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विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/२६ आत्मा और परमात्मा

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विवेकानंद ग्रंथावली : ज्ञान-योग
स्वामी विवेकानंद, अनुवादक जगन्मोहन वर्मा

वाराणसी: नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ २०३ से – २२० तक

 
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(२६) आत्मा और परमात्मा।
(हार्टफोर्ड, अमेरिका)

प्राचीन काल से, शताब्दियों से यह शब्द सुनाई दे रहा है; हिमालय के ऋषि और वानप्रस्थ लोग यही पुकार रहे हैं; यही बातें सेमिटिक लोग पुकार पुकारकर कह रहे हैं; यही उपदेश बुद्धदेव और अन्य धर्मोपदेष्टा गला फाड़ फाड़कर दे रहे हैं; यही ध्वनि उन लोगों के मुँह से निकल रही है जिन लोनों ने पृथ्वी के आदि में प्रकाश को देखा है, उस प्रकाश को जो मनुष्य के साथ जहाँ जहाँ वह जाता है, चलता है और सदा उसके साथ साथ रहता है। वह शब्द हमारे पास आ रहा है। वह शब्द उन छोटे छोटे सोतों की नाई है जो पर्वतों पर से निकलते हैं। कहीं वे गुप्त होते हुए और कहीं प्रकट होते हुए अंत को मिलकर एक प्रचंड बलवती नदी का रूप धर लेते हैं। ये संदेश सारी जातियों और संप्रदायों के महात्मा स्त्री-पुरुषों के मुँह से निकल रहे हैं और मिलकर हमसे डंके की चोट पूर्व काल से यह पुकार पुकारकर कहते आ रहे हैं। वह पहला शब्द जो इनकी ध्वनि से निकलता है, यही है कि सब धर्मों के लिये और तुम्हारे लिये शांति हो। यह विरोध की बात नहीं है, अपितु धर्म की एकता का शब्द है। हमें पहले इसका अर्थ समझना चाहिए। इस शताब्दी के आदि में लोगों को भय था कि अब धर्म का

अंत हो जायगा। वैज्ञानिक अन्वेषणों के हथौड़े के नीचे पुराना
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अंधविश्वास शीशे की भाँति चूर चूर हो रहा था। जिनके पास धर्मविश्वास और बेठिकाने उपचारों की गठरी थी, वे बड़े सोच में, बड़ी निराशा में पड़े थे; उनके अवसान छूट रहे थे। उनके हाथ से सब निकले जा रहे थे। कुछ काल तक तो अब तब लँगा था और संशयवाद और प्रकृतिवाद की बढ़ती हुई लहर सब कुछ जो उसके सामने पड़ता था, साफ करती जा रही थी। ऐसे लोग भी थे जिन्हें एक बात भी जो उनके मन में आती थी, बोलने का साहस नहीं होता था। कितनों ने तो रोग असाध्य समझ लिया था और जान बैठे थे कि सब धर्म सदा के लिये जाते रहेंगे। पर लहर या धार मुड़ गई और हमारे वाण के लिये धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन पहुँच गया। भिन्न भिन्न धर्मों की तुलना से हमें जान पड़ा कि सबका तत्व एक ही है। जब मैं बच्चा था, मुझमें अविश्वास घुसा और मुझे जान पड़ा कि मुझे धर्म के संबंध में सारी आशाएँ त्यागनी पड़ेगी। पर सौभाग्य की बात है कि मुझे ईसाई धर्म, मुसल- मानी धर्म और बौद्धादिक धर्मों के ग्रंथों को पढ़ने का अवकाश मिला और मुझे जान पड़ा कि जिन मूल सिद्धांतों की शिक्षा मेरे धर्म में दी गई है, उन्हीं की शिक्षा सब धर्मों में है। इसका मुझ पर यह प्रभाव पड़ा कि मैं अपने मन में कहने लगा कि सत्य क्या है? क्या वह संसार है? उत्तर मिला, हाँ। मैंने पूछा क्यों? जान पड़ा कि इसलिये कि हमें ऐसा जान पड़ता है। क्या

