लेखाञ्जलि/१२—सन् १९२१ की मनुष्य-गणना

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१२—सन् १९२१ की मनुष्य-गणना।


कौटिल्यके अर्थशास्त्रसे सूचित होता है कि इस देशमें चंद्रगुप्तके समयमें भी मनुष्य-गणना होती थी। परन्तु वह ज़माना और तरहका था, आज-कलका ज़माना और तरहका। प्राचीन-कालमें मनुष्योंकी संख्या स्थूल रूपसे मालूम कर ली जाती रही होगी; उससे वे सब बातें न मालूम की जाती होंगी जो आज-कल मालूम की जाती हैं। मनुष्य-गणना-सम्बंधी जो नकशे आज-कल तैयार किये जाते हैं उनकी ख़ानापुरी सही-सही करनेसे प्रत्येक सूबे, नगर और क़सबेहीकी मनुष्य-संख्या नहीं ज्ञात हो जाती, किन्तु छोटे-छोटे गांवोंकी भी मनुष्य-संख्या मालूम हो जाती है। कितने नर और कितनी नारियां कहाँ रहती हैं, उनकी उम्र क्या है, उनका पेशा क्या है, वे अशिक्षित हैं या शिक्षित, शिक्षित हैं, तो किस विषयकी शिक्षा उन्होंने पायी है, भाषाएं और लिपियां कौन-कौन-सी वे जानते हैं—इत्यादि अनेक ज्ञातव्य बातें मनुष्य-गणनाके नक़शों [ १०१ ]

शोंसे ज्ञात हो जाती हैं। इन नकशोंके अध्ययनसे देशकी वास्तविक दशाका चित्र आंखोंके सामने आजाता है । ये नकशे आईनेका काम देते हैं। पिछली मनुष्य-गणनासे मनुष्य-संग्ख्यामें वृद्धि हुई या हास.यह तो मालूम ही हो जाता है; हास और वृद्धिके कारणोंपर विचार करनेके लिए भी सामग्री मिल जाती है। उससे हासके कारणोंको दूर करने के उपाय भी निकाले जा सकते हैं। ये सब बातें बड़े लाभकी हैं। राजपुरुषों और राजकर्मचारियों के लिए मनुष्य-गणनाका फल जानना और उससे लाभ उठाना नो अनिवार्य ही मा है। सर्व-साधारणको भी उससे जानकारी प्राप्त करना चाहिये। जो लोग देश-हित-चिन्तक हैं---जो लोग प्रजाके नायक बनकर उसकी भलाई करनेके त्रतके त्रती है---वे चाहे तो मनुष्य-गणनाके अधारपर बहुत-कुछ देशहित कर सकते हैं।

मनुष्य-गणनाके महत्त्व के कारण ही अगरेज़ी गवर्नमेंट हर दसवें साल, भा रहनेवाले मनुष्यों को गिनती करके उनकी वृद्धि या हासका पता लगाती है। फिर वह उनके आधारपर बड़ी बड़ी रिपोर्ट नैयार करके भिन्न भिन्न बातोंपर विचार करती है । उनको देखनेसे

