विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/२० कर्म-वेदांत

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कर्म्म-वेदांत।
चौथा भाग।
(लंदन १७ नवंबर १८९६)

अब तक हम विश्वव्यापी के संबंध में कह रहे थे। आज हम आपके सामने यह कहना चाहते हैं कि एकदेशी और व्यापक के संबंध में वेदांत का विचार क्या है। हम देख चुके हैं कि द्वैतवाद में, जो वैदिक सिद्धांत का सब से पुराना रूप है, प्रत्येक प्राणी में एक एक अलग आत्मा मानी गई थी। इस विषय में कि “प्रत्येक प्राणी में अलग अलग आत्मा है” अनेक सिद्धांत थे। पर सबसे मुख्य विवाद प्राचीन बौद्धों और [ ८० ]प्राचीन वेदांतियों में था। वेदांती कहते थे कि जितने प्राणी हैं, उतनी ही अलग अलग आत्माएँ हैं। बौद्धों का कथन था कि यह नितांत अनर्गल बात है; ऐसी आत्मा है ही नहीं। मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि वह विवाद कुछ वैसा ही था जैसा आजकल युरोप में द्रव्य और गुण के संबंध में है। एक कहता है, गुणों के अतिरिक्त एक पदार्थ द्रव्य नामक है जो गुणों का आधार है। दूसरा कहता है कि द्रव्य कोई पदार्थ है ही नहीं। वह निराधार रह सकता है। जीवात्मा के संबंध में जो सबसे प्राचीन सिद्धांत है, उसका आधार अपने इस निर्धारण पर है कि “मैं हूँ”; कि आज ‘मैं’ वही हूँ जो कल था और ‘मैं’ जो आज हूँ, वही कल रहूँगा। शरीर में परिवर्तन भले ही होते रहते हों, पर मैं यही समझता रहता हूँ कि मैं वही “मैं” बना हूँ। यही उन लोगों के परिमित और फिर भी पूर्ण और पृथक् आत्मा मानने का प्रधान हेतु था।

इसके विरुद्ध प्राचीन बौद्धों का कथन था कि आत्मा है ही नहीं; उसे मानने की आवश्यकता ही नहीं है। वे कहते थे कि जो हम जानते हैं वा जान सकते हैं, केवल वही विकार है। किसी निर्विकार पदार्थ का मानना ही ढकोसला है; और यदि मान लिया जाय कि कोई ऐसा निर्विकार पदार्थ है भी, तो न हम उसे कभी जान सकते हैं और न इस संसार में जान ही पावेंगे। आजकल युरोप में वही विवाद चल रहा है जिसमें एक ओर तो धार्मिक और भाववादी हैं और दूसरी ओर [ ८१ ]निश्चयवादी (Positivist) और संशयवादी (Agnostics) हैं। एक पक्ष का विश्वास है कि एक निर्विकार पदार्थ है और हमें उसी निर्विकार की एक झलक मात्र दिखाई पड़ती है। इसी पक्ष के अंतिम आचार्य्य हर्बर्ट स्पेंसर हैं। जिन लोगों को उस विवाद में आनंद आता था जो अभी थोड़े दिन हुए हर्बर्ट स्पेसर और फ्रेडरिक हेरिसन में हुआ था, उन्हें मालूम होगा कि उसमें वही पुरानी कठिनाई आकर पड़ गई थी। एक पक्ष तो यह कहता था कि कोई निर्विकार पदार्थ है; और दूसरा कहता था कि ऐसे पदार्थ के मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। एक पक्ष यह कहता था कि जब तक हम किसी निर्विकार पदार्थ को मान न लें, हमें विकार का बोध ही नहीं हो सकता। दूसरा पक्ष कहता था कि ऐसा मानना निष्प्रयोजन है। हमें तो केवल उसी का बोध हो रहा है जो विकार को प्राप्त हो जाता है। हम निर्विकार को न तो जान सकते हैं, न अनुभव कर सकते हैं और न साक्षात् ही कर सकते हैं।

भारतवर्ष में इस बड़ी शंका का समाधान प्राचीन काल में नहीं हो सका था। कारण यह था कि जैसा कि हम दिखला चुके हैं, गुण से परे ऐसे द्रव्यों की कल्पना जिनमें कोई गुण न हो, प्रमाणित नहीं हो सकती। न तो अपने बोध वा स्मरण से कि मैं वही हूँ जो कल था; और अतः मैं कोई सतत वस्तु रहा हूँ, मुक्ति की ही सिद्धि हो सकती है। दूसरा

[ ८२ ]वाक्छल जो उपस्थित किया जाता है, केवल वाक्छल है।

उदाहरण के लिये मान लीजिए कि एक मनुष्य एक वाक्य- श्रृंखला को लेता है; जैसे मैं करता हूँ, जाता हूँ, स्वप्न देखता हूँ, गति करता हूँ, सोता हूँ, इत्यादि, और वह यह प्रतिपादन करता है कि करना, जाना, स्वप्न देखना आदि क्रियाएँ विकारी होतो गई हैं; पर मैं सतत ध्रुव था और रहा हूँ। इसी आधार पर वे यह परिणाम निकालते हैं कि यह ‘मैं’ ऐसा पदार्थ है जो ध्रुव है और असंगत है; पर विकार शरीर के संबंध से हुए हैं। यह विचार यद्यपि बड़ा ही संतोषप्रद और स्पष्ट है, तथापि केवल शब्दों के आडंबर पर ही आश्रित है। यद्यपि ‘मैं’ और “करना,” “जाना” आदि अलग अलग भले ही माने जायँ, पर कोई उन्हें अपने मन से अलग नहीं कर सकता।

जब मैं खाता हूँ, तब मैं अपने को खाता हुआ जानता हूँ― मैं खाता हुआ माना जाता हूँ। जब मैं दौड़ता हूँ, तब मैं और दौड़ना दोनों पृथक् नहीं हैं। अतः अपने जानने के आधार पर जो प्रमाण है, वह दृढ़ प्रमाण नहीं जान पड़ता। दूसरी युक्ति प्रत्यभिज्ञा वा स्मरण के आधार पर है; पर वह भी निर्बल ही है। यदि मेरी सत्ता का ज्ञान केवल प्रत्यभिज्ञा पर ही अवलं- बित है, तब हम बहुत बातों को भूल गए होंगे और वे सब जाती ही रहीं। मैं यह भी जानता हूँ कि लोगों को विशेष अवस्था में अपनी बीती बातों का भी स्मरण नहीं रह जाता।

