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विदेशी विद्वान्/९―अध्यापक एडवर्ड हेनरी पामर

विकिस्रोत से
विदेशी विद्वान
महावीर प्रसाद द्विवेदी

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ ८८ से – १०७ तक

 
९-अध्यापक एडवर्ड हेनरी पामर

पाश्चात्य देशों में पूर्वी भाषाओं के जाननेवाले विद्वानों की कमी नहीं; परन्तु इस प्रकार के विद्वानों में बहुत ही थोड़े ऐसे निकलेंगे जिन्हें उस पूर्वी भाषा मे, जिसके वे धुरन्धर ज्ञाता कहलाते हैं, बोलने का भी वैसा ही अभ्यास हो जैसा उन्हें उसके लिखने-पढ़ने का है। पूर्वी भाषाओं के पाश्चात्य विद्वानों मे मैक्समूलर का नाम बहुत प्रसिद्ध है। वे बड़े भारी संस्कृतज्ञ थे। परन्तु, सुनते हैं, नीलकण्ठ शास्त्री गोरे ने उनसे संस्कृत मे भाषण किया तो वे उनकी बात ही न समझ सके। उन पाश्चात्य विद्वानों में, जो अपनी अभिमत पूर्वी भाषा लिख भी सकते हों और बोल भी सकते हो, अध्यापक पामर का आसन बहुत ऊँचा है। वे अँगरेज़ी, फ्रेञ्च, जर्मन, इटालियन, लैटिन, ग्रीक आदि योरप की कितनी ही भाषाओं के अतिरिक्त अरबी, फ़ारसी और उर्दू इन तीन पूर्वी भाषाओं को भी बहुत अच्छी तरह जानते थे। उनमें यह एक ख़ास गुण था कि वे जिन- जिन भाषाओं को जानते थे उनमें वे अपनी मातृभाषा ही की तरह बोल भी सकते थे।

एडवर्ड हेनरी पामर का जन्म सन् १८४० ईसवी की सातवी अगस्त को, केम्ब्रिज नगर में, हुआ। शैशवकाल ही में उनके माता और पिता दोनों उन्हें अनाथ करके चल बसे । उनके पिता की बहन ने उनका लालन-पालन किया। जब वे कुछ बड़े हुए तब पाठशाला मे पढ़ने के लिए भेजे गये। लड़क- पन ही से उन्हे अन्य भाषायें सीखने का शौक था। पाठशाला से उन्हे जो समय मिलता उसमे उन्होंने गिप्सी लोगों की भाषा सीख ली। जो पैसे उन्हे जेब-खर्च के लिए मिलते उन्हें वे लोगों को दे-देकर रोमेनी भाषा की शिक्षा प्राप्त किया करते। थोड़े ही दिनों में उन्होने उस जंगली भाषा के शब्दकोष को रट डाला। गिप्सियां के डेरों में जा-जाकर और उनसे उनकी भाषा ही मे बात-चीत करके उन्होंने शीत्र हो वह भाषा बोलने और समझने का इतना अभ्यास कर लिया कि वे असभ्य से असभ्य गिप्सी के भाषण को खूब अच्छी तरह समझ लेने लगे। रोमेनी सीखने का फल यह हुआ कि उन्हें गिप्सी लोगों के आन्तरिक जीवन की बहुत सी बातें मालुम हो गई और वे लोग भी उनसे निःसङ्कोच मिलने और उनसे बात- चीत करने लगे।

पामर अधिक काल तक पाठशाला मे न रह सके। पढ़ना छोड़ते ही उन्होने लन्दन के एक सौदागर के यहाँ नौकरी कर ली। जो समय मिलता उसमे उन्होने फ्रेञ्च और इटालियन भाषाओं का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि उन्हे पढ़ने- लिखने का बड़ा शौक था; परन्तु वे कोरे किताबी कीड़े न थे। विदेशी भाषाओं के सीखने में उन्होंने पुस्तकों का विशेष आश्रय न लिया। जिस भाषा को वे सीखते उस भाषा के बोलने वालों के समाज में वे फुरसत पाते ही पहुंच जाते। उनमें एक बड़ा भारी गुण यह था कि वे अपरिचित आदमियों से, चाहे वे जिस देश के हो, चाहे जो भाषा बोलते , बड़ी जल्दी घनिष्ठता पैदा कर लेते थे। इटालियन और फ्रेञ्च भाषा के वे शीघ्र ही पण्डित हो गये। नौकरी करने और विदेशी भाषायें सीखने से जो समय मिलता था उसे वे खेल-तमाशे में बिताते थे। वे नाटक बहुत देखते थे। कभी-कभी नाटक खेलते भी थे। यार-दोस्त भी उनके कम न थे। वे उनसे भी मिलने जाया करते थे। इस पर भी उन्हें फोटोग्राफी, मेस्मरेज़म और लकड़ी पर नक्काशी का काम सीखने के लिए भी समय मिल ही जाता था।

