विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/१९ कर्म-वेदांत

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विवेकानंद ग्रंथावली : ज्ञान-योग  (1923) 
द्वारा स्वामी विवेकानंद, अनुवादक जगन्मोहन वर्मा
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कर्म-वेदांत।
तीसरा भाग।
(लंदन―१७ नवंबर १८९६)

छांदोग्योपनिषद् में एक कथा है कि नारदजी सनत्कुमार के पास गए और उन्होंने अनेक प्रश्न किए, उन्हीं में से एक यह भी है कि क्या सारे पदार्थों की स्थिति धर्म से है? सनत्कुमारजी ने नारद को धीरे धीरे, जैसे कोई बालक को सीढ़ी पर हाथ पकड़कर चढ़ाता हुआ ले जाय, उस विषय को समझाया है। उन्होंने कहा कि पृथ्वी से अमुक श्रेष्ठ है, अमुक से अमुक, और इस प्रकार वे आकाश तक पहुँचे। वे कहते हैं कि आकाश प्रकाश से श्रेष्ठ है, क्योंकि सूर्य्य, चंद्र, विद्युत्, तारे सब आकाश में ही हैं; हम आकाश में रहते हैं और नष्ट होकर आकाश ही में मिल जाते हैं। फिर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या आकाश से भी कुछ श्रेष्ठ है। सनत्कुमारजी ने कहा―वेदांत के अनु- सार प्राण जीवन का हेतु है। आकाश के समान प्राण भी सर्व- व्यापक है। सारी गति जो शरीर में वा और कहीं होती है, प्राण ही के कारण होती है। वह आकाश से भी श्रेष्ठ है। सब प्राणी प्राण ही से जीते हैं। प्राण ही माता में, पिता में, भाई में, बहिन में और आचार्य्य में है। प्राण ही सबका ज्ञाता है।

अब मैं आपको एक और बात सुनाता हूँ। श्वेतकेतु ने

अपने पिता से सत्य की जिज्ञासा की। पिता ने बहुत से पदार्थों [ ६१ ]
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के नाम लेकर अंत में कहा―‘जो हम सब पदार्थों का सूक्ष्म कारण है वही सबका कारण है, वही सब कुछ है, वही सत्य है; हे श्वेतकेतु, वह तू है’। फिर उसने अनेक दृष्टांत दिए। कहा―‘हे श्वेतकेतु, मधुमक्खी अनेक फूलों से रस लाती है। भिन्न भिन्न फूलों के रस यह नहीं जानते कि वे भिन्न भिन्न वृक्षों और भिन्न भिन्न फूलों के हैं। इसी प्रकार हम लोग उस सत्ता में पहुँचकर यह नहीं जानते कि हमने यह किया है। यही सत्य है। यही आत्मा है। हे श्वेतकेतु वह तू है।’ उसने दूसरा दृष्टांत नदी का दिया। कहा कि नदियाँ बहकर समुद्र में जाती हैं; और वहाँ वे यह नहीं जानतीं कि हम भिन्न भिन्न हैं। इसी प्रकार जब हम उस सत्ता में पहुँचते हैं तब हम यह नहीं जानते कि हम कौन हैं। हे श्वेतकेतु वह तू है। इसी प्रकार वह उसे शिक्षा देता है।

अब ज्ञान प्राप्त कराने की दो रीतियाँ हैं। एक यह कि विशेष से सामान्य और सामान्य से विश्वव्यापक ज्ञान प्राप्त कराना। दूसरा यह है कि जिले समझाना हो, उसके स्वरूप से ही जहाँ तक संभव हो, समझा देना। अब पहली रीति के अनु- सार हम देखते हैं कि हमारा ज्ञान एक नहीं है, अपितु अनेक है जो ऊँचे से ऊँचा होता गया है। जब कोई एक बात होती है तब हम घबरा जाते हैं। पर जब यह होता है कि वही बात बार बार होती जाती है, तब हमें संतोष हो जाता है और हम उसे नियम कहने लगते हैं। हम जब देखते हैं कि एक सेब डाल

से टूटकर गिरा, तब हम चौंक पड़ते हैं। पर जब हम देखते हैं [ ६२ ]
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कि सब सेब डाल से अलग होकर गिर पड़ते हैं, तब हम उसे गुरुत्व का नियम कहते हैं और हमें संतोष हो जाता है। बात यह है कि विशेष ज्ञान से हमें सामान्य ज्ञान प्राप्त होता है।

