लेखाञ्जलि/१९—दण्ड-देव का आत्म-निवेदन
१९—दण्ड-देवका आत्म-निवेदन।
हमारा नाम दण्ड-देव है। पर हमारे जन्मदाताका कुछ भी पता नहीं। कोई कहता है कि हमारे पिताका नाम वंश या बाँस है। कोई कहता है, नहीं; हमारे पूज्यपाद पितृ-महाशयका नाम काष्ठ है। इसमें भी किसी-किसीका मतभेद है; क्योंकि कुछ लोगोंका अनुमान है कि हमारे बापका नाम बेत है। इसीसे हम कहते हैं कि हमारे जन्मदाताका नाम निश्चयपूर्वक कोई नहीं बता सकता। हम भी नहीं बता सकते। सबके गर्भ धारिणी माता होती है। हमारे वह भी नहीं। हम तो ज़मींतोड़ हैं। यदि माता होती तो उससे पिताका नाम पूछकर आपपर अवश्य हो प्रकट कर देते। पर क्या करें, मज़बूरी है। न बाप, न माँ। अपनी हुलिया यदि हम लिखाना चाहें तो कैसे लिखावें। इस कारण हम सिर्फ अपना ही नाम बता सकते हैं।
हम राज-राजेश्वरके हाथसे लेकर दीन-दुर्बल भिखारीतकके हाथमें विराजमान रहते हैं। जराजीर्णोंके तो एक-मात्र अवलम्ब हमीं हैं। हम इतने समदर्शी हैं कि हममें भेद-ज्ञान ज़रा भी नहीं—धार्म्मिक-अधार्म्मिक, साधु-असाधु, काले-गोरे सभीका पाणिस्पर्श हम करते हैं। यों तो हम सभी जगह रहते हैं, परन्तु अदालतों और स्कूलोंमें तो हमारी ही तूती बोलती है। वहाँ हमारा अनवरत आदर होता है।
संसारमें अवतार लेनेका हमारा उद्देश दुष्ट मनुष्यों और दुवृत्त बालकोंका शासन करना है। यदि हम अवतार न लेते तो ये लोग उच्छृङ्खल होकर मही-मण्डलमें सर्वत्र अराजकता उत्पन्न कर देते। दुष्ट हमें बुरा बताते हैं; हमारी निन्दा करते हैं। हमपर झूठे-झठे आरोप करते हैं। परन्तु हम उनकी कटूक्तियों और अभिशापोंकी ज़रा भी परवा नहीं करते। बात यह है कि उनकी उन्नतिके पदप्रदर्शक हमीं हैं। यदि हमीं उनसे रूठ जायँ तो वे लोग दिन-दहाड़े मार्गभ्रष्ट हुए बिना न रहें।
विलायतके प्रसिद्ध पण्डित जानसन साहबको आप शायद जानते होंगे। ये वही महाशय हैं जिन्होंने एक बहुत बड़ा कोश, अँगरेज़ीमें, लिखा है और विलायती कवियोंके जीवन-चरित, बड़ी-बड़ी तीन ज़िल्दोंमें भरकर, चरित-रूपिणी त्रिपथगा प्रवाहित की है। एक दफ़े यही जानसन साहब कुछ भद्र महिलाओंका मधुर और मनोहर व्यवहार देखकर बड़े प्रसन्न हुए। इस सुन्दर व्यवहारकी उत्पत्तिका कारण खोजनेपर उन्हें मालूम हुआ कि इन महिलाओंने अपनी-अपनी माताओंके कठिन शासनकी कृपाहीसे ऐसा भद्रोचित व्यवहार सीखा है। इसपर उनके मुँहसे सहसा निकल पड़ा— "Rod! I will honor thee
For this thy duty."