१८६० में उनकी भेट, केम्ब्रिज में, सैयद अब्दुल्ला से हुई। सैयद अब्दुल्ला अवध-प्रान्त के निवासी थे। वे अरबी, फ़ारसी और उर्दू के विद्वान थे। विलायत में लोगो को वे इन्हीं तीनों भाषाओं की शिक्षा दिया करते थे। थोड़े ही दिनों के परिचय से अब्दुल्ला पर पामर की बड़ी श्रद्धा हो गई। वे भी उनसे पूर्वोक्त तीनों भाषायें पढ़ने लगे। पामर की बुद्धि वड़ी ही विलक्षण थी। वे मिलनसार भी परले सिरे के थे । वे जिससे मिलते वह उनके गुणो पर मुग्ध हो जाता। लख- नऊ के शाही खानदान के नवाब इकवाल-उद्दौला उनसे भेंट करके बड़े प्रसन्न हुए। नवाव साहब बड़े ही विद्या-रसिक थे। पामर के विद्या-प्रेम से वे इतने खुश हुए कि तीन वर्ष तक, जब तक वे विलायत मे रहे, उन्होंने पामर को अपने ही पास रक्खा और उनकी हर प्रकार से सहायता की। विलायत- प्रवासी अन्य कितने ही मुसलमान विद्वानों ने भी पामर की विलक्षण बुद्धि पर मुग्ध होकर उनकी बहुत कुछ सहायता की। पामर भी दिन और रात, अठारह-अठारह घण्टे, अरबी, फारसी और उर्दू पढ़ा-लिखा करते । रात बीत जाती और प्रातःकाल का प्रकाश सर्वत्र फैल जाता; परन्तु वे अपनी पुस्तक न बन्द करते !

१८६३ मे पामर केम्ब्रिज के सेट जान्स कालेज में भरती हुए। वहाँ की अन्तिम परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद, १८६७ में, वे अपनी फारसी और उर्दू की योग्यता के कारण, वहाँ के 'फेलो' चुन लिये गये । 'फेलो' नियत होने से उनकी आम- दनी कुछ बढ़ गई और उनकी अर्थ-कृच्छ्ता जाती रही।

१८७० मे,सन्आ (अरब) प्रदेश की नाप-जोख के लिए कुछ लोगों को भेजने की आवश्यकता गवर्नमेंट ने समझी। उस समय एक ऐसे आदमी की भी आवश्यकता हुई जो उस देश की भाषा, अरबी, बहुत अच्छी तरह जानता हो और वहाँ की बातों, नामों, दन्तकथाओं और वीजकों को अच्छी तरह पढ़ और समझ सकता हो। यह काम पामर को मिला। इसे उन्होंने बहुत अच्छी तरह निबाहा । सन्आ प्रदेश से लौटने पर, वहाँ की छानबीन पर, उन्होंने दो उपयोगी पुस्तके प्रकाशित की।

१८७१ में पामर अरबी के अध्यापक हो गये। उसी वर्ष उन्होंने अपना विवाह भी किया, परन्तु वे विवाह से सुखी न हो सके। उनकी स्त्री को क्षय-रोग हो गया। स्त्री के इलाज से पामर ने अपना सारा धन फूँँक दिया और ऋणी भी हो गये, परन्तु वह न बची। १८७९ में उन्होंने अपना दूसरा विवाह किया। १८७० से लेकर १८८१ तक बहाउद्दीन की कविता, अरबी का व्याकरण, कुरान का अनुवाद, फारसी का कोश, फ़ारसी-अँगरेज़ी-कोश, हाफ़िज़ शीराज़ो की कविता, ख़लीफ़ा हारूनुर्रशीद की जीवनी आदि कोई बीस छोटी-बड़ी पुस्तके उन्होंने लिखी।

