विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/२४ सुख का मार्ग
आज मैं आपको वेदों की एक कथा सुनाता हूँ। वेद हिंदुओं के धर्म-ग्रंथ हैं और उनमें प्राचीन साहित्य का संग्रह है। वेदों के अंतिम भाग का नाम वेदांत है। वेदांत कहते हैं वेद के अंत को। इसमें वेदों के भीतर आए हुए विचार हैं और विशेष कर उसमें दर्शन शास्त्र की बातें हैं जिनके साथ उन विचारों का संबंध है। वह बहुत प्राचीन संस्कृत में है और आप इसे स्मरण रखिए कि वह सहस्रों वर्ष का लिखा हुआ है। एक मनुष्य ने कोई यज्ञ करने की इच्छा की। अनेक प्रकार के यज्ञ होते हैं। यज्ञों में वेदियाँ बनती हैं, उनमें मंत्रपूर्वक आहुतियाँ दी जाती हैं और सामगान इत्यादि होते हैं। फिर यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों को दक्षिणा और दीनों को दान दिया जाता है। भिन्न भिन्न यज्ञों में भिन्न भिन्न प्रकार की दक्षिणा दी जाती है। एक यज्ञ होता था जिसमें सर्वस्व दक्षिणा देनी पड़ती थी। वह मनुष्य धनी तो था, पर था कंजूस और सबसे कठिन यज्ञ करके यश लेना चाहता था। जब उसने वह यज्ञ किया, तब सब कुछ देने की जगह उसने लँगड़ी-लूली,कानी खोड़ी बूढ़ी गौएँ जिनसे की कभी आशा न थी, दक्षिणा में दी। उसके एक लड़का था। वह बड़ा समझदार था। उसने देखा कि मेरे पिता ने यथोचित दक्षिणा नहीं दी है और इसका फल उसके लिये अच्छा न होगा। उसने चाहा कि वह अपने आपको दक्षिणा में दिलवा दे और वह न्यूनता पूरी कर दे। वह अपने पिता के पास गया और बोला कि आप मुझे किसको देते हैं। पिता ने अपने पुत्र के पूछने पर कुछ उत्तर नहीं दिया और लड़के ने दूसरी बार और फिर तीसरी बार उससे वही प्रश्न किया। फिर तो पिता झुँझला उठा और बोला―“मैं तुझे यम को देता हूँ,―मैं तुझे मृत्यु को देता हूँ।” और लड़का सीधा यमलोक को चला गया। यम उस समय अपने स्थान पर नहीं थे। वह वहीं तीन दिन तक उनकी प्रतीक्षा में पड़ा रहा। तीन दिन बाद यम आए और उससे कहने लगे कि ‘हे ब्राह्मण! आप मेरे अतिथि हैं। आप तीन दिन यहाँ निराहार रहे हैं। आपको नमस्कार है। इसके बदले मैं आपको तीन वर देता हूँ।” लड़के ने पहला वर तो यह माँगा कि मेरे बाप का क्रोध जो मुझ पर है, जाता रहे; और दूसरे वर में उसने कुछ यज्ञ की बात पूछी। फिर उसने तीसरा वर माँगते हुए कहा कि―‘जब मनुष्य मर जाता है, तब यह शंका उत्पन्न होती है कि वह क्या हुआ? कुछ लोग कहते हैं कि वह रह नहीं जाता, कुछ लोग कहते हैं कि नहीं, वह बना रहता है। मैं तीसरे वर में यही माँगता हूँ। कृपापूर्वक बतलाइए कि बात क्या है?” मृत्यु ने कहा कि―“पूर्व काल में देवताओं
ने इस भेद को जानने की बड़ी चेष्टा की है। यह रहस्य इतना
गूढ़ है कि इसका जानना बड़ा ही कठिन है। दूसरा वर माँगिए;
यह वर मत माँगिए। मैं आपको सौ वर्ष की आयु दे सकता