सुहाने शब्द जो हमें सुनाई पड़ते हैं, सत्य है? हाँ,अवश्य है; हम
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उन्हें सुनते ही हैं। हमें जान पड़ा कि मनुष्य के शरीर है, आँख और कान आदि इंद्रियाँ है। उसमें एक आध्यात्मिक प्रकृति भी है जो दिखाई नहीं पड़ती। इस आध्यामिक शक्ति से वह भिन्न भिन्न धर्मों का अध्ययन कर सकता है और उसे जान पड़ता है कि सब धर्मों की, चाहे उनकी शिक्षा भारतवर्ष के जंगलों में दी गई हो वा ईसाई देशों में, मूल तत्व एक ही है। इससे यह प्रमाणित होता है कि मनुष्य के लिये धर्म की स्वाभाविक रूप से आवश्यकता है। एक धर्म का प्रमाण दूसरे धर्मों की प्रामाणिकता पर अवलंबित है। मान लीजिए कि हमारे छः उँगलियाँ हैं, और किसी के नहीं हैं। आप कहेंगे कि यह अधिकांगता है। यही तर्क वा युक्ति इसके लिये भी काम में आ सकती है कि एक ही धर्म सत्य और दूसरा मिथ्या है। ऐसा एक धर्म उसी छंगुली के समान संसार में अस्वाभाविक होगा। अतः हम देखते हैं कि यदि एक धर्म सत्य है, तो और सब धर्म भी सत्य ही होंगे। असार बातों में अंतर हो सकता है, पर सार रूप में सब एक ही हैं। यदि मेरी पाँच उँगलियों की बात सत्य है, तब तो आपकी पाँच उँगलियाँ भी सत्य ही हैं।

जहाँ मनुष्य हैं, वहीं उनमें विश्वास उत्पन्न होगा और धर्म के भाव का विकास होगा। संसार के भिन्न भिन्न धर्मों के पर्य्यवेक्षण से मुझे दूसरी बात यह जान पड़ती है कि आत्मा और परमात्मा के संबंध में भिन्न भिन्न विचारों की श्रेणियाँ हैं।

पहली श्रेणी तो यह है कि यह बात सब धर्मवाले स्वीकार
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करते हैं कि इस शरीर के अतिरिक्त जो नाशमान है, इसमें एक और अंश है जिसका नाश नहीं है। वह निर्विकार, नित्य, अविनाशी है। पर कुछ धर्मवालों की शिक्षा है कि यद्यपि उस अंश का नाश नहीं है, फिर भी उसका आदि अवश्य है। पर जिसका आदि है, उसका अंत भी अवश्य ही है। हमारे इस शरीर का जो प्रधान वा सार अंश है, उसका न आदि है और न अंत। और इसके परे, इस नित्य स्वभाव के परे एक और नित्य सत्ता है जिसका अंत नहीं है―ईश्वर वा परमात्मा। लोग संसार के आदि और मनुष्य के आदि की बातें करते हैं। आदि का अर्थ है कल्प का आदि वा आरंभ। कहीं यह अर्थ नहीं है कि समस्त का, कार्य्य-कारण रूप सृष्टि का आदि भी कभी है। यह असंभव है कि इस सृष्टि का आरंभ भी हुआ हो। जिसकी आदि है उसका अंत भी अवश्य ही है। भगवद्गीता में कहा है―न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्। (गी० अ० २।१२।) जहाँ जहाँ सृष्टि के आदि की बात है, वहाँ वहाँ कल्पादि ही से अभिप्राय है। आपका शरीर भले ही मर जाय, पर आत्मा कभी नहीं मरता।

आत्मा के इस विचार के साथ ही साथ उसकी पूर्णता के संबंध में कुछ और विचार भी मिलते हैं। आत्मा स्वयं पूर्ण है। इब्रानी नई धर्म पुस्तक में लिखा है कि मनुष्य आदि में पूर्ण