१८८१ मे ईजिप्ट मे घोर विप्लव हुआ। विप्लव-कारियों का मुखिया था अरबी पाशा। वह आसपास की असभ्य मुसलमान जातियों को जिहाद के उपदेश द्वारा अँगरेज़-अधि- कारियों के विरुद्ध भड़काने लगा। इंगलेड के राजनीतिज्ञ इस बात से बड़े चिन्तित हुए। उन्हे भय हुआ कि यदि असभ्य जातियाँ अरबी पाशा से मिल गई तो स्वेज की नहर की खैर नही, और साथ ही ईजिप्ट देश से भी हाथ धोना पड़ेगा। पामर की योग्यता की ख्य़ाति देश भर में फैल चुकी थी। सन्आ जाकर और वहाँ निर्दिष्ट काम करके उन्होने यह भी सिद्ध कर दिया था कि अरबी बोलनेवाली असभ्य जातियों से काम निकालने में उनसे अधिक चतुर देश भर में कोई नहीं। अतएव गवर्नमेट की नज़र इन्हीं पर पड़ी। काम बड़ा कठिन था। ईसाइयों के विरुद्ध भड़की हुई असभ्य जातियों को अरबी पाशा से न मिल जाने का इन्हे उपदेश देना था। परन्तु पामर अच्छी तरह जानते थे कि इस काम के लिए कार्य्य-दक्षता के अतिरिक्त अरबी की बड़ी भारी योग्यता की भी आवश्यकता है और सिवा उनके और किसी से यह काम न हो सकेगा। यह सोचकर वे ईजिप्ट गये। उस देश की और उसके आसपास के प्रदेशों की असभ्य जातियों और उनके सरदारों से मिलकर इस बात की वे चेष्टा करते रहे कि वे अरबी पाशा से न मिलें। पामर ने इस काम मे बड़ा साहस प्रकट किया। काफ़िरों के ख़ून की प्यासी असभ्य जातियों को रक्तपात करने से मना करना, या उन्हे रुपये के बल से शत्रु के साथ मिल जाने से रोकने की चेष्टा करना, कम साहस का काम न था। पर इस काम में पामर को बहुत कुछ सफलता हुई। यात्रा समाप्त करके वे स्वेज़ पहुँच गये; परन्तु वे वहाँ अधिक दिन न ठहर सके। उन्हे कुछ आदमियो के साथ इन असभ्य जातियों के प्रदेश में पहले से भी गुरुतर कार्य्य करने के लिए फिर जाना पड़ा। इसी यात्रा मे, जब वे अपने साथियों सहित ऊँटों पर सवार एक जङ्गल से होकर जा रहे थे, बहुत से अरबी ने उनके ऊपर आक्रमण किया और उन्हे और उनके साथियो को मार डाला। अपने देश की सेवा करता हुआ यह विद्वान् संसार से, इस प्रकार, निर्दयता-पूर्वक, छीन लिया गया।

लेख यद्यपि बढ़ जायगा तथापि, यहाँ पर, पामर साहब के लिखे हुए उर्दू और फ़ारसी के गद्य-पद्यात्मक लेखों के कुछ नमूने देने का लोभ हम संवरण नहीं कर सकते। आक्सफर्ड विश्वविद्यालय मे जी० एफ० निकोल साहब, एम० ए०, अरबी भाषा के अध्यापक थे। मालूम नहीं इस समय वे जीवित हैं या नहीं। वे संस्कृत और फ़ारसी के भी विद्वान थे। पामर साहब से और उनसे मित्रता थी। उन्होंने फारसी के मशहूर शायर जामी और हाफ़िज़ की तारीफ़ में कुछ कविता फारसी मे लिखकर पामर साहब को देखने के लिए भेजी। पामर को वह पसन्द न आई। उसे देखकर प्रापने एक व्यङग्य-पूर्ण कविता लिखी और निकोल साहब को भेज दी। उसका कुछ अंश नीचे दिया जाता है-

तू मीदानी जे कितमीरो नकीरम
कि अज़ तहरीरे खुद मन दर नफीरम ।
न मीश्रायद मरा रस्मे किताबत
चे मी पुरसी जे इनशाये जमीरम ?
दवात अगुश्ते हैरत दर दहानस्त,
पये तहरीर गर मन खामा गीरम ।
हमी किरतास मीपेचद जे गुस्सः
गरश बहरे नविश्तन् नामा गीरम ।
कलमदां मीनुमायद सीना रा चाक
कि मन दर जेये नादां जाय गीरम ।
जनम गर दस्त दर आगोशे मजमूंँ
जवानी के नुमायद अकले पीरम ?
फकीराना सवाले फिक्र दारम,
कि पेशे फ़िक्र कमतर अज़ फकीरम ।