हूँ; पशु माँगिए, घोड़े माँगिए, बड़ा राज्य माँग लीजिए, सब
माँगिए, मैं दूँँगा। पर यह बात मत पूछिए।” लड़के ने कहा―
“नहीं महाराज! मनुष्य को धन से तृप्ति कहाँ? यदि मुझे धन
की कामना होती, तो वह तो आपके दर्शन मात्र से पूरी हो
जाती। जब तक आप चाहेंगे, तभी तक मैं जिऊँगा। भला
संसार का ऐसा कौन प्राणी होगा जो अमर देवताओं की संगति
पाकर गीत वाद्यादि के सुखों को सुख समझता हुआ अधिक
जीवन की इच्छा करे। अतः आप कृपाकर उस बड़े प्रश्न का
उत्तर दीजिए। मुझे किसी और पदार्थ को आवश्यकता नहीं
है। नचिकेता केवल यही मृत्यु ही का प्रश्न पूछना चाहता है।”
यम प्रसन्न हुए। हम पूर्व के दो तीन व्याख्यानों में बतला
चुके हैं कि ज्ञान से अंतःकरण की शुद्धि हो जाती है। आप
यहाँ देखिए कि पहली बात यह है कि मनुष्य को सिवाय सत्य
के किसी और पदार्थ की इच्छा नहीं होती और वह सत्य की
इच्छा सत्य के लिये होती है। देखिए, उस लड़के ने उन पदार्थों
को जो यम उसे दे रहे थे,―जैसे अधिकार, संपत्ति, धन और
आयु―कैसे त्याग दिया और वह केवल इसी एक बात के
लिये अर्थात् ज्ञान के लिये, सत्य के लिये सब कुछ छोड़ने पर
उद्यत था। केवल इसी प्रकार सत्य की प्राप्ति हो सकती है।
यमराज प्रसन्न होकर कहने लगे कि दो मार्ग हैं, एक प्रेय और दूसरा श्रेय। इन्हीं दोनों को मनुष्य ग्रहण करते हैं। इनमें जो
ज्ञानी है, वह श्रेय के मार्ग को ग्रहण करता है और जो मूर्ख है,
वह प्रेय को ग्रहण करता है। नचिकेता, मैं तुम्हारी प्रशंसा
करता हूँ कि तुमने लोभ नहीं किया। मैंने तुम्हें प्रेय मार्ग ग्रहण
करने के लिये अनेक लालच दिखलाए, पर तुमने उन सबको
त्याग दिया। तुम यह जानते हो कि ज्ञान सुख-भोग से कहीं
श्रेष्ठ है।”
“तुमको यह समझना चाहिए कि जो मनुष्य अज्ञान और विषयभोग में पड़ा रहता है, उसमें और पशु में भेद नहीं है। फिर भी कितने ऐसे हैं जो अज्ञान में डूबे रहते हैं और घमंड में चूर हैं, अपने को बड़ा ज्ञानी मानते हैं। वे जैसे अंधा अंधे को टेकाता है, अनेक टेढ़े मार्गों में होकर फिरा करते हैं। हे नचि- केता, जो अज्ञानी बालकों के समान मिट्टी के खिलौने में फँसे रहते हैं, उनके हृदय में सत्य कभी प्रकाशित नहीं होता। वे न तो इस लोक को न परलोक को मानते हैं। वे अपने और पराए दोनों को नहीं मानते और बार बार मेरे वश में पड़ा करते हैं। कितनों ने सुना ही नहीं है, कितनों ने सुना तो है पर समझा नहीं है। कारण यह है कि इसका कहनेवाला भी अद्भुत ही चाहिए और समझनेवाला भी अद्भुत ही होना चाहिए। यदि वक्ता कुशल नहीं है तो इसे कोई सैंकड़ों बार कहे और सैंकड़ों बार समझे, पर फिर भी सत्य का प्रकाश आत्मा में नहीं होता। हे नचिकेता, व्यर्थ के तर्क से अपने मनको चलायमान् मत करो। यह सत्य उसी अंतःकरण में प्रकाश मान होता है जो अत्यंत शुद्ध है। जिसे