लेखाञ्जलि/१८—किसानों का संघटन
१८—किसानोंका संघटन।
बिखरी हुई चीज़ोंकी व्यवस्था करना, उन्हें एक सूत्रमें बाँधना, नियमपूर्वक उन्हें किसी क्रमसे रखना सङ्गठन (सङ्घटन) कहाता है। संहित और समाहार शब्द जिस अर्थमें प्रयुक्त होते हैं उसी अर्थमें, आजकल, सङ्गठनका प्रयोग होता है। किसी कार्यविशेषकी सिद्धि अथवा किसी फल-विशेषकी प्राप्तिके लिए कुछ मनुष्योंका समुदाय यदि नियमानुसार परस्पर सम्बद्ध हो जाय—आपसमें मिल जाय अर्थात् एका कर ले—तो कहेंगे कि उन लोगोंने अपना सङ्गठन कर लिया—वे परस्पर गँठ गये। इस एके, इस सङ्गठन, इस गँठ जानेमें बड़ा बल है। जिन बिखरी हुई चीजोंका कुछ भी महत्त्व नहीं—जो छूनेसे भी टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाती हैं—वही जब परस्पर गँठ जाती हैं तब उनमें अद्भुत शक्तिका सञ्चार हो जाता है। सङ्गठन-व्यवस्थाकी महिमाका विशेष ज्ञान यद्यपि हमें पश्चिमी देशोंहीकी बदौलत अधिक हुआ है और यद्यपि वहीं उसका प्रबल प्रताप भी देखने में आता है, तथापि उसके महत्वसे भारतवासी न तो पहलेही कभी अनभिज्ञ थे और न आज-कल ही अनभिज्ञ हैं। पुराने पण्डितोंने लिख रक्खा है—
तृणैर्गुणत्वमापन्नैर्बध्यन्ते मत्तदन्तिनः
तृणके पतले-पतले टुकड़े उँगलीका झटका लगते ही खण्ड-खण्ड हो जाते हैं; परन्तु यदि गाँठकर उन्हींका मोटा रस्सा बना लिया जाता है तो मतवाले हाथीतक उससे बांधे जा सकते हैं और बाँध लिये जानेपर वे अपनी जगहसे तिलभर भी नहीं हट सकते।
सङ्गठनकी महत्ता और शक्तिमत्ताका यह हाल है कि उसकी कृपासे इंग्लिस्तानके मज़दूर अभी हालहीमें, ८ महीने तक, उस देशका, तथा उसके अधीनस्थ अन्य देशोंका भी, शासन कर चुके हैं। जो लोग हज़ारों हाथ गहरी खानोंके भीतर कोयला खोदते थे, जो लोग एंजिनोंमें ईंधन झोंकते थे, जो स्टेशनों और बन्दरगाहोंपर बार-बरदारी करते थे, जो बढ़ई, लुहार, मेमार आदिका काम करके अपनी जीविकाका निर्वाह करते थे उन्होंने सङ्गठन करके वहाँके शासनका सूूत्र बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों, नीतिनिपुणी, व्यवसायियों और लखपतियोंसे छीनकर अपने हाथमें कर लिया था।
उधर रूसको देखिये। वह बहुत बड़ा देश है। कई वर्ष पूर्व वहाँके जार-नामधारी राजेश्वरका आतंक वहीं नहीं, भू-मण्डलके अन्याय देशोंमें भी छाया हुआ था। उन्हीं सर्व-शक्तिमान् सत्ताधीश की सत्ताहीका नहीं, उनके वंशतकका, नामोनिशान मिटाकर, रूसके किसान और सैनिक अब स्वयं ही वहाँका शासन कर रहे हैं। यह सारी करामात सङ्गठनकी है। वहाँके किसान और सैनिक आपसमें गँठ गये। उन्होंने कहा, जो जुल्म हमपर हो रहे हैं उनका एकमात्र कारण यहाँकी बिगड़ी हुई शासन-व्यवस्था है। उसे तोड़ देना चाहिये। यह निश्चय करके उन्होंने अपना ऐसा संगठन किया जिसकी बदौलत उनका साध्य सिद्ध हो गया।