अर्थात् हे दण्ड, तेरे इस कर्तव्य-पालनका मैं अत्यधिक आदर करता हूँ। जानसन साहबकी इस उक्तिका मूल्य आप कम न समझिये। सचमुच ही हम बहुत बड़े सम्मानके पात्र हैं; क्योंकि हमीं तुम लोगोंके—मानवजातिके—भाग्य-विधाता और नियन्ता हैं।
संसारकी सृष्टि करते समय परमेश्वरको मानव-हृदयमें एक उपदेष्टाके निवासकी योजना करनी पड़ी थी। उसका नाम है विवेक। इस विवेकहीके अनुरोधसे मानव-जाति पापसे धर-पकड़ करती हुई आज इस उन्नत अवस्थाको प्राप्त हुई है। इसी विवेककी प्रेरणासे मनुष्य, अपनी आदिम अवस्थामें, हमारी सहायतासे पापियों और अपराधियोंका शासन करते थे। शासनका प्रथम आविष्कृत अस्त्र, दण्ड, हमीं थे। परन्तु कालक्रमसे हम अब नाना प्रकारके उपयोगी आकारों में परिणत हो गये हैं। हमारी प्रयोग-प्रणालीमें भी अब बहुत कुछ उन्नति, सुधार और रूपान्तर हो गया है।
पचास-साठ वर्ष के भीतर इस संसारमें बड़ा परिवर्तन—बहुत उथल-पथल—हो गया है। उसके बहुत पहले भी, इस विशाल जगत्में, हमारा राजत्व था। उस समय भी रूसमें, आज-कलहीकी तरह, मार-काट जारी थी। पोलैंडमें यद्यपि इस समय हमारी कम चाह है, पर उस समय वहाँकी स्त्रियोंपर रूसी-सिपाही मनमाना अत्याचार करते थे और बार-बार हमारी सहायता लेते थे। चीनमें तब भी वंस-दण्डका अटल राज्य था। टर्कीमें तब भी दण्डे चलते थे। श्यामवासियोंकी पूजा तब भी लाठीहीसे की जाती थी। अफ़रीकासे तब भी मम्बो-जम्बो (गेंड़ेकी खालका हण्टर) अन्तर्हित न हुआ था। उस समय भी वयस्का भद्रमहिलाओंपर चाबुक चलता था। पचास-साठ वर्ष पहले, संसारमें, जिस दण्ड-शक्तिका निष्कघण्टक साम्राज्य था, यह न समझना कि अब उसका तिरोभाव हो गया है। प्राचीन कालकी तरह अब भी सर्वत्र हमारा प्रभाव जागरूक है। इशारेके तौरपर हम जर्मनीके हर प्रान्तमें वर्तमान अपनी अखण्ड सत्ताका स्मरण दिलाये देते हैं। परन्तु वर्तमान वृत्तान्त सुनाने की अपेक्षा पहले हम अपना पुराना वृत्तान्त सुना देना ही अच्छा समझते हैं।
प्राचीन कालमें रोम-राज्य योरपकी नाक समझा जाता था। दण्ड-दान या दण्ड-विधानमें रोमने कितनी उन्नति की थी, यह बात शायद सबलोग नहीं जानते। उस समय हम ३ भाई थे। रोमवाले साधारण दण्डके बदले कशा-दण्ड (हण्टर या कोड़े) का उपयोग करते थे। इसी कशा-दण्डके तारतम्यके अनुसार हमारे भिन्न-भिन्न तीन नाम थे। इनमेंसे सबसे बड़ेका नाम फ्लैगेलम (Flagellum) मंझलेका सेंटिका (Sentica), और छोटेका फेरूला (Ferala) था। रोमके न्यायालय और वहाँकी महिलाओंके कमरे हम इन्हीं तीनों भाइयोंसे सुसज्जित रहते थे। अपराधियोंपर न्यायाधीशोंकी असीम क्षमता और प्रभुता थी। अनेक बार प्रभु या प्रभु-पत्नियाँ, दयाके वशवर्ती होकर, हमारी सहायतासे अपने दासोंके दुःखमय जीवनका अन्त कर देती थीं। भोजके समय, आमन्त्रित लोगोंको प्रसन्न करनेके लिए, दासोंपर कशाघात करनेकी पूर्ण व्यवस्था थी। दासियोंको तो एक प्रकारसे नङ्गीही रहना पड़ता था। वस्त्राच्छादित रहनेसे वे शायद कशाघातोंका स्वादु अच्छी तरह न ले सकें। इसीलिए ऐसी व्यवस्था