बिना कठिनाई के देख नहीं सकते, जो गुप्त है, जो अंतःकरण की गुहा में प्रविष्ट है, जिसे आत्मा को आँख से देखने पर सुख दुःख जाते रहते हैं, उस पुरातन पुरुष को इन बाह्य आँखों से नहीं देख सकते। जो इस सत्व को जानता है, उसको सारी कामनाएँ जाती रहती हैं, दिव्य ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और वह शान्ति पाता है। नचिकेता, यही शान्ति का मार्ग है। वही धर्म से परे, अधर्म से परे, कर्तव्य और अकर्तव्य से परे, भूत और भविष्य से परे है, वही इसे जानता है जो जानता है। जिसे सब वेद ढूँढ़ते हैं, जिसके लिये सब तपस्वी तप करते हैं, में उसका नाम तुम्हें बतलाता हूँ। वह ओ३म् है। यही ओ३म् ब्रह्म है, यही अमर है। जो इसके तत्व को जानता है, वह जो इच्छा करता है, वहीं होता है। हे नचिकेता, जिसके विषय में तुम पूछते हो, वह न कभी उत्पन्न हुआ है, न मरता है। वह अज, नित्य,शाश्वत और पुराण है। शरीर के नष्ट होने से वह नष्ट नहीं होता। जो यह समझता है कि मैं मारता हूँ, जो यह समझता है कि मैं मारा जाता हूँ, दोनों नहीं जानते। न वह मारता है, न वह मारा जाता है। वह अणु से भी अति अणु और महा से भी महा है। सब का ईश्वर सबके हृदय की गुहा में निहित है। जो धूतपाप है, वह उसे उसी भगवान् की दया से उसकी सारी महिमाओं में देखता है (हम देखते हैं कि ईश्वर के साक्षात्कार में प्रधान कारण ईश्वर की कृपा है)। बैठा हुआ वह दूर जाता है, लेटा हुआ वह सर्वत्र पहुँचता है, सिवाय शुद्ध और सूक्ष्म विचार- वाले पुरुष के कौन उस ब्रह्म के जानने के योग्य है जिसमें सारे विरुद्ध गुण एकत्र हैं? उसके शरीर नहीं है, पर वह शरीर में रहता है; अस्पृष्ट है, पर सबसे स्पृष्ट है, सर्वव्यापी है। ऐसे आत्मा को इस प्रकार जानकर ऋषियों के दुःख छूट जाते हैं। आत्मा वेदों के पढ़ने से नहीं जाना जाता, न प्रज्ञा से न विद्या से जाना जाता है। आत्मा जिसे चाहता है, वही उसे जान पाता है; उसके सामने वह अपनी महिमा प्रकट करता है। जो निरंतर पाप करता रहता है, जिसकी आत्मा शांत नहीं है, जो सदा चंचल और अशांत है, वह उस आत्मा को नहीं जान सकता, वह उसे नहीं साक्षात् कर सकता जो अंतः- करण की गुहा में प्रविष्ट है। हे नचिकेता, यह शरीर रथ है, इंद्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी और आत्मा सवार है। जब आत्मा सवार सारथी बुद्धि के साथ और बुद्धि मन- रूपी लगाम के साथ और मन इंद्रिय-रूपी घोड़े के साथ संयुक्त रहता है, तब उसे भोक्ता कहते हैं। तभी वह देखता है, कर्म करता है। जिसका मन उसके वश में नहीं है और जिसे विवेक नहीं है, उसकी इंद्रियाँ वश में वैसे ही नहीं हैं जैसे उद्धत घोड़े सारथी के वश में नहीं रहते। पर जो विवेकवान् होता है, जिसका मन उसके वश में होता है, उसकी इंद्रियाँ वैसे ही वश में रहती