था। मनुष्य ने अपने हाथ से, अपने कर्म से अपने को अपवित्र
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बना लिया। अब उसे अपने खोए हुए स्वभाव को प्राप्त करना है। कुछ लोग इन बातों को रुपक, आख्यायिका और सांके- तिक बातें बताते हैं। पर जब हम इन बातों की छानबीन करते हैं, तब हमें जान पड़ता है कि उनका अर्थ यही है कि मनुष्य की आत्मा स्वरूप से शुद्ध है और मनुष्य को अपनी वास्तविक शुद्धि को प्राप्त करना है। पर उसकी प्राप्ति हो तो कैसे हो? ईश्वर वा परमात्मा के जानने से। जैसा कि इब्रानी बाइबिल में लिखा है कि “कोई ईश्वर को नहीं देख सकता, पर उसके पुत्र के द्वारा।” इसका अर्थ क्या है? यही कि ईश्वर का देखना मनुष्य जीवन का उद्देश है। पुत्रता तभी उत्पन्न होगी जब हम अपने पिता के साथ एकीभूत हो जायँगे। स्मरण रखो कि मनुष्य ने अपनी पवित्रता अपने कर्मों से खोई है। यदि हमें दुःख होता है तो उसके कारण हमारे कर्म ही हैं; ईश्वर का इसमें दोष नहीं है। इसके साथ घनिष्टता से संबंध रखनेवाला विश्वव्यापी पुनर्जन्म का विचार भी था; पर उसे यूरोपियनों ने छिन्न भिन्न कर डाला।

आप लोगों में कितनों ने इस सिद्धांत को सुना होगा और भूल गए होंगे। पुनर्जन्म का सिद्धांता आत्मा की नित्यता के सिद्धांत के साथ ही साथ चलता है। जिसका अंत है, वह अनादि नहीं हो सकता; जिसका आदि है, वह अनंत हो नहीं सकता। हम ऐसी असंभव बात को जैसी मनुष्य की आत्मा के

आरंभ की बात है, मान नहीं सकते। पुनर्जन्म के सिद्धांत से
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आत्मा को मुक्त-स्वभावता सिद्ध होती है। मान लीजिए कि आदि है ही, तो मनुष्य की अपवित्रता का सारा भार ईश्वर पर पड़ता है। वह दयामय पिता संसार के पापों का उत्तरदायी! यदि पाप इस प्रकार पाते हैं, फिर एक दूसरे से अधिक दुःखी क्यों हैं? यह पक्षपात की बात क्यों, जब पाप दयामय ईश्वर ही के कारण हैं। फिर करोड़ो मनुष्य लात क्यों खा रहे हैं, भूखों क्यों मरते हैं और जिन्होंने कुछ किया ही नहीं, वे दुःख क्यों भोग रहे हैं? इसका उत्तरदाता कौन है? यदि इसमें हमारा कोई वश नहीं, तब तो ईश्वर ही के सिर इसका भार है। अतः इससे अच्छा समाधान यही है कि मैं ही अपने दुःख का कारण हूँ। यदि मैं चक्कर को चलाता हूँ तो उसके चलाने का उत्तरदाता मैं हूँ। यदि मैं दुःख को ला सकता हूँ, तो मैं उसे दूर भी कर सकता हूँ। इससे यही निकलता है कि मैं स्वतंत्र हूँ। भाग्य कोई वस्तु है ही नहीं। कोई हमें बाध्य नहीं कर सकता। जिसे मैंने किया है, मैं उसे मिटा भी सकता हूँ।