हमें चाहिए कि जब हम धर्म पर विचार करने लगें, तब उन्हीं वैज्ञानिक नियमों को काम में लावें। वही नियम इस काम के लिये भी ठीक हैं। बात तो यह है कि देखने से हमें जान पड़ता है कि सब जगह उन्हीं नियमों से काम लिया गया है। इन पुस्तकों के देखने से, जिनका आशय मैंने आपके सामने प्रकट किया है, जो बात हमें सबसे प्राचीन जान पड़ती है वह यही है कि ‘विशेष से सामान्य ज्ञान की प्राप्ति होती है’। हम देखते हैं कि कैसे देवता लोग (प्रकाशमान) मिलकर एक तत्व बन गए। इसी प्रकार विश्वविधान पर विचार करते हुए वे ऊँचे से ऊँचे पहुँचे हैं―(स्थूल) द्रव्य से तन्मात्रा को और इससे वे व्यापक आकाश को, उससे वे सर्वव्यापक शक्ति प्राण को पहुँचे हैं। इन सब में वही बात पाई जाती है कि एक दूसरे से पृथक् नहीं हैं। आकाश ही सूक्ष्म रूप होकर प्राण था वा यों कहिए कि प्राण ही स्थूल होकर आकाश हुआ; और वही आकाश क्रमशः अधिक अधिक स्थूल होता गया।

पुरुषविध ईश्वर का सामान्यवाद उद्देश की दृष्टि से दूसरा विषय है। हम देख चुके हैं कि इस सामान्यवाद का ज्ञान कैसे हुआ और पूर्ण चेतनराशि को ईश्वर कहा गया है। पर एक

कठिनाई पड़ती है। इस सामान्यवाद में अव्याप्ति दोष है। हम [ ६३ ]
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प्रकृति के केवल एक अंश को ले लेते हैं अर्थात् चेतन मात्र को और उसी पर सामान्यवाद से काम लेते हैं; और दूसरे अंश को छूते नहीं। अंतः इसमें पहले तो यह सामान्यवाद ही दोष- ग्रस्त है। इसमें एक और दोष है और वह रीति वा नियम से संबंध रखता है। प्रत्येक पदार्थ का बोध उसके स्वरूप से होना चाहिए। संभव है कि कुछ ऐसे लोग भी रहे हों जिनका विचार यह था कि सेब जो भूमि पर गिरते हैं, उन्हें कोई भूत खींच लेता है। पर बात गुरुत्व के ही नियम की थी। यद्यपि हम जानते हैं कि यह यथार्थ लक्षण नहीं है, पर फिर भी यह दूसरे से कहीं अच्छा है। कारण यही है कि यह वस्तु के स्वरूप के आधार से प्राप्त हुआ है; और दूसरे का आधार बाह्य कारण है। यही अवस्था हमारे सारे ज्ञानों की है। वह लक्षण जो वस्तु के स्वरूप के आधार पर किया जाता है, युक्त और व्यापक होता है; और जो लक्षण बाह्य कारणों के आधार पर किया जाता है, वह दोषग्रस्त और अयुक्त होता है।

अब पुरुषविध ईश्वर के जगत्कर्तृत्व की परीक्षा करनी है। यदि वह ईश्वर प्रकृति वा संसार से अलग है, इससे उसका कुछ संबंध नहीं है और यह जगत् उसकी आज्ञा से उत्पन्न हुआ है, तो यह सिद्धांत अत्यंत अयुक्त और दोषग्रस्त है; और सारे विश्वासमूलक धर्मों में सदा से यही दोष रहा है। सारे एके श्वरवाद धर्म्म में―जिनमें पुरुषविध ईश्वर माना गया है―

जिनमें मनुष्य के ही गुण अधिक झाड़ पोंछकर भरे गए हैं―ये [ ६४ ]
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दो दोष हैं। उस ईश्वर ने शून्य से वा अपनी इच्छा से इस जगत् की रचना की और वह इससे पृथक् है। इससे दो कठिनाइयाँ पड़ती हैं।

जैसा कि हम देख चुके हैं, यह पर्य्याप्त सामान्यवाद नहीं है; और दूसरी बात यह है कि स्वरूप का यह लक्षण स्वरूप के आधार पर नहीं है। इसमें यह मान लिया गया है कि कार्य्य कारण से अलग है। पर मानवी ज्ञान यह बात प्रकट करता है कि कार्य्य कारण का रूपांतर मात्र है। इसी विचार की ओर सारे आधुनिक विज्ञान की प्रवृत्ति हो रही है और सबसे अंतिम सिद्धांत जिसे लोगों ने स्वीकार किया है, वह विकास- वाद का सिद्धांत है जिसका मूल सिद्धांत यह कि कार्य्य कारण ही का रूपांतर है; कारण का विकारभूत और कारण ही कार्य्य का रूप धारण करता है। यह सिद्धांत कि असद् से सृष्टि हुई, आजकल वैज्ञानिकों की दिल्लगी की बात हो रही है।