हैं जैसे सुशिक्षित घोड़े सारथी के वश में रहते हैं। जिसे विवेक है, जिसका मन सदा सत्य के समझने में लगा रहता है, जो शुद्ध है, वही सत्य को पाता है, जिसे पाने पर फिर पुनर्जन्म नहीं होता। हे नचिकेता, यह बहुत कठिन है। राह लंबी है, पहुँचना कठिन है। केवल वही लोग जिनको सूक्ष्म दृष्टि है, इसे देख सकते हैं; वे ही इसे समझ सकते हैं। पर डरो मत। जागो और काम करो। जब तक ठिकाने न पहुँचो, ठहरो मत। क्योंकि ऋषियों ने कहा है कि यह काम बड़ा कठिन है, छुरे की धार पर चलना है। जो इंद्रियों से परे, स्पर्श से परे, रूप-रहित, स्वाद से परे, निर्विकार, नित्य, बुद्धि से परे, नाशरहित है, उसीके जानने से हम मृत्यु के मुख से बच सकते हैं।”
यहाँ तक हमें जान पड़ता है कि यम ने वह उद्दिष्ट स्थान बतलाया है जहाँ सबको पहुँचना है। पहली बात जो हमारी समझ में आती है, यह है कि केवल सत् के जानने से हम जन्म, मरण, क्लेश और नाना प्रकार के दुःखों से जो संसार में हमें होते हैं, बच सकते हैं। पर सत् है क्या? जिसमें कभी विकार न हो―मनुष्य की आत्मा, विश्व में व्यापक आत्मा। फिर यह भी कहा गया है कि उसका जानना कठिन है। जानने का अर्थ केवल समझ में आना नहीं है; जानना कहते हैं साक्षात् करने को। यह बार बार कहा गया है कि यह निर्वाण देखने के लिये है, जानने के लिये है। हम उसे आँखों से नहीं देख सकते, इसके लिये सूक्ष्म दृष्टि होने की आवश्यकता है। यह स्थूल इंद्रियाँ हैं जिनसे हमें दीवार और पुस्तकादि का बोध होता है। पर सत्य के जानने के लिये अत्यंत सूक्ष्म इंद्रिय की आवश्यकता है। यही सारे ज्ञान का रहस्य है। फिर यमराज कहते हैं कि इसके लिये अत्यंत शुद्धता की आवश्यकता है। यही इंद्रियों के सूक्ष्म होने का ढंग है। फिर हमें और रीतियाँ भी बतलाई गई हैं। वह नित्य ब्रह्म इंद्रियों से परे है। इंद्रियों से तो बाह्य विषय का बोध होता है; पर नित्यात्मा का बोध आभ्यंतर में होता है। आप देखते हैं कि किन बातों की आवश्यकता है, अर्थात् आंंतरिक दृष्टि करके आत्मा को देखने की इच्छा की। जो कुछ सुंदर पदार्थ संसार में देख पड़ते हैं, सब अच्छे हैं। पर ईश्वर के देखने का यह ढंग नहीं है। हमें यह सीखना चाहिए कि कैसे अंतर्दृष्टि होती है। आँखों से बाहर देखने की इच्छा कम करनी चाहिए। जब आप नगर की सड़क पर चलते हैं, तब गाड़ियों की खटखटाहट से साथ चलनेवालों की बात सुनना कठिन हो जाता है। न सुन पड़ने का कारण यह हैं कि अधिक शब्द होता है। मन बाहर जा रहा है, आप पास के मनुष्य की बातें नहीं सुन सकते हैं। इसी प्रकार इस संसार में इतना अधिक घोर शब्द हो रहा है कि मन बाहर भागता रहता है। हम आत्मा को देखें तो कैसे देखें? बाहर का जाना बंद करना चाहिए। दृष्टि को भीतर लौटाने का यही अर्थ है। तभी भीतर ईश्वर का प्रकाश देख पड़ेगा।