देशकी दशाका सच्चा हाल मालूम हो जाता है। इन रिपोर्टोंके अनेक अंशोंको सरकारी कर्मचारी जिस दृष्टिसे देखते हैं, प्रजाके प्रतिनिधि उस दृष्टिसे नहीं देखते । इन दोनों पक्षोंकी दृष्टियोंमें भिन्नता रहती है। एक उदाहरण लीजिये। कल्पना कीजिये कि १९११ की अपेक्षा १९२१ की गणनासे यह मालूम हुआ कि संयुक्त-प्रान्तोंकी आबादीमें १३ लाख आदमियोंकी कमी हो गयी। इस कमीका कारण बताते हुए सरकारी रिपोर्टका लेखक बहुत होगा तो यदि कहेगा कि अकाल
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(अवर्षण ) या किसी रोग-विशेषके कारण बहुत नर-नाश हुआ---जितने बच्चे उत्पन्न हुए उनकी अपेक्षा मरे अधिक मनुष्य । इसीसे आबादी कम हो गयी पर प्रजाके प्रतिनिधि यदि इस घटनाकी आलोचना करेंगे तो हासके कारणोंपर विचार करते समय सरकारको उसके कर्तव्यकी भी याद दिलाये बिना न रहेंगे। वे कहेंगे---जिस प्रजाके आप मांँ-बाप बनते हैं और जिससे प्राप्त हुए रुपयेकी बदौलत बड़े-बड़े राजकर्मचारी गुलछर्रे उड़ाते हैं उसके हितके लिए आपने अपने धर्मका पूर्ण पालन क्यों नहीं किया ? जिन मारक रोगोंके कारण इतना जन-नाश हुआ उन्हें दूर करनेके लिए आपने उपाय क्यों नहीं किये ? और किये भी तो काफ़ी क्यों नहीं किये ? मारक रोगोंका आविर्भाव क्या अन्य देशोंमें नहीं होता ? वहाँ इतने मनुष्य क्यों नहीं मरते ? इसीलिए न कि वहांकी सरकार सफाई और तन्दुरुस्तीका अधिक खयाल रखती है, चिकित्साका प्रबन्ध अधिक अच्छा करती है, मनुष्य-संख्याके अनुसार ही दवाखाने क़ायम करती और उन्हें बढ़ाती रहती है । आपने ये सब काम यथेष्ट नहीं किये । इसीसे इतने अधिक आदमी मर गये। अतएव इस व्यर्थ नर-नाशके उत्तरदाता आप भी हैं। अस्तु ।

पिछली मनुष्य-गणना १८ मार्च १९२१ को हुई थी। उसकी आलो- चनात्मक पूरी रिपोर्ट निकलनेमें तो बरसोंकी देरी है। पर कच्चा चिट्ठा तैयार हो गया है और सरकारकी कृपासे गैज़ट आव इण्डियामेंछप भी गया है। उससे मालूम हुआ कि जिस दिन---दिन क्यों रातको---आदमियोंकी गिनती हुई थी उस दिन इस देशकी आबादी ३१,९०,७५,१३२ थी। अर्थात् अँगरेज़ी शासनके अधीन भारतमें २४,७१,३८,३६६
[ १०३ ]और देशी राज्यों और रियासतोंमें ७,२९,३६,७३६ मनुष्य थे। दस वर्ष पहले, १९११ में, जब मनुष्य-गणना हुई थी तब

गवर्नमेण्ट-शासित भारतकी आबादी थी २४,३९,३३,१७८

और

देशी राज्योंकी थी ७,१२,२३,२१८

कुल भारतकी ३१,५१,५६,३९६

अर्थात् पिछले दस साल में केवल ३९ लाख आदमियों की वृद्धि हुई। इसका औसत पड़ा फ़ी सदी १.२ अर्थात् सैंकड़े पीछे सवा आदमीसे भी कम वृद्धि हुई। पर १९११ ईसवीमें जब मनुष्य-गणना हुई थी तब १९०१ और १९११ के बीच २ करोड़से भी अधिक आबादी बढ़ी थी। उस वृद्धिका औसत पड़ा था फ़ीसदी ६.५। कहाँ सैकड़े पोछे ६ १/२, कहाँ एक या सवा! सो पिछले क्रमके अनुसार आबादीका बढ़ना तो दूर रहा, फ़ीसदी ५ से भी अधिक वह कम हो गयी—कोई डेढ़ करोड़से भी अधिक आदमी हिसाबसे ज़ियादह मर मिटे। वृद्धिका जो औसत १९११ की मनुष्य-गणनामें पड़ा था वही यदि इस बार भी पड़ता तो कई करोड़ आबादी और बढ़ जाती। पर यहाँ तो घरके धान भी पयालमें चले गये। पिछली वृद्धिसे इस दफ़े, दस सालमें, अधिक वृद्धि होनी चाहिये थी; सो न होकर उस पिछली वृद्धिका भी औसत घट गया! इसे इस देशका दुर्भाग्य कहें या उस गवर्नमेण्टका दुर्भाग्य जो अपनेको संसारमें सभ्यशिरोमणि समझती है और मौक़े बेमोक़े सदा ही कहा करती है कि उसे भारतके अशिक्षित, अधभुखे या मरभुखे मनुष्योंके सुख-दुःखका ख़याल और सबसे अधिक है। [ १०४ ]