अब प्रश्न यह है कि क्या धर्म इस परीक्षा को सह सकता है? यदि धर्म का कोई ऐसा सिद्धांत हो जो इस आँच को सह सके तो आजकल लोग, जो विचारशील हैं ऐसे ही धर्म को स्वीकार करेंगे। और दूसरे सिद्धांत जिन पर लोगों से विश्वास करने के लिये इस कारण कहा जाय कि पुजारी उसे मानने के लिये कहते हैं, संप्रदाय के लोग उसे मानने की आज्ञा देते हैं, पुस्तकों में लिखे हैं, तो इसका परिणाम यह होगा कि कोई उन्हें

मानेगा नहीं और सब हँसी में उड़ा देंगे। यहाँ तक कि जिन [ ६५ ]
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पर लोग ऊपर से बड़ी श्रद्धा प्रकट करते हैं, यदि यथार्थ में देखा जाय तो उनके अंतःकरण में उन पर बड़ी ही अश्रद्धा रहती है। और कुछ लोगों को तो धर्म का नाम सुनते ही मानो कँपकँपी आ जाती है और वे यह कहकर उसका तिस्रकार करते हैं कि यह केवल पुजारियों के ढकोसले हैं।

धर्म को लोगों ने एक प्रकार से जातीयता का रूप दे रखा है। यह सामाजिक बात है जो बच रही है। इसे पड़ा रहने दीजिए। पर धर्म की वह आवश्यकता जो आधुनिक मनुष्यों के पूर्वजों ने समझी थी, नहीं रह गई है। अब लोगों को वे बाते युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होतीं। अब पुरुष-विशेष ईश्वर और उसके स्रष्टा होने की बात जो प्रायः एकेश्वरवाद के नाम से विख्यात है, ठहर नहीं सकती। भारतवर्ष में तो वह वाद बौद्धों के मारे ठहर नहीं सका था और यही विषय था जिसमें प्राचीन काल में उन्हें विजय प्राप्त हुई थी। उन लोगों ने सिद्ध कर दिया कि यदि हम यह मान लें कि प्रकृति में अनंत शक्ति है और वह अपना सारा काम चला सकती है, तो इस बात पर बल देना अनावश्यक है कि प्रकृति से परे भी कुछ और है। और की बात तो अलग, आत्मा की भी आवश्यकता नहीं है।

द्रव्य और गुण के संबंध में भी जो विवाद है वह बड़ा पुराना है और आपको कभी कभी यह जान पड़ेगा कि पुराना पक्षपात आज तक चला जाता है। आप लोगों में कितनों ने

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पुस्तकों में पढ़ा होगा कि माध्यमिक काल में, और दुःख से कहना पड़ता है कि उसके बहुत पीछे तक भी, यह शास्त्रार्थ का एक विषय था कि द्रव्य गुण का आधार है या नहीं, लंबाई, चौड़ाई और मोटाई, जिसे जड़ प्रकृति कहते हैं, द्रव्य है वा नहीं। द्रव्य स्थायी है, गुण रहे वा न रहे। इस पर बौद्धों का कथन है―“ऐसे द्रव्य के सिद्ध करने के लिये कोई हेतु नहीं है। गुण ही तो सब कुछ है। आपको गुण के अतिरिक्त बोध किसका होता है?” यही हमारे बहुत से संशयवादियों का भी पक्ष है। क्योंकि यही द्रव्य और गुण का झगड़ा और ऊँचे जाकर अचल और चल के वाद का रूप धारण कर लेता है। संसार परिवर्तनशील है, यह नित्य बदलता रहता है। इसके परे कुछ ऐसा है, जो परिवर्तनशील नहीं है। इस चल और अचल की द्वैत सत्ता को कुछ लोग सत्य मानते हैं और अन्य लोग उससे प्रबल युक्ति के आधार पर कहते हैं कि हमें यह कहने का अधिकार नहीं है कि दो सत्ताएँ हैं। कारण यह है कि हम जो देखते, जानते और विचारते हैं, वह सब चल वा परिवर्तनशील है। यह कहने का आपको अधि- कार नहीं कि इस चल वा परिवर्तनशील से परे भी कुछ है। इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। इसका उत्तर यदि कहीं मिल सकता है तो वेदांत में मिल सकता है। वह यह है कि आपका यह कहना ठीक है कि एक है और वही एक चाहे

