विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/२३ प्रकट-रहस्य

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विवेकानंद ग्रंथावली : ज्ञान-योग  (1923) 
द्वारा स्वामी विवेकानंद, अनुवादक जगन्मोहन वर्मा

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(२३) प्रकट रहस्य।
(लेस ऐंजिलिस, केलिफोर्निया)

पदार्थों के तत्व को समझने के लिये हम जिधर दृष्टिपात करते हैं, उधर ही यदि हम अच्छी तरह छानवीन करते हैं तो विलक्षण दशा दिखलाई पड़ती है―स्पष्ट विपरीत बात जिसे हमारा तर्क भले ही स्वीकार न करे, पर बात है सच्ची। हम जिसे लेते हैं, वह हमें परिमित जान पड़ता है; पर ज्यों ही हम उसका विश्लेषण करते हैं, वह हमारी बुद्धि के बाहर चला जाता है। हमें उसके गुणों का पारावार ही नहीं मिलता; हमें उसकी संभावनाओं, उसकी शक्तियों और उसके संबंधों का अंत ही नहीं जान पड़ता। वह अपरिमित हो जाता है। एक साधारण फूल को लीजिए, वह कितना छोटा जान पड़ता है। पर ऐसा कौन है जो यह कह सके कि मुझे उस फल की सारी बातों का ज्ञान है? यह संभव नहीं है कि कोई एक फूल के संबंध में ज्ञान के पारावार को पहुँच सके। वही फूल जो पहले परिमित था, अब अपरिमित हो गया। बालू के एक कण को ले लीजिए। उसकी छानबीन कीजिए। हम उसे परिमित ही मानकर उसकी छानबीन में प्रवृत्त होते हैं; पर अंत को हमें जान पड़ता [ १६७ ]है कि वह वैसा नहीं है, अपरिमित है। अब तक हम उसको परिमित ही समझते थे। फूल भी तो वैसे ही परिमित पदार्थ माना जाता था।

यही दशा हमारे सारे विचारों और अनुभवों की है, चाहे वे भौतिक हों या आध्यात्मिक। पहले जब हम जाँच आरंभ करते हैं, तब वे हमें छोटे और तुच्छ जान पड़ते हैं; पर कुछ ही दूर चलकर वे हाथ से फिसलकर अनंतता के गढ़े में कूद पड़ते हैं। और सबसे बृहत् और सबसे पहला पदार्थ जो देखा गया है, वह हम हैं। हम भी अपनी सत्ता के विषय में उसी धोखे में पड़े हैं। हम हैं; हम देखते हैं कि हम एक तुच्छ सत्व हैं। हम जनमते हैं और मरते हैं। हमारा विषय बहुत संकुचित है। हम यहाँ परिमित हैं और चारों ओर विश्व से घिरे हुए हैं। प्रकृति एक क्षण में हमारा ध्वंस कर सकती है। हमारा शरीर ऐसा है कि एक क्षण भर में छिन्न भिन्न हो सकता है। हम इसे जानते हैं। कर्मभूमि में हम कैसे क्षीणबल हैं। हमारी इच्छा का क्षण क्षण अवरोध होता रहता है। हम कितने कामों को करने की इच्छा करते हैं, पर उनमें इने गिने ही कर पाते हैं। हमारी इच्छा का कहीं अंत नहीं है। हम सब कुछ चाह सकते हैं; हमें सबकी इच्छा है; हम 'शुन' नक्षत्र तक जाने की इच्छा कर सकते हैं। पर हमारी इच्छाएँ कितनी कम पूरी होती हैं। हमारा शरीर स्थायी नहीं कि वे पूरी हो सकें; प्रकृति

हमारी इच्छा की पूर्ति के प्रतिकूल है। हम निर्बल हैं। जो बात [ १६८ ]
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फूल के लिये है, बालू के कण के संबंध में है, भौतिक जगत् और प्रत्येक विचार के संबंध में है, वही सौगुनी होकर हमारे संबंध में संघटित है। हम उसी सत्ता के चक्कर में पड़े हैं। जो कभी परिमित और कभी अपरिमित जान पड़ती है। हम समुद्र की लहर के तुल्य हैं। लहर समुद्र भी है और समुद्र नहीं भी है। लहर में कोई ऐसा अंश ही नहीं जिसे हम समुद्र न कह सकें। ‘समुद्र’ शब्द के वाच्य में लहर और समुद्र के अन्य भाग सब आ जाते हैं। पर फिर भी वह समुद्र से अलग ही है। इसी प्रकार इस अनंत सागर में हम लहर के समान हैं। पर जब हम अपने को ग्रहण करना चाहते हैं, तो नहीं कर सकते; हम अनंत हो जाते हैं।