कभी कभी पागलपन की अवस्था में मनुष्य अपने को काँच का [ ८३ ]
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बना हुआ समझने लगता है; पर वैसी बात होती नहीं है। अतः आत्मा के निश्चय को हम ऐसी असार वस्तु के आधार पर जैसी प्रत्यभिज्ञा है, कभी मान नहीं सकते। इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्मा के परिमित और फिर पूर्ण और सतत निश्चित होने की बात गुणों से पृथक् नहीं मानी जा सकती। हम ऐसी संकुचित और परिमित सत्ता को जिसमें गुणों का समूह लगा हो, सिद्ध ही नहीं कर सकते।

इसके विरुद्ध प्राचीन बौद्धों की युक्तियाँ कहीं प्रबल जान पड़ती हैं―यह कि हम न तो जानते हैं और न जान ही सकते हैं कि कोई पदार्थ गुण-समुदाय से पृथक् है। उनके मतानुसार आत्मा गुणों का एक समुदाय विशेष है, अर्थात् चित्त और चैतसिक मात्र का। इन्हीं के समुदाय का नाम आत्मा वा जीवात्मा रख लिया गया है और यह समुदाय नित्य विकारी है।

अद्वैत सिद्धांत से आत्मा के संबंध में इन दोनों पक्षों के झगड़े का निबटेरा हो जाता है। अद्वैत का पक्ष यह है कि यह ठीक है कि हम गुण से पृथक् द्रव्य का ध्यान नहीं कर सकते। हम विकार और निर्विकार दोनों का एक साथ चिंतन नहीं कर सकते। ऐसा होना असंभव है। पर वही पदार्थ जिसे द्रव्य कहते हैं, गुण है। द्रव्य और गुण दो पृथक् पदार्थ नहीं हैं। यह निर्विकार ही है जो हमें विकारी दिखाई पड़ता है। विश्व का निर्विकार पदार्थ विश्व से पृथक् नहीं है।

निर्विकार विकार से भिन्न नहीं है; पर यह निर्विकार ही है [ ८४ ]
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जो विकारवान हो गया है। यहाँ एक आत्मा ही है जो विकार रहित है, जिसे हम चित्त और चैतसिक कहते हैं; और यही नहीं, जिसे शरीर कहते हैं, यदि उसे अन्य दृष्टि देखा जाय तो वह भी आत्मा ही है। हमें यह चिंतन करने का अभ्यास पड़ गया है कि हमारे शरीर है, हमारे आत्मा है, इत्यादि; पर यदि सच पूछो तो केवल एक आत्मा ही है, दूसरा कुछ है ही नहीं।

जब हम अपने शरीर-रूप में चिंतन करते हैं तब हम शरीर हैं। यह कहना व्यर्थ है कि हम कुछ और हैं। जब हम अपने को आत्मारूप समझते हैं, तब शरीर रह नहीं जाता और न शरीर के धर्म ही रह जाते हैं। किसी को बिना शरीर का ज्ञान नष्ट हुए आत्मा का ज्ञान हो ही नहीं सकता; किसी को द्रव्य का बोध तब तक हो ही नहीं सकता जब तक कि गुण का ज्ञान जाता न रहे।

अद्वैत के रज्जु और सर्प के पुराने दृष्टांत से इस विषय का अधिक स्पष्टीकरण होता है। जब रज्जु में सर्प का ज्ञान होता है, तब रज्जु नहीं रह जाती; और जब उसमें रज्जु का ज्ञान होता है, तब साँप नहीं रह जाता। फिर तो वह रस्सी ही रह जाती है। एकदेशीय आधार पर अनुमान द्वारा द्वैत वा त्रैत के सिद्धांत की सिद्धि होती है। हम उसे पुस्तकों में पढ़ते हैं और लोगों को कहते हुए सुनते हैं। पर इसका प्रभाव यह होता है कि हमें भ्रम हो जाता है, हममें दोहरा

बोध होता है अर्थात् शरीर और आत्मा का; पर यह ज्ञान [ ८५ ]
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वास्तविक नहीं है। ज्ञान एक ही का है; शरीर का हा वा आत्मा का। इसको सिद्धि के लिये किसी युक्ति की अपेक्षा नहीं है। आप इसे अपने मन में विचार लीजिए।

तनिक अपने को पृथक् आत्मा-रूप में चिंतन करके तो देखिए। आप इसे कभी न कर सकेंगे। वे लोग जो ऐसा कर सकते हैं, उन्हें यह जान पड़ता होगा कि वे जब अपने को आत्म-रूप चिंतन करते हैं, तब उन्हें शरीर का ज्ञान ही नहीं रह जाता। आपने सुना होगा वा कभी देखा भी होगा कि लोगों के चित्त की दशा अवस्था-विशेष में ध्यान वा उन्माद का नशा खाने से बदल जाती है। उनके उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि जब वे आभ्यंतर विचार में मग्न रहते हैं, तब उनको बाह्य ज्ञान रह ही नहीं जाता। इससे प्रकट होता है कि वह एक ही है। वही एक इन नाना रूपों दिखाई पड़ता है। ये नाना रूप कारण कार्य्य के संबंध के उत्पादक हैं। कारण कार्य्य का संबंध विकास का एक भेद है―एक दूसरा होता है; दूसरा तीसरा, इत्यादि होता जाता है। कभी कभी कारण का मानों अभाव हो जाता है और उसके स्थान में कार्य्य रह जाता है। यदि आत्मा शरीरका कारण है तो आत्मा का पहले ही से अभाव हो चुका और शरीर रह गया है। जब शरीर का नाश होगा, तब आत्मा रह जायगी। यह सिद्धांत बौद्धों की युक्ति के अनुकूल पड़ता है जिसे वे द्वैतों के खंडन में दिया करते हैं कि

शरीर और आत्मा भिन्न नहीं हैं; और यह सिद्ध करते हैं कि [ ८६ ]
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द्रव्य और गुण एक ही पदार्थ है। वे केवल भिन्न भिन्न रूप में भासमान होते हैं।

हम यह भी देख चुके हैं कि निर्विकार का भाव केवल समष्टि के लिये ठीक हो सकता है, व्यष्टि के लिये नहीं। व्यष्टि का भाव ही विकार के भाव वा गति के भाव से उत्पन्न होता है। जो परिमित है, हम उसे नहीं समझ सकते और न जान सकते हैं, कारण यह कि वह विकारवान है। और समष्टि तो निर्विकार है; क्योंकि वहाँ तो दूसरा कुछ है ही नहीं। विकार संभव है तो कैसे? विकार तो तभी हो सकता है जब तुलना के लिये कोई निर्विकार पदार्थ हो वा कोई ऐसा पदार्थ हो जिसमें उसकी अपेक्षा विकार कम हो।