परिवर्तनशील हो वा चल हो वा अचल। पर यह बात कभी ठीक [ ६७ ]
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नहीं है कि दो हैं; एक तो परिवर्तनशील है और उसके भीतर कोई और घुसा है जो अचल और व्यापक है। वह एक ही है जो परिवर्तनशील दिखाई पड़ता है पर सचमुच वह परि- वर्तनशील नहीं है। हम लोग शरीर, मन और आत्मा को पृथक् मानते आ रहे हैं; पर वास्तव में वे एक ही हैं और वही एक अनेक रूपों में भासमान हो रहा है। वेदांत के प्रसिद्ध दृष्टांत रज्जु और सर्प को लीजिए। कोई अंधकार के कारण वा अन्य कारणवश, भ्रम से रज्जु को सर्प समझता है। पर जब उसे ज्ञान हो जाता है, तब साँप जाता रहता है और रज्जु देख पड़ती है। इस दृष्टांत से यह निश्चय होता है कि जब मन में साँप था, तब रस्सो नहीं थी; और जब मन में रस्सी है, तब साँप नहीं रहा। जब हम चारों ओर चल ही चल देखते हैं तब हमारा मन ‘अचल’ नहीं रहता। पर जब हमें अचल और एक रस देख पड़ता है तब यह उपपत्ति निकलती है कि अचल नहीं रहा है। अब आपने दोनों सद् और असद्वादियों का पक्ष समझ लिया होगा। सद्वादी केवल चल को देखते हैं और असद्- वादी अचल को। क्योंकि असद्वादी और सच्चे असद्वादी के लिये जिसे सचमुच प्रत्यक्ष करने की शक्ति उत्पन्न हो गई हो और जिसके द्वारा उसके परिणाम के सब भाव जाते रहे हों, परिवर्तनशील विश्व नहीं रह जाता है, यह कहने का सर्वधा अधिकार है कि सब भ्रम की बातें हैं, कहीं कुछ परि- वर्तन नहीं है। सद्वादी को परिवर्तन ही परिवर्तन दिखाई [ ६८ ]पड़ता है। उसके लिये अचल रह ही नहीं जाता है और उसे भी यह कहने का अधिकार है कि सब सद् है।

इस दर्शन का निचोड़ क्या है? यही कि पुरुष-विशेष ईश्वर का भाव पर्याप्त नहीं है। हमें उससे कुछ और आगे जाना है और वह अपौरुषेयता का भाव है। यही तर्क की एक युक्ति है जिसका हमें आश्रय लेना चाहिए। इससे ईश्वर की पौरुषेयता नष्ट नहीं होती, और न उसे प्रमाणित करने के लिये प्रमाण ही दिया जाता है; अपितु हमें पौरुषेय के समझने के लिये अपौरु- षेय को स्वीकार करना पड़ता है। कारण यह कि अपौरुषेय का भाव पौरुषेय की अपेक्षा अधिक उच्च सामान्यवाद है। अपौरु- षेय ही अनंत हो सकता है, पौरुषेय तो सांत है। इस प्रकार हम पौरुषेय के पोषक हैं, उसके नाशक नहीं। प्रायः यह शंका होती है कि यदि हम अपौरुषेयता को स्वीकार करते हैं तो पौरुषेयता नष्ट हो जायगी; यदि हम अपौरुषेय मनुष्य को मानें तो व्यक्तता जाती रहेगी। पर वेदांत का विचार व्यक्तता नष्ट करने का नहीं अपितु उसकी रक्षा करने का है। हम व्यक्त को दूसरे प्रकार से सिद्ध ही नहीं कर सकते। उसकी जब सिद्धि होगी तब विश्व के संबंध से ही होगी; अर्थात् यह सिद्ध करने से कि व्यक्त वास्तव में विश्व ही है। यदि हम व्यक्त को इस सारे विश्व से अलग समझें तो वह क्षण भर भी नहीं रह सकता। ऐसा पदार्थ कभी रहा ही नहीं।

इसके अतिरिक्त अब दूसरी रीति को―अर्थात् इसे कि सब [ ६९ ]का ज्ञान उनके खरूप से कराया जाना चाहिए―काम में लाने से हम और उत्कृष्ट विचार पर पहुँचते हैं, ऐसे विचार पर जिसका समझ में आना बहुत कठिन है। वह इससे अधिक संक्षेप से नहीं कहा जा सकता है कि अपौरुषेय सत्ता सर्वोच्च सामान्य- वाद भी है और हम भी वही हैं। 'तत्त्वमसि श्वेतकेतौः' वह अपौ- रुषेय वा व्याप्य सत्ता तुम ही हो। वह ईश्वर जिसे आप सदा विश्व भर में ढूँढ़ते फिरते हैं, सदा से आप ही हैं-व्यक्ति- विशेष वा पौरुषेय की दृष्टि से नहीं, अपौरुषेय की दृष्टि से। मनुष्य जिसका हमें ज्ञान है अर्थात् व्यक्त, वह पुरुष रूप में है; पर उसकी सत्ता अपौरुषेय है। पौरुषेय के समझने के लिये हमें अपौरुषेय को जानना चाहिए। विशेष के लिये सामान्य का ज्ञान अपेक्षित है। वही अपौरुषेय सत्य है, वही मनुष्य की आत्मा है।