चे मीकावी जिगर बेहूदा पामर
हमी बाशद निदाहाये सरीरम ।
पये तहरीर हालाते ज़रूरी
मगर वक्त ज़रूरत ना गुज़ीरम ।
मना इनशानो इमलायम हमा पूच
पनीर ई कौले मन ऐ दिल पज़ीरम ।
मनेह बर दोशे मन बारे दबीरी
हक़ीरम मन हकीरम मन हक़ीरम ।

अपने ऊपर ढालकर पामर ने निकोल साहब की फारसी की ऐसी खबर ली कि स्वयं निकोल साहब को पामर की कविता और फारसी की योग्यता की प्रशंसा करनी पड़ी। पामर के फ़ारसी-गद्य के नमूने के तौर पर उस पत्र का कुछ भाग उद्धृत किया जाता है जिसे उन्होंने अपने मित्र और शिक्षक सैयद अब्दुल्ला को लिखा था-

बिरादरे आली जनाब, फैज़माब, वाला ख़िताब, जी उल मज्द वल उला सैयद अब्दुल्ला साहब दाम इनायतहू। अल्लाह अल्लाह। ईचे तहरीर हैरत अफज़ा अस्त कि अज़ किल्के मरवारीद-सिल्के ऑ वाला हमम सरज़द । सबबे अदमे तहरीर मुहब्बत नामैजात न गफलत न तसाहुल बल्कि हकीकत हाल ई अस्त कि दर तसनीफ किताबे सैरो सैयाहीए अरब व तरतीवे नकशा जात हर दियार व ‌अम्सार व हवाली बहरो बर्र कि गुज़रम वर आँहा उफतादा व हालाते तवारीखे पास्तानी वक़ाये व कैफियाते औकाते सफ़र व हज़र खुद व दीगर सवानह अज़ हुक्मे हाकिमाने मदरसा बराय याददाश्त बर सफ़हात लैलो निहार हमातन मश गूलअम। व शर्त ई अस्त कि दर हमी साल अज़ हुलयाय तबा मुकम्मल शवद । ज़्यादा अज़ दो हज़ार अवराक तकतीय कार तमाम शुदन्द । अलावा तसनीफ तसहीहे अवराके मसवदाते मतबा दरॉ शबरा बराज व रोज़रा बशब वसर मीबरम । कमाल इहतियात ज़रूर अस्त कि गुप्ताअन्द "antraula LUN" आहुगीराने वेकार दिल-आजार कि नुक्ताचीनी ख्वाहन्द कर्द अज़ अव्वल इस्लाहे कार वायद कर्द। पस चिगूना अज़ तरफ़ ऑ विरा- दर कि उस्ताद व मुहसिन व मुरब्बी ई हेच मेयुर्ज़ बर दिले मोह- व्बत मंज़िलम गुबारे कुदूरत व मलाल जॉ गीरद-वजुज़ लुत्फ़ो इनायत चे करदह आयद कि मन ख़ुदा न ख्वास्ता ना खुश शवम । बहर कैफ़ लायक अफू व उज़रम न काविले जजूर चरा कि दिलम अज मुहब्बते शुमा मदाम मामृर अस्त । राह अगर नजदीक व गर दूरस्त ।

दिल जुदा दीदा जुदा सूय तू परवाज कुनद ।
गरचे मन दर कफ़सम वाल व परम विनयार अस्त ।

पामर माहब फ़ारसी-गद्य और पद्य तो अच्छा लिखते ही थे-उर्दू-गद्य और पद्य लिखने मे भी वे सिद्ध-हस्त थे। नीचे उनकी एक उ कविता उद्धृत की जाती है, जिसे उन्होंने संयद अब्दुल्ला की एक कविता देखकर उसी के वज़न पर लिखी थी। सैयद अब्दुल्ला न इस कविता के विषय में कहा था कि इसमें संशोधन की कुछ भी आवश्यकता नहीं और योरप भर में कोई आदमी ऐसी कविता नहीं लिख सकता-