इस सिद्धांत के संबंध में एक युक्ति सुनने के लिये मैं आप से धैर्य्य करने की प्रार्थना करूँगा। कारण यह है कि वह कुछ गहन है। हमें ज्ञान अनुभव से होता है; यही ज्ञान का एक मात्र साधन है। जिसे हम अनुभव कहते हैं, वह चेतन अवस्था में होता है। उदाहरण के लिये मान लीजिए कि एक मनुष्य पियानो बजा रहा है। वह उसकी कुंजियों पर समझ बूझकर हाथ फेरता जाता है। वह इस प्रकार हाथ फेरता जाता है और फिर उसकी उँगलियाँ आपसे आप फिरने लगती हैं। फिर वह किसी राग को बिना स्वर का ध्यान किए ही बजा सकता है। यही बात हमें अपने संबंध में भी जान पड़ती है। हमारी प्रवृत्तियाँ हमारे पूर्व के ज्ञानपूर्वक अभ्यास से उत्पन्न हुई हैं। बच्चा कुछ प्रवृत्तियाँ लेकर उत्पन्न होता है। पर वे आती कहाँ से हैं? कोई बच्चा बिना संस्कार के, वासनाहीन और सादा चित्त लेकर उत्पन्न नहीं होता। उस पर पूर्व के संस्कार रहते हैं। यूनान और मिस्र के दार्शनिकों का सिद्धांत था कि कोई बालक वासनाहीन चित्त लेकर नहीं उत्पन्न होता। प्रत्येक बच्चा अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के सैंकड़ों संस्कार लेकर उत्पन्न होता है। उसमें इस जन्म के उपार्जित संस्कार नहीं होते; और हम यह मानने के लिये बाध्य हैं कि वे अवश्य उसके पूर्व जन्म के संस्कार हैं जिन्हें वह साथ लाता है। घोर से घोर अनात्मवादी वा प्रकृतिवादी भी यह स्वीकार करता है कि यह पूर्व जन्मों के कर्म के फल हैं। उनका केवल इतना ही अधिक कहना है कि यह पितृ-पैतामहिक दाय है। अब यदि दाय मात्र से काम चल जाय तो आत्मा के मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं है और शरीर ही से सारे संशयों का समाधान हो जाता है। पर हमें अध्यात्मवाद और अनात्म- वाद के तर्कवितर्क और वादविवाद यहाँ लाने की आवश्य- कता नहीं है। हम देखते हैं कि युक्तिपूर्वक निगमन के लिये पूर्व जन्म का स्वीकार करना आवश्यक है। यही पूर्व काल से लेकर आज तक के दार्शनिकों का विश्वास रहा है। यहूदी लोगों का ऐसे ही सिद्धांत पर विश्वास था। ईसा मसीह का भी इस पर विश्वास था। वह बाइबिल में कहता है कि ‘मैं इब्राहम से भी पहले था।’ एक और जगह वह कहता है कि ‘यही इलियास था जो आगे को हुआ।’

सारे धर्म जो भिन्न भिन्न जातियों में भिन्न दशा में प्रच- लित हुए हैं, एशिया खंड ही से उत्पन्न हुए हैं और एशिया के लोग ही उन्हें ठीक ठीक समझ सकते हैं। जब वे मातृभूमि के बाहर गए, तब उनमें मिथ्या बातें मिल गई। ईसाई धर्म के अति गंभीर और उदार विचारों को यूरोप में इस कारण लोगों ने नहीं समझा कि लिखनेवालों के भाव और विचार उनके लिये विदेशी थे। उदाहरण के लिये मरियम के चित्र को ले लीजिए। सब चित्रकार अपने अपने विचार के अनुसार मरियम के चित्र बनाते हैं। मैंने ईसा के अंतिम भोजन के सैंकड़ों चित्र देखे हैं। ईसा को मेज पर बैठाया गया है। पर ईसा मेज पर कभी नहीं बैठते थे। वे अपने शिष्यों के साथ भूमि पर बैठते थे और उनके सामने एक प्याला रहता था जिसमें वे अपनी रोटियाँ डुबाकर खाते थे। वह रोटी आपकी रोटी सी नहीं होती थी। उस कटोरे वा प्याले में सालन रहता था और वे उसीमें रोटियाँ डुबाकर खाते थे। ईसा के इस वाक्य से यही सिद्ध होता है―“वही जो आज मेरे साथ रोटियाँ डुबाकर खा रहा है, मुझे पकड़वावेगा।” दूसरों की अपरिचित प्रथा को समझना किसी जाति के लिये कठिन है; तो फिर युरोपवालों के लिये यहूदियों की उस अज्ञात प्रथा को समझना कितना कठिन था जिसकी बात शताब्दियों के परिवर्तन होने पर यूनानियों, रोमनों और अन्य जातियों से होकर उन तक पहुँँची थी। इसमें संदेह नहीं कि उन सारी पौराणिक गाथाओं और कल्पनाभों के भीतर ढके हुए होने पर भी ईसाई धर्म के भाव को लोगों ने बहुत कम जान पाया है और निस्संदेह उसे लोगों ने आजकल का बाजारू धर्म बना लिया है।

