विदेशी विद्वान्/८―अलबरूनी

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८--अलबरूनी

प्राचीन काल से लेकर अब तक न मालूम कितने ग्रीक, रोमन, चीनी, अरब, तुर्क, फ्रेंच और अँगरेज़ आदि विदेशी भारतवर्ष में आये हैं। उनमे से सैकड़ों ने भारतवर्ष-विषयक पुस्तके भी लिखी हैं। भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास का प्रायः अभाव है। अतएव ये पुस्तके इस देश का इतिहास सङ्कलित करने में बड़ी सहायक हुई हैं। इस हिसाब से ये ग्रन्थ बड़े ही उपयोगी हैं। परन्तु इनमें से अधिकांश ग्रन्थ भ्रमात्मक और ईर्ष्याद्वेष-पूर्ण हैं। कारण यह कि लेखकों ने विना अच्छी तरह खोज किये ही, जो कुछ उनकी समझ मे आया, लिख मारा है। हॉ, कुछ लेखक ऐसे भी हैं जिन्होंने गहरी खोज के बाद उदारतापूर्वक अपने ग्रन्थ लिखे हैं । इतिहासकार अलबरूनी इसी श्रेणी के लेखकों मे थे ।

अलबरूनी के जीवन का इतिहास नितान्त संक्षिप्त है । वर्तमान खीवा नगर के निकट, सन ९७३ ईसवी में, उनका जन्म हुआ था। उनका असली नाम अबूरैहान था। बाल्यकाल में उन्होंने गणित, ज्योतिष और विज्ञान की शिक्षा पाई थी। धीरे-धीरे उन्होंने इन विषयों में अच्छी पारदर्शिता प्राप्त कर ली थी। अलबरूनी की जन्मभूमि प्राचीन वाल्हीक (बलख) राज्य के अन्तर्गत थी। वहां इसलाम के अभ्युदय के पहले [ ७९ ]बौद्ध धर्म का प्रचार था। युवावस्था में अलबरूनी खीवा-नरेश के मन्त्री हो गये। इस दशा में उन्होने अपने देश को स्वाधीन बना रखने के लिए बड़ी चेष्टा की। परन्तु १०१७ ईसवी में ग़ज़नी के दिग्विजयी सुलतान महमूद ने खीवा की स्वाधीनता छीन ली और राज्य-परिवार के साथ अलबरूनी को भी कैद करके गज़नी भेज दिया। वहाँ राजपरिवार की बड़ी दुर्दशा हुई। परन्तु अलबरूनी के पाण्डित्य का ख़याल करके महमूद ने उन पर कृपा की और उन्हे मुलतान भेज दिया।

मुलतान में अलबरूनी कोई तेरह वर्ष रहे। यह समय उन्होंने संस्कृत सीखने और ज्ञानालोचना करने मे बिताया । इसके बाद जब सुलतान महमूद की मृत्यु हुई तब उन्होंने "इंडिका" की रचना की । इंडिका किसी अन्य विशेष का अनुवाद नहीं; किन्तु मूल ग्रन्थ है। यह बडी दुरूह अरबी भाषा में लिखा गया है । साधारण अरबी जाननेवाला इसे नही समझ सकता। परन्तु पाश्चात्य पण्डितों की कृपा से अव उसका अनुवाद अनेक योरपियन भाषाओं में हो गया है।

भारतीय साहित्य, दर्शन, गणित, ज्योतिष और धर्मशास्त्र आदि का अध्ययन तथा लोकाचार-पर्यवेक्षण करके अलबरूनी ने भारतीय शिक्षा, दीक्षा, सभ्यता और सदाचार के सम्बन्ध मे जो तथ्य संग्रह किया था उसी को वह इंडिका में लिख गया है। इंडिका के सिवा अलबरूनी ने ऐसे और भी अन्य रचे हैं, जिनमें उसने भारतीय गणित और ज्योतिष की आलोचना की है। [ ८० ]अलबरूनी के इन सब ग्रन्थो में पाण्डित्य कूट-कूटकर भरा हुआ है। अब भी बड़े-बड़े विद्वान उन्हें देखकर मुग्ध हो जाते हैं और उनके रचयिता की हज़ार मुख से प्रशंसा करते हैं। अलबरूनी अरबी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं का उत्कृष्ट विद्वान् था। उसमें दोनों देशों के ज्ञानभाण्डार का सार सङ्कलन करने की असाधारण शक्ति थी। यह बात उसकी इंडिका से अच्छी तरह प्रकट होती है।