सङ्गठनकी महिमा जानकर भी हमलोग, भारतवासी, दुर्भाग्य तथा अन्य कई कारणोंसे भी, फूटका शिकार हो रहे हैं। हिन्दू मुसलमानोंसे फूटकर अलग रहना चाहते हैं, मुसलमान हिन्दुओंसे। यहीं तक नौबत रहती तो बात बहुत न बिगड़ती। यहाँ तो एकधर्म्मावलम्बी भी आपसमें लड़ते-झगड़ते और एक-दूसरेका सिर फोड़ते हैं। शिया-सुन्नीकी नहीं पटती, ब्राह्मण-अब्राह्मणकी नहीं पटती, शाक्त-शैवकी नहीं पटती। इस पारस्परिक संघर्षण और फूटसे अपनीही नहीं, सारे देश और सारे समाजकी हानि हो रही है। उधर हमारी इस मूर्खता और दुर्बलताकी बदौलत चैनकी वंशी और ही लोग बजा रहे हैं। इसका कारण हमारी अविद्या, हमारा अज्ञान, हमारी अदूरदर्शिता और हमारा अविवेक है। एककी नहीं, इन चारोंकी चौकड़ीसे हमारा पिण्ड तभी छूटेगा जब हमारे कृतविद्य, सज्ञान, दूरदर्शी और विवेकशील देशवासी हमें, अपने उदाहरणसे, एकता और सङ्गठनका महत्व सिखानेकी उदारता दिखावेंगे।
विवेक, दूरदर्शिता, हिताहित-विचारकी शक्ति शिक्षितोंहीमें अधिक होनी चाहिये और शिक्षित मनुष्य ही सङ्गठनकी महिमा अधिक समझ सकते हैं। परन्तु दैवदुर्विपाकसे यहाँके अनेक सुशिक्षित भी स्वार्थ और धर्म्मान्धताके शिकार हो रहे हैं। उनकी प्रेरणासे वे भी परस्पर मिलकर बहुधा कोई काम नहीं करते। इससे जो हानि हो रही है वह प्रत्यक्ष ही है। उसपर विशद रूपसे टीका-टिप्पणी करनेकी ज़रूरत नहीं।
अच्छा तो जब शिक्षितोंका यह हाल है तब अशिक्षितोंका कहना ही क्या। वे बेचारे तो अज्ञानके अन्धकूपमें पड़े हुए अपने दुभाग्यको रो रहे हैं। संगठन करनेकी शक्ति उनमें कहाँ। इन अशिक्षितोंका अधिकांश देहातमें रहता है। और देहाती ही खेती अधिक करते हैं। इन खेतिहरोंकी संख्या किसीने फ़ी सदी ९०, किसीने ८०, किसीने ७५ निश्चित की है। पिछली संख्याको मर्दुमशुमारीके प्रधान सरकारी अफसरने भी ठीक माना है। अतएव यह कहना चाहिये कि इस देशकी आबादीका अधिक हिस्सा देहातहीमें रहता है और ७५ फ़ी सदी मनुष्य खेती करके ही किसी तरह अपना पेट पालते हैं। इन खेतिहरोंकी आर्थिक अवस्था अत्यन्त क्षीण है। उन्हें मुश्किलसे एक वक्त रोटी मिलती है। जो शासक शिमला और नैनीताल, बम्बई और कलकत्ते में बैठे हुए भारतकी सधनता—वृद्धिका स्वप्न देखा करते हैं, पर जिन्होंने अपने शासनकालमें कभी एक दफे भी गाँवोंमें जाकर इन लोगोंकी आर्थिक अवस्थाका निरीक्षण नहीं किया, उनकी बातोंको प्रलाप-मात्र समझकर उनपर ध्यान न देना चाहिये। यह निश्चित है कि इस देशकी आबादीका कम-से-कम ७५ फ़ी सदी अंश दारुण दारिद्र भोग कर रहा है।