थी। यहींपर तुम हमारे प्रभावका कहीं अन्त न समझ लेना। दासियोंको एक और भी उपायसे दण्ड दिया जाता था। छतकी कड़ियोंसे उनके लम्बे-लम्बे बाल बाँध दिये जाते थे। छतसे लटक जानेपर उनके पैरोंसे कोई भारी चीज़ बान्ध दी जाती थी, ताकि वे पैर न हिला सकें। यह प्रबन्ध हो चुकने पर उनके अङ्गोंकी परीक्षा करनेके लिए हमारी योजना होती थी। यह सुनकर शायद तुम्हारा दिल दहल उठा होगा और तुम्हारा बदन काँपने लगा होगा। पर हम तो बड़े ही प्रस सा ही दण्ड दासोंको भी दिया जाता था। परन्तु बालोंके बदले उनके हाथ बाँधे जाते थे।
इससे तुम समझ गये होगे कि रोमकी महिलाएं हमाग कितना आदर करती थीं। परन्तु यह बात वहाँके कर्तृपक्षको असह्य हो उठी। उन्होंने कहा—इस दण्ड-देवका इतना आदर! उन्होंने हमारी इस उपयोगितामें विघ्न डालनेके लिए कोई क़ानून बना डाले। सम्राट् आड्रियनके राजत्व-कालमें इस क़ानूनको तोड़नेके अपराधमें एक महिलाको पाँच वर्षका देश-निर्वासन दण्ड मिला था। अस्तु।
अब हम जर्मनी, फ्रांस, रूस, अमेरिका आदिका कुछ हाल सुनाते हैं। ध्यान लगाकर सुनिये। इन सब देशोंके घरों, स्कूलों और अदालतोंमें भी पहले हमारा निश्चल राज्य था। इनके सिवा संस्कारघरों (Houses of Correction) में भी हमारी षोडशोपचार पूजा होती थी। इन संस्कार-घरों अथवा चरित्र-सुधार-घरोंमें चरित्र और व्यवहार-विषयक दोषोंका सुधार किया जाता था। अभिभावक जन अपनी दुश्चरित्र स्त्रियों और अधीनस्थ पुरुषों को इन घरों में भेज देते थे। वहाँ वे हमारीही सहायता—हमारेही आघात—से सुधारे जाते थे।
जर्मनीमें तो हम पहले अनेक रूपोंमें विद्यमान थे। हमारे रुप थे कशादण्ड, वेत्रदण्ड, चर्म्मदण्ड आदि। कोतवालों और न्यायाधीशोंको कशाघात करनेके अख़तियारात हासिल थे। संस्कार-घरोंमें हतभागिनी नारियोंहीकी संख्या अधिक होती थी। वहाँ बहुधा निरपराधिनी रमणियोंको भी, दुष्टोंके फ़न्देमें फँसकर, कशाघात सहने पड़ते थे। पहले वे नङ्गी कर डाली जाती थीं। तब उनपर बेत पड़ते थे। जर्मन-भाषाके ग्रन्थ-साहित्यमें इस कशावातका उल्लेख सैकड़ों जगह पाया जाता है।
फ्राँसमें भी हमने मनमाना राज्य किया है। वहाँके विद्यालयों में, किसी समय, हमारा बड़ा प्रभाव था। विद्यालयोंमें कोमलकलेवरा बालिकाओंको भी हमें चूमना पड़ता था। यहाँतक कि उन्हें हमारा प्रयोग करनेवालोंका अभिवादन भी करना पड़ता था। फ्रांसमें तो हमने पवित्रहृदया कामिनियों के कर-कमलों को भी पवित्र किया था। आपको इस बातका विश्वास न हो तो एक प्रमाण लीजिये। "रोमन डि-लारोज़" नामक काव्यमें कविवर क्लपिनेलेने स्त्रियोंके विरुद्ध चार सतरें लिख मारी हैं। उनका भावार्थ कवि पोपके शब्दोंमें है— "Every woman is at heart a rake" इस उक्ति को सुनकर कुछ सम्माननीय महिलाएं बेतरह कुपित हो उठीं। एक दिन उन्होंने कविको अपने कब्ज़े में पाकर उसे सुधारना चाहा। तब यह देखकर कि इनके पञ्जेसे निकल भागना असम्भव है, कविने कहा—"मैंने ज़रूर अपराध किया है। अतएव मुझे सज़ा भोगनेमें कुछ भी उज्र नहीं। पर मेरी एक प्रार्थना है। वह यह कि उस उक्तिको पढ़कर जिस महिलाको सबसे अधिक बुरा लगा हो वही मुझे पहले दण्ड दे"। इसका फ़ैसिला कोई स्त्री न कर सकी। फल यह हुआ कि कवि पिटनेसे बच गया।