अद्वैत सिद्धांत के अनुसार आत्मा की व्यापकता, निर्वि- कारता और अविनाशिता का भाव जहाँ तक हो सके, सिद्ध किया जा सकता है। कठिनाई तो विशेष में पड़ेगी। हम उस द्वैत सिद्धांत को कहाँ ले जायँ जिसका हम पर इतना घनिष्ट प्रभाव है और जिससे हमें छुटकारा पाना है―यह कि परि- मित, छोटे और व्यक्त आत्मा पर विश्वास का होना।

हन यह देख चुके हैं कि हमारी अविनाशिता समष्टि के विचार से है। पर कठिनाई तो यह है कि हम समष्टि के अंश के रूप में अपनी अविनाशिता के इच्छुक हैं। हम यह देख चुके हैं कि हम अनंत हैं और वही हमारा वास्तविक स्वरूप

है। पर हम अपनी छोटी आत्मा को अनंत बनाना नहीं चाहते [ ८७ ]
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हैं। इसका परिणाम क्या होता है? हम अपने नित्य के अनुभव से देखते पाते हैं कि यह छोटी आत्माएँ व्यष्टि मात्र हैं; भेद केवल इतना ही है कि वे नित्य उन्नति करती जा रही हैं। वे हैं वही, पर फिर भी वह नहीं हैं―अंश अंशी, अंग अंगी का अंतर है। कल का ‘मैं’ ही आज का “मैं“ है अवश्य; पर उसमें थोड़ा सा अंतर आ गया है। अब द्वैत के इस विचार को छोड़कर इन सब विकारों में भी कुछ निर्विकार है। इस आधुनिक विचार को जिसे विकासवाद कहते हैं, लेकर देखिए तो जान पड़ता है कि ‘मैं‘ लगातार विकारवान और विस्तार को प्राप्त होनेवाली सत्ता है।

यदि यह ठीक है कि मनुष्य बिना हड्डीवाले जंतुओं से विकास को प्राप्त होकर बना है, तो बिना हड्डी का जंतु वही है जो मनुष्य है। भेद इतना ही है कि मनुष्य अधिक उन्नत हो गया है। अतः परिमित आत्मा इस विचार से कि वह अनंत सत्ता की ओर बढ़ती जा रही है, एक सत्ता हो सकती है। वह पूर्ण सत्ता तभी होगी जब वह अनंत सत्ता को प्राप्त हो जायगी; पर जब तक प्राप्त नहीं होती, तब तक तो वह विकार को प्राप्त होती और उन्नति करती जा रही है। वेदांत दर्शन में एक विशेषता यह भी है कि वह पूर्व के सिद्धांतों के विवाद को मिटाता है। बहुत अंशों में इसने दर्शन शास्त्र की बड़ी सहायता की है; पर इसने किसी न किसी अंश में उसे हानि भी पहुँचाई है। हमारे

प्राचीन दर्शन में जिसे विकासवाद कहते हैं, उसका ज्ञान अवश्य [ ८८ ]
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था―अर्थात् इस बात का कि उन्नति वा विकास यथा क्रम होता है; और इसी ज्ञान के कारण उन लोगों ने पूर्व के दर्शनों के भेद का परिहार किया था। यही कारण है कि पूर्व के एक भी विचार का तिरस्कार नहीं किया गया है। बौद्ध धर्म में दोष यह था कि उसमें न तो क्षमता थी और न इस निरंतर उन्नति का बोध था; और यही कारण था कि वह पूर्व के विचारों के साथ अपनी संगति नहीं कर सका। वे सबके सब एक आदर्श के लिये थे। उन सबको उसने निष्प्रयोजन और हानि- कारक जानकर त्याग दिया।

धर्म की यह गति बड़ी ही हानिकारक है। मनुष्य को जब कोई नया और अच्छा विचार मिल जाता है और जब वह उन विचारों को जिन्हें उसने छोड़ दिया है, देखता है तो यह सोच लेता है कि वे हानिकारक और निष्प्रयोजन थे। वह यह नहीं विचारता कि वर्तमान दृष्टि से वे कितने ही भोड़े क्यों न जान पड़ते हों, पर वे उसके लिये उस समय उपयोगी थे और उन्हीं के कारण वह उस नए विचार पर पहुँचा। हममें से सबकी गति समान ही है। पहले हमारे विचार भोंडे रहते हैं; फिर उससे उन्नति करते करते हम ऊँचे विचारों तक पहुँचते हैं। उच्च विचार की प्राप्ति के वही कारण होते हैं। यदि वे न होते तो वहाँ तक पहुँचना कठिन होता। यही कारण है कि अद्वैत ऐसे प्राचीन विचारों का तिरस्कार नहीं करता। द्वैतवाद वा अन्य सिद्धांत जो उसके पूर्व के हैं, अद्वैत उन सबको मानता है। यह [ ८९ ]नहीं कि वह उनकी रक्षा करता है, अपितु उन पर इसलिये विश्वास करता है कि वे सब सत्य की ही अभिव्यंजना में हैं और उनका भी परिणाम वही है जो अद्वैत का है।

उन विचारों की हमें प्रशंसा करनी चाहिए, निंदा नहीं करनी चाहिए। उनकी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि उन्हीं से होकर मनुष्य उन्नति करते हैं। यही कारण है कि द्वैतवाद के सारे सिद्धांतों को वेदांत से निकाल नहीं दिया गया है और न उनका निषेध ही किया गया है। वे ज्यों के त्यो वेदांत में विद्यमान हैं; और जीवात्मा की प्रमेयता और पूर्णता की बात वेदांत में मिलती है।

द्वैतवाद का मत है कि मनुष्य शरीर छोड़ने पर दूसरे लोक में जाता है; तथा इसी प्रकार की अन्य बातें ज्यों की त्यों समूचे वेदांत में भरी हैं। कारण यह है कि उन्नति का ध्यान रखकर अद्वैत सिद्धांत में इन सिद्धांतों का यथा स्थान सन्निवेश है और यह माना गया है कि वे एकदेशी विचार सत्य ही के हैं।