यह आत्मा है क्या? हम देख चुके हैं कि वह बुद्धि से परे है। उसी उपनिषद् से हमें यह भी जान पड़ता है कि वह नित्य और सर्वव्यापी है; आप और मैं और सब लोग सर्व- व्यापी हैं; और आत्मा निर्विकार है। अब यह सर्वव्यापी कोई एक ही होगा। दो पदार्थ नित्य हो नहीं सकते और फलतः यह आवश्यक है कि संसार में केवल एक ही आत्मा हो। आप, मैं और सारा विश्व सब एक ही हैं और अनेक देख पड़ते हैं। जिस प्रकार एक ही अग्नि विश्व में प्रविष्ट होकर भिन्न भिन्न रूप में दिखाई पड़ती है, वैसे ही सारे विश्व का एक आत्मा है जो भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त हो रही है। अब प्रश्न यह है कि यदि यह आत्मा पूर्ण और शुद्ध है और विश्व में एक ही है, तो फिर जब वह अशुद्ध के शरीर में, पापी के शरीर में, पुण्यात्मा के वो और के शरीर में जाती है तो उसे क्या हो जाता है। वह फिर पूर्ण कैसे रही? सबकी आँखों की दृष्टि का कारण सूर्य्य है। पर उस सूर्य्य में किसी की आँख के दोष से दोष नहीं आता। यदि किसी की आँख में पीलू रोग है, तो उसे सब पीला ही दिखाई पड़ता है। उसकी दृष्टि का कारण सूर्य्य तो है, पर उसे सब पीला दिखाई पड़ता है। इससे सूर्य्य से कोई संपर्क नहीं है। ऐसे ही यह एक आत्मा यद्यपि सबका आत्मा है, फिर भी उससे बाहरी शुद्धि वा अशुद्धि का कोई संपर्क नहीं होता। इस संसार में जहाँ सब पदार्थ क्षणिक वा अस्थायी हैं, जो उस निर्विकार को जानता है, इस जड़ जगत् में जो उस चेतन को जानता है, इस अनेकता में जो उस एक को जानता है और उसे अपनी आत्मा में देखता है, उसी के लिये शाश्वत सुख है, दूसरे के लिये नहीं। वहाँ न सूर्य्य का प्रकाश पहुँचता है, न चंद्र का प्रकाश, न तारों के प्रकाश पहूँचते हैं, न बिजली की चमक पहुँच सकती है; फिर इस आग की तो बात ही क्या है। उसी के प्रकाश से सब प्रकाशित हैं, उसी के प्रकाश से यह सब चमकते हैं। जब सब इच्छाएँ जो मन के दुःख का कारण हैं, जाती रहती हैं, तभी मर्त्य अमर हो जाता है और ब्रह्म को प्राप्त होता है। जब हृदय की गाँठ खुल जाती है और सारे संशय मिट जाते हैं, तभी मर्त्य अमृत होते हैं। यही मार्ग है यह ज्ञान हमको सुखदायक हो; यह हमारा भोग हो; इससे हमें बल मिले; यह हमारी शक्ति बन जाय; हम परस्पर घृणा न करें; सबको शांति मिले।
आपको वेदांत-दर्शन में इसी प्रकार की बातें मिलेंगी। पहले तो हमें यह देख पड़ता है कि इसमें वह विचार मिलता है जो संसार के सारे विचारों से विलक्षण है। वेदों के पुराने भागों में वही बात थी, अर्थात् बाहरी जगत की खोज। कुछ पुरानी पुस्तकों में यह प्रश्न उठाया गया था कि आदि में था क्या। उस समय न सत् था न असत् था, जब अंधकार अंध- कार को ढंके हुए था। फिर “किसने इसे सिरजा?” फिर खोज आरंभ हुई। फिर तो देवताओं और नाना प्रकार की