यह देश इने-गिने अंगरेजी पढ़े हुए वकीलों, बारिस्टरों, मास्टरों, इन्स्पेक्टरों, दफ़्तरके बाबुओं, कौंसिलके मेम्बरों, महाजनों और व्यवसायियोंहीसे आबाद नहीं। आबाद है वह उन लोगोंसे जिनकी संख्या फ़ी सदी ७५ है, जो देहातमें रहते हैं और जो विशेष करके खेतीसे अपना गुजर-बसर करते हैं। अब यदि जन-समुदायकी यह इतनी बड़ी संख्या दुःख, दारिद्र और मूर्खताके पङ्कमें पड़ी सड़ा करे और समर्थ देशवासी उनके उद्धारकी चेष्टा न करें तो कितने परितापकी बात है। इन्हीं किसानों या काश्तकारोंहीसे तो देश आबाद है। इन्हींकी दशा यदि हीन है तो समझना चाहिये कि सारे ही देशको कम-से-कम ३/४ देशकी तो ज़रूर ही हीन है। परन्तु, हाय, यह इतनी मोटी बात हमारे ध्यानमें नहीं आती और हममेंसे जो समर्थ हैं वे भी इन लोगोंकी तकलीफें दूर करने का यथेष्ट प्रयत्न नहीं करते।
खेतिहरोंका व्यवसाय या पेशा खेती करना है और खेती खेतोंमें होती है। इन प्रान्तोंमें जितनी ज़मीन खेती करने लायक़ है, कुछको छोड़कर बाक़ी सभीके मालिक ज़मींदार, तअल्लुकेदार, नम्बरदार और राजा-रईस बने बैठे हैं। वे क़ाश्तकारोंसे ख़ूब कसकर लगान लेते हैं, उसे समय-समयपर बढ़ाते भी हैं और कारण उपस्थित हो जानेपर उन्हें उनके खेतोंसे बेदख़ल भी कर देते हैं। इस सम्बन्धमें क़ानून जो बने हैं वे काश्तकारोंके सुभीतेके कम और ज़मींदारोंके सुभीतेके अधिक हैं। अतएव जिस ज़मीनके ऊपर काश्तकारों का जीना-मरना अवलम्बित है उसके लगान आदिके नियन्त्रणके नियम सुभीतेके न होनेके कारण कभी-कभी काश्तकारोंकी बड़ी ही दुर्गति होती है।
सभी क़ानून लेजिस्लेटिव कौंसिलके मेम्बरोंकी सलाहसे बनते हैं। किसानोंको भी, निर्दिष्ट नियमोंके अनुसार, मेम्बर चुननेका अधिकार है। परन्तु सबसे अधिक दुःख, खेद, सन्ताप और परितापकी बात यह है कि जो लोग किसानोंके प्रतिनिधि होकर कौंसिलके मेम्बर हुए हैं उनमेंसे अधिकांश मेम्बरोंने अबतक अपने कर्तव्यका पूर्ण पालन नहीं किया। ये लोग बहुधा अपने एजंटोंके द्वारा किसानोंको फुसलाकर और उन्हें सब्ज बाग़ दिखलाकर उनसे अपने लिए वोट ले लेते हैं, पर काम निकल जानेपर किसी किसानकी भेजी हुई चिट्ठीका जवाब तक नहीं देते, उसकी शिकायत नहीं सुनते और उसके हिताहितका विचार ताक़पर रखकर अपने अन्य कामोंके नशेमें मस्त रहते हैं। इस तरह वे अपनी प्रतिज्ञाका पालन न करके, पाप-संचय करते हैं, और प्रकारान्तरसे देश या प्रान्तके ३/४ अंशको दुःख-दारिद्रके गढ़ में पड़ा रखकर उन्हें उससे निकालनेका प्रयत्न न करके—प्रायः सारेदेशको हानि पहुँचाते हैं। इनको चाहिये कि जिनके ये प्रतिनिधि हैं उनके गांवोंमें दौरा करके अपनी आँखोंसे उनकी दशा या दुर्दशाको देखें और उनके हितके काम करके उनकी दशाको सुधारें। न सुधार सकें तो सुधारनेका उद्योग तो करें। पर इन भले-मानुसोंको अपनी वकालत, बारिस्टरी, मास्टरी आदिसे फुरसत कहाँ? जिस समय कौंसिलमें किसानोंके सम्बन्धकी किसी बातपर बहस होती है उस समय उनके कोई-कोई प्रतिनिधि तो हाज़िर तक नहीं रहते! कर्तव्यकी इस अवहेलनाके लिए भगवान् इन्हें क्षमा करे।