हमारा जीवन स्वप्न के समान है। खप्न-दशा में स्वप्न सत्य रहता है; पर ज्यों ही आप उसमें एक को भी ग्रहण करना चाहते हैं, वह भाग जाता है। क्यों? इसलिये नहीं कि स्वप्न मिथ्या है, इसलिये कि उसका समझना हमारे तर्क और बुद्धि के अधिकार के बाहर है। इस जीवन की सारी बातें इतनी बड़ी हैं कि बुद्धि उनके सामने अति तुच्छ है। वे बुद्धि में आ नहीं सकतीं। वे उस जाल पर हँसती हैं जिसमें बुद्धि उन्हें फँसाना चाहती है। और इससे सहस्रों गुनी कठिन मनुष्य की आत्मा की बात है। हम स्वयं इस विश्व के सबसे बड़े रहस्य हैं।

यह कितने आश्चर्य की बात है। मनुष्य की आँख को [ १६९ ]
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देखिए। कैसी सुगमता से यह फूट सकती है। पर बड़े से बड़े सूर्य्य की सत्ता इसी लिये है कि आप उसे अपनी आँखों से देखते हैं। संसार की सत्ता क्यों है? इसी लिये कि आपकी आँखें उसकी सत्ता को बताती हैं। इस रहस्य पर विचार कीजिए। इसी बेचारी छोटी सी आँख को तीव्र प्रकाश वा सूई फोड़ सकती है। पर फिर भी नाश का प्रचंड यंत्र, बड़े बड़े प्रचंड विप्लव, अद्भुत सत्ताएँ, करोड़ों सूर्य्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्रादि को अपनी सत्ता प्रमाणित करने के लिये केवल इन्हीं दो छोटी छोटी वस्तुओं की साक्षी की अपेक्षा रहती है। जब वे कहती हैं कि संसार है, तब हम यह मानते हैं कि हाँ है। यही दशा हसारी और इंद्रियों की भी है।

यह क्या? निर्बलता कहाँ है? बलवान् कौन है? कौन बड़ा, कौन छोटा है? इस परस्पर सापेक्ष जगत् में कौन ऊँचा है, कौन नीचा? यहाँ तो समष्टि को भी अपनी सत्ता के लिये एक कारण की अपेक्षा है। कौन बड़ा कौन छोटा, यह विचार भाग गया। क्योंकि न तो कोई छोटा है न कोई बड़ा। सब के भीतर वही अनंत समुद्र लहरें मार रहा है। उन सब की सत्यता वही अनंत सत्ता है। जो कुछ ऊपर देख पड़ता है, वह केवल अनंत ही अनंत है। इसी प्रकार जो कुछ आप देखते और सम- झते हैं, वह भी अनंत है। बालू का एक एक कण, एक एक विचार, एक एक आत्मा, जो कुछ है, सब अनंत ही है। यही

हमारी सत्ता है। [ १७० ]
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यह सब कुछ ठीक हो सकता है; पर यह ज्ञान अनंत का ज्ञान, अब भी अज्ञान रूप से बना है। यह बात नहीं है कि हम उसे भूल गए हैं, अपनी अनंत प्रकृति हमें स्मरण नहीं। भला कोई उसे कभी भूल भी सकता है? भला कौन इसे सोचेगा कि मेरा नाश हो सकता है? कौन यह सोचेगा कि मैं मर जाऊँ? कोई नहीं। हमारा अनंत से जो संबंध है, वह गुप्त रूप से जाग्रत है। एक प्रकार से हमें अपने सच्चे स्वरूप का बोध नहीं रहा है, इसी कारण हम दुःखी हो रहे हैं।