बातें चलीं और अंत को हम देखते हैं कि उन लोगों ने निराश होकर उन बातों को भी छोड़ दिया। उनके समय बाह्य जगत् में खोज होती रही और जब उन्हें वहाँ कुछ न मिला, तब अंत को जैसा वेदों से जान पड़ता है, उनको स्वयंभू की खोज में भीतर दृष्टि डालनी पड़ी। वेदों का मुख्य विचार यह है कि ताराओं में, नीहारिका में, आकाशगंगा में, यहाँ तक कि सारे बाह्य विश्व में खोजने से कुछ लाभ नहीं है। इससे जन्म मरण के प्रश्न का समाधान नहीं होता। इसी से अपने भीतर के अद्भुत यंत्र का विश्लेषण करना पड़ा और उसी से उनको विश्व के उस रहस्य का ज्ञान हुआ जिसे सूर्य्य और नक्षत्रादि से वेन प्राप्त कर सके थे। इसके लिये विश्लेषण की, चीर-फाड़ की आवश्यकता थी; पर शरीर की चीर-फाड़ की नहीं अपितु आत्मा के विश्लेषण की। उसी आत्मा में उन्हें उस प्रश्न का उत्तर मिला। पर वह उत्तर उन्हें कौन सा मिला? यही कि शरीर से परे, मन से परे वह स्वयंभू है। न वह मरता है और न जन्म लेता है। वह खयंभू सर्वव्यापक है; कारण यह कि उसके रूप नहीं है। जिसके रूप नहीं, जो देश काल से बद्ध नहीं, वह एकदेशी नहीं हो सकता। यह हो कैसे सकता है? वह सर्वव्यापक है, हम सब में समान रूप से व्याप्त हो रहा है।
फिर मनुष्य की आत्मा है तो क्या है? एक पक्ष के लोगों की धारणा थी कि एक तो ईश्वर है और उस ईश्वर के अति अनंत आत्माएँ हैं जो भाव में, रूप में और सारी बातों में ईश्वर से पृथक हैं! यही द्वैतवाद है। यही पुराना, प्राचीन और भोंडा विचार है। दूसरे पक्षवालों ने इस प्रश्न का यह समाधान किया था कि आत्मा उसी अनंत ब्रह्म का अंश मात्र है। जैसे यह शरीर एक छोटा जगत् है, उसके भीतर मन है, उसके भीतर प्रत्यगात्मा है, उसी प्रकार यह विश्व शरीर है। उसके परे महत्तत्व है और उसके परे विश्वात्मा है। जैसे यह शरीर विश्व के पिंड का एक अंश है, वैसे ही यह प्रत्यगात्मा उस विश्वात्मा का अंश विशेष है। इसी को विशिष्टाद्वैत कहते हैं। अब हम जान गए कि विश्वात्मा अनंत है। फिर अनंतता का अंश कैसे हो सकता है? इसके टुकड़े टुकड़े और विभाग कैसे होंगे? काव्य की दृष्टि से तो यह कहना बहुत ही अच्छा है कि मैं उसी अनंत की एक चिनगारी हूँ, पर यह मत विचार से ठीक नहीं जान पड़ता। अनंत के विभाग करने का क्या अर्थ है? क्या वह भी भौतिक है कि हम उसके खंड खंड कर सकेंगे? अनंत का भाग हो नहीं सकता। यदि यह संभव हो तो फिर वह अनंत काहे को रहेगा? फिर इसका प्रतिफल क्या निकला? उत्तर यही है कि आप ही विश्वात्मा हैं, आप अंश नहीं हैं, अपितु पूर्ण हैं। आप पूर्ण ब्रह्म हैं। फिर प्रश्न यह है कि विभिन्नता क्यों है? हमें तो करोड़ों प्रत्यगात्माएँ मिलती हैं। वे हैं क्या? उत्तर यही है कि करोड़ों जल पूर्ण घड़े हैं और सब में सूर्य्य का पूर्ण प्रकाश पड़ता है, सब में पूरी छाया