आबादी में इतनी कमी कैसे हुई, इसके कारण सुनिये। सरकार फरमाती है कि—

पिछले दस सालके मध्यतक फसल अच्छी हुई। बारिश भी ख़ासी हुई। कोई रोग-दोष भी वैसे नहीं हुए। अतएव प्रजा-वृद्धिके प्रायः सभी सामान काफ़ी थे। उसीसे १९१३ ईसवीमें ख़ूब बच्चे पैदा हुए और मृत्यु-संख्या भी कम ही रही। पर १९१८ में इनफ्लूएंज़ाने ग़ज़ब ढा दिया। मृत्यु-संख्या पिछले सालसे दूनी हो गई। १९१८ के कुछ ही महीनोंमें सिर्फ ब्रिटिश-गवर्नमेंटके शासित प्रदेशोंमें ७० लाख आदमियोंके लिए लोगों को "राम-नाम सत्य है"—इस वाक्यका उच्चारण करना पड़ा। इस मारक रोगके कारण प्रजाकी जनन-शक्ति भी कम हो गयी। फल यह हुआ कि १९१८ और १९१९ में जितने आदमी मरे उससे बहुत कम पैदा हुए। १९१७ और १९१८ में प्लेगने भी बहुतकुछ जन-नाश किया। हैज़ेने भी बहुतोंको यमपुरीको पधसया। दादमें खाज यह हुई कि पिछले वर्षोंमें जहां-तहां अवर्षणने भी भारतपर भारी कृपा की। इसीसे भारतकी मनुष्य-संख्या बढ़नेके बदले बहुत कुछ घट गयी। इसे जी चाहे दैवदुर्विपाक समझिये; जी चाहे भारतका दुर्भाग्य। जगन्नियन्ताको यही मंजूर था। प्लेग, इनफ्लूएंजा और अवर्षण दैवी-दुर्घटनाएं हैं। उन्हें दूर करना मनुष्यके वशकी बात नहीं।

सरकारने ये पिछली बातें यद्यपि खुले शब्दोंमें नहीं कहीं, तथापि उसके लिखनेके ढङ्गसे यही जान पड़ता है कि मारक रोगों और अवर्षणोंकी मारसे प्रजाकी यथेष्ट रक्षा कर सकना उसकी शक्तिके बाहरकी बात है। [ १०५ ]अच्छा, तो ये दैवी दुर्घटनाएं और रोग-दोष आदिक व्याधियाँ और देशोंको भी सताती हैं या नहीं? इनका अवतार या अविष्कार केवल भारतहींके लिए तो है नहीं। और देशोंमें भी पानी नहीं बरसता। वहां भी प्लेग, हैजा, बुख़ार, इनफ्लुएंजा आदि रोग प्रजापीड़न करते हैं। फिर क्या कारण है जो वहांके लोग खूब फूल-फल रहे हैं, खूब बढ़ रहे हैं, खूब अपनी उन्नति कर रहे हैं? अंगरेजोंहीके देश इंग्लैंड और वेल्समें, १९११ ईसवीमें, जन-संख्याकी वृद्धि लगभग ११ फी सदीके हिसाबासे हुई थी। वृद्धिका यह क्रम बहुत कम था १८४१ ईसवीसे लेकर १९११ नक इतनी कम वृद्धि कभी न हुई थी। तथापि भारतकी फ़ी सदी ६.५ वृद्धिसे वह भी कुछ कम दूनी थी! यदि ये सब व्याधियां ईश्वर-निर्मित मान ली जायं तो इंग्लैंड और भारतके ईश्वर अलग-अलग हो तो हैं ही नहीं। वही ईश्वर वहाँ है, वही यहाँ। भारतमें सब प्रकारकी खाद्य-सामग्री उत्पन्न होती या हो सकती है। खनिज पदार्थ भी यहां अधिकतासे पाये जाते हैं। नदियां भी अनेक हैं। अधिवासी यहाँक परिश्रमी और समझदार हैं। फिर क्या कारण कि यहीं के लोग मरें तो अधिक, पर पैदा हों कम। बात यह जान पड़ती है कि गवर्नमेंट प्रजाकी रक्षा करने, उसके लिए तन्दुरुस्ती कायम रखने के यथेष्ट साधन प्रस्तुन करने, और अवर्षणके साल आबपाशीके कृत्रिम द्वार खोलनेका काफ़ी प्रयत्न नहीं करती। जहाँ दस-दस पन्द्रह-पन्द्रह कोस तक एक भी सरकारी शफाखाना नहीं वहाँ हैजा या इनफ्लूएंजा फैल जानेपर लोग यदि धड़ाधड़ मरते चले जायँ तो क्या आश्चर्य। यह दशा और देशोंमें नहीं। इसीसे पूर्व[ १०६ ]निर्दिष्ट कारण या व्याधियाँ उपस्थित होनेपर भी वहाँ इतना नरनाश नहीं होता। वहां २४ घंटेमें सबके पेट कमसे कम २ दफे—अधिकांशके ३ दफे—भर जाते हैं। यहाँ, भारतमें करोड़ों आदमियोंको दिनमें एक दफे भी पेटभर खानेको नहीं मिलता। इससे वे अशक्त रहते हैं, रोगके साधारण धक्के से भी मर जाते हैं; प्रजोत्पादनकी शक्ति भी वे कम रखते हैं। राजाका कर्तव्य है कि वह इन कारणों को दूर करनेका यथेष्ट यन्न करे; क्योंकि अपनी रक्षाहीके लिए प्रज़ा उसे कर देती है। उसके दिये हुए कर-धनका अधिकांश फ़ौज-फाटा रखने और रेले बनानेहीमें खर्च कर डालना, राजाका प्रधान कर्तव्य नहीं। प्रधान कर्तव्य उसका है प्रजाको नीरोग रखना, बीमार पड़नेपर उसकी चिकित्साका प्रबन्ध करना, पानी न बरसने पर सिंचाईके साधन प्रस्तुत करना, भूखोंको पेट पालनेके द्वार उन्मुक्त करना और अशिक्षितोंको शिक्षा देना है। यदि ये सब बातें होतीं तो भारतकी आबादी बहुत बढ़ जाती, रोगोंसे इतना मनुष्य-नाश न होता, और यहाँके निवासी भी और देशोंकी तरह खुशहाल होते।