द्वैतवाद की दृष्टि से विश्व द्रव्य से उत्पन्न माना जाता है। सृष्टि किसी की इच्छा से होती है और वह इच्छा इस विश्व से अलग मानी जाती है; अतः इस विचार के आधार पर मनुष्य अपने को शरीर और परिमित तथा पूर्ण आत्मा- युक्त देखता है। ऐसे मनुष्य का विचार अमरत्व और भविष्य के संबंध में उसके आत्मा के विचार के अनुकूल ही हो सकता

है। यह बातें वेदांत में ज्यों की त्यों रखी गई हैं; अतः मुझे यह [ ९० ]
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आवश्यक जान पड़ता है कि आपसे द्वैत की कुछ प्रधान प्रधान बातें निवेदन कर दूँँ। इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्यों के एक शरीर होता है जिसे स्थूल शरीर कहते हैं; और इसी शरीर में एक और शरीर होता है जिसे सूक्ष्म शरीर वा लिंग शरीर कहते हैं। यह शरीर भी प्राकृतिक वा भौतिक होता है। भेद यही है कि यह सूक्ष्म होता है। इसी सूक्ष्म शरीर में हमारे कर्म, हमारी क्रिया और संस्कार सब भरे रहते हैं और वही अवस्था पाकर स्थूल रूप धारण करते हैं। हमारे सब विचार और सब कर्म जो हम करते हैं, कालांतर में सूक्ष्म रूप धारण कर लेते हैं और बीज रूप होकर इसी सूक्ष्म शरीर में उपपन्न रूप में रहते हैं; और समय पाकर वही फिर प्रकट होते और अपने फल देते हैं। इन फलों के अनुसार ही मनुष्य का जन्म होता है। इस प्रकार अपने जन्म का वह आप कारण होता है। मनुष्य किसी और बंधन से नहीं बँधता; वह अपना बंधन आप ही बनाता है। हमारे मानसिक, वाचिक और कायिक कर्म भले हों वा बुरे, उस जाल के सूत हैं जिसे हमने अपने ऊपर डाल रखा है। एक बार हमने किसी में ठोकर लगाई; फिर तो हमें उसका फल भुगतना आवश्यक है। जीवात्मा के रूप और आकृति के विषय में बड़ा विवाद है। कुछ लोगों के मत से तो वह अत्यंत सूक्ष्म है―परमाणु के समान; दूसरों का मत है कि वह इतना छोटा नहीं है। जीव उसी व्यापक सत्ता का अंश मात्र

है; वह नित्य है। न उसका आदि है और न अंत। वह सदा से [ ९१ ]
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है और सदा रहेगा। वह अपना वास्तविक स्वरूप, जो पवित्र- ता है, व्यक्त करने के लिये भिन्न रूपों को धारण करता रहता है। वह काम जो इस उन्नति वा गति का अवरोधक है, पाप कह- लाता है। यही दशा विचार की भी है। इस प्रकार जिस कर्म और विचार से जीव को उन्नति करने में सहायता मिलती है, उसे शुभ वा पुण्य कहते हैं। एक सिद्धांत जिसे द्वैत से लेकर अद्वैत तक सब विचारवाले मानते हैं, यह है कि सारी शक्तियों का आकर हमारे भीतर है, वे कहीं बाहर से नहीं आती हैं। वे आत्मा में प्रसुप्त दशा संन्निहत हैं और सारे जीवन की चेष्टा उन्हीं प्रसुप्त शक्तियों का उद्बोधन करके उन्हें व्यक्त करने के लिये है।

उनका आवागमन का भी सिद्धांत है। उसकी शिक्षा यह है कि शरीर के नष्ट होने पर जीव शरीरांतर में जाता है, चाहे इस लोक में हो वा लोकांतर में हो। पर इस लोक में अन्य लोकों से विशेषता है, क्योंकि यही कर्मभूमि है। अन्य लोक ऐसे हैं जहाँ दुःख कम है; और इसी हेतु वे तर्क लगाते हैं कि वहाँ ऊँची बातों के विचारने का अवसर नहीं मिलता। इस लोक में थोड़ा सा तो सुख है, पर दुःख बहुत है। यहीं जीव कभी कभी जाग पड़ता है और मोक्ष का प्रयत्न करता है। जैसे संपन्न लोगों को इस लोक में ऊँची बातों के सोचने का बहुत कम अवसर मिलता है, वैसे ही स्वर्ग में जीव को जागने

का कोई अवसर नहीं है। उसकी दशा वहाँ संपन्न लोगों की सी [ ९२ ]
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ही रहती है, केवल कुछ और अच्छी होती है। वहाँ जीव सुख में फँसा रहता है। उसे अपने स्वरूप का कुछ भी ध्यान नहीं रहता। फिर भी कुछ और भी लोक हैं जहाँ सारे सुख होते हुए भी उन्नति करने की संभावना है। कुछ द्वैतवादी जीवात्मा की परमावधि ब्रह्मलोक तक मानते हैं। वहाँ वह सदा ईश्वर के साथ विचरता है। वहाँ उसे उत्तम शरीर मिलता है। न वहाँ रोग है, न जरामरण और न क्लेश। उसकी सारी इच्छाएँ पूरी होती रहती हैं। वहाँ के कुछ लोग समय समय पर पृथ्वी पर जन्म लेकर लोगों को ईश्वर के ज्ञान का उपदेश करते हैं। संसार के बड़े बड़े आचार्य ऐसे ही लोग थे। वे मुक्त थे और ब्रह्मलोक में रहते थे। पर उन्हें संसारी लोगों का दुःख देखकर इतती करुणा आई कि उन लोगों ने इस लोक में आकर अव- तार लिया और लोगों को ईश्वर के मार्ग की शिक्षा दी।

इसमें संदेह नहीं कि अद्वैतवाद का सिद्धांत है कि यह परमावधि का श्रादर्श नहीं हो सकता; निराकारता ही आदर्श है। आदर्श परिमित नहीं हो सकता। जो अप्रमेय से लघु है, वह आदर्श नहीं हो सकता। शरीर अप्रमेय हो नहीं सकता; यह असंभव है। परिमित होने ही से तो शरीर होता है। हमें शरीर और मन के बाहर जाना है, परे जाना है। यही अद्वैत- वाद का कथन है। और हम यह भी देख चुके हैं कि अद्वैत के अनुसार जो मुक्ति प्राप्त करना है, वह हमें प्राप्त है। हम केवल उसे