देख पड़ती है। पर वे हैं तो छाया ही, वास्तविक सूर्य्य तो एक ही है न। इसी प्रकार यह प्रत्यगात्मा ब्रह्म की छाया है; इसके अतिरिक्त कुछ अन्य नहीं है। जो वास्तविक सत्ता इसके परे है, वही एक ब्रह्म है। वहाँ पर हम सब एक ही हैं। आत्मा तो संसार में एक ही है। वही तुम में, चही मुझ में है, पर है वह एक ही। उसी एक आत्मा की छाया भिन्न भिन्न शरीरों में भिन्न भिन्न प्रत्यगात्मा के रूप में भासमान होती है। पर हमें इसका ज्ञान नहीं है; हम समझते हैं कि हम सब अलग अलग हैं और उससे भी अलग ही हैं। जब तक हम ऐसा समझेंगे, संसार में दुःख ही है। यह भ्रम मात्र है। इसके अतिरिक्त दुःख का दूसरा कारण भय है। मनुष्य दूसरे को हानि क्यों पहुँचाते हैं? कारण यही है कि वे डरते हैं कि उनके मारे मुझे भोग करना न मिलेगा। कोई तो यह डरता है कि मुझे पर्याप्त धन न मिलेगा और इसी भय से वह दूसरे को हानि पहुँचाता वा चोरी करता है। भला जहाँ संसार में एक ही है, वहाँ भय कैसे हो सकता है। यदि मेरे सिर पर वज्र गिरे तो वह वज्र भी मैं ही हूँ, क्योंकि वहाँ तो मैं ही मैं रहूँगा। यदि प्लेग है तो मैं ही हूँ, बाघ है तो मैं ही हूँ, मृत्यु है तो मैं ही हूँ। मैं ही मृत्यु और जीवन दोनों हूँ। हम देखते हैं कि जहाँ यह भाव है कि संसार में दो हैं, वहीं भय है। हमने यह सदा उपदेश करते सुना है कि परस्पर प्रेम रखो। पर इसका उपदेश क्यों किया जाता है? इसका उत्तर यही है कि हम परस्पर प्रेम इसलिये करें कि हम एक ही हैं। मैं अपने भाई से प्रेम क्यों करता हूँ? इसी लिये न कि वह और मैं एक ही हूँ। वहाँ भी वही एकता है। यही विश्व की एकता का दृढ़ प्रमाण है। एक छोटी चींटी से लेकर जो हमारे पैर तले पड़ती है, बड़े से बड़े प्राणी तक सबके भिन्न भिन्न शरीर हैं, पर उनकी आत्मा एक है। आप ही सबके मुँह से खाते हैं, सबके हाथों से काम करते हैं, सबकी आँखों से देखते हैं। जब यह भाव उत्पन्न हो जाता है, हम इसे साक्षात् करते हैं, इसे देखते हैं, इसका अनुभव करते हैं, तभी सब दुःख दूर हो जाते हैं और भय भाग जाता है। भला मैं मरूँगा कैसे? मुझसे परे तो कुछ है ही नहीं। जब भय दूर हो जाता है, तभी पूर्ण आनंद प्राप्त होता है, पूर्ण प्रेम का संचार होता है। विश्वव्यापी अनुकंपा, प्रेम, सुख जिसमें कभी विकार नहीं, मनुष्य को सबसे ऊँचे पहुँचा देता है। इसमें कोई वेदना नहीं, इसमें दुःख का लेश नहीं; पर खाने-पीने की बातों से मनुष्य में वेदना उत्पन्न होती है। इसका सारा कारण यही द्वैतभाव है―यही भाव कि मैं विश्व से अलग हूँ, ईश्वर से भिन्न हूँ। पर ज्यों ही हम इस भाव को पहुँच जाते हैं कि ‘मैं वह हूँ, मैं विश्वात्मा हूँ, मैं नित्यानंद नित्य मुक्त हूँ’ उसी समय हममें सच्चे प्रेम का उदय होता है, भय जाता रहता है और सव दुःख दूर हो जाते हैं।