इस दफे़ की मनुष्य-गणनासे मालूम हुआ कि ३१,९०,७५,१३२ मनुष्योंमें १६,४०,५६,१९१ तो पुरुषजातिके हैं और बाकी १५,५०,१८,९४१ स्त्री-जातिके। अर्थात् पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां कम हैं। सूबे बिहार और मदरासको छोड़कर और सभी प्रान्तोंका यही हाल है। इन दो प्रान्तों में तो पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक हैं, अन्यत्र सब-कहीं कम। यह कमी विचार करने योग्य है। सारे देशमें प्रायः १ करोड़ स्त्रियाँ कम हैं। स्त्रियों की संख्यामें विशेष कमी हो जानेसे [ १०७ ]फ़िजी-टापूकी तरह कितना अनिष्ट हो सकता है और कितने अपराध और पाप हो सकते है, यह कौन नहीं जानता। किसी-किसी प्रान्तमें यह विषमता बहुत ही बढ़ गयी है। उदाहरणके लिए पञ्जाबको लीजिये। वहां पुरुषोंकी अपेक्षा २० लाखके भी ऊपर स्त्रियां कम हैं। यह विषमता भावी अनिष्टकी सूचक है। देखिये, गवर्नमेंट अपनी रिपोर्ट में इस ह़ास या कमीका क्या कारण बनाती है।

नीचे हम प्रत्येक प्रांतकी जन-संख्या देते हैं और यह भी बताते हैं कि आबादीमें कितना ह़ास या कितनी वृद्धि हुई है—