नित्य के व्यवहार में हमें छोटी छोटी बातों से दुःख होता है। हम तुच्छ पदार्थों के दास बने रहते हैं। दुःख हमें इस- लिये होता है कि हम अपने को परिमित और छोटा समझते हैं। और फिर भी यह समझना कितना कठिन है कि हम अनंत हैं। इन सब दुःखों और कठिनाइयों में साधारण बातों से हमारी शांति में भंग पड़ जाता है। हमारे लिये अपने को अनंत मानने में बड़ी सावधानी की आवश्यकता है। और सच्ची बात तो यह है कि चाहे ज्ञात रूप में हो वा अज्ञात रूप में, हम सब उसी अनंत की जिज्ञासा में लगे हैं; हम सदा मुक्ति प्राप्त करने के उद्योग में निरत हैं।

संसार में मनुष्यों की कभी कोई ऐसी जाति ही नहीं थी जिसका कोई धर्म न रहा हो और जो किसी देवता की पूजा न करती रही हो। इसकी कोई बात नहीं कि वे देवता कहीं

थे वा नहीं। पर यह तो सोचिए कि इस आध्यात्मिक आलोक [ १७१ ]
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का रहस्य क्या है? सारा संसार ईश्वर की खोज के पीछे क्यों सिर खपा रहा है? ऐसा क्यों है? संसार में चारों ओर बंधन ही बंधन देख पड़ता है; चारों ओर प्रकृति अपना रूप पसारे खड़ी है; हम नियम की चक्की में पिसे जा रहे हैं; हमें करवट बदलने की छुट्टी नहीं मिलती; जिधर हम मुँह करते हैं, जहाँ भागकर जाते हैं, नियम दंड लिए हमारे पीछे लगा रहता है। कहीं छुटकारा नहीं। यह सब है तो सही, पर जीवात्मा अपनी मुक्त-स्वभावता को भूलता नहीं और सदा उसकी टोह में लगा रहता है। मोक्ष के लिये खोज ही धर्म की खोज है, चाहे कोई इसे समझे वा न समझे। चाहे वे उसकी व्यवस्था को ठीक वाँधें वा बेठीक बाँधें, पर यह भाव उनमें रहता है अवश्य। यहाँ तक कि असभ्य से असभ्य महामूर्ख मनुष्य ही क्यों न हो, वह भी ऐसी युक्ति की खोज में निरत रहता है जिससे वह प्रकृति के नियम से मुक्त हो जाय, उस पर उसका अधिकार रहे। वह भूत-प्रेत, देवी-देवता के पीछे इसी लिये पड़ा रहता है कि वे प्रकृति को अपने वश में रख सकते हैं, उनके लिये प्रकृति अति बलशालिनी नहीं है; उनके लिये कोई नियम नहीं है। “हाँ, ऐसा व्यक्ति जो नियम को तोड़ सके”! मनुष्य के अंतःकरण से यही शब्द आता है। हम सदा ऐसे मनुष्य की खोज में लगे रहते हैं जो नियम को तोड़ सके। इंजिन रेल की सड़क पर दौड़ता है और एक छोटा कीड़ा रेंगकर निकल जाना

चाहता है। हम कहेंगे कि इंजिन जड़ पदार्थ और कीड़ा चेतन [ १७२ ]
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है। इसका कारण यही है कि वह नियम को तोड़ने का प्रयास करता है। इंजिन इतनी शक्ति रहते हुए भी नियम का उल्लंघन नहीं कर सकता। यह उसी ओर जाता है जिधर मनुष्य उसे ले जाता है, वह अन्यथा कर नहीं सकता। पर कीड़ा छोटा और तुच्छ भले ही क्यों न हो, अपनी स्वतंत्रता का दम भरता है। उसमें यही चिह्न है जिससे वह आगे को देवता हो जायगा।

सर्वत्र हमें मोक्ष को प्राप्त करने का यही प्रयत्न दिखाई पड़ता है; अर्थात् आत्मा के मोक्ष प्राप्त करने का। यह सब धर्मों में ईश्वर वा देवता के रूप में प्रतिबिंबित हो रहा है। पर यह बाहरी है उन लोगों के लिये जो देवताओं को अलग समझते हैं। मनुष्य ने यह निश्चय किया कि मैं कुछ हूँ नहीं। उसे भय था कि मुझे मोक्ष नहीं मिल सकता। यही कारण है कि उसने संसार वा प्रकृति के परे किसी और को ढूँढ़ने का प्रयत्न किया, जो उसके बंधन से मुक्त हो। फिर उसके विचार में यह बात आई कि ऐसे अनेक मुक्त सत्व हैं और क्रमशः उसने सबको मिलाकर एक सत्व बना लिया जो “देव देव” कहलाया। पर उससे भी उसका संतोष न हुआ। अब वह सत्य के और पास पहुँच गया था, कुछ अधिक समीप। फिर धीरे धीरे उसे यह जान पड़ा कि उसका किसी न किसी प्रकार उस देव देव से संबंध अवश्य था; उसने यह समझा था कि यद्यपि वह परि-