भूले हैं और मानते नहीं हैं। पूर्णता कहीं से प्राप्त करना नहीं [ ९३ ]
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है, वह हम में है। अमरत्व और आनंद को कहीं ढूँढ़ना नहीं है। वे हममें विद्यमान हैं और सदा से हमारे रहे हैं।

यदि आप यह कहने का साहस करें कि हम मुक्त हैं, तो आप अभी मुक्त हैं। यदि आप यह कहें कि हम बद्ध हैं, तो आप बद्ध रहेंगे। अद्वैत यही डंके की चोट पुकार रहा है। मैंने आपको द्वैतवादियों के विचार भी बतला दिए हैं। आप जिन्हें चाहिए, मानिए।

वेदांत के सर्वोत्कृष्ट वाक्य का समझना नितांत कठिन है। लोग इस पर लड़ते झगड़ते रहते हैं। कठिनता तो यह है कि जब उन्हें किसी विचार का बोध हो जाता है, तब वे दूसरे विचारों का निषेध और खंडन करते हैं। आपको जो विचार अच्छे लगे, उन्हें ले लीजिए और दूसरों को जो भावे सो लेने दीजिए। यदि आप इस छोटी एकदेशी आत्मा ही को मानना चाहते हैं तो उसीको मानते रहिए; अपनी सारी आकांक्षाएँ बनाए रहिए और उन्हीं पर संतोष रखिए। यदि आप जीवात्मा का पूरा अनुभव कर चुके हैं, तो जहाँ तक बने उसे मानते जाइए। आपको ऐसा करने का अधिकार है। आप अपने भाग्य के विधाता हैं। अपने कोई अपने विचार छोड़ने के लिये बाध्य नहीं करता। आप जब तक बने, जीवात्मा बने रहे; कोई आपको रोकता नहीं। आप मनुष्य ही बने रहें। यदि आप देवता बनना चाहें तो देवता हो जायँगे, यही नियम है।

पर कुछ और लोग भी हो सकते हैं जो देवता भी होना नहीं [ ९४ ]
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चाहते होंगे। आपको यह समझने का क्या अधिकार है कि उनका विचार भयावह है? आपके सौ रुपए चले जायँगे तो आप मर जायँगे। पर संसार में कितने ही ऐसे हैं जिनकी सारी संपत्ति भी जाती रहे तो ऊँः तक नहीं करते। ऐसे लोग हो गए हैं और अब भी हैं। आप उनको अपने ही पैमाने से क्यों नापते हैं? आप अपने छोटे विचारों में पड़े रहें; आपके लिये वही सब कुछ हैं। आपको वे शुभदायक हों। आप जब तक चाहें, वे आपके पास बना रहें। पर ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने सत्य को देखा है और वे इस कुल्हिया में नहीं समा सकते, जिन्होंने इसे फोड़ दिया है और जो इससे बाहर निक- लना चाहते हैं। उनके लिये संसार और इसके सारे सुख कीचड़ की खुरी हैं। आप उन्हें अपने विचारों में क्यों बद्ध करना चाहते हैं? आप अपनी इस लत को सदा के लिये त्याग दीजिए और सबको स्थान दीजिए।

मैंने एक बार नावों के एक बेड़े की बात पढ़ी थी। वह दक्षिण के किसी टापू के पास बवंडर में पड़ गया था। इल- स्ट्रेटेड लंडन न्यूज (Illustrated London News) ने उस का चित्र भी छापा था। सब नावें डूब गई थीं और केवल एक अंग्रेजी नाव बची थी। चित्र में यह दिखलाया गया था कि डूबनेवाले लोग अपनी नावों पर खड़े होकर उन लोगों को जो बचकर नाव पर जा रहे थे, साधुवाद दे रहे थे। वैसे

ही वीर और उदार बनो। जहाँ तुम जा रहे हो, वहाँ दूसरों [ ९५ ]
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को पकड़कर मत खींचो। मूर्खता की दूसरी बात यह है कि यदि प्रत्येक का आत्मा पर से विश्वास उठ जायगा, तो धर्म- कर्म सव रसातल चला जायगा; मनुष्यों के लिये कहीं ठिकाना न रहेगा। जान पड़ता है कि मानों सब लोग मनुष्य जाति के लिये सदा से प्राण ही दे रहे हैं! ईश्वर तुम्हारा भला करे। यदि सब देशों में दो दो सौ स्त्री-पुरुष भी ऐसे निकल आते जो मनुष्य जाति के लिये सचमुच भलाई करना चाहते होते, तो पाँच दिन में करोड़ों ऐसे मनुष्य तैयार हो जाते। यह हम जानते हैं कि हम कैसे मनुष्य जाति के लिये प्राण देते हैं। यह केवल लंबी चौड़ी बातें हैं, और कुछ नहीं। संसार का इतिहास साक्षी दे रहा है कि जिन लोगों ने अपने छोटे व्यक्तित्व का ध्यान किया है, वे ही मनुष्य जाति के सच्चे हितैषी हो गए हैं। और जितना ही अधिक लोग अपने व्यक्तता का ध्यान करते हैं, उतना ही वे कम परोपकार कर सकते हैं। एक परार्थ है और दूसरा स्वार्थ है। छोटे से छोटे विषय-भोग में फँसे रहना और उसके लिये बार बार चेष्टा करते रहना ही स्वार्थ है। यह सत्य की इच्छा से उत्पन्न नहीं होता; यह दूसरों पर अनुकंपा के कारण नहीं है; इसका उद्भव मनुष्य की आत्मा में केवल स्वार्थ से होता है―इस रूप में कि ‘मैं सब कुछ लूँगा। मुझे और किसी की चिंता नहीं है।” मुझे तो ऐसा ही जान पड़ रहा है। मैं तो संसार में ऐसे धर्मात्माओं को अधिक देखना चाहता हूँ जो

प्राचीन ऋषियों और आचार्य्यों के समान हों, जो किसी एक [ ९६ ]
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छोटे जंतु के उपकार के लिये भी अपने सैंकड़ों प्राण देने को उद्यत थे। केवल धर्म और परोपकार के नाम की डौंडी पीटना आजकल की व्यर्थ बकवास है।

मैं गौतम वुद्ध सा धर्मात्मा चाहता हूँ जिनको ईश्वर और जीवात्मा पर विश्वास ही न था, जिन्होंने कभी उसकी बात ही छेड़ी, अपितु जो पूरे संशयवादी थे और तिस पर भी जो सबके न लिये प्राण देने को तैयार रहते थे। वे आजन्म लोगों की भलाई के लिये काम करते रहे, सबकी भलाई का चिंतने करते रहे। उनके जीवनचरित्रकार ने बहुत ही ठीक कहा है कि उनका जन्म बहुतों की भलाई के लिये ही हुआ था। बहुतों के लिये उनका जन्म परम हितकारक था। वे जंगल में अपने मोक्ष के लिये नहीं गए थे। उनको इसलिये वहाँ जान पड़ा था कि संसार में आग लगी थी और वे उसे बुझाने के लिये उपाय ढूँढ़ने निकले थे। संसार में इतना दुःख क्यों है, यही प्रश्न वे आजन्म विचारते रहे। क्या आप समझते हैं कि हम भगवान् बुद्धदेव से धर्मात्मा हैं?