पिछले कौंसिलकी जिन बैठकोंमें अवधका नया क़ानून लगान बना था उनकी काररवाई देखिये। किसानोंके कुछही इने-गिने प्रतिनिधियोंने उनकी तरफ़से बहस करके उनके मतलबकी बातें कहीं। बाकीके मेम्बर केवल कौंसिलके कमरेकी शोभा बढ़ाते रहे। यह तो इन प्रतिनिधियोंके कर्तव्यपालनका हाल है। किसान इतने अज्ञ और इतने मूर्ख हैं कि उन्होंने कुछ ज़मींदारों या तअल्लुकेदारोंको भी अपना प्रतिनिधि क़रार दिया था। इन दोनोंके हितोंका प्रायः वही सम्बन्ध रहता है जो छत्तीस (३६) के अड्डोंमें तीन और छः का होता है। नतीजा यह हुआ कि किसानोंके अधिकांश प्रतिनिधियोंकी अकर्मण्यता और तअल्लुक़ेदारोंकी कृपाकी बदौलत उस क़ानूनमें कुछ ऐसी तरमीमें हो गयीं जो किसानोंके लिए बहुत ही घातक हैं। उदाहरणके लिए दफा ६२ (अ) और ८८ (अ) देखिये। इन दफ़ाओंकी सहायतासे, दो वर्षसे अधिकके लिए, यदि कोई किसान अपने जोतमेंसे चावलभर भी ज़मीन शिकमी उठा दे तो वह बेदख़ल किया जा सकता है। यह नियम अवधके कोई ५० सदी किसानोंके लिए घातक और ज़मींदारोंके लिए तरह-तरहसे लाभदायक है; क्योंकि अवधमें उच्च कुलके अधिकांश किसान हल-बैल नहीं रखते। वे अपना जोत औरोंको शिकमी उठा देते हैं और इस तरह जो आधा अन्न और चारा उन्हें मिल जाता है उसीसे सन्तोष करते हैं। ऐसे सभी किसानोंको बेदखल़ करके उनकी जीविका अपहरण करनेका दरवाज़ा अब खुल गया है। गवर्नमेंट यह बखूबी जानती है कि नयी तरमीमोंमेंसे कुछ तरमीमें ऐसी हैं जो किसानोंपर ग़जब ढानेवाली हैं। इसीसे रेवेन्यू बोर्डने अवधके डिपटी कमिश्नरोंको दफ़ा ६२ (अ), ६७ और ६८ (अ) के मुतल्लिक कुच हिदायतें की हैं। वे इस मतलबसे की गयी हैं कि किसानोंपर ज़ियादह सख़्ती न की जाय। यह बात कोर्ट आफ वार्डस्की पिछली (१९२२-२३) की रिपोर्ट में बोर्ड आफ् रेवेन्यूके सेक्रेटरीने खुद ही क़बूल की है। उन्होंने लिखा है— "In order to prevent undue pressure from being brought on the tenants of Oudh estates by Subordinate officials and in order to modify the severity of the sections, the Board have recently issued executive instructions to all Deputy Commissioners regarding the policy to be followed in sanctioning ejectments under sections 62A, and 65A of the Oudh Rent Act as amended."