अलबरूनी ने भारतवर्ष-विषयक बातो को यथारीति अध्ययन करने की यथेष्ट चेष्टा की। उसने नरेशो की नामावली और लड़ाई-झगड़े की बातो को लेकर समय नष्ट नहीं किया। केवल हिन्दू-सभ्यता के निदर्शन-भूत दर्शन, विज्ञान, गणित, ज्योतिष और विविध प्राचार-व्यवहारों का विस्तृत विवरण सङ्कलित करने की उसने चेष्टा की। उस समय काश्मीर और काशी संस्कृत-शिक्षा के केन्द्र-स्थान थे। परन्तु वहाँ मुसलमानों को घुसने की आज्ञा न थी। इस पर अलबरूनी ने बड़ा अफ़सोस जाहिर किया है। इसी लिए सिन्ध जाकर उसने संस्कृत सीखी और वहीं से ग्रन्थो का संग्रह प्रारम्भ किया। पर वेचारा, अर्थाभाव के कारण, मनमाने ग्रन्थों का संग्रह न कर सका। इसका उल्लेख उसने इंडिका में कई जगह किया है।

अलबरूनी में सबसे बड़ा गुण यह था कि वह विद्वान् होने पर भी अध्ययनशील था और मुसलमान होने पर भी [ ८१ ] हिन्दुओं से द्वेषभाव न रखता था। यह बात इंडिका के प्रत्येक पृष्ठ से प्रकट होती है। जिन्होंने उसे एक बार भी पढा है वे उसके मतों की उदारता और सच्ची समालोचना- शक्ति पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। उसने जहाँ हम लोगों के आचार, व्यवहार और शिक्षा-दीक्षा के प्रतिकूल समालोचना की है वहाँ पर मूल संस्कृत-शास्त्र का प्रमाण अवश्य उद्धृत किया है। ऐसा किये बिना उसने कोई मन्तव्य प्रका- शित नहीं किया। प्रतिकूल समालोचना करते समय उसने एक जगह यह भी लिखा है―“सम्भव है कि इस उद्धृत अंश का कोई और सुसङ्गत अर्थ हो; परन्तु अब तक मैंने उसे नहीं सुना।” यह हम लिख चुके हैं कि अरबी और ग्रीक-भाषा- विशारद अलबरूनी ने संस्कृत-साहित्य का अध्ययन करने के बाद ’इंडिका’ रची थी। उसकी ‘इंडिका’ के साथ संस्कृतानभिज्ञ अँगरेज़-लेखकों के ग्रन्थो की तुलना नहीं हो सकती।

अलबरूनी ने जब ‘इंडिका’ की रचना की थी तब मुसल- मान लोग भारतवर्ष को काफ़िरस्तान कहकर घृणा करते और पराजित देश समझकर उसकी उपेक्षा करते थे। इधर भारत- वासी मुसलमानों को म्लेच्छ कहकर तिरस्कार करते और विजेता समझकर भय खाते थे। उस समय ग़ज़नी के सुलतान और उसके अनुयायी विजयोल्लास मे मग्न होकर भारतवर्ष का वक्ष विदीर्ण करने मे लगे हुए थे। ऐसे समय में एक मुसलमान का काफ़िरों का धर्मशास्त्र पढ़ना और समालोचना [ ८२ ] करने में धीरता के साथ दार्शनिक-प्रणाली से प्रत्येक विषय की मीमांसा करना बड़े विस्मय की बात है। 'इंडिका' से मालूम होता है कि काफ़िर होने पर भी हिन्दू अलबरूनी के विचार में भक्ति और श्रद्धा के पात्र थे । आजकल के यूरोपियन विद्वान कहते हैं कि इसका एक विशेष कारण था। वह यह कि जिस सुलतान महमूद ने अलबरूनी की जन्मभूमि खीवा की खाधी- नता हरण की थी उसी ने भारतवर्ष को भी जीता था। अत- एव स्वाधीनता-रत्नविवर्जित स्वदेश-प्रेमी के लिए सम-दुःख-दुखी एक पराधीन देश के प्रति सहानुभूति का होना स्वाभाविक ही है। जो हो, यद्यपि अलबरूनी ने इसलाम-धर्म का माहात्म्य प्रकाशित करने में कोई कसर नहीं रक्खी, तथापि उस हिंसा- विद्वेष के युग में भी उसने हिन्दुओं को काफ़िर समझकर उनसे घृणा नहीं की। इस बात को पाश्चात्य पण्डित भी मानते हैं।