इसके संबंध में अनेक प्रश्न होंगे और ज्यों ज्यों में आगे चलता जाऊँगा, उनके उत्तर देने का प्रयत्न करूँगा। अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ पड़ेंगी; पर सबसे पहले हमें वेदांत के पक्ष को सम- झने की आवश्यकता है। व्यक्त रूप में तो हमारी सत्ता अलग दिखाई पड़ती है, पर वास्तविक रूप में हमारी सत्ता एक ही है; और जितना हम अपने को उस एक से कम अलग समझें, उतना ही अच्छा है। जितना ही अधिक हम अपने को उससे अलग समझते हैं, उतना ही अधिक हम दुःखी होते हैं। वेदांत के इसी सिद्धांत से हम आचार के मूल पर पहुँचते हैं और यह कहने का साहस कर सकते हैं कि हमें अन्यत्र से आचार [ ७० ]की कुछ भी उपलब्धि नहीं हो सकती। हम इसे जानते हैं कि आचार का प्राचीन भाव था किसी वा कुछ व्यक्ति-विशेष की आज्ञा का पालन होना; पर आजकल इसे बहुत कम लोग मानेंगे। कारण यह है कि यह केवल एकदेशी सामान्यवाद है। हिंदू कहते हैं कि हम यह या वह न करेंगे क्योंकि वेदों में तो ऐसा लिखा है; पर ईसाई अलग मानने को उद्यत नहीं हैं; क्योंकि इंजील में कुछ और है। उसे तो वे ही लोग मान सकते हैं जो इंजील को न मानते हों। पर हमें एक ऐसे सिद्धांत की आव- श्यकता है जो इतना विस्तृत हो कि उसके पेट में सब बातें आ जायँ। जैसे संसार में ऐसे करोड़ों लोग हैं जो पुरुष-विशेष ईश्वर को मानने के लिये उद्यत हैं, वैसे ही सहस्रों ऐसे बुद्धि- मान् भी संसार में हो गए हैं जिन्हें यह सिद्धांत पर्याप्त नहीं जान पड़ा था और जो किसी और उच्च ज्ञान के जिज्ञासु थे। अतः धर्म में इतना अधिक अवकाश नहीं था कि वे बुद्धिमान् लोग उसमें रह सकते। परिणाम यह हुआ है कि उन महात्माओं को समाज में रहते हुए भी धर्म्म से पृथक् रहना पड़ा है। और ऐसी अवस्था तो कहीं कभी न रही होगी जैसी कि आज युरोप में हो रही है।

ऐसे लोगों को अवकाश देने के लिये धर्म को अधिक विस्तृत और व्यापक होना चाहिए। सब धर्मों की बातों की जाँच तर्क की दृष्टि से होने की आवश्यकता है। यह समझ में नहीं आता कि धर्म यह क्यों चिल्ला रहे हैं कि हमारे लिये यह [ ७१ ]आवश्यक नहीं है कि हमारी जाँच तर्क से की जाय। यदि कोई तर्क से ठीक काम न ले, तो उचित निर्णय हो ही नहीं सकता। और बातों की तो कथा ही क्या, धर्म में भी ऐसा होना असंभव है। एक धर्म किसी महा घृणित कर्म करने की आज्ञा दे सकता है। उदाहरण के लिये मुसलमान धर्म को ले लीजिए। उसमें आज्ञा है कि विरुद्ध धर्मवालों को मारो। कुरान में यह स्पष्ट कहा गया है कि काफिरों को, अगर मुसलमान न हों तो, कतल करो। उन्हें आग में डालो और तलवार के नीचे करो। अब यदि किसी मुसलमान से कहा जाय कि यह ठीक नहीं है तो वह यह प्रश्न कर सकता है कि यह आप कैसे जानते हैं? आपको इसका ज्ञान हुआ कि यह ठीक नहीं है? मेरी पुस्तक में तो ऐसी ही आज्ञा है। यदि आप कहें कि हमारी पुस्तक पुरानी है, तो बौद्ध लोग आकर कहते हैं कि हमारी पुस्तक कहीं पुरानी है। फिर हिंदू भाकर कहते हैं कि हमारी पुस्तक सबसे पुरानी है। अतः पुस्तक के आधार पर निर्णय करना ठीक नहीं है। फिर वह आधार कौन है जिस पर जाँच करेंगे? ईसाई कहेंगे कि पर्वत पर की शिक्षा को देखो; मुसलमान कहेगा, कुरान के उपदेश पर ध्यान दो। मुसलमान कहेंगे कि इस विषय में मध्यस्थ कौन होगा कि हम दोनों में कौन अच्छा है? मध्यस्थ तो न कुरान हो सकता है न इंजील; कारण यह कि इन्हीं दोनों में विवाद है। कोई स्वतंत्र कसौटी होनी चाहिए और वह पुस्तक न होनी चाहिए, पर ऐसी होनी चाहिए जो व्यापक हो। फिर [ ७२ ]यह तो बतलाइए कि तर्क से अधिक और कौन व्यापक हो सकता है? यह कहा जाता है कि तर्क पूर्ण प्रबल नहीं है; उससे कभी कभी सत्य का ज्ञान नहीं होता; कभी कभी वह भूल कर जाता है। अतः प्रतिफल यह निकलता है कि हम ईसाई धर्म की बातों को मानें। यह बात मुझसे एक रोमन कैथलिक ने कही थी, पर मुझे तो इस तर्क का कुछ पता ही नहीं चला। मैं तो इस पर यह कहता हूँ कि यदि तर्क इतना निर्बल है, तो पुजा- रियों का समूह उससे कहीं निर्बल है; और मैं तो उनकी व्यवस्था को कभी मानने को तैयार नहीं हूँ। हाँ तर्क को मैं भले ही मानूँगा; क्योंकि उसमें निर्बलता भले ही हो, तो भी उसके द्वारा सत्य का ज्ञान होने की कुछ तो संभावना है। और दूसरे से तो उसकी कुछ आशा ही नहीं है।