चुकि है हमदे खुदा ताजे सरे नुतको वर्या
चतर-न‌अते ईसये गरदूंँ नशीं हो सायबाँ,
क्या अजब बरसाये अख़तर के जवाहिर आसर्मा
कहकर्जा के जौहरी बाजार से हो शादर्मा
मोरछल ताऊस लाये और कलगी खुद हुमा
दे ज़रे गुल की बनी पोशाक पुर जर वोर्स्ता
बोतले' गुऊचे बनें गुलहाय गुलशन हों गिलास
और गुलाबी होय बस रंगे बहारे गुलसिता ।
शाहिदे नाजे चमन रक्कासा होकर आयें फिर
दे इन्हें अकदे सुरैया का वह झुमका आसर्मा ।
सब जवानाने चमन गायें बजाये पेश गुल
नगमये बुलबुल को सुन चक्कर मे आये बागवां ।
यों सदा निकले बहम मिलकर बजाये साज जब
धूम दर पर धूम दर पर, दर पै तेरे शादिर्या ।
कहकशी तो हो सड़क जर्शते तार्वाँ हो नुजूम
रोशनी में उसपै सैयारों की दौड़े बग्धियाँ ।
आसा बन जाय पुल खुरशैद व मह हो लालटेन
और वजाये सिलसिला तारे शुभआयी हों अर्या ।
चर्ख बन जाये अमारी के तार्वा झूल हो,
फील हो अब सियः और राद होवे फीलर्बा ।
धुन में मस्ती की हवा पर जव चले वह झूम झूम
मौजे दरिया उसकी वेडी हो कदम कोहे की ।
हम-रकाबे अबलके. दोरी हो यह सारा जुलूस
और सवारी में मेरे ममदूह की होवे रवीं ।


कौन है वह साहबे इकबाल व इजत नार्थकोट
रायट श्रानरबुल सर इस्टफर्ड ममदूहे जर्मा ।

पामर का उर्दू मे भी अच्छा दखल था। वे जिस भाव को चाहते उसे बड़ी खूबी से अदा कर देते। विलायतहुसैन नाम के एक मौलवी ने उनके ऊपर यह दोषारोपण किया कि उन्होंने दीवाने खुसरो से कुछ कविताये चुरा ली हैं। पामर ने इस विषय में अपनी सफाई दी और अपने को निर्दोष सिद्ध किया। इसके बाद उन्होंने उक्त मौलवी पर एक व्यङ्ग्यपूर्ण कविता रचकर उसकी खुब ख़बर ली। इस कविता का एक खण्ड नीचे उद्धृत किया जाता है। देखिए-

हां गाज़िये मतला तू लगा तेगे दो दस्ती
शश पारा कर इस मौलवी का पैकरे हम्ती ।
ही साकिये दौरा है दमे रिन्दी ओ मस्ती
हुशयार कि दम मे न बलन्दी है न पस्ती।
न खुम है न शीशा है न साग़र है न वादा
हर बार फिके नशये जुर‌अत है ज़ियादा। ,
आ सामने यह गो है यह चौर्गा है यह मैर्दा
मैं इल्म हूँ तू जहल, मैं श्रादम हूँ तु शैतां ।

इसे पढ़कर मौलवी साहब के होश ठिकाने आ गये । ड्यूक आव ऐडिनवरा के विवाहोत्सव के समय पामर ने एक मसनवी लिखी थी। उसका कुछ अंश सुन लीजिए-

किसकी यह शादी है किसकी यह फौज
जोश मारे है यह किस दरिया की मौज ।

तब कहा एक शख्स ने तू इस कदर
हाल से हैगा जहाँ के वे खबर ।
ड्यू क ‌आव ऐडिनबरा है जिसका नाम
धाक से लरजे है जिसके रूम व शाम ।

× × × ×

सुन के यो बोला दोआ कर पामर नित रहे इस शमा से पुरनूर घर । १८७३ में फारिस के तत्कालीनशाह विलायत गये । उनकी इस यात्रा का सविस्तर हाल पामर ने उर्दू मे लिखा। वह अवध-अखबार में निकला। इस लेख के कुछ खण्डों को हम, पामर के उर्दू-गद्य के नमूनों के तौर पर, नीचे उद्धृत करते हैं-

शाह फारस की आमद

अब हर लमहा उम्मेदवारिये दीदारे फ़रहत आसारे शहर- यारे कामगार थी। कभी खबर उड़ती थी कि अब रेलगाड़ी शाही करीब पान पहुंची।