मित, नीच, बद्ध और निर्बल था, फिर भी उसका देव देव के [ १७३ ]
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साथ कुछ संबंध अवश्य था। नए नए अवभास हुए, नए नए विचार पाए और ज्ञान आगे बढ़ा। वह धीरे धीरे उस ईश्वर के पास पहुँचने लगा; और अंत को उसे यह जान पड़ा कि ईश्वर और सब देवता, यही सारी आध्यात्मिक बातें जो एक सर्वशक्तिमान् की खोज में देखने में आई हैं, केवल उसीके संबंध के भावों के प्राभास मात्र थे। और फिर अंत को इसका निश्चय हो गया कि यह बात ठीक नहीं है कि ईश्वर ने मनुष्य को अपने रूप के अनुसार बनाया। अपितु सच्ची बात यह है कि मनुष्य ने ईश्वर को अपने रूप के अनुसार बना लिया है। इससे उसमें दैवी स्वतंत्रता के भाव का संचार हुआ। ईश्वर उससे सदा समीप से भी समीप था। उसी को हम इधर-उधर ढूँढ़ रहे थे। पर अंत को हमें यह जान पड़ा कि वही हमारी आत्मा की आत्मा है। आपको वह कहानी याद होगी कि एक मनुष्य ने अपने हृदय के धड़कने को यह समझा था कि कोई उसके द्वार पर हाथ मार रहा है। वह दौड़ा हुआ द्वार पर आया और द्वार खोला तो देखा, वहाँ बाहर कोई नहीं था और वह आकर लौट गया। उसे फिर खटखटाहट सुनाई पड़ी। उसे द्वार खोलने पर जान पड़ा, वहाँ कोई नहीं है और अंत को उसे जो जान पड़ा कि उसके हृदय की धड़कन थी जिसे उसने द्वार की खटखटाहट समझा था। इसी प्रकार बड़ी खोज के बाद उसे इसका पता चला कि वह अनंत

स्वतंत्रता जिसे वह अपनी कल्पना से सदा बाहर समझता [ १७४ ]
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आया था, भीतर ही है। वह उसको आत्मा की नित्य आत्मा है; और वह वही सत्ता है।

इस प्रकार अंत को उसे सत्ता के इस अद्भुत द्वैत का ज्ञान हुआ, अर्थात् यह कि अनंत और सांत एक ही में है; वह अनंत सत्व भी वही है जो सांत आत्मा है। वही अनंत जब बुद्धि के जाल में फँस जाता है, तब सांत दिखाई पड़ता है; पर वास्तव में वह अनंत रहता है।

अतः यही सत्य ज्ञान है कि हमारी आत्मा की आत्मा, वह सत्ता जो हमारे भीतर है, वही है जो निर्विकार, नित्य, आनंदधन और सदा मुक्त है। यही हमारा दृढ़ आधार है। यही सारी मृत्युओं का अंत है। यही सारी अमरता का मार्ग है। यही सारे दुःखों का अंत है। वह जो एक को बहुतों में देखता है, वह जो विकार में निर्विकार को देखता है, वह जो उसे आत्मा को भी आत्मा के रूप में देखता है, उसी को शाश्वत शांति है, दूसरे को नहीं।

सारे दुःखों और पतनों के भीतर से आत्मा प्रकाश की किरण फेंकता है और मनुष्य जागकर यह देखता है कि जो सचमुच मेरा है, वह कभी जा नहीं सकता। नहीं, जो सचमुच हमारा है, हम उसे कभी त्याग नहीं सकते। भला अपनी सत्ता को कौन खो देगा? कौन अपने स्वरूप को त्याग सकता है? यदि मैं भला हूँ तो पहले मेरी सत्ता है, फिर वही भलाई के