अब हम फिर अपने आशय पर आते हैं। लगभग सभी धर्मों में आत्मा की नित्यता की शिक्षा है; और यह भी बात मिलती है कि उसका प्रकाश मंद पड़ गया और उसे पुनः ईश्वर के ज्ञान से उसकी पहली पवित्रता प्राप्त हो जायगी। इन भिन्न भिन्न धर्मों में ईश्वर के विषय में क्या विचार हैं? ईश्वर के संबंध में जो प्रारंभिक विचार है वह बड़ा ही भोंडा है―अव्यक्त है। प्राचीन जातियों के सूर्य्य, पृथ्वी, वायु, जल आदि भिन्न भिन्न देवता थे। यहूदियों में हमें बहुतेरे ऐसे ही देवता मिलते हैं जो परस्पर लड़ते भिड़ते रहते थे। फिर हमें इलोहिम मिलता है जिसकी पूजा यहूदियों और बाबुलवालों में होती थी। फिर हम देखते हैं कि उनमें एक की प्रधानता हो चली थी पर भिन्न भिन्न जत्थों के भाव अलग अलग थे। सब यही समझते थे कि हमारा ईश्वर सबसे बड़ा है। वे लोग इसे लड़कर सिद्ध करना चाहते थे। जो संग्राम में अच्छा लड़ता था, वही अपने ईश्वर को सबसे बड़ा प्रमाणित कर सकता था। ये जातियाँ कुछ न कुछ जंगली थीं। पर धीरे धीरे पुराने विचारों के स्थान पर नए विचार आते गए। वे सब पुराने विचार चले गए और चले जा रहे हैं। वे सब धर्म शताब्दियों की वृद्धि के फल थे; कुछ आकाश से नहीं टपके थे। सब अणु अणु करके बने थे। फिर एकेश्वरवाद का भाव आया, अर्थात् एक ईश्वर पर विश्वास जो सर्वव्यापी और सर्वशक्ति- मान् हो, विश्व मात्र का एक ईश्वर हो। यह ईश्वर सृष्टि से परे होता है और स्वर्ग में रहता है। उसमें उसकी कल्पना करनेवालों के ठोस विचार भरे रहते हैं। उसका दाहिना और बायाँ होता है और उसके हाथ में एक पोथी रहती है। पर एक बात हमें देख पड़ती है कि ये भिन्न भिन्न जत्थों के ईश्वर अब सदा के लिये जाते रहे और उनका स्थान विश्व के ईश्वर ने, जो देवताओं को भी देवता था, ले लिया। फिर भी वह वही अलौकिक ही बना रहा। न उसके पास कोई पहुँच सकता, न कुछ उसके पास जा सकता था। पर धीरे धीरे यह विचार भी बदल गया और हमें ईश्वर अपने ही स्वरूप में सन्निहित मिलता है।

नई नियम की पुस्तक में यह कहा गया है कि ‘हमारे पिता जो आकाश वा स्वर्ग में हैं।’ अर्थात् स्वर्ग में रहनेवाला ईश्वर मनुष्यों से अलग है। हम पृथ्वी पर रहते हैं, वह स्वर्ग में। फिर आगे चलकर हमें इस बात को शिक्षा मिलती है कि ईश्वर प्रकृति में अंतर्भूत है। वह केवल स्वर्ग ही का ईश्वर नहीं है, अपितु पृथ्वी पर भी वह है। वह ईश्वर हममें भी है। हिंदू-दर्शनों में हमें ईश्वर के अपने सान्निध्य की इसी प्रकार की श्रेणी मिलती है। पर हमें यहीं पड़े न रहना चाहिए। आगे चलकर अद्वैतवाद मिलता है। वहाँ चलकर मनुष्य को जान पड़ता है कि मैं जिस ईश्वर की उपासना करता हूँ, वह स्वर्ग और पृथ्वी का पिता नहीं है, अपितु वहाँ “मैं और मेरा बाप एक ही हैं” की बात है। वह अपनी आत्मा में यह साक्षात् करता है कि मैं स्वयं ईश्वर हूँ। केवल उसकी एक लघु अभि- व्पक्ति मात्र हूँ। मुझमें जो सत्य है, वही है; उसमें जो सत् है, वह मैं हूँ। ईश्वर और मनुष्य के बीच के गड्ढे पर सेतु बँध गया। इस प्रकार हमें जान पड़ता है कि ईश्वर के जानने से हमें स्वर्ग का साम्राज्य कैसे मिल जाता है। पहली वा द्वैत् अवस्था में मनुष्य यह समझता है कि मैं व्यक्ति विशेष आत्मा देवदत्त वा यज्ञदत्त हूँ। वह कहता है कि मैं सदा देवदत्त वा यज्ञदत्त रहूँगा, और दूसरा न होऊँगा। चाहे घातक भले ही आवे और कहे कि मैं मार डालूँगा। देवदत्त यज्ञदत्त भले ही न रहें, पर वह शुद्ध आत्मा में लौट जायगा।

