विकिस्रोत:आज का पाठ/१ जून
जीवन का शाप प्रेमचंद के कहानी-संग्रह मानसरोवर २ का एक अध्याय है जिसका प्रकाशन १९४६ ई॰ में सरस्वती प्रेस "बनारस" द्वारा किया गया था।
"कावसजी ने पत्र निकाला और यश कमाने लगे। शापूरजी ने रूई को दलाली शुरू की और धन कमाने लगे । कमाई दोनों ही कर रहे थे, पर शापूरजी प्रसन्न थे, कावसजी विरक्त । शापूरजी को धन के साथ सम्मान और यश आप-ही-आप मिलता था। कावसजी को यश के साथ धन दूरबीन से देखने पर भी न दिखाई देता था इसलिए शापूरजी के जीवन में शांति थी, सहृदयता थी, आशाबाद था, क्रीड़ा थी। कावसजी के जीवन में अशांति थी, कटुता थी, निराशा थी, उदासीनता थी । धन को तुच्छ समझने की वह बहुत चेष्टा करते थे , लेकिन प्रत्यक्ष को कैसे झुठला देते। शापूरजी के घर मे विराजनेवाले सौजन्य और शान्ति के सामने उन्हें अपने घर के क्लह और फूहड़पन से घृणा होती थी। मृदुभाषिणी मिसेज शापूर के सामने उन्हे अपनी गुलशन बानो संकीर्णता और ईर्ष्या का अवतार-सी लगती थी। शापूरजी घर में आते, तो शीरी बाई मृदु हास उनका स्वागत करती । वह खुद दिन-भर के थके- मांदे घर आते, तो गुलशन अपना दुखड़ा सुनाने वैठ जाती और उनको खूब फटकारें बताती तुम भी अपने को आदमी कहते हो ! मैं तो तुम्हें बैल समझती हूँ, बैल बड़ा मेहनती है, गरीब है, सन्तोषी है, माना, लेकिन उसे विवाह करने का क्या हक था।..."(पूरा पढ़ें)