंकी संख्या ३ करोड़ ७ लाख और जापानमें ९० लाख होती है।

अब आप यह देखिये कि इन दोनों देशोंमें मदरसे, मकतब, स्कूल और कालेज कितने हैं। इनमें आप विश्वविद्यालयोंको भी शामिल समझिये। इन सब प्रकारके शिक्षालयोंकी संख्या भारतमें तो २,२८,२२९ है, और जापानमें केवल ४४,३५५। इसका यह अर्थ हुआ कि जापानकी अपेक्षा भारतमें शिक्षाके साधन पांच गुने अधिक हैं। इन बातोंको ध्यानमें रखकर आप यह देखिये कि इन शिक्षालयों में दोनों देशोंमें, कितने छात्र शिक्षा पाते हैं। भारतमें इनकी संख्या केवल ९८ लाख, पर जापानमें १ करोड़ १० लाख है! देखा आपने! भारतकी आबादी जापानसे चोगुनी और शिक्षालय वहां की उपेक्षा पँचगुने हैं। पर यहांके मुक़ाबले में जापानमें कोई दस लाख बच्चे अधिक शिक्षा पा रहे हैं। जिन बच्चोंकी उम्र स्कूल जाने योग्य है उनमेंसे जो बच्चे यहाँ सब तरहके स्कूलों में शिक्षा पा रहे हैं उनका औसत आबादीके लेहाज़से, फ़ी सदी ४ से भी कम है। परन्तु जापानमें वही १९ फ़ी सदी है। इससे यह सूचित हुआ कि भारतमें जहाँ १५ बच्चोंको स्कूल जाना चाहिये था वहाँ केवल ४ जाते हैं और बाकीके ११ या तो मवेशी चराते या गिल्ली-डंडा खेला करते हैं। इस दशामें यहां मूर्खता और निरक्षरताका साम्राज्य न छाया रहे तो कहाँ रहे। शिक्षा ही सार सुखों और सारे सुधारोंकी जड़ है। पर राजाका न सही भगवान्‌का उसी ओर दुर्लक्ष्य है। हाय रे दुर्दैव!

भारतमें अर्थकरी शिक्षाकी ओर बहुत ही कम ध्यान दिया जाता है। यहाँकी शिक्षाकी बदौलत क्लर्क, मुहर्रिर, लेखक, स्कूल-मास्टर ही अधिकतर पैदा होते हैं और सारी उम्र कलम घिसते-घिसते बिता देते हैं। उच्च शिक्षा पाये हुए युवक, बहुत हुआ तो, वकील बनकर अदालतोंकी शोभा बढ़ाते और दीन-दुखियोंका धन स्वाहा कराने में सहायक होते हैं। फिर भी सबको काम नहीं मिलता। ३० रुपयेकी जगह खाली होनेका यदि कोई विज्ञापन निकलता है तो हजारों युवक टिड्डी-दलकी तरह, विज्ञापन दाताके ऊपर टूट पड़ते हैं। जापानमें यह दुर्गति नहीं। वहाँ अर्थकरी शिक्षा देनेकी और विशेष ध्यान दिया जाता है। जापानके प्रारम्भिक मदरसोंमें जितने विद्यार्थी शिक्षा पाते हैं उनसे कुछ ही कम अर्थकरी शिक्षा देनेवाले शिक्षालयोंमें पाते हैं। ये शिक्षालय अनेक प्रकारके हैं। उनमें भिन्न-भिन्न प्रकारकी ऐसी शिक्षा दी जाती है जिसकी कृपासे लड़के और लड़कियां स्कूल छोड़ते ही चार पैसे पैदा करने लगती हैं। ध्यान इस बातका रक्खा जाता है कि स्कूलसे निकलनेपर कोई लड़का या लड़की बेकार न रहे, वह कुछ-न-कुछ काम कर सके, वह किसीपर भारभूत होकर देशकी दरिद्रता न बढ़ावे। जिन स्कूलोंमें इस तरहकी अर्थकरी शिक्षा दी जाती है उनमें साथ ही, साधारण शिक्षा—अर्थात् लिखने, पढ़ने, हिसाब, भूगोल, इतिहास आदिकी भी शिक्षा-दी जाती है। जापानमें इस तरहके स्कूलोंका बहुत आधिक्य है। वहाँके निवासी इन स्कूलोंसे लाभ भी बहुत उठाते हैं। वे इनका महत्व समझते हैं। अतएव मध्यवित्तके प्रायः सभी लोग अपने बच्चोंको इन स्कूलोंमें पढ़ने भेजते हैं। नतीजा यह हुआ है कि पिछले दसही वर्षाोंमें इन स्कूलोंकी संख्या दूनी हो गयी है। परन्तु भारतका यह हाल है कि प्रारम्भिक मदरसोंके बाद केवल वे स्कूल हैं जिन्हें मिडिल स्कूल कहते हैं। उनमें भी प्रायः उसी तरहकी शिक्षा दी जाती है जिस तरहकी कि प्रारम्भिक मदरसांमें दी जाती है। जो बच्चे प्राथमिक मदरसांकी शिक्षा समाप्त कर चुकते हैं उनमेंसे फ़ी सदी १० से अधिक बच्चे इन मिडिल मदरसों में नहीं जाते। फल यह होता है कि उनमेंसे ९० फ़ी सदी घर ही बैठ रहते हैं और देश तथा अपने कुटुम्बकी अर्थहीनताकी वृद्धि करते हैं। यदि भारतमें भी इस तरहके स्कूल खुल जाते तो जो बच्चे प्रारम्भिक मदरसे छोड़कर घर बैठ रहते हैं उनसे बहुतेरे इन स्कूलों में भरती होकर चार पैसे पैदा करने योग्य अवश्य हो जाते।