मनुष्य जितना स्वार्थी होता है, उतना ही वह पापी भी होता है। यही दशा जातियों की भी है। जो जाति अपने स्वार्थ में बँधी है, वहीं संसार में सबसे अधिक अत्याचारी और दुष्ट है। संसार में ऐसा कोई धर्म न होगा जो द्वैत से उतना राग रखता हो, जितना अरब के आचार्य्य (पैगंबर) का धर्म है। और न संसार में वैसा रक्तपात किसी धर्म ने किया है और औरों [ ९७ ]पर इतना अत्याचार ही किया है। कुरान में यह शिक्षा है कि उस मनुष्य को जो इन उपदेशों को न माने, मार डालना चाहिए; उसे मारना ही दया है। और स्वर्ग में जहाँ सुंदर हूरें और अन्य प्रकार के भोग-विलास हैं, जाने का निश्चित उपाय यही है कि ऐसे अविश्वासियों को मार डालो। जरा सोचो तो सही, ऐसे विश्वास से संसार में कितना रक्तपात हुआ है।

ईसाई धर्म में कम भोंडापन था। उसमें और वेदांत में बहुत कम अंतर हैं। वहाँ भी आपको अद्वैतवाद मिलेगा। पर ईसा ने लोगों के लिये द्वैतवाद का इसलिये उपदेश किया था कि उन्हें सहारे के लिये कुछ स्थूल पदार्थ दे दिया जाय और वे उच्च आदर्श पर पहुँच जायँ। उसी आचार्य्य ने जिसने यह उपदेश किया था कि ‘हमारा बाप जो स्वर्ग में है’ यह भी शिक्षा दी थी कि ‘मैं और मेरा बाप दोनों एक हैं।’ ईसा के धर्म में उपकार और प्रेम था। पर ज्यों ही भोंडापन आया, वह इतनी अधोगति को प्राप्त हुआ कि अरब के आचार्य्य के धर्म से कुछ ही अच्छा रह गया। यह सचमुच भोंडापन था–तुच्छ आत्मा के लिये यह विवाद―“मैं” के साथ यह राग, न केवल इसी जन्म के लिये अपितु यह इच्छा करना कि मरने पर भी वह बना ही रहे! इसको लोग निःस्वर्थता बतलाते हैं; इसे धर्म की जड़ कहते हैं! यदि यही धर्म का मूल है तो ईश्वर ही रक्षा करे! और आश्चर्य्य की बात तो यह है कि जो स्त्री-पुरुष उत्तम ज्ञान लाभ कर सकते हैं, वे यह सोच रहे हैं कि यदि यह [ ९८ ]तुच्छ आत्मा जाती रहेगी तो धर्म का नाश हो जायगा; और यह सुनकर काँप उठते हैं कि धर्म उसके नष्ट होने ही से अचल हो सकता है। सारी भलाई और अच्छेपन की कुंजी 'मैं' नहीं है, 'तू' है। इसे कौन देखता है कि स्वर्ग-नरक है वा नहीं? कौन विचारता है कि आत्मा है वा नहीं? कौन ध्यान देता है कि कोई निर्विकार है वा नहीं? यहाँ तो संसार है और वह दुःखों से भरा है। इससे भागकर बचो, जैसे भगवान् बुद्धदेव ने किया था। इसके दुःख घटाने की चेष्टा करो वा करते करते मर मिटो। अपने को भुला दो, यही पहली बात सीखने योग्य है; चाहे तुम नास्तिक हो वा आस्तिक, संशयवादी हो वा वेदांती, ईसाई हो वा मुसलमान। यही सबके लिये सीखने की स्पष्ट बात है कि इस छोटे तुच्छ आत्मा का नाश करो और वास्तविक आत्मा को बनाओ।

दो शक्तियाँ अलग अलग समानांतर रूप में काम करती रही हैं। एक कहती है 'मैं', दूसरी कहती है 'मैं नहीं'। उनकी अभिव्यक्ति मनुष्य ही में नहीं है, पशुओं में भी है; और पशुओं की कौन चलावे, छोटे से छोटे कीड़े में भी है। सिंहनी जो मनुष्य के रक्त में अपने पंजे डुबोती है, अपने बच्चों पर दया करती है। अत्यंत पतित मनुष्य जो अपने भाई के प्राण लेने में तनिक भी संकोच नहीं करता, संभवतः अपनी जान पर खेल- कर अपने भूखे बाल-बच्चों को बचाता है। इसी प्रकार सृष्टि भर में दोनों शक्तियाँ साथ साथ कंधे मिलाकर काम कर रही [ ९९ ]हैं। एक स्वार्थ है और दूसरी निःस्वार्थता। एक ग्रहण है, दूसरी त्याग। एक लेती है, दूसरी देती है। छोटे से बड़े तक, सारा विश्व इनका क्रीड़ा-स्थल है। इसके लिये प्रमाण की अपेक्षा नहीं है, यह प्रकट है।

किसी समाज को अधिकार क्या है कि वह विश्व के विकास और सारी बातों को इन दोनों अंशों में एक ही के आधार पर माने―अर्थात् संघर्ष और संग्राम पर? उसे क्या अधिकार है कि विश्व के सारे कर्मों को विकार और विग्रह, संघर्ष और संग्राम पर अवलंबित समझे? यह दोनों कहाँ से हैं? क्या कोई इससे इन्कार कर सकता है कि प्रेम, निर्ममता, “मैं” का न होना और त्याग ही संसार वा विश्व में एक मात्र अवैकल्पिक शक्ति है? अन्य सब इसी प्रेम की शक्ति के अन्यथा प्रयोग मात्र हैं। इसी प्रेम की शक्ति से संघर्ष उत्पन्न होता है। संघर्ष का मुख्य हेतु प्रेम ही है। बुराई का प्रधान बीज स्वार्थत्याग में है। बुराई तो भलाई से उत्पन्न होती है और उसका अंत भी भलाई ही है। यह भलाई को शक्ति का अन्यथा प्रयोग मात्र है। वह मनुष्य जो किसी का घात करता है, बहुधा अपने बाल-बच्चों के प्रेम ही के कारण करता है। उसका प्रेम परिमित हो गया है और सिमटकर उसी बच्चे मात्र में आ गया है। वह अब विश्व के करोड़ो मनुष्यों में नहीं रह गया है। चाहे परिमिति हो वा अपरिमित, है तो वही प्रेम ही न।