क़ानून बनाते समय तो, शायद तअल्लुक़ेदारोंके मुलाहज़ेमें आकर, गवर्नमेंट चुप रही—उसने ये सब दफाएं "पास" हो जाने दीं। अब पीछेसे वह उनकी सख़्ती कम करने चली है। परन्तु करेगी वह कहाँतक कम। १९२२-२३ में कोई एक हज़ार बेदखलियाँ फिर भी किसानोंके ऊपर अदालतोंमें दायर हो ही गयीं। यह संख्या गवर्नमेंटने कौंसिलमें २४ मार्च १९२४ को, प्रश्न नम्बर ३२ के उत्तरमें, बतानेकी कृपा की है। यदि किसान सङ्गठित होते और वे ऐसे ही प्रतिनिधियोंको कौंसिलमें भेजते जो अपने कर्तव्यका पालन दृढ़तापूर्वक करते तो यह दुरवस्था कदापि न होती और उनके मुँहकी रोटी छीनी जानेका उपक्रम इतनी निर्दयतासे कदापि न होता। किसानोंके प्रतिनिधियोंमें बहुतेरे ऐसे भी निकलेंगे जिन्होंने अबतक भी अवधके क़ानून लगानको एक बार भी न पढ़ा होगा।
नये, अर्थात् वर्तमान, कौंसिलमें जो लोग किसानोंके प्रतिनिधिकी हैसियतसे गये हैं वे भी अपना कर्तव्य-पालन करते नहीं दिखायी देते। अवधके नये क़ानून-लगानमें जो बातें किसानोंके प्रतिकूल हैं उन्हें मंसूख़ करानेकी कोशिश उन्हें करनी चाहिये थी। पर आज तक किसीने भी कोई चेष्टा ऐसी नहीं की। और यदि की भी हो तो उसका पता सर्वसाधारणको नहीं।
अब आगरा-प्रान्तके कानून-काश्तकारीमें तरमीम होनेवाली है। उसका मसविदा बनकर तैयार भी हो गया है और छपकर प्रकाशित भी हो चुका है। जिस कमिटीके सिपुर्द यह काम किया गया था उसकी रिपोर्ट भी उसीके साथ निकल गयी है। इस रिपोर्ट और इस मसविदेके अनुसारही यदि क़ानूनमें तरमीम हो गयी तो किसानोंको सबसे अधिक लाभ यह होगा कि लगान समयपर देते रहनेसे मृत्यु-पर्य्यन्त वे अपने जोतसे बेदख़ल न किये जा सकेंगे। परन्तु इसके साथही उनकी बहुत बड़ी हानि हो जानेके कई दरवाज़े भी खुल जायेंगे। अबतक १२ वर्ष तक लगातार ज़मीन जोतनेसे उसपर काश्तकारका मौरूसी हक़ हो जाता था। अब यह बात न होगी। उसे अब यह हक़ कभी न मिलेगा और यदि मिल भी सकेगा तो ज़मींदार साहबकी रज़ामन्दीसे और उन्हें काफ़ी मुआविज़ा देनेपर ही मिल सकेगा। यह तो बहुत ही कम सम्भव है कि ज़मींदार साहब किसीको खुशीसे मौरूसी काश्तकार बना दें और थोड़ीही दक्षिणासे प्रसन्न हो जायँ। अतएव इस क़ानूनके बन जानेपर किसानोंका बहुत बड़ा हक़ मारा जायगा। जितनी ज़मीनपर इस समय इन लोगोंका मौरूसी हक़ है उसमें भी दिन-पर-दिन कमीही होती जानेके साधन इस क़ानूनके मसविदेमें मौजूद हैं। इस कारण सम्भावना यही है कि ज़मींदार इन लोगोंके मौरूसी खेतोंको, मौक़ा मिलते ही, छीनते चले जायँगे। सो मोरूसी हक़ अधिक मिलनेके साधन बढ़ाना तो दूर रहा, बन जानेपर यह क़ानून वर्तमान साधनोंका भी संहार क्रम-क्रमसे करता जायगा।