अलबरूनी मूर्तिपूजा का अच्छा न समझता था। वह कहता था कि मूर्तिपूजा साधारण अदमियों ही के लिए है; विद्वानों के लिए तो एकेश्वरवाद है। भारत का वेदान्त- सम्मत धर्म इसलाम के एकेश्वरवाद धर्म से मिलता जुलता है, यह बात अलबरूनी ने कई बार लिखी है।

अलबरूनी ने जिस समय 'इंडिका' रची थी वह समय एशिया-खण्ड के लिए विप्लव का युग था। एक ओर बौद्ध और हिन्दुओं के सङ्घर्ष के कारण बौद्ध लोग विताड़ित हो रहे थे। दूसरी ओर वौद्ध और इसलाम के परस्पर युद्ध में इस[ ८३ ] लाम विजयी हो रहा था। बीच-बीच मे ईसाइयों और मुसल- मानों में भी झगड़ा हो जाता था। इससे ईसाई लोग एशिया से भागे जा रहे थे। इस विप्लव के समय मे दर्शनशास्रों की चर्चा की जगह बाहुबल और शान्त समालोचना की जगह तेज़ तलवार चल रही थी। इससे कुछ दिन के लिए उच्च शिक्षा विलुप्त हो गई थी। अशिक्षित सेना-दल प्राधान्य और प्रतिष्ठा- लाभ कर रहा था। इसी लिए विजयोन्मत्त मुसलमान लोग भारतवर्ष को काफि़रस्तान कहने में कुछ भी सङ्कोच न करते थे। भारतवर्ष ही के विपुल ज्ञान-भाण्डार ने अरबी-साहित्य की प्राण-प्रतिष्ठा की है और उसके द्वारा जंगली विदुइनों को विद्वान् बनाया है। इस बात को अलबरूनी की तरह दो-चार विद्वानों के सिवा और कोई न जानता था और सुनने पर भी विश्वास न करता था। अलबरूनी भारतवर्ष पर क्यों अनुरक्त था और बाल पक जाने पर क्यो संस्कृत सीखी थी, यह बात समझने के लिए अरबी-साहित्य की आलोचना करना चाहिए।

यद्यपि अरबी भाषा बहुत पुरानी है तथापि अरबी-साहित्य ग्रीक और हिन्दू-साहित्य की तरह बहुत पुराना नहीं। कुछ दिन पहले बहुत लोग इस बात को न मानते थे । परन्तु जर्मनी के पुरातत्त्ववेत्ताओं ने इस बात को सत्य सिद्ध कर दिया है।

अरबी के प्राचीन साहित्य में केवल कविता ही की अधिकता थी। मरुभूमि अरब के निवासी उसी को यथेष्ट समझते थे। कुछ दिन बाद कुरान और हदीस भी उसमें मिल गई। [ ८४ ] परन्तु तब भी अरबी-साहित्य मे केवल इने-गिने ग्रन्थ थे। इसके कई सौ वर्ष बाद तक उसकी यही दशा रही। इसमें सन्देह नहीं कि अरब की मरुमरीचिका ही मे इसलाम-धर्म का अभ्युपय हुआ था; परन्तु वहाँ उसने ज्ञान-गौरव-लाभ नही किया। सुप्रसिद्ध बगदाद राजधानी ही इसलाम-धर्म और अरबी साहित्य का गौरव-क्षेत्र हुई।