अतः हमें तर्क का अनुगामी होना चाहिए और उन लोगों पर अनुकंपा करनी चाहिए जो तर्क का आश्रय लेकर किसी प्रकार के निश्चय पर नहीं पहुँच सके हैं। यह अच्छा है कि मनुष्य तर्क और युक्ति का अनुगामी होकर नास्तिक हो जाय; पर किसी की बात मानकर दो कोटि देवताओं पर विश्वास करना अच्छा नहीं है। हमें जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह आगे बढ़ना, उन्नति करना और साक्षात्कार करना है। किसी सिद्धांत से मनुष्यों की उन्नति कभी नहीं हुई है। कितनी ही पुस्तकें क्यों न हों, उनसे हम पवित्र नहीं हो सकते। यह शक्ति तो केवल एक साक्षात् करने में है और वह हम ही में [ ७३ ]है और विचारने से आ सकती है। लोगों को विचार करने दीजिए। मिट्टी का डला ही विचार नहीं करता। वह सदा डले का डला बना रहता है। मनुष्य का महत्व तो यही है कि वह एक चिंतनशील सत्व है। मनुष्य का स्वभाव विचारते का है और इसके कारण उसमें और पशु में अंतर है। मैं तर्क पर विश्वास करता हूँ और तर्क का अनुयायी हूँ। मैं शब्द-प्रमाणता की बुराइयों को बहुत देख चुका हूँ। मैं तो ऐसे देश में उत्पन्न हुआ हूँ जहाँ शब्द-प्रमाणता पराकाष्ठा को पहुँच चुकी है।

हिंदुओं का विश्वास है कि सृष्टि वेदों से हुई है। यह आप जानते कैसे हैं कि गाय है? इसी कारण कि वेदों में गाय शब्द है। यह ज्ञान आपको कैसे हुआ कि आगे मनुष्य खड़ा है? इसलिये कि वेद में मनुष्य शब्द है। यदि ऐसा न होता तो संसार में मनुष्य होते ही नहीं। यही उनका कथन है। शासन और वैरनिर्यातन! और इसका अध्ययन वैसे नहीं हुआ है जैसे कि मैंने अध्ययन किया है, अपितु किसी बलवान् आत्मा ने उसे लेकर उसके चारों ओर तर्क का अद्भुत जाल बना दिया है। इस पर उन लोगों ने तर्क किया और यह वहाँ एक पूरा दर्शन बन गया है और सहस्रों बुद्धिमान् मनुष्य सहस्रों वर्षों से इस सिद्धांत के अध्ययन में लगे हुए हैं। शब्द- प्रमाणता का यह प्रभाव है और इससे बड़ी बड़ी हानियाँ हैं। इससे मनुष्य की बाद रुक जाती है। हमें यह न भूलना चाहिए कि हमें बढ़ने की आवश्यकता है। यहाँ तक कि सारे [ ७४ ]सापेक्ष सत्य में हमें सत्य की अपेक्षा कहीं अधिक अभ्यास की आवश्यकता है। यही हमारा जीवन है।