रंग में रँगो गई है। यदि मैं बुरा हूँ, तो सत्ता पहले है और [ १७५ ]
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उसी पर बुराई का रंग चढ़ा हुआ है। वही सत्ता आदि में, मध्य में और अंत में सदा बनी रहती है। उसका कभी नाश नहीं है, वह सदा रहती है।

अतः सबके लिये आशा है। मुझे न भय है न शंका। मृत्यु मेरे पास नहीं आ सकती। मेरे न कभी पिता थे न माता; मेरा कभी जन्म ही नहीं हुआ। मेरे शत्रु कहाँ हैं? मैं ही तो सब हूँ। मैं सत्, चित् और आनंद हूँ। सोऽहम् , सोऽहम्। क्रोध, काम और ईर्ष्या, दुष्ट और अन्य सब विचार मेरे पास कभी आ नहीं सकते, क्योंकि सत्, चित् और आनंद मैं ही हूँ। यही मैं हूँ! यही मैं हूँ!

यही सारे रोगों का औषध है। यही अमृत है जिससे मृत्यु का नाश होता है। मैं यहाँ संसार में हूँ; मेरी प्रकृति मुझ से विरुद्ध हो जाती है। पर मुझे जपने दो सोऽहम् सोऽहम्। मुझे कोई भय नहीं, कोई शंका नहीं, मृत्यु नहीं, लिंग नहीं, जाति नहीं, वर्ण नहीं। मेरा धर्म क्या होगा? भला कौन ऐसा धर्म है जिसे मैं ग्रहण करूँ? मैं किस धर्म में आ सकता हूँ? मैं तो सभी धर्मों में हूँ।

आपका शरीर आपके अधिकार से बाहर भले ही जाय, मन आपके वश में भले ही न रहे, घोर अंधकार की दशा में, अत्यंत यातना क्यों न हो, नितांत निराशा में इसका जप एक दो तीन बार नित्य किया करो। प्रकाश धोरे धीरे आता है, पर

आवेगा अवश्य। [ १७६ ]
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मैं कई बार मृत्यु के मुँह में पड़ चुका हूँ, भूखों मरा हूँ, मेरे पैरों में घाव हो गए हैं और थककर पड़ रहा हूँ। मुझे सप्ताहों भोजन नहीं मिला है, और प्रायः मैं आगे नहीं जा सका। मैं पेड़ के नीचे पड़ा रहा हूँ और मुझे जीवन दूभर हो गया है। मुझ से बोला तक नहीं गया है; मेरी बुद्धि कम काम करने लगी है। पर अंत को मेरे मन में यही आया है कि “मुझे न कोई भय है और न मृत्यु है; न मुझे भूख है, न प्यास है; मैं वह हूँ। सारी प्रकृति भी मुझे नष्ट नहीं कर सकती। वह मेरी दासी है। देव देव महेश्वर अपनी शक्ति को काम में ला। अपने खोए हुए राज्य को ले ले। उठ और चल, ठहर मत।” और मैं उठा, मुझमें फिर शक्ति का संचार हो गया और यह देखिए, मैं जीता जागता आज यहाँ खड़ा हूँ। इसी प्रकार जब जब अंध- कार आवे, अपनी शक्ति का संचार करो; सारी बाधाएँ भाग जायँगी। अंत को यह भी स्वप्न है। यद्यपि पर्वत के बराबर भयानक विपत्ति क्यों न फट पड़े और चारों ओर अंधकार ही अंधकार क्यों न छा जाय, पर वह सब माया ही हैं। डरो मत, और वह निकल गई। उसे दबा दो, वह नष्ट हो जायगी। कुचल दो, वह मर जायगी। डरो मत। इसकी चिंता न करो कि कितनी बार तुम्हें विफलता होगी। इस पर ध्यान न दो। काल अनंत है। आगे बढ़ो; बार बार प्रयत्न करते जाओ। तुम्हें अमरत्व प्राप्त होगा। आप सबके सामने जो संसार में उत्पन्न