बस कि दर जाने फ़िगारम चश्मे वेदारम तुई
हर कि पैदा मी शवद अज दूर पिन्दारम तुई ।

बावजूद गरमी और इन्तिज़ारी के एक तरह की चहल और जिन्दादिली सभी के दिलों पर छा रही थी कि एकाएक शिल्लक सलामी किलै लन्दन से बमुजर्रद छूने नाफे लन्दन के दनादन दगने लगी। अब कोई दकी़का़ की बात वाकी़ न रही। लेडियाँ मुअज्ज़ज़ महवश रश्केहूर, एकबारगी जैसे कोई कल को खींचता हो, उठ उठ खड़ी हुई कि ट्रेन शाही भी, जैसे कि मिहर अज़ मतलै अनवार दर प्रायद, तालै हुई। रोज़े इन्तिज़ार आख़िर और शाने इज़तिरार को सहर-

दोबारा लव न कुशायद सदफ व अबरे बहार,
करीम सायले खुदरा ग़नी कुनद एकबार ।

एक हलचल सी हुई। हत्ता कि गाड़ियों के घोड़े भी टापैं मारने लगे और सभी की आँखें नरगिसवार एक तरफ़ तरतीबवार जम गई।

इटालियन आपरा के तमाशे में शाह का जाना

तो क्या देखते हैं कि सात सौ परीज़ाद गुलअन्दाम मिहर- चेहरा जुहरा-जबी माह-ताबॉ व खुरशेदे दरूख्शॉ उनपै शैदा हैं। हर एक परी हाथ जमुर्रद और मरवारीद और इल्मास टके लगाये हुए थी। ज़्याये गयास मे ऐसा मालूम होता था कि हजारों माहताब निकले हैं। जो जो राग और स्वाॅग और करतब और तमाशे दिखलाये कि बादशाह और हमराही हैरान हो गये। इलाही यह ख्वाब है। ये सचमुच के आदमजाद हैं या परियों का अखाड़ा उतरा है। खुसूसन जब परियाँ तार के ज़ोर से मिस्ल तायरों के उड़ती थी यकायक वादशाह और सब इमराही के जवान से “वाह" “वाह" की सदा बलन्द हुई। अगर शिम्मा उसका बयान लिखू तो कलम विशिकन, स्याही रेज़, काग़ज़ सोज, दम दरकश का आलम हो । अलवर्ट हाल में शाह की तारीफ में गाये गये अँगरेज़ी गीतों का पामर द्वारा किया गया

फारसी पद्य में अनुवाद

( १ )

मुबारक मुबारक सलामत शहा,
मुबारक मुबारक सलामत शहा,
बुबी आमद अज़ मुल्के ईर्रा जमी,
शहे नामवर बा जलाले मुबीं।
बदौरश खलायक गिरफ़ता हुजूम,
सदाये खुशी ख़ास्त हरसू उमूम,
चे खुलके कि अज़ दस्ते फै़जा़ने शाह,
जे अकलो जे दानिश शवदरु बराह ।

( २ )

मुबारक मुबारक सलामत शहा ।
सदाये रसीदा जे चर्खे बरी,
मुबारक शहा मकदमे ई ज़मी,
जवावे रसीदा जे अफलाक बाज़,
मुबारक सलामत शहे बे नियाज़ ।
शहे पारिस श्रामद जे शुकरे अर्या,
न अज कस्दे तस्खीरे मुल्को जहाँ,
मगर ई कि हासिल कुनद नामे नेक,
शवद अज सखावत सर अंजामे नेक ।
गुजारद हमी तेगे ख़ुद दर गिलाफ,
कि सुलहो श्रर्मा वेह जेलाफो गज़ाफ,

बख्वाहद कि मानिन्दे शाहजहां,
व मानद बसे नामेऊ दर जहाँ ।

एक दिन शाह गुप्त रीति से शीश महल (Crystal palace) देखने गये। उनका सादा वेश देखकर लोगों ने उन्हें शाह का कोई नौकर समझा। पामर ने इस घटना का इस प्रकार वर्णन किया है- वादशाह से बजरिये मुतरजिम, जो फरासीसी ज़बॉ जानता था, पूछा कि तुमको बादशाह की सरकार मे कौन ओहदा है। बादशाह ने फरमाया-खिदमतगारे खास और मोतमदअलेह । और, चन्द हमराहियों ने कहा कि बादशाह इन पर बहुत एत- माद रखते हैं। सदहा महलका दुख्तराने फरंग ने इश्तियाक गर्म जोशी और लमसे अनामिल फैजशवामिल जाहिर किया। अक्सरो को आला हजरत ने सरफ़राज़ फरमाया ।

पामर से शाह की भेंट

फिर हाल इस बे-परोबाल का पूछा और फरमाया- "निजूद वया-कुजा फारसी ओ अरवी याद गिरफ़ती ?"