इस दशामें क्या करना चाहिये। कौंसिलमें किसानोंके जो प्रतिनिधि पहले थे उन्होंने अपने कर्तव्यका पालन नहीं किया। नये कौंसिलमें जो लोग प्रतिनिधि बनकर गये हैं उनसे भी विशेष आशा नहीं। इस कौंसिलको बने एक साल हो चुका। इस इतने समयमें इन लोगोंमेंसे दो-चारको छोड़कर और किसीने भी किसानोंके मतलबका कोई प्रश्न तक गवर्नमेंटसे नहीं किया। कोई प्रस्ताव उपस्थित करना और क़ानूनमें लाभदायक तरमीम करानेके लिए चेष्टा काना तो दूरकी बात हैं। अबतक तो इनमेंसे अधिकांश मेम्बर अर्थात् स्वराजी किसानोंके लिए कुछ सुभीतोंकी माँग पेश करना या इसलिए कोई प्रस्ताव ही उपस्थित करना अपने उसूलके खिलाफ़तक समझते थे। असहयोगी ठहरे न! बताइए, फिर क्यों आप किसानोंके प्रतिनिधि बने थे? आप अपने उसूलोंकी पाबन्दीके बलपर जबतक स्वराज्य प्राप्त करके किसानोंके दुःख दूर करेंगे तबतक तो वे ख़ुद ही मर मिटेंगे। स्वराज्यका सुख भोगेगा कौन? इन सज्जनोंमेंसे अनेक ऐसे निकलेंगे या व्यर्थ देहातमें नहीं घूमे, जिन्हें किसानोंकी दुर्गतिका बहुत-ही कम ज्ञान है और किसानोंके प्रतिनिधि बननेपर भी जिन्होंने अबतक भी क़ानून-लगान और क़ानून-काश्तकाली वग़ैरहका एक बार भी पारायण नहीं किया। इस दशामें इनसे किसानोंको लाभ पहुँचनेकी बहुत कम आशा है।
इस सूबेसे कितने ही अख़बार हिन्दी, उर्दू और अँगरेज़ीमें निकलते हैं। परन्तु कुछ-बहुतही साधारणसे लेखोंके अतिरिक्त, इस सम्बन्धमें कुछ भी विशेष चर्चा नहीं हुई। यह और भी दुःखकी बात है। प्रजाके प्रतिनिधि बननेका दावा करनेवाले इन पत्रोंकी यह असावधानता अथवा असमर्थता बहुतही सन्तोषजनक है। प्रान्तके ३/४ अंशका मरना-जीना जिन कानूनोंपर अवलम्बित है उन्हीं के सम्बन्धकी चर्चा न करना, अपने कर्तव्य की बहुत बड़ी अवहेलना करना है।
इन सारे दुखदर्दोंको दूर करने का सबसे अच्छा इलाज है किसानोंका सङ्गठन। ज़मींदार और तअल्लुकेदार शिक्षित हैं, श्रीमान् हैं और शक्तिमान् भी हैं। उन्हें सङ्गठनकी उतनी ज़रूरत न थी, पर उन्होंने भी, सूबे अवध और सूबे आगरा, दोनों ही, अपना सङ्गठन कर लिया है। इसी सङ्गठनके कारण अवधके क़ानून-लगानमें वे लोग बहुत-कुछ अपनी मनमानी तरमीम करा सके हैं। अब आगरेके क़ानून-काश्तकारीके मसविदेके सम्बन्धमें वे आगराप्रान्तमें भी जगह-जगह मीटिंग कर रहे हैं और जो दो-एक बातें मसविदेमें किसानोंके लाभकी हैं उनपर प्रतिकूल प्रस्ताव पास कर रहे हैं। मसविदा कौंसिलमें विचारार्थ पेश होनेपर वे लोग क्या करेंगे—कैसी राय देंगे—इसमें किसीको कुछ भी सन्देह नहीं हो सकता। इस दशामें किसानोंके सङ्गठनकी कितनी आवश्यकता है, इसे और अधिक स्पष्ट करके बताने की जरूरत नहीं। समयकी कमीके कारण यदि, आगरा-प्रांतके क़ानून-काश्तकारीमें, किसान न्यायसङ्गत फेरफार न करा सकेंगे तो सङ्गटन हो जानेपर आगे तो उनकी चेष्टाओंके विशेष फलवती होनेकी सम्भावना रहेगी। अतएव जो समर्थ और शिक्षित प्रान्तवासी इन अपढ़ और असमर्थ किसानोंको एकसूत्र में बाँध देंगे उन्होंने माना अपने प्रांतके ७५ फ़ी सदी आदमियोंके उद्धारका द्वार खोल दिया।