‘धन्य हैं वे जिनके हृदय शुद्ध हैं, क्योंकि वे ईश्वर को देखेंगे’। क्या हम ईश्वर को देख सकते हैं? वास्तव में नहीं देख सकते। क्या हम ईश्वर को जान सकते हैं? वास्तव में नहीं जान सकते। यदि ईश्वर जाना जा सके तो वह ईश्वर ही न रहेगा। ज्ञान तो सीमा है। पर “मैं और मेरा बाप एक ही हैं।” मुझे अपनी आत्मा में ही सत् मिलता है। किसी किसी धर्म में यह भाव व्यक्त किया गया है; औरों में संकेत मात्र से आया है। किसी में वह बिल्कुल निकाल ही दिया गया है। ईसा की शिक्षाओं को इस देश में लोग बहुत कम समझते हैं। आप क्षमा करें, मैं यह कह सकता कि उनको कभी किसी ने नहीं समझा।

वार्धक्य की भिन्न भिन्न श्रेणियों की पूर्णता और पवित्रता लाभ करने को बड़ी आवश्यकता है। धर्म के भिन्न भिन्न संप्र- दायों का आधार वही भाव है। ईसा कहता है कि “स्वर्ग का साम्राज्य तुम्हारे भीतर है।” फिर वह यह भी कहता है कि, ‘हमारे बाप जो स्वर्ग में हैं’। इन दोनों परस्पर विरुद्ध बातों का समाधान क्या? इनका परिहार यह है। जब उसने अंतिम वाक्य कहा तब वह अशिक्षितों से, जो धर्म की बात नहीं जानते थे, बातें करता था। उनसे उन्हीं की बोलचाल में बातें करना उचित है। जनसाधारण को स्थूल भाव की आवश्यकता है, ऐसी चीज की जिसका ग्रहण वे अपनी इंद्रियों से कर सकें। संभव है, संसार में कोई बड़ा विद्वान् हो, पर वह धर्म की बातों में बाल-धी हो। जब मनुष्य की आध्यात्मिकता प्रोन्नत हो जाती है, तभी वह इस बात को कि स्वर्ग का राज्य मेरे ही भीतर है, समझ सकता है। यह मन का वास्तविक साम्राज्य है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जो स्पष्ट विरोध और असंबद्धता धर्मों में मिलती है, वह वृद्धि की भिन्न भिन्न अवस्थाओं ही के कारण है, उनकी ही द्योतक है। इस प्रकार हमें किसी के धर्म पर दोषारोपण करने की आवश्यकता नहीं है। वृद्धि की ऐसी भी दशाएँ हैं जहाँ मूर्तियों, प्रतीकों और विभिन्नताओं की आव- श्यकता है। वे ऐसी भाषाएँ हैं जिन्हें उन पर विश्वास रखने- वाली आत्माएँ ही समझ सकती हैं।