पामर-"फ़ारसी अज़ सैयद अब्दुल्ला व अरवी अज़ अरबों दर ई जा व हम दर अरवरफ़्ता आमोख़तम् ।"

फरमाया कि-"मन शनीदाअम तू शायरे फ़ारसी हस्ती ।"

पामर-"ई हेचमदाँ कम कम मीगोयद, न लायके समाअते वन्दगाने आला हज़रत ।" बहुत हँसे। बादहू पूछा-"ई कारे मुदर्रिस अज़ तरफ़ कीस्त ?" पामर-"फ़िदवी खास मुदर्रिस अजतरफ़ मलिकै मुअ- जजमा इंगलेड अस्त व ई ओहदा मुखत्तल अज़ तरफ़े मलिका मायानस्त।"

शाह-"चन्द तलामिज़ा मीदारी ?"

पामर-"बिलफैल हमा ब औताने ख़ुद रफ़्ता अन्द कि अय्यामे तातील अन्द ।"

आला हज़रत निहायत खन्दै पेशानी से हँस हँसके कलाम फरमाते रहे और जरा गुरूर और नखवत का नाम नहीं। और सूरत से आसारे सुलतानी व रोवे कहरमानी और जहूर मकरमते जिल्ले सुबहानी पदीदार थे। सुब्हान अल्लाह । क्या कहना है। हम लोग मुरख्खस हुए तो रोज़- नामचा-निगार ने हमारे नाम और निशान दर्ज नामच किये और दस्तख़त उसमे दर्ज करवाये।

प्रशंसा-पत्र

अब हम थोड़े से प्रशंसा-पत्रो का हिन्दी अनुवाद नीचे देते हैं,जो पामर को लोगों ने उनकी योग्यता पर मुग्ध होकर दिये थे।

सैयद-गुलाम हैदर ख़ाँ साहब का लिखा हुआ

प्रशंसा-पत्र

एडवर्ड हेनरी पामर साहब के लिखे हुए अरबी, फारसी और उर्दू के निबन्धों की भाषा की शुद्धता और सुन्दरता को पूर्णतया सिद्ध करने के लिए मैंने उनके निबन्धों को लखनऊ के उलमा, अध्यापकों और साहित्य-सेवियों की एक बड़ी सभा करके, १ जून १८६७ को, उसके सामने पेश किया। उन सज्जनों की सहायता से उन निबन्धो की भाषा की शुद्धता और सरलता पर विचार हुआ। अब मैं इस बात की तसदीक करता हूँ कि इन निबन्धों की भाषा बहुत ही शुद्ध और सुन्दर है और उनकी भाषा में और उस भाषा मे जो इस देशवाले काम में लाते हैं--भाव दरसाने, उपमा देने, या शब्दों का प्रयोग करने में कोई अन्तर नहीं है। मैं इस बात की भी तसदीक करता हूँ कि पामर साहब को पूर्वोक्त तीनों भाषाओं मे पूर्ण पाण्डित्य प्राप्त है।

(१) सैयद ,गुलाम हैदर, इन्न मुंशी सैयद मुहम्मद खॉ बहादुर ।

(२) नवलकिशोर, स्वत्वाधिकारी और सम्पादक "अवध-असवार"

(३) सैयद अली इन्न सैयद अहमद साहब, लखनऊ के शाही विश्व-विद्यालय के अध्यापक

( २ )

केम्ब्रिज के मेंट जान्स कालेज के अध्यापक मिस्टर ई० एच० पामर मेरे मित्र हैं। कई साल तक उन्होंने मुझसे पढ़ा भी है। उनकी अध्ययनशीलता और विलक्षण बुद्धि पर मुझे सदा आश्चर्य और हर्ष होता रहा है। अब मुझे इस बात को प्रकट करने मे बडी खुशी होती है कि वे हिन्दुस्तानी, फ़ारसी और अरबी भाषाओं के अच्छे पण्डित हो गये हैं और इन तीनों भाषाओं को बड़ी ही शुद्धता और सरलता-पूर्वक लिख और बोल सकते हैं।