अच्छा तो यह सङ्गठन हो कैसे? इलाहाबादमें श्रीयुत सङ्गमलाल अगरवाला नामके एक महाशय हैं। आप प्रान्तीय कौंसिलके मेम्बर हैं। उन्होंने, जान पड़ता है, सङ्गठनके महत्त्वको अच्छी तरह समझ लिया है और इस विषयमें कुछ उद्योगका आरम्भ भी कर दिया है। उन्होंने किसी संस्थाकी भी संस्थापना शायद कर दी है। उसके कार्यकर्ता घूम-फिरकर व्याख्यानों द्वारा किसानोंको उचित सलाह भी दिया करते हैं। आपको संस्थाकी ओरसे कभी-कभी सङ्गठन इत्यादिके विषयमें लेख भी हिन्दी समाचार-पत्रोंमें—और यदा-कदा अँगरेजीके पत्र "लीडर" में भी हमारे देखनेमें आये हैं। परन्तु इस चर्चा या उद्योगसे विशेष फलप्राप्तिकी आशा नहीं, क्योंकि वह बहुत निर्बल है। लेख लिखकर अख़बारों में प्रकाशित करनेसे वे किसानोंतक नहीं पहुँच सकते और पहुँचते भी हैं तो उनकी एक बहुत ही परिमित संख्यातक। फिर किसानोंका अधिकांश अपढ़ है। लेख और समाचार-पत्र उनतक पहुँचे भी तो उनका पहुँचना सर्वथा व्यर्थ है। बड़े-बड़े शहरों या क़सबोंमें किसान-सभाएं कराने और कृषकोपयोगी व्याख्यान दिलानेसे भी किसानोंको बहुत-ही-कम लाभ पहुँच सकता है।
किसानोंको सजग करने, उन्हें उनका कर्तव्य बताने और उनका सङ्गठन करनेके लिए बहुतसे कार्यकर्ताओंकी आवश्यकता है। दस-पाँच व्याख्याताओं, उपदेशकों या एजंटोंसे काम नहीं चल सकता। किसान कुछ इलाहाबाद या बनारस या उनके पास-पड़ोसके ज़िलोंहीमें तो रहते नहीं। वे तो आगरा और अवधके सभी जिलोंकी देहातमें रहते हैं। उन सभीका सङ्गठन होना चाहिये और उन सभीको सचेत करना चाहिये। अतएव सङ्गठनका प्रधान दफ्तर इलाहाबादमें रहे। उसके अधीन हरजिलेके सदर मुक़ाममें भी एक-एक दफ्तर रहे। इसके सिवा हर ज़िलेकी हर तहसीलमें एक-एक छोटा दफ्तर खोला जाय। फिर हर तहसील के समुचित विभाग करके प्रत्येक विभाग एक-एक उपदेशक या एजण्टको बाँट दिया जाय। वह देहातमें बराबर दोरा करता रहे। बाज़ारों, मेलों और बड़े-बड़े गाँवोंमें वह व्याख्यान देकर सङ्गठनके लाभ बतावे और किसानोंको क्या करना चाहिये, इस बातकी सलाह दे। जब वह देखे कि लोग सङ्गठनके लाभ समझ गये हैं तब छोटे-छोटे कई गाँवों को मिलाकर, किसी ख़ास गाँवमें, जहाँ कुछ पढ़े-लिखे और समझदार किसान रहते हों, एक-एक किसान-सभा खोल दे और सभाको उसके कर्तव्य बतला दे। ये देहाती सभाएं तहसीलकी सभासे सम्बद्ध रहें और तहसीलोंकी सभाएँ ज़िलेकी सभासे। ज़िलोंकी सभाएं इलाहाबादकी प्रधान सभासे सम्मिलित रहेंहीगी। प्रधान सभासे जो पुस्तकें, पत्रक या नोटिसें निकलें वे छोटीसे-भी-छोटी सभाके मेम्बरोंतक पहुँचे। कुछ इन्स्पेक्टर नियत हों जो समय-समय पर दौरा करके इस बातकी जाँच करें कि सभाएं और उपदेशक या एजण्ट अपना काम ठीक-ठीक करते हैं या नहीं।
ऐसा होजानेपर सारे प्रान्तके किसान एक सूत्रमें बँध जायँगे। फिर उन्हें उनके हक़ मिलते देर न लगेगी। विघ्न-बाधाएं फिर भी उपस्थित होंगी; परन्तु ३/४ जन-समुदायकी आवाज़के सामने १/४ समुदायके द्वारा उपस्थित किये गये विघ्न कितनी देरतक ठहर सकेंगे? एक बात और भी तो है। अवशिष्ट १/४ जनसमुदायमें भी तो बहुतसे लोग किसानोंके पृष्ठपोषक हैं।