वेदांत के सिद्धांत में यह विशेषता है कि यह सारे धार्मिक सिद्धांतों से जिनका हमें बोध है, कहीं युक्तियक्त है। फिर भी वेदांत में यह महत्व है कि उसमें ईश्वर के सभी एकदेशी विचार आ जाते हैं जिनकी बहुतों को आवश्यकता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह व्यक्तिगत व्याख्या अयुक्त है। पर इससे संतोष तो होता है। लोगों को संतोष देनेवाले धर्म की आवश्यकता है; और हमारी समझ में यही उनके लिये आवश्यक है। अतः यह आवश्यक है कि शांंतिप्रद धर्म बना रहे। इससे बहुतों को अच्छे बनने में सहायता मिलती है। छोटे लोग जिनके ज्ञान अल्प हैं और जिन्हें अपने सुधार की बहुत कम बातों की आव- श्यकता है, बहुत ऊँचे विचारों के लिये कष्ट नहीं करते। उनके विचार उनके लिये बहुत अच्छे और उपयोगी हैं। पर आपको अपौरुषेय (व्यापक) को समझना चाहिए; कारण यह है कि उसके समझने से और सब समझ में आ सकते हैं। उदाहरण के लिये पुरुषविशेष ईश्वर के भाव को ही ले लीजिए। वह मनुष्य जो अपुरुष-विधि को समझता है और जानता है― जैसे जॉन स्टुअर्ट मिल―कह सकता है कि पुरुषविध ईश्वर नहीं हो सकता, उसकी सिद्धि नहीं हो सकती। मैं उसकी इस बात को मानता हूँ कि पुरुष-विध ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती। पर वही अपुरुष-विधि का सर्वोच्च प्रकारांतर मात्र है [ ७५ ]जो मनुष्य की बुद्धि में आ सकता है। और यह विश्व है क्या? केवल उसी अप्रमेय का एक रूपांतर ही तो है। यह क्या है? एक पुस्तक ही तो है और सब उसके पढ़ने के लिये बुद्धि लगा रहे हैं, सब उसका अध्ययन कर रहे हैं। इसमें कुछ न कुछ ऐसा है जो सब मनुष्यों की बुद्धि में समान रूप से आता है। यही कारण है कि मनुष्य की बुद्धि में कुछ बातें एक रूप से आती हैं। हम और आप कुर्सी को देखते हैं; इससे यह स्पष्ट है कि हममें और आपमें कोई ऐसी वस्तु है जो समान रूप से दोनों में है। मान लीजिए कि एक सत्व ऐसा है जिसमें कोई अन्य प्रकार की इंद्रिय है, तो उसे कुर्सी न देख पड़ेगी। पर जिन सत्वों का संघटन एक सा है, उन्हें वही वस्तु दिखाई पड़ेगी। एक प्रकार से यह विश्व अप्रमेय, अपरिणामी और एकरस है, निर्विकार है। विकार उसीका एक रूपांतर मात्र है। क्योंकि पहले तो आपको यह जान पड़ेगा कि जितने विकारी हैं, वे प्रमेय हैं। सब विकार जो हम देखते वा स्पर्श करते हैं वा हमारे ध्यान में आते हैं, प्रमेय हैं; हमारे ज्ञान से परिमित हैं। और पुरुषविध ईश्वर जो हमारे ध्यान में आता है, निस्संदेह विकार मात्र है। वही परिणाम का भाव विकारी जगत् में व्याप्त है और विश्व के कारण ईश्वर दोनों अवस्था में सहज ही प्रमेय समझा जा सकता है; और इतना होते हुए भी वह है वही अपुरुष-विध ईश्वर। यही विश्व जैसा कि हम देख चुके हैं, हमारी बुद्धि से वही अपुरुषविध ईश्वर है। विश्व में जो [ ७६ ]सार है वही अपुरुष विध ईश्वर है और उसे रूप और भाव हमने अपनी बुद्धि से दे रखा है। इस मेज में जो सार है, वह वही सत्ता है; और मेज के रूप की और अन्य रूपों की कल्पना हमारी बुद्धि की की हुई है।

अब उदाहरण के लिये गति को लीजिए। विकार का यही मुख्य लिंग है। हम इसकी उस विश्वव्यापक के लिये कल्पना नहीं कर सकते। विश्व में जितने अंश हैं, उनका एक एक अणु सतत परिवर्तित हो रहा है, परिणाम को प्राप्त हो रहा है, गति कर रहा है। पर समूचा विश्व समष्टि के रूप में निर्विकार है। कारण यह है कि गति का विकार सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। हमें किसी की गति का बोध कब होता है? तभी न जब हम उसकी किसी ऐसे पदार्थ से तुलना करते हैं जो गतिशील नहीं होता। गति को समझने के लिये दो पदार्थों की आवश्य- कता है। सारा विश्व समष्टि रूप से ध्रुव है; उसमें गति नहीं है। यह तो विचारिए कि वह किसकी अपेक्षा गति करेगा। इसमें परिवर्तन है, यह तो कहा ही नहीं जा सकता। यदि कहोगे तो किस की अपेक्षा से कहोगे? अतः सब शाश्वत है और उसके भीतर प्रत्येक परमाणु परिणामशील है। यह एक ही साथ परिणामी और अपरिणामी दोनों है। विकारी भी है निर्विकार भी, अपुरुषविध और पुरुषविध, एकदेशी और सार्वदेशी सब है। हमारी यहो धारणा विश्व के संबंध में, यही गति के संबंध में और यही ईश्वर के संबंध में है। [ ७७ ]यह अर्थ 'तत्व मसि' वाक्य से व्यक्त किया गया है। अतः हम देखते हैं कि अपुरुषविध वा सार्वदेशी पुरुषविध वा एकदेशी का खंडन करने के स्थान में और निरपेक्ष सापेक्ष को जड़ से उखाड़ने के बदले उसे हमें समझा देता है और हमारी बुद्धि और मन में बैठा देता है। पुरुषविध ईश्वर और जो कुछ विश्व में है, सब हमारे विचार में वही अपौरुषेय ब्रह्म है। जब हमारे मन का साथ हमसे छूट जायगा, हमारी लघु व्यक्ति का ध्वंस हो जायगा, तब हम उसमें एकीभूत हो जायँगे। यही 'तत्त्वमसि' वाक्य का अर्थ है कि हमें अपने सच्चे स्वरूप का बोध हो जाय कि हम निरपेक्ष हैं, केवल हैं।