२९ जून १८६६।

सैयद अब्दुल्ला,
लन्दन-यूनीवरसिटी कालेज के
हिन्दुस्तानी भाषा के अध्यापक और
पञ्जाब के बोर्ड आव् एडमिनिस्ट्रेशन
के भूतपूर्व अनुवादक और दुभाषिये।

(३)

मैं ख़ुशी से सेंट जान्स कालेज के एडवर्ड हेनरी पामर साहब की अरबी, फ़ारसी और हिन्दुस्तानी भाषा की योग्यता की तसदीक़ करता हूँ। मुझे इस बात तक के कहने में सङ्कोच नहीं कि मुझे अपने जीवन भर में किसी ऐसे योरप-निवासी से भेंट नहीं हुई जो भाषाओं का इतना विज्ञ हो जितने कि पामर साहब हैं।

ता° २७ जून १८६६।

मीर औलाद अली,
ट्रिनिटी कालेज, डब्लिन के
पूर्वी भाषाओं के अध्यापक।

नीचे एक पत्र उद्धृत किया जाता है, जिसे पामर की एक

गजल सहित नवाव निज़ामुद्दौला बहादुर ने अवध-अखवार को भेजा था-

साहवे मन मुरब्बी मुश्फिकी हमदॉ फख्ने हिन्द अज़ीज़े दिलहाय अहले इंगलेड सैयद अब्दुल्ला साहब बहादुर प्रोफ़ै- सर ने मुकामे दिलकश लन्दन से अपने खत मे यह कन्दे मुकर्रर- खत मै गज़ल फाज़िल अजल्ल हकीम व जहाँदीदा जहाँआशना खुल्के फ़ख्रे इंगलिस्तान मिस्टर एडवर्ड पामर साहब बहादुर का मेरे पास इस गर्ज से भेजा है कि उनकी फारसी ग़ज़ल से मैं भी लुत्फ उठाऊँ और उनके हाथ का लिखा देखकर इवे- दाय सवादे ख़त से चश्मे जॉ को मुनौवर करूँ और वादहू वास्ते उलुल-अबसार अहले-हिन्द के वराय दर्ज अखबार भेजूंँ, ताकि अहले-हिन्द जानें कि नाज़ परवरदा विलायते दूर दस्त इँगलेड के वित्तवा ऐसे लायक फायक़ तब्बास मेहनती अमीर शायक होते हैं कि घर बैठे उलूम शरकी में. जिसमे अक्सर अहले मशरिक तो प्रारी व आतिल हैं, वे कमाल खुदादाद हासिल करते हैं। सैयद साहव ने अपने खत में लिखा है कि ये साहव जवाँसाल जवॉबख्त उलूम-दान निहायते योरप के सिवा जैसे उलूमे मशरिक में दस्तगाह रखते हैं वैसे ही उसकी खत व कितावत और तहरीर व तकरीर में यदेतूला। और तुरफा यह कि मर जूकिये तवा से शेर भी फ़रमाते हैं। चुनाँचे ग़ज़ल्ले सादी पर एक ग़ज़ल जो भेजी है कैसी लुत्फ़-अंगेज़ बल्कि हैरत-अंगेज है। इस काबलियत के सिले में साहब मौसूफ़ को पन्द्रह सौ महीना का एक आला ओहदा बम्बई में मिलता है मगर अभी तअम्मुल है। जहे बख्ते हिन्द, जहाँ ऐसे लायक और आलिम कारफरमॉ हो। साहबे ममदूह से मेरा भी गायबाना इत्तहाद बहुत बरसों से है। मगर उनका शौके इल्म व जबॉदानी रोज़अफ़ज़ जूं ही सुनता हूँ। चुनॉचे अब अरबी इल्म और जबॉ मे भी कमाल हासिल कर लिया और खुद अरब जाकर नाम कर आये और अब उसकी तारीख लिख चुके हैं जिसका जिक्रे खैर भी उनके ख़त से वाजेह है। ख़ुदा उनके इल्म और उम्र में खैर व बरकत दे। ज्यादा ज्यादा वस्सलाम। मकाम दारुल मन्सुर, जोधपूर । मुहम्मद मर- दान अली खॉ गफरहू-दिसम्बर सन् १८७१ ईसवी ।

[जनवरी १९१३


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