रूसमें भी हमारा आधिपत्य रह चुका है। वहाँ तो सभी प्रकारके अपराध करनेपर साधारण दण्ड या कशादण्डले प्रायश्चित कराया जाता था। क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या बालक, क्या वृद्ध, क्या राजकर्मचारी, क्या साधारण जन सभीको, अपराध करनेपर, हमारा अनुग्रह ग्रहण करना पड़ता था। किसान तो हमारी कृपाके सबसे अधिक पात्र थे। उनपर तो, जो चाहता था वही, निःशङ्क और निःसङ्कोच, हमारा प्रयोग करता था। हमारा प्रसाद पाकर वे बेचारे चुपचाप चल देते थे और अपना क्रोध अपनी पत्नियों और पशुओंपर प्रकट करते थे। रूसके अमीरों और धनवानोंसे हमारी बड़ी ही गहरी मित्रता थी। दोष-दमन करनेमें वे सिवा हमारे और किसीकी भी सहायता, कभी भूलकर भी, न लेते थे। उनका ख़याल था कि अपराधियोंको अधमरा करनेके लिए ही भगवान्ने हमारी सृष्टि की है।
रूसमें तो, पूर्वकालमें, दण्डाघात प्रेमका भी चिह्न माना जाता था। विवाहिता बधुएं अपने पतियोंसे हमींको पानेके लिए सदा लालायित रहती थीं। यदि स्वामी, बीच-बीच में अपनी पत्नीका, दण्ड-दान-नामक आदर न करता तो पत्नी समझती कि उसके स्वामीका प्रेम उसपर कम होता जा रहा है। यह प्रथा केवल नीच या छोटे लोगोंहीमें प्रचलित न थी, बड़े-बड़े घरोंमें भी इसका पूरा प्रचार था। बर्कले नामके लेखकने लिखा है कि रूसमें दण्डाघातोंकी न्यूनाधिक संख्याहीसे प्रेमकी न्यूनाधिकताकी माप होती थी। इसके सिवा स्नानागारों में भी हमारा प्रबल प्रताप छाया हुआ था। स्नान करनेवालोंका समस्त शरीर ही हमारे अनुग्रहका पात्र बनाया जाता था। स्टिफेंस साहबने इसका विस्तृत विवरण लिख रक्खा है। विश्वास न हो तो उनकी पुस्तक देख लीजिये।
हमारे सम्बन्धमें तुम अमेरिकाको पिछड़ा हुआ कहीं मत समझ बैठना। वहाँ भी हमारा प्रभाव कम न था। बालकों और बालिकाओंका गार्हस्थ्य जीवन कहाँ हमारे ही द्वारा नियन्त्रित होता था। प्यूरिटन नामके क्रिश्चियन-धर्मसम्प्रदायके अनुयायियों के प्रभुत्वके समय लोगोंको बात-बातमें कशाघातकी शरण लेनी पड़ती थी। क्वेकर-सम्प्रदायको देशसे दूर निकालनेमें अमेरिका निवासियोंने हमारी खूब ही सहायता ली थी। हमारा प्रयोग बड़े ही अच्छे ढङ्गसे किया जाता था। काठके एक तख़्तेपर अपराधी बाँध दिया जाता था। फिर उसपर सड़ासड़ बेत पड़ते थे।
अफ़रीकाकी तो कुछ पूछिये ही नहीं। वहाँ तो पहले भी हमारा अखण्ड राज्य था और अब भी है। यही एक देश ऐसा है जिसने हमारे महत्त्वको पूर्णतया पहचान पाया है। बच्चोंकी शिक्षासे तो हमारा बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध था। वहाँके लोगोंका विश्वास था कि हमारा आगमन स्वर्गसे हुआ है और हम ईश्वरके आशीर्वादरूप हैं। हम नहीं, तो समझना चाहिये कि परमेश्वर ही रूठा है। मिस्रवाले तो इस प्रवादपर आँख-कान बन्द करके विश्वास करते थे। वहाँके दीनवत्सल महीपाल प्रजावर्गको इस आशीर्वादका स्वाद बहुधा चखाया करते थे। इस राज्यमें बिना हमारी सहायताके राज-कर वसूल होना प्रायः असम्भव था। मिस्रके निवासी राजाका प्राप्य अंश, कर, अदा करना न चाहते थे। इस कारण हमें उनपर सदाही कृपा करनी पड़ती थी। उनकी पीठपर हमारे जितने ही अधिक चिह्न बन जाते थे वे अपनेको उतने ही अधिक कृतज्ञ या कृतार्थ समझते थे।