हाँ, एक बात और भी विचारणीय है। सभाओंकी काररवाईमें अवैध-भाव ज़रा भी न घुसने पावे। व्याख्याता और एजण्ट जमींदारों और गवर्नमेंटके ख़िलाफ़ किसानोंको कभी उभाड़ने या उत्तेजित करनेकी चेष्टा न करें। किसानोंको वे केवल उनके हक़ोंका ज्ञान करा दें और सौम्य भाषामें वे यह बता दें कि किन बातों या किन-किन क़ानूनोंसे उन्हें कितना कष्ट है और किनकी किस तरह तरमीम होनी चाहिये। कोई क़ानून कितना ही कड़ा या अन्याय-सङ्गत क्यों न हो, जबतक उसमें तरमीम न हो जाय तबतक उसके अक्षर-अक्षरके पालनकी सलाह दी जाय और कोई बात ऐसी न की जाय जिससे किसानों और तअल्लुक़ेदारों या ज़मींदारोंमें परस्पर विरोध-भावकी उत्पत्ति या वृद्धि हो।
किसानोंका सङ्गठन विधिपूर्वक और पूर्णभावसे करना सहज नहीं। वह बहुत कठिन है और बहुत बड़े ख़र्चका काम है। परन्तु जिस कामसे प्रांतकी तीन-चौथाई जन-संख्याक दुखदर्द दूर हो सकते और जिससे उनकी समृद्धि बढ़ सकती है वह उँगली उठा देने, दस-पांच लेख प्रकाशित कर देने या महीने पन्द्रह रोज़में, किसी जगह सौ-पचास किसानोंको जमा करके उन्हें उनके मतलबकी बातें सुना देनेसे हो भी नहीं सकता। यदि वे लोग अपढ़ और अशिक्षित न होते तो इस तरह भी थोड़ा-बहुत काम हो जाता। परंतु उनकी वर्तमान अवस्थामें इन उपायोंसे यथेष्ट लाभ नहीं हो सकता। यथेष्ट लाभ तभी होगा जब किसानोंका सर्वाङ्गीण सङ्गठन किया जायगा और उसकी सिद्धिके लिए बहुतसे देशभक्त सज्जनोंकी नियुक्ति की जायगी।
इसके लिए हज़ारों नहीं; शायद लाखों रुपया दरकार हो। अतएव पहले बाबू संगमलाल अगरवालेके सदृश कुछ परोपकारव्रती पुरुषोंको चन्देसे रुपया एकत्र करना चाहिये। जैसे-जैसे रुपया मिलता जाय वैसे-ही-वैसे अधिकाधिक कार्यकर्ताओंकी योजना की जाय और वैसे-ही-वैसे सङ्गठन-कार्यके क्षेत्रका विस्तार भी बढ़ाया जाय। पहले जिले-जिलेमें सभाएं खुलें, फिर तहसीलोंमें और उसके बाद देहातमें। इस प्रान्तमें ऐसे हजारों आदमी निकलेंगे जो अधिकारियों का इशारा पाते ही छोटे-छोटे और कभी-कभी व्यर्थके कामोंके लिए भी हजारों रुपया दे डालते हैं। उन्हें समझाने-बुझाने और सङ्गठनके कार्यका महत्त्व बतानेसे क्या यह सम्भव नहीं वे कि इतने महत्त्वके कामके लिए कुछ दान करें? कार्य चल निकलने और सङ्गठनका कुछ फल भी दृष्टिगोचर होनेसे सङ्गठित सभाओंके किसान भी दो-दो चार-चार आनेसे सहायता कर सकेंगे। अकाल और बाढ़से पीड़ितोंके लिए, धर्म्माशालाएं और मठ-मन्दिर बनानेके लिए, स्कूल और कालेज खोलनेके लिए क्या लोग चन्दा नहीं देते? इन कामोंसे बहुत ही थोड़े आदमियोंको लाभ पहुँचता है; किसानोंका सङ्गठन हो जानेसे ३/४ प्रान्तनिवासियोंको लाभ पहुँच सकेगा। यदि दस-बीस भी उत्साही, कार्यकुशल, देशभक्त और परोपकार-रत पुरुष आगे बढ़ें और इस कामका आरम्भ अच्छे ढङ्गसे कर दें तो धीरे-धीरे काफ़ी रुपया एकत्र हो जाना और होते रहना असम्भव नहीं। धन-प्राप्ति दुर्लभ नहीं। दुर्लभ हैं सुयोग्य कार्य्यकर्त्ता। भगवान् उनको सुलभ कर दे!
[दिसम्बर १९२४]