हुए है, भले ही हाथ जोड़ते फिरें, पर आपकी सहायता कौन [ १७७ ]
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करने आवेगा? उस मौत की क्या चिंता जिससे कोई बचता ही नहीं? अपनी सहायता आप करो। मित्र, आपकी सहा- यता दूसरा कोई न करेगा। आप ही अपने बड़े शत्रु हैं, आप ही अपने बड़े मित्र हैं। फिर अपनी आत्मा को पकड़ो। अपने पैरों पर खड़े हो। डरो मत। सारे दुःखों और सारी निर्बल- ताओं में अपनी आत्मा को निकालो, वह कितनी ही अस्पष्ट और अव्यक्त क्यों न हो। आप में अंत को साहस आ ही जायगा और आप सिंहवत् गरज उठेंगे―‘सोऽहम्’ ‘सोऽहम्।’ न मैं स्त्री हूँ, न पुरुष हूँ, न देव हूँ, न दैत्य हूँ, न मैं पशु हूँ न वृक्ष, न बनस्पति हूँ; न मैं धनी हूँ, न निर्धन हूँ, न विद्वान् हूँ, न मूर्ख हूँ। मेरी अपेक्षा यह सब कुछ नहीं है क्योंकि मैं वह हूँ, मैं वह हूँ। सूर्य्य, चंद्र और ताराओं को देखो, मैं वह ज्योति हूँ जो उनमें चमक रही है। अग्नि में तेज रूप मैं ही हूँ, विश्व में शक्ति मैं ही हूँ; क्योंकि मैं वह हूँ, मैं वह हूँ।

जो कोई यह समझता है कि मैं छोटा हूँ, वह भूलता है; क्योंकि जो कुछ है, सब आत्मा ही है। सूर्य्य की सत्ता इसलिये है कि मैं यह स्वीकार करता हूँ कि वह है, क्योंकि मैं ही सत्, चित् और आनंद हूँ―नित्यानंद, नित्य शुद्ध और सदा शुभ- दर्शन। देखो, सूर्य्य हमारे देखने का कारण है। पर यदि किसी की द्दाष्ट में दोष हो तो सूर्य्य का कोई दोष नहीं है। वैसे ही मैं भी हूँ। मैं सब अंगों से, सबसे काम कर रहा हूँ; पर कर्म के सुभाशुभ का प्रभाव मुझ पर नहीं पड़ता। मेरे लिये कोई विधि

१२ [ १७८ ]
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नहीं है; कोई कर्म नहीं है। कर्म का अधिष्ठाता मैं हूँ। मैं सदा से हूँ और सदा रहूँगा।

मुझे कभी भौतिक वा सांसारिक पदार्थों में सच्चा सुख नहीं मिला। स्त्री, पुरुष, पुत्र, कलत्रादि में मुझे राग नहीं है, क्योंकि मैं नील आकाश की भाँति अनंत हूँ। नाना वर्ण के बादल आते हैं और क्षण भर में होकर निकल जाते हैं। वे हटे कि फिर वही निर्विकार नील आकाश है। सुख-दुःख, शुभ- अशुभ, मेरे ऊपर क्षण भर के लिये भले ही आकर आवरण डालें, पर मैं फिर भी अचल हूँ। वे चले जाते हैं क्योंकि वे विकारवान् हैं। मैं प्रकाशमान् हूँ क्योंकि मैं निर्विकार हूँ। दुःख आते हैं; मैं जानता हूँ कि वे परिमित हैं, अतः वे जाते भी रहते हैं। यदि बुराई आती है तो मैं जानता हूँ कि वह परिमित है, चली जायगी। मैं अकेला अनंत हूँ, निर्लेप हूँ; क्योंकि मैं अनंत, शाश्वत और निर्विकार आत्मा हूँ। हमारे कवियों का यही कथन है।

मैं वह प्याला हूँ जिसके पीने से सब अमर और सब निर्वि- कार हो जायँगे। डरो मत। इसे मत मानो कि हम परिमित हैं, हम बुरे हैं, हम मर जायँगे। यह सत्य नहीं है।

‘श्रोतव्योमन्तव्यो निदध्यासितव्यः’। हाथ कर्म करे तो मन में सोऽहम् सोऽहम् जपते रहो। इसी को सोचो, इसी को स्वप्न में देखो, जब तक कि यह तुम्हारी अस्थि और मांस में प्रवेश न कर जाय, जब तक कि लघुता, दुर्बलता, दुःख और बुराई का [ १७९ ] स्वप्न नितांत जाता न रहे और यहाँ तक कि सत्य का रूप क्षण भर के लिये भी छिपा न रह जाय ।