अफ़रीकाकी असभ्य जातियोंमें स्त्रियोंके ऊपर हमारा बड़ा प्रकोप रहता था। ज्योंही स्वामी अपनी स्त्रीके सतीत्व-रत्नको जाते देखता था त्योंही वह हमारी पूर्ण तृप्ति करके उस कुलकलङ्किनीको घरसे निकाल बाहर करता था। कभी-कभी स्त्रियाँ भी हमारी सहायतासे अपने-अपने स्वामियोंकी यथेष्ट ख़बर लेती थीं। अगर पश्चिमी प्रान्तोंमें यद्यपि बालक-बालिकाओंपर हमारा विशेष प्रभाव न था तथापि उन्हें हमसे भी अधिक प्रभावशाली व्यक्तियों का सामना करना पड़ता था। नटखट और दुष्ट लड़कों और लड़कियोंकी आँखों में लाल मिर्च मल दी जाती थी। वे बेचारे इस योजनाका कष्ट सहन करनेमें असमर्थ होकर घंटों छटपटाते और चिल्लाते थे। वयस्कोंको तो इससे भी अधिक यातनाएं भोगनी पड़ती थीं। वे पहले पेड़ोंकी डालोंसे लटका दिये जाते थे। फिर वे खूब पीटे जाते थे। देह लोहू-लोहान हो जानेपर उसपर सर्वत्र लाल मिर्चका चूर्ण मला जाता था। याद रहे, ये सब पुरानी बातें हैं। आजकलकी बातें हम नहीं कहते; क्योंकि हमारे प्रयोगमें यद्यपि इस समय कुछ परिवर्तन हो गया है, तथापि हमारा कार्यक्षेत्र घटा नहीं, बढ़ा ही है।
तुम्हारे एशिया-खण्डमें भी हमारा राज्य दूर-दूरतक फैला रहा है। एशिया कोचक (एशिया माइनर) के यहूदियोंमें, किसी समय, हमारी बड़ी धाक थी। वहाँ हमारा प्रताप बहुत ही प्रबल था। ईसाई-धर्म फैलानेमें सेंटपाल नामक धर्माचार्य्यने बड़े-बड़े अत्याचार सहे हैं। वे ४९ दफ़े कशाहत और ३ दफ़े दण्डाहत हुए थे। बाइबिलमें हमारे प्रयोगका उल्लेख सैकड़ों जगह आया है।
यहूदियोंकी तरह पारसियोंमें भी हमारा विशेष आदर था। क्या धनी, क्या निर्धन सभीकों, यदा-कदा, डण्डोंकी मार सहनी पड़ती थी। यह चाल बहुत समय तक जारी रही। तदनन्तर वह बदल गयी। तब माननीय मनुष्योंके शरीरकी जगह उनके कपड़ोंपर कोड़े लगाये जाने लगे।
चीनमें तो हमारा आधिपत्य एक छोरसे लेकर दूसरे छोरतक फैला हुआ था। ऐसा एक भी अपराधी न था जिसे सज़ा देने में हमारा प्रयोग न होता रहा हो। उच्च राज-कर्म्मचारियोंसे लेकर दीन-दुखी भिखारियोंतकको, अपराध करनेपर, हमारे अनुग्रहका अनुभव प्रत्यक्षरूपसे करना पड़ता था। डण्डकी मार खानेमें, उस समय, चीनी लोग अपना अपमान न समझते थे। हाँ, हमारे कृपा-कटाक्षसे उन्हें जो यन्त्रणा भोगनी पड़ती थी उसे वे ज़रूर नापसन्द करते थे। बड़े-बड़े सेना-नायक और प्रान्तशासक हमारे कठोर अनुग्रहको प्राप्त करके भी अपने उच्च पदोंपर प्रतिष्ठित रहते थे। चीनमें अपराधियों ही तक हमारे कोपकी सीमा बद्ध न थी। कितने ही निरपराध जन भी हमारे स्पर्श-सुखका अनुभव करके ऐसे गद्गद हो जाते थे कि फिर जगहसे उठतक न सकते थे। हमारी पहुँच बहुत दूर-दूरतक थी। चोरों, डाकुओं और हत्यारों आदिको जब कोतवाल और पुलिसके अन्य प्रतापी अफ़सर न पकड़ सकते थे तब वे हमारी शरण आते थे। उस समय हम उनपर ऐसा प्रेम दरसाते थे कि उछल-उछलकर उनकी देहपर जा पड़ते थे। चीनकी पुरानी अदालतोंमें जितने अभियुक्त और गवाह आते थे वे बहुधा बिना हमारा प्रसाद पाये न लौट सकते थे।