परिमित व्यक्त मनुष्य अपने कारण को भूल जाता है और अपने को अलग समझता है। हम भेद की दशा में अपने स्वरूप को भूल गए हैं। वेदांत की शिक्षा यह नहीं है कि हम भेद को त्याग दें अपितु यह समझें कि हम क्या हैं। सचमुच हम वही हैं। हमारी व्यक्तता वा सत्ता केवल अलग अलग नलियों के समान है जिनमें से होकर वह अप्रमेय सत्ता अपने को व्यक्त कर रही है। सारा विकार जिसकी समष्टि को हम विकाश वा आरोह कहते हैं, उस आत्मा के अपनी अनंत शक्ति को व्यक्त करने के कारण दिखाई पड़ता है। हम बिना उस अप्रमेय को प्राप्त हुए रुक नहीं सकते। हमारा बल, आनंद और ज्ञान स्थिर नहीं रह सकते, अपितु वे बढ़ते जायँगे। अप्रमेय बल, सत्ता और आनंद हमारा है। हमें उन्हें प्राप्त करना [ ७८ ]नहीं है; वे हमारे हैं और हमें उन्हें केवल प्रकट करना रह गया है।

वेदांत का यही मुख्य ज्ञान है। इसका समझना बड़ा कठिन है। बचपन ही से सब लोग मुझे निर्बलता की शिक्षा देने लगे, जन्म से ही लोग यह कहने लगे कि तुम निर्बल हो। ऐसी दशा में मेरे लिये यह जानना कि मुझमें कितना बल है, बहुत ही कठिन है। पर अनुभव और तर्क से मुझे अपने बल का ज्ञान प्राप्त होता है और मैं उसे साक्षात् कर सकता हूँ। सोचो तो सही कि हमें इस संसार में जो कुछ ज्ञान है, वह आया कहाँ से? वह हमारे ही भीतर तो था। बाहर क्या है? कुछ भी तो नहीं। ज्ञान द्रव्य में नहीं है; वह सदा से मनुष्य में है और था। किसी ने एक भी ज्ञान गढ़ा नहीं, मनुष्य ने अपने भीतर से ही उसे निकाला है। यह वहीं भरा था। सारा बट का वृक्ष जो बिगहों में अपनी डालियाँ फैलाए हुए है, एक छोटे से बीज में जो सरसों वा राई के दाने के अष्टमांश से भी छोटा था, भरा था। सारी शक्ति का समूह उसी में तिरोहित था। महान् बुद्धि एक प्रोटोप्लाजम के कोश में छिपी थी, यह हम सब जानते हैं। फिर शक्ति क्यों न रही होगी? हम जानते हैं कि ऐसा ही है। चाहे देखने में यह उलटा क्यों न जान पड़े, पर है यह ऐसा ही। हम सब एक एक प्रोटोल्पाजम के कोश से उत्पन्न हुए हैं। हमारा सारा बल उसी में प्रसुप्त था। आप यह नहीं कह सकते कि वह भोजन से आया। यदि आप [ ७९ ]अन्न का पहाड़ लगा दें तो उसमें से कौन सा बल निकलेगा? शक्ति उसी में थी; और इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि वह वहीं पर थी। ऐसे ही मनुष्य की आत्मा में अनंत बल है, चाहे उसे उसका ज्ञान हो वा न हो। उसकी अभिव्यक्ति केवल उसके जानने पर ही निर्भर है। वह अनंत महासत्व धीरे धीरे उद्बुद्ध हो रहा था, अपनी शक्ति को जान रहा था और उठ रहा था। ज्यों ज्यों उसे बोध होता जाता है, उसके वंधन को बेड़ियाँ ढीली पड़ती जाती हैं। और वह दिन आनेवाला ही है जब उसे अपने अतुल पराक्रम का बोध हो जायगा और वह महासत्व आप खड़ा हो जायगा। हमें इसके लिये प्रयत्न करना चाहिए कि उद्भव का वह अवसर शीघ्र आ जाय।