अतः सारे संसार का संचालक बल, चाहे वह किसी रूप [ १०० ]में क्यों न व्यक्त होता हो, वही अद्भुत पदार्थ है जिसे निःस्वार्थता, त्यास या प्रेम कहते हैं। संसार में वही सच्ची और जीती-जागती शक्ति है। यही कारण है कि वेदांती उसी एकता पर डटे हैं। हम इस बात पर इसलिये डटे हैं कि हम विश्व के दो कारणों को नहीं मान सकते। यदि हम केवल यह मान लें कि वही मनोहर और अद्भुत प्रेम केवल परिमित हो जाने से बुरा वा निकृष्ट देख पड़ने लगता है, तो इसी एक प्रेम के बल से सारे विश्व के रहस्य का बोध हो जाता है। यदि नहीं तो विश्व के दो ही कारण मानिए, एक भलाई, दूसरा बुराई; एक प्रेम, दूसरा घृणा। देखिए, इन दोनों में कौन युक्तियुक्त है? सच- मुच एक ही शक्ति की बात ठीक निकलेगी।

अब हमें उन पदार्थों का आश्रय लेना चाहिए जिनका द्वैत- काद से संबंध नहीं है। अब हम क्षण भर भी द्वैतवाद पर नहीं दिक सकते। हमें भय लगता है। मेरा विचार है कि मैं यह दिखलाऊँ कि धर्म और निःस्वार्थता का सर्वोच्च आदर्श दोनों सर्वोत्कृष्ट दार्शनिक ज्ञान के साथ साथ चलते हैं और आपको आचार और धर्म से नीचे के मार्ग में उतरने की आवश्यकता नहीं है। पर इसके विरुद्ध आचार और धर्म के मूल तक पहुँचने लिये श्रापको सर्वोच्च दार्शनिक और वैज्ञानिक विचार की आवश्यकता है। मनुष्य का ज्ञात मनुष्य जाति की भलाई का विरोधी नहीं है। इसके विरुद्ध यही एक ऐसा ज्ञान है जो अपने जीवन की सब अवस्थाओं में हमारा रक्षक है। ज्ञान ही में [ १०१ ]उपासना है। जितना अधिक हमें ज्ञान हो, उतना ही अच्छा है। वेदांती कहते हैं कि सारी बुराई की जड़ जो दिखाई पड़ती है, केवल अप्रमेय की प्रमेयता है। जो प्रेम तंग राह से परिमित होकर व्यक्त होता है, वह बुराई का रूप धारण करता है। वेदांत यह भी कहता है कि सब बुराइयों के कारण हमी हैं। किसी अलौकिक सत्ता को दोष मत दो, न निराश हो, न इसका ध्यान करो कि हम ऐसे स्थान पर हैं कि जब तक कोई आकर हमें सहायता न दे, हम यहाँ से निकल ही नहीं सकते। वेदांत कहता है कि ऐसा अशक्य है। हम रेशम के कृमि की भाँति हैं। हम अपने ही से तागा निकालकर कोश बनाते हैं और काला- तर में उसी के भीतर बद्ध हो जाते हैं। पर यह सदा रहती नहीं। उसी कोश में हम आध्यात्मिक साक्षात्कार लाभ करेंगे और तितली की भाँति उसे काटकर बाहर निकल जायँगे। हमने यह कर्म-जाल आप ही आप बना रखा है और उसी में अज्ञानवश अपने को बद्ध समझ रहे हैं और सहायता के लिये रोते और चिल्लाते हैं। पर सहायता कहीं बाहर से नहीं आती है। जब आती है, तब भीतर से ही आती है। विश्व के सारे देवताओं के सामने माथा पटकते फिरा कीजिए। मैं तो वर्षों प्रार्थना करता और चिल्लाता फिरा; पर अंत को मुझे जो सहा- यता मिली वह भीतर ही से मिली। मुझे उसे बिगाड़ना पड़ा जिसे मैंने भूल से बनाया था। यही एक मार्ग वा उपाय था। मैंने उस जाल को, जिसे मैं अपने ऊपर लपेटकर [ १०२ ]उलझा पड़ा था, काट डाला और काटने की शक्ति मेरे भीतर थी। इसका मुझे निश्चय है कि मेरे जीवन में मेरी एक भी आकांक्षा, चाहे वह ठीक रही हो या गलत, निष्फल नहीं हुई; अपितु मैं अपने पूर्व के भले बुरे कर्मों का फल-खरूप हूँ। मैंने अपने जीवन में अनेक भूलें कीं। पर ध्यान रखिए कि बिना इन भूलों के मैं आज वह न हुआ होता जो हूँ। अतः मुझे संतोष है कि मैंने जो किया, ठीक किया। मेरा यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि आप घर जायँ और जान बूझकर भूल करें। इस प्रकार मेरे आशय को उलटा न समझिए। पर बात यह है कि यदि भूल हो जाय तो उस पर भंखो मत। स्मरण रखो कि अंत को सब ठीक हो जायगा। यह अन्यथा हो नहीं सकता। कारण यह है कि अच्छाई ही हमारा स्वरूप है; शुद्धता ही हमारी प्रकृति है। प्रकृति का कभी नाश नहीं होता। हमारी मुख्य प्रकृति सदा बनी रहेगी।