चतुर और चाणाक्ष चीनके अद्भत क़ानूनकी बात कुछ न पूछिये। वहां अपराधके लिए अपराधी ही ज़िम्मेदार नहीं। उसके दूरतकके सम्बन्धी भी जिम्मेदार समझे जाते थे। जो लोग इस जिम्मेदारीका ख़याल न करते थे उन्हें स्वयं हम पुरस्कार देते थे। चीनमें एक सौ परिवारोंके पीछे एक मण्डलकी स्थापना होती थी। उसकी ज़िम्मेदारी भी कम न होती थी। अपने फिरकेके सौ कुटुम्बोंका यदि कोई व्यक्ति कोई अपराध करता तो उसके बदलेमें मण्डल सज़ा पाता था। देव-सेवाके लिए रक्खे गये शूकर-शावक यदि बीमार या दुबले हो जाते तो प्रतिशावकके लिए तत्त्वावधायकपर पचास डण्डे लगते थे।
चीनकी विवाह-विधिमें भी हमारी विशेष प्रतिपत्ति थी। पुत्रकन्याकी सम्मति लिये बिना ही उनका पहला पाणिग्रहण करानेका अधिकार माता-पिताको प्राप्त था। परन्तु दूसरा विवाह वे न करा सकते थे। यदि वे इस नियमका उल्लङ्घन करते तो उनपर तड़ातड़ अस्सी डण्डे पड़ते थे। विवाह-सम्बन्ध स्थिर करके यदि कन्याका पिता उसका विवाह किसी और वरके साथ कर देता तो उसे भी अस्सी डण्डे खाने पड़ते। जो लोग अशौच-कालमें विवाह कर लेते थे उनकी पूजा पूरे एक सौ दण्डाघातोंसे की जाती थी। स्वामीके जीवन-कालहीमें जो रमणियाँ सम्राट् द्वारा सम्मानित होतीं, वे, विधवा होनेपर, पुनर्विवाह न कर सकती थीं। यदि कोई अभागिनी इस क़ानूनको तोड़ती तो उसे पुरस्कृत करनेके लिए हमें सौ बार उसके कोमल कलेवरका चुम्बन करना पड़ता।
ये हुईं पुरानी बातें। अपना नया हाल सुनाना हमारे लिए, इस छोटेसे लेखमें, असम्भव है। अब यद्यपि हमारे उपचारके ढंग बदल गये हैं और हमारा अधिकार-क्षेत्र कहीं-कहीं सङ्कुचित हो गया है, तथापि हमारी पहुँच नयी-नयी जगहोंमें हो गयी है। आजकल हमारा आधिपत्य केन्या, ट्रांस्वाल, केपकालनी आदि विलायतोंमें सबसे अधिक है। वहाँके गोरे कृषक हमारी ही सहायतासे हबशी और भारतवर्षी कुलियोंसे बारह-बारह, सोलह-सोलह घण्टे काम कराते हैं। वहाँ काम करते-करते, हमारा प्रसाद पाकर, अनेक सौभाग्यशाली कुली, समयके पहले ही, स्वर्ग सिधार जाते हैं। फीज़ी, जमाइका, गायना, मारिशश आदि टापुओंमें भी हम खूब फूल-फल रहे हैं। जीते रहें गन्ने की खेती करनेवाले गौरकाय विदेशी। वे हमारा अत्यधिक आदर करते हैं; कभी अपने हाथसे हमें अलग नहीं करते। उनकी बदौलत ही हम भारतीय कुलियोंकी पीठ, पेट, हाथ आदि अङ्गप्रत्यङ्ग छू-छकर कृतार्थ हुआ करते हैं—अथवा कहना चाहिये कि हम नहीं, हमारे स्पर्शसे वही अपनेको कृतकृत्य मानते हैं। अण्डमन टापूके क़ैदियोंपर भी हम बहुधा ज़ोर-आज़माई करते हैं। इधर भारतके जेलोंमें भी, कुछ समयसे, हमारी विशेष पूछ-पाछ होने लगी है। यहाँतक कि एम॰ ए॰ और बी॰ ए॰ पास क़ैदी भी हमारे संस्पर्शसे अपना परित्राण नहीं कर सकते। कितने ही असहयोगी क़ैदियोंकी अक्ल हमींने ठिकाने लगायी है।