दूसरी बात जो मैं आपके सामने लाना चाहता हूँ, यह है कि धर्म में विधि और वाद नहीं हुआ करते। इसकी कोई बात नहीं कि आप क्या पढ़ते हैं वा आप किस वाद को मानते हैं। बात यह है कि आप साक्षात् क्या करते हैं। “धन्य हैं वे जिनका अंतःकरण शुद्ध है क्योंकि वे ईश्वर को देखेंगे”। हाँ इसी जन्म में देखेंगे; और वही मोक्ष है। जगत् में ऐसे लोग भी हैं जो यह शिक्षा देते हैं कि वह शब्दों के उच्चारण मात्र से मिल सकता हूँ। पर किसी बड़े महात्मा की शिक्षा यह है कि मोक्ष के लिये बाह्य बातों की आवश्यकता नहीं है। इसके प्राप्त करने की शक्ति हमारे भीतर है। हम ईश्वर में रहते हैं और उसी में चलते फिरते हैं। मत और संप्रदाय अपना काम करते रहते हैं। वे बच्चों के लिये हैं और थोड़े ही दिन तक रहते हैं। पुस्तकें धर्म का कारण नहीं हैं, अपितु धर्म पुस्तकों के कारण हैं। हमें यह भूल न जाना चाहिए। किसी पुस्तक ने ईश्वर को नहीं उत्पन्न किया, पर ईश्वर ने सारी बड़ी बड़ी पुस्तकें प्रेरणा करके प्रकट कीं। किसी पुस्तक ने आत्मा को उत्पन्न नहीं किया। हमें यह भूल न जाना चाहिए। सभी धर्मों का परिणाम वा अंत ईश्वर को आत्मा में साक्षात् मात्र करना है। यही एक विश्वव्यापी धर्म है। यदि कोई सत्य सारे धर्मों में है, तो मैं कह सकता हूँ कि वह ईश्वर का साक्षात्कार मात्र है। भाव और रीतियों में भेद भले ही हो, पर सब में व्यापक भाव वही है। सहस्रों भिन्न भिन्न व्यासार्ध वा त्रिज्याएँ भले ही हों, पर सब एक ही केंद्र पर मिलती हैं और यही ईश्वर का साक्षात्कार है। वही जो इस इंद्रिय के जगत् के परे, इस नित्य के खाने पीने तथा व्यर्थ वकवास के जगत् के परे और इस मिथ्या छाया तथा स्वार्थ के जगत् के परे है। वह संसार की सारी पुस्तकों से परे, सारे संप्रदायों से परे, सारे अहंकार से परे है और यही अपने भीतर ईश्वर का साक्षात्कार है। कोई मनुष्य सारे संसार के धर्मों को क्यों न मानता हो, वह सारी पवित्र पुस्तकों की गठरी सिर पर क्यों न लादे चले, वह सारी पवित्र नदियों में स्नान क्यों न कर चुका हो, फिर भी यदि उसे ईश्वर का बोध नहीं है तो मैं उसे घोर नास्तिक मानता हूँ। और कोई मनुष्य जो कभी किसी गिरजा वा मंदिर में न गया हो, न कोई पूजा- प्रतिष्ठा करता हो, पर यदि वह अपने भीतर ईश्वर का साक्षात् करके इस मिथ्या जगत् से पार पहुँच गया हो तो वही महात्मा, ऋषि, मुनि सब कुछ है। ज्यों ही कोई उठकर यह कहता है कि मैं और मेरा धर्म सच्चा है, दूसरे सब झूठे हैं, वह आप सबसे बढ़कर झूठा है। वह यह नहीं जानता कि उसका सच्चा होना दूसरों के सच्चे होने ही पर अवलंबित है। सारी मनुष्य जाति के लिये प्रेम और दानशीलता ही सच्ची धार्मिकता की पहचान है। मैं केवल इस बात के मौखिक कहने को कि सब लोग भाई हैं, नहीं मानता। यह मनुष्य मात्र के जीवन को एक समझने की बात है। जहाँ तक वे भिन्न नहीं हैं, मेरी समझ में सारे मत और संप्रदाय मेरे ही हैं, सब अच्छे हैं। वे सब लोग सच्चे धर्म के सहायक हैं। मैं यह कहूँगा कि संप्रदाय में जन्म ग्रहण करना बहुत अच्छा है, पर संप्रदाय में आजन्म पड़े रहना अच्छा नहीं है। बच्चे होकर उत्पन्न होना बहुत ही अच्छा है, पर सदा बच्चे बने रहना अच्छा नहीं है। मंदिर, पूजा और कर्मकांड यह सब बच्चों के लिये बहुत ही अच्छे हैं। पर जब वे बड़े हो जाते हैं, तब उनको मंदिर आदि की आव- श्यकता नहीं रहती। हमें सदा बच्चे ही नहीं बने रहना चाहिए। यह तो वैसी ही बात है कि कोई एक ही अँगरखे को सब छोटे बड़े को पहनाना चाहे। मैं संसार में संप्रदायों के होने का खंडन नहीं करता। ईश्वर करे कि वे दो करोड़ से भी अधिक हो जायँ; और हैं भी। जितना वे बढ़ेंगे, उतना ही चुनने के लिये लोगों को अवसर मिलेगा। जिस बात पर मेरी आपत्ति है, वह यह है कि किसी एक धर्म को सब दशाओं में प्रयुक्त करना। यद्यपि सभी धर्म सारतः एक ही हैं, पर उन सबके भिन्न भिन्न रूप भिन्न भिन्न जातियों में विभिन्न अवस्थाओं के कारण हो गए हैं। हमें अपना निज का धर्म, जहाँ तक कि बाह्य अवस्था से संबंध है, रखना चाहिए।

