विकिस्रोत:आज का पाठ/१३ सितम्बर
सिद्ध संप्रदाय रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का इतिहास का एक अंश है जिसके दूसरे संस्करण का प्रकाशन काशी के नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा १९४१ ई. में किया गया था।
"बौद्धधर्म विकृत होकर वज्रयान संप्रदाय के रूप में देश के पूरबी भागो में बहुत दिनों से चला आ रहा था । इन बौद्ध तान्त्रिको के बीच वामाचार अपनी चरम सीमा को पहुँचा। ये बिहार से लेकर आसाम तक फैले थे और सिद्ध कहलाते थे ! चौरासी सिद्ध इन्हीं में हुए हैं जिनका परंपरागत स्मरण जनता को अब तक है। इन तात्रिक योगियों को लोग अलौकिक-शक्ति-संपन्न समझते थे । ये अपनी सिद्धियों और विभूतियों के लिये प्रसिद्ध थे। राजशेखर ने ‘कर्पूरमंजरी' में भैरवानंद के नाम से एक ऐसे ही सिद्ध योगी का समावेश किया है । इस प्रकार जनता पर इन सिद्ध योगियों का प्रभाव विक्रम की १०वीं शती से ही पाया जाता है, जो मुसलमानों के आने पर पठानों के समय तक कुछ न कुछ बना रहा। बिहार के नालंदा और विक्रमशिला नामक प्रसिद्ध विद्यापीठ इनके अड्डे थे। बख्तियार खिलजी ने इन दोनो स्थानों को जब उजाड़ा तब ये तितर-बितर हो गए । बहुत से भोट आदि देशों को चले गए । चौरासी सिद्धों के नाम ये हैं-लूहिपा, लीलापा, ..."(पूरा पढ़ें)