पश्चिमी देशों के साथ भारत का व्यापार प्राचीन काल मे बगदाद ही के रास्ते होता था। इसलिए इन देशों मे भारत- वासी बराबर आते-जाते थे। किसी समय बौद्ध धर्म-प्रचारकों ने एशियाखण्ड के इन सब पश्चिमी देशों में बौद्धमत का खुब प्रचार किया था। उनके द्वारा भारतीय साहित्य का प्रचार भी इन देशों में हो गया था। कुछ दिनों बाद इसलाम-धर्म ने आकर बौद्धधर्म को वहाँ से निकाल दिया और अपना राज्य जमा लिया। बौद्धधर्म तो वहाँ से विलुप्त हो गया, परन्तु बौद्ध लोग वहाँ से विलुप्त नहीं हुए। इसका अर्थ यह है कि जो लोग बौद्ध थे वही मुसलमान हो गये। मुसलमान-राज्य का केन्द्र पहले दमिश्क नगर में प्रतिष्ठित हुआ। परन्तु राज्य- संस्थापना की गड़बड़ के कारण वहाँ साहित्य-चर्चा उन्नति-लाभ न कर सकी। इसके बाद मुसलमान-साम्राज्य का केन्द्र- स्थान बगदाद हुप्रा। सच पूछिए तो यही मुसलमानों में ज्ञान-पिपासा उत्पन्न हुई। उस समय विपुल भारतीय साहित्य के सामने क्षुद्र अरबी-साहित्य को कोई न पूछता था। अतएव [ ८६ ] सुप्रसिद्ध खलीफा हारूनुर्रशीद के समय में अरबी-साहित्य की खूब उन्नति हुई। प्राचीन बाल्हीक-राज्य के "नवविहार" नामक प्रसिद्ध बौद्ध मठ के 'परमक' नामक बौद्ध यति के वंश- धर उस समय हारूनुर्रशीद के मन्त्री थे। वे उस समय मुसलमान हो गये थे और 'वरमक' गोत्रीय कहलाते थे। उनकी चेष्टा से भारतीय गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, धनुर्वेद, दर्शन, विज्ञान और चिकित्सा-विद्या के सैकड़ों ग्रन्थ अरबी-भाषा मे अनुवादित किये गये। इसके साथ ही मिश्र और ग्रीस देश का साहित्य अरबी साहित्य को दिन-दिन उन्नत करने लगा।

इस तरह अलबरूनी के पैदा होने के पहले ही अरबी- साहित्य उन्नत हो चुका था। उसका पूर्ण रूप से अध्ययन करने के बाद अलबरूनी के मन मे खुद संस्कृत सीखने की इच्छा उत्पन्न हुई। भारतवर्ष मे निर्वासित होने पर उसकी यह इच्छा पूर्ण हुई। संस्कृत-ग्रन्थों का अरबी-अनुवाद अध्य- यन करते समय अलबरूनी भारतीय-साहित्य के केवल द्वार पर पहुँचा था। अब उसके भीतर प्रवेश के लिए उसका संस्कृता- नुराग प्रबल होने लगा। अलबरूनी की धारणा थी कि मूल संस्कृत-ग्रन्थ का माधुर्य्य अरबी-अनुवाद में रक्षित नहीं रहता। संस्कृत सीखने पर उसकी यह धारणा बद्ध-मूल हो गई। इस समय अलबरूनी एक मुसलमान साहित्य-प्रेमी के साथ अकसर वर्क-वितर्क किया करता था। उसका विचार था कि मूल संस्कृत- ग्रंथ अध्ययन करने के लिए परिश्रम करना व्यर्थ है; अरबी[ ८७ ] साहित्य में जो अनुवाद मौजूद हैं वही यथेष्ट हैं। परन्तु अल- बरूनी का मत उसके विपरीत था। धीरे-धीरे दोनों में वाद- विवाद बढ़ गया। अतएव अलबरूनी ने अपने मत का महत्त्व स्थापन करने के लिए मूल संस्कृत-शास्त्रों के प्रमाण उद्धृत करके ‘इंडिका’ की रचना प्रारम्भ की।

‘इंडिका’ के पढ़ने से मालूम होता है कि उसकी रचना के पहले अलबरूनी ने कई संस्कृत-ग्रन्थों का अध्ययन किया था। उनमें से सांख्यदर्शन, योगदर्शन, गीता, विष्णुपुराण, मत्स्य- पुराण, वायुपुराण, आदित्यपुराण, पुलिशसिद्धान्त, ब्रह्मसिद्धान्त, वृहत्संहिता, पञ्चसिद्धान्तिका, करणसार, करणतिलक, भुवन- कोश और चरक विशेष उल्लेख योग्य हैं। इसके सिवा रामायण, महाभारत, मानवधर्मशास्त्र, छन्दः-शास्त्र और सामुद्रिक–शास्त्र- विषयक ग्रन्थ भी अलबरूनी ने पढ़े थे। क्योंकि इनका उल्लेख भी 'इंडिका' मे, जगह-जगह पर, पाया जाता है।

[ मई १९११

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