हम और सब कहींकी बातें तो बता गये, पर इँगलेंडके समाचार हमने एक भी नहीं सुनाये। भूल हो गयी। क्षमा कीजिये। ख़ैर तब न सही अब सही। सूदमें अब हम भारतवर्षका भी कुछ हाल सुना देंगे। सुनिये—
लक्ष्मी और सरस्वतीकी विशेष कृपा होनेसे इँगलैंड अब उन्नत और सभ्य हो गया है। ये दोनों ठहरी स्त्रियाँ। और स्त्रियाँ बलवानोंहीको अधिक चाहती हैं, निर्बलोंको नहीं। सो बलवान् होना बहुत बड़ी बात है। सभ्यता और उन्नतिका विशेष आधार पशुबल ही है। हमारी इस उक्तिको सच समझिये और गाँठमें मज़बूत बाँधिये। सो सभ्य और समुन्नत होनेके कारण इँगलेंडमें अब हमारा आदर कम होता जाता है। तिसपर भी कशादण्डका प्रचार वहाँ अब भी खूब है। कोड़े वहाँ अब भी खूब बरसते हैं। वहाँके विद्यालयोंमें हमारी इस मूर्त्तिकी पूजा बड़े भक्ति-भावसे होती है। हमारा प्रभाव घोड़ेकी पीठपर जितना देखा जाता है उतना अन्यत्र नहीं। इसके सिवा सेनामें भी हमारा सम्मान अभीतक थोड़ा-बहुत बना हुआ है।
भारतवर्षमें तो हमारा एकाधिपत्यहीसा है। भारत अपाहिज है। इसीलिए भारतवासी हमारी मूर्त्तिको बड़े आदरसे अपनी छातीसे लगाये रहते हैं। वे डरते हैं कि ऐसा न हो जो कहीं धन-मानकी रक्षाका एक-मात्र बचा-खुचा यह साधन भी छिन जाय। इसीसे हमपर उन लोगोंका असीम प्रेम है। भारतवासी असभ्य और अनुन्नत होनेपर भी विलासप्रिय कम हैं। इसीलिए वे ऋषियों और मुनियों द्वारा पूजित हम दण्डदेवके आश्रयमें रहना ही श्रेयस्कर समझते हैं। शिक्षकोंका बेत या क़मची, सवारोंका हण्टर, कोचमैनोंका चाबुक, गाड़ीवानोंकी औगी या छड़ी, शुहदोंके लट्ठ, शौकीन बाबुओंकी पहाड़ी लकड़ी, पुलिसमैनोंके डण्डे, बूढ़े बाबाकी कुबड़ी, भँगेड़ियोंके भवानीदीन और लठैतोंको लाठियाँ आदि सब क्या हैं? ये सब हमारे ही तो रूप हैं। ये सभी शासन-कार्यमें सहायक होते हैं। भारतमें ऐसे हज़ारों आदमी हैं जिनकी जीविकाके आधार एक-मात्र हम हैं। थाना नामके देवस्थानोंमें हमारी ही पूजा होती है। हमारी कृपा और सहायताके बिना हमारे पुजारी (पुलिसमैन) एक दिन भी अपना कर्तव्यपालन नहीं कर सकते। भारतमें तो एक भी पहले दरजेका मैजिस्ट्रेट ऐसा न होगा जिसकी अदालतके अहातेमें हमारे उपयोगकी योजनाका पूरा-पूरा प्रबन्ध न हो। जेलों में भी हमारी शुश्रूषा सर्वदा हुआ करती है। इसीसे हम कहते हैं कि भारतमें तो हमारा एकाधिपत्य है।
बहुत समय हुआ, हमने अपने अपूर्व, अलौकिक और कौतूहलोद्दीपक चरितका सारांश "प्रदीप" के पाठकोंको सुनाकर उन्हें मुग्ध किया था। उसे बहुत लोग शायद भूल गये हों। इससे उसकी पुनरावृत्ति आज हमें करनी पड़ी। पाठक, हम नहीं कह सकते कि हमारा यह चारु चरित सुनकर आप भी मुग्ध हुए या नहीं। कुछ भी हो, हमने अपना कर्तव्य कर दिया। आप प्रसन्न हों या न हों, पर इससे हम कितने प्रसन्न हैं, यह हम लिख नहीं सकते!
[मार्च १९२४]
समाप्त