अब ज़रा शिक्षा सम्बन्धी खर्चका हिसाब भी देख लीजिये। अपने देश, अभागे भारतको, गवर्नमेंट सब प्रकारकी शिक्षाके लिए सालमें कुछ ही कम १० करोड़ रुपया खर्च करती है अर्थात् आबादीके लेहाजसे फ़ी आदमी कोई ६ आने खर्च करके सरकार भारतवासियोंको शिक्षा देती है। अच्छा तो इन्हीं भारतवासियोंसे करके रूपमें सरकारका सालमें क्या मिलता है। जनाबे आली, उसे उनसे २ अरब २२ करोड़ रुपयेसे कम नहीं मिलता। अर्थात् हम लोगोंसे इतना रुपया वसूल करके उसमेंसे फी सदी पाँच ही रुपया वह मुश्किल हमारी शिक्षाके लिए खर्च करता है। बाकी रुपया यह

फ़ौज, रेल, जहाज और नौकर-चाकरोंकी तनख्वाहमें उड़ा देती है। जापानमें यह बात नहीं। वहाँकी गवर्नमेंटकी रियायासे करके रूपमें, जितना रुपया मिलता है उसका फी सदी १५ वह शिक्षा-प्रचारके काममें खर्च कर देती है। उसका यह खर्च भारतके खर्च से तिगुना है। इसीलिए हमारे देशकी गवर्नमेंटपर कोई-कोई यह लाञ्छन लगाते हैं कि वह हमें शिक्षित बनानेमें जान-बूझकर आनाकानी या शिथिलता कर रही है। यह ठीक हो या न हो, पर इसमें सन्देह नहीं कि जापानके मुकाबलेमें यहाँ शिक्षाके लिए बहुत कम खर्च किया जाता है। उसकी प्रचार-वृद्धिकी यथेष्ट चेष्टा नहीं की जाती। भारतमें जहाँ शिक्षाका खर्च फी आदमी आठ आने भी नहीं, वहाँ जापानमें आठ रुपया है।

एक बात और भी है। वह यह कि भारतमें छात्रोंकी फीस दिन-पर-दिन बढ़ती ही जाती है। पर जापानमें वह दिन-पर-दिन कम होती जाती है।

शिक्षाहीसे मनुष्य-जन्म सार्थक होता है। उसीसे मनुष्य अपनी सब प्रकारकी उन्नति कर सकता है। उसीकी दुरवस्था देख किस समझदार भारतवासीको परमावधिका परिताप न होगा।

[जनवरी १९२७]