प्रान्त जन-संख्या वृद्धि+ह़ास-फ़ी सदी
१—अजमेर-मेरबाग ४,९५,८९९ – १.१
२—अंडमन और नीकोबार २६,८३३ + १.४
३—आसाम ७५,९८,८६१ + १३.२
४—बल़चिस्तान ४,२१,६७९ + १.८
५—बङ्गाल ४,६६,५३,१७७ + २.६
६—बिहार और उड़ीसा ३,३९,९८,७७८ – १.४
७—बम्बई १,९३,३८,५८६ – १.८
८—ब्रह्मदेश १,३२,०५,५६४ + ९.०
९—मध्यप्रदेश और बरार १,३९,०८,५१४ – .१
१०—कुर्ग १,६४,४५९ – ६.०
११—देहली ४,८६,७४१ + १७.७
१२—मदरास ४,२३,२२,२७० + २.२
१३—पश्चिमोत्तर-सीमा-प्रान्त २२,४७,६९६ + ३.३
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प्रान्त जन-संख्या वृद्धि ह़ास-फ़ी सदी
१४—पञ्जाब २,०६,७८,३९३ + ५.६
१५—संयुक्त-प्रान्त ४,५५,९०,९४६ – २.६

अकेले बङ्गालको छोड़कर अपने प्रान्तकी आबादी और सभी प्रान्तोंसे अधिक है। पर बङ्गालमें तो 2½ फ़ी सदीके क़रीब जन-संख्या वृद्धि हुई; पर अपने प्रान्तमें ठीक उतनी ही कमी हो गयी। बङ्गालके निवासी अधिक सुशिक्षित हैं और उनकी आमदनी भी शायद अधिक है। अपने प्रान्तमें ये बातें नहीं। बीमार होने पर चिकित्साका भी यथेष्ट प्रबन्ध नहीं। भूखे और निर्धन मनुष्य रोगोंका अधिक शिकार ज़रूर ही होते हैं। आश्चर्य्य नहीं, जो यहाँ इतने मनुष्य कम होगये। अगर यह प्रान्त बङ्गालकी अपेक्षा अधिक कर देता हो अथवा उससे बहुत कम न देता हो तो यह इस प्रान्तका दुर्भाग्य ही समझना चाहिये जो उसकी रक्षाका ठीक-ठीक प्रबन्ध नहीं किया गया। क्योंकि मौतसे बचानेके जो साधन मनुष्यके हाथमें हैं उनसे यदि पूरे तौरपर काम लिया जाता तो बहुत सम्भव था कि इतना नर-नाश न होता।

अच्छा, अब अपने प्रान्तके ज़िलोंका हाल देखिये। प्रत्येक ज़िलेकी आबादी न देकर हम केवल प्रत्येक कमिश्नरीहीकी आबादी नीचे देते हैं–

कमिश्नरी आबादी फ़ी सदी वृद्धि+या ह़ास—
१—मेरठ ४७,१०,६७५ + १.८
२—आगरा ४१,८३,७१४ – ७.३
३—रुहेलखण्ड ५१,९७,३८५ – ८.०
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४—इलाहाबाद ४७,९१,९५७ – ३.१
५—झांसी २०,६५,७६२ – ६.४
६—बनारस ४४,४८,५८४ कमी हुई पर .१ से भी कम
७—गोरखपुर ६७,२९,१२२ + ३.१
८—कमायूं १२,९३,४३९ – २.७
९—लखनऊ ५५,७०,८४३ – ५.८
१०—फ़ैजाबाद ६५,९९,४६५ – .७

सिर्फ़ मेरठ और गोरखपुरकी कमिश्नरियोंको छोड़कर और सब कहीं ह़ास, ह़ास, ह़ास। किसी-किसी ज़िलेमें तो फ़ी सदी ८, ९, १०, ११ और १४ तक मनुष्य-संख्या घट गयी। बढ़ी है मेरठमें १३ फ़ी सदी, बस्तीमें ५ फ़ी सदी, गोरखपुर में दो फ़ी सदी और देहरादूनमें ३ फ़ी सदी। कुछ ही ज़िले और हैं जिनमें कुछ थोड़ी-थोड़ी वृद्धि हुई है। और कहीं नहीं। सरकारी नक़शेमें जहाँ देखो, वहीं ऋणका चिह्न (–) लगा हुआ है। यदि मनुष्य-गणनामें भी किसी देश, प्रान्त या ज़िलेके पतन या उत्थान, सुख-समृद्धि या दीनताका अन्दाजा लगाया जा सकता है तो अपने प्रान्तकी बहुत-कुछ सच्ची स्थितिका पता लगानेके लिए पिछली मनुष्य-गणनाके नक़शोंमें काफ़ी सामग्री विद्यमान है।

[जूलाई १९२१]