जो बात हमें जानना है, वह यह है कि जिसे हम भूल या बुराई कहते हैं, उसे हम इसलिये करते हैं कि हम निर्बल हैं। हम निर्बल क्यों हैं? इसलिये कि हम अज्ञान हैं। मैं उसे भूल कहता हूँ। 'पाप' शब्द यद्यपि बहुत सुंदर है, पर फिर भी उसमें कुछ ऐसा पुट है कि मुझे भय लगता है। हमें अज्ञान में कौन डालता है? हमी तो। हम अपनी आँख अपने हाथ से ढके हुए हैं और रोते हैं कि अँधेरा है। हाथ हटाइए, प्रकाश ही तो है; सदा से प्रकाश है। यही मनुष्य की आत्मा का [ १०३ ]धर्म है। क्या आपने नहीं सुना है कि आधुनिक वैज्ञानिक लोग क्या कहते हैं? विकास का कारण क्या है? केवल इच्छा। जंतु कुछ करना चाहते हैं, पर उन्हें उसके अनुकूल परिवेश नहीं मिलता; अतः उनके शरीर में नया परिवर्तन वा विकास होता है, उनका शरीर बदल जाता है। इस परिवर्तन का कारण कौन है? वही जंतु या उसकी इच्छा। आप तुच्छ अंभ (Amoeba) से विकास को प्राप्त हुए हैं। अपनी इच्छा से काम लेते जाइए; वह आपको और उच्च अवस्था पर पहुँँचा देगी। इच्छा सर्वशक्तिमती है। यदि यह सर्वशक्तिमती है, तो आप कह सकते हैं कि फिर मैं सब कुछ क्यों नहीं कर सकता हूँ? पर आप तो अपनी छोटी आत्मा के लिये विचार रहे हैं। आप अपनी दशा पर पीछे ताककर देखिए कि किसने आपको अंभ से मनुष्य का रूप दिया? यह सब किसका किया है? आपकी इच्छा ही का न? क्या आप इसकी सर्वशक्तिमत्ता का फिर भी निषेध करते रहेंगे? जिसने आपको इतना उच्च बनाया, वह आपको इससे और ऊँचे भी पहुँचा सकती है। आपको जिसकी आवश्यकता है, वह चारित्र्य है, इच्छा को पुष्ट करना है।

इसलिये यदि मैं आपको यह शिक्षा दूँ कि आपका स्वभाव बुरा है, घर जाइए, गुदड़ी पहन, भभूत रमाकर बैठिए और आजन्म रोते रहिए कि हमने अमुक भूल की है, इससे हमारा भला न होगा, हमारा सदा क्षय होता जायगा, तो मैं आपकों [ १०४ ]भलाई के स्थान पर बुराई का मार्ग दिखा रहा हूँ। यदि इस कोठरी में सहस्रो वर्ष से अंधकार है और आप आकर रोने लगें और चिल्लायँ कि ‘हाय हाय, अंधकार अंधकार!’ तो क्या इससे अंधकार जाता रहेगा? दियासलाई रगड़िए, अभी उजाला होता है। भला जन्म भर इस तरह झींकने से क्या होता है कि ‘मैंने बुराई की; मुझसे बहुत भूलें हुई’? इसे कोई प्रेत बतलाने आवेगा? प्रकाश करो, अंधकार भाग जाय। अपना चारित्र्य सुधारो, अपना सच्चा स्वरूप प्रकट करो― प्रकाशमय, ज्योतिः स्वरूप, विशुद्ध; और जो तुमको मिले, उसी में उसकी भावना करो। मेरी तो इच्छा है कि सब लोग इस अवस्था को प्राप्त हो जाते कि नीचातिनीच पुरुष में भी हमें वही परमात्मा दिखाई पड़ता और उससे घृणा करने की जगह हम कहते “हे प्रकाशमय, हे शुद्ध-बुद्ध, हे जन्म-मरण- रहित, हे सर्वशक्तिमान् , उठो, जागो और अपने सच्चे स्वरूप को प्रकट करो। यह छोटी अभिव्यक्ति तुम्हारे योग्य नहीं है।” यह सर्वोच्च प्रार्थना है जिसकी शिक्षा अद्वैतवाद देता है। यही एक प्रार्थना है कि अपने स्वरूप का स्मरण करो। जो हमारे भीतर ईश्वर है, उसे अनंत, सर्वशक्तिमान्, कृपालु, दयालु, निर्मम और अप्रमेय समझो। और वह निर्मम है, इसी लिये निर्भय भी है। भय तो स्वार्थ से होता है। जिसे कुछ इच्छा ही नहीं, उसे भय किसका, उसे कौन डरा सकता है? मृत्यु से उसे क्या भय है? पाप उसका क्या कर सकता है? अतः यदि हम अद्वैत[ १०५ ]वादी हैं, तो हमें इसी क्षण से समझ लेना चाहिए कि हमारी पुरानी आत्मा नष्ट हो गई, मर गई, अब नहीं रही। अमुकी और अमुक अब नहीं हैं; वे केवल पक्षपात मात्र थे; और अब तो यहाँ नित्य, शुद्ध, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ मात्र शेष है― वही है और रहेगा। फिर हमारे लिये कोई भय नहीं। सर्व- व्यापी को कौन क्षति पहुँचा सकता है? सारी निर्बलता चली गई और हमारा कर्तव्य केवल यही रह गया कि साथ के लोगों में हम यह भाव फैलावें। हम देखते हैं कि वे भी शुद्ध आत्मा हैं; केवल उन्हें ज्ञान नहीं है। हमें चाहिए कि हम उन्हें शिक्षा दें और अपने अनंत स्वभाव को जाग्रत करने में सहायता दें। यही बात है जिसकी आवश्यकता मुझे सारे संसार में प्रतीत होती है। यह सिद्धांत बड़ा पुराना है, अनेक पर्वतों से भी पुराना है। सब सत्य नित्य है। सत्य किसी की संपत्ति नहीं है; किसी जाति, किसी व्यक्ति का इस पर कोई निज का स्वत्व नहीं है। सब आत्माओं का स्वरूप सत्य है। इस पर किसका विशेष अधिकार हो सकता है? पर इसे काम में लाना चाहिए, सीधा बनाना चाहिए (क्योंकि सबले बढ़िया सत्य सदा सुबोध होता है) जिसमें वह मनुष्य-समाज के अंग अंग में घुस जाथ और सब स्त्री-पुरुष, बुड्ढे बच्चे का एक साथ ध्यान का विषय और संपत्ति बन जाय। तर्कशास्त्र की सारी युक्तियाँ, अध्यात्म की पोथियों की सारी गाँठें, सारे धर्म- पुराण और कर्मकांड अपने अपने समय के लिये अच्छे थे। [ १०६ ]पर हमारा काम यह है कि गुत्थियाँ सुलझाकर उन्हें सरल करें और वह युग लावें जब कि सब लोग उपासक बनें और मनुष्यों की निजी सत्ता उपास्यदेव बने।