बहुत दिन हुए, मुझे अपने देश में एक महात्मा से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हम प्रेरित पुस्तकों के विषय में जैसे हमारा वेद, आपकी इंजील और मुसलमानों का कुरान है, सामान्य रूप से बातें करते रहे। जब बातें हो चुकीं, तब महात्मा ने मुझ से कहा कि मेज पर जाओ और उस पर से एक पोथी उठा लाओ। वह एक ऐसी पुस्तक थी जिसमें और बातों के अतिरिक्त वर्ष में होनेवाली वर्षा के संबंध की बातों का वर्णन भी था। महात्मा ने कहा, इसे पढ़ो। मैंने उसमें यह पढ़ा कि इस वर्ष इतनी वर्षा होगी। फिर उसने कहा कि इस पुस्तक को ले जाकर निचोड़ो। मैंने उसे निचोड़ा। तब महात्मा ने कहा, बच्चा, इससे तो एक बूँँद भी पानी नहीं निकला। जब तक पानी न निकले, तब तक यह पुस्तक ही पुस्तक है। इसी प्रकार जब तक धर्म से आपको ईश्वर का बोध न हो, तब तक वह व्यर्थ है। जो पुस्तकों को धर्म के लिये पढ़ता है, वह वैसा ही है जैसा कि वह गधा जिस पर शक्कर की गाँठ लदी थी, पर जिसे उसकी मिठास का बोध नहीं था।

क्या लोगों को हम यह सम्मति दें कि घुटने टेककर चिल्लायो किं हम हीन और पापी हैं? नहीं कभी नहीं, हमें उनको उनकी दैवी प्रकृति का स्मरण दिलाना चाहिए। मैं आपसे एक कहानी कहूँगा। पक सिंहनी शिकार ढूँढ़ती हुई भेड़ों के एक झुंड पर झपटी। वह एक भेड़ के ऊपर टूटी कि इसी बीच में उसे वहीं बच्चा उत्पन्न हुआ और वह मर गई। वह सिंह का बच्चा भेड़ों के झुंड में पला। वह घास चरता था और में में करता था। उसे इसका ज्ञान नहीं था कि मैं सिंह हूँ। एक दिन एक सिंह भेड़ों के झुंड के सामने आ गया। उसे यह देखकर आश्चर्य्य हुआ कि झुंड में एक बड़ा सिंह है जो घास चरता और में में करता है। सिंह को देखते ही सब भेड़ें भागीं और वह सिंह भी जो भेड़ों में पला था, उन्हीं के साथ भागा। सिंह अवकाश की प्रतीक्षा करता रहा। उसे एक दिन वह भेड़ों में रहनेवाला सिंह सोता मिला। उसने उसे जगाया और कहा कि तुम सिंह हो। वह नहीं कहकर में में करने लगा। पर वह सिंह उसे पकड़कर एक झील के किनारे ले गया और बोला कि अपनी छाया तो देखो कि मेरा और तुम्हारा रूप एक है या नहीं। उसने देखकर कहा कि हाँ, है तो। फिर वह सिंह गरजा और उससे बोला―गरजो। भेड़ों में रहनेवाले सिंह ने गरजने का उद्योग किया और वह वैसे ही गरजने लगा। फिर वह भेड़ न रह गया। मित्रो, मैं तो तुमसे यही कहना उचित सम- झूँगा कि तुम सिंह हो।

यदि घर में अंधकार है, तो क्या तुम यह रोते पीटते फिरोगे कि―"अंधकार है। अंधकार है"? कभी नहीं, इसका उपाय यही है कि दीपक जलाओ, अंधकार भाग जायगा। प्रकाश के उत्पन्न करने का एक मात्र उपाय यही है कि तुम अपने भीतर अध्यात्म का दीया जलाओ, फिर पाप और अपवित्रता का अंधकार भाग जायगा। अपनी उच्च आत्मा का ध्यान करो